Monday, April 29, 2013

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में हार सुरेश जिंदल की नहीं, अजय बुद्धराज की हुई है और जीत का सेहरा वीके हंस के साथ-साथ विजय शिरोहा के सिर भी बँधा है

नई दिल्ली । सुरेश जिंदल की चुनावी पराजय के रूप में आख़िरकार वही घटित हुआ, जिसके घटने की इबारत दीवार पर पिछले कई दिनों से साफ-साफ लिखी नजर आ रही थी । इस इबारत को हर कोई स्पष्ट रूप से पढ़ पा रहा था; केवल सुरेश जिंदल की उम्मीदवारी के समर्थक कुछेक - सभी नहीं, सिर्फ कुछेक नेता ही इसे नहीं पढ़ पा रहे थे । सुरेश जिंदल की पराजय की इबारत को पढ़ तो वह भी रहे थे, लेकिन उन्हें चूँकि सुरेश जिंदल से पैसे ऐंठने थे इसलिए वह जो 'पढ़' रहे थे, उसे स्वीकार नहीं कर रहे थे । उनके लिए सुरेश जिंदल को झाँसे में बनाये रखना जरूरी था - और इसीलिये वह सुरेश जिंदल को लगातार आश्वस्त किये हुए थे कि जैसे भी होगा और जो भी करना होगा 'हम तुम्हें जितवायेंगे ।' वोटों की गिनती के मौके पर मौजूद एक वरिष्ठ लायन नेता ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि वोटों की गिनती जब पूरी हो चुकी थी और रिजल्ट घोषित किया जाने वाला था, तब भी सुरेश जिंदल की उम्मीदवारी के समर्थक नेता उनके जीतने का दावा कर रहे थे और उनसे बकाया रकम बसूल रहे थे । सुरेश जिंदल से पूरा पैसा बसूलने के बाद ही रिजल्ट घोषित होने दिया गया ।
चुनावी नतीजे के रिकॉर्ड के अनुसार सुरेश जिंदल चुनाव हारे हैं - पर वह तो सिर्फ इस्तेमाल हो रहे थे; इसलिए वास्तव में वह नहीं हारे हैं । हारे तो उनके समर्थक नेता हैं - उनके समर्थक नेताओं में भी कुछेक तो बेचारे पहले से ही हारे हुए-से हैं, इसलिए उनकी हार कोई नई बात नहीं है - जैसे हर्ष बंसल और चंद्रशेखर मेहता । हर्ष बंसल के बारे में जो कहा जाता रहा है, वह एक बार फिर सच साबित हुआ कि हर्ष बंसल जिसके साथ हैं उसे तो फिर कोई भी नहीं बचा सकता । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश त्रेहन को राजनीतिक रूप से कुछ पाना/खोना नहीं था - उनकी चिंता तो डिस्ट्रिक्ट कांफ्रेंस के खर्चे का जुगाड़ हो जाने तथा ड्यूज मिल जाने तक की थी, जिसे उन्होंने सुरेश जिंदल को फाँस लेने के साथ पूरा कर लिया । बड़ा दाँव अजय बुद्धराज का था । अजय बुद्धराज पिछले कई वर्षों से डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के सबसे ताकतवर नेता 'बने हुए' थे । उनकी अच्छी चौधराहट चल रही थी, लेकिन उनकी दो समस्याएँ थीं - एक तो यह कि उनका ग्रुप 'डीके अग्रवाल ग्रुप' के नाम से जाना/पहचाना जाता था और दूसरी यह कि उनकी चौधराहट दीपक टुटेजा पर आश्रित थी । इन दोनों कारणों से उन्हें कई बार यह लगता था - यह इसलिए भी लगता था क्योंकि दूसरे लोग उन्हें इसका अहसास कराते रहते थे - कि उनसे ज्यादा अहमियत इन दोनों को मिलती है । डीके अग्रवाल को नाम के कारण और दीपक टुटेजा को काम के कारण ।
सुरेश जिंदल की उम्मीदवारी में अजय बुद्धराज को इन दोनों समस्याओं से एक साथ छुटकारा पाने का मौका नजर आया । सुरेश जिंदल की उम्मीदवारी का जो ब्ल्यू प्रिंट राकेश त्रेहन ने उन्हें दिखाया उसमें अजय बुद्धराज ने 'देखा' कि सुरेश जिंदल की जीत के साथ ही उनका ग्रुप 'डीके अग्रवाल ग्रुप' नहीं, बल्कि 'अजय बुद्धराज ग्रुप' के नाम से जाना/पहचाना जायेगा और दीपक टुटेजा पर भी उनकी निर्भरता ख़त्म हो जायेगी; लोगों का यह मानना/कहना भी झूठ साबित हो जायेगा कि अजय बुद्धराज की मुट्ठी बंद है इसलिए वह लाख की लगती है, खुलेगी तो पता चलेगा कि वह तो खाक की है । इसी भरोसे और उम्मीद में अजय बुद्धराज ने सुरेश जिंदल की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया । अजय बुधराज जानते थे कि चुनाव सुरेश जिंदल का नहीं है, बल्कि उनका है और इसीलिये इस बार के चुनाव में उन्होंने जितनी भागदौड़ की, इससे पहले कभी नहीं की थी । लेकिन चुनावी नतीजे ने बताया है कि उनकी भागदौड़ का उन्हें कोई फायदा नहीं मिला और उनकी जिस मुट्ठी को खाक का समझा/पहचाना जा रहा था, वह सही ही समझा/पहचाना जा रहा था । इसीलिये सुरेश जिंदल की चुनावी हार वास्तव में अजय बुद्धराज की हार है । सुरेश जिंदल की चुनावी पराजय के साथ अजय बुद्धराज की चौधराहट और उनकी नेतागिरी की पोल खुल गई है ।
जीता कौन ? चुनावी नतीजे के रिकॉर्ड के अनुसार जीत तो वीके हंस की हुई है लेकिन उनकी उम्मीदवारी पर दाँव बहुतों का लगा था इसलिए जीत उन उन लोगों की भी है । दीपक टुटेजा के सामने भी कठिन परीक्षा की घड़ी थी । उल्लेखनीय है कि जब दीपक टुटेजा, अरुण पुरी और दीपक तलवार ने वीके हंस की उम्मीदवारी का समर्थन करने का फैसला किया था, तब अजय बुद्धराज ने अरुण पुरी और दीपक तलवार को मनाने का तो जोरदार प्रयास किया था; लेकिन दीपक टुटेजा के मामले में उनका रवैया 'जाता है तो जाये' वाला था । अजय बुद्धराज को दरअसल साबित ही यह करना था कि वह दीपक टुटेजा के समर्थन के बिना भी चुनाव जीत/जितवा सकते हैं । इसीलिये उन्होंने दीपक टुटेजा को वापस अपने साथ लाने का कोई प्रयास नहीं किया । ऐसे में, दीपक टुटेजा के सामने यह साबित करने की चुनौती थी कि अजय बुद्धराज की नेतागिरी के पीछे उनके काम की ताकत थी । राजिंदर बंसल और केएल खट्टर के सामने प्रदीप जैन की चुनावी हार से मिले दाग को धोने का लक्ष्य था । सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती लेकिन विजय शिरोहा के सामने थी ।
सुरेश जिंदल की उम्मीदवारी के जरिये, राकेश त्रेहन और अजय बुद्धराज ने जो ताना-बाना बुना था - उसका मूल उद्देश्य दरअसल विजय शिरोहा को घेरना, उन्हें अपमानित करना और उन्हें अलग-थलग कर देने का ही था । विजय शिरोहा के साथ राकेश त्रेहन का झगड़ा तो कई बार लोगों के सामने आया है । राकेश त्रेहन को लगता है कि उनकी कई 'योजनाएँ' विजय शिरोहा के कारण ही फेल हुई हैं, इसलिए उनके लिए विजय शिरोहा से बदला लेना जरूरी हुआ । अजय बुद्धराज को राकेश त्रेहन की बदले की कार्रवाई में यह फायदा नजर आया कि विजय शिरोहा अलग-थलग पड़ेंगे तो दीपक टुटेजा कमजोर होंगे । विजय शिरोहा के लिए यह चुनाव जीने/मरने जैसा मामला था । विजय शिरोहा ने इसी रूप में इसे लिया भी । उन्होंने अपने चुनाव में उतनी मेहनत नहीं की थी, जितनी उन्हें इस चुनाव में करनी पड़ी । मेहनत के साथ-साथ विजय शिरोहा ने जिस तरह की रणनीति अपनाई, उसने उनके विरोधियों को भी चकरा कर रखा । चुनाव वाले दिन राकेश त्रेहन लोगों को मजे ले ले कर बता रहे थे कि पिछले पाँच/छह दिनों में उन्होंने विजय शिरोहा को अपने घर के कई कई चक्कर कटवाए हैं । राकेश त्रेहन इसी बात से खुश दिखे कि विजय शिरोहा ने उनके घर के कई कई चक्कर काटे, वह यह देखने/समझने में विफल रहे कि उनके घर के चक्कर काट काट कर विजय शिरोहा ने उन्हें ऐसा 'बाँध दिया' कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में वह सुरेश जिंदल के लिए जो कुछ कर सकते थे उसे वह कर ही नहीं पाए । सुरेश जिंदल और उनके नजदीकियों के लिए राकेश त्रेहन का रवैया खासा पहेलीभरा रहा - चुनावी नतीजा घोषित होने के बाद उनका आरोप रहा कि राकेश त्रेहन या तो विजय शिरोहा से जा मिले थे और या विजय शिरोहा ने उन्हें ऐसा फँसा दिया था कि उनके पास करने को कुछ रह ही नहीं गया था ।
विजय शिरोहा ने राकेश त्रेहन को फँसा कर उन्हें 'बेकार' तो बाद में किया था, उससे पहले उन्होंने केएल खट्टर और राजिंदर बंसल के साथ अपने तार जोड़ कर विरोधी खेमे के उन नेताओं को हैरान कर दिया था, जो यह मान कर चल रहे थे कि विजय शिरोहा इन दोनों के साथ 'बैठने' के लिए तैयार ही नहीं होंगे । विजय शिरोहा खुद तो इनके साथ बैठे ही, केएल खट्टर और सुशील खरिंटा जैसे धुर विरोधियों को भी उन्होंने एक साथ बैठा दिया । सिर्फ इतना ही नहीं, केएल खट्टर और राजिंदर बंसल के साथ दीपक टुटेजा और अरुण पुरी को बैठाने का कमाल भी विजय शिरोहा ने ही किया । यह काम कर भी वही सकते थे । हरियाणा फोरम के झंडे तले हालाँकि केएल खट्टर और राजिंदर बंसल ने कम भागदौड़ नहीं की, लेकिन उनकी भागदौड़ को वोट में बदलने और भरोसे का संगठित रूप देने का काम विजय शिरोहा ने ही किया । राकेश त्रेहन और अजय बुद्धराज की राजनीति वास्तव में विजय शिरोहा का गलत आकलन करने के कारण ही पिटी । इन दोनों का मानना था कि विजय शिरोहा के बस की राजनीति करना नहीं है ।
राजिंदर बंसल की पहल और सक्रियता से बने हरियाणा फोरम का झंडा जब विजय शिरोहा के हाथ में थमाया गया था तब राकेश त्रेहन और अजय बुद्धराज ने मजाक उड़ाते हुए कहा था कि राजिंदर बंसल और केएल खट्टर ने विजय शिरोहा को फँसा दिया है तथा अपने गले में पड़ा मरा हुआ साँप उन्होंने विजय शिरोहा के गले में डाल दिया है । बाद की घटनाओं ने लेकिन साबित किया कि राजिंदर बंसल की चाल कामयाब रही और विजय शिरोहा पर भरोसा करने का अच्छा नतीजा मिला । वीके हंस की चुनावी जीत में यूँ तो बहुत लोगों का सहयोग रहा, लेकिन यदि किसी एक का नाम लेने की शर्त हो तो निस्संदेह वह नाम विजय शिरोहा का ही होगा । यहाँ इस तथ्य को याद करना प्रासंगिक होगा कि वीके हंस की उम्मीदवारी के समर्थन में जो नेता जुटे, उन्होंने वीके हंस का समर्थन करने से शुरुआत नहीं की थी - वह तो सुरेश जिंदल की उम्मीदवारी के समर्थक नेताओं द्धारा अलग-थलग कर दिए गए थे और उनके बीच भी कई कई तरह के झगड़े-झंझट थे । उनके सामने पहले तो अपने अपने झगड़े-झंझट भूलकर और या उन्हें निपटा कर एकजुट होने की चुनौती थी, फिर उन्हें अपना एक उम्मीदवार चुनना था, उस उम्मीदवार को भरोसा दिलाना था और फिर उस भरोसे को क्रियान्वित करना था - इतना सब करने में केंद्रीय भूमिका विजय शिरोहा ने निभाई । वीके हंस की उम्मीदवारी के समर्थक नेताओं की खूबियों और कमियों का आकलन करें तो पायेंगे कि यह केंद्रीय भूमिका विजय शिरोहा ही निभा सकते थे । राजिंदर बंसल ने शायद इसी आकलन के चलते कमान विजय शिरोहा को सौंप दी थी । विजय शिरोहा की जिस खूबी को देख पाने में राकेश त्रेहन और अजय बुद्धराज विफल रहे थे, उस खूबी को राजिंदर बंसल ने पहचान लिया था । नतीजा सबके सामने है । इसीलिये कहा जा सकता है कि चुनावी नतीजे के चलते सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का पद मिलेगा तो वीके हंस को और सुरेश जिंदल के लिए यह पद दूर हो गया है - किंतु इस चुनाव में हार वास्तव में अजय बुद्धराज की हुई है और जीत का सेहरा विजय शिरोहा के सिर बँधा है ।