नई दिल्ली । नरेश गुप्ता को आगे
करके 30 अगस्त की शाम/रात को आयोजित हुई भाई-चारा मीटिंग में भाई-चारा
कितना बना, यह तो बाद में पता चलेगा - अभी तो वहाँ गए कई लोग इस बात का
रोना रो रहे हैं कि उन्हें वहाँ न खाने को मिला और न 'पीने' को । वहाँ
खिलाने-'पिलाने' की जिम्मेदारी किसकी थे, यह तो अधिकतर लोगों को नहीं पता -
लेकिन खाना-'पीना' कम पड़ जाने के लिए लोगों ने कोसा विक्रम शर्मा को ।
इस भाई-चारा मीटिंग को चूँकि विक्रम शर्मा की उम्मीदवारी को प्रमोट करने
के उद्देश्य से आयोजित कसरत के रूप में देखा/पहचाना गया, इसलिए वहाँ गए
लोगों ने माना/समझा कि उन्हें खिलाने-'पिलाने' की जिम्मेदारी विक्रम शर्मा
की थी । वह जिम्मेदारी चूँकि ठीक से नहीं निभाई गई, इसलिए बदइंतजामी के लिए
विक्रम शर्मा को ही जिम्मेदार ठहराया गया । भूखे-'प्यासे' लौटे कुछेक
लोगों ने शिकायती स्वर में कहा भी कि विक्रम शर्मा के बस की जब बुलाये गए
लोगों को खिलाना-'पिलाना' भी नहीं है, तो फिर वह उम्मीदवार क्यों बन रहे
हैं ? विक्रम शर्मा की तरफ से लोगों को हालाँकि सफाई सुनने को मिली कि
आयोजन में चूँकि उम्मीद से ज्यादा लोग आ गए थे, इसलिए खाना-'पीना' कम पड़
गया, लेकिन उनकी यह सफाई किसी के गले नहीं उतरी है ।
विक्रम शर्मा के लिए दोहरी मुसीबत की बात हुई । एक
तरफ तो उन्हें बिना खाये-'पिये' लौटे लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ा,
और दूसरी तरफ उन्हें राकेश त्रेहन की लताड़ सुननी पड़ी कि तुमने फलाँ-फलाँ
लोगों को क्यों आमंत्रित कर लिया ? राकेश त्रेहन दरअसल उक्त मीटिंग में
विरोधी खेमे के समझे जाने वाले कुछ लोगों की उपस्थिति से खासे भड़के हुए थे
। राकेश त्रेहन ने समझा कि उन्हें विक्रम शर्मा ने आमंत्रित किया होगा, सो
उनकी उपस्थिति से गुस्साये राकेश त्रेहन ने अपना गुस्सा विक्रम शर्मा पर
निकाला । विक्रम शर्मा ने लेकिन यह बता कर उनसे अपनी जान बचाई कि जिन
लोगों को मीटिंग में उपस्थित देख कर वह भड़के हुए हैं, उन्हें उन्होंने
आमंत्रित नहीं किया था, बल्कि नरेश गुप्ता ने आमंत्रित किया था । यह
सुन कर राकेश त्रेहन ने नरेश गुप्ता के लिए भी फटकारने वाली बातें कहीं -
कि नरेश को पता नहीं कब अकल आयेगी, राजनीति तो बिलकुल समझता ही नहीं है ।
राकेश त्रेहन ने यह बात नरेश गुप्ता से कहीं या नहीं - यह पता नहीं चल पाया
है । Saturday, August 31, 2013
लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के संभावित उम्मीदवार विक्रम शर्मा को बिना खाये-'पिये' लौटे लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है
Wednesday, August 28, 2013
रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3010 में अपने क्लब के अधिष्ठापन समारोह की तैयारी में सुधीर मंगला को अकेले जुटा देख, उनकी उम्मीदवारी से उनके क्लब के लोगों की दूरी की पोल खुली
नई दिल्ली । सुधीर मंगला को अपने क्लब के अधिष्ठापन समारोह की तैयारी में जिस तरह अकेले ही जुटना पड़ रहा है, उसके कारण उक्त
समारोह आयोजित करना उनके लिए बेमतलब की कसरत साबित हो गया है, और इस
बेमतलब की कसरत ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की उनकी उम्मीदवारी के अभियान को
कमजोर करने का काम ही किया है । दरअसल अपने क्लब के अधिष्ठापन समारोह
को आयोजित करने को लेकर सुधीर मंगला को जिस तरह अपने ही क्लब के लोगों का
सहयोग और समर्थन नहीं मिल रहा है, उससे डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच यह
मैसेज गया है कि सुधीर मंगला की उम्मीदवारी को उनके अपने ही क्लब के लोगों
का समर्थन नहीं है । क्लब के कुछेक लोगों ने डिस्ट्रिक्ट के अलग-अलग लोगों
से यह कहा भी है कि क्लब के अधिष्ठापन समारोह को आयोजित करना सुधीर मंगला
की जरूरत है, इसलिए उन्हें ही उसकी सारी तैयारी करनी है और वह अपनी तरह से
उसे कर भी रहे हैं । उल्लेखनीय है कि सुधीर मंगला ने जिस तरह संजय गोयल
को हटवा कर अपने पड़ोसी विपिन गुप्ता को क्लब का अध्यक्ष बनवाया, उससे क्लब
के लोगों में सुधीर मंगला के रवैये को लेकर भारी नाराजगी पैदा हुई । सुधीर
मंगला के लिए इससे भी ज्यादा झटके वाली बात यह हुई कि उन्होंने जिस उम्मीद
से विपिन गुप्ता को क्लब का अध्यक्ष बनवाया, विपिन गुप्ता उन उम्मीदों पर
बुरी तरह असफल साबित हुए । सुधीर मंगला की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए
विपिन गुप्ता ने क्लब के अध्यक्ष के रूप में अपनी सक्रियता का कोई प्रदर्शन
ही नहीं किया है ।
गौरतलब बात यह है कि रोटरी में यह एक अलिखित-सा नियम है कि जिस क्लब से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद का उम्मीदवार होता है, उस क्लब का अध्यक्ष दूसरे क्लब के अध्यक्षों से तथा डिस्ट्रिक्ट के दूसरे प्रमुख लोगों से मिलने-जुलने में ज्यादा दिलचस्पी लेता है और इस तरह कुछ ज्यादा सक्रिय होता है । सुधीर मंगला के क्लब के अध्यक्ष के रूप में विपिन गुप्ता ने लेकिन इस तरह की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । विपिन गुप्ता को शायद ही किसी ने कहीं देखा हो । इसके विपरीत रवि भाटिया के क्लब के अध्यक्ष अजय नागपाल को विभिन्न आयोजनों में लोगों के बीच खूब-खूब सक्रिय देखा/पाया गया । स्वाभाविक तौर पर इस कारण से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए रवि भाटिया की उम्मीदवारी को लोगों के बीच खासा बल मिला । यहाँ तक कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के एक और उम्मीदवार सुरेश भसीन के क्लब के अध्यक्ष विजय ठाकुर को भी लोगों के बीच अपेक्षाकृत इन्बॉल्व और कंसर्न देखा/पाया गया । इसका नतीजा ही है कि सुधीर मंगला की तुलना में सुरेश भसीन की उम्मीदवारी को लोगों के बीच ज्यादा नंबर मिलने लगे हैं ।
गौरतलब बात यह है कि रोटरी में यह एक अलिखित-सा नियम है कि जिस क्लब से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद का उम्मीदवार होता है, उस क्लब का अध्यक्ष दूसरे क्लब के अध्यक्षों से तथा डिस्ट्रिक्ट के दूसरे प्रमुख लोगों से मिलने-जुलने में ज्यादा दिलचस्पी लेता है और इस तरह कुछ ज्यादा सक्रिय होता है । सुधीर मंगला के क्लब के अध्यक्ष के रूप में विपिन गुप्ता ने लेकिन इस तरह की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । विपिन गुप्ता को शायद ही किसी ने कहीं देखा हो । इसके विपरीत रवि भाटिया के क्लब के अध्यक्ष अजय नागपाल को विभिन्न आयोजनों में लोगों के बीच खूब-खूब सक्रिय देखा/पाया गया । स्वाभाविक तौर पर इस कारण से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए रवि भाटिया की उम्मीदवारी को लोगों के बीच खासा बल मिला । यहाँ तक कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के एक और उम्मीदवार सुरेश भसीन के क्लब के अध्यक्ष विजय ठाकुर को भी लोगों के बीच अपेक्षाकृत इन्बॉल्व और कंसर्न देखा/पाया गया । इसका नतीजा ही है कि सुधीर मंगला की तुलना में सुरेश भसीन की उम्मीदवारी को लोगों के बीच ज्यादा नंबर मिलने लगे हैं ।
क्लब के अध्यक्ष के रूप में विपिन गुप्ता का तथा क्लब के दूसरे
सदस्यों का सहयोग सुधीर मंगला को मिलता हुआ यदि नहीं नजर आ रहा है, तो इसके लिए
क्लब के लोगों ने सुधीर मंगला को ही जिम्मेदार ठहराया है । उनका कहना है कि
अपनी उम्मीदवारी को लेकर सुधीर मंगला ने क्लब के लोगों को न तो विश्वास
में लिया है और न ही वह क्लब के लोगों के साथ किसी तरह की कोई सलाह करते हैं । सुधीर मंगला ने पिछले वर्ष रमेश अग्रवाल द्धारा की गई कथित बेईमानी के संदर्भ में की गई शिकायत को जिस तरह, क्लब के पदाधिकारियों को भरोसे में लिए बिना सरेंडर कर दिया था उसके चलते भी क्लब के प्रमुख सदस्य सुधीर मंगला से बुरी तरह खफा हैं । क्लब के लोगों का मानना और कहना है कि सुधीर मंगला डिस्ट्रिक्ट के
जिन बदनाम और घटिया लोगों के कहने में हैं, उनके कहने में आकर ही वह क्लब
के प्रमुख सदस्यों को कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं । मजे की बात यह हुई कि
पहले क्लब के पदाधिकारियों ने सुधीर मंगला से क्लब के अधिष्ठापन समारोह को
लेकर बात की थी, लेकिन तब सुधीर मंगला ने उसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी
। सुधीर मंगला ने क्लब के अधिष्ठापन समारोह के आयोजन में अपना 'सहयोग'
देने से भी साफ इंकार कर दिया था । सुधीर मंगला ने कई लोगों से साफ साफ
कहा/बताया भी कि अधिष्ठापन में पैसा खर्च करने की बजाये वह अध्यक्षों को
अलग से पार्टी देंगे तो उन्हें ज्यादा फायदा होगा । उनका तर्क था कि
क्लब के अधिष्ठापन समारोह में उम्मीदवारी को प्रमोट करना मुश्किल होता है;
उसमें क्लब प्रमोट होता है, उम्मीदवार नहीं - उसमें खर्च किया गया पैसा
व्यर्थ ही जाता है । सुधीर मंगला की इन बातों को सुनकर क्लब के पदाधिकारियों ने क्लब के अधिष्ठान समारोह को आयोजित करने का इरादा त्याग दिया था ।
रवि भाटिया के क्लब के अधिष्ठापन समारोह में रवि भाटिया की उम्मीदवारी का जो प्रमोशन हुआ और डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच उम्मीदवार के रूप में रवि भाटिया की जो धाक जमी, उसे देख/जान कर सुधीर मंगला ने लेकिन अचनक से पलटी मारी और वह क्लब के अधिष्ठापन समारोह करने की बात करने लगे । उनके इस रवैये ने दूसरों के साथ-साथ क्लब के लोगों को भी हैरान किया । क्लब के लोगों को यह जान कर झटका लगा कि सुधीर मंगला ने अपना यह फैसला अपनी उम्मीदवारी के सलाहकारों से मिली सलाह के कारण किया है । क्लब के लोगों को एक बार फिर इस बात का सामना करना पड़ा कि सुधीर मंगला उनकी बजाये बाहर के लोगों की बात को ज्यादा अहमियत देते हैं ।
यह 'देख' कर क्लब के लोगों ने क्लब के अधिष्ठापन समारोह की तैयारी से अपने
आप को पूरी तरह अलग कर लिया । यह बात तो सुधीर मंगला खुद ही लोगों को बता
रहे हैं कि अधिष्ठापन समारोह का सारा खर्चा वही उठा रहे हैं । क्लब के
लोगों के अधिष्ठापन समारोह की
तैयारी से दूर-दूर होने के बाकी तथ्य डिस्ट्रिक्ट के लोगों को खुद-ब-खुद मिल रहे हैं । कई लोगों ने इन पंक्तियों के लेखक को
बताया कि सुधीर मंगला के क्लब के अधिष्ठापन समारोह के निमंत्रण उन्हें
सिर्फ सुधीर मंगला से ही मिले हैं; क्लब के पदाधिकारियों ने निमंत्रण तक देने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है ।
इन्हीं लोगों ने बताया कि रवि भाटिया के क्लब का अधिष्ठापन समारोह हुआ था,
तो उसका निमंत्रण उन्हें रवि भाटिया से भी मिला था और क्लब के अध्यक्ष से
भी मिला था । रवि भाटिया की पत्नी ने आमंत्रितों की पत्नी(यों) को फोन किया था । पूर्व गवर्नर्स को रवि भाटिया और क्लब के अध्यक्ष के साथ-साथ क्लब के एक पूर्व गवर्नर रंजन ढींगरा ने भी
फोन किया, तथा पूर्व गवर्नर्स की पत्नी(यों) को रंजन ढींगरा की पत्नी ने भी
फोन किया । क्लब के दूसरे कुछेक सदस्यों ने भी अपनी पहल से अपने-अपने परिचितों को फोन किया था । इस
तरह, रवि भाटिया के क्लब के अधिष्ठापन समारोह को रवि भाटिया की उम्मीदवारी
को प्रमोट करने के एक मौके के रूप में क्लब के लोगों ने सामूहिक रूप से
इस्तेमाल किया । रवि भाटिया की उम्मीदवारी को इसका फायदा भी मिला । दरअसल
उन्हें मिले फायदे को देख कर ही सुधीर मंगला के सलाहकारों ने उन्हें अपने
क्लब का अधिष्ठापन समारोह करने के लिए तैयार किया । सलाहकारों के दबाव
में सुधीर मंगला अपने क्लब का अधिष्ठापन समारोह करने को तो राजी हो गए,
लेकिन अपने क्लब के लोगों का सहयोग लेने में वह विफल रहे हैं । लोगों से
मिले इस फीडबैक के बाद सुधीर मंगला अपने क्लब के लोगों को मनाने में जुटे
तो हैं और कोशिश कर रहे हैं कि समारोह वाले दिन क्लब के लोग उनके साथ
सक्रिय 'दिखें' - उनकी इस कोशिश का क्या नतीजा निकलेगा, यह तो बाद में पता चलेगा, फ़िलहाल तो उनका नुकसान हो चुका है । न
न करते हुए, क्लब का अधिष्ठापन समारोह करने को लेकर सुधीर मंगला तैयार
हुए; लेकिन उनकी इस तैयारी ने उनकी उम्मीदवारी से उनके क्लब के लोगों की बनी हुई दूरी की पोल और खोल दी है । इस तरह, सुधीर मंगला को अपने सलाहकारों की सलाह पर अमल करना भारी पड़ा है ।
Tuesday, August 20, 2013
रोटरी क्लब जबलपुर के कार्यक्रम में उपस्थित होकर पूर्व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट राजा साबू और कल्याण बनर्जी ने अपनी फजीहत करा ली है
नई दिल्ली/जबलपुर । राजेंद्र उर्फ़ राजा साबू और कल्याण बनर्जी रोटरी क्लब जबलपुर के डायमंड जुबली कार्यक्रम में शामिल होकर गंभीर विवाद में फँस गए हैं । इन दोनों पर गंभीर आरोप यह लगा है कि इन्होंने निजी और अपने कारोबारी फायदे के
लिए रोटरी इंटरनेशनल के एक प्रमुख नियम का मजाक बना दिया और ये रोटरी को बदनाम
करने वाले लोगों के साथ जा खड़े हुए हैं । रोटरी इंटरनेशनल के नियम का
मजाक दरअसल रोटरी क्लब जबलपुर ने बनाया है । उल्लेखनीय है कि रोटरी में की
अपनी शिकायतों को लेकर कोर्ट-कचहरी करने वाले लोगों पर अंकुश लगाने के लिए
रोटरी इंटरनेशनल ने एक नियम यह बनाया है कि कोर्ट-कचहरी करने से पहले
शिकायतकर्ता को रोटरी के फोरम में न्याय पाने की कोशिश करनी होगी; जो
रोटेरियन रोटरी के फोरम का इस्तेमाल किये बिना कोर्ट-कचहरी करेंगे - उनके
खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई होगी और उन्हें रोटरी से बाहर कर दिया जायेगा ।
इस 'सजा' को तय करने के पीछे तर्क यही रहा कि जिन लोगों को रोटरी में
न्याय का विश्वास ही नहीं है, उन्हें रोटरी में रहना/रखना ही नहीं चाहिए ।
इन नियम को बनाने के पीछे उद्देश्य भी यही बताया गया कि कोर्ट-कचहरी की
कार्रवाइयों में रोटरी का चूँकि बहुत सा पैसा, बहुत सा समय और एनर्जी ऐसे
लोगों के साथ निपटने में खर्च होता है, इसलिए जिनकी रोटरी में और रोटरी की
न्याय व्यवस्था में कोई आस्था ही नहीं है उन्हें यहाँ क्यों रहना/रखना
चाहिए ?
रोटरी क्लब जबलपुर ने रोटरी इंटरनेशनल के इस नियम का खुला उल्लंघन पिछले दिनों तब किया जब अपनी शिकायत को रोटरी फोरम में दर्ज कराये बिना उसने कोर्ट-कचहरी का रास्ता पकड़ा और रोटरी के बड़े पदाधिकारियों के साथ-साथ रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय को भी पार्टी बना लिया । रोटरी इंटरनेशनल के नियम का पालन करते हुए रोटरी क्लब जबलपुर को भंग किया जाना चाहिए था, और कोर्ट-कचहरी करने वाले क्लब के सदस्यों की सदस्यता को निरस्त किया जाना चाहिए था - लेकिन ऐसा कुछ होना तो दूर की बात रही, राजा साबू और कल्याण बनर्जी ने रोटरी क्लब जबलपुर के आयोजन में शामिल होकर जता दिया कि उनके लिए रोटरी इंटरनेशनल के उक्त नियम का कोई मतलब नहीं है । राजा साबू और कल्याण बनर्जी रोटरी इंटरनेशनल के प्रेसीडेंट पद पर रह चुके हैं - इस कारण से रोटरी इंटरनेशनल के नियम-कानूनों का पालन करने की उनसे उम्मीद की जाती है; उनसे उम्मीद की जाती है कि रोटरी इंटरनेशनल के नियम-कानूनों के पालन को सुनिश्चित करने/करवाने का वह प्रयास करेंगे । लेकिन जब वही रोटरी के नियम-कानूनों का मजाक बनाने पर उतर आयें, तो फिर किससे उम्मीद की जाये ?
इस मामले में गंभीर तथ्य यह है कि रोटरी इंटरनेशनल के उक्त नियम के बनने के बावजूद चूँकि कोर्ट-कचहरी करने की प्रवृत्ति पर ज्यादा रोक लगती नहीं दिख रही थी, इसलिए इसी जुलाई को उक्त नियम को सख्ती से लागू करने का निश्चय किया गया था । उक्त नियम को सख्ती से लागू करने का निश्चय करने के तुरंत बाद लेकिन राजा साबू और कल्याण बनर्जी ने रोटरी क्लब जबलपुर के कार्यक्रम में शामिल होकर दिखा दिया कि उक्त नियम के लागू होने/करने को लेकर वह कितने 'गंभीर' हैं ।
रोटरी क्लब जबलपुर ने रोटरी इंटरनेशनल के इस नियम का खुला उल्लंघन पिछले दिनों तब किया जब अपनी शिकायत को रोटरी फोरम में दर्ज कराये बिना उसने कोर्ट-कचहरी का रास्ता पकड़ा और रोटरी के बड़े पदाधिकारियों के साथ-साथ रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय को भी पार्टी बना लिया । रोटरी इंटरनेशनल के नियम का पालन करते हुए रोटरी क्लब जबलपुर को भंग किया जाना चाहिए था, और कोर्ट-कचहरी करने वाले क्लब के सदस्यों की सदस्यता को निरस्त किया जाना चाहिए था - लेकिन ऐसा कुछ होना तो दूर की बात रही, राजा साबू और कल्याण बनर्जी ने रोटरी क्लब जबलपुर के आयोजन में शामिल होकर जता दिया कि उनके लिए रोटरी इंटरनेशनल के उक्त नियम का कोई मतलब नहीं है । राजा साबू और कल्याण बनर्जी रोटरी इंटरनेशनल के प्रेसीडेंट पद पर रह चुके हैं - इस कारण से रोटरी इंटरनेशनल के नियम-कानूनों का पालन करने की उनसे उम्मीद की जाती है; उनसे उम्मीद की जाती है कि रोटरी इंटरनेशनल के नियम-कानूनों के पालन को सुनिश्चित करने/करवाने का वह प्रयास करेंगे । लेकिन जब वही रोटरी के नियम-कानूनों का मजाक बनाने पर उतर आयें, तो फिर किससे उम्मीद की जाये ?
इस मामले में गंभीर तथ्य यह है कि रोटरी इंटरनेशनल के उक्त नियम के बनने के बावजूद चूँकि कोर्ट-कचहरी करने की प्रवृत्ति पर ज्यादा रोक लगती नहीं दिख रही थी, इसलिए इसी जुलाई को उक्त नियम को सख्ती से लागू करने का निश्चय किया गया था । उक्त नियम को सख्ती से लागू करने का निश्चय करने के तुरंत बाद लेकिन राजा साबू और कल्याण बनर्जी ने रोटरी क्लब जबलपुर के कार्यक्रम में शामिल होकर दिखा दिया कि उक्त नियम के लागू होने/करने को लेकर वह कितने 'गंभीर' हैं ।
राजा साबू और कल्याण बनर्जी के सामने
आखिर ऐसी क्या 'मजबूरी' रही कि रोटरी इंटरनेशनल के नियम का उल्लंघन करने
वाले रोटरी क्लब जबलपुर के खिलाफ कार्रवाई करना/करवाना तो दूर, उसके कार्यक्रम में शामिल होना उन्हें जरूरी लगा ? जबलपुर
और डिस्ट्रिक्ट 3261 के रोटेरियंस के बीच जारी चर्चाओं के अनुसार राजा
साबू और कल्याण बनर्जी रोटरी क्लब जबलपुर के कुछेक प्रमुख सदस्यों से निजी
और कारोबारी स्तर पर 'दबे' हुए हैं इसलिए उनकी 'हिम्मत' नहीं है कि वह
रोटरी क्लब जबलपुर के खिलाफ कार्रवाई कर/करवा सकें और या उनके कार्यक्रम का
निमंत्रण ठुकरा सकें । रोटरी क्लब जबलपुर के कुछेक सदस्य ऊँची पहुँच
वाले हैं; लोगों के बीच जारी चर्चाओं के अनुसार राजा साबू और कल्याण बनर्जी
उनसे निजी और कारोबारी फायदे लेते रहे हैं और आगे भी उन्हें उनसे काम पड़ने
की उम्मीदें हैं - इसलिए ही रोटरी क्लब जबलपुर के खिलाफ कार्रवाई को लेकर
इन दोनों ने अपनी-अपनी आँखें बंद रखी हैं । कोई और क्लब होता, जिसके
सदस्यों से इन्हें कोई निजी या कारोबारी फायदा नहीं मिला होता, तो उस पर
निश्चित ही कार्रवाई हो चुकी होती । तो क्या रोटरी इंटरनेशनल के नियम सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए हैं जो रोटरी के बड़े नेताओं को कोई निजी या कारोबारी फायदा नहीं दे सकते ?
रोटरी क्लब जबलपुर के डायमंड जुबली कार्यक्रम से पहले जब राजा साबू और
कल्याण बनर्जी के उसमें आने की चर्चा थी, तो जबलपुर के तथा डिस्ट्रिक्ट
3261 के कई रोटेरियंस का कहना था कि रोटरी क्लब जबलपुर ने जो किया है उसे देखते हुए ये दोनों उसके कार्यक्रम में नहीं आयेंगे; लेकिन
रोटरी क्लब जबलपुर के सदस्यों का दावा था कि 'देखिएगा, ये दोनों जरूर आयेंगे ।' कार्यक्रम में सभी ने देखा कि रोटरी क्लब जबलपुर के
सदस्यों का दावा सच साबित हुआ ।
रोटरी क्लब जबलपुर के
कार्यक्रम में राजा साबू और कल्याण बनर्जी की उपस्थिति को लेकर साफ-साफ कुछ
कहने से बचने की कोशिश करते और उनका बचाव करने का प्रयास करते हुए रोटरी
के दूसरे बड़े नेताओं का तर्क है कि ये दोनों रोटरी क्लब जबलपुर के कार्यक्रम में इसलिए गए ताकि क्लब को मुकदमा वापिस लेने के लिए राजी किया जा सके । उनका
कहना है कि इन दोनों का प्रयास रहता है कि रोटरी में लोगों को जोड़ कर रखा
जाये, न कि उन्हें 'बाहर' का रास्ता दिखाया जाये । अगर यह बात सच है तो
पूछा जाना चाहिए कि फिर इन्होंने एक ऐसे नियम के बनने का विरोध क्यों नहीं
किया जो लोगों को 'बाहर' का रास्ता दिखाने की बात करता है; और हाल के दिनों में जिन लोगों को 'बाहर' का रास्ता दिखाया गया है, उनके प्रति इन दोनों ने अपना वैसा 'रहम' क्यों नहीं दिखाया जैसा कि रोटरी क्लब जबलपुर के प्रति इन्होंने दिखाया - क्या इसलिए क्योंकि
वे लोग इन्हें फायदा पहुँचाने वाली स्थिति में नहीं हैं ? जबलपुर में और
डिस्ट्रिक्ट 3261 में राजा साबू और कल्याण बनर्जी को लेकर जिस तरह की बातें
हो रही हैं, उससे साफ लग रहा है कि रोटरी क्लब जबलपुर के कार्यक्रम में
उपस्थित होकर इन दोनों ने अपनी काफी फजीहत करा ली है ।
Monday, August 19, 2013
रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3010 में डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर राजेश बत्रा ने रवि भाटिया की उम्मीदवारी के पक्ष में हवा बनाने के लिए जो तरकीब चली उसने अपना काम किया है
नई दिल्ली/गाजियाबाद । गाजियाबाद में एक क्लब के अधिष्ठापन
समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में पधारे राजेश बत्रा ने डिस्ट्रिक्ट के
मौजूदा माहौल और डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति को लेकर जो बातें की/कहीं, उनसे
डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के उम्मीदवार रवि भाटिया की उम्मीदवारी को बड़ा बल
मिला और रवि भाटिया की उम्मीदवारी के समर्थन में माहौल बनता हुआ नजर आया ।
राजेश बत्रा द्धारा की/कहीं बातों को जिन्होंने सुना, उनमें से कुछ ने इन
पंक्तियों के लेखक को बताया कि राजेश बत्रा ने हालाँकि किसी का नाम नहीं
लिया, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी कहा उसे सुनकर वहाँ मौजूद हर किसी ने यही
जाना/समझा कि राजेश बत्रा इस वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के चुनाव के
संदर्भ में रवि भाटिया का समर्थन करने की जरूरत और अहमियत बता रहे हैं । राजेश
बत्रा ने इस 'काम' को जिस सफाई से किया, उसके चलते भी उनकी बातों को सुनने
वालों ने न सिर्फ गंभीरता से लिया - बल्कि उसके राजनीतिक आशयों को भी
समझा/पहचाना । राजेश बत्रा चूँकि डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर के पद पर हैं,
इसलिए भी उनकी 'बातों' की गंभीरता को पहचाना गया और उनके प्रति सहमति
दिखाई/जताई गई ।
राजेश बत्रा ने अनौपचारिक बातचीत में इस बात को न सिर्फ
रेखांकित किया बल्कि इस पर चिंता भी व्यक्त की कि कुछ लोगों ने डिस्ट्रिक्ट
के माहौल को और चुनावी राजनीति को ऐसा बना दिया है कि कुछ अच्छा करने की
इच्छा रखने वाले लोगों के लिए यहाँ बने रहना मुश्किल होने लगा है । राजेश
बत्रा ने बताया कि कई लोगों ने उनसे कहा है कि जैसे एक मछली सारे तालाब को
गंदा कर देती है, वैसे ही थोड़े से लोगों की हरकतों के कारण डिस्ट्रिक्ट
की और रोटरी की ऐसी बदनामी हो रही है कि अच्छे, भले और कुछ करने का जज्बा
रखने वाले लोग अपने आप को हतोत्साहित महसूस करने लगे हैं और धीरे-धीरे निष्क्रिय हो जा रहे हैं ।
राजेश बत्रा ने सिर्फ स्थिति का आकलन ही नहीं किया, बल्कि उन्होंने लोगों
को इस बात के लिए प्रेरित करने की कोशिश भी की कि जो लोग डिस्ट्रिक्ट को और
रोटरी को बचाना चाहते हैं, उन्हें आगे आना होगा और अच्छे व सही लोगों का
साथ देना होगा । राजेश बत्रा ने जो कुछ भी कहा, उसमें किसी का भी नाम नहीं
लिया - लेकिन फिर भी सभी ने यह समझने/पहचानने में देर नहीं की कि उनके
निशाने पर कौन है ?
दरअसल, एक अकेले राजेश बत्रा ही नहीं, बल्कि कई लोग क्लब्स के
और या डिस्ट्रिक्ट के आधिकारिक आयोजनों के पहले और बाद में होने वाली
अनौपचारिक बातचीतों के स्तर को लेकर अपनी अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं । अनौपचारिक
बातचीतों के स्तर को गंदला करने का काम पहले मुकेश अरनेजा और असित मित्तल
आदि ही करते थे, पर अब इनके भी 'गुरु' विनय कुमार अग्रवाल ने मोर्चा संभाला
हुआ है । पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनय कुमार अग्रवाल की खूबी यह है कि
यह बिना अश्लील शब्दों के अपनी बात कह ही नहीं पाते हैं । इनके निशाने पर चाहे कोई वरिष्ठ रोटेरियन हो और या आम रोटेरियन हो - यह उसके लिए
ऐसी-ऐसी भद्दी और अश्लील किस्म की गलियाँ इस्तेमाल करते हैं कि दूसरों के
लिए उन्हें दोहराना भी संभव नहीं होता । मनुष्य की चूँकि यह एक बड़ी
स्वाभाविक-सी कमजोरी है कि उसके विरोधी के खिलाफ यदि कुछ कहा जा रहा है, तो
उसका मन बड़ा प्रसन्न महसूस करता है - इसके चलते कभी-कभी कुछ लोग विनय
कुमार अग्रवाल की गालियों में मजा भी लेते हैं, जाहिर है कि इससे उनके
हौंसले और बुलंद हुए हैं और इस कारण से उनके गाली-गलौच कार्यक्रम में और
तेजी आई है । विनय कुमार अग्रवाल की गालियों के स्वर तेज होने का एक कारण यह भी है कि मुकेश अरनेजा उन्हें इस्तेमाल करने लगे हैं ।
किसी भी सभा/संगठन में नॉनसेंस लोगों की जो एक 'वैल्यू' होती है - विनय
कुमार अग्रवाल की उस वैल्यू को पहचान कर मुकेश अरनेजा उन्हें इस्तेमाल करने
लगे हैं । विनय कुमार अग्रवाल की यह वैल्यू इसलिए और 'महत्वपूर्ण' हो
गई है क्योंकि विनय कुमार अग्रवाल ने सुधीर मंगला की उम्मीदवारी का झंडा
उठा लिया है । उल्लेखनीय है कि पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स में यदि कोई
सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के समर्थन में घोषित रूप से है तो वह अकेले विनय
कुमार अग्रवाल हैं ।
विनय कुमार अग्रवाल के घोषित समर्थन ने लेकिन सुधीर मंगला की उम्मीदवारी को नुकसान पहुँचाने का ही काम किया है । विनय कुमार अग्रवाल अपनी गाली-गलौचपूर्ण बातों से मजमा तो जोड़ लेते हैं, लेकिन वह मजमा फिर जल्दी ही उजड़ भी जाता है ।
सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के प्रति सहानुभूति का भाव रखने वाले, मुकेश
अरनेजा की अश्लील और अशालीन किस्म की फिकरेबाजियों का शिकार रहे एक पूर्व
डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को हाल-फ़िलहाल में जब मुकेश अरनेजा और विनय कुमार
अग्रवाल की बातों में रस लेते हुए देखा/पाया गया तो उन्हें सफाई देनी पड़ी
की कि जहाँ ये दोनों होते हैं, वहाँ मैं ज्यादा देर रुकता ही नहीं हूँ ।
सुधीर मंगला की उम्मीदवारी की बागडोर विनय कुमार अग्रवाल के हाथ में आने के
बाद सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के प्रति समर्थन का भाव रखने वाले कई लोगों
ने ऐसी ही प्रतिक्रिया दी है । इसी नज़ारे को देख कर सुधीर मंगला की
उम्मीदवारी के जेनुइन किस्म के शुभचिंतकों ने चिंता व्यक्त की है कि विनय
कुमार अग्रवाल के कारण सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के
अभियान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । इसके बावजूद विनय कुमार अग्रवाल
को रोका नहीं जा रहा है तो इसका कारण सुधीर मंगला के नजदीकियों के अनुसार
यह है कि मुकेश अरनेजा ने सुधीर मंगला को समझाया है कि विनय कुमार अग्रवाल
की बातों से दिल्ली में कुछ क्लब्स तो छिटकेंगे, लेकिन उत्तर प्रदेश और
हरियाणा के क्लब्स जुड़ेंगे । ऐसा लगता है कि मुकेश अरनेजा मानते/समझते
हैं कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा में लोग लफंगई ही पसंद करते हैं । शायद ऐसा
ही सोचकर मुकेश अरनेजा और असित मित्तल ने रवि चौधरी की उम्मीदवारी के लिए
समर्थन जुटाने हेतु गाजियाबाद में नाच-गाना करवाया था, जिसमें फिर
मार-पिटाई हो गई थी । लगता है कि मुकेश अरनेजा उसी फार्मूले को सुधीर
मंगला के लिए भी आजमाना चाहते हैं । मुकेश अरनेजा का उक्त फार्मूला लेकिन
जब रवि चौधरी के काम नहीं आया था, तो वह सुधीर मंगला के काम कैसे और क्यों
आयेगा ?
डिस्ट्रिक्ट में लफंगई को प्रोत्साहित करने की कुछेक लोगों की कोशिश को राजेश बत्रा ने गाजियाबाद में ही मुद्दा बनाया
- तो यह उनकी सोची-समझी रणनीति भी हो सकती है । उल्लेखनीय है कि
डिस्ट्रिक्ट को और रोटरी को बदनाम करने वाली बातों के खिलाफ राजेश बत्रा
पहले भी आवाज उठाते रहे हैं । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि असित
मित्तल के बिजनेस संबंधी लफड़ों के कारण राजेश बत्रा ने उनके खिलाफ खुला
अभियान छेड़ा था और असित मित्तल से सावधान रहने को लेकर लोगों को आगाह किया
था । विनय कुमार अग्रवाल की हरकतों को देखते हुए राजेश बत्रा लगता है कि
एक बार फिर उसी तेवर को अपनाने जा रहे हैं । राजेश बत्रा ने हालाँकि अभी
किसी का नाम नहीं लिया है लेकिन उन्होंने जिस तरह से रोटरी को और
डिस्ट्रिक्ट को भले लोगों की, काम करने वाले लोगों की, परिवार सहित शामिल
होने की इच्छा रखने वाले लोगों की जगह बनाने और बनाये रखने की जरूरत को
रेखांकित किया है - उससे हर किसी को यह साफ समझ में आ रहा है कि उनके
निशाने पर इस बार विनय कुमार अग्रवाल हैं । राजेश बत्रा के निशाने पर
होंगे भले ही विनय कुमार अग्रवाल, लेकिन उससे पैदा होने वाली चोट पड़ रही है
सुधीर मंगला की उम्मीदवारी पर । राजेश बत्रा ने किसी का नाम नहीं लिया,
लेकिन जब उन्होंने यह कहा कि डिस्ट्रिक्ट और रोटरी की भलाई इसमें है कि
भले, शरीफ और ईमानदारी से रोटरी का काम करते रहे और आगे भी करते रहने की
इच्छा रखने वाले लोगों का साथ दिया जाये तो मौके पर मौजूद लोगों ने यह
समझने में न तो देर की और न कोई गलती की कि वह रवि भाटिया की उम्मीदवारी का समर्थन करने का अनुरोध कर रहे हैं । राजेश बत्रा लोगों के बीच यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि सुधीर मंगला की उम्मीदवारी की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में है जो रोटरी को और डिस्ट्रिक्ट को बदनाम करने का ही काम करेंगे । राजेश बत्रा की बातों को सुनने वालों की जो प्रतिक्रिया रही और जो बाद तक
भी जाहिर होती रही है, उससे साफ है कि राजेश बत्रा ने रवि भाटिया की
उम्मीदवारी के पक्ष में हवा बनाने के लिए जो तरकीब चली उसने अपना काम किया
है ।
Thursday, August 15, 2013
'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' की ऑर्गेनाइजिंग कमेटी में को-चेयरमैन का पद पाकर विनोद बंसल ने अपने ही डिस्ट्रिक्ट के अपने विरोधियों को फ़िलहाल धूल तो चटा ही दी है
नई दिल्ली । 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' की
ऑर्गेनाइजिंग कमेटी में को-चेयरमैन का पद विनोद बंसल को देकर इंटरनेशनल
डायरेक्टर पीटी प्रभाकर ने डिस्ट्रिक्ट 3010 के तुर्रमखाँ नेताओं को ऐसा
आईना दिखाया है, कि उनके लिए आईने के सामने पड़ना मुश्किल हो गया है । उल्लेखनीय
है कि 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' की ऑर्गेनाइजिंग कमेटी में विनोद बंसल को
को-चेयरमैन का पद न मिले इसके लिए डिस्ट्रिक्ट 3010 के घोषित और अघोषित
नेताओं ने पूरी तैयारी के साथ ताल ठोकी हुई थी - और इसके चलते उन्होंने
'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' के दिल्ली में होने के प्रस्ताव तक को ख़ारिज करवा
दिया । दिल्ली में 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' के होने के प्रस्ताव के
दिल्ली के रोटरी नेता इसलिए दुश्मन हो गये, क्योंकि उक्त इंस्टीट्यूट की
ऑर्गेनाइजिंग कमेटी में को-चेयरमैन का पद विनोद बंसल को ऑफर हो रहा था ।
दिल्ली में 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' के आयोजन के प्रस्ताव को ख़ारिज करवाने
में तो दिल्ली के रोटरी नेता सफल हो गए, लेकिन विनोद बंसल के को-चेयरमैन
बनने के जिस कारण को लेकर वह विरोध कर रहे थे - उस 'कारण' का वह कुछ नहीं
बिगाड़ पाए । विनोद बंसल 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' की ऑर्गेनाइजिंग
कमेटी में को-चेयरमैन बना दिए गए हैं । विनोद बंसल को को-चेयरमैन बनाने के
पीटी प्रभाकर के प्रस्ताव को दिल्ली के रोटरी नेता भी यदि मान लेते, तो
'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' का आयोजन दिल्ली में हो रहा होता और उसके चेयरमैन
का पद भी दिल्ली के ही एक रोटरी नेता रंजन ढींगरा के पास होता । विनोद
बंसल के प्रति अपनी खुन्नस के चलते दिल्ली के कुछेक रोटरी नेताओं ने लेकिन
ऐसा नहीं होने दिया । उनकी बदकिस्मती यह रही कि अपने तमाम प्रयासों के
बावजूद वह विनोद बंसल को को-चेयरमैन बनने से नहीं रोक सके ।
हर बात का श्रेय 'लेने' में आगे रहने वाले मुकेश अरनेजा ने हालाँकि यह दावा करके अपने मूव को सफल बताया है कि उनके प्रयासों के कारण विनोद बंसल को इंस्टीट्यूट के चेयरमैन का पद तो नहीं मिल पाया । उल्लेखनीय है कि शुरू में पीटी प्रभाकर की तरफ से जब दिल्ली में 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' को आयोजित करने का प्रस्ताव मिला था, तब यह अनुमान लगाया गया था कि विनोद बंसल को उक्त इंस्टीट्यूट का चेयरमैन बनाने की तैयारी हो रही है । इस अनुमान से कई लोगों के कान खड़े हुए । विनोद बंसल ने अलग-अलग कारणों से डिस्ट्रिक्ट में अपने जो कई-कई दुश्मन बनाये हुए हैं - उन सब के बीच खलबली मच गई । हमेशा कुछ न कुछ करने की फ़िराक में रहने वाले मुकेश अरनेजा को जैसे काम मिल गया - उन्होंने अलग-अलग तर्क देकर लोगों को जोड़ा और विनोद बंसल के चेयरमैन बन सकने की योजना में पलीता लगा देने वाला काम किया । इस 'काम' में जो लोग जुड़े, उनकी पहचान एक खेमे के रूप में करते/बनाते हुए इस काम को सुशील गुप्ता की खिलाफत के साथ जोड़ दिया गया । मुकेश अरनेजा और उनके साथ लगे कुछ लफंगे किस्म के लोगों ने दावे भी किये कि उन्होंने सुशील गुप्ता को ठिकाने लगा दिया है । सुशील गुप्ता भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेले हैं - पर्दे के पीछे से रचे गए उनके खेल में इंस्टीट्यूट 2014 के चेयरमैन पद के लिए रंजन ढींगरा का नाम आया और विनोद बंसल के लिए को-चेयरमैन का पद ऑफर हुआ । दिल्ली के रोटरी नेताओं के बीच चेयरमैन पद के लिए रंजन ढींगरा के नाम को पसंद तो नहीं किया गया, लेकिन उनका बहुत मुखर विरोध भी नहीं हुआ । विनोद बंसल को लेकर लेकिन पहले वाला रवैया ही सामने आया । 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' के कन्वेनर के रूप में पीटी प्रभाकर ने उनके रवैये को स्वीकार करने से जब इंकार कर दिया, तब दिल्ली के रोटरी नेताओं ने दिल्ली में 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' के आयोजन को लेकर अपनी स्वीकृति देने से मना कर दिया ।
हर बात का श्रेय 'लेने' में आगे रहने वाले मुकेश अरनेजा ने हालाँकि यह दावा करके अपने मूव को सफल बताया है कि उनके प्रयासों के कारण विनोद बंसल को इंस्टीट्यूट के चेयरमैन का पद तो नहीं मिल पाया । उल्लेखनीय है कि शुरू में पीटी प्रभाकर की तरफ से जब दिल्ली में 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' को आयोजित करने का प्रस्ताव मिला था, तब यह अनुमान लगाया गया था कि विनोद बंसल को उक्त इंस्टीट्यूट का चेयरमैन बनाने की तैयारी हो रही है । इस अनुमान से कई लोगों के कान खड़े हुए । विनोद बंसल ने अलग-अलग कारणों से डिस्ट्रिक्ट में अपने जो कई-कई दुश्मन बनाये हुए हैं - उन सब के बीच खलबली मच गई । हमेशा कुछ न कुछ करने की फ़िराक में रहने वाले मुकेश अरनेजा को जैसे काम मिल गया - उन्होंने अलग-अलग तर्क देकर लोगों को जोड़ा और विनोद बंसल के चेयरमैन बन सकने की योजना में पलीता लगा देने वाला काम किया । इस 'काम' में जो लोग जुड़े, उनकी पहचान एक खेमे के रूप में करते/बनाते हुए इस काम को सुशील गुप्ता की खिलाफत के साथ जोड़ दिया गया । मुकेश अरनेजा और उनके साथ लगे कुछ लफंगे किस्म के लोगों ने दावे भी किये कि उन्होंने सुशील गुप्ता को ठिकाने लगा दिया है । सुशील गुप्ता भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेले हैं - पर्दे के पीछे से रचे गए उनके खेल में इंस्टीट्यूट 2014 के चेयरमैन पद के लिए रंजन ढींगरा का नाम आया और विनोद बंसल के लिए को-चेयरमैन का पद ऑफर हुआ । दिल्ली के रोटरी नेताओं के बीच चेयरमैन पद के लिए रंजन ढींगरा के नाम को पसंद तो नहीं किया गया, लेकिन उनका बहुत मुखर विरोध भी नहीं हुआ । विनोद बंसल को लेकर लेकिन पहले वाला रवैया ही सामने आया । 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' के कन्वेनर के रूप में पीटी प्रभाकर ने उनके रवैये को स्वीकार करने से जब इंकार कर दिया, तब दिल्ली के रोटरी नेताओं ने दिल्ली में 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' के आयोजन को लेकर अपनी स्वीकृति देने से मना कर दिया ।
दिल्ली के रोटरी नेताओं के इंकार के बाद, पीटी प्रभाकर ने
चेन्नई में उक्त इंस्टीट्यूट के आयोजन की घोषणा की और साथ ही को-चेयरमैन पद
के लिए उन्होंने विनोद बंसल के पक्ष में तय किये गए अपने फैसले को बनांये
रखने का निश्चय दोहराया । 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' की ऑर्गेनाइजिंग
कमेटी में विनोद बंसल का नाम को-चेयरमैन के रूप में आने से दिल्ली के रोटरी
नेताओं की सारी कसरत बेकार चली गई है । विनोद बंसल के नजदीकियों का कहना
है कि लोग देखेंगे कि जो मुकेश अरनेजा अभी इस बात का श्रेय ले रहे हैं कि
उन्होंने पीटी प्रभाकर की मनमानी नहीं चलने दी और विनोद बंसल को चेयरमैन
नहीं बनने दिया, वही मुकेश अरनेजा उक्त इंस्टीट्यूट की ऑर्गेनाइजिंग कमेटी
में पद पाने के लिए अब विनोद बंसल की खुशामद में जुटेंगे । 'रोटरी
इंस्टीट्यूट 2014' की ऑर्गेनाइजिंग कमेटी में को-चेयरमैन का पद पाकर विनोद
बंसल ने अपने डिस्ट्रिक्ट के अपने विरोधियों को धूल तो चटा दी है, लेकिन
देखने की बात यह होगी कि अपने डिस्ट्रिक्ट में अपने इतने तगड़े विरोध के
चलते वह रोटरी की अपनी आगे की 'यात्रा' कैसे पूरी करेंगे ? कुछेक लोगों का
कहना है कि इंस्टीट्यूट के को-चेयरमैन का पद स्वीकार करके विनोद बंसल ने
अपने आप को अपने डिस्ट्रिक्ट के नेताओं से और दूर कर लिया है; अभी मौके की
नजाकत को देखते/समझते हुए उन्हें यह ऑफर स्वीकार नहीं करना चाहिए था, जिससे
कि उनके विरोध की आँच धीमी पड़ जाती और बुझ जाती और तब उनकी आगे की राह
आसान हो जाती । इसके विपरीत अन्य कुछ लोगों का मानना और कहना है कि तमाम
विरोध के बावजूद को-चेयरमैन का पद उन्हें मिलने से उनका दम बढ़ा है और यह
पद, अभी तक जो लोग उन्हें हलके में ले रहे थे उनके बीच उनकी हैसियत में
इजाफा ही करेगा ।
रोटरी की राजनीति से परिचित लोगों का मानना और कहना है कि यहाँ जिसे आगे बढ़ना है, उसे अपने दम पर ही आगे बढ़ना होता है - मदद/अदद मिलती नहीं है, जुटानी पड़ती है । सुशील गुप्ता इंटरनेशनल डायरेक्टर बने थे, तो डिस्ट्रिक्ट के लोग तो उनकी टाँग खींचने में ही जुटे थे; सुशील गुप्ता ने पहले डिस्ट्रिक्ट के बाहर अपने लिए समर्थन जुटाया, फिर डिस्ट्रिक्ट के लोग उनका समर्थन करने के लिए मजबूर हुए थे । शेखर मेहता को तो अपने डिस्ट्रिक्ट में बहुत ही गंभीर विरोध का सामना करना पड़ा था ।
आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले को सबसे पहले और सबसे ज्यादा अपने नजदीकी
लोगों के विरोध का ही सामना करना होता है - इसलिए विनोद बंसल के साथ यदि
ऐसा हो रहा है, तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है । अपने डिस्ट्रिक्ट में विनोद बंसल का भले ही विरोध हो, लेकिन 'रोटरी इंस्टीट्यूट 2014' का को-चेयरमैन बनके विनोद बंसल ने दिखा/जता दिया है कि रोटरी के बड़े नेताओं के बीच उनकी अच्छी पैठ है । कुछेक लोगों को लगता है कि पैठ/बैठ कुछ नहीं है, विनोद बंसल चूँकि 'इस्तेमाल'
होने के लिए प्रस्तुत हैं, इसलिए रोटरी के बड़े नेता उन्हें सिर्फ इस्तेमाल
कर रहे हैं । यह बात यदि सच भी है, तो यह रोटरी की राजनीति में सफल होने के फार्मूले के 'सच' को ही कहती है
- और इसलिए यहाँ सफल होने की इच्छा रखने वाले को इस 'सच' को स्वीकार करना
ही होगा । विनोद बंसल ने इसे स्वीकार कर लिया है - और वह इंस्टीट्यूट के
को-चेयरमैन का पद पाने में कामयाब हो गए हैं । उनके विरोधी सिर्फ सिर धुनते ही नहीं रह गए हैं - बल्कि जल्दी ही उन्हें विनोद बंसल की खुशामद में भी देखा जाने लगेगा ।
Tuesday, August 13, 2013
पवन बंसल कांड में सुनील गुप्ता के ‘पकड़े’ जाने के बाद, इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के चुनावी खिलाडि़यों को चंडीगढ़ में अब दूसरे ठिकाने खोजने/बनाने होंगे क्या ?
चंडीगढ़ । रेलमंत्री के रूप
में पवन बंसल की कारस्तानियों की पोल खुलने से इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड
एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया की सेंट्रल व नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के
उम्मीदवारों के लिए चंडीगढ़ में वोट जुटाने की समस्या पैदा हो गई है ।
दरअसल पवन बंसल अकेले नहीं डूबे हैं, वह अपने साथ सुनील गुप्ता को भी ले
डूबे हैं । सुनील गुप्ता चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, और पवन बंसल के साथ
उनकी मिलीभगत के तथ्य सामने आये हैं । चार्टर्ड एकाउंटेंट के रूप में सुनील
गुप्ता की चंडीगढ़ में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में खासी
धाक रही है । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के नार्दर्न रीजन में
सेंट्रल काउंसिल व रीजनल काउंसिल के जिन उम्मीदवारों को चंडीगढ़ में वोट
जुटाने होते हैं, उसके लिए सबसे पहले सुनील गुप्ता के यहाँ माथा टेकना
जरूरी माना जाता रहा है । सुनील गुप्ता ने भी प्रायः किसी को निराश
नहीं किया है । उनका ‘कारोबार’ दरअसल इतना फैला हुआ रहा है कि वह हर किसी
की ‘मदद’ करने में समर्थ रहे हैं । कुछेक लोग हालाँकि कहते रहे हैं कि
सुनील गुप्ता मदद नहीं करते, बल्कि मदद का झांसा देते हैं । अब सच चाहे जो हो, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में सुनील गुप्ता का जलवा तो रहा है और वह ‘दिखता’ भी रहा है ।
एसपी बबूटा की राजनीतिक दुर्गति होने के बाद तो सुनील गुप्ता का जलवा और
बढ़ा ही - क्योंकि एसपी बबूटा की राजनीतिक दुर्गति के लिए सुनील गुप्ता को
ही जिम्मेदार माना/पहचाना गया था, जिससे सुनील गुप्ता के राजनीतिक भाव और
बढ़े ।
मजे की बात यह है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में एसपी बबूटा को आगे बढ़ाने का श्रेय भी सुनील गुप्ता को ही दिया जाता है । वर्ष 1996-97 में जब सुनील गुप्ता चंडीगढ़ ब्रांच के चेयरमैन थे, तो ब्रांच में सेक्रेटरी का पद एसपी बबूटा के पास ही था । एसपी बबूटा चंडीगढ़ ब्रांच में चेयरमैन वर्ष 2002-03 में बन पाये, जब सुनील गुप्ता ने दिलचस्पी ली । सुनील गुप्ता के दिलचस्पी लेने के बाद ही एसपी बबूटा नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में चुने जा सके थे । एसपी बबूटा को जिन सुनील गुप्ता ने धूल से उठाया था, उन्हीं सुनील गुप्ता ने फिर वापस धूल में मिला दिया, तो इसका कारण सिर्फ यह रहा कि रीजनल काउंसिल में चुने जाने के बाद एसपी बबूटा ने चंडीगढ़ में सुनील गुप्ता की ‘जगह’ लेने की कोशिश की; अपनी इस कोशिश के कारण एसपी बबूटा को ऐसी बुरी मात खानी पड़ी कि उसके चलते उन्हें चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति से बाहर ही हो जाना पड़ा । यह प्रसंग इसलिए और भी उल्लेखनीय है कि एसपी बबूटा चंडीगढ़ ब्रांच में जिस वर्ष सुनील गुप्ता से बर्चस्व की निर्णायक लड़ाई लड़ रहे थे, उसमें उन्हें इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के तत्कालीन प्रेसीडेंट अमरजीत चोपड़ा का खुला समर्थन प्राप्त था, लेकिन फिर भी सुनील गुप्ता ने उनका ऐसा बाजा बजाया कि एसपी बबूटा के लिए खड़े रह पाना तक मुश्किल हो गया और अंततः उन्हें समर्पण के लिए ही मजबूर होना पड़ा । एसपी बबूटा से निपटने के लिए सुनील गुप्ता ने जो जाल बिछाया, उसमें चंडीगढ़ ब्रांच के अधिकतर पूर्व चेयरमैन सुनील गुप्ता के पक्ष में थे और एसपी बबूटा चंडीगढ़ में लगभग अकेले पड़ गये । एसपी बबूटा के उत्थान और पतन में सुनील गुप्ता की जो भूमिका थी, और इस भूमिका को उन्होंने जिस तरह निभाया उससे उनकी पहचान रॉबिनहुड जैसी बनी । उनकी इसी पहचान के कारण चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की राजनीति में दिल्ली का हर सूरमा चंडीगढ़ पहुँच कर सुनील गुप्ता के सामने भीगी बिल्ली ही बना नजर आता । सुनील गुप्ता भी हर किसी की मदद ‘करते’। चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट के चुनाव के समय चंडीगढ़ में जो हैसियत सुनील गुप्ता की होती है, वह चंडीगढ़ में और या दूसरे किसी शहर में और किसी को नसीब नहीं हुई है ।
लेकिन रेलमंत्री के रूप में पवन बंसल की कारस्तानियों के उजागर होने और पवन बंसल की कारस्तानियों में सुनील गुप्ता की मिलीभगत होने के तथ्यों ने सुनील गुप्ता की उक्त हैसियत के बने रहने पर सवाल खड़ा कर दिया है । चंडीगढ़ में सुनील गुप्ता के नजदीक रहे लोगों का ही कहना है कि सुनील गुप्ता ने बिजनेस का लालच देकर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को अपने साथ जोड़ा हुआ था, जिसमें अब उनके लिए मुश्किल आयेगी । इन्हीं नजदीकियों का कहना है कि सुनील गुप्ता के राजनीतिक लोगों से अच्छे कामकाजी संबंध रहे हैं, और अपने इन संबंधों के कारण वह चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के काम भी आते रहे हैं । किन्हीं किन्हीं मौकों पर वह जिस तरह चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के काम आये हैं, उनके किस्से इस तरह प्रचारित हुए कि सुनील गुप्ता की छवि ‘पहुँच वाले’ और ‘काम आने वाले’ व्यक्ति की बनी । सुनील गुप्ता पर्दे के पीछे से पूरी राजनीति करते रहे, लेकिन पर्दे के सामने आने की उन्होंने कभी कोई खास कोशिश नहीं की - इसका नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से उनका सीधा टकराव नहीं हुआ; और जब-जब उन्हें जरूरत हुई, चंडीगढ़ के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स नेता उनके साथ खड़े हुए । रेलमंत्री के रूप में पवन बंसल की कारस्तानियों की जो पोल खुली और पवन बंसल के साथ सुनील गुप्ता की मिली भगत के जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे सुनील गुप्ता को दो तरफा नुकसान हुआ है । एक तरफ तो पवन बंसल के खुले और छिपे कारोबार में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को काम दिलवाने की सुनील गुप्ता की हैसियत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा; और दूसरी तरफ चंडीगढ़ की राजनीति में पवन बंसल के जिन राजनीतिक विरोधियों के साथ सुनील गुप्ता के कारोबारी किस्म के संबंध थे, वह प्रभावित होंगे । दरअसल अभी तक चंडीगढ़ में यह तो जाना/पहचाना जाता था कि सुनील गुप्ता के पवन बंसल के साथ गहरे संबंध हैं, लेकिन इसका अंदाजा लोगों को नहीं था कि यह संबंध ‘कितने’ गहरे हैं । इस ‘गहराई’ का पवन बंसल के परिवार की कंपनियों में सुनील गुप्ता के ऑडीटर होने की बात से उतना अंदाजा नहीं लगता, जितना पवन बंसल के परिवार की कंपनियों में सुनील गुप्ता की पत्नी के डायरेक्टर होने के तथ्य के उजागर होने से लगता है । पवन बंसल के परिवार की कंपनियों में यदि सुनील गुप्ता की पत्नी को भी डायरेक्टर का पद मिला है, तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पवन बंसल के खुले और ‘छिपे’ कारोबार में सुनील गुप्ता की किस हद तक की ‘हिस्सेदारी’ होगी ।
इस ‘हिस्सेदारी’ के खुलासे ने और पवन बंसल के गर्दिश में जाने के कारण सुनील गुप्ता पर चैतरफा मार पड़ी है । हालाँकि उनके नजदीकियों का कहना है कि सुनील गुप्ता के कई सत्ताधारी नेताओं के साथ नजदीकी और ‘कारोबारी’ संबंध हैं, इसलिए पवन बंसल कांड के कारण सुनील गुप्ता को कोई खास नुकसान नहीं होने वाला है । कुछेक अन्य लोगों का मानना और कहना लेकिन है कि ‘कारोबार’ संबंधी नुकसान सुनील गुप्ता को भले ही न हो, लेकिन इससे उनके राजनीतिक ऑरा (आभामंडल) पर प्रतिकूल असर अवश्य ही पड़ा है । चंडीगढ़ ब्रांच में सक्रिय और या रसूख रखने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पर अपने ऑरा का इस्तेमाल करते हुए चंडीगढ़ की चुनावी राजनीति में अपनी चैधराहट चला पाना सुनील गुप्ता के लिए अब आसान नहीं होगा । जो पोल खुली है, ऐसा नहीं है कि उसे कोई जानता नहीं था - सभी इन बातों को पहले से जानते थे; बल्कि जानते होने के कारण ही लोग सुनील गुप्ता के नजदीक थे, या नजदीक होना चाहते थे । पोल खुल जाने के बाद लेकिन उन्हीं लोगों का रवैया और समीकरण बदल जाता है । सुनील गुप्ता और उन पर आश्रित रहने वाले लोग इस बात को अच्छी तरह जानते/समझते हैं । चार्टर्ड एकाउंटेंट्स प्रोफेशन में यह आम बात भी है । एंट्री का काम करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ एंट्री का काम करने के कारण ही दूसरे चार्टर्ड एकाउंटेंट्स और उनके क्लाइंट्स जुड़े होते हैं, लेकिन आयकर विभाग की पकड़ में आने के बाद एंट्री का काम करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट से अभी तक काम कराने वाले उसके साथी तथा अन्य लोग बचने लगते हैं । यही कहानी सुनील गुप्ता के साथ है । पवन बंसल के साथ उनकी जो नजदीकी अभी तक उनके लिए वरदान बनी हुई थी, उस नजदीकी के पकड़ में आने के बाद वही नजदीकी अब उनके लिए अभिशाप बन गई है । सुनील गुप्ता के नजदीकियों का ही कहना है कि सुनील गुप्ता ने ही इस बात का रोना रोया है कि उनके जिन दूसरे सत्ताधारियों के साथ संबंध हैं, अब वह सत्ताधारी उनके साथ संबंधों को लेकर सतर्क हो गये हैं ।
सुनील गुप्ता का क्या होगा - यह हालाँकि काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि पवन बंसल की कारस्तानियों की जांच.पड़ताल किस रास्ते पर जाती है, और उनका क्या होता है ? किंतु वह सब कारोबार संबंधी बातें हैं । हम यहाँ पवन बंसल की कारस्तानियों की पोल खुलने और पवन बंसल के साथ सुनील गुप्ता की मिलीभगत के तथ्य के ‘पकड़े’ जाने के कारण इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया की सेंट्रल व रीजनल काउंसिल के उम्मीदवारों के लिए चंडीगढ़ में वोट जुटाने को लेकर पैदा हुई समस्या को समझने की कोशिश कर रहे हैं । सेंट्रल काउंसिल और रीजनल काउंसिल की चुनावी राजनीति के खिलाडि़यों का मानना और कहना है कि जो हुआ है उससे सुनील गुप्ता के कारोबार पर क्या फर्क पड़ेगा, यह तो वह जानें - लेकिन उनके राजनीतिक रसूख पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ेगा । सुनील गुप्ता के लिए समस्या यह भी होगी कि वह अपने ‘कारोबार’ को संभाले या अपनी राजनीति को - ऐसे में, उनकी 'राजनीति' के ही पिछड़ने की ज्यादा संभावना है । इसका मतलब, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के खिलाडि़यों को चंडीगढ़ में अब दूसरे ठिकाने खोजने/बनाने पड़ेंगे क्या ?
मजे की बात यह है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में एसपी बबूटा को आगे बढ़ाने का श्रेय भी सुनील गुप्ता को ही दिया जाता है । वर्ष 1996-97 में जब सुनील गुप्ता चंडीगढ़ ब्रांच के चेयरमैन थे, तो ब्रांच में सेक्रेटरी का पद एसपी बबूटा के पास ही था । एसपी बबूटा चंडीगढ़ ब्रांच में चेयरमैन वर्ष 2002-03 में बन पाये, जब सुनील गुप्ता ने दिलचस्पी ली । सुनील गुप्ता के दिलचस्पी लेने के बाद ही एसपी बबूटा नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में चुने जा सके थे । एसपी बबूटा को जिन सुनील गुप्ता ने धूल से उठाया था, उन्हीं सुनील गुप्ता ने फिर वापस धूल में मिला दिया, तो इसका कारण सिर्फ यह रहा कि रीजनल काउंसिल में चुने जाने के बाद एसपी बबूटा ने चंडीगढ़ में सुनील गुप्ता की ‘जगह’ लेने की कोशिश की; अपनी इस कोशिश के कारण एसपी बबूटा को ऐसी बुरी मात खानी पड़ी कि उसके चलते उन्हें चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति से बाहर ही हो जाना पड़ा । यह प्रसंग इसलिए और भी उल्लेखनीय है कि एसपी बबूटा चंडीगढ़ ब्रांच में जिस वर्ष सुनील गुप्ता से बर्चस्व की निर्णायक लड़ाई लड़ रहे थे, उसमें उन्हें इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के तत्कालीन प्रेसीडेंट अमरजीत चोपड़ा का खुला समर्थन प्राप्त था, लेकिन फिर भी सुनील गुप्ता ने उनका ऐसा बाजा बजाया कि एसपी बबूटा के लिए खड़े रह पाना तक मुश्किल हो गया और अंततः उन्हें समर्पण के लिए ही मजबूर होना पड़ा । एसपी बबूटा से निपटने के लिए सुनील गुप्ता ने जो जाल बिछाया, उसमें चंडीगढ़ ब्रांच के अधिकतर पूर्व चेयरमैन सुनील गुप्ता के पक्ष में थे और एसपी बबूटा चंडीगढ़ में लगभग अकेले पड़ गये । एसपी बबूटा के उत्थान और पतन में सुनील गुप्ता की जो भूमिका थी, और इस भूमिका को उन्होंने जिस तरह निभाया उससे उनकी पहचान रॉबिनहुड जैसी बनी । उनकी इसी पहचान के कारण चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की राजनीति में दिल्ली का हर सूरमा चंडीगढ़ पहुँच कर सुनील गुप्ता के सामने भीगी बिल्ली ही बना नजर आता । सुनील गुप्ता भी हर किसी की मदद ‘करते’। चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट के चुनाव के समय चंडीगढ़ में जो हैसियत सुनील गुप्ता की होती है, वह चंडीगढ़ में और या दूसरे किसी शहर में और किसी को नसीब नहीं हुई है ।
लेकिन रेलमंत्री के रूप में पवन बंसल की कारस्तानियों के उजागर होने और पवन बंसल की कारस्तानियों में सुनील गुप्ता की मिलीभगत होने के तथ्यों ने सुनील गुप्ता की उक्त हैसियत के बने रहने पर सवाल खड़ा कर दिया है । चंडीगढ़ में सुनील गुप्ता के नजदीक रहे लोगों का ही कहना है कि सुनील गुप्ता ने बिजनेस का लालच देकर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को अपने साथ जोड़ा हुआ था, जिसमें अब उनके लिए मुश्किल आयेगी । इन्हीं नजदीकियों का कहना है कि सुनील गुप्ता के राजनीतिक लोगों से अच्छे कामकाजी संबंध रहे हैं, और अपने इन संबंधों के कारण वह चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के काम भी आते रहे हैं । किन्हीं किन्हीं मौकों पर वह जिस तरह चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के काम आये हैं, उनके किस्से इस तरह प्रचारित हुए कि सुनील गुप्ता की छवि ‘पहुँच वाले’ और ‘काम आने वाले’ व्यक्ति की बनी । सुनील गुप्ता पर्दे के पीछे से पूरी राजनीति करते रहे, लेकिन पर्दे के सामने आने की उन्होंने कभी कोई खास कोशिश नहीं की - इसका नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से उनका सीधा टकराव नहीं हुआ; और जब-जब उन्हें जरूरत हुई, चंडीगढ़ के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स नेता उनके साथ खड़े हुए । रेलमंत्री के रूप में पवन बंसल की कारस्तानियों की जो पोल खुली और पवन बंसल के साथ सुनील गुप्ता की मिली भगत के जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे सुनील गुप्ता को दो तरफा नुकसान हुआ है । एक तरफ तो पवन बंसल के खुले और छिपे कारोबार में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को काम दिलवाने की सुनील गुप्ता की हैसियत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा; और दूसरी तरफ चंडीगढ़ की राजनीति में पवन बंसल के जिन राजनीतिक विरोधियों के साथ सुनील गुप्ता के कारोबारी किस्म के संबंध थे, वह प्रभावित होंगे । दरअसल अभी तक चंडीगढ़ में यह तो जाना/पहचाना जाता था कि सुनील गुप्ता के पवन बंसल के साथ गहरे संबंध हैं, लेकिन इसका अंदाजा लोगों को नहीं था कि यह संबंध ‘कितने’ गहरे हैं । इस ‘गहराई’ का पवन बंसल के परिवार की कंपनियों में सुनील गुप्ता के ऑडीटर होने की बात से उतना अंदाजा नहीं लगता, जितना पवन बंसल के परिवार की कंपनियों में सुनील गुप्ता की पत्नी के डायरेक्टर होने के तथ्य के उजागर होने से लगता है । पवन बंसल के परिवार की कंपनियों में यदि सुनील गुप्ता की पत्नी को भी डायरेक्टर का पद मिला है, तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पवन बंसल के खुले और ‘छिपे’ कारोबार में सुनील गुप्ता की किस हद तक की ‘हिस्सेदारी’ होगी ।
इस ‘हिस्सेदारी’ के खुलासे ने और पवन बंसल के गर्दिश में जाने के कारण सुनील गुप्ता पर चैतरफा मार पड़ी है । हालाँकि उनके नजदीकियों का कहना है कि सुनील गुप्ता के कई सत्ताधारी नेताओं के साथ नजदीकी और ‘कारोबारी’ संबंध हैं, इसलिए पवन बंसल कांड के कारण सुनील गुप्ता को कोई खास नुकसान नहीं होने वाला है । कुछेक अन्य लोगों का मानना और कहना लेकिन है कि ‘कारोबार’ संबंधी नुकसान सुनील गुप्ता को भले ही न हो, लेकिन इससे उनके राजनीतिक ऑरा (आभामंडल) पर प्रतिकूल असर अवश्य ही पड़ा है । चंडीगढ़ ब्रांच में सक्रिय और या रसूख रखने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पर अपने ऑरा का इस्तेमाल करते हुए चंडीगढ़ की चुनावी राजनीति में अपनी चैधराहट चला पाना सुनील गुप्ता के लिए अब आसान नहीं होगा । जो पोल खुली है, ऐसा नहीं है कि उसे कोई जानता नहीं था - सभी इन बातों को पहले से जानते थे; बल्कि जानते होने के कारण ही लोग सुनील गुप्ता के नजदीक थे, या नजदीक होना चाहते थे । पोल खुल जाने के बाद लेकिन उन्हीं लोगों का रवैया और समीकरण बदल जाता है । सुनील गुप्ता और उन पर आश्रित रहने वाले लोग इस बात को अच्छी तरह जानते/समझते हैं । चार्टर्ड एकाउंटेंट्स प्रोफेशन में यह आम बात भी है । एंट्री का काम करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ एंट्री का काम करने के कारण ही दूसरे चार्टर्ड एकाउंटेंट्स और उनके क्लाइंट्स जुड़े होते हैं, लेकिन आयकर विभाग की पकड़ में आने के बाद एंट्री का काम करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट से अभी तक काम कराने वाले उसके साथी तथा अन्य लोग बचने लगते हैं । यही कहानी सुनील गुप्ता के साथ है । पवन बंसल के साथ उनकी जो नजदीकी अभी तक उनके लिए वरदान बनी हुई थी, उस नजदीकी के पकड़ में आने के बाद वही नजदीकी अब उनके लिए अभिशाप बन गई है । सुनील गुप्ता के नजदीकियों का ही कहना है कि सुनील गुप्ता ने ही इस बात का रोना रोया है कि उनके जिन दूसरे सत्ताधारियों के साथ संबंध हैं, अब वह सत्ताधारी उनके साथ संबंधों को लेकर सतर्क हो गये हैं ।
सुनील गुप्ता का क्या होगा - यह हालाँकि काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि पवन बंसल की कारस्तानियों की जांच.पड़ताल किस रास्ते पर जाती है, और उनका क्या होता है ? किंतु वह सब कारोबार संबंधी बातें हैं । हम यहाँ पवन बंसल की कारस्तानियों की पोल खुलने और पवन बंसल के साथ सुनील गुप्ता की मिलीभगत के तथ्य के ‘पकड़े’ जाने के कारण इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया की सेंट्रल व रीजनल काउंसिल के उम्मीदवारों के लिए चंडीगढ़ में वोट जुटाने को लेकर पैदा हुई समस्या को समझने की कोशिश कर रहे हैं । सेंट्रल काउंसिल और रीजनल काउंसिल की चुनावी राजनीति के खिलाडि़यों का मानना और कहना है कि जो हुआ है उससे सुनील गुप्ता के कारोबार पर क्या फर्क पड़ेगा, यह तो वह जानें - लेकिन उनके राजनीतिक रसूख पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ेगा । सुनील गुप्ता के लिए समस्या यह भी होगी कि वह अपने ‘कारोबार’ को संभाले या अपनी राजनीति को - ऐसे में, उनकी 'राजनीति' के ही पिछड़ने की ज्यादा संभावना है । इसका मतलब, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के खिलाडि़यों को चंडीगढ़ में अब दूसरे ठिकाने खोजने/बनाने पड़ेंगे क्या ?
Monday, August 12, 2013
अशोक महाजन अपनी फजीहत का बदला लेने और मनोज देसाई की जीत को हार में बदलने के लिए नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले को चैलेंज करवायेंगे क्या ?
दिल्ली/मुंबई । वर्ष 2015-16 के रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट
पद के चुनाव में केआर रवींद्रन से अशोक महाजन को मिली पराजय के बाद इंटरनेशनल डायरेक्टर पद
के चुनाव में भी अशोक महाजन को झटका लगने की जो संभावना बनी थी, वह अंततः सही साबित हुई । लेकिन
उन्हें लगने वाला झटका इतना तगड़ा होगा, यह किसी को उम्मीद नहीं थी ।
इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार के चुनाव में अशोक महाजन
के समर्थित उम्मीदवार भरत पांड्या की इतनी बुरी गत बनेगी कि वह ऑल्टरनेट
उम्मीदवार भी नहीं बन सकेंगे, यह किसी ने नहीं सोचा था । भरत पांड्या
को इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार चुनवाने के लिए अशोक
महाजन ने यूँ तो हर संभव हथकंडा अपनाया, लेकिन उनका कोई भी हथकंडा काम नहीं
आया । मनोज देसाई की उम्मीदवारी का झंडा उठाये पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर
सुशील गुप्ता को रोटरी इंस्टीट्यूट 2014 के दिल्ली में होने को लेकर अपने
ही डिस्ट्रिक्ट में जिस तरह मात खानी पड़ी, उससे भी अशोक महाजन को 'अपना
काम' बनने की उम्मीद बनी थी - लेकिन अपने मुकाबले पर खड़े सुशील गुप्ता
की दुर्गति होने के बावजूद अशोक महाजन 'अपना काम' नहीं बना/बनवा सके और
उन्हें बुरी तरह मुहँकी खानी पड़ी ।
अशोक महाजन/भरत पांड्या का सारा खेल डिस्ट्रिक्ट 3100 के राजीव
रस्तोगी के कारण बिगड़ा बताया जा रहा है । भरत पांड्या के लिए अशोक महाजन ने
फील्डिंग हालाँकि अच्छी जमाई थी - पाँच वोट उनके पास पक्के थे; उन पाँच के
अलावा राजीव रस्तोगी को भी उनके साथ माना/पहचाना जा रहा था । राजीव
रस्तोगी के गवर्नर-काल में हुई डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में भरत पांड्या
रोटरी इंटरनेशनल के प्रतिनिधि बन कर आये थे, और तभी से राजीव रस्तोगी उनके
'नजदीक' थे । राजीव रस्तोगी ने भरत पांड्या/अशोक महाजन को अपने समर्थन के
साथ-साथ डिस्ट्रिक्ट 3053 के क्रांति चंद्र मेहता का समर्थन दिलवाने का भी विश्वास दिलाया हुआ था ।
राजीव रस्तोगी और क्रांति चंद्र मेहता के बीच अच्छी दोस्ती बताई जाती है ।
इस दोस्ती के भरोसे राजीव रस्तोगी द्धारा जताये गए विश्वास के बावजूद अशोक
महाजन/भरत पांड्या ने राजीव रस्तोगी के वोट को अपने पक्के वाले वोटों
में नहीं गिना था, तो इसका कारण यह था कि क्रांति चंद्र मेहता ने मनोज
देसाई को राजीव रस्तोगी का समर्थन दिलवाने का विश्वास दिया/दिलाया हुआ था ।
इनके अलावा, डिस्ट्रिक्ट 3010 के मुकेश अरनेजा पर दोनों खेमों के नेताओं
की निगाह थी । मुकेश अरनेजा का वोट सबसे ज्यादा ढुलमुल वोट था - कोई
नहीं जानता था कि मुकेश अरनेजा किससे क्या सौदा कर लेंगे ? अपने आप को
मुकेश अरनेजा के नजदीक बताने वाले कुछेक लोगों का यह कहना जरूर था कि मुकेश
अरनेजा को ऐन मौके पर जो जीतता हुआ 'दिखेगा', मुकेश अरनेजा उसके साथ हो
लेंगे । 14 सदस्यीय नोमीनेटिंग कमेटी में मनोज देसाई को छह सदस्यों के
समर्थन का पक्का भरोसा था । इन छह के अलावा, मनोज देसाई को भरोसा क्रांति
चंद्र मेहता के समर्थन का भी था - लेकिन राजीव रस्तोगी के कारण क्रांति
चंद्र मेहता की स्थिति संदेहास्पद और सवालों के घेरे में भी थी !रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के अधिकृत उम्मीदवार के लिए प्रमुख दावेदारों के रूप में पहचाने जाने वाले मनोज देसाई और भरत पांड्या तथा उनके समर्थक नेताओं ने सारा जोर इन्हीं तीन वोटों - राजीव रस्तोगी, क्रांति चंद्र मेहता और मुकेश अरनेजा - पर लगाया हुआ था । जब तक वर्ष 2015-16 के रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के चुनाव का नतीजा घोषित नहीं हुआ था, तब तक इन तीन वोटों पर अशोक महाजन का अधिकार ज्यादा 'देखा' जा रहा था, किंतु उस चुनाव का नतीजा आते ही अशोक महाजन का अधिकार ढीला पड़ता दिखा । आख़िरी क्षणों में जो 'खेल' हुआ उससे भेद यह खुला कि इस खेल के तार रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय तक जुड़े हुए थे और रोटरी इंटरनेशनल के बड़े अधिकारी और पदाधिकारी नेता तक इस चुनाव को प्रभावित करने की दौड़ में थे । ठीक अंतिम क्षणों में मनोज देसाई खेमे की तरफ से राजीव रस्तोगी को अपनी तरफ करने के लिए जो ब्रह्मास्त्र चला गया - उसने सारा खेल मनोज देसाई के पक्ष में स्थिर कर दिया । सुनी गई चर्चा के अनुसार, ठीक अंतिम क्षणों में राजीव रस्तोगी को मय सबूतों के साथ बताया/दिखाया गया कि उनके गवर्नर-काल में हुई डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में रोटरी इंटरनेशनल के प्रतिनिधि के रूप में पधारे भरत पांड्या ने रोटरी इंटरनेशनल को जो रिपोर्ट भेजी थी, उसमें उनके खिलाफ प्रतिकूल बातें कहीं/लिखी गईं थीं । करीब ढाई वर्ष पहले की इस रिपोर्ट के लीक होने से राजीव रस्तोगी ने क्रांति चंद्र मेहता के साथ दोस्ती निभाना ज्यादा ठीक समझा । पाँच वोटों वाले भरत पांड्या के मुकाबले आठ वोटों के साथ मनोज देसाई का पलड़ा दूसरों के साथ-साथ मुकेश अरनेजा को भी जब भारी दिखा, तब एक चतुर सौदागर की तरह वह भी मनोज देसाई के पक्ष में आ गए । नोमीनेटिंग कमेटी में मनोज देसाई ने 9 - 5 से अधिकृत उम्मीदवार की बाजी जीत ली ।
मनोज
देसाई खेमे के लोग सिर्फ इस जीत से संतुष्ट नहीं थे - वह अशोक महाजन की
अभी और फजीहत करने/कराने के मूड में थे । इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए
ऑल्टरनेट उम्मीदवार के लिए भरत पांड्या और डिस्ट्रिक्ट 3131 के विनय कुलकर्णी के बीच जो चुनाव हुआ, उसमें मनोज देसाई के समर्थन में रहे लोगों ने विनय कुलकर्णी को वोट दिया । अशोक
महाजन/भरत पांड्या की बदकिस्मती यह रही कि अधिकृत उम्मीदवार के चुनाव में
उन्हें जो पाँच वोट मिले थे, उन्हें वह ऑल्टरनेट उम्मीदवार के चुनाव में
अपने साथ बनाये नहीं रख सके और यहाँ उन्हें कुल चार वोट ही मिले ।
ऑल्टरनेट उम्मीदवार का चुनाव भरत पांड्या 4 - 9 से हार गए - उन विनय
कुलकर्णी से हार गए जिनका कहीं कोई नामलेवा तक नहीं था । इंटरनेशनल
डायरेक्टर पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार के चुनाव में मिली पराजय भरत पांड्या/अशोक महाजन के लिए उतना बड़ा झटका नहीं रही, लेकिन ऑल्टरनेट उम्मीदवार के चुनाव में मिली पराजय ने अशोक महाजन की राजनीति के लिए ज्यादा बड़ा संकट खड़ा कर दिया है ।
अशोक
महाजन को जानने वाले लोगों का कहना लेकिन यह भी है कि अशोक महाजन इतनी
आसानी से हार स्वीकार करने वाले नहीं हैं । कुछेक लोगों को लगता है कि अशोक
महाजन अधिकृत उम्मीदवार के रूप में मनोज देसाई को चुनौती दिलवायेंगे । दरअसल नोमीनेटिंग कमेटी में बने जिस समीकरण के कारण उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा है, उसी समीकरण में उन्हें भरत पांड्या के लिए जीत के आसार नज़र आ रहे हैं ।
उल्लेखनीय है कि नोमीनेटिंग कमेटी में मनोज देसाई को जो जीत मिली है, वह
जोन 4 ए के डिस्ट्रिक्ट्स की बदौलत मिली है, जोन 4 बी के डिस्ट्रिक्ट्स का
समर्थन जुटाने में मनोज देसाई बुरी तरह फेल रहे हैं । इस आधार पर कह सकते
हैं कि जोन 4 बी के डिस्ट्रिक्ट्स में अशोक महाजन का जलवा अभी बाकी है । मनोज देसाई के लिए मुसीबत की बात यह है कि उनकी अधिकृत उम्मीदवारी को यदि चुनौती मिलती है, तो फिर होने वाले चुनाव में सिर्फ जोन 4 बी के डिस्ट्रिक्ट्स के लोग ही वोट करेंगे, उस चुनाव में जोन 4 ए के लोगों की कोई भूमिका नहीं होगी । इसी आधार पर, अशोक महाजन के नजदीकी लोगों को लगता है कि अशोक महाजन अपनी हुई फजीहत का बदला अवश्य ही लेंगे और अपनी हार को जीत में बदलने का जो एक मौका उनके लिए अभी खुला है, उसका अवश्य ही उपयोग करेंगे ।
Wednesday, August 7, 2013
केआर रवींद्रन को रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए हरी झंडी मिलने की खबर ने मनोज देसाई और भरत पांड्या के बीच होते दिख रहे रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव को खासा दिलचस्प बना दिया है
मुंबई । अशोक महाजन को वर्ष
2015-16 के रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के चुनाव में केआर रवींद्रन से
मिली पराजय ने इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव की दशा और दिशा बदल दी है ।
अशोक महाजन की पराजय की खबर ने इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के उम्मीदवार
मनोज देसाई के समर्थकों और शुभचिंतकों को राहत और खुशी पहुँचाई है,
क्योंकि अशोक महाजन की इस पराजय से उनके बीच उम्मीद बनी है कि अशोक महाजन
अब इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव को प्रभावित नहीं कर पाएंगे ।
उल्लेखनीय है कि अशोक महाजन ने भरत पांड्या को इंटरनेशनल डायरेक्टर चुनवाने
का बीड़ा उठाया हुआ है और वह हर संभव हथकंडा अपना कर भरत पांड्या को
इंटरनेशनल डायरेक्टर चुनवाने के अभियान में लगे हुए हैं, और इस अभियान के
संदर्भ में चले गए उनके कुछेक 'मूव' सफल भी हुए हैं । दरअसल उनके कुछेक
'मूव' के सफल हो जाने के कारण ही मनोज देसाई के समर्थकों व शुभचिंतकों के
बीच निराशा और डर पैदा हो गया था । लेकिन इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद की दौड़
में अशोक महाजन के पिछड़ने की खबर ने उनकी निराशा और उनके डर को ख़त्म कर
दिया है । मनोज देसाई के कई समर्थक और शुभचिंतक यह कहते हुए सुने गए
हैं कि जो अशोक महाजन अपना खुद का चुनाव नहीं जीत सके, वह दूसरे किसी को
क्या चुनाव जितवायेंगे ? इस बात में दम भी है । रोटरी में अशोक महाजन की
छवि और पहचान तिकड़म में माहिर एक चतुर नेता की है; और जिनके बारे में
विश्वास किया जाता है कि काम कराना/निकालना उन्हें खूब आता है । लेकिन
वर्ष 2015-16 के इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार का चयन
करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी के सदस्यों से अपने पक्ष में 'काम' कराने के
मामले में उन्हें जो मात खानी पड़ी है, उसने उनके पक्ष में बने 'विश्वास' को
ध्वस्त कर दिया है । अशोक महाजन के पक्ष में रोटरी में बने हुए
'विश्वास' के ध्वस्त होने से मनोज देसाई के समर्थकों व शुभचिंतकों में खुशी
की लहर पैदा होना/बनना स्वाभाविक ही है ।
रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अशोक महाजन के समर्थन पर सवार भरत पांड्या के समर्थक व शुभचिंतक अशोक महाजन की पराजय को लेकिन एक भिन्न नजरिये से देख/पहचान रहे हैं - और अशोक महाजन की हार को मनोज देसाई के फायदे के रूप में देखने/समझने से इंकार कर रहे हैं । उनका कहना है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए अशोक महाजन ने इस बार अपनी उम्मीदवारी को बहुत गंभीरता से लिया ही नहीं था, और उन्होंने इस बार तो अपनी उम्मीदवारी सिर्फ इसलिए प्रस्तुत की थी ताकि अगली बार के लिए उनका दावा मजबूत हो सके । इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद पर चूँकि सुशील गुप्ता और शेखर मेहता की 'नज़र' को भी देखा/पहचाना जा रहा है, इसलिए उन दोनों से आगे रहने/'दिखने' के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अशोक महाजन ने इस बार अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत किया था । इस तथ्य के सहारे अशोक महाजन और भरत पांड्या के समर्थक तर्क दे रहे हैं कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के चुनाव में अशोक महाजन की पराजय के कोई मतलब नहीं निकालने चाहिए । उनके अनुसार, सच बल्कि यह है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए इस बार अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करके अशोक महाजन ने जो 'प्राप्त' करना चाहा था, उसे उन्होंने हासिल कर लिया है - और इस तरह अशोक महाजन ने एक बार फिर यह साबित किया है कि अपने 'लक्ष्य' प्राप्त करना उन्हें आता है । जो लोग इंटरनेशनल डायरेक्टर पद पर भरत पांड्या को देखना चाहते हैं, उनके अनुसार इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए अशोक महाजन को मिली हार वास्तव में उनकी जीत है - और इसलिए मनोज देसाई के समर्थकों व शुभचिंतकों को उनकी नसीहत है कि अशोक महाजन की हार का ढोल पीटकर खुश होने ही जरूरत नहीं है ।
अशोक महाजन के नजदीकियों का कहना है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए अशोक महाजन ने अपनी उम्मीदवारी को इसलिए भी गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि केआर रवींद्रन के साथ उनके न सिर्फ भरोसे के और सहयोग के संबंध रहे हैं, बल्कि रोटरी की खेमेबाजी में भी वह दोनों एक ही खेमे में हैं । देश में इस खेमे का नेतृत्व कर रहे राजेंद्र उर्फ़ राजा साबू के साथ दोनों के ही अच्छे और व्यवहार के संबंध हैं । वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए जो 'लड़ाई' चल रही थी, उसमें राजा साबू खेमे की तरफ से अशोक महाजन कवरिंग उम्मीदवार के रूप में ही मैदान में थे । राजा साबू खेमे की तरफ से वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए जो फील्डिंग सजाई गई थी, उसका मुख्य उद्देश्य केआर रवींद्रन को चुनवाना ही था । अशोक महाजन की उम्मीदवारी तो इसलिए प्रस्तुत करवाई गई थी कि कहीं किसी कारण से केआर रवींद्रन का काम बिगड़ा तो अशोक महाजन को आगे किया जायेगा । केआर रवींद्रन का काम चूँकि नहीं बिगड़ा, इसलिए अशोक महाजन के साथ वही हुआ जिसके होने की पहले से ही 'तैयारी' थी । अशोक महाजन के नजदीकियों के अनुसार, इसलिए वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद पर केआर रवींद्रन के अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने को अशोक महाजन की पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए ।
अशोक महाजन और इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए उनका समर्थन पा रहे भरत पांड्या तथ्यों व तर्कों का हवाला देकर चाहें कितना ही दावा क्यों न करें कि वर्ष 2015-16 के इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए केआर रवींद्रन के चुने जाने को अशोक महाजन की पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए - लेकिन मनोज देसाई के समर्थक और शुभचिंतक अशोक महाजन की इस 'हार' को उनके खेल के ख़त्म होने के रूप में ही देख/पहचान रहे हैं । उनका तर्क है कि राजनीति में तथ्यों से ज्यादा परसेप्शन (अवधारणा) का महत्व होता है - और परसेप्शन यही बन रहा है कि अशोक महाजन को वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए दूसरों की तो छोड़िये, अपने लोगों से भी मदद नहीं मिली । वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार चुनने वाली नोमीनेटिंग कमेटी में अशोक महाजन अपनी उम्मीदवारी के लिए कोई समर्थन नहीं पा सके, तो मनोज देसाई के समर्थकों व शुभचिंतकों के अनुसार इसका मतलब यही है कि रोटरी की चुनावी राजनीति में फैसलों को प्रभावित कर सकने का उनका रुतबा खत्म हो चुका है और इसी को देखते हुए कहा जा सकता है कि रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर के चुनाव में अशोक महाजन की कोई भी सक्रियता और तिकड़म काम नहीं करेगी । वर्ष 2015-16 के रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए केआर रवींद्रन को हरी झंडी मिलने की खबर ने मनोज देसाई और भरत पांड्या के बीच होते दिख रहे रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव को खासा दिलचस्प बना दिया है ।
रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अशोक महाजन के समर्थन पर सवार भरत पांड्या के समर्थक व शुभचिंतक अशोक महाजन की पराजय को लेकिन एक भिन्न नजरिये से देख/पहचान रहे हैं - और अशोक महाजन की हार को मनोज देसाई के फायदे के रूप में देखने/समझने से इंकार कर रहे हैं । उनका कहना है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए अशोक महाजन ने इस बार अपनी उम्मीदवारी को बहुत गंभीरता से लिया ही नहीं था, और उन्होंने इस बार तो अपनी उम्मीदवारी सिर्फ इसलिए प्रस्तुत की थी ताकि अगली बार के लिए उनका दावा मजबूत हो सके । इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद पर चूँकि सुशील गुप्ता और शेखर मेहता की 'नज़र' को भी देखा/पहचाना जा रहा है, इसलिए उन दोनों से आगे रहने/'दिखने' के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अशोक महाजन ने इस बार अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत किया था । इस तथ्य के सहारे अशोक महाजन और भरत पांड्या के समर्थक तर्क दे रहे हैं कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के चुनाव में अशोक महाजन की पराजय के कोई मतलब नहीं निकालने चाहिए । उनके अनुसार, सच बल्कि यह है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए इस बार अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करके अशोक महाजन ने जो 'प्राप्त' करना चाहा था, उसे उन्होंने हासिल कर लिया है - और इस तरह अशोक महाजन ने एक बार फिर यह साबित किया है कि अपने 'लक्ष्य' प्राप्त करना उन्हें आता है । जो लोग इंटरनेशनल डायरेक्टर पद पर भरत पांड्या को देखना चाहते हैं, उनके अनुसार इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए अशोक महाजन को मिली हार वास्तव में उनकी जीत है - और इसलिए मनोज देसाई के समर्थकों व शुभचिंतकों को उनकी नसीहत है कि अशोक महाजन की हार का ढोल पीटकर खुश होने ही जरूरत नहीं है ।
अशोक महाजन के नजदीकियों का कहना है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए अशोक महाजन ने अपनी उम्मीदवारी को इसलिए भी गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि केआर रवींद्रन के साथ उनके न सिर्फ भरोसे के और सहयोग के संबंध रहे हैं, बल्कि रोटरी की खेमेबाजी में भी वह दोनों एक ही खेमे में हैं । देश में इस खेमे का नेतृत्व कर रहे राजेंद्र उर्फ़ राजा साबू के साथ दोनों के ही अच्छे और व्यवहार के संबंध हैं । वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए जो 'लड़ाई' चल रही थी, उसमें राजा साबू खेमे की तरफ से अशोक महाजन कवरिंग उम्मीदवार के रूप में ही मैदान में थे । राजा साबू खेमे की तरफ से वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए जो फील्डिंग सजाई गई थी, उसका मुख्य उद्देश्य केआर रवींद्रन को चुनवाना ही था । अशोक महाजन की उम्मीदवारी तो इसलिए प्रस्तुत करवाई गई थी कि कहीं किसी कारण से केआर रवींद्रन का काम बिगड़ा तो अशोक महाजन को आगे किया जायेगा । केआर रवींद्रन का काम चूँकि नहीं बिगड़ा, इसलिए अशोक महाजन के साथ वही हुआ जिसके होने की पहले से ही 'तैयारी' थी । अशोक महाजन के नजदीकियों के अनुसार, इसलिए वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद पर केआर रवींद्रन के अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने को अशोक महाजन की पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए ।
अशोक महाजन और इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए उनका समर्थन पा रहे भरत पांड्या तथ्यों व तर्कों का हवाला देकर चाहें कितना ही दावा क्यों न करें कि वर्ष 2015-16 के इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए केआर रवींद्रन के चुने जाने को अशोक महाजन की पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए - लेकिन मनोज देसाई के समर्थक और शुभचिंतक अशोक महाजन की इस 'हार' को उनके खेल के ख़त्म होने के रूप में ही देख/पहचान रहे हैं । उनका तर्क है कि राजनीति में तथ्यों से ज्यादा परसेप्शन (अवधारणा) का महत्व होता है - और परसेप्शन यही बन रहा है कि अशोक महाजन को वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए दूसरों की तो छोड़िये, अपने लोगों से भी मदद नहीं मिली । वर्ष 2015-16 के प्रेसीडेंट पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार चुनने वाली नोमीनेटिंग कमेटी में अशोक महाजन अपनी उम्मीदवारी के लिए कोई समर्थन नहीं पा सके, तो मनोज देसाई के समर्थकों व शुभचिंतकों के अनुसार इसका मतलब यही है कि रोटरी की चुनावी राजनीति में फैसलों को प्रभावित कर सकने का उनका रुतबा खत्म हो चुका है और इसी को देखते हुए कहा जा सकता है कि रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर के चुनाव में अशोक महाजन की कोई भी सक्रियता और तिकड़म काम नहीं करेगी । वर्ष 2015-16 के रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट पद के लिए केआर रवींद्रन को हरी झंडी मिलने की खबर ने मनोज देसाई और भरत पांड्या के बीच होते दिख रहे रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव को खासा दिलचस्प बना दिया है ।
Saturday, August 3, 2013
रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3010 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनोद बंसल के विश्वास को बनाये रखना दीपक गुप्ता के लिए बड़ी चुनौती बना
गाजियाबाद/नई दिल्ली । दीपक गुप्ता
को अगले रोटरी वर्ष में प्रस्तुत की जाने वाली अपनी उम्मीदवारी के लिए
संपर्क अभियान में जुटा देख कर विनोद बंसल अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे
हैं । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में विनोद बंसल ने
अपने कार्यकाल में दीपक गुप्ता को एक बहुत ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी
है । दरअसल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में विनोद बंसल ने एक बहुत ही
महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट यह सोचा है कि उनके कार्यकाल में डिस्ट्रिक्ट के
प्रत्येक सदस्य को रोटरी फाउंडेशन में कुछ न कुछ दान देने के लिए प्रेरित
और प्रोत्साहित किया जाये । इसके लिए विनोद बंसल ने डिस्ट्रिक्ट में पहली
बार एक खास पद का गठन किया और उक्त पद से रोटरी क्लब गाजियाबाद के वरिष्ठ सदस्य दीपक गुप्ता को सुशोभित किया । दीपक
गुप्ता की रोटरी के प्रति प्रतिबद्धता और रोटरी में उनकी संलग्नता को
देखते/पहचानते हुए विनोद बंसल ने विश्वास किया कि इस काम को दीपक गुप्ता
प्रभावी तरीके से अंजाम दे देंगे । विनोद बंसल ने दीपक गुप्ता के लिए
डिस्ट्रिक्ट में एक नया पद 'पैदा' किया - तो कई लोगों की त्यौरियाँ चढ़ीं और
दीपक गुप्ता व विनोद बंसल के बीच के रिश्तों की पड़ताल होने लगी । इस सब
की परवाह न करते हुए विनोद बंसल ने दीपक गुप्ता की सोच और सामर्थ्य पर भरोसा किया और उम्मीद की कि दीपक गुप्ता उनके द्धारा सोचे गए प्रोजेक्ट को अवश्य ही सफल करेंगे/करवाएंगे ।
विनोद
बंसल को यह देख कर लेकिन तगड़ा झटका लगा कि दीपक गुप्ता तो अगले रोटरी वर्ष
के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करके अपने संपर्क अभियान में लग गए हैं ।
दीपक गुप्ता ने पहल की तो अगले रोटरी वर्ष में उम्मीदवार बनने के इच्छुक
कुछ और लोग भी मैदान में कूद पड़े । इससे पहला 'नुकसान' तो यह हुआ कि
डिस्ट्रिक्ट टीम के सदस्यों पर चुनावी अभियान में शामिल होने को लेकर रोक
का जो नियम बना है वह बेमानी हो गया । उक्त नियम के चलते, इस वर्ष अपनी
उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले लोगों को विनोद बंसल ने डिस्ट्रिक्ट टीम का
सदस्य नहीं बनाया - लेकिन अगले रोटरी वर्ष में उम्मीदवारी प्रस्तुत करने
वाले लोग तो टीम में हैं और टीम में रहते हुए वह यदि चुनावी
अभियान में जुटे हैं तो उक्त नियम का मतलब भला क्या रह गया ? नियम तोड़ने का
दोष किसी को नहीं दिया जा सकता, नियम किसी ने भी नहीं तोड़ा - लेकिन फिर भी
नियम का तो मजाक बन ही गया ! विनोद बंसल के गवर्नर-काल में यह हुआ और हो रहा है, यह विनोद बंसल के गवर्नर-काल के लिए नकारात्मक पहचान का कारण बना ।
विनोद बंसल के नजदीकियों का कहना है कि विनोद बंसल ने इस स्थिति के बनने
का बुरा माना है और इस स्थिति को 'बनाने' के लिए दीपक गुप्ता को जिम्मेदार
ठहराया है । विनोद बंसल के नजदीकियों के अनुसार, विनोद बंसल अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को लेकर बहुत ही गंभीर हैं, और वह अब इसे दीपक गुप्ता के जिम्मे छोड़ कर निश्चिंत नहीं हो सकते हैं । दीपक गुप्ता के लिए मुसीबत की बात यह हुई है कि विनोद बंसल उक्त प्रोजेक्ट में उनके साथ यदि दो-एक लोगों को और जोड़ते हैं तो अभी - एक नए गठित किये गए पद पर हुई ताजपोशी के चलते डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच उनका जो रुतबा बना है, वह कमजोर होगा । ऐसे समय में, जबकि दीपक गुप्ता डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए प्रस्तुत की जाने वाली अपनी उम्मीदवारी के लिए संपर्क अभियान छेड़े हुए हैं - उनके रुतबे में आने वाली कमजोरी उनके संपर्क अभियान पर प्रतिकूल असर ही डालेगी । यह एक ऐसी मुसीबत है, जिसे दीपक गुप्ता ने खुद ही निमंत्रित किया है और इसे हल भी अकेले उन्हें ही करना है । यह देखना दिलचस्प होगा कि दीपक गुप्ता इस मुसीबत से कैसे निपटते हैं और विनोद बंसल ने उनमें जो विश्वास किया है उसे वह बनाये रख पाते हैं या नहीं ?
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