Wednesday, September 30, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद पर बास्कर चॉकलिंगम् को जितवा कर पीटी प्रभाकर ने वास्तव में इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन को तगड़ा वाला झटका दिया है

चेन्नई । पीटी प्रभाकर ने बास्कर चॉकलिंगम् को इंटरनेशनल डायरेक्टर चुनवा कर रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन को जो तगड़ी राजनीतिक चोट दी है, उससे केआर रवींद्रन के सहारे रोटरी में आगे बढ़ने वाले नेताओं के बीच खासी खलबली मच गई है । पीटी प्रभाकर के उम्मीदवार के रूप में डिस्ट्रिक्ट 3000 के बास्कर चॉकलिंगम् इंटरनेशनल डायरेक्टर न सिर्फ चुने गए हैं, बल्कि अच्छे मार्जन से चुने गए हैं - और इसी तथ्य ने रोटरी की राजनीति में उनका कद बढ़ा दिया है, तथा केआर रवींद्रन के भरोसे रहने वाले नेताओं के लिए समस्या खड़ी कर दी है । बास्कर चॉकलिंगम् की जीत को वास्तव में पीटी प्रभाकर की जीत और केआर रवींद्रन की हार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । उल्लेखनीय है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए केआर रवींद्रन डिस्ट्रिक्ट 3201 के सुनील जचारिया का समर्थन कर रहे थे; और उन्होंने अपने कई नजदीकियों को सुनील जचारिया के लिए समर्थन जुटाने के काम पर लगाया हुआ था । इसके बावजूद 15 सदस्यों वाली नोमीनेटिंग कमेटी में सुनील जचारिया को सिर्फ तीन वोट मिले । सुनील जचारिया की इतनी बुरी हार की उम्मीद उनके विरोधियों को भी नहीं थी । इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए प्रस्तुत उनकी उम्मीदवारी को इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के खुले समर्थन को देखते हुए उम्मीद की जा रही थी कि वह बास्कर चॉकलिंगम् को अच्छी टक्कर देंगे, लेकिन केआर रवींद्रन का खुला समर्थन उनके किसी काम नहीं आया । केआर रवींद्रन के नजदीकियों के अनुसार, केआर रवींद्रन ने सुनील जचारिया की इस हार के लिए राजा साबू, कल्याण बनर्जी, शेखर मेहता, मनोज देसाई आदि से मिले धोखे को जिम्मेदार ठहराया है ।  
इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए यूँ तो बास्कर चॉकलिंगम् की स्थिति काफी मजबूत मानी जा रही थी । पीटी प्रभाकर जब इंटरनेशनल डायरेक्टर थे, तभी से वह बास्कर चॉकलिंगम् की उम्मीदवारी के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हुए थे; और अपने कई कार्यक्रमों में उन्हें आगे आगे किए हुए थे । पीटी प्रभाकर और बास्कर चॉकलिंगम् का रिश्ता काफी पुराना है । पीटी प्रभाकर जब इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के उम्मीदवार थे, तब बास्कर चॉकलिंगम् ने उनके लिए खूब काम किया था । पीटी प्रभाकर के चुनाव की बागडोर एक तरह से बास्कर चॉकलिंगम् के हाथ  थी । उसी समय से चर्चा थी कि अपने जोन में पीटी प्रभाकर अपने बाद बास्कर चॉकलिंगम् को ही इंटरनेशनल डायरेक्टर बनवायेंगे । इस तरह की चर्चाओं और तैयारियों के कारण ही इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए बास्कर चॉकलिंगम् का पलड़ा भारी दिख रहा था । किंतु सुनील जचारिया की उम्मीदवारी को इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन का समर्थन मिलने से बास्कर चॉकलिंगम् के लिए स्थिति थोड़ी मुश्किल होती दिखने लगी थी । पीटी प्रभाकर और केआर रवींद्रन के संबंध चूँकि अच्छे नहीं रहे हैं, इसलिए केआर रवींद्रन के लिए पीटी प्रभाकर के उम्मीदवार के रूप में पहचाने जाने वाले बास्कर चॉकलिंगम् को चुनाव हरवाना साख का मामला बन गया । इसके चलते मुख्यतः बास्कर चॉकलिंगम् व सुनील जचारिया के बीच होने वाले इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव को दिलचस्पी के साथ देखा जाने लगा था । 
केआर रवींद्रन की पक्षपातपूर्ण सक्रियता के कारण सुनील जचारिया की उम्मीदवारी में दम पैदा होता हुआ देखा जाने लगा था । इसका कारण भी है । रोटरी की चुनावी राजनीति मूलतः निजी स्वार्थों पर टिकी नजर आती है । इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार का चयन करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी में डिस्ट्रिक्ट्स के महत्वाकांक्षी पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स होते हैं, जिनके बारे में माना/कहा जाता है कि जो इंटरनेशनल असाइनमेंट के बदले में अपना वोट 'बेचने' के लिए तैयार रहते हैं । इसी बिना पर माना जा रहा था कि केआर रवींद्रन अवश्य ही सुनील जचारिया के लिए पर्याप्त वोटों की व्यवस्था कर लेंगे । लेकिन चुनावी नतीजा आया तो पता चला कि केआर रवींद्रन का इंटरनेशनल प्रेसीडेंट होना और इंटरनेशनल प्रेसीडेंट के रूप में उनका समर्थन भी सुनील जचारिया के काम नहीं आया । अब इसका कारण यह माना/बताया जा रहा है कि केआर रवींद्रन ने पीटी प्रभाकर की राजनीतिक ताकत को कम करके आँका और सुनील जचारिया के लिए समर्थन जुटाने की व्यवस्था करने में चूक की ।
केआर रवींद्रन के नजदीकियों का कहना है कि केआर रवींद्रन ने सुनील जचारिया की हार के लिए राजा साबू, कल्याण बनर्जी, शेखर मेहता, मनोज देसाई आदि को जिम्मेदार ठहराया है । इस मामले में केआर रवींद्रन मौजूदा इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई से तो बुरी तरह खफा बताए जा रहे हैं । उनका कहना है कि सुनील जचारिया के लिए समर्थन जुटाने हेतु उन्होंने इन बड़े नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी थी, जिसका इन्होंने ठीक से निर्वाह नहीं किया । केआर रवींद्रन ने अपने नजदीकियों के बीच मनोज देसाई के रवैये को लेकर तो भारी नाराजगी दिखाई है । उनका कहना रहा है कि मनोज देसाई यदि ठीक से काम करते, तो सुनील जचारिया के लिए जीतने लायक समर्थन जुटाया जा सकता था । मनोज देसाई तथा बाकी नेताओं की तरफ से अपनी अपनी सफाई में कहा जा रहा है कि दक्षिण भारत के डिस्ट्रिक्ट्स में उनका कोई खास दखल नहीं है, और वहाँ की चुनावी राजनीति के समीकरण उनकी समझ और उनकी कार्यनीति से बिलकुल बाहर हैं; इसलिए बहुत चाहने और करने की कोशिश करने के बाद भी उनके लिए कुछ कर पाना संभव नहीं हो सका । इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव में सुनील जचारिया की हार से इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन की जो भद्द पिटी है, और पीटी प्रभाकर की जो धाक जमी है - उसे देख कर केआर रवींद्रन के सहारे और भरोसे रोटरी में आगे बढ़ने की कोशिशें करने वाले रोटरी नेताओं को खासा तगड़ा झटका लगा है । 

Tuesday, September 29, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की वेस्टर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल के लिए मनीष बक्षी की उम्मीदवारी न आने से पराग रावल का रास्ता और आसान हुआ लगता है

अहमदाबाद । मनीष बक्षी की उम्मीदवारी के प्रस्तुत न होने से इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल का सदस्य होने की पराग रावल की कोशिशों को जहाँ बल मिला है, वहाँ जुल्फेश शाह के गुजरात में वोट जुटाने के लिए दिलचस्पी लेने की खबरों ने पराग रावल के लिए चुनौती भी पैदा कर दी है । इस तरह पराग रावल के लिए हाल-फिलहाल के दिन मिलीजुली प्रतिक्रिया वाले रहे - एक तरफ उनके लिए अच्छी खबर रही, तो दूसरी तरफ उन्हें सावधानी बरतने वाला संदेश मिला । पराग रावल के समर्थकों तथा उनकी उम्मीदवारी में सकारात्मक संभावना देखने वाले लोगों का हालाँकि मानना और कहना है कि मनीष बक्षी की उम्मीदवारी न आने की जो अच्छी खबर है, उसका फायदा ज्यादा बड़ा है, और जुल्फेश शाह की सक्रियता के संदर्भ में सावधानी बरतने वाला संदेश - ठीक है कि एक संदेश है, लेकिन जो कोई नुकसान पहुँचाता हुआ नहीं दिख रहा है । इसलिए इंस्टीट्यूट के चुनाव के संदर्भ में उम्मीदवारों की सूची सामने आने के बाद पराग रावल की उम्मीदवारी के समर्थक बम बम हैं । उल्लेखनीय है कि इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए वेस्टर्न रीजन में होने वाले चुनाव में तमाम लोगों की निगाह पराग रावल पर टिकी हुई हैं । पिछले रीजनल काउंसिल के चुनाव में उन्हें कई सेंटर पर जिस तरह भर भर कर वोट मिले थे, उसे देखते और याद करते हुए कई लोगों को लग रहा है कि सेंट्रल काउंसिल में उनकी सीट तो पक्की है ही । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि पिछले रीजनल काउंसिल चुनाव में पहली वरीयता के 2068 वोट पाकर पराग रावल सबसे ज्यादा वोट प्राप्त करने वाले उम्मीदवार तो बने ही थे, दूसरे नंबर पर रहे सुश्रुत चितले से वह बह्हह्हहुत आगे थे । वोट प्राप्त करने वालों की सूची में पराग रावल के बाद, दूसरे नंबर पर रहे सुश्रुत चितले को पहली वरीयता के 1555 वोट मिले थे । सबसे ज्यादा वोट पाने और दूसरे नंबर पर रहे उम्मीदवार से पाँच सौ से अधिक वोटों से आगे रहने के तथ्य को देखते हुए ही सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत पराग रावल की उम्मीदवारी को सकारात्मक संभावना के साथ देखा जा रहा है । 
किंतु कई लोग पराग रावल की कामयाबी की संभावना को लेकर संशयग्रस्त भी हैं । उनका तर्क है कि सेंट्रल काउंसिल चुनाव का गणित रीजनल काउंसिल चुनाव के गणित से बिलकुल अलग होता है; तथा उसमें अलग तरह के ही फार्मूले काम करते हैं । माना जा रहा है कि इस बार जो कोटा बनेगा, उसे छू पाना हर किसी उम्मीदवार के लिए मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव ही होगा । इस कारण से प्रत्येक उम्मीदवार को दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों का सहारा लेना पड़ेगा । पराग रावल के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि उन्हें दूसरी/तीसरी वरीयता के ऐसे वोट आखिर कहाँ से मिलेंगे, तो सचमुच में उनके काम आ सकें ? मुंबई के बाहर के उम्मीदवारों के सामने दूसरी/तीसरी वरीयता के वोट जुटाने की समस्या आती ही है । मजे की बात यह देखने में आती है कि मुंबई के उम्मीदवारों को तो मुंबई में भी तथा दूर-दराज की ब्रांचेज में भी दूसरी/तीसरी वरीयता के वोट मिल जाते हैं; किंतु ब्रांचेज के उम्मीदवारों को मुंबई तो छोड़िये, दूसरी ब्रांचेज में भी दूसरी/तीसरी वरीयता के वोट जुटाने के लाले पड़ जाते हैं । सेंट्रल काउंसिल के पिछले चुनाव के आँकड़े इस समस्या की व्यापकता को बहुत स्पष्टता के साथ सामने रखते हैं । पहली वरीयता के वोटों की गिनती में प्रफुल्ल छाजेड़ से आगे रहने वाले दुर्गेश बुच और राजेश लोया तो देखते ही रह जाते हैं, जबकि दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों के सहारे प्रफुल्ल छाजेड़ का बेड़ा पार हो जाता है । पिछली बार जो समस्या दुर्गेश बुच के सामने थी, ठीक वही समस्या इस बार पराग रावल के सामने है । धिनल शाह तथा जय छैरा को पहली वरीयता के जो वोट मिले, उनमें से बहुतों के दूसरी/तीसरी वरीयता के वोट निस्संदेह दुर्गेश बुच को मिले होंगे, किंतु वह वोट उनके काम तो नहीं आ सके । इस बार भी गुजरात क्षेत्र के वोट धिनल शाह, जय छैरा और पराग रावल के बीच ही बँटने का अनुमान है - इन तीनों में पराग रावल के तीसरे नंबर पर रहने का अनुमान है; ऐसे में पराग रावल को गुजरात क्षेत्र में मिलने वाले दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों का कोई फायदा न मिलना निश्चित है । तब फिर, लाख टके का सवाल यह है कि पराग रावल को दूसरी/तीसरी वरीयता के वोट आखिर कहाँ से मिलेंगे ?
यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि पहली वरीयता के वोटों में मुंबई के उम्मीदवार यदि पराग रावल के आसपास ही रहते हैं तो दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों को पाकर वह आगे निकल सकते हैं । पराग रावल के नजदीकियों तथा उनके समर्थकों का कहना लेकिन यह है कि इस समस्या से वह अच्छी तरह वाकिफ हैं, और इससे निपटने के लिए पराग रावल ने पूरी तैयारी की हुई है । पराग रावल के एक नजदीकी ने बताया कि एक अच्छी बात यह है कि इस बार की सेंट्रल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी का फैसला पराग रावल ने पिछले चुनाव के समय ही कर लिया था; और पिछले चुनाव में राजेश लोया तथा दुर्गेश बुच के साथ जो हुआ, उसका 'कारण' तभी पहचान/समझ लिया था । इसलिए पराग रावल ने पिछले ढाई वर्ष दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों की व्यवस्था करने का ही काम किया है । इसके लिए उन्होंने मुंबई में भी, तथा महाराष्ट्र की ब्रांचेज में भी अपना समर्थन आधार बनाया/बढ़ाया है । पराग रावल के नजदीकियों का कहना है कि पराग रावल ने अपनी उम्मीदवारी की सफलता की निर्भरता गुजरात तक ही सीमित नहीं रखी है, बल्कि महाराष्ट्र तक में प्रभावी अभियान चलाया है और अपनी पॉकेट्स बनाई हैं । ऐसा उन्होंने इसलिए भी किया, क्योंकि मनीष बक्षी की उम्मीदवारी को देखते हुए वह पहले से ही अपने चुनाव को काफी चुनौतीपूर्ण मान रहे थे । मनीष बक्षी को इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रेसीडेंट सुनील तलति के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा था, जिसके कारण मुसीबत पराग रावल के हिस्से ही आनी थी । इस मुसीबत से बचने के लिए ही पराग रावल ने गुजरात के बाहर भी अपने लिए समर्थन जुटाने के जुगाड़ किए हैं । ऐसे में अब जब मनीष बक्षी की उम्मीदवारी की संभावना ही खत्म हो गयी है, तो यह पराग रावल के लिए तो बड़े वरदान की बात हो गई है । 
इस वरदान के साथ लेकिन जुल्फेश शाह रूपी समस्या भी पराग रावल के सामने आ खड़ी हुई है । जुल्फेश शाह को दरअसल जबसे 'अपने घर' विदर्भ में झटके लगना शुरू हुए हैं, तब से समर्थन जुटाने के लिए उन्होंने इधर-उधर हाथ-पैर मारना शुरू किया है । इसके लिए उन्होंने गुजरात को अपने लिए एक आसान 'चारागाह' के रूप में पहचाना है । जुल्फेश शाह के नजदीकियों के अनुसार, गुजराती होने के कारण जुल्फेश शाह को लगता है कि वह गुजरात में यदि समर्थन जुटाने की कोशिश करेंगे, तो यहाँ अवश्य ही काफी समर्थन जुटा लेंगे । समझा जाता है कि जुल्फेश शाह को गुजरात में जो भी समर्थन मिलेगा, वह पराग रावल के समर्थन की कीमत पर ही मिलेगा । पराग रावल के समर्थक ही नहीं, कुछेक अन्य लोग भी लेकिन इस बात से सहमत नहीं दिख रहे हैं । उनका कहना है कि जुल्फेश शाह यदि पहले से गुजरात में कुछ काम करते, तो यहाँ समर्थन जुटा भी सकते थे; लेकिन गुजराती होने का फायदा उठाने के बारे में उन्होंने बहुत देर से सोचा, और तब तक यहाँ की सारी जगह दूसरों ने कब्जा ली है । जुल्फेश शाह के लिए समस्या की बात यहाँ यह है कि यहाँ उनकी वकालत करने के लिए प्रमुख नाम नहीं हैं । अहमदाबाद का ही उदाहरण देते हुए कहा/बताया जा रहा है कि बाहर के उम्मीदवारों में यहाँ उनसे ज्यादा वोट तो बीएम अग्रवाल को ही मिल जायेंगे, जिनकी वकालत यहाँ राजू शाह कर रहे हैं । चुनावी खिलाड़ियों का आकलन है कि गुजरात में इस बार नौ हजार के करीब वोट पड़ेंगे, जिनमें से डेढ़ हजार के करीब वोट बाहर के उम्मीदवारों में बँटेंगे - निश्चित ही इनमें से कुछ जुल्फेश शाह को भी मिलेंगे; लेकिन इससे पराग रावल के लिए कोई खतरा पैदा होने की उम्मीद नहीं है । पराग रावल की उम्मीदवारी को कामयाब होता देख रहे लोगों में भले ही कुछ अगर-मगर चल रहे हों, लेकिन पराग रावल की उम्मीदवारी के समर्थकों के बीच उनकी सफलता को लेकर पूरी आश्वस्ति है । मनीष बक्षी की उम्मीदवारी न आने से तो वह और भी उत्साहित हो उठे हैं । 

Monday, September 28, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सेंट्रल रीजन में सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल की उम्मीदवारी 'अपने ही घर' में मुसीबतों से घिरी

गाजियाबाद । अमरेश वशिष्ट, जितेंद्र गोयल व ध्रुव अग्रवाल जैसे नॉन सीरियस उम्मीदवारों ने इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल की गाजियाबाद क्षेत्र की चुनावी राजनीति में ऐसा घपड़चौथ मचा दिया है कि मुकेश कुशवाह व विनय मित्तल जैसे सीरियस उम्मीदवारों के लिए अपनी अपनी सीरियसनेस बचाना/दिखाना मुश्किल हो गया है । इंस्टीट्यूट की मौजूदा 22वीं सेंट्रल काउंसिल में गाजियाबाद के दो सदस्य हैं, लेकिन 23वीं काउंसिल में एक भी सीट मिलने का संदेह बन गया है । बात सिर्फ उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने की नहीं है, क्योंकि पिछली बार भी इस क्षेत्र में चार उम्मीदवार तो थे ही; इसलिए इस बार पाँच उम्मीदवार हो जाने से कोई खास फर्क पड़ना नहीं चाहिए था - किंतु इस बार के पाँच उम्मीदवारों ने चुनावी गणित कुछ ऐसा बनाया है कि किसी एक का जीतना भी मुश्किल लग रहा है ।
सबसे बड़ी मुश्किल मुकेश कुशवाह के सामने हैं - उन्हें काउंसिल में अपनी सीट बचाने के लिए कठिन जद्दोजहद करना पड़ रही है । पिछली बार मुकेश कुशवाह बहुत मामूली अंतर से जीते थे । इस जीत में उन्हें मनु अग्रवाल की चुनावी नादानियों से बड़ा फायदा मिला था । मनु अग्रवाल लेकिन इस बार अपनी उम्मीदवारी को गंभीरता से लेते दिख रहे हैं । मनु अग्रवाल ने पिछली बार जो चुनावी मूर्खताएँ की थीं, इस बार वह उन्हें दोहराने से बचने की कोशिश करते हुए नजर आ रहे हैं; लगता है कि उन्होंने समझ लिया है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को सॉफ्टवेयर बेचना जितना मुश्किल काम है, चार्टर एकाउंटेंट्स के वोट पाना उससे भी ज्यादा मुश्किल काम है । मनु अग्रवाल के लिए मुश्किलें हालाँकि कम नहीं हैं, किंतु इस बार चूँकि वह मुश्किलों को पहचानने/समझने तथा उन्हें दूर करने को लेकर तत्पर दिख रहे हैं - इसलिए उम्मीद की जा रही है कि इस बार उनकी नाव पार लग जानी चाहिए । मनु अग्रवाल की नाव के पार लगने की स्थिति में मुकेश कुशवाह की नाव के डूबने का खतरा देखा जा रहा है ।
मुकेश कुशवाह को खतरा मनु अग्रवाल से नहीं है; खतरा तो उन्हें गाजियाबाद क्षेत्र में है । मुकेश कुशवाह के लिए समस्या की बात यह है कि 'अपने घर में' उनके सामने जो खतरा पैदा हो गया है, उससे उनकी स्थिति बिगड़ी - और कानपुर में मनु अग्रवाल की स्थिति सुधरी तो फिर उनके लिए अपनी सीट बचाना मुश्किल हो जायेगा । इसीलिए मुकेश कुशवाह के लिए सेंट्रल काउंसिल के लिए राह आसान नहीं दिख रही है । मुकेश कुशवाह की उम्मीदवारी को इस बार सबसे बड़ी 'मार' यह पड़ेगी कि पिछली बार गाजियाबाद क्षेत्र में उन्हें अनुज गोयल विरोधी जो वोट मिले थे, उन वोटों को इस बार उन्हें विनय मित्तल के साथ बाँटना पड़ेगा । अनुज गोयल ने अपने भाई जितेंद्र गोयल को उम्मीदवार बना कर अपने वोटों को बँटने से रोकने की जो व्यवस्था की है, दरअसल उसके कारण मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल का मामला फँस गया है । यूँ तो हर कोई यह मान रहा है कि जितेंद्र गोयल एक कठपुतली उम्मीदवार हैं, और अनुज गोयल 'भाई साहब का ख्याल रखना' कहते हुए लोगों के चाहें जितना हाथ जोड़ लें, वह 'भाई साहब' को चुनाव जितवा तो नहीं पायेंगे; लेकिन 'भाई साहब' की उम्मीदवारी अनुज गोयल के पक्के वाले वोटों को अपने पास/साथ बाँधे रखने में कामयाब हो सकती है । इससे जो हालात बने हैं, उसमें मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल की उम्मीदें ध्वस्त होती नजर आ रही हैं । अनुज गोयल के उम्मीदवार न होने में विनय मित्तल ने फायदा उठाने की जो योजना बनाई थी, वह योजना तो फेल हुई ही; उनकी योजना के चक्कर में मुकेश कुशवाह को बैठे-बिठाए मुसीबत और मिल गई । जितेंद्र गोयल की उम्मीदवारी से मुकेश कुशवाह को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था; जितेंद्र गोयल की उम्मीदवारी के साथ साथ लेकिन विनय मित्तल की उम्मीदवारी आने से अनुज गोयल विरोधी वोटों का बँटवारा होने की जो स्थिति बनी है, उसमें मुकेश कुशवाह घिरते हुए नजर आ रहे हैं ।
जितेंद्र गोयल की उम्मीदवारी के जरिए अनुज गोयल ने जो चाल चली है, उससे विनय मित्तल को खासा धोखा मिला है । विनय मित्तल ने अनुज गोयल की खाली होने वाली सीट पर कब्जा जमाने के उद्देश्य से बहुत पहले से ही सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित कर दी थी । उनके समर्थकों में से ही कईयों का मानना और कहना हालाँकि यह था कि उन्हें अभी एक टर्म और रीजनल काउंसिल में रहना चाहिए और यहाँ चेयरमैन बनना चाहिए तथा अपने अनुभव व अपने समर्थन-आधार में इजाफा करना चाहिए - फिर उसके बाद उन्हें सेंट्रल काउंसिल के लिए आना चाहिए । विनय मित्तल को किंतु लगा कि अनुज गोयल की खाली हो रही सीट के कारण जो मौका बन रहा है, उससे अच्छा मौका उन्हें फिर नहीं मिलेगा; लिहाजा उन्होंने अपने ही समर्थकों की एक न सुनी और सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बन गए । विनय मित्तल ने जो सोचा, वह गलत नहीं था - उनकी जगह कोई भी होता, संभवतः ऐसा ही सोचता और करता । जितेंद्र गोयल की उम्मीदवारी न होती, तो मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल के लिए इंस्टीट्यूट की 23वीं काउंसिल में अपनी अपनी जगह बनाना कोई मुश्किल भी नहीं होता । विनय मित्तल के नजदीकियों के अनुसार, विनय मित्तल लेकिन अब पछता रहे हैं - उन्हें लग रहा है कि वह न तो इधर के रहे, और न उधर के रहे । जितेंद्र गोयल की उम्मीदवारी के चलते विनय मित्तल की योजना तो पिटी ही, विनय मित्तल की उम्मीदवारी ने मुकेश कुशवाह के लिए भी आफत खड़ी कर दी है । 
मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल जैसे-तैसे करके जितेंद्र गोयल की उम्मीदवारी के कारण पैदा हुई समस्या से निपट भी लेते; लेकिन अमरेश वशिष्ट व ध्रुव अग्रवाल की उम्मीदवारी ने उनके लिए वह रास्ता भी बंद कर दिया लगता है । अमरेश वशिष्ट का मामला तो खासा दिलचस्प है - पिछले दोनों चुनावों में वह अंगद के पाँव की तरह दसवें नंबर पर ही पैर जमाए मिले थे । अमरेश वशिष्ट पिछली बार अपनी उम्मीदवारी को लेकर खासे गंभीर थे, किंतु वोटर उनकी उम्मीदवारी को लेकर जरा भी गंभीर नहीं हो सके । वोटरों की इस बेवफाई से अमरेश वशिष्ट इतने निराश और नाराज हुए कि उन्होंने चुनावी नतीजा आते ही सार्वजनिक रूप से आगे कभी चुनाव न लड़ने का ऐलान कर दिया । लेकिन जैसे ही इस बार के चुनाव नजदीक आए, उनके चुनावी कीड़े कुलबुलाये और वह तीसरी बार फिर उम्मीदवार हो गए । लोगों का कहना है कि जो व्यक्ति अपनी ही घोषणा पर न टिका रह पाता हो, उसकी उम्मीदवारी के साथ भला कौन टिकना चाहेगा ? जाहिर है कि अमरेश वशिष्ट के लिए दिल्ली बहुत बहुत दूर है; उनकी उम्मीदवारी को लेकिन जो वोट मिलेंगे, वह मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल के लिए दिल्ली को दूर करने का काम तो करेंगे ही । ध्रुव अग्रवाल की उम्मीदवारी ने कभी उनके नजदीकी रहे लोगों को ही हैरान किया है । वर्ष 2009 के चुनाव में वह जिस बुरी तरह से हारे थे, उसके कारण वह वर्ष 2012 में अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने की हिम्मत तक नहीं कर पाए थे । इस बार उनकी उम्मीदवारी को लेकर कोई आहट या अफवाह तक नहीं थी । पर अब जब उनकी उम्मीदवारी एक सच है, तो माना/समझा यही जा रहा है कि उनकी उम्मीदवारी का तो कुछ नहीं होना है, वह लेकिन मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल की संभावनाओं को अवश्य ही नुकसान पहुँचायेंगे । 
इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल की चुनावी राजनीति के संदर्भ में गाजियाबाद क्षेत्र में जितेंद्र गोयल, अमरेश वशिष्ट और ध्रुव अग्रवाल की उम्मीदवारी को कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा है; लेकिन इनकी उम्मीदवारी ने अपनी अपनी उम्मीदवारी को गंभीरता से लेने वाले मुकेश कुशवाह और विनय मित्तल के सामने खासा गंभीर संकट जरूर खड़ा कर दिया है । 

Sunday, September 27, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में अनिल भंडारी कहीं दूसरे मितिल चोकसी तो साबित नहीं होंगे

मुंबई । अनिल भंडारी ने सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने हेतु अपनी जिन खूबियों पर भरोसा किया है, उसे देखते/पहचानते हुए वेस्टर्न रीजन में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के जानकारों और खिलाड़ियों को मितिल चोकसी की उम्मीदवारी याद आ रही है - किंतु इस 'याद' में अनिल भंडारी के लिए कुछेक सबक भी छिपे हुए हैं । उल्लेखनीय है कि सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए अनिल भंडारी अपनी स्मार्टनेस पर निर्भर कर रहे हैं । उनके समर्थकों के साथ साथ दूसरे लोगों का भी मानना और कहना है कि अनिल भंडारी में लोगों को प्रभावित करने का अच्छा हुनर है, जिसका फायदा उन्हें चुनाव में मिलेगा । लोगों का कहना है कि अपने व्यक्तित्व और अपने व्यवहार से अनिल भंडारी लोगों पर जैसे जादू सा कर देते हैं, और उनके द्वारा किए गए जादू से वशीभूत होकर लोग उनकी तरफ खिंचे चले आते हैं । अनिल भंडारी को 'मार्केटिंग' के मामले में खासा होशियार माना/समझा जाता है - और इसी आधार पर माना/समझा जा रहा है कि अनिल भंडारी सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी की भी मार्केटिंग कर लेंगे, और चुनाव में कामयाब हो जायेंगे । अनिल भंडारी के समर्थकों की इस 'राजनीतिक समझ' पर बात करते हुए इंस्टीट्यूट की वेस्टर्न रीजन की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले कुछेक लोग लेकिन मितिल चोकसी को याद कर रहे हैं, और अनिल भंडारी के लिए सुझाव दे रहे हैं कि उन्हें मितिल चोकसी के अनुभव से सबक सीखना चाहिए । 
उल्लेखनीय है कि मितिल चोकसी वर्ष 2003 में वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन थे, और उसी वर्ष हुए चुनाव में सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार थे । स्मार्टनेस - व्यक्तित्व और व्यवहार के मामले में वह अनिल भंडारी से इक्कीस ही थे । मार्केटिंग के मामले में भी वह अनिल भंडारी पर भारी ही पड़ेंगे, और लोगों को प्रभावित करने की कला में खूब होशियार होने के बावजूद अनिल भंडारी यदि चाहें, तो मितिल चोकसी से बहुत कुछ सीख सकते हैं । वेस्टर्न रीजन में लोग आज भी याद करते हैं, और मानते व कहते हैं कि मितिल चोकसी जैसा चेयरमैन वेस्टर्न रीजन को अभी तक नहीं मिला है । इतने सब के बावजूद सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में मितिल चोकसी को इतने वोट नहीं मिल पाए, कि वह चुनाव जीत पाते । मितिल चोकसी के साथ तो एक और प्लस प्वाइंट था - और वह यह कि उनके चेयरमैन बनने से कुल तेरह वर्ष पहले, वर्ष 1990 में उनके पिता आरएस चोकसी वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन थे । आरएस चोकसी काफी लंबे समय तक रीजनल काउंसिल में रहे थे । उम्मीद की गई थी कि सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत की गई मितिल चोकसी की उम्मीदवारी को उनके पिता आरएस चोकसी की सक्रियता का भी फायदा मिलेगा, किंतु जो नहीं मिल सका । अपने व्यक्तित्व और व्यवहार का जादू लोगों पर बिखेरने के बावजूद मितिल चोकसी सेंट्रल काउंसिल का चुनाव नहीं जीत सके थे, तो इसका कारण यही समझा/माना गया था कि तमाम अनुकूल स्थितियों के बावजूद वह स्थितियों को अपने चुनाव के संदर्भ में व्यवस्थित नहीं कर पाए और वोट पाने में पिछड़ गए । मॉरल ऑफ द स्टोरी यह है कि सिर्फ जादुई व्यक्तित्व के भरोसे चुनाव नहीं जीता जा सकता । मितिल चोकसी की इस स्टोरी का अनिल भंडारी के लिए संदेश और सबक यही है कि वह अपने व्यक्तित्व और व्यवहार के भरोसे ही यदि रहे, तो मितिल चोकसी की तरह धोखा खा सकते हैं ।
अनिल भंडारी के मामले में यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि रीजनल काउंसिल के पिछले चुनावी नतीजे भी 'बताते' हैं कि अनिल भंडारी को अपने जादुई व्यक्तित्व व व्यवहार का चुनाव में कोई खास फायदा नहीं हुआ है । उल्लेखनीय है कि पिछली बार रीजनल काउंसिल के 49 उम्मीदवारों में अनिल भंडारी पहली वरीयता के 772 वोटों के साथ 16वें स्थान पर थे; और फाइनली अपने वोटों की संख्या को 1243 तक पहुँचाते हुए उन्होंने विजेता उम्मीदवारों में अपना स्थान एक ऊँचा करते हुए 15वाँ कर लिया था । उससे पिछली बार के, यानि वर्ष 2009 के चुनाव में उन्हें पहली वरीयता के 767 वोटों के साथ 14वाँ और फाइनली 1089 वोटों के साथ 13 वाँ स्थान मिला था । जाहिर है कि 2010 से 2012 के बीच के समय में काउंसिल में रहते हुए उन्होंने अपनी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं किया, और उनके लिए मामला जहाँ का तहाँ ही रहा । सेंट्रल काउंसिल के चुनाव के संदर्भ में यह कोई बहुत उत्साहित करने वाला नतीजा नहीं कहा जा सकता है । जादुई व्यक्तित्व और व्यवहार के बावजूद अनिल भंडारी यदि वर्ष 2010 से 2012 के बीच अपनी चुनावी स्थिति में कोई सुधार नहीं कर सके थे, तो आखिर क्या गारंटी है कि वर्ष 2013 से 2015 के बीच उन्होंने बहुत कमाल कर दिया होगा ? मितिल चोकसी का किस्सा और रीजनल काउंसिल चुनाव में खुद अनिल भंडारी का परफॉर्मेंस कहता/बताता है कि सिर्फ स्मार्टनेस के भरोसे वोट नहीं पाए जा सकते हैं ?
संजीव माहेश्वरी, राजकुमार अदुकिया और पंकज जैन द्वारा खाली की गईं सेंट्रल काउंसिल की सीटों को कब्जाने के लिए दुर्गेश काबरा, बीएम अग्रवाल, अनिल भंडारी और धीरज खण्डेलवाल ने जिस तरह की तैयारी की है, उसे देखते/समझते हुए रीजन के चुनावी खिलाड़ियों का मानना और कहना है कि इनमें से एक का जीतना तो पक्का है; चुनावी गणित यदि किसी खास ऐंगल पर बैठा तो दो लोग भी जीत सकते हैं - जीतने वाले कौन होंगे, यह अभी किसी के लिए भी कह पाना मुश्किल हो रहा है । मारवाड़ी वोटों पर भरोसा करने वाले इन चारों उम्मीदवारों के साथ खूबियों और कमजोरियों की अपनी अपनी फेहरिस्त है; और इनके बीच मुकाबला टक्कर का है और खासा दिलचस्प है । अनिल भंडारी के समर्थक अनिल भंडारी के जादुई व्यक्तित्व और व्यवहार के भरोसे अनिल भंडारी की नाव पार हो जाने का जो विश्वास दिखा/जता रहे हैं, उस विश्वास की पड़ताल बाकी तीनों उम्मीदवारों की संभावनाओं के संदर्भ में करने पर ही लोगों को मितिल चोकसी का चुनाव याद आया है ।  

Friday, September 25, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल की उम्मीदवारी के संदर्भ में सत्यनारायण माहेश्वरी को इंदौर में मिली अनपेक्षित सफलता विकास जैन के लिए मुसीबत बनी

इंदौर । सत्यनारायण माहेश्वरी ने विकास जैन के कई नजदीकियों, समर्थकों व संभावित समर्थकों को सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के अभियान में जोड़ कर विकास जैन की संभावनाओं को तगड़ा झटका दिया है । यह झटका इतना तगड़ा है कि विकास जैन और उनके समर्थक अभी यह समझने का ही प्रयास कर रहे हैं कि दरअसल हुआ क्या है ? जैसे आँखों पर तेज लाईट पड़ने पर खुली आँखें भी सामने का कुछ भी देख पाने में समर्थ नहीं होती हैं; सत्यनारायण माहेश्वरी के चुनाव अभियान की 'इंदौर की उपलब्धियों' ने विकास जैन और उनके समर्थकों के सामने भी वैसा ही मामला बना दिया है । विकास जैन और उनके समर्थकों की बदकिस्मती यह है कि इस स्थिति के लिए अधिकतर लोग उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं । दरअसल विकास जैन की जीत को लेकर वह खुद और उनके समर्थक इतने आश्वस्त थे कि सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उनकी उम्मीदवारी को लेकर वह लोग जरा भी गंभीर नहीं थे । जीत को लेकर आश्वस्त होने के उनके पास एक नहीं, बल्कि कई ठोस कारण थे । इंदौर और मालवा क्षेत्र में ही इतने जैन चार्टर्ड एकाउंटेंट्स हैं कि विकास जैन और उनके समर्थकों को लगा कि जैन होने के कारण उन्हें वह सब वोट तो आराम से मिल ही जायेंगे, और उतने वोट उनकी जीत के लिए काफी होंगे - और इसलिए उन्हें ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है । इसके अलावा, इंदौर में चुनावी राजनीति की बागडोर अपने हाथ में रखने वाले 'काका जी' विष्णु झावर उनके समर्थन में हैं, और विष्णु झावर के चलते इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट मनोज फडनिस उनका समर्थन करने के लिए मजबूर होंगे ही । विकास जैन और उनके समर्थकों का मानना और कहना रहा कि विष्णु झावर और मनोज फडनिस का समर्थन उनकी जीत के अंतर को बढ़ाने का ही काम करेगा । 
विकास जैन और उनके समर्थक अपनी जीत को लेकर इसलिए और ज्यादा आश्वस्त थे क्योंकि इंदौर में उन्हें कोई चुनावी चुनौती मिलती नहीं दिख रही थी । सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल की चेयरपरसन रह चुकीं केमिशा सोनी ने भी हालाँकि सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की हुई है, किंतु विकास जैन और उनके समर्थकों ने केमिशा सोनी की उम्मीदवारी को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया । उनकी तरफ से सुना भी गया था कि केमिशा सोनी के खिलाफ वह ऐसा अभियान चलायेंगे कि केमिशा सोनी खुद ही चुनाव से हट जायेंगी । सत्यनारायण माहेश्वरी हालाँकि इंदौर में अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश करते देखे/सुने तो गए थे, किंतु माना/समझा गया कि जैसे दूसरे उम्मीदवार यह जानते/बूझते कोशिश कर रहे हैं कि इंदौर में उन्हें कुछ मिलेगा तो नहीं ही; वैसे ही सत्यनारायण माहेश्वरी भी कोशिश कर रहे हैं और इसमें कोई खास बात नहीं है । यह तथ्य भी सामने आया कि सत्यनारायण माहेश्वरी ने चार्टर्ड एकाउंटेंट की पढ़ाई इंदौर में की है और यहाँ कुछ समय उन्होंने चार्टर्ड एकाउंटेंट के रूप में काम भी किया है । लेकिन इस तथ्य में भी कोई बहुत बड़ा राजनीतिक खतरा नहीं देखा/पहचाना गया । माना/समझा गया कि सत्यनारायण माहेश्वरी लंबे समय से उदयपुर में ही सक्रिय हैं, और जीवन में उन्हें जो कुछ भी मिला है - वह उदयपुर में रहते हुए ही मिला है; इसलिए इंदौर में उनके कुछ समय गुजारने के तथ्य से उनके या विकास जैन के चुनाव पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है । 
विकास जैन तथा उनके रणनीतिकारों ने फिर भी सत्यनारायण माहेश्वरी से निपटने की रणनीति के तहत विजेश खण्डेलवाल को रीजनल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया । उनका आकलन रहा कि विजेश खण्डेलवाल की उम्मीदवारी के जरिए वह इंदौर के माहेश्वरियों की चौकीदारी कर सकेंगे तथा उन्हें अपने साथ जोड़े रखने में सफल होंगे, और तब सत्यनारायण माहेश्वरी को यहाँ ज्यादा कुछ नहीं मिलेगा । सत्यनारायण माहेश्वरी ने लेकिन इंदौर में अनपेक्षित सफलता प्राप्त की है । इंदौर में उन्हें इंदौर के तीसरे उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाने लगा है । विकास जैन की उम्मीदवारी को एक तो इस बात से तगड़ा झटका लगा है; विकास जैन के लिए लेकिन इससे भी ज्यादा झटके की बात यह हुई है कि इंदौर में उनके कई नजदीकियों और समर्थकों ने उनकी उम्मीदवारी का झंडा छोड़ कर सत्यनारायण माहेश्वरी की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया है । सत्यनारायण माहेश्वरी ने विकास जैन के नजदीकियों व समर्थकों को अपनी तरफ मिला कर विकास जैन पर तो मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया ही है, साथ ही इंदौर के चुनावी परिदृश्य को भी बदल दिया है । बदले चुनावी परिदृश्य में दूसरों को तो छोड़िए, खुद विकास जैन की उम्मीदवारी के समर्थक उनकी जीत को लेकर उतने आश्वस्त नहीं रह गए हैं, जितने कि वह अभी कुछ समय पहले तक थे ।
विकास जैन के समर्थकों की तरफ से आरोप लगाया गया है कि सत्यनारायण माहेश्वरी अपने राजनीतिक संपर्कों का सहारा लेकर उनके समर्थकों को उनसे छीन रहे हैं । सत्यनारायण माहेश्वरी की पत्नी किरण माहेश्वरी के राजस्थान की भाजपा सरकार में मंत्री होने का हवाला देते हुए आरोप लगाया जा रहा है कि पत्नी के राजनीतिक रसूख का सहारा लेकर सत्यनारायण माहेश्वरी जानबूझकर खासकर ऐसे लोगों पर अपने साथ आने का दबाव बना रहे हैं, जो विकास जैन की उम्मीदवारी की ताकत हैं । इस तरह सत्यनारायण माहेश्वरी ने विकास जैन की उम्मीदवारी के अभियान की हवा ही निकाल देने की योजना पर काम किया है । इंदौर में हालाँकि यह मानने/कहने वालों की भी कमी नहीं है कि विकास जैन को इंदौर में अपना जो आधार खिसकता हुआ दिख रहा है, उसके लिए कोई और नहीं, बल्कि वह खुद और उनके समर्थक ही जिम्मेदार हैं । जीत की आश्वस्ति में उन्होंने दरअसल दूसरों को कोई तवज्जो ही नहीं दी, और निरंतर मनमानियाँ करते रहे । अपनी मनमानियों के चलते वह विरोधियों को तो अपना बनाने का प्रयास नहीं ही कर सके, अपने समर्थकों को भी उन्होंने खोना शुरू कर दिया । यह सच्चाई अभी तक 'दिख' इसलिए नहीं रही थी, क्योंकि एक तो चुनावी शिड्यूल में इसके 'दिखने' का उचित समय नहीं आया था; दूसरे विकास जैन को सबक सिखाने की तैयारी किए बैठे लोगों को 'उचित जगह' नहीं मिल रही थी । केमिशा सोनी अपनी उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच कोई भरोसा पैदा नहीं कर पा रही थीं । सत्यनारायण माहेश्वरी ने अपनी उम्मीदवारी के प्रति जैसे ही भरोसा पैदा किया, वैसे ही विकास जैन की उम्मीदवारी के प्रति लोगों का 'रवैया' सामने आ गया । इंदौर में सत्यनारायण माहेश्वरी के नजदीकियों का ही मानना और कहना है कि यहाँ सत्यनारायण माहेश्वरी को जो समर्थन मिल रहा है, वह सत्यनारायण माहेश्वरी के काम के कारण नहीं, बल्कि विकास जैन और उनके समर्थकों की नकारात्मकता के कारण मिल रहा है । इंदौर में हालाँकि कई लोगों का यह भी मानना और कहना है कि विकास जैन के लिए स्थितियाँ अभी भी इतनी नहीं बिगड़ी हैं कि संभाली न जा सकें - किंतु यह इस पर निर्भर करेगा कि विकास जैन और उनके समर्थक सारे मामले को देख/समझ कैसे रहे हैं ? यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्यनारायण माहेश्वरी द्वारा पैदा की गई चुनौती से निपटने के लिए विकास जैन और उनके समर्थक क्या रणनीति अपनाते हैं ?

Thursday, September 24, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 के चुनावी झगड़े में राजा साबू ने इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई को भी फँसाया

चंडीगढ़ । राजेंद्र उर्फ राजा साबू ने टीके रूबी द्वारा इलेक्शन कम्प्लेंट फाइल करने के कारण बनी परिस्थिति में मनोज देसाई के 27 सितंबर के इंटरसिटी कार्यक्रम में आने से बचने की कोशिशों को लेकर डेविड हिल्टन को चिंता न करने का आश्वासन दिया है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन के नजदीकियों के अनुसार, राजा साबू ने डेविड हिल्टन को आश्वस्त किया है कि मनोज देसाई 27 सितंबर के इंटरसिटी कार्यक्रम में अवश्य ही आयेंगे । राजा साबू की तरफ से डेविड हिल्टन को जो संदेश मिला है उसमें कहा/बताया गया है कि मनोज देसाई सिद्धांतों व आदर्शों की ऊँची-ऊँची बातें भले ही करते हों, और अपनी इन बातों के चलते 27 सितंबर के कार्यक्रम में आने से बचने की कोशिश वह भले ही कर रहे हों, लेकिन डिस्ट्रिक्ट 3080 के कार्यक्रम में आने से इंकार करने का साहस वह नहीं कर पायेंगे । राजा साबू की तरफ से इस बात को एक फिर रेखांकित किया गया है कि मनोज देसाई को इंटरनेशनल डायरेक्टर बनवाने में राजा साबू के जो अहसान हैं, उन्हें मनोज देसाई भूले नहीं होंगे - और उसी अहसान को याद करते हुए वह 27 सितंबर के कार्यक्रम में आने से इंकार नहीं करेंगे । उल्लेखनीय है कि मनोज देसाई डिस्ट्रिक्ट 3080 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव को लेकर फैले झमेले के कारण 27 सितंबर के कार्यक्रम में नहीं आना चाहते हैं । उन्होंने बहुत पहले ही डेविड हिल्टन को बता दिया था कि 27 सितंबर तक उनके डिस्ट्रिक्ट का चुनावी झमेला यदि सुलझा नहीं, तो वह कार्यक्रम में नहीं आयेंगे । मनोज देसाई के इस अल्टीमेटम के बाद ही आनन-फानन में तीन सितंबर को टीके रूबी की अनुपस्थिति के बावजूद चुनावी नतीजा निकालने की प्रक्रिया को पूरा कर लिया गया था । टीके रूबी ने अपने प्रोफेशनल काम के चलते विदेश में होने को हवाला देते हुए उक्त प्रक्रिया को अगली किसी तारीख में संपन्न करने का अनुरोध किया था, लेकिन उनके अनुरोध को अनसुना कर दिया गया था । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन तथा पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रूपी उनके 'आकाओं' ने इस तरह 27 सितंबर तक मनोज देसाई के लिए रास्ता साफ करने का काम अपनी तरफ से तो कर दिया था । 
मनोज देसाई को लेकिन दिल्ली स्थिति रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय से टीके रूबी द्वारा इलेक्शन कम्प्लेंट फाइल करने की सूचना मिली, तो मामला फिर जहाँ का तहाँ पहुँच गया है । मनोज देसाई ने दरअसल डिस्ट्रिक्ट्स में होने वाले चुनावी झगड़ों को लेकर बहुत सख्त रवैया अपनाया हुआ है; और कुछेक डिस्ट्रिक्ट्स के पदाधिकारियों को स्पष्ट चेतावनी तक दी हुई है कि झगड़ों/विवादों वाले माहौल में वह उनके यहाँ किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे । ऐसे में, मनोज देसाई के सामने संकट यह खड़ा हो गया है कि वह लोगों को क्या अपना डबल स्टैंडर्ड दिखाएँ कि झगड़ों/विवादों को लेकर वह दूसरे डिस्ट्रिक्ट्स को तो अपने तेवर दिखाएँ तथा चेतावनी दें, किंतु राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट के मामले में भीगी बिल्ली बन जाएँ ? राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में पिछले रोटरी वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव का झगड़ा द्रोपदी के चीर की तरह न सिर्फ बढ़ता जा रहा है, बल्कि और ज्यादा संगीन भी होता जा रहा है । इस चुनावी झगड़े में चूँकि पूर्व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट राजेंद्र उर्फ राजा साबू तथा पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर यशपाल दास समेत डिस्ट्रिक्ट के कई पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर एक पार्टी बन गए हैं, इसलिए यह झगड़ा रोटरी में एक बड़ा मामला बन गया है ।जिन लोगों पर झगड़ों को सुलझाने की जिम्मेदारी है, वही लोग यदि झगड़े की जमीन तैयार करने का काम करेंगे और फिर झगड़े में पार्टी बन जायेंगे - तो रोटरी के मौजूदा पदाधिकारियों के लिए मामला खासा टेढ़ा तो हो ही जाता है । राजा साबू की उनके डिस्ट्रिक्ट के लोगों ने भले ही मिट्टी कूट दी हो, लेकिन रोटरी के पदाधिकारियों के सामने अपने पूर्व प्रेसीडेंट के प्रति लिहाज दिखाने की मजबूरी तो है ही । इसी मजबूरी के चलते राजा साबू की करतूत पर और करतूत के चलते हो रही उनकी फजीहत पर मजा लेने वाले रोटरी के बड़े नेता और पदाधिकारी औपचारिक रूप से कुछ कहने से बचते/छिपते हैं । बचने/छिपने की इसी मजबूरी के चलते इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन ने राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में आने के मौके को चतुराई से टाल दिया था । इसी मजबूरी के चलते मनोज देसाई 27 सितंबर के इंटरसिटी कार्यक्रम में आने से बचने की कोशिश कर रहे हैं । 
मनोज देसाई को डर दरअसल यह है कि इंटरसिटी कार्यक्रम में डिस्ट्रिक्ट के लोगों ने उनसे यदि अपने डिस्ट्रिक्ट के चुनावी झगड़े में राजा साबू की खुली संलग्नता को लेकर सवाल पूछ लिए, तो वह क्या जबाव देंगे ? नोमीनेटिंग कमेटी द्वारा चुने गए अधिकृत उम्मीदवार टीके रूबी को 'हराने' के लिए राजा साबू के दिशा-निर्देशन में जो पहली कार्रवाई की गई थी, उसे रोटरी इंटरनेशनल निरस्त कर चुका है; जिसके बाद राजा साबू और उनका गिरोह चुनाव कराने के लिए मजबूर हुआ । डिस्ट्रिक्ट के लोगों के मूड को समझते/पहचानते हुए भी, अपनी चौधराहट दिखाने के चक्कर में राजा साबू और उनके गिरोह ने जिस तरह से चुनाव में खुली भागीदारी की और पक्षपात किया - उससे मामला और ज्यादा बिगड़ गया है । न्याय पाने के लिए टीके रूबी के एक बार फिर रोटरी इंटरनेशनल की शरण में जाने की खबर है; डिस्ट्रिक्ट में लोगों के बीच चर्चा है कि टीके रूबी ने रोटरी इंटरनेशनल के दिल्ली स्थित कार्यालय में इलेक्शन कम्प्लेंट दर्ज कर दी है । मामला सिर्फ कम्प्लेंट दर्ज करवाने तक का नहीं है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनावी झगड़े में राजा साबू और उनके गिरोह के लोगों ने जैसी जो हरकतें कीं, उनके प्रति डिस्ट्रिक्ट के लोगों में जबर्दस्त गुस्सा है - जिसका इजहार पंचकुला में 13 सितंबर को आयोजित 'स्वच्छ RID 3080' कार्यक्रम में देखने को मिला । रोटरी में चुनावी झगड़े आमतौर पर एक उम्मीदवार का रोना-धोना बन कर रह जाते हैं; लेकिन राजा साबू और उनके गिरोह के लोगों की हरकतों के प्रति नाराजगी के चलते राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट का चुनावी झगड़ा एक बड़ा मामला बन गया है । 13 सितंबर को पंचकुला में आयोजित 'स्वच्छ RID 3080' कार्यक्रम में राजा साबू और उनके गिरोह की करतूतों के खिलाफ लोगों का जो गुस्सा फूटा है, उसने 27 सितंबर को उसी पंचकुला में आयोजित होने वाले मनोज देसाई के कार्यक्रम को अलग अलग कारणों से उल्लेखनीय बना दिया है ।
राजा साबू और उनके गिरोह के लोगों की कारस्तानियों से निराश और नाराज लोगों के लिए मनोज देसाई की उपस्थिति इसलिए उल्लेखनीय है, ताकि वह अपनी नाराजगी को और बड़े स्तर तक पहुँचा सकें; राजा साबू एण्ड कंपनी मनोज देसाई की उपस्थिति के जरिए डिस्ट्रिक्ट के लोगों को और दूसरे डिस्ट्रिक्ट के लोगों को यह 'दिखाना' चाहती है कि रोटरी के पदाधिकारियों की गर्दन अभी भी उनकी मुट्ठी में है । मनोज देसाई इन दोनों पक्षों से अपनी जान बचाने के लिए 27 सितंबर के कार्यक्रम में शामिल होने से बचने का प्रयास कर रहे हैं । मनोज देसाई यह देख/जान कर और असमंजस में फँस गए हैं कि राजा साबू ने तो उक्त कार्यक्रम से दूर रहने की व्यवस्था कर ली है, लेकिन उन्हें फँसा दिया है । डिस्ट्रिक्ट इंटरसिटी जैसे महत्वपूर्ण आयोजन से खुद को अलग रख कर राजा साबू ने लोगों की नाराजगी से बचने का जो प्रयास किया है, उसने मनोज देसाई के लिए मामले को और उलझनभरा बना दिया है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन के नजदीकियों के अनुसार, मनोज देसाई ने टीके रूबी द्वारा इलेक्शन कम्प्लेंट फाइल करने का हवाला देते हुए डेविड हिल्टन से 27 सितंबर के कार्यक्रम में अपने शामिल होने को लेकर अगर-मगर करने का प्रयास किया, तो डेविड हिल्टन ने उन्हें राजा साबू से बात करने का सुझाव दिया । समझा जाता है कि डेविड हिल्टन ने अगर-मगर करते मनोज देसाई को राजा साबू रूपी छड़ी से धमकाया है । मनोज देसाई ने इस बारे में राजा साबू से बात की है या नहीं, यह तो पता नहीं चल पाया है; लेकिन डेविड हिल्टन के नजदीकियों के हवाले से यह जरूर पता चला है कि राजा साबू ने डेविड हिल्टन को 27 सितंबर के कार्यक्रम में मनोज देसाई की उपस्थिति को लेकर आश्वस्त किया है । राजा साबू की तरफ से कहा गया है कि मनोज देसाई दूसरे डिस्ट्रिक्ट्स के पदाधिकारियों को झगड़ों-टंटों के कारण उनके डिस्ट्रिक्ट में न आने की चेतावनी भले ही देते हों, लेकिन डिस्ट्रिक्ट 3080 के मामले में वह न आने का 'खतरा' नहीं उठायेंगे । इसी पृष्ठभूमि में, 27 सितंबर के आयोजन में मनोज देसाई के आने या न आने को लेकर डिस्ट्रिक्ट में गहमागहमी मची हुई है । मजे की बात यह है कि चुनावी राजनीति के चक्कर में डिस्ट्रिक्ट में बने दोनों पक्षों के लोग चाहते हैं कि मनोज देसाई उक्त कार्यक्रम में आएँ; मनोज देसाई लेकिन आने से बचना चाहते हैं । यह देखना दिलचस्प होगा कि इंटरनेशनल डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठे मनोज देसाई क्या सचमुच यह दिखा पाने में सफल होते हैं कि वह कोई डबल स्टैंडर्ड नहीं रखते हैं; या राजा साबू के सामने समर्पण करते हुए नजर आते हैं ?

Wednesday, September 23, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सेंट्रल रीजन में छोटी ब्रांचेज तथा छोटे शहरों व कस्बों के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के स्वाभिमान को जगा कर और उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराने के जरिए समर्थन जुटाने के नितीश अग्रवाल के फार्मूले ने सेंट्रल काउंसिल के चुनावी मुकाबले को दिलचस्प बनाया

आबु रोड । नितीश अग्रवाल ने सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने हेतु छोटी ब्रांचेज व छोटे शहरों/कस्बों के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पर ध्यान देने की जो रणनीति अपनाई है, उसने आम तौर से रीजन के और खास तौर से राजस्थान के चुनावी समीकरणों को दिलचस्प बना दिया है । मजे की बात यह है कि रीजन की चुनावी राजनीति का आकलन करने वाले लोग नितीश अग्रवाल को एक कमजोर उम्मीदवार के रूप में देख रहे हैं । उनकी उम्मीदवारी की कमजोरी का एक बड़ा कारण उनका एक छोटी जगह का होना माना/बताया जा रहा है । रीजन के चुनावी खिलाड़ियों का कहना है कि नितीश अग्रवाल जिस आबु रोड नामक कस्बे के हैं, वहाँ गिने-चुने चार्टर्ड एकाउंटेंट्स हैं; और यह तथ्य उनके आधार को कमजोर बनाता है - तथा एक कमजोर आधार पर मजबूत 'इमारत' को खड़ा करना मुश्किल ही है । नितीश अग्रवाल लेकिन अपने इस कमजोर आधार को ही अपनी मजबूती बनाने का प्रयास करते सुने/देखे गए हैं । विभिन्न ब्रांचेज के पदाधिकारियों की बातों पर यदि यकीन करें तो नितीश अग्रवाल ने छोटी जगह के होने के तथ्य का हवाला देते हुए छोटी ब्रांचेज तथा छोटे शहरों व कस्बों के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच यह तर्क देते हुए पैठ बनाने का प्रयास किया है कि उन्हें बड़े शहरों के उम्मीदवारों के जरिए इस्तेमाल होने से बचना चाहिए और अपने बीच ही लीडरशिप पैदा करनी चाहिए । सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में जिस तरह कई उम्मीदवार बिग फोर व बड़ी फर्म का डर दिखा कर अपनी राजनीतिक कामयाबी की इबारत लिखते हैं, ठीक उसी तर्ज पर नितीश अग्रवाल ने अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की कबायद शुरू की है । नितीश अग्रवाल के नजदीकियों का कहना है कि इस कबायद का उन्हें अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है ।
नितीश अग्रवाल ने यह तर्क देते हुए इंस्टीट्यूट के चुनावी माहौल में खासी गर्मी पैदा कर दी है कि रीजन की राजनीति जयपुर, इंदौर, कानपुर, गाजियाबाद जैसे बड़े शहरों में ही केंद्रित क्यों होनी चाहिए; और यह भी कि इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में छोटे शहरों व कस्बों को भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी चाहिए । उल्लेखनीय है कि सेंट्रल इंडिया रीजन में इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए जयपुर में चार, गाजियाबाद में तीन, इंदौर में दो उम्मीदवार अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत कर रहे हैं । लोगों के बीच नितीश अग्रवाल का कहना है कि रीजन में 40 से अधिक ब्रांचेज हैं, लेकिन सेंट्रल काउंसिल में रीजन के प्रतिनिधित्व की बात होती है, तो दो-तीन ब्रांचेज ही मौके कब्जा लेती हैं । सेंट्रल काउंसिल में रीजन की पाँच सीटों में अभी जयपुर और गाजियाबाद ने दो दो तथा एक सीट इंदौर ने कब्जा रखी है । नितीश अग्रवाल ने छोटी ब्रांचेज के लोगों के बीच सवाल उठाया है कि छोटी ब्रांचेज के लोग अपनी ताकत क्यों नहीं पहचानते हैं, और सेंट्रल काउंसिल में अपना प्रतिनिधि क्यों नहीं भेजते हैं ? विभिन्न ब्रांच के लोगों से जो सुनने को मिला है, उसके अनुसार नितीश अग्रवाल ने यह कहते हुए लोगों को आगाह किया है कि रीजन के चुनावी नेता कभी नहीं चाहेंगे कि छोटी ब्रांचेज के लोगों के बीच विश्वासपूर्ण संबंध बने और उनके बीच एकजुटता स्थापित हो; रीजन के चुनावी नेता छोटी ब्रांचेज को आपस में लड़वा कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं, और आगे भी करते रहेंगे - जिसे समझने की और जिससे सावधान रहने की जरूरत है । 
नितीश अग्रवाल ने छोटी ब्रांचेज के लोगों के बीच 'अपने प्रतिनिधित्व' की बात उठाकर जो दाँव चला है, उसके कामयाब होने की संभावना इस तथ्य में देखी/पहचानी जा रही है कि रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में नितीश अग्रवाल का पहले से ही छोटी ब्रांच के पदाधिकारियों के साथ सक्रियता भरा विश्वास का संबंध है । समझा जाता है कि रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में नितीश अग्रवाल ने छोटी ब्रांचेज के लोगों के साथ जो दोस्ताना संबंध बनाए थे, उन्हीं संबंधों के सहारे वह अब सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में उनका स्वाभिमान जगाने का प्रयास कर रहे हैं । रीजन के चुनावी नेताओं का मानना और कहना है कि नितीश अग्रवाल का यह प्रयास यदि सफल हो गया, तो बड़े शहरों के उम्मीदवारों की उम्मीदों पर पानी ही फिर जायेगा । उल्लेखनीय है कि जयपुर के चार, गाजियाबाद के तीन और इंदौर के दो उम्मीदवार अपनी अपनी जीत के लिए छोटी ब्रांचेज व छोटे शहरों व कस्बों में समर्थन जुटाने की जो तिकड़में लगा रहे हैं - उन तिकड़मों की सफलता नितीश अग्रवाल के प्रयास की सफलता पर निर्भर करेगी; और यदि नितीश अग्रवाल के प्रयास कामयाब हो गए, तो जयपुर, गाजियाबाद, इंदौर के उम्मीदवारों के सारे समीकरण उलट पलट जा सकते हैं ।
कुछेक लोगों को नितीश अग्रवाल के प्रयास दूर की कौड़ी लगते हैं; लेकिन अन्य कई लोगों का मानना और कहना है कि एक बहुत छोटी जगह से होने के बावजूद नितीश अग्रवाल यदि रीजनल काउंसिल का चुनाव जीत सकते हैं, तो सेंट्रल काउंसिल का चुनाव क्यों नहीं जीत पायेंगे ? यह ठीक है कि सेंट्रल काउंसिल का चुनाव एक बड़ा चुनाव होता है, और इसमें ज्यादा समर्थन चाहिए होता है; लेकिन ध्यान देने की बात यह भी तो है कि नितीश अग्रवाल ने जब रीजनल काउंसिल का चुनाव जीता था, तब उनके सामने पहचान का संकट था, और रीजन में उन्हें कोई जानता नहीं था; अब लेकिन उनके सामने पहचान का कोई संकट नहीं है, और रीजनल काउंसिल के चेयरमैन रह चुकने के कारण वह रीजन की प्रत्येक ब्रांच में जाने/पहचाने जाते हैं । चुनावी राजनीति के पंडितों का मानना और कहना है कि छोटी ब्रांचेज तथा छोटे शहरों व कस्बों के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के स्वाभिमान को जगा कर और उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराने के जरिए उनका समर्थन जुटाने का जो फार्मूला नितीश अग्रवाल ने अपनाया है, वह बहुत फिट फार्मूला है; हालाँकि इस फार्मूले की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि नितीश अग्रवाल इस फार्मूले को व्यावहारिक धरातल पर कितना उतार पाते हैं ? 

Monday, September 21, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए अमेरिका से कैम्पेन करके दीपक गुप्ता ने लोगों को चर्चा का जो मसाला दिया, उसके चलते अगले रोटरी वर्ष में प्रस्तुत होने वाली मनोज लाम्बा की उम्मीदवारी की चुनावी तैयारी का 'उद्घाटन' कार्यक्रम बुरी तरह फेल हो गया

नई दिल्ली । रोटरी क्लब दिल्ली रिवरसाइड के लोगों ने यह देख/जान कर अपने आप को बहुत लुटा हुआ पाया कि जिस कार्यक्रम को उन्होंने मनोज लाम्बा की अगले रोटरी वर्ष की उम्मीदवारी को लॉन्च करने के लिए आयोजित किया था, उस कार्यक्रम में मनोज लाम्बा 'की तरफ' तो किसी ने देखा तक नहीं और कार्यक्रम में मौजूद लोगों की चर्चाओं के केंद्र में सुभाष जैन और दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी ही रही । उल्लेखनीय है कि मनोज लाम्बा अगले वर्ष डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने की बात कर रहे हैं । डिस्ट्रिक्ट के चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों का कहना है कि मनोज लाम्बा अपनी उम्मीदवारी की बात तो कर रहे हैं, लेकिन अपनी उम्मीदवारी की तैयारी को लेकर उन्हें जितना गंभीर होना/दिखना चाहिए - वह उतने गंभीर हो/दिख नहीं रहे हैं । सिर्फ इतना ही नहीं, मनोज लाम्बा की तरफ से डिस्ट्रिक्ट के पदाधिकारियों तथा नेताओं की जिस तरह की शिकायतें लोगों को सुनने को मिलीं, उससे भी खुद मनोज लाम्बा की ही कमजोरियाँ सामने आईं हैं । इस पृष्ठभूमि में, मनोज लाम्बा के क्लब - रोटरी क्लब दिल्ली रिवरसाइड ने सामान्य कार्यक्रमों से हट कर एक अलग तरह का कार्यक्रम रखा और डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोगों को आमंत्रित किया । क्लब के लोगों ने इस बात को छिपाने की कोई बहुत कोशिश भी नहीं की कि इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य लोगों को अगले रोटरी वर्ष में प्रस्तुत होने वाली मनोज लाम्बा की उम्मीदवारी की गंभीरता से परिचित कराना है । लेकिन कार्यक्रम में जो माहौल बना, उसने कार्यक्रम के इस मुख्य उद्देश्य को तार तार ही कर दिया - और इस तरह अगले रोटरी वर्ष में प्रस्तुत हो सकने वाली मनोज लाम्बा की उम्मीदवारी के अभियान को मैनेज करने की कमजोरी ही सामने आई । 
कार्यक्रम में चर्चा सुभाष जैन और दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी की रही । यह बहुत स्वाभाविक भी था । अभी जब इसी वर्ष के चुनाव को लेकर लोगों के बीच गर्मी बनी हुई है, तो किसी का भी ध्यान अगले रोटरी वर्ष की चुनावी संभावनाओं पर भला क्यों जायेगा ? रोटरी क्लब दिल्ली रिवरसाइड के लोगों ने भी बाद में महसूस किया है कि मनोज लाम्बा की उम्मीदवारी को लोगों के बीच लॉन्च करने की उनकी टाइमिंग सही नहीं रही, और उनका कार्यक्रम करना फिजूल ही साबित हुआ है । उनका कार्यक्रम उनके लिए भले ही फिजूल साबित हुआ हो, लेकिन डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की इस वर्ष की चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों के लिए वह बड़ा मुफीद साबित हुआ । कार्यक्रम में मौजूद लोगों के बीच की चर्चाओं में सुभाष जैन और दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी का ही संदर्भ रहा, और सबसे ज्यादा चर्चा अमेरिका से किए गए दीपक गुप्ता के फोन-कॉल्स के प्रसंग की रही । कार्यक्रम में मौजूद लोगों में शायद ही कोई हो जिसे दीपक गुप्ता की फोन-कॉल न मिली हो, कइयों को तो यह एक से अधिक बार मिली; और हरेक ने इस बात का भी जिक्र किया कि दीपक गुप्ता ने उनसे पूछा है कि आपके लिए गिफ्ट क्या लाऊँ ?
उल्लेखनीय है कि दीपक गुप्ता अपने पारिवारिक काम से इन दिनों अमेरिका गए हुए हैं । दिल्ली/गाजियाबाद से करीब तेरह हजार किलोमीटर दूर होते हुए भी दीपक गुप्ता ने यहाँ के लोगों के साथ जो संपर्क बनाया हुआ है, उसने डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में खासी खलबली मचा दी है । हालाँकि दीपक गुप्ता के अतिरेक ने उनके 'अभियान' को मजाक का विषय भी बना दिया है । रोटरी क्लब दिल्ली रिवरसाइड के कार्यक्रम में इकट्ठा हुए लोगों के बीच की चर्चा में यह बात सुनी भी गई कि अमेरिका से दीपक गुप्ता का जब पहला फोन आया, तो अच्छा लगा था - लेकिन जब दोबारा/तिबारा आया और पता चला कि बहुतों को उन्होंने फोन किया है, तो मामला मजाक का विषय बनता गया । कार्यक्रम में इकट्ठा हुए लोगों के बीच ही यह भी सुना गया कि दीपक गुप्ता ने तीन सौ से ज्यादा लोगों को फोन किए, और शायद ही कोई उनका फोन पाने से छूटा हो । लोगों ने मजाक में यह भी कहा/सुना कि दीपक गुप्ता ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों के सामने एक नया स्टैंडर्ड रख दिया है कि उम्मीदवार लोग पहले अमेरिका जाएँ, और फिर वहाँ से फोन करें तथा हालचाल पूछने के साथ-साथ गिफ्ट की च्वाइस भी पूछें ।
दीपक गुप्ता के इस 'व्यवहार' को होशियारीभरे राजनीतिक मूव के रूप में पहचानते हुए लोगों ने लेकिन इस तथ्य को रेखांकित किया कि दीपक गुप्ता ने अपने अतिरिक्त उत्साह में इससे मिल सकने वाले फायदे को सीमित कर लिया है । लोगों के बीच हुई चर्चा में इस बात का भी जिक्र रहा कि ज्यादा जोश दिखाने के चक्कर में दीपक गुप्ता ने गिफ्ट की जो बात की, उसने लोगों को हर्ट किया है, और लोगों ने इसे अपने स्वाभिमान पर चोट की तरह देखा/महसूस किया है । यूँ तो रोटरी की प्रशासनिक व्यवस्था में भी और रोटरी की चुनावी राजनीति में भी गिफ्ट की एक महत्वपूर्ण उपस्थिति है; कुछेक लोग माँग कर गिफ्ट 'लेने' के लिए यहाँ बदनाम भी हैं - लेकिन च्वाइस पूछ पूछ कर गिफ्ट देने का उदाहरण प्रस्तुत करने का श्रेय दीपक गुप्ता को दिया जा रहा है । कुछेक लोगों को लेकिन यह भी लग रहा है कि इस श्रेय के चक्कर में दीपक गुप्ता ने मुसीबत भी मोल ले ली है । इस मुसीबत के साथ दीपक गुप्ता को चर्चा भी खूब मिली है । रोटरी क्लब दिल्ली रिवरसाइड के कार्यक्रम में दीपक गुप्ता मौजूद नहीं थे, लेकिन फिर भी वहाँ बातें उनकी ही हो रही थीं । अमेरिका में बैठे दीपक गुप्ता ने वहाँ से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की अपनी उम्मीदवारी के लिए जिस तरह से कैम्पेन किया, उसे लेकर यहाँ डिस्ट्रिक्ट में प्रतिक्रियाएँ भले ही मिलीजुली सामने आईं हैं - लेकिन रोटरी क्लब दिल्ली रिवरसाइड के कार्यक्रम में हुई चर्चा से यह जरूर दिखा कि उनके कैम्पेन ने हलचल पूरी मचाई है । इस हलचल के चलते लोगों का सारा ध्यान सुभाष जैन और दीपक गुप्ता के बीच होते दिख रहे चुनाव पर केंद्रित होने ने लेकिन मनोज लाम्बा का काम बिगाड़ दिया, और अगले रोटरी वर्ष में प्रस्तुत होने वाली उनकी उम्मीदवारी की चुनावी तैयारी के 'उद्घाटन' कार्यक्रम को पूरी तरह फेल कर दिया । 

Saturday, September 19, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की पुणे ब्रांच में 'मराठा राजनीति' करने का आरोप झेल रहे एसबी जावरे गैर मराठों की नाराजगी से बचने के लिए यशवंत कसार की उम्मीदवारी की बलि चढ़ाने के लिए अंततः मजबूर हुए

पुणे । यशवंत कसार ने वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी को वापस लेकर लोगों को उससे ज्यादा चौंकाया है, जितना कि उन्होंने अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत करके चौंकाया था । यशवंत कसार की उम्मीदवारी की प्रस्तुति और फिर अब अचानक तरीके से हुई उसकी वापसी ने पुणे में लोगों को चर्चा का मौका इसलिए दिया - क्योंकि दोनों ही 'फैसलों' के पीछे सेंट्रल काउंसिल के सदस्य एसबी जावरे को ही देखा/पहचाना जा रहा है । पुणे में लोगों ने इस बात पर भी बहुत माथापच्ची की कि एसबी जावरे ने आखिर क्या सोच कर यशवंत कसार को रीजनल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बनवाया, और अब लोगों के बीच यह सवाल चर्चा में है कि एसबी जावरे ने आखिर क्यों रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत यशवंत कसार की उम्मीदवारी को वापस करा दिया ? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं और चर्चा में हैं क्योंकि चुनावी संदर्भ में न तो एसबी जावरे के सामने जीतने की समस्या है, और न यशवंत कसार के लिए जीतना कोई बड़ी चुनौती थी । उनके विरोधी भी मानते और कहते हैं कि एसबी जावरे यदि घर भी बैठ जाएँ तो भी चुनाव जीत जायेंगे, और यशवंत कसार को भी वह आसानी से चुनाव जितवा लेंगे । तब फिर एसबी जावरे को इतनी नाटक-नौटंकी करने की जरूरत आखिर क्यों पड़ी ? इस 'क्यों' 'क्यों' 'क्यों' का कोई आधिकारिक जबाव लोगों को न तो मिला है, और न ही कभी मिलेगा; इसलिए सारा माजरा 'बिटविन द लाइंस' में ही समझना होगा और इसी कारण से पुणे में चर्चाओं का बाजार खासा गर्म है ।
पुणे में बहुत से लोगों का मानना और कहना है कि एसबी जावरे ने यशवंत कसार की उम्मीदवारी के जरिए दरअसल कई 'काम' करने चाहे थे - उन्होंने एक तरफ तो सर्वेश जोशी और अंबरीश वैद्य के पर कतरने की 'फील्डिंग' लगाई थी, और दूसरी तरफ रीजनल काउंसिल में अपना सीधा दखल रखने/बनाने का मौका देखा था । सर्वेश जोशी के पिछली बार के बहुत से समर्थक चूँकि साथ छोड़ गए हैं, इसलिए उनके सामने इस बार अपनी सीट बचाने की गंभीर चुनौती वैसे ही है; ऐसे में एसबी जावरे को लगा कि यशवंत कसार की उम्मीदवारी के जरिए वह सर्वेश जोशी की संभावनाओं को और धक्का देंगे, तथा सर्वेश जोशी को निपटाने का श्रेय ले लेंगे । इससे पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में उनकी 'चौधराहट' और बढ़ेगी । यशवंत कसार के जरिए लेकिन एसबी जावरे ने मुख्य रूप से अंबरीश वैद्य का शिकार करने की योजना बनाई थी । उल्लेखनीय है कि अंबरीश वैद्य को पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में एक बड़ी संभावना के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । माना जा रहा है कि रीजनल काउंसिल के चुनाव में उन्हें काफी वोट मिलेंगे, और पुणे ब्रांच के चुनाव के नतीजे को दोहराते हुए वह एक खासी बड़ी जीत प्राप्त करेंगे । एसबी जावरे को इससे तो कोई समस्या नहीं है; किंतु उनकी चिंता इस आशंका से है कि अगली बार यशवंत वैद्य सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बनेंगे । एसबी जावरे की तरफ से सेंट्रल काउंसिल के लिए अगली बार शेखर चितले की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने की चर्चा है । अगली बार अंबरीश वैद्य कोई चुनौती खड़ी न कर सकें, इसके लिए एसबी जावरे को अंबरीश वैद्य के पर अभी से कतर देना जरूरी लगा ।
इसके लिए एसबी जावरे ने यशवंत कसार को मोहरा बनाया । उन्हें उम्मीद रही कि पुणे ब्रांच के चेयरमैन के रूप में यशवंत कसार युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वोट लेकर अंबरीश वैद्य को नुकसान पहुँचायेंगे । यशवंत कसार की उम्मीदवारी के चलते अंबरीश वैद्य चुनाव हार जायेंगे, यह उम्मीद तो एसबी जावरे को नहीं रही; लेकिन यह विश्वास उन्हें जरूर रहा कि यशवंत कसार की उम्मीदवारी के चलते अंबरीश वैद्य के वोट कम जरूर होंगे । एसबी जावरे का यही उद्देश्य भी था । उनका आकलन रहा कि रीजनल काउंसिल के चुनाव में अंबरीश वैद्य को यदि ज्यादा बड़ी जीत प्राप्त करने से रोका जा सका, तो पुणे की इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अंबरीश वैद्य का जो ऑरा बना हुआ है, उसे मिटाया जा सकेगा - और उससे पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति पर अपनी पकड़ को यथावत भी बनाया रखा जा सकेगा । एसबी जावरे को विश्वास रहा कि इस सबके चलते पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अंबरीश वैद्य उनके लिए आगे कभी बड़ी चुनौती भी नहीं बन पायेंगे । समझा जाता है कि पुणे में इंस्टीट्यूट की भविष्य की राजनीति की बागडोर को अपने हाथों में सुरक्षित करने के लिए ही एसबी जावरे को अंबरीश वैद्य को अभी से घेरना जरूरी लगा, और इसके लिए ही उन्होंने यशवंत कसार को मोहरा बनाया । 
संजय पवार की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उम्मीदवारी ने लेकिन एसबी जावरे की दूसरों की राजनीतिक घेराबंदी करने की 'तैयारी' की हवा निकाल दी । समझा जाता है कि संजय पवार की उम्मीदवारी के जरिए सर्वेश जोशी ने एसबी जावरे को उन्हीं की 'तरकीब' से जबाव देने का प्रयास किया । संजय पवार की उम्मीदवारी से एसबी जावरे की जीत पर तो कोई संकट आया नहीं दिखता है, लेकिन उनके वोटों की संख्या लोगों को अवश्य घटती हुई नजर आ रही है । संजय पवार की उम्मीदवारी से एसबी जावरे को बड़ी चुनौती मिलती भले ही न दिख रही हो - लेकिन संजय पवार की उम्मीदवारी से एसबी जावरे को एक दूसरा बड़ा संकट सामने खड़ा जरूर दिखाई दिया । यह संकट जातीय ध्रुवीकरण से पैदा हो सकने वाली स्थिति का है । चार्टर्ड एकाउंटेंट जैसे प्रोफेशन में जातीय गोलबंदी की कोई भूमिका होनी तो नहीं चाहिए, लेकिन चुनावी खिलाड़ियों द्वारा सफलता के फार्मूले बनाने में जिस तरह जाति का सहारा लिया जाता है, उससे इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में जातीय गोलबंदी की महत्वपूर्ण भूमिका बन गई है । एसबी जावरे ने जिस तरह यशवंत कसार को आगे किया, और उनसे 'निपटने' के लिए जिस तरह संजय पवार आगे आए या किए गए - उससे पुणे के गैर मराठा लोगों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई । इन तीनों के मराठा होने के कारण गैर मराठा लोगों को लगा कि पुणे में इंस्टीट्यूट की राजनीति क्या सिर्फ मराठा ही करेंगे ? गैर मराठा लोगों के बीच उठे इस सवाल से पैदा हो सकने वाले खतरे को एसबी जावरे ने समय रहते भाँप लिया और तुरंत कार्रवाई करते हुए यशवंत कसार की उम्मीदवारी को वापस करवा दिया । पुणे में सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में एसबी जावरे पर एक बड़ा गंभीर आरोप मराठावाद फैलाने का है । 
इसे पुणे ब्रांच में एसबी जावरे द्वारा की गई राजनीति से समझा जा सकता है । पुणे में मराठा वोट मुश्किल से आठ/दस प्रतिशत होंगे, किंतु एसबी जावरे की दिलचस्पीपूर्ण सक्रियता से पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी में इस बार आठ में से तीन मराठा सदस्य चुन कर आए । इन तीनों को वोट हालाँकि कम मिले -  इन तीनों को मिले वोटों का कुल जोड़ अकेले अंबरीश वैद्य को मिले वोटों से कम रहा । इसके बावजूद एसबी जावरे की राजनीति के चलते इनमें से दो ब्रांच के चेयरमैन बने, और इस वर्ष तो पक्षपात इस हद तक हुआ है कि चेयरमैन और वाइस चेयरमैन के पद मराठा सदस्यों के पास हैं । ब्रांच के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वाले तीन गैर मराठा सदस्यों में से दो को ब्रांच की गतिविधियों में बिलकुल अलग-थलग रखा गया । ब्रांच के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वालों में तीसरे नंबर पर रहीं रेखा धमनकर को पिछली बार चेयरपरसन बनाने के लिए तर्क दिए गए कि उनका ब्रांच में यह दूसरा टर्म है, और उन्हें चेयरपरसन बना कर पुणे में महिला चेयरपरसन बनने/बनाने का इतिहास बनाया जा सकता है - लेकिन एसबी जावरे ने इन तर्कों को यह कह कर खारिज कर दिया कि 'उनकी राजनीति' में रेखा धमनकर के लिए कोई जगह है नहीं । एसबी जावरे की मराठा राजनीति के तहत ही ब्रांच के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वाले अंबरीश वैद्य को तीनों वर्ष पूरी तरह किनारे बैठाए रखा गया । 
पुणे ब्रांच में एसबी जावरे द्वारा की गई इस राजनीति के प्रति गैर मराठा लोगों के बीच नाराजगी के स्वर तो हैं, किंतु वह न तो संगठित हैं और न बहुत मुखर हैं । यशवंत कसार और संजय पवार की अचानक प्रस्तुत हुई उम्मीदवारियों से लेकिन उस नाराजगी के भड़कने का मौका बनता दिखा । संजय पवार की उम्मीदवारी में हालाँकि एसबी जावरे का कोई हाथ नहीं है, किंतु संजय पवार की उम्मीदवारी को चूँकि एसबी जावरे की 'राजनीति' के प्रतिफल के रूप में ही देखा/पहचाना गया है - इसलिए उस नाराजगी का ठीकरा एसबी जावरे के सिर पर फूटने का खतरा नजर आया । एसबी जावरे ने इस खतरे को तुरंत से पहचान लिया, और खतरे को टालने के लिए तुरंत से यशवंत कसार की उम्मीदवारी को वापस कर/करा दिया । एसबी जावरे ने अपनी जान बचाने के लिए यशवंत कसार की उम्मीदवारी की जो बलि ली है, उसने फिलहाल सर्वेश जोशी और अंबरीश वैद्य को बड़ी राहत दी है । 

Thursday, September 17, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3120 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी राजनीति की आड़ में राजा साबू से फायदा उठाने की उम्मीद में प्रदीप मुखर्जी ने अभी तक अपना रवैया स्पष्ट नहीं किया है - और राजीव माहेश्वरी तथा उनके समर्थकों को असमंजस में डाला हुआ है

इलाहाबाद । प्रदीप मुखर्जी के असमंजसभरे रवैये के कारण डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी का मामला लगातार उलझता ही जा रहा है । राजीव माहेश्वरी के नजदीकियों के अनुसार, प्रदीप मुखर्जी ने राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी का समर्थन करने का वायदा तो कर लिया है, किंतु राजीव माहेश्वरी से किए गए अपने इस वायदे को लेकर वह सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहने से बच रहे हैं । राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी का झंडा उठा लेने से बचने के लिए पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर प्रदीप मुखर्जी तर्क दे रहे हैं कि अभी बहुत समय है, और अभी से यह सब नहीं शुरू करना चाहिए । राजीव माहेश्वरी के समर्थकों का कहना है कि पिछले वर्षों में तो प्रदीप मुखर्जी बहुत पहले से 'अपने' उम्मीदवार के लिए काम शुरू कर देते रहे हैं, और अब वह देर पर देर होते जाने के बावजूद भी 'बहुत समय' होने का तर्क दे रहे हैं । प्रदीप मुखर्जी के इस दोहरे रवैये में राजीव माहेश्वरी के समर्थकों को 'धोखा' नजर आ रहा है; और उन्हें लग रहा है कि प्रदीप मुखर्जी उनके साथ कोई खेल खेल रहे हैं । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति की चाबी चूँकि प्रदीप मुखर्जी के पास ही देखी/मानी जाती है, इसलिए प्रदीप मुखर्जी के टालू रवैये ने राजीव माहेश्वरी के नजदीकियों व समर्थकों को चिंता में डाला हुआ है, और उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि प्रदीप मुखर्जी आखिरकार खिचड़ी क्या पका रहे हैं ? प्रदीप मुखर्जी के रवैये से निराश व परेशान हो रहे राजीव माहेश्वरी के समर्थकों का हालाँकि यह भी मानना और कहना है कि प्रदीप मुखर्जी के पास राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है, लेकिन फिर भी प्रदीप मुखर्जी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद को लेकर अपनी राजनीति अभी तक भी 'घोषित' नहीं कर रहे हैं - इसलिए सारा मामला राजीव माहेश्वरी के लिए ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी संदेहास्पद होता जा रहा है ।
राजीव माहेश्वरी के समर्थक यदि यह मान रहे हैं कि प्रदीप मुखर्जी के पास राजीव माहेश्वरी का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है, तो इसके दो कारण हैं : एक कारण तो यह कि राजीव माहेश्वरी उसी रोटरी क्लब इलाहाबाद मिडटाउन के सदस्य हैं, जो प्रदीप मुखर्जी का क्लब है । ऐसे में, प्रदीप मुखजी यदि राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी का समर्थन नहीं करते हैं, तो क्लब में राजीव माहेश्वरी के नजदीकी प्रदीप मुखर्जी के लिए मुश्किलें खड़ी कर देंगे । दूसरा कारण लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण है, और वह यह कि राजीव माहेश्वरी डिस्ट्रिक्ट में रोटरी इंटरनेशनल के पूर्व प्रेसीडेंट राजेंद्र उर्फ़ राजा साबू के भान्जे के रूप में जाने/पहचाने जाते हैं । राजा साबू का रोटरी में जो रुतबा है, उसे प्रदीप मुखर्जी भी निश्चित रूप से जानते/समझते हैं - और इसलिए वह ऐसा कोई काम नहीं करेंगे, जिससे कि राजा साबू नाराज हों और फिर बदले में वह प्रदीप मुखर्जी के लिए रोटरी के दरवाजे बंद करने में जुटें । राजीव माहेश्वरी के कुछेक समर्थकों का तो दावा है कि राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी के बारे में 'मामा जी' राजा साबू की प्रदीप मुखर्जी से बात भी हो गई है, और 'मामा जी' ने राजीव माहेश्वरी को आश्वस्त भी कर दिया है । इसके बावजूद, राजीव माहेश्वरी के समर्थकों को प्रदीप मुखर्जी का रवैया ठीक नहीं लग रहा है । माना जा रहा है कि जिन दो कारणों को राजीव माहेश्वरी की 'ताकत' के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है, वही दो कारण वास्तव में उनकी कमजोरी भी हैं । प्रदीप मुखर्जी के नजदीकियों का कहना है कि प्रदीप मुखर्जी इस बात को लेकर बहुत आशंकित हैं कि उनके क्लब में उनके और सतपाल गुलाटी के बाद एक और गवर्नर हो जाए । भविष्य की राजनीति के संदर्भ में वह इसे अपने लिए एक खतरे के रूप में देख रहे हैं । और जहाँ तक राजा साबू वाला ऐंगल है, तो प्रदीप मुखर्जी को राजा साबू की तरफ से अभी यह नहीं बताया गया है कि उनके भान्जे को गवर्नर बनवाने के बदले में राजा साबू उन्हें क्या ईनाम देंगे । प्रदीप मुखर्जी की एक बड़ी शिकायत यह है कि रोटरी में उन्हें वह मुकाम नहीं मिला है, जिसके कि वास्तव में वह हकदार हैं । डिस्ट्रिक्ट्स के नेताओं में प्रदीप मुखर्जी का जलवा ज्यादा बड़ा है, किंतु फिर भी रोटरी में उन्हें वह पहचान और तवज्जो नहीं मिली है, जो कुछेक दूसरे डिस्ट्रिक्ट-नेताओं को मिली है । राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी में प्रदीप मुखर्जी को राजा साबू के साथ 'सौदा' करके अपनी इस शिकायत को दूर करने का बढ़िया मौका मिला है, और इस मौके का पूरा पूरा फायदा उठाने के लिए ही उन्होंने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी लड़ाई को लेकर अपने पत्ते अभी तक छिपाए हुए हैं और कुछ भी कहने से बच रहे हैं ।
उल्लेखनीय है कि रोटरी की राजनीति में प्रदीप मुखर्जी को कल्याण बनर्जी व शेखर मेहता के 'आदमी' के रूप में देखा/पहचाना जाता है । इनके सहारे प्रदीप मुखर्जी अपने काम तो कराते रहे हैं - जैसे एक बड़ा काम उन्होंने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव हारे हुए सतपाल गुलाटी को गवर्नर 'बनवाने' का किया - लेकिन रोटरी की बड़ी 'बैठक' में उनकी खास पहचान नहीं बन सकी है । प्रदीप मुखर्जी को इस बात का बड़ा मलाल है । राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी में उन्हें राजा साबू के साथ तार जोड़ने का जो अवसर दिख रहा है, वह अवसर उन्हें उनका मलाल दूर करने का संकेत भी दे रहा है । समस्या लेकिन यहाँ यह है कि राजा साबू का लोगों से काम कराने का अपना स्टाइल है - वह खुद सामने आने की बजाए अपने 'दूतों' से माहौल बनवाते हैं । राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी के मामले में भी उन्होंने माहौल तो बनवा दिया है; और उम्मीद में हैं कि प्रदीप मुखर्जी अब उनके 'काम' में जुट जायेंगे । प्रदीप मुखर्जी किंतु चाहते हैं कि राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी को लेकर राजा साबू उनसे सीधी बात करें, ताकि उन्हें भी समझने का मौका मिले कि राजीव माहेश्वरी के लिए काम करके आखिर उन्हें क्या मिलेगा ? प्रदीप मुखर्जी की इस चाहत को समझने वाले लोगों का कहना है कि प्रदीप मुखर्जी ने लगता है कि राजा साबू को ठीक से समझा/पहचाना नहीं है, और इसलिए ऐसी चाहत कर रहे हैं, जिसका पूरा होना संभव नहीं है । दूसरे लोग भले ही ऐसा सोच और कह रहे हों, किंतु प्रदीप मुखर्जी को विश्वास है कि राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी को लेकर राजा साबू अवश्य ही उनसे सीधी बात करेंगे । ऐसा हो - इसीलिए प्रदीप मुखर्जी ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की राजनीति के संदर्भ में अभी तक अपना रवैया स्पष्ट नहीं किया है - और राजीव माहेश्वरी तथा उनके समर्थकों को वह असमंजस में डाले हुए हैं । 
प्रदीप मुखर्जी को यह विश्वास इसलिए है क्योंकि वह जानते हैं कि अपने 'स्टाइल' के चक्कर में राजा साबू को अपने डिस्ट्रिक्ट में और रोटरी में भारी फजीहत का शिकार होना पड़ा है । उल्लेखनीय है कि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट - रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 में पिछले रोटरी वर्ष में हुए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में राजा साबू के इशारे और उनके दूतों के प्रयासों के बावजूद नोमीनेटिंग कमेटी में अधिकृत उम्मीदवार के रूप में जब टीके रूबी को चुन लिया गया, तो राजा साबू ने इस फैसले को बदलने के लिए तिकड़में लगाईं । करीब पाँच महीने तक पर्दे के पीछे से राजा साबू ने जो तिकड़में लगाईं, वह सब एक एक करके फेल होती गईं । पाँच महीनों में अपनी भारी थुक्का-फजीहत कराने के बाद राजा साबू को समझ में आया कि पर्दे के पीछे रह कर काम नहीं बनेगा, और तब वह अपने फौज-फाटे के साथ पर्दे के सामने आने के लिए मजबूर हुए । खुली बेशर्मीभरी 'बेईमानी' के साथ कार्रवाई करते हुए राजा साबू अपना मनमाफिक फैसला करवाने में तो अंततः सफल हुए हैं, लेकिन इस सफलता ने उनके 'ऑरा' को धूल में मिला दिया है । (इस बारे में जो कोई विस्तार से जानना चाहे, वह 'रचनात्मक संकल्प' की पिछले करीब छह महीनों की रिपोर्ट्स को देख सकता है ।) इस मामले में, कई लोगों को लगता है कि राजा साबू यदि समय रहते माहौल को ठीक से परख लेते और समझ लेते कि पर्दे के पीछे रह कर उनका काम नहीं बनेगा, और उन्हें अपना काम बनाने के लिए पर्दे के सामने आना ही पड़ेगा, तो संभव है कि उनकी इतनी फजीहत न होती । इसी बिना पर प्रदीप मुखर्जी को विश्वास है कि राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी के संदर्भ में राजा साबू ज्यादा देर तक इंतजार नहीं करेंगे, तथा जल्दी ही पर्दे के सामने आने के लिए मजबूर होंगे - और तब वह राजा साबू के साथ सीधी 'बात' कर लेंगे । प्रदीप मुखर्जी को ही नहीं, दूसरे कई लोगों को भी लगता है कि राजीव माहेश्वरी की उम्मीदवारी के संदर्भ में राजा साबू 'कंस मामा' नहीं, बल्कि 'शकुनि मामा' साबित होंगे, तथा अपने भान्जे को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (नॉमिनी) पद की गद्दी दिलवाने के लिए कुछ भी कसर नहीं छोड़ेंगे । इसी का इंतजार करते हुए प्रदीप मुखर्जी ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी राजनीति में अपनी भूमिका को लेकर अभी तक चुप्पी साधी हुई है, और असमंजस बनाया हुआ है । 

Wednesday, September 16, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 में आयोजित 'स्वच्छ RID 3080' कार्यक्रम में जुटे लोगों ने राजा साबू एण्ड कंपनी की मनमानियों से निपटने के तौर-तरीकों पर विचार-विमर्श करते हुए जिस तरह से टीके रूबी की लड़ाई में सहयोग व समर्थन घोषित किया, उससे इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई का डिस्ट्रिक्ट का कार्यक्रम विवाद में फँसा

पंचकुला । 'स्वच्छ RID 3080' में डिस्ट्रिक्ट के प्रमुख सदस्यों के जो तेवर देखने/सुनने को मिले, उसके बाद 27 सितंबर की प्रस्तावित इंटरसिटी में इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई को दिए गए निमंत्रण को लेकर गवर्नर कार्यालय में हड़कंप सा मच गया है । गवर्नर कार्यालय को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन के कुछेक शुभचिंतकों ने मनोज देसाई को दिए गए निमंत्रण को वापस लेने का सुझाव दिया है । इस सुझाव के पीछे उनका तर्क है कि पिछले रोटरी वर्ष में चुने जाने वाले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद को लेकर अभी तक जिस तरह की राजनीति हो रही है, और डिस्ट्रिक्ट के लोगों द्वारा लिए गए फैसले को पलट कर कॉलिज ऑफ गवर्नर्स ने जिस तरह से अपना फैसला डिस्ट्रिक्ट पर थोपा है - उसके खिलाफ लोगों के बीच भारी नाराजगी है; और लोगों की यह नाराजगी मनोज देसाई के सामने यदि फूटी तो डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में डेविड हिल्टन की बड़ी बदनामी होगी । डेविड हिल्टन के शुभचिंतकों का कहना है कि कॉलिज ऑफ गवर्नर्स के नेता लोग डेविड हिल्टन को इस्तेमाल कर रहे हैं, और लोगों के बीच उन्हें बदनाम करवा रहे हैं, और इस तरह उनके गवर्नर-काल को खराब कर रहे हैं - डेविड हिल्टन पता नहीं किस लालच में इस्तेमाल हो रहे हैं और बलि का बकरा बन रहे हैं । इंटरसिटी के लिए मनोज देसाई को दिए गए निमंत्रण को वापस लेने के सुझाव की भनक कॉलिज ऑफ गवर्नर्स को मिली, तो वह भी सक्रिय हुए और उन्होंने डेविड हिल्टन को हिदायत दी कि इस सुझाव को मान मत लेना । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन से तो इनका कहना यह है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई के व्यस्त कार्यक्रम में खासी मुश्किल से तो समय मिला है, उसे यदि अभी निरस्त कर दिया तो फिर आगे पता नहीं कि उनका समय मिल भी सकेगा या नहीं; लेकिन दूसरे लोगों से इन्होंने कहा है कि वह चाहते हैं कि मनोज देसाई के सामने 'दंगा' हो, ताकि वह विरोधियों को बदनाम कर सकें । कॉलिज ऑफ गवर्नर्स के अधिकतर लोगों को अब डिस्ट्रिक्ट की, रोटरी की और यहाँ तक की खुद अपनी बदनामी की कोई चिंता नहीं रह गई है । उनका कहना है कि रोटेरियंस और रोटरी पदाधिकारियों के बीच उन्हें जितना 'नंगा' होना था, वह हो चुके; अब इससे ज्यादा और क्या होंगे ? अपने यहाँ एक मशहूर कहावत भी है कि - 'नंग बड़ा परमेश्वर से ।'
सो, डिस्ट्रिक्ट के कॉलिज ऑफ गवर्नर्स के नेता लोगों को लगता है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई के सामने डिस्ट्रिक्ट के लोग यदि उनकी पोल खोलेंगे भी, तो मनोज देसाई क्या कर लेंगे ? कॉलिज ऑफ गवर्नर्स के नेताओं का मानना और कहना है कि मनोज देसाई को सब पता है कि डिस्ट्रिक्ट 3080 में, जो पूर्व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट राजेंद्र उर्फ़ राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट के रूप में जाना/पहचाना जाता है, क्या चल रहा है; उन्हें यह भी पता है कि यहाँ जो कुछ भी हो रहा है, वह सब राजा साबू के दिशा-निर्देशन में ही हो रहा है - ऐसे में मनोज देसाई बेचारे क्या करेंगे ? इनका कहना है कि मनोज देसाई इस बात को भूले थोड़े ही होंगे कि इंटरनेशनल डायरेक्टर बनने के लिए वह राजा साबू की मदद पाने के लिए कैसे चक्कर लगाया करते थे, क्योंकि यह कोई बहुत पुरानी बात थोड़े ही है । अब इस बात को याद रखते हुए मनोज देसाई किस मुँह से यहाँ राजा साबू के दिशा-निर्देशन में जो चल रहा है, उस पर कुछ कह पायेंगे । राजा साबू के 'प्रताप' से चौंधियाएँ कॉलिज ऑफ गवर्नर्स के नेता ही नहीं, दूसरे कई लोग भी विश्वास के साथ दावा कर रहे हैं कि राजा साबू के दिशा-निर्देशन में पूरी चुनावी प्रक्रिया का जिस तरह से मजाक बना दिया गया है, उस पर जब इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन ही कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर बेचारे मनोज देसाई ही क्या करेंगे ? कॉलिज ऑफ गवर्नर्स के नेताओं को मनोज देसाई की तरफ से कोई कार्रवाई होने का डर नहीं है; उन्हें डर सिर्फ इस बात का है कि उनके डिस्ट्रिक्ट में जो हो रहा है, उसके कारण मनोज देसाई कहीं उनके डिस्ट्रिक्ट में आने से इंकार न कर दें । इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन चूँकि पहले एक बार उनके डिस्ट्रिक्ट में आने से इंकार कर चुके हैं, इसलिए राजा साबू एण्ड कंपनी नहीं चाहती है कि 27 सितंबर के कार्यक्रम में इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई के आने में कोई गड़बड़ी हो । 
'स्वच्छ RID 3080' के आयोजन ने राजा साबू एण्ड कंपनी को और डरा दिया है । रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसा देवी ने यह आयोजन किया तो एनवायरनमेंट प्रोजेक्ट के रूप में; लेकिन इस आयोजन में जिस संख्या और जोश के साथ लोग शामिल हुए, और उन्होंने डिस्ट्रिक्ट के 'बिगड़ते वातावरण' पर जिस तरह खुल कर चर्चा की - उससे साबित हुआ है कि डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच राजा साबू एण्ड कंपनी की हरकतों के खिलाफ बेहद नाराजगी और विरोध है । यह आयोजन औपचारिक रूप से था तो नष्ट होते पर्यावरण को बचाने के उपायों पर विचार करने के लिए, और मंच से इसी संदर्भ में बातें भी हुईं; किंतु अनौपचारिक रूप से लोगों के बीच जो बातें हुईं, वह राजा साबू एण्ड कंपनी के लिए खतरे की घंटी बजाती हैं । यह आयोजन जिस रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसा देवी ने किया, वह चूँकि टीके रूबी का क्लब है - इसलिए राजा साबू एण्ड कंपनी के लोगों ने इस आयोजन के खिलाफ डिस्ट्रिक्ट में कुप्रचार भी किया और डिस्ट्रिक्ट में यह संदेश भी दिया कि जो कोई भी इस आयोजन में जायेगा, राजा साबू उससे नाराज हो जायेंगे । इसके बावजूद अच्छी खासी संख्या में लोग इस आयोजन में जुटे । आयोजन में आधिकारिक रूप से बिगड़ते पर्यावरण को बचाने को लेकर बातें हुईं, तो आधिकारिक कार्यक्रम समाप्त होने के बाद लोगों की अनौपचारिक बातचीत में राजा साबू एण्ड कंपनी की मनमानियों से निपटने के तौर-तरीकों पर विचार-विमर्श हुआ और टीके रूबी की लड़ाई में खुले तौर पर सहयोग व समर्थन घोषित किए गए । 
'स्वच्छ RID 3080' में लोगों के जो तेवर दिखे, उसके कारण ही 27 सितंबर को हो रही इंटरसिटी में मनोज देसाई की उपस्थिति को लेकर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कार्यालय में हलचल मची । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन के शुभचिंतकों को लगता है कि मनोज देसाई के सामने राजा साबू एण्ड कंपनी की मनमानियों से परेशान लोगों ने यदि कोई बबाल किया तो आरोप उन पर ही आयेगा कि वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर होते हुए एक कार्यक्रम ठीक से आयोजित नहीं कर पाए । डेविड हिल्टन और उनके नजदीकी इस बात को लेकर पहले से ही परेशान हैं कि पिछले रोटरी वर्ष में होने वाले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के झमेले के कारण उनका अपना गवर्नर-काल बर्बाद होता जा रहा है । राजा साबू एण्ड कंपनी के नेताओं ने उन्हें भरोसा दिया/दिलाया था कि एक बार चुनावी नतीजा आ जाए, फिर उसके बाद हालात अपने आप ठीक हो जायेंगे । चुनावी नतीजा आने के बाद किंतु हालात और बिगड़ते नजर आ रहे हैं । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन को जिस तरह टीके रूबी तथा उनके क्लब के खिलाफ अदालत में कैविएट फाइल करने के लिए मजबूर किया गया, उससे खुद डेविड हिल्टन और उनके शुभचिंतक परेशान हैं । दरअसल डेविड हिल्टन के अदालत जाने की पहल करने से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी लड़ाई में अब एक नया अध्याय जुड़ गया है, जिसमें मुसीबत और फजीहत का शिकार सिर्फ डेविड हिल्टन को ही होना है । डेविड हिल्टन को राजा साबू एण्ड कंपनी की तरफ से अब एक नया फरमान मिल गया है, जिसमें 27 सितंबर को आयोजित हो रही इंटरसिटी में इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई की उपस्थिति को हर हालत में संभव बनाने के लिए प्रयास करने को कहा गया है । डेविड हिल्टन के शुभचिंतकों ने लेकिन उन्हें सुझाव दिया है कि कुछ भी करके उक्त इंटरसिटी में मनोज देसाई के आने को स्थगित करवाओ । 

Tuesday, September 15, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में सतीश सिंघल से अपने बिगड़े संबंध सुधार कर डिस्ट्रिक्ट में अपनी राजनीतिक हैसियत बनाए रखने के लिए रमेश अग्रवाल ने क्या जेके गौड़ और शरत जैन को काम पर लगाया है

नोएडा । सतीश सिंघल अपने नजदीकियों को आजकल खुशी खुशी यह बताने में खूब व्यस्त हैं कि जो जेके गौड़ और शरत जैन पहले उन्हें कोई भाव नहीं देते थे, अब लगातार उनकी खुशामद में लगे हुए हैं । जेके गौड़ और शरत जैन के इस बदले रवैये को सतीश सिंघल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव को सुभाष जैन और दीपक गुप्ता के बीच तय होते दिख रहे मुकाबले के नतीजे के रूप में देख/पहचान रहे हैं । सतीश सिंघल का कहना है कि उनको दीपक गुप्ता का समर्थन करने से रोकने के लिए ही जेके गौड़ और शरत जैन ने उनके प्रति अपना रवैया बदला है । दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी खुद दीपक गुप्ता का कितना भला करेगी, यह तो अभी नहीं पता - किंतु दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी ने सतीश सिंघल का भला जरूर कर दिया है । उल्लेखनीय है कि सतीश सिंघल इस बात से बहुत परेशान और निराश रहे हैं कि जेके गौड़ और शरत जैन उन्हें उचित तवज्जो नहीं देते हैं, और उन्हें अलग-थलग करने/रखने में लगे रहते हैं । जेके गौड़ और शरत जैन का कहना रहा है कि सतीश सिंघल की समस्या यह रही है कि वह इस तथ्य को मानने/समझने को तैयार ही नहीं होते हैं कि वह डिस्ट्रिक्ट के प्रोटोकॉल में उनके एक जूनियर पार्टनर हैं, और उन्हें जूनियर पार्टनर के रूप में रहना है - वह उनके 'बाप' बनने की कोशिश करते हैं; अब 'बाप' उन्हें क्यों बनाएँ ? सतीश सिंघल के बारे में और भी कई लोगों की शिकायत रही है कि सतीश सिंघल को यदि ऊँगली पकड़ाओ तो वह पहुँचा पकड़ लेते हैं । सतीश सिंघल को लगता है, और वह समय समय पर लोगों के बीच इसे कहते भी रहे हैं कि उन्हें जेके गौड़ और शरत जैन से ज्यादा रोटरी आती है । यह बात मानने और कहने तक तो ठीक है, समस्या लेकिन तब होती है जब सतीश सिंघल इसे दिखाने/जताने पर उतर आते हैं । जेके गौड़ और शरत जैन का कहना रहा है कि कई मौकों पर उन्होंने जब देखा/पाया कि सतीश सिंघल ने इस बात को भूलकर कि रोटरी प्रोटोकॉल में वह उनके जूनियर हैं, उन पर हावी होने की कोशिश की - तो उन्होंने सतीश सिंघल से बच कर रहना शुरू कर दिया । सतीश सिंघल ने जेके गौड़ और शरत जैन के इस रवैये को यह कह कर राजनीतिक रंग दिया कि उन्हें अलग-थलग करने की इनकी कोशिश वास्तव में रमेश अग्रवाल का हुक्म बजाने की इनकी मजबूरी है । सतीश सिंघल ने रमेश अग्रवाल के प्रति अपने विरोध को हमेशा ही मुखर रूप में प्रकट किया है । रमेश अग्रवाल ने उनके चुनाव में चूँकि उनके प्रतिस्पर्द्धी प्रसून चौधरी का सहयोग/समर्थन किया था, इसलिए सतीश सिंघल का रमेश अग्रवाल के प्रति मुखर विरोध है और कई जगह उन्होंने कहा भी है कि रोटरी में उनकी राजनीति का एकमात्र उद्देश्य रमेश अग्रवाल की राजनीति की हवा बिगाड़ना ही है । रमेश अग्रवाल की राजनीति की हवा सतीश सिंघल जब बिगाड़ देंगे, वह तो तब देखेंगे - अभी तक तो लेकिन रमेश अग्रवाल ने सतीश सिंघल की हवा बिगाड़ी हुई है । सतीश सिंघल जब खुद मानते और कहते/बताते हैं कि जेके गौड़ और शरत जैन उन्हें जो उचित सम्मान नहीं देते हैं, उसके पीछे रमेश अग्रवाल हैं - तो यह एक तरह से सतीश सिंघल की स्वीकारोक्ति ही है कि डिस्ट्रिक्ट में इस समय रमेश अग्रवाल की ही तूती है । रमेश अग्रवाल की राजनीति की हवा बिगाड़ने की बातें करने वाले सतीश सिंघल को यूँ तो जेके गौड़ व शरत जैन जैसे रमेश अग्रवाल के घोषित 'आदमियों' से किसी भी तरह के अच्छे व्यवहार की उम्मीद भी नहीं रखना चाहिए; सतीश सिंघल लेकिन इनसे न सिर्फ अच्छे व्यवहार की उम्मीद करते रहे - बल्कि उम्मीद पूरी न होने पर शिकायत भी करते रहे हैं । जेके गौड़ और शरत जैन ने उनकी इस छटपटाहट का खूब मजा भी लिया । जेके गौड़ ने तो सतीश सिंघल की जैसी हालत की, उसकी सतीश सिंघल ने तो कल्पना भी नहीं की होगी । हालाँकि इसके लिए सतीश सिंघल ने ही उन्हें मजबूर किया । जेके गौड़ के साथ समस्या दरअसल यह हुई कि वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर तो बन गए, लेकिन डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की ठसक नहीं बना पाए । उनकी बदकिस्मती यह रही कि मुकेश अरनेजा, रमेश अग्रवाल और अशोक अग्रवाल जैसे जिन लोगों पर वह निर्भर हुए, उन्होंने ही लोगों के बीच उनकी नकारात्मक छवि बनाई और तरह तरह से जेके गौड़ को 'शिकारपुर का' साबित करने की कोशिश की । उन्होंने तो ऐसा इसलिए किया, ताकि वह अपने आपको लोगों की नजरों में ऊँचा दिखा सकें; जेके गौड़ ने लेकिन उन्हें ऐसा करने दे कर अपना नुकसान किया । लोगों के बीच जेके गौड़ की जैसी नकारात्मक पहचान बनी, वैसी पहचान उनसे पहले शायद ही किसी गवर्नर की बनी हो । जेके गौड़ की इस पहचान का फायदा उठाने की सतीश सिंघल ने कोशिश की । सतीश सिंघल ने लेकिन मामले का एक ही पहलू देखा, दूसरे पहलू को उन्होंने अनदेखा ही कर दिया - उन्होंने यह तो देखा कि जेके गौड़ की छवि 'एक बेचारे गवर्नर' की है, लेकिन वह यह नहीं देख पाए कि जेके गौड़ उतने बेचारे हैं नहीं जितना कि उन्हें समझा जाता है । जेके गौड़ को बदला लेना भी खूब आता है । जेके गौड़ ने मुकेश अरनेजा जैसे तुर्रमखाँ को जिस तरह खुड्डे लाइन लगा दिया है, वह भी एक दिलचस्प नजारा है । सतीश सिंघल ने जेके गौड़ की बेचारगी देखी, तो तुरंत उन पर सवार होने के लिए तैयार हो गए । जेके गौड़ ने भी बदले में उन्हें ऐसी पटखनी दी कि फिर वह अपने नजदीकियों के बीच शिकायत करने लायक ही बचे कि जेके गौड़ उन्हें पर्याप्त इज्जत नहीं दे रहे हैं । किसी किसी से उन्हें सुनने को भी मिला कि जेके गौड़ गवर्नर हैं, पहले उन्हें उचित इज्जत दो तो फिर उनसे उचित इज्जत मिलने की उम्मीद करो । सतीश सिंघल ने रमेश अग्रवाल और उनके जेके गौड़ व शरत जैन जैसे 'आदमियों' से निपटने के लिए राजनीतिक तरीका अपनाया और मुकेश अरनेजा के साथ हाथ मिला लिया । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति को रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा के बीच शक्ल ग्रहण करते देखा जा रहा है । रमेश अग्रवाल को सुभाष जैन की उम्मीदवारी के पीछे पहचाना जा रहा है, तो मुकेश अरनेजा को अशोक गर्ग-प्रवीन निगम-दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के पीछे मौका खोजते/बनाते हुए देखा जा रहा है । मुकेश अरनेजा जब पूरी तरह अशोक गर्ग की उम्मीदवारी के साथ थे, तब सतीश सिंघल भी अशोक गर्ग की वकालत कर रहे थे । मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल की वकालत के बावजूद अशोक गर्ग की उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच समर्थन जुटता हुआ जब नहीं दिखा, तब मुकेश अरनेजा ने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को उकसाया । सतीश सिंघल के लिए तुरंत से तो अशोक गर्ग का साथ छोड़ना मुश्किल हुआ, किंतु अशोक गर्ग को जब खुद अपनी ही उम्मीदवारी के प्रति उत्साह छोड़ते हुए देखा गया तो सतीश सिंघल के लिए भी फैसला करना जरूरी हुआ । रमेश अग्रवाल से निपटने की अपनी शपथ को याद करते हुए, सतीश सिंघल के सामने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन की तरफ ही आना था और वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी की तरफ आते हुए दिखे भी हैं; हालाँकि अभी वह ज्यादा खुली वकालत करने से बच रहे हैं । अशोक गर्ग के खुद ही पीछे हटने से और प्रवीन निगम के ढीले-ढाले रवैये से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी लड़ाई जिस तरह सुभाष जैन और दीपक गुप्ता के बीच होते मुकाबले में तब्दील होती नजर आ रही है, उसमें सतीश सिंघल का यह दावा महत्वपूर्ण संकेत देता हुआ तो लग रहा है कि उनको दीपक गुप्ता का समर्थन करने से रोकने के लिए ही जेके गौड़ और शरत जैन ने उनके प्रति अपना रवैया बदला है । सतीश सिंघल को विश्वास है कि इन दोनों का उनके प्रति जो रवैया बदला है - वह अवश्य ही रमेश अग्रवाल के कहने से बदला है । इससे सतीश सिंघल को यह विश्वास तो हो चला है कि आखिरकार रमेश अग्रवाल ने भी उनकी राजनीतिक ताकत को पहचान लिया है और डिस्ट्रिक्ट में अपनी राजनीतिक हैसियत बनाए रखने के लिए उनकी शरण में आने के लिए मजबूर हुए हैं । हालाँकि यह अभी उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है कि रमेश अग्रवाल ने पिछले रोटरी वर्ष में उन्हें हरवाने के लिए जो काम किए थे, उसके लिए वह उनसे माफी माँगेंगे तो वह रमेश अग्रवाल को माफ़ कर देंगे या नहीं ?

Sunday, September 13, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के नॉर्दर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल के चुनावी संदर्भ में हंसराज चुग क्या एक बार फिर राज चावला की 'किस्मत' का शिकार होंगे ?

नई दिल्ली । हरित अग्रवाल और उनके समर्थकों ने जीएमसीएस में छात्रों को घटिया खाना परोसने के मामले की आड़ में राज चावला के लिए जो गड्ढा खोदना शुरू किया था, उसमें खुद हरित अग्रवाल और उनके समर्थकों के फँस जाने से राज चावला की किस्मत के चर्चे लोगों के बीच चल पड़े हैं - और इन चर्चों ने हंसराज चुग तथा उनके समर्थकों की नींद हराम कर दी है । हंसराज चुग तथा उनके समर्थकों को दरअसल डर यह हुआ है कि राज चावला की किस्मत क्या एक बार फिर कहीं हंसराज चुग का काम तो नहीं बिगाड़ेगी ? उनके बीच यह डर रीजनल काउंसिल के चेयरमैन पद को पाने को लेकर चले घटनाचक्र को याद करने के कारण पैदा हुआ । उल्लेखनीय है कि नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में मौजूदा वर्ष के चेयरमैन पद को लेकर जो राजनीतिक गोटियाँ बिछना शुरू हुईं थीं, उसमें राज चावला का तो कहीं नाम ही नहीं था - उन्हें तो हंसराज चुग के समर्थन में 'देखा' और प्रचारित किया जा रहा था । हंसराज चुग चेयरमैन पद के एक मजबूत उम्मीदवार के रूप में देखे/पहचाने जा रहे थे । चेयरमैन पद को लेकर होने वाली चर्चाओं में तो छोड़िए, अफवाहों तक में राज चावला का जिक्र नहीं था । चेयरमैन पद के लिए राज चावला ने जब सभी को अचंभित करते हुए अचानक से अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की, तब भी किसी ने भी उनकी उम्मीदवारी को गंभीरता से नहीं लिया । दूसरे उन्हें क्या गंभीरता से लेते, खुद उन्होंने अपनी उम्मीदवारी को गंभीरता से नहीं लिया था; उन्हें कहते/बताते सुना गया था कि वह तो बस यूँ ही उम्मीदवार बनने का सुख लेना चाहते हैं, इसलिए उम्मीदवार बन गए हैं । चेयरमैन पद को लेकर जो भी तीन-तिकड़में हो रही थीं, जो भी चाल-बाजियाँ चल रहीं थीं, जो भी लॉबिंग हो रही थीं - उनमें किसी को भी राज चावला की दाल गलती हुई नहीं नजर आ रही थी । लेकिन नॉर्दर्न इंडिया रीजन की राजनीति के सारे 'पंडितों' का गणित तब फेल हो गया, जब दाल राज चावला की गली पाई गई । चेयरमैन पद पर राज चावला की जीत को राज चावला की नहीं, 'राज चावला की किस्मत' की जीत के रूप में देखा और प्रचारित किया गया । 
हंसराज चुग तथा उनके समर्थकों को डर यही हुआ है कि राज चावला की किस्मत कहीं सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में भी वही कहानी तो नहीं दोहरायेगी ? सेंट्रल काउंसिल के चुनाव के संदर्भ में राज चावला की किस्मत का डर हंसराज चुग और उनके समर्थकों को इसलिए है क्योंकि सेंट्रल काउंसिल के चुनाव के संदर्भ में हंसराज चुग और राज चावला को एक दूसरे के साथ जोड़ कर ही देखा जा रहा है, और माना जा रहा है कि इन दोनों में से कोई एक ही सेंट्रल काउंसिल में जायेगा । लोगों के बीच की चर्चाओं में राज चावला के मुकाबले हंसराज चुग का पलड़ा भारी माना/देखा जा रहा है । हंसराज चुग की जीत का दावा करने वाले तो फिर भी मिल/दिख जायेंगे, लेकिन राज चावला की जीत का दावा उनके समर्थक व सहयोगी तक करने में हिचक रहे हैं । यानि कहानी - अभी तक - ठीक वैसी ही है, जैसी कि वह रीजनल काउंसिल के चेयरमैन पद के चुनाव से पहले थी । हालाँकि इस बात पर किसी का ध्यान था नहीं । किंतु हरित अग्रवाल के समर्थकों द्वारा जीएमसीएस के मुद्दे पर घेरे जाने के प्रयासों का मुँह जिस तरह से राज चावला की बजाए हरित अग्रवाल की तरफ ही मुड़ गया है, उसमें जादुई चमत्कार का सा जो आभास मिला है - उससे राज चावला की किस्मत की चर्चा ने लोगों के बीच पुनः जोर पकड़ लिया है । उल्लेखनीय है कि हरित अग्रवाल के समर्थकों ने राज चावला को निशाना बनाते हुए जीएमसीएस के खाने को लेकर तूफान खड़ा किया हुआ था; रोज बातों व तथ्यों को दोहराते हुए राज चावला को कोसा जा रहा था । लेकिन जैसे ही भेद खुला कि जीएमसीएस कमेटी के चेयरमैन तो हरित अग्रवाल हैं, और वहाँ खाने की क्वालिटी तथा उसकी व्यवस्था देखने की जिम्मेदारी तो उनकी है - वैसे ही जीएमसीएस के मामले में हरित अग्रवाल के समर्थकों के मुँह पर ताले पड़ गए । मजे की बात यह रही कि इस मामले में राज चावला ने एक शब्द नहीं कहा, और फिर भी वह तो 'हमले' में साफ बच निकले और हमलावर ही लहूलुहान हो गए ।  
यह क्या किस्मत की बात है ? कई लोगों के लिए इसका जबाव 'हाँ' है, तो राज चावला के नजदीकियों का जबाव 'ना' है - उनका तर्क है कि किस्मत भी उनका साथ देती है, जो सही तरीके से अपना काम करते हैं । दूसरे लोगों का भी मानना और कहना है कि जीएमसीएस मामले में हरित अग्रवाल और उनके समर्थकों की फजीहत इसलिए नहीं हुई कि उनकी किस्मत खराब थी; उनकी फजीहत इसलिए हुई कि उन्होंने जो मुद्दा उठाया, उसमें 'बेईमानी' की - और उन्हें अपनी ही बेईमानी का फल मिला । राज चावला के समर्थकों का कहना है कि राज चावला बहुत आक्रामक तरीके से और बहुत शोर मचा कर काम करने वाले व्यक्ति नहीं हैं; वह चुपचाप तरीके से स्थिति को भाँपते हैं और अपने लिए मौका बनाते हैं; उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि प्रतिकूल हालात में भी वह उम्मीद नहीं छोड़ते हैं । राज चावला के नजदीकी उनके बारे में एक बड़ी मजेदार बात बताते हैं कि सड़क पर उनकी गाड़ी के सामने यदि कोई जानवर आ जाता है, तो वह उसे हटाने के लिए हॉर्न नहीं बजाते हैं; वह कहते हैं कि हॉर्न के शोर से जानवर असहज होगा तथा ज्यादा परेशान करेगा, इसलिए चुप रहने में ही फायदा है; जानवर खुद बहुत संवेदनशील होता है, वह खुद परेशानी महसूस कर रहा होता है, और अपने लिए रास्ता खोज कर निकल लेता है । राज चावला के समर्थकों का कहना है कि सड़क पर अपनाए जाने वाले इसी फार्मूले को उन्होंने रीजनल काउंसिल के चेयरमैन बनने के लिए भी आजमाया था, और बिना कोई शोर-शराबा किए उन्होंने अपनी तरकीब लगाई और चेयरमैन पद पा लिया । 
चेयरमैन 'बनने' के बाद भी राज चावला ने इसी फार्मूले को अपनाया हुआ है - और इसी फार्मूले के चलते वह 'बचे' भी हुए हैं । उनकी राह में मुसीबतें कम नहीं पैदा की गईं - चेयरमैन 'बनने' के बाद भी, चेयरमैन घोषित होने के लिए उन्हें इंतजार करना पड़ा; नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में इससे पहले शायद ही किसी चेयरमैन के साथ ऐसा हुआ हो । जाहिर है कि 'बनने' और 'घोषित' होने के बीच उन्हें न बनने देने के खूब प्रयास हुए, किंतु जो कामयाब नहीं हो सके । राज चावला चेयरमैन घोषित भी हो गए, तो उन्हें चेयरमैन के अधिकार नहीं लेने दिए गए । अधिकार मिले तो उनके हर फैसले में टाँग अड़ाने के तरीके अपनाए गए । काउंसिल में उनके साथियों द्वारा सामने कुछ तथा पीछे कुछ और कहने के जरिए उनके फैसलों पर विवाद खड़ा करने के प्रयास हुए हैं । काउंसिल में उनके सहयोगी/साथी हरित अग्रवाल ने अपने समर्थकों के जरिए अपना 'पाप' उनके सिर मढ़ने की जो कोशिश की, वह तो सभी ने देखी/जानी । इसके बाद भी राज चावला न सिर्फ चेयरमैन के रूप में अपना काम किए जा रहे हैं, बल्कि सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए भी अभियान चलाए हुए हैं । राज चावला के इसी रवैये में हंसराज चुग और उनके समर्थकों को खतरे की घंटी सुनाई दे रही है । 
उल्लेखनीय है कि राज चावला के समर्थक भी मानते और कहते हैं कि राज चावला की उम्मीदवारी ही हंसराज चुग की जीत की राह का रोड़ा है । दोनों का समर्थन-आधार लगभग समान है, और दोनों को ही समान लोगों से ही समर्थन की उम्मीद है - कई लोगों को लगता है कि चेयरमैन होने का फायदा तो राज चावला को मिलेगा ही, साथ ही उनके खिलाफ जिस तरह से जो जो षड्यंत्र होते रहे हैं, उसके चलते लोगों के बीच उनके प्रति हमदर्दी भी है । राज चावला के खिलाफ होते षड्यंत्र जिस तरह अभी तक बेअसर साबित होते रहे हैं, उसे चाहें उनकी किस्मत का नतीजा मानें; और चाहें वह उनकी सुनियोजित रणनीति का प्रतिफल हो - उससे भी हंसराज चुग और उनके समर्थकों की नींद खराब हो रही है । हाँ, इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के पंडित अभी राज चावला की उम्मीदवारी को बहुत तवज्जो देते हुए नहीं दिख रहे हैं - पर चुनावी राजनीति के इन्हीं पंडितों ने रीजनल काउंसिल के चेयरमैन पद के चुनाव में भी राज चावला की उम्मीदवारी को कहाँ कोई तवज्जो दी थी ?