Monday, November 30, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल की उम्मीदवारी के लिए हालात के साथ-साथ हरियाणा व पंजाब की कई ब्रांचेज के पदाधिकारियों से मिल रहे समर्थन से संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी को एक अलग ही मुकाम मिला है और वह बाकी सब पर भारी साबित हो रहे हैं

नई दिल्ली । अतुल गुप्ता, संजीव चौधरी, नवीन गुप्ता और विजय गुप्ता को इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में वापसी करने के लिए जिस तरह की जद्दोजहद करना पड़ रही है - उससे लोगों को लग रहा है कि संजय अग्रवाल की तो जैसे निकल पड़ी है और रीजन में सबसे ज्यादा वोट उन्हें ही मिलेंगे । संजय अग्रवाल जिस तरह विवादों से बचने में और अपने आप को विवादों से बचाए रखने में कामयाब रहे हैं, उसके चलते एक उम्मीदवार के रूप में उनका ऑरा(आभामंडल) तो बढ़ा ही - साथ ही उनका समर्थन आधार भी फैला है । विवादों व नकारात्मकता से बचे रहने से संजय अग्रवाल को दोतरफा फायदा हुआ - एक तरफ तो उनके पहले से जो समर्थक थे, वह उनके साथ ही न सिर्फ बने रहे बल्कि उनके पक्ष में और ज्यादा सक्रिय हुए; दूसरी तरफ, यह सब देख/जान कर बहुत बड़ी संख्या में नए लोग उनके साथ जुड़े । हरियाणा व पंजाब की कई ब्रांचेज के पदाधिकारी जिस तरह खुलकर संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी का झंडा उठाए हुए हैं, और उनकी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के काम में दिन-रात एक किए हुए हैं - उससे इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी को एक अलग ही मुकाम मिला है और वह बाकी सब पर भारी साबित हो रहे हैं । 
अपनी उम्मीदवारी के लिए एक अलग मुकाम बनाने तथा सब पर भारी साबित होने के लिए संजय अग्रवाल को किस्मत और परिस्थितियों का भी बहुत सहयोग/समर्थन मिला । यह एक दिलचस्प नजारा है कि इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में वापसी के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले उम्मीदवारों में एक संजय अग्रवाल को छोड़ कर बाकी सभी अपनी अपनी मुसीबतों में घिरे/फँसे हुए हैं, और उन्हें निहायत प्रतिकूल स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है । प्रायः सभी के मामलों में प्रतिकूल स्थितियाँ उनकी चूँकि खुद की बनाई हुई हैं, इसलिए उनसे निपटने में उन्हें जिस तरह की जद्दोजहद करना पड़ रही है - उसके कारण संजय अग्रवाल के लिए स्थितियाँ खासी अनुकूल हो उठी हैं । नवीन गुप्ता और संजीव चौधरी को अपने रूखे व्यवहार तथा लोगों से दूर दूर रहने का भुगतान भुगतना पड़ रहा है; तो अतुल गुप्ता और विजय गुप्ता ने बेमतलब की लड़ाईयाँ मोल लेकर अपने अपने विरोधी खड़े कर लिए हैं और उनके निशाने पर बने हुए हैं । नवीन गुप्ता का रवैया देख/जान कर लोगों को लगता है कि वह सार्वजनिक जीवन जीने के लायक ही नहीं हैं, और उनके पिताजी ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उन्हें नाहक ही यहाँ फँसा दिया है । लोगों के बीच नवीन गुप्ता की खासी बुरी हालत को देख कर उनके पिता एनडी गुप्ता को खुद मोर्चा सँभालना पड़ा है और नवीन गुप्ता के रवैये से खफा लोगों की खुशामद व मिन्नतें करते हुए नवीन गुप्ता की उम्मीदवारी को अपनी इज्जत का सवाल बनाना पड़ा है । संजीव चौधरी सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में इस 'नशे' में रहे कि बिग फोर का होने के चलते उन्हें लोगों के संपर्क में रहने की कोई जरूरत ही नहीं है, लेकिन अब चुनाव के मौके पर उन्होंने जब लोगों को उनके 'जैसा' रवैया अपनाते और उनकी उम्मीदवारी के प्रति बेरुखी दिखाते/जताते पाया तो उनके तो तोते ही उड़ गए हैं । नवीन गुप्ता को तो बचाने के लिए उनके पिताजी मैदान में आ गए; बेचारे संजीव चौधरी को तो बचने के लिए खुद ही हाथ-पैर मारने पड़ रहे हैं । संजीव चौधरी के लिए मुसीबत की बात यह हुई है कि दूसरे लोगों को तो छोड़िए, खुद बिग फोर कंपनियों के लोगों से उन्हें उचित सहयोग/समर्थन नहीं मिल पा रहा है, जिसके चलते कई लोगों को सेंट्रल काउंसिल की उनकी सीट जाती दिख रही है । 
अतुल गुप्ता और विजय गुप्ता का मामला बिलकुल जुदा किस्म का है । दोनों लोग बहुत एनर्जेटिक हैं, बहुत महत्वाकांक्षी हैं, बड़ा विजन रखते हैं, लोगों के बीच रहना चाहते हैं और रहते भी हैं, मौका बनाने व मौकों का उपयोग करने का हुनर रखते हैं - एक बड़ा नेता 'बनने' के लिए जिन जिन खूबियों की जरूरत होती है, वह सब खूबियाँ इनमें जैसे कूट-कूट कर भरी हैं; लेकिन इन दोनों को एक बड़ा भारी 'शौक' दुश्मन बनाने व पालने का भी है, और इनका यही शौक अब इन्हें भारी पड़ रहा है । इनके बनाए और पाले दुश्मन इनके खिलाफ सक्रिय हुए पड़े हैं और इनके लिए मुसीबत खड़ी किए हुए हैं । इनमें विजय गुप्ता अनुभवी व होशियार हैं और उन्हें दुश्मनों से निपटने की कला भी आती है, लिहाजा उन्होंने तो अपने दुश्मनों को काफी हद तक काबू में कर लिया है - लेकिन अतुल गुप्ता ने अनुभवहीनता के चलते अपने भाई/भतीजों को आगे करके दबंगई से दुश्मनों से निपटने की जैसी जो कोशिश की, उससे बात सँभलने की बजाए बिगड़ और गई है । अतुल गुप्ता अकेले ऐसे उम्मीदवार हैं, जिनके खिलाफ लोगों ने खुले मोर्चे खोले हुए हैं और घोषित किया हुआ है कि उनकी सक्रियता का एकमात्र उद्देश्य अतुल गुप्ता को हराना है । मजे की, लेकिन साथ ही गंभीर बात यह है कि जिन लोगों ने अतुल गुप्ता के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है, उनमें ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो पीछे किसी न किसी रूप में अतुल गुप्ता के साथ जुड़े रहे हैं । इस कारण से अतुल गुप्ता के लिए चुनाव काफी टफ हो गया है । इंस्टीट्यूट के इस बार के चुनावी परिदृश्य में नाटकीय परिवर्तन यह हुआ है कि अभी कुछ दिन पहले तक जो विजय गुप्ता खतरे में देखे/पहचाने जा रहे थे, वह विजय गुप्ता तो खतरे से बाहर आते नजर आ रहे हैं; लेकिन जिन अतुल गुप्ता को सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़/दौड़ में गिना जा रहा था, लोगों को वही अतुल गुप्ता अब अपनी सीट खोते हुए नजर आ रहे हैं । 
नवीन गुप्ता, संजीव चौधरी, विजय गुप्ता व अतुल गुप्ता की जद्दोजहद ने संजय अग्रवाल के लिए हालात को अनुकूल बनाने का काम किया है । संजय अग्रवाल को सिर्फ हालात का ही फायदा नहीं मिला है, उन्होंने हालात का फायदा उठाने के लिए सुचिंतित किस्म के प्रयास भी किए - और चूँकि अपने प्रयासों में उन्होंने अपनी यूएसपी (यूनिक सेलिंग प्रोपोजीशन) को भी बचाए रखा, इसलिए उनकी स्थिति में गुणात्मक सुधार देखा गया । उनके प्रतिस्पर्द्धी दूसरे उम्मीदवारों के नजदीकियों व समर्थकों ने भी माना और कहा कि संजय अग्रवाल ने जिस तरह से पिछले छह वर्षों से काउंसिल सदस्य के रूप में लोगों के साथ निरंतर संपर्क बनाए रखा हुआ है और प्राथमिकता के आधार पर लोगों के साथ जुड़े रहे हैं, उसके कारण उन्होंने अपनी एक भरोसेपूर्ण फॉलोइंग बनाई है । काउंसिल सदस्य के रूप में संजय अग्रवाल ने लिखने-पढ़ने पर ज्यादा जोर दिया है, और विशेष रूप से लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी रखने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच ही अपनी पैठ बनाई है । इसमें उन्हें लोगों से न तो झूठे व बड़बोले किस्म के वायदे करने पड़े और न फिर वायदों पर खरे न उतरने के चलते आलोचना का उन्हें शिकार होना पड़ा । इससे एक फायदा उन्हें अपने आप मिला और वह यह कि वह विवादों में नहीं फँसे । कभी जहाँ कहीं विवादों वाली स्थितियाँ आईं भी, तो वह या तो उनकी अनदेखी करते हुए और या उन्हें होशियारी के साथ हैंडल करते हुए उनसे बच निकले । काउंसिल सदस्य के रूप में अपनाई गई अपनी यूएसपी का उन्होंने अपने चुनाव अभियान में भी सख्ती से पालन किया और इस कारण विवादों से बचे रह पाने में कामयाब हुए । पिछले दिनों अपनी तीन पुस्तकों को उन्होंने लोगों के बीच जिस तरह से प्रस्तुत किया, उससे उनकी लिखने-पढ़ने वाली छवि व पहचान और समृद्ध ही हुई और एक उम्मीदवार के रूप में उनकी साख व विश्वसनीयता में और इजाफा ही हुआ । पुस्तकें प्रस्तुत करके हालाँकि कुछेक और उम्मीदवारों ने लोगों के बीच पैठ बनाने के प्रयास किए, लेकिन उनके प्रयास इतने घालमेल वाले रहे कि उनके प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं बन सका । संजय अग्रवाल की पुस्तकों की प्रस्तुति चूँकि उनकी यूएसपी के अनुरूप रही, इसलिए उनकी प्रस्तुति ने अच्छा प्रभाव जमाया । इसी प्रभाव में संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी औरों की उम्मीदवारी से आगे बढ़ गई है और माना जा रहा है कि नॉर्दर्न रीजन में उन्हें ही सबसे ज्यादा वोट मिलेंगे । 

Sunday, November 29, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए राज चावला की सक्रियता व संलग्नता तथा विजय गुप्ता की सुरक्षित होती दिख रही स्थिति ने हंसराज चुग के लिए मुकाबले को मुश्किल बनाया

नई दिल्ली । राज चावला की चौतरफा सक्रियता और विजय गुप्ता की स्थिति को संभालने की कोशिशों ने हंसराज चुग के सामने गंभीर मुसीबत खड़ी कर दी है । हंसराज चुग के लिए परेशानी की बात यह हुई है कि उनकी इस मुसीबत के लिए उन्हें ही जिम्मेदार भी ठहराया जा रहा है । हंसराज चुग के कुछेक समर्थक ही कहने लगे हैं कि हंसराज चुग यदि कामयाब नहीं हुए तो इसके लिए कोई और नहीं, बल्कि वह खुद ही जिम्मेदार होंगे । इसमें कोई शक नहीं कि हंसराज चुग को शुरू से ही संभावित विजेताओं में गिना/पहचाना जाता रहा है । लेकिन जैसे जैसे चुनाव में गर्मी आती गई, वैसे वैसे हंसराज चुग की स्थिति को पीछे खिसकता हुआ पाया गया है । उम्मीदवारों की सक्रियता और उनके तौर-तरीकों पर नजर रखने वाले लोगों का मानना और कहना है कि अपनी उम्मीदवारी के अभियान में हंसराज चुग कभी भी एक लीडर वाला प्रभाव पैदा नहीं कर सके और वह सिर्फ एक कार्यकर्त्ता और एक अच्छे दोस्त की छवि ही बनाए रख पाए । एक कार्यकर्त्ता और एक अच्छे दोस्त की छवि किसी भी उम्मीदवार के लिए आधार तैयार करने और/या नींव बनाने का काम तो करती है, लेकिन इस आधार/नींव पर 'इमारत' खड़ी करने के लिए उम्मीदवार को उक्त छवि का अतिक्रमण करना होता है - हंसराज चुग जिसे नहीं कर पाए । इसी कारण से हंसराज चुग की स्थिति को डांवाडोल होते हुए देखा जा रहा है ।
हंसराज चुग और उनके समर्थक एक अच्छे कार्यकर्त्ता और एक अच्छे दोस्त की छवि के भरोसे चुनाव में जीतने की उम्मीद करते रहे, लेकिन इस छवि के मामले में उन्हें राज चावला से तगड़ी चुनौती मिली । इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के जानकारों का कहना है कि जो लोग एक अच्छे कार्यकर्त्ता और एक अच्छे दोस्त के आधार पर मूल्यांकन करते हुए वोट देने का फैसला करेंगे, उनमें से ज्यादातर हंसराज चुग की बजाए राज चावला के साथ जाना चाहेंगे । लोगों के साथ संपर्क बनाए रखने तथा उनके बीच सक्रिय रहने के मामले में राज चावला का पलड़ा ज्यादा भारी है । हंसराज चुग के समर्थकों ने भी इस तथ्य को पहचाना तथा इससे निपटने के लिए प्रचारित किया कि राज चावला कभी किसी के काम नहीं आए, जबकि हंसराज चुग ने कई लोगों को बैंक ऑडिट दिलवाएँ हैं - और इस तरह से लोगों के काम आए हैं । इस प्रचार ने लेकिन उल्टा काम किया । हंसराज चुग के समर्थकों के दावे को एंडोर्स करने के लिए तो कोई भी आगे नहीं आया, कई लोगों की यह शिकायतें जरूर सामने आईं कि वायदा करने के बाद भी हंसराज चुग ने छोटे छोटे मामलों में भी उनकी कोई मदद नहीं की । इस तरह समर्थकों का प्रचार उल्टा पड़ा, और इससे भी हंसराज चुग की उम्मीदवारी को झटका लगा । राज चावला की तरफ से चूँकि किसी झूठे और/या अतिरेकी प्रचार का सहारा नहीं लिया गया, इसलिए उनकी उम्मीदवारी के अभियान को कोई झटका लगने वाली स्थिति नहीं बनी । हंसराज चुग के प्रचार अभियान की तरह राज चावला के प्रचार अभियान में भी हालाँकि आक्रामकता का अभाव रहा/दिखा, और इस तरह खूबियों व कमियों के मामले में यह दोनों एक ही धरातल पर खड़े दिखे/मिले । 
राज चावला ने सक्रियता और संलग्नता का जो स्तर प्रदर्शित किया, वह भी हंसराज चुग के लिए चुनौती बना । एक उम्मीदवार के रूप में राज चावला ने सघन अभियान चलाया और प्रत्येक ब्रांच में लोगों के बीच अपनी उपस्थिति व सक्रियता को जिस तरह से संभव बनाया, उसके चलते उनकी उम्मीदवारी ने ऊँची छलाँग लगाई है - और उनकी यही ऊँची छलाँग हंसराज चुग के लिए मुसीबत बन गई है । राज चावला ने पंजाब और हरियाणा में जो काम किया है, उसके भरोसे यहाँ की ब्रांचेज में उन्होंने अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में अच्छा समर्थन जुटाया है । राज चावला की उम्मीदवारी के बारे में लोगों के बीच जोरदार चर्चा यह है कि उन्हें मिलने वाले पहली वरीयता के वोटों की गिनती को लेकर भले ही संशय हो, लेकिन दूसरी वरीयता के वोट उन्हें थोक में मिलने जा रहे हैं । इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों का मानना/कहना है कि राज चावला को प्रायः प्रत्येक उम्मीदवार के दूसरी वरीयता के वोट मिल रहे हैं - और यही दूसरी वरीयता के वोट राज चावला की उम्मीदवारी की ताकत बन रहे हैं । राज चावला की उम्मीदवारी को मिलती दिख रही यह ताकत हंसराज चुग के लिए मुसीबत बन गई है । 
हंसराज चुग के लिए इससे भी बड़ी मुसीबत विजय गुप्ता की सुधरती दिख रही स्थिति से भी बनी है । अभी कुछ समय पहले तक विजय गुप्ता की स्थिति को बहुत ही खराब रूप में देखा/पहचाना जा रहा था । विजय गुप्ता की खराब स्थिति में हंसराज चुग के लिए अच्छा मौका बनता देखा जा रहा था, लेकिन अब जब विजय गुप्ता की स्थिति सुधरती नजर आ रही है - तो हंसराज चुग की उम्मीदवारी पर ही तलवार लटकती दिख रही है । इसे चंडीगढ़ के उदाहरण से समझा/पहचाना जा सकता है । चंडीगढ़ में पिछली बार जिन लोगों ने विजय गुप्ता की उम्मीदवारी का समर्थन किया था, उनमें से कुछेक लोग इस बार हंसराज चुग के साथ देखे जा रहे हैं - इस आधार पर उम्मीद की गई थी कि जिन लोगों ने पिछली बार विजय गुप्ता को समर्थन और वोट दिया था, इस बार उनका समर्थन और वोट हंसराज चुग को मिलेगा । किंतु देखने में यह आया है कि हंसराज चुग उन सभी का समर्थन और वोट जुटाने में असफल रहे और कई लोगों को विजय गुप्ता के समर्थन में लौटते हुए देखा/पहचाना गया । विजय गुप्ता की राजनीति को नजदीक से देखने/जानने वाले लोगों का मानना और कहना भी है कि विजय गुप्ता चुनाव अभियान के अंतिम दौर में जो रणनीति अपनाते हैं, उससे माहौल को अपने पक्ष में कर ही लेते हैं । इस बार विजय गुप्ता  को इस बात का भी फायदा मिलता दिख रहा है कि जिन उम्मीदवारों की जीतने की उम्मीद दिख भी रही है, उनमें से किसी की भी जीत के बारे में विश्वास के साथ दावा किए जाने की स्थिति नहीं बनी है । उल्लेखनीय है कि हंसराज चुग, राज चावला, संजय वासुदेवा, सुधीर अग्रवाल, एसएस शर्मा, विशाल गर्ग आदि जिन उम्मीदवारों में संभावित विजेताओं को देखा/पहचाना जा रहा है - उनमें किसी की भी स्थिति इतनी मजबूत नहीं है कि उसकी जीत को सुनिश्चित माना जाए । इस तरह कोई भी नया उम्मीदवार विजय गुप्ता के लिए चुनौती बनता नहीं दिख रहा है - और यही स्थिति विजय गुप्ता की उम्मीदवारी को सुरक्षित किए दे रही है । विजय गुप्ता की स्थिति के सुरक्षित होते जाने ने नए उम्मीदवारों के लिए मुकाबले को और मुश्किल बना दिया है । मुश्किल बने मुकाबले के कारण हंसराज चुग के लिए मुसीबत और बढ़ गई है ।

Saturday, November 21, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल में वापसी की चुनौती से जूझ रहे संजीव चौधरी को डेलॉयट के रवैये से खासा तगड़ा करंट लगा

नई दिल्ली । संजीव चौधरी को डेलॉयट के रवैये से खासा झटका लग रहा है, और मजे की बात यह है कि इसके लिए उनकी अपनी फर्म केपीएमजी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है । समस्या दरअसल यह हुई है कि वेस्टर्न रीजन में डेलॉयट के उम्मीदवार एनसी हेगड़े को केपीएमजी से चूँकि उचित समर्थन नहीं मिल रहा है, इसलिए बदले की करवाई करते हुए नॉर्दर्न रीजन में डेलॉयट ने केपीएमजी के उम्मीदवार संजीव चौधरी के समर्थन से हाथ खींच लिए हैं । इस तरह, स्थिति यह बनी है कि वेस्टर्न रीजन की राजनीति ने नॉर्दर्न रीजन में संजीव चौधरी की मुसीबत बढ़ाने का काम किया है । दरअसल वेस्टर्न रीजन में बिग फोर कंपनियों से दो उम्मीदवार हैं - डेलॉयट से एनसी हेगड़े और ईवाई से दीनल शाह । एनसी हेगड़े पिछले चुनाव में भी उम्मीदवार थे, लेकिन सफल नहीं हो सके थे; और दीनल शाह इस बार तीसरी टर्म के लिए उम्मीदवार हैं । पिछली बार दीनल शाह को वेस्टर्न रीजन में सबसे ज्यादा वोट मिले थे; और उनकी इस जोरदार सफलता में कुछेक स्थानीय फैक्टर्स के साथ साथ डेलॉयट के विरोधी खेमे से मिले सहयोग/समर्थन की भी बड़ी भूमिका थी । एनसी हेगड़े की पराजय से डेलॉयट को पिछली बार जो चोट लगी थी, उसके घाव को याद करते/रखते हुए डेलॉयट प्रबंधन इस बार अतिरिक्त रूप से सावधान और सक्रिय है । बिग फोर कंपनियों का प्रबंधन कभी भी अपने उम्मीदवारों को लेकर इतना सक्रिय नहीं दिखा है, जितना इस बार डेलॉयट प्रबंधन दिख रहा है । 
एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी को डेलॉयट प्रबंधन ने अपने लिए प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है । एनसी हेगड़े की चुनावी जीत को सुनिश्चित करने के लिए डेलॉयट प्रबंधन ने केपीएमजी प्रबंधन के साथ एक अंडरस्टैंडिंग यह की कि नॉर्दर्न रीजन में डेलॉयट उनके उम्मीदवार संजीव चौधरी को सहयोग/समर्थन देगा, और बदले में केपीएमजी वेस्टर्न रीजन में एनसी हेगड़े को सहयोग/समर्थन देंगे । दोनों बिग फोर कंपनियों के प्रबंधन के बीच अंडरस्टैंडिंग तो बन गई, लेकिन वह क्रियान्वित नहीं हो सकी । दरअसल केपीएमजी प्रबंधन संजीव चौधरी की उम्मीदवारी को लेकर उतना सेंसेटिव नहीं है, जितना डेलॉयट प्रबंधन एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी लेकर है । वेस्टर्न रीजन में केपीएमजी में दूसरे दूसरे उम्मीदवारों ने सेंध लगाई हुई है, और केपीएमजी प्रबंधन वहाँ एनसी हेगड़े के लिए कुछ ठोस करता हुआ नहीं दिख रहा है । डेलॉयट प्रबंधन यह देख कर उखड़ गया, और बदले में - तथा दबाव बनाने की कोशिश में - उसने नॉर्दर्न रीजन में केपीएमजी के उम्मीदवार संजीव चौधरी के समर्थन से पीछे हटने के संकेत दे दिए । संजीव चौधरी की उम्मीदवारी को लेकर डेलॉयट प्रबंधन ने इतना कड़ा रवैया अख्तियार कर लिया है कि डेलॉयट के लोगों के साथ संजीव चौधरी के लिए मीटिंग तक करना मुश्किल हो गया है । 
इस तरह, केपीएमजी प्रबंधन ही संजीव चौधरी की उम्मीदवारी का 'दुश्मन' बन गया है । संजीव चौधरी पिछली बार एससी वासुदेवा ग्रुप के समर्थन की बदौलत ही चुनाव जीते थे, लेकिन इस बार एससी वासुदेवा के बेटे संजय वासुदेवा के उम्मीदवार होने से वह पहले ही दबाव महसूस कर रहे थे - ऐसे में बिग फोर कंपनियों का चुनावी झगड़ा संजीव चौधरी के लिए बड़ी मुसीबत लेकर आया है । संजीव चौधरी के लिए यह मुसीबत इसलिए ज्यादा बड़ी है, क्योंकि इसके कारण वह परस्पर विरोधी परिस्थिति में फँस गए हैं । उन्हें एक तरफ बिग फोर कंपनियों का समर्थन जुटाना है, और चूँकि सिर्फ उनके समर्थन से तो उनकी चुनावी नैय्या पार होगी नहीं; इसलिए दूसरी तरफ उन्हें आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच भी अपनी पैठ बनानी है । इसमें समस्या यह है कि वह एक को 'पटाने' का प्रयास करने के चक्कर में कुछ कहते हैं, तो दूसरा बिदक जाता है - क्योंकि एक के हित में कही गई बात दूसरे को अपने खिलाफ दिखती/लगती है । जैसे पीछे उन्होंने बिग फोर के लोगों को पटाने के लिए दावा किया कि उनका सेंट्रल काउंसिल में पहुँचना/होना इसलिए जरूरी है, जिससे कि इंस्टीट्यूट में बिग फोर के हितों की सुरक्षा की जा सके । अब यह बात आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच पहुँची - या दूसरे उम्मीदवारों ने पहुँचाई; तो आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच उनकी नकारात्मक छवि बनी । दूसरे उम्मीदवारों ने भी अपने अपने तरीके से आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच संजीव चौधरी की छवि को बिग फोर समर्थक बनाने का काम किया । उल्लेखनीय है कि प्रोफेशन का ताना-बाना कुछ ऐसा बना हुआ है कि आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच बिग फोर विरोधी भावना मजबूती से बनी हुई है । ऐसे में संजीव चौधरी को जब बिग फोर के हितों को सुरक्षित रखने की बात करते सुना जाता है - या सुनाया जाता है, तो आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच उनके खिलाफ माहौल बनता ही है । संजीव चौधरी के खिलाफ यह माहौल बनाना इसलिए भी आसान हो जाता है, क्योंकि आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ उनके सहज संबंध न तो कभी रहे, और न ही उन्होंने बनाने के प्रयास किए । आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच उन्हें 'सूट-बूट' वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के रूप में ही जाना पहचाना जाता है । 
अपने व्यवहार और रवैये के चलते संजीव चौधरी बिग फोर में काम करने वाले युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ भी कोई भरोसे वाला संबंध नहीं बना सके हैं । बिग फोर में नौकरी करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को मुख्यतः दो धाराओं में बंटा हुआ देखा/पाया जाता है : एक धारा वाले लोग तड़क-भड़क के साथ शो-ऑफ करने में तथा विजिबिलिटी बनाने/दिखाने में विश्वास करते हैं, और दूसरी धारा के लोग पढ़ने-लिखने में तथा एकेडेमिक रूप से स्ट्रॉंग होने में यकीन करते हैं । नॉर्दर्न रीजन में हाल के वर्षों में बिग फोर के पहली धारा वाले लोगों के बीच विजय गुप्ता और अतुल गुप्ता ने अपने अपने आयोजनों के जरिए पैठ बनाने का प्रयास किया है, तो दूसरी धारा के लोगों को संजय अग्रवाल ने प्रभावित किया है । प्रोफेशन में भारी प्रतिष्ठा प्राप्त गिरीश आहूजा का संजय अग्रवाल के प्रति जिस तरह का स्नेह और सहयोग समय समय पर दिखता रहा है, उसके कारण भी संजय अग्रवाल के लिए पढ़ने-लिखने तथा एकेडेमिक रूप से स्ट्रॉंग बनने की इच्छा रखने वाले लोगों के बीच पैठ बनाना आसान हुआ है । एक तरह से कहा जा सकता है कि विजय गुप्ता, अतुल गुप्ता और संजय अग्रवाल ने अपने अपने तरीकों से तथा अलग अलग कारणों से संजीव चौधरी के वोट बैंक में सीधी सेंध लगाई है । सेंट्रल काउंसिल की अपनी सदस्यता बचाने के लिए इन तीनों द्वारा खड़ी की गई चुनौती तथा एससी वासुदेवा ग्रुप से मिले झटके से निपटने के लिए संजीव चौधरी जो प्रयास कर रहे थे, उन्हें डेलॉयट के रवैये से लेकिन खासा जोर का करंट लगा है - जिसके चलते उनके लिए चुनावी मुकाबला और ज्यादा मुश्किलों भरा हो गया है । 

Friday, November 20, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ में चरनजोत सिंह नंदा के रवैये से राजेश शर्मा अपने आप को ठगा हुआ पा रहे हैं

नई दिल्ली । राजेश शर्मा, चरनजोत सिंह नंदा और उमेश वर्मा जिस तरह से एक-दूसरे को कोस रहे हैं और उनके बीच आरोपों-प्रत्यारोपों की बातें हो रही हैं, उससे चरनजोत सिंह नंदा की राजनीतिक विरासत तथा राजेश शर्मा व उमेश वर्मा की उम्मीदवारी एक साथ खतरे में पड़ी दिख रही है । मजे की बात यह है कि कहने को तो यह तीनों एक साथ हैं, लेकिन इनमें आपस का अविश्वास इतना मुखर हो गया है कि लोगों के बीच सवाल पैदा हो रहा है कि यह एक साथ होने का ढोंग आखिर क्यों कर रहे हैं ? राजेश शर्मा अपने खास समर्थकों व नजदीकियों के बीच यह शिकायत कर रहे हैं कि चरनजोत सिंह नंदा उनका समर्थन करने के नाम पर उनका उल्लू बना रहे हैं और उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं; राजेश शर्मा का गंभीर आरोप यह है कि चरनजोत सिंह नंदा बात तो उनके समर्थन की कर रहे हैं, लेकिन उनके तमाम समर्थक, खासकर पंजाब के उनके समर्थक संजय अग्रवाल और/या संजय वासुदेवा के साथ घूम रहे हैं; चरनजोत सिंह नंदा का रोना है कि राजेश शर्मा उनकी बात तो मानते नहीं हैं, सिर्फ शिकायत करते रहते हैं कि वह उनके लिए कुछ कर नहीं रहे हैं; उमेश वर्मा को अपनी फिक्र है और अपनी इस फिक्र में उनका जिक्र यह है कि राजेश शर्मा सेंट्रल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी के लिए उनका समर्थन तो ले रहे हैं, किंतु बदले में रीजनल काउंसिल की उनकी उम्मीदवारी को कोई मदद नहीं कर रहे हैं । 
दरअसल, जैसा कि राजेश शर्मा के नजदीकियों ने बताया कि इन तीनों के बीच अविश्वास व परस्पर आरोपों का सिलसिला तब शुरू हुआ, जब चरनजोत सिंह नंदा ने राजेश शर्मा से उमेश वर्मा की रीजनल काउंसिल की उम्मीदवारी में मदद करने का अनुरोध किया । राजेश शर्मा की खूबी यह है कि कि वह किसी का भी काम करें भले ही न, लेकिन इंकार किसी को नहीं करते हैं । सो उन्होंने उमेश वर्मा की उम्मीदवारी का सहयोग/समर्थन करने के लिए चरनजोत सिंह नंदा से हामी भर दी । अपने स्वभाव के अनुरूप इस संबंध में उन्होंने लेकिन किया कुछ भी नहीं । चरनजोत सिंह नंदा ने भी किंतु कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं - सो उन्होंने राजेश शर्मा द्वारा आयोजित की जाने वाली पार्टियों/मीटिंगों में उमेश वर्मा को भी आमंत्रित करना शुरू कर दिया । इन पार्टियों/मीटिंगों में उमेश वर्मा ने अपने साथियों व अपने कार्यकर्ताओं को बुलाना शुरू कर दिया । इस कारण से हुआ यह कि राजेश शर्मा द्वारा की जाने पार्टियाँ/मीटिंग उमेश वर्मा की पार्टियाँ/मीटिंग लगने लगीं - ऐसा लगने का कारण यह भी रहा क्योंकि चरनजोत सिंह नंदा इन पार्टियों/मीटिंगों में राजेश शर्मा की बजाए उमेश वर्मा की बात ज्यादा करते सुने जाते । यही सब देख कर राजेश शर्मा को लगा और उन्होंने कहना भी शुरू किया कि चरनजोत सिंह नंदा उनके पैसे पर उमेश वर्मा का प्रचार कर रहे हैं । राजेश शर्मा को सबसे बड़ा झटका तो पंजाब में लगा । उन्हें उम्मीद थी कि पंजाब में चरनजोत सिंह नंदा के समर्थक उनकी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने का काम करेंगे; लेकिन वह यह देख कर हैरान/परेशान हो गए कि पंजाब में चरनजोत सिंह नंदा के समर्थक या तो संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी का झंडा लेकर घूम रहे हैं, और या संजय वासुदेवा के साथ हैं । यह देख/जान कर राजेश शर्मा को पक्का यकीन हो गया है कि चरनजोत सिंह नंदा समर्थन के नाम पर उन्हें धोखा ही दे रहे हैं । 
राजेश शर्मा की यह शिकायतें चरनजोत सिंह नंदा तक पहुँची तो उन्होंने राजेश शर्मा की इन शिकायतों के लिए राजेश शर्मा को ही जिम्मेदार ठहरा दिया । उनका कहना है कि उन्होंने राजेश शर्मा से जो जो जैसे जैसे करने को कहा, राजेश शर्मा ने कुछ किया ही नहीं; वह अपनी ही मनमानी से काम कर रहे हैं - ऐसा लग रहा है जैसे कि उन्हें मेरी मदद की जरूरत ही नहीं है; ऐसे में वह यह शिकायत कैसे कर सकते हैं कि उन्हें मेरी मदद मिल नहीं रही है ? चरनजोत सिंह नंदा का कहना है कि राजेश शर्मा यदि मेरे समर्थकों का सहयोग/समर्थन चाहते हैं, तो पहले तो उन्हें यह जानना/समझना होगा कि मेरे किन समर्थकों को साथ लाने के लिए क्या करना होगा और कैसे करना होगा, फिर उसे 'करना' होगा । चरनजोत सिंह नंदा का आरोप है कि राजेश शर्मा यह सब तो करना नहीं चाहते; वह बस यह चाहते हैं कि मुझसे जुड़े रहे लोग उनकी उम्मीदवारी के समर्थन में जुट जाएँ - वह यह नहीं समझ रहे हैं कि ऐसा होता नहीं है । चरनजोत सिंह नंदा का कहना है कि संजय अग्रवाल और संजय वासुदेवा ने ज्यादा होशियारी से काम किया और पहले से सक्रियता बना कर तमाम लोगों को अपने साथ जोड़ लिया । संजय वासुदेवा को अपने पिता के नाम का फायदा मिला है, और संजय अग्रवाल ने अपनी निरंतर सक्रियता तथा नेटवर्किंग से लोगों को अपने साथ जोड़ा है । चरनजोत सिंह नंदा को इस बात पर बड़ी आपत्ति है कि राजेश शर्मा अपनी कमजोरियों व कमियों के लिए उन्हें नाहक ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं । 
चरनजोत सिंह नंदा के सुर में सुर मिलाकर उमेश वर्मा को भी राजेश शर्मा पर हमला बोलते हुए सुना गया है । उमेश वर्मा का आरोप है कि राजेश शर्मा अपनी उम्मीदवारी के लिए तो उनसे मदद की उम्मीद कर रहे हैं और ले रहे हैं - लेकिन बदले में वह उनकी कोई मदद नहीं कर रहे हैं । उमेश वर्मा के अनुसार, इस मामले में राजेश शर्मा का तर्क है कि वह यदि उनकी मदद करते हुए 'दिखेंगे', तो रीजनल काउंसिल के दूसरे उम्मीदवार बिदकेंगे तथा उनके खिलाफ सक्रिय होंगे । राजेश शर्मा ने उमेश वर्मा को पाठ पढ़ाया है कि इसलिए वह उनकी खुलकर नहीं, बल्कि पर्दे के पीछे से ही मदद करेंगे । राजेश शर्मा का यह तर्क उमेश वर्मा को भा नहीं रहा है; और वह इस तर्क को राजेश शर्मा की बहानेबाजी के रूप में ही देख रहे हैं और राजेश शर्मा के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं ।
इस सारे नजारे को देख कर राजेश शर्मा के नजदीकियों व समर्थकों को लग रहा है कि चरनजोत सिंह नंदा ने राजेश शर्मा को ऐसा फँसा दिया है कि राजेश शर्मा के लिए न आगे बढ़ पाना संभव रह गया है, और न पीछे हटना ही उनके लिए आसान है । मजे की बात यह है कि औरों को दिखाई तो यह दे रहा है कि चरनजोत सिंह नंदा पूरी तरह से राजेश शर्मा की उम्मीदवारी के साथ हैं; लेकिन राजेश शर्मा और उनके समर्थक जान/समझ रहे हैं तथा आपस की बातचीत में रोना भी रो रहे हैं कि चरनजोत सिंह नंदा उनकी उम्मीदवारी के लिए वास्तव में कुछ कर नहीं रहे हैं और इसलिए ही उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में वैसा माहौल नहीं बन पा रहा है, जैसे माहौल की उम्मीद की गई थी । राजेश शर्मा यह देख कर तो अपने आप को और ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं कि चरनजोत सिंह नंदा उनके समर्थन के नाम पर उनसे अनाप-शनाप पैसे खर्च करवा रहे हैं और उनके पैसे पर उमेश वर्मा को चुनाव लड़वा रहे हैं । 

Thursday, November 19, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में नोमीनेटिंग कमेटी द्वारा चुने गए अधिकृत उम्मीदवार सुभाष जैन को चेलैंज करने के मामले में दीपक गुप्ता क्या एक बार फिर मुकेश अरनेजा के उकसावे में आकर अपने क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों की सलाह को अनसुना करेंगे ?

गाजियाबाद । रोटरी क्लब गाजियाबाद में कई वरिष्ठ और प्रमुख सदस्यों के विरोध के कारण दीपक गुप्ता के लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के अधिकृत उम्मीदवार सुभाष जैन को चेलैंज करने के फैसले को व्यवहार में लाना चुनौतीपूर्ण बन गया है । विरोध करने वाले इन वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों का कहना है कि उन्होंने दीपक गुप्ता को सलाह दी है कि लोगों का समर्थन प्राप्त करने के मामले में वह लगातार दूसरे वर्ष जिस तरह से असफल रहे हैं तथा जिस बड़े अंतर से असफल रहे हैं, उसके कारणों का उन्हें गहराई से विश्लेषण करना चाहिए; अपनी कमजोरियों को पहचानना चाहिए तथा ईमानदारी से उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए - और फिर उसके बाद उन्हें अपनी उम्मीदवारी के बारे में सोचना चाहिए । इन वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों ने दीपक गुप्ता को साफ साफ बता दिया है कि डिस्ट्रिक्ट में इस समय लोगों का जो मूड है, उसे देखते हुए चुनाव में जाने के फैसले में कोई अक्लमंदी नहीं है; नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले में सुंभाष जैन के साथ उनका जो अंतर रहा है, उसे देखते/समझते हुए कोई भी बता सकता है कि चुनाव में भी दीपक गुप्ता को असफलता ही हाथ लगेगी - और वह असफलता रोटरी की राजनीति के संदर्भ में दीपक गुप्ता के लिए ज्यादा बड़ी चोट होगी । कुछेक सदस्यों ने दीपक गुप्ता को आगाह किया है कि सुभाष जैन चूँकि गाजियाबाद/उत्तरप्रदेश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, इसलिए उनकी अधिकृत उम्मीदवारी को चेलैंज करने से उन्हें गाजियाबाद/उत्तरप्रदेश में आगे रोटरी से जुड़े रहने में मुश्किल होगी - दिल्ली का कोई उम्मीदवार होता, तो उसे चेलैंज करना एक अलग बात होती । इसी तथ्य का वास्ता देकर क्लब के कुछेक सदस्यों का तो यहाँ तक कहना है कि दीपक गुप्ता चुनाव में गए - तो उसमें मिली पराजय सिर्फ उनके लिए ही नहीं, बल्कि क्लब के लिए भी बड़ी चोट होगी । दीपक गुप्ता के क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों का ही दो-टूक कहना है कि खुद अपनी और क्लब की साख व प्रतिष्ठा के लिए जरूरी है कि दीपक गुप्ता नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले के प्रति मैच्योर तरीके से सम्मान व्यक्त करें और उसे स्वीकार करें ।
दीपक गुप्ता ने अपने क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों को हालाँकि यह भरोसा दिलाने का भरसक प्रयास किया है कि नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले से उनकी चुनावी स्थिति जितनी बुरी और कमजोर दिख रही है, वह वास्तव में उतनी बुरी और कमजोर है नहीं; तथा नोमीनेटिंग कमेटी के कुछेक सदस्यों ने उनके साथ यदि धोखा नहीं किया होता तो अधिकृत उम्मीदवार वही चुने जाते - और यदि नहीं भी चुने जाते, तो इतने बड़े अंतर से तो पीछे नहीं ही रहते ! दीपक गुप्ता के लिए बदकिस्मती की बात यह है कि उनकी इस थ्योरी पर उनके अपने क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख लोगों को ही भरोसा नहीं हुआ है । इन्हीं वरिष्ठ व प्रमुख लोगों में से जिन कुछेक से इन पंक्तियों के लेखक की बात हो सकी है, उन सभी ने एक उल्लेखनीय बात यह बताई है कि नोमीनेटिंग कमेटी को जैसा जो फैसला आया है, उन्हें उसका पूरा आभास था और उन्होंने दीपक गुप्ता को इसे लेकर आगाह भी किया था; लेकिन दीपक गुप्ता ने उनकी बातों पर जरा सा भी गौर ही नहीं किया । इनका तर्क रहा कि दीपक गुप्ता की इस बात को यदि सच मान भी लिया जाए कि नोमीनेटिंग कमेटी के कुछेक सदस्यों ने उनके साथ धोखा किया है; तो उन्हें यह विचार तो करना ही चाहिए कि उन सदस्यों ने उनके साथ धोखा आखिर किया क्यों ? और इस बात की आखिर क्या गारंटी है कि आगे चुनाव में लोग उनके साथ एक बार फिर ऐसा ही धोखा नहीं करेंगे ? 
दीपक गुप्ता के क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों ने नोमीनेटिंग कमेटी के सदस्यों से मिले धोखे की दीपक गुप्ता की थ्योरी को पूरी तरह खारिज करते हुए साफ कहा है कि दीपक गुप्ता को समझना चाहिए कि उन्हें धोखा उन लोगों से नहीं मिला है जिन्होंने उनका साथ नहीं दिया; बल्कि धोखा उन्हें उन लोगों से मिला है जो उनके साथ हैं - और जिन्हें वह अपना समर्थक व सहयोगी मान रहे हैं । उनके समर्थक व उनके साथ सहयोग करने वाले लोगों ने सच्चाई को उनतक पहुँचने ही नहीं दिया और उनकी आँखों पर ऐसी पट्टी बाँध दी कि खुद दीपक गुप्ता को भी सच्चाई दिखना बंद हो गई । इससे भी ज्यादा बुरी बात यह हुई कि जिस किसी ने दीपक गुप्ता को सच्चाई दिखाने/बताने का प्रयास भी किया, दीपक गुप्ता उसे अपना दुश्मन मानने लगे । यही कारण रहा कि चुनाव से कुछ पहले तक दीपक गुप्ता अपने क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख लोगों से पूरी तरह कट गए थे, और उन लोगों पर भरोसा कर रहे थे जो नोमीनेटिंग कमेटी में उन्हें ग्यारह में से आठ वोट तो पक्के तौर पर मिलने का दावा कर रहे थे । उनके यही समर्थक अभी भी दीपक गुप्ता के 'दुश्मन' बने हुए हैं । दीपक गुप्ता के क्लब के कुछेक सदस्यों ने ही बताया कि उन्हें कई लोगों से सुनने को मिला है कि उन्होंने तो मुकेश अरनेजा के फोन उठाना ही बंद कर दिया है । इसके बाद भी मुकेश अरनेजा यदि दीपक गुप्ता को चुनाव जितवाने का दावा कर रहे हैं, तो जाहिर है कि वह दीपक गुप्ता को उकसा कर सिर्फ अपनी राजनीति करने का मौका बना रहे हैं । दीपक गुप्ता के क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों ने इधर-उधर कई लोगों से शिकायत के अंदाज में कहा/बताया है कि दीपक गुप्ता को उन्होंने जब उनकी चुनावी स्थिति के बारे में बताया, तो उसके बाद दीपक गुप्ता ने उनसे बात करना ही बंद कर दिया था । 
दीपक गुप्ता ने लेकिन अब फिर अपने क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों का दरवाजा खटखटाया है और उनसे मदद की गुहार लगाई है । दीपक गुप्ता के लिए मुसीबत की बात लेकिन यह हुई है कि उनके क्लब के हर उस सदस्य ने, जिनसे उन्होंने मदद माँगी है, उन्हें यही सलाह दी है कि उन्हें नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले को स्वीकार कर लेना चाहिए तथा अगले वर्षों में अपनी चुनावी स्थिति को अनुकूल बनाने के लिए काम करना चाहिए । दीपक गुप्ता के क्लब के जिन कुछेक वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों से इन पंक्तियों के लेखक की बात हुई है, उनका कहना है कि उन्होंने दीपक गुप्ता को साफ साफ बता दिया है कि इस बार के चुनाव में अपनाए गए उनके तरीके तथा उनके व्यवहार ने - तथा उनके समर्थक नेताओं के रवैये ने उनको लोगों की पसंद से इतना दूर कर दिया है कि उस दूरी को जल्दी से व आसानी से पाटना संभव नहीं है; इसलिए चुनाव में जाने का उनका फैसला उनकी स्थिति को और खराब ही करेगा । कुछेक सदस्यों का तो यहाँ तक कहना है कि अभी जिन लोगों को उनकी हार के चलते उनसे हमदर्दी हुई भी है, चुनाव में जाने पर वह लोगों की उस हमदर्दी को भी खो देंगे । दीपक गुप्ता के लिए मुसीबत की बात यह हुई है कि एक तरफ तो मुकेश अरनेजा उन्हें नोमीनेटिंग कमेटी द्वारा चुने गए अधिकृत उम्मीदवार सुभाष जैन को चेलैंज करने के लिए उकसा रहे हैं, और दूसरी तरफ उनके क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्य उन्हें नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले का सम्मान करने व उसे स्वीकार करने का सुझाव दे रहे हैं । दीपक गुप्ता के सामने समस्या यह खड़ी हुई है कि वह किसकी बात मानें : मुकेश अरनेजा के उकसावे में आने तथा अपने क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख सदस्यों की सलाह को अनसुना करने का परिणाम उन्होंने एक बार देख लिया है - ऐसे में क्या एक बार फिर वह मुकेश अरनेजा की झूठी और बड़बोली पट्टी को अपनी आँखों पर बँधा रहने दें और अपने क्लब के वरिष्ठ व प्रमुख लोगों की सलाह को अनसुना कर दें ?

Tuesday, November 17, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की पीयूष छाजेड़ की कोशिश प्रफुल्ल छाजेड़ के नाम से समानता के चलते मुश्किल में पड़ी

मुंबई । पीयूष छाजेड़ के लिए मुसीबत और चुनौती की बात यह हो रही है कि सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की वह जितनी जो कोशिश कर रहे हैं, वह सब सेंट्रल काउंसिल के दूसरे उम्मीदवार प्रफुल्ल छाजेड़ के खाते में जुड़ रही हैं और उनके किए-धरे का फायदा प्रफुल्ल छाजेड़ को मिल रहा है । इससे जाहिर हो रहा है कि पीयूष छाजेड़ की उम्मीदवारी को लोगों के बीच गंभीरता से लिया ही नहीं जा रहा है और पीयूष छाजेड़ लोगों के बीच अपनी उम्मीदवारी को लेकर कोई प्रभाव बना सकने में विफल ही हो रहे हैं । पीयूष छाजेड़ के साथ मजाक यह हो रहा है कि वह एसएमएस व ईमेल के जरिए कोई बात कहते हैं और फिर उसका फीडबैक लेना चाहते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि उनके एसएमएस व ईमेल संदेश लोग प्रफुल्ल छाजेड़ के एसएमएस व ईमेल संदेश समझे बैठे हैं; वह फोन पर किसी से बात करते हैं, तो दूसरे लोग उनसे ऐसे बात करते हैं जैसे कि वह प्रफुल्ल छाजेड़ से बात कर रहे हों; हद की बात तो तब हो जाती है जब वह किसी से आमने-सामने मिलते हैं तो दूसरे लोग यह समझते हैं कि वह अपने भाई या रिश्तेदार प्रफुल्ल छाजेड़ की उम्मीदवारी के लिए सहयोग/समर्थन माँग रहे हैं । ऐसी स्थिति में पीयूष छाजेड़ को अपना बहुत सा समय व अपनी एनर्जी यह बताने/जताने में खर्च करना पड़ रही है कि वह और प्रफुल्ल छाजेड़ अलग अलग हैं और दोनों ही सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार हैं । 
इस स्थिति ने पीयूष छाजेड़ को दो तरफा चोट पहुँचाई है - एक तरफ तो चुनावी संदर्भ में किया जा रहा उनका काम प्रफुल्ल छाजेड़ के खाते में जुड़ रहा है; और दूसरी तरफ नाम की समानता की गलतफहमी में उन्होंने फायदा उठाने का जो मौका बनाया/देखा था, उस मौके को मिटाने का काम करने में भी उन्हें ही जुटना पड़ रहा है । उल्लेखनीय है कि पीयूष छाजेड़ के नजदीकियों के हवाले से लोगों के बीच चर्चा थी कि उन्होंने पहले से ही यह माना हुआ था कि नाम की समानता की गलतफहमी में प्रफुल्ल छाजेड़ के कुछेक वोट तो उन्हें मिलेंगे ही - और यह उनके लिए बोनस होगा । लेकिन अब उन्हें समझ में आ रहा है कि 'इस बोनस' के चक्कर में रहे, तो उन्हें फिर सिर्फ बोनस 'ही' मिलेगा । प्रफुल्ल छाजेड़ के समर्थकों व शुभचिंतकों को भी हालाँकि शुरू में इस बात की चिंता हुई थी कि नाम की समानता की गलतफहमी में उनके कुछेक वोट पीयूष छाजेड़ के खाते में जा सकते हैं । किंतु अब जब वह यह देख रहे हैं कि नाम की समानता की गलतफहमी का ज्यादा नुकसान पीयूष छाजेड़ को हो रहा है; और इस नुकसान से बचने के लिए खुद पीयूष छाजेड़ ने प्रयास करना शुरू किया है - तो उन्होंने चैन की साँस ली है । 
पीयूष छाजेड़ को जिस तरह से लोगों को यह विश्वास दिलाने में जुटना पड़ रहा है कि इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रफुल्ल छाजेड़ अलग उम्मीदवार हैं तथा वह अलग उम्मीदवार हैं, उससे पीयूष छाजेड़ के लिए न सिर्फ मेहनत बढ़ गई है - बल्कि अपने वोटों को प्रफुल्ल छाजेड़ के पास जाने से रोकने की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है । इस मेहनत व जिम्मेदारी को निभाने के चक्कर में पीयूष छाजेड़ के लिए अपने चुनाव अभियान को व्यवस्थित तरीके से चला पाना मुश्किल हो रहा है - और उनके लिए अपने पिता की राजनीतिक विरासत का फायदा उठाना तक संभव नहीं हो पा रहा है । उल्लेखनीय है कि पीयूष छाजेड़ के पास एक बड़ा प्लस प्वाइंट था, और वह यह कि वह करीब पंद्रह वर्ष पहले इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट रहे स्वर्गीय एसपी छाजेड़ के बेटे हैं । लेकिन वह इस प्लस प्वाइंट का कोई फायदा नहीं उठा पा रहे हैं । इसका फायदा उठाने की दरअसल स्थिति भी नहीं है । इसका कारण यह है कि प्रेसीडेंट पद का कार्यकाल पूरा करने के बाद एसपी छाजेड़ इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति से पूरी तरह दूर हो गए थे । वर्ष 2008 में उनका निधन हो गया था । उनकी राजनीतिक विरासत पर किसी ने भी दावेदारी नहीं की । इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में उनकी फर्म का, उनके ग्रुप का और/या उनकी फॉलोइंग का किसी भी रूप में कभी नाम नहीं सुना गया । पीयूष छाजेड़ की भी इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में कभी किसी भी तरह की सक्रियता या संलग्नता नहीं देखी/सुनी गई । इस कारण से पीयूष छाजेड़ के लिए लोगों से कनेक्ट कर पाना मुश्किल हो रहा है । पीयूष छाजेड़ के नजदीकियों का कहना है कि कुछेक लोगों ने पीयूष को सलाह दी थी कि उन्हें पहले रीजनल काउंसिल का चुनाव लड़ना चाहिए, तथा उसके जरिए लोगों के बीच अपनी पहचान बनानी चाहिए और फिर उसके बाद उन्हें सेंट्रल काउंसिल के लिए आना चाहिए ।उनके नजदीकियों का ही कहना है कि पीयूष छाजेड़ ने पहले तो इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया और जोशो-खरोश में सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार हो गए; लेकिन अब पछता रहे हैं कि ऐसा करके उन्होंने गलती कर दी है ।

Monday, November 16, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद पर हुई सुभाष जैन की जीत की पार्टी में सतीश सिंघल क्या मुकेश अरनेजा की तरफ से जासूसी करने आए थे ?

गाजियाबाद । सुभाष जैन को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में मिली जीत की खुशी मनाने के उद्देश्य से हुई पार्टी में सतीश सिंघल की मौजूदगी पर वहाँ मौजूद लोगों को खासी हैरानी हुई, और अपनी अपनी हैरानी को प्रकट करने के लिए लोगों ने मजे मजे की बातें की तथा चुस्कियाँ लीं । यह इसलिए हुआ क्योंकि सतीश सिंघल को शुरू से ही सुभाष जैन की उम्मीदवारी के विरोध में देखा/पहचाना जा रहा था । उन्होंने सुभाष जैन की उम्मीदवारी के समर्थकों को तोड़ने तथा उन्हें पहले अशोक गर्ग तथा बाद में दीपक गुप्ता के समर्थन में लाने का हर संभव प्रयास किया था । मजे की बात हालाँकि यह भी थी कि सतीश सिंघल को सुभाष जैन से कोई खास शिकायत नहीं थी; और उन्होंने कई एक लोगों से कहा भी कि उन्हें तो रमेश अग्रवाल से बदला लेना है, और सुभाष जैन चूँकि रमेश अग्रवाल के उम्मीदवार के रूप में देखे/पहचाने जा रहे हैं इसलिए उन्हें सुभाष जैन का विरोध करना है । सुभाष जैन ने उन्हें अपने साथ/समर्थन में लाने के लिए काफी पापड़ बेले, लेकिन सतीश सिंघल उनके समर्थन में आने के लिए तैयार नहीं हुए । सुभाष जैन के नजदीकियों का कहना है कि उम्मीदवार के रूप में सुभाष जैन ने सबसे ज्यादा सतीश सिंघल पर ही 'काम' किया, लेकिन सतीश सिंघल ने उनके काम का कोई मान नहीं रखा । वही सतीश सिंघल लेकिन जीत का नतीजा आने के कुछ ही घंटों के भीतर हुई जीत की पार्टी में शामिल होने पहुँचे तो सुभाष जैन के समर्थकों को जैसे मजा लेने का मौका मिल गया । 
सुभाष जैन की जीत की पार्टी में सतीश सिंघल की उपस्थिति को लेकर पार्टी में मौजूद कई लोगों ने जहाँ मजे लिए, वहाँ कुछेक ने उनकी उपस्थिति को संदेह से भी देखा । पार्टी में सतीश सिंघल की उपस्थिति को संदेह से देखने वाले लोगों का कहना रहा कि यहाँ सतीश सिंघल कहीं सुभाष जैन की 'चुनावी ताकत' का अंदाजा करने तो नहीं आए हैं ? यह संदेह इसलिए भी पैदा हुआ क्योंकि जिस समय सुभाष जैन की जीत की पार्टी चल रही थी, ठीक उसी समय मुकेश अरनेजा के कुछेक नजदीकी आगे की राजनीति को लेकर माथापच्ची कर रहे थे । वह दो विकल्पों को लेकर आपस में उलझे हुए थे - कभी उन्हें लगता कि सुभाष जैन को अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने के नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले को चेलैंज किया जाए और चुनाव की स्थितियाँ बनाई जाएँ; लेकिन कभी उन्हें लगता कि चुनाव में भी उन्हें हारना ही पड़ेगा, इसलिए बेहतर होगा कि चुनावी प्रक्रिया में बरती गई कुछेक अनियमितताओं का सहारा लेकर सुभाष जैन के चुने जाने के फैसले को निरस्त कराने की लड़ाई में उतरा जाए । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश में मुकेश अरनेजा को कुछ न कुछ करना जरूरी लग रहा है; और यह समझने की कोशिश में कि क्या किया जाए, मुकेश अरनेजा तथा उनके नजदीकियों ने कुछेक लोगों से बात भी की । मुकेश अरनेजा तथा उनके नजदीकियों की इस सक्रियता की पृष्ठभूमि में सुभाष जैन की जीत की पार्टी में सतीश सिंघल की उपस्थिति को लेकर संदेह बना । 
सतीश सिंघल को नजदीक से जानने/पहचानने वाले कुछेक लोगों का हालाँकि यह भी कहना रहा कि रमेश अग्रवाल से निजी खुंदक रखने के चलते सतीश सिंघल ने मुकेश अरनेजा के साथ तार भले ही जोड़ लिए हों, लेकिन मुकेश अरनेजा की हर हरकत में वह शामिल नहीं हो सकते हैं । ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मुकेश अरनेजा के नजदीकियों के बीच भी सतीश सिंघल की स्थिति विश्वसनीय नहीं रह गई है । मुकेश अरनेजा के नजदीकियों ने दीपक गुप्ता की इस बुरी हार के लिए सतीश सिंघल की तरफ से मिले धोखे को जिम्मेदार ठहराया है । उनका आरोप है कि सतीश सिंघल ने उन्हें उल्लू बनाया : वह उन्हें दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी का सहयोग व समर्थन करने का भरोसा तो देते रहे, लेकिन वास्तव में उनके लिए किया कुछ नहीं । इस तरह की बातों से लगता है कि सुभाष जैन और दीपक गुप्ता के बीच हुए चुनाव में सबसे ज्यादा फजीहत बेचारे सतीश सिंघल की ही हुई है । सुभाष जैन के समर्थक मानते/जानते और कहते हैं कि सतीश सिंघल ने दीपक गुप्ता का समर्थन किया; और दीपक गुप्ता के समर्थक उन पर धोखा करने का आरोप मढ़ते हैं । 
सतीश सिंघल के नजदीकियों का कहना है कि स्पष्ट फैसला न करने तथा ज्यादा चतुराई दिखाने के चक्कर में सतीश सिंघल ने अपनी ऐसी दशा बना ली है कि वह किसी का भी विश्वास नहीं जीत सके, और हर कोई उन्हें और उनकी भूमिका को संदेह से देखता है । उनकी यह दशा इसलिए भी बनी, क्योंकि उन्होंने नकारात्मक सोच रखी । वह वास्तव में न अशोक गर्ग के साथ थे, और न दीपक गुप्ता के साथ थे; वह इनके समर्थन में सिर्फ इस कारण से दिख रहे थे क्योंकि वह सुभाष जैन के खिलाफ थे - और सुभाष जैन के भी वह इसलिए खिलाफ थे क्योंकि उन्हें रमेश अग्रवाल से बदला लेना था । नजदीकियों के अनुसार ही, सतीश सिंघल को लेकिन जब समझ में आ गया कि उनके लिए सुभाष जैन के समर्थकों को तोड़ पाना संभव नहीं होगा, तो उन्होंने उस संबंध  में प्रयास करना ही छोड़ दिया । दीपक गुप्ता के समर्थक उनके खिलाफ दरअसल इसीलिए भड़के हुए हैं, क्योंकि उन्होंने सुभाष जैन के समर्थकों के बीच सेंध लगाने में कोई खास दिलचस्पी ली ही नहीं । सतीश सिंघल बेचारे उन्हें यह कैसे बताते कि वह दिलचस्पी तो खूब ले रहे हैं, लेकिन उनकी चल नहीं रही है; उनकी कोई सुन/मान नहीं रहा है । सतीश सिंघल अंत तक लेकिन दीपक गुप्ता के समर्थकों को दीपक गुप्ता के साथ बने रहने के लिए जरूर प्रोत्साहित करते रहे । सुभाष जैन के समर्थक कारण उन्हें अपने विरोध में मानते/देखते रहे । वास्तव में इसीलिए, सुभाष जैन की जीत की पार्टी में सतीश सिंघल को शामिल देख कर सुभाष जैन के समर्थकों को हैरानी हुई । इस हैरानी में हालाँकि उन्होंने मजे खूब लिए, और यह समझने की कोशिश कि सुभाष जैन को हरवाने की कोशिशों में जुटे रहने वाले सतीश सिंघल - सुभाष जैन की जीत की पार्टी में आखिर आए क्या करने थे ?

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के प्रचार में इंदौर ब्रांच की अधिकृत आईडी इस्तेमाल करने के कारण केमिशा सोनी मुसीबत में फँसी

इंदौर । केमिशा सोनी सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के प्रचार अभियान में इंदौर ब्रांच की सुविधाओं का फायदा उठाने के गंभीर आरोप में फँस गई हैं । इस आरोप को लेकर जो बबाल हुआ है, उसके कारण केमिशा सोनी की उम्मीदवारी के समर्थक व शुभचिंतक खासे दबाव में आ गए हैं और उनके लिए यह समझना मुश्किल हो रहा है कि इस आरोप के चलते केमिशा सोनी की उम्मीदवारी तथा उनके प्रचार-तंत्र की व्यवस्था को लेकर जो नकारात्मक माहौल बना है - उससे वह कैसे निपटें ? कोढ़ में खाज वाली बात यह हुई कि इस आरोप को लेकर केमिशा सोनी ने जो सफाई दी, उससे मामला सुधरने की बजाए बिगड़ और गया ।  
हुआ यह कि एसएस देशपांडे, पीडी नागर, बीएल बंसल, डीजे दवे, एमपी अग्रवाल आदि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की तरफ से इंदौर व बाहर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को बल्क में एक एसएमएस भेजा गया जिसमें इंदौर ब्रांच व सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल की चेयरपरसन के रूप में केमिशा सोनी की योग्यता का जिक्र करते सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में पहली वरीयता के वोट देने की अपील की गई थी । अपनी इस अपील को भावनात्मक रूप से स्ट्रॉंग बनाने लिए इसी एसएमएस में इस तथ्य का भी जिक्र किया गया कि केमिशा सोनी ने पिछली बार सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत की जाने वाली अपनी उम्मीदवारी को इंदौर और मनोज फडनिस के हित में त्याग दिया था । इस एसएमएस में जो कुछ भी कहा/बताया गया, उसमें हालाँकि आपत्तिजनक कुछ नहीं था - लेकिन फिर भी इस एसएमएस ने इंदौर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच बबाल पैदा कर दिया । इसका कारण यह रहा कि यह एसएमएस जिस आईडी से भेजा गया, वह इंदौर ब्रांच की आधिकारिक आईडी है । इस नाते आरोप लगा कि केमिशा सोनी और उनके समर्थक अपने प्रचार अभियान में फर्जी व बेईमानीपूर्ण तरीके से इंदौर ब्रांच की आईडी इस्तेमाल कर रहे हैं । आरोप लगना और विवाद बढ़ना शुरू होते ही केमिशा सोनी व उनके समर्थक तुरंत से सक्रिय हुए और उनकी तरफ से एक सफाईपूर्ण संदेश यह दिया गया कि उनके पिछले एसएमएस को जिस आईडी से भेजा गया है, उसे इंदौर ब्रांच की आईडी न समझा जाए । किंतु उनकी यह सफाई उनके जरा भी काम नहीं आई, क्योंकि दोनों ही आईडी जब एक ही थीं, और यह आईडी इंदौर ब्रांच की अधिकृत आईडी के रूप में लोगों के बीच जानी/पहचानी जाती है - तो उनकी इस सफाई को लोगों की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश के रूप में ही देखा गया ।  
केमिशा सोनी ने मामले में जो सफाई दी, उससे बात और बिगड़ गई । उन्होंने पहले कहा कि उक्त जिस आईडी का उन्होंने इस्तेमाल किया, वह टेलीकॉम सेंटर ने उन्हें दी थी और इसलिए इसमें उनका भला क्या दोष । किंतु जब उन्हें लगा कि उनका यह तर्क व दावा चलेगा नहीं, और उनका झूठ पकड़ा जायेगा तो उन्होंने पैंतरा बदला और कहा कि जो हुआ वह गलतफहमी में हुआ, उसे उन्होंने जानबूझ कर नहीं किया । लेकिन उनके इस दावे पर सवाल उठे कि वह जिम्मेदार पदों पर रही हैं और इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में जाना चाहती हैं - इसलिए अपने निजी हित में प्रशासनिक आईडी का इस्तेमाल गलतफहमी में कैसे कर सकती हैं ? और यदि कर सकती हैं तो फिर कैसे भरोसा किया जाए कि सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में वह गलतफहमी में अर्थ का अनर्थ नहीं करेंगी ? केमिशा सोनी के लिए इस सवाल का जबाव देना मुश्किल हुआ, तो इस सारे झमेले से पल्ला झाड़ते हुए उन्होंने इस कांड की जिम्मेदारी अपने समर्थकों के सिर मढ़ दी । उन्होंने कहा कि जो हुआ वह उन्होंने नहीं, उनके समर्थकों ने किया है और इसके लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । यह तर्क काम कर सकता था, लेकिन उन्होंने जिस तरह से बार-बार बयान बदले और परस्पर अंतर्विरोधी बातें कहीं उससे लोगों के बीच संदेश गया कि वह सच को छिपाने का प्रयास कर रही हैं । इससे केमिशा सोनी के लिए मामला और खराब हुआ । 
केमिशा सोनी के समर्थकों व शुभचिंतकों का ही मानना और कहना है कि मामला इतना गंभीर था नहीं, और केमिशा सोनी यदि होशियारी से मामले को हैंडल करतीं तो बात इतना न बिगड़ती; लेकिन केमिशा सोनी ने मामले की गंभीरता को समझा नहीं और लापरवाही में परस्पर विरोधी बातें की/कहीं - जिससे मामला खासा संगीन हो उठा है । इन्हीं समर्थकों व शुभचिंतकों का हालाँकि कहना यह भी है कि केमिशा सोनी जो हुआ उससे सबक लेकर आगे क्या करती हैं, इससे यह तय होगा कि यह मामला उनके लिए बड़ी मुसीबत बनेगा या कुछेक दिन की चर्चा के बाद खुद ही दफ्न हो जायेगा । आगे क्या होगा, यह तो आगे पता चलेगा - अभी लेकिन इस मामले ने केमिशा सोनी की मुसीबत बढ़ा दी है ।

Saturday, November 14, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के प्रेसीडेंट मनोज फडनिस को लिखे विजय गुप्ता के पत्र से 'भेद' खुला कि फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग के काम में घपला करने वाले लोगों को संरक्षण तो पंकज त्यागी व अतुल गुप्ता ने दिया और निशाना बने विजय गुप्ता

फरीदाबाद/नई दिल्ली । फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग के घपले की जाँच कराये जाने की माँग करते हुए विजय गुप्ता ने इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट मनोज फडनिस को जो पत्र लिखा है, उसने पंकज त्यागी तथा अतुल गुप्ता को बुरी तरह बेचैन कर दिया है । विजय गुप्ता के उक्त पत्र को सरसरी तौर पर पढ़ने वालों को तो उक्त पत्र के पीछे विजय गुप्ता की अपने को बचाने व पाक-साफ दिखाने की कोशिश नजर आती है; लेकिन पंकज त्यागी तथा अतुल गुप्ता ने पत्र की बिटविन-द-लाइंस को पढ़ा है, और यह समझने में देर नहीं की है कि इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट को लिखे इस पत्र के जरिए विजय गुप्ता ने दरअसल उन्हें निशाने पर लेने का प्रयास किया है । मजे की बात यही है कि विजय गुप्ता ने अपने पत्र में इनका कहीं कोई जिक्र नहीं किया है, लेकिन फिर भी विजय गुप्ता के उक्त पत्र के सार्वजनिक होने के बाद से इन दोनों के होश उड़े हुए हैं । अपने पत्र में विजय गुप्ता ने इस तथ्य को खास तौर से रेखांकित करके बाजी पलटने तथा पंकज त्यागी व अतुल गुप्ता को निशाने पर लाने की जमीन तैयार की है कि 2010 से 2012 के बीच जब ब्रांच बिल्डिंग का काम हुआ था, तब वह न तो काउंसिल के सदस्य थे और न ही किसी अन्य रूप में ब्रांच में संबद्ध थे - यानि बिल्डिंग के काम से उनका किसी भी तरह का कोई लेना-देना नहीं था । इस तथ्य के जरिए विजय गुप्ता दरअसल फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग के घपले में दिलचस्पी लेने वाले लोगों के बीच इस सवाल को उकसाने की कोशिश करते नजर आते हैं कि वर्ष 2010 से 2012 के बीच हुए ब्रांच बिल्डिंग के काम को इंस्टीट्यूट की तरफ से कौन सुपरवाइज कर रहा था ? इस सवाल में ही पंकज त्यागी और अतुल गुप्ता के लिए फजीहत के मौके छिपे हैं । फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग के घपले में दिलचस्पी लेने तथा सवाल उठाने वाले लोगों में से किसी ने भी अभी तक इस सवाल पर चूँकि गौर नहीं किया था, इसलिए पंकज त्यागी व अतुल गुप्ता इस मामले में मजे ले रहे थे और फरीदाबाद में विजय गुप्ता की मुसीबत के बीच वह अपनी अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने व बढ़ाने के काम में लगे थे । 
विजय गुप्ता के मनोज फडनिस को लिखे पत्र ने लेकिन उनके मजे को अब किरकिरा कर दिया है । विजय गुप्ता तो अपने पत्र के जरिए सवाल उकसा कर किनारे हो गए, सवाल का जबाव दूसरों ने प्राप्त कर लिया और पाया/जाना कि उस दौरान हुए ब्रांच बिल्डिंग के काम को इंस्टीट्यूट की तरफ से सुपरवाइज करने की जिम्मेदारी पंकज त्यागी को सौंपी गई थी, और उस दौरान पंकज त्यागी बिल्डिंग कमेटी के चेयरमैन थे । ऐसे में, उस दौरान हुए घपले की जिम्मेदारी और जबावदेही क्या पंकज त्यागी की नहीं बनती है ? मजे की और पंकज त्यागी के लिए खुशकिस्मती की बात यह रही कि फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग में घपले को लेकर आरोपों-प्रत्यारोपों के मोटे तौर पर जो दो खेमे बने नजर आये, उनमें से किसी ने भी घपले में पंकज त्यागी की भूमिका को लेकर सवाल नहीं उठाया । ब्रांच बिल्डिंग में घपले को लेकर जो लोग विजय गुप्ता को घेरने की कोशिशों में जुटे, उन्होंने तो पंकज त्यागी की भूमिका पर गौर नहीं ही किया और पंकज त्यागी के 'अपराध' भी विजय गुप्ता के सिर मढ़ दिए; मजे की तथा हैरान करने की बात लेकिन यह रही कि विजय गुप्ता और उनके समर्थकों की तरफ से भी जो सफाईयाँ आईं, उनमें भी इस तथ्य का कोई जिक्र नहीं हुआ । पर अब जब इस मामले में बात काफी आगे बढ़ गई है, तब इस मामले की अभी तक ढकी/छिपी परतें खुलने लगीं हैं और इस प्रक्रिया में पंकज त्यागी की भूमिका सवालों के घेरे में आ गई है । फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग का ऑडिट करने के लिए इंस्टीट्यूट द्वारा नियुक्त की गई एलसी कैलाश एंड कंपनी ने जिन वित्तीय अनियमितताओं को रेखांकित किया है, उसके लिए बिल्डिंग कमेटी के चेयरमैन के नाते पंकज त्यागी भी जिम्मेदार और जबावदेह हैं । इस तथ्य के खुल जाने से पंकज त्यागी के लिए समस्या और मुसीबत की बात यह हो गई है कि उनके जिस 'अपराध' के लिए अभी तक विजय गुप्ता को 'पीटा' जा रहा था, उसके लिए अब उन्हें लपेटे में लिया जायेगा । 
फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग के घपले से जुड़ी यह परत खुली है तो इसके पीछे की राजनीति की परतें भी खुलने लगी हैं । उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 से 2012 के बीच फरीदाबाद ब्रांच पर प्रमोद माहेश्वरी, एमएस लड्ढा, संजय चांडक, संतोष गुप्ता ग्रुप का कब्जा था - जो ब्रांच के पदाधिकारियों का चुनाव करने से लेकर ब्रांच में क्या/कैसे होगा तक के फैसले कर रहे थे । वर्ष 2009 के चुनाव में इस ग्रुप ने पंकज त्यागी का समर्थन किया था । उस चुनाव में पंकज त्यागी जीत गए थे, और विजय गुप्ता हार गए थे । इसका नतीजा यह रहा कि वर्ष 2010 से 2012 के बीच फरीदाबाद ब्रांच में इस ग्रुप का कब्जा पूरी तरह रहा, और इन्होंने विजय गुप्ता के नजदीकियों व समर्थकों को पीछे धकेले रखा । पंकज त्यागी ने ब्रांच बिल्डिंग कमेटी के चेयरमैन पद की जिम्मेदारी लेकर इस ग्रुप के साथ अपनी मिलीभगत का रिश्ता और मजबूत कर लिया; ब्रांच बिल्डिंग के घपले की बंदरबाँट में मिलीभगत का यह रिश्ता भी सवालों के घेरे में है । वर्ष 2010 से 2012 के बीच फरीदाबाद ब्रांच की बिल्डिंग का निर्माण हो गया, उसमें घपला हो गया और उसकी बंदरबाँट भी हो गयी - लेकिन इस ग्रुप के साथ बदकिस्मती यह हुई कि 2012 के चुनाव में इनके समर्थन के बावजूद पंकज त्यागी चुनाव हार गए और विजय गुप्ता चुनाव जीत गए । इनकी बदकिस्मती ने इनका और पीछा किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष 2013 में ब्रांच बिल्डिंग में हुए घपले की पोल खुल गई । ऐसे में, घपले के लिए जिम्मेदार लोगों को इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में एक मददगार की जरूरत महसूस हुई । यह जरूरत इन्हें अतुल गुप्ता के पास ले गई । अतुल गुप्ता को फरीदाबाद में अपनी राजनीतिक जमीन बढ़ाने की जरूरत थी ही, लिहाजा वह इनके साथ तालमेल बनाने के लिए तुरंत तैयार हो गए ।
मजे की बात यह रही कि फरीदाबाद बिल्डिंग के घपलों के लिए जिम्मेदार लोगों को अतुल गुप्ता से जिस मदद की दरकार थी, उनकी वह मदद विजय गुप्ता ने ही कर दी । घपले के जिम्मेदार लोगों पर इंस्टीट्यूट की जो तलवार गिर सकती थी, उसे विजय गुप्ता ने ही गिरने से रोक लिया । कुछेक लोगों को लगता है कि विजय गुप्ता ने ऐसा होशियारी के चलते किया, जो अंततः उनकी बेवकूफी साबित हुआ; अन्य कुछेक लोगों का मानना/कहना लेकिन यह है कि विजय गुप्ता ने जो किया वह उनका बेवकूफीभरा फैसला ही था और वह अंततः वही साबित भी हुआ । फरीदाबाद की राजनीति को नजदीक से देखने/समझने वाले लोगों का मानना/कहना है कि विजय गुप्ता दूसरों के 'अपराधों' के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने की राजनीति के चलते आज जिस मुसीबत में फँसे हुए हैं, वह अपनी खुद की करनी से ही फँसे हैं । दिलचस्प नजारा यह है कि वर्ष 2010 से 2012 के बीच ब्रांच बिल्डिंग के काम में घपला करने वाले लोगों को संरक्षण तो पंकज त्यागी व अतुल गुप्ता दे रहे हैं, और आरोपों व सवालों का सामना विजय गुप्ता को करना पड़ रहा है । यह परिदृश्य देख कर विजय गुप्ता के विरोधियों को भी यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा है कि राजनीतिक चतुराई के मामले में विजय गुप्ता के विरोधी उन पर भारी पड़े हैं; और विजय गुप्ता अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता की कीमत चुका रहे हैं । पर अब लगता है कि जैसे विजय गुप्ता के सितारे जाग रहे हैं । दरअसल उनके तमाम विरोधी जो अभी तक एकजुट थे, अब बिखरते दिख रहे हैं - और उनके बिखरने में ही विजय गुप्ता को अपने लिए उम्मीद की किरण नजर आ रही है । 
फरीदाबाद की राजनीति में विजय गुप्ता विरोधी जो लोग पहले पंकज त्यागी के साथ थे और फिर अतुल गुप्ता के साथ आ गए थे, उनमें से कुछ को पंकज त्यागी पुनः अपने साथ जोड़ने में सफल हुए हैं । इनमें कुछेक लोग राजेश शर्मा की वकालत करते हुए भी सुने/देखे गए हैं । इस तरह, फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग के घपले से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोग अतुल गुप्ता, पंकज त्यागी व राजेश शर्मा के साथ खड़े दिख रहे हैं - जो अभी तक तो विजय गुप्ता को ही निशाने पर लिए हुए थे; लेकिन जो अब एक-दूसरे को भी गिराने के प्रयत्नों में भी लग गए हैं । मनोज फडनिस को विजय गुप्ता द्वारा लिखे गए पत्र ने उनके विरोधियों के बीच जो खलबली मचाई है, उससे उनके बीच के अंतर्विरोध और तल्ख होने लगे हैं; तथा उन्होंने अपनी अपनी खाल बचाने के उद्देश्य से विजय गुप्ता को भूल/छोड़ कर एक दूसरे को निशाना बनाना शुरू कर दिया है । इससे विजय गुप्ता के लिए राहत की स्थिति बनी है; लेकिन देखने की बात यह होगी कि इस स्थिति का वह कोई फायदा सचमुच में उठा पाते हैं या नहीं ? फरीदाबाद में ब्रांच बिल्डिंग के घपले की आड़ को लेकर विजय गुप्ता, पंकज त्यागी, अतुल गुप्ता, राजेश शर्मा के बीच जो राजनीति हो रही है - उसमें नवीन गुप्ता और संजय अग्रवाल के लिए मजे की स्थिति बनी हुई है । फरीदाबाद में इन दोनों का जो समर्थन-आधार है, वह चूँकि इस झमेले से अलग है - इसलिए इन्हें इस झमेले से नुकसान तो कुछ होना नहीं है; इस झमेले के कारण जो नए समीकरण बनेंगे उनमें फायदा बनाने का मौका उन्हें जरूर मिल सकता है । विजय गुप्ता के मनोज फडनिस को लिखे पत्र से इसीलिए पंकज त्यागी व अतुल गुप्ता के सामने समस्या आ खड़ी हुई है ।

Friday, November 13, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में निर्मल सोनी की बुरी और निराशाजनक स्थिति देख सत्यनारायण माहेश्वरी उनके समर्थन से पीछे हटे, तो देवेंद्र सोमानी का पलड़ा और भारी हुआ

उदयपुर । सत्यनारायण माहेश्वरी और उनके समर्थकों ने निर्मल सोनी से जिस तरह बचना शुरू कर दिया है, उसके चलते सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत निर्मल सोनी की उम्मीदवारी के लिए संकट और बढ़ गया है । उल्लेखनीय है कि सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में सत्यनारायण माहेश्वरी जब तक निर्मल सोनी की उम्मीदवारी का समर्थन करते दिख रहे थे, तब तक निर्मल सोनी को चुनावी मुकाबले में बने रहने की उम्मीद थी; लेकिन अब जब सत्यनारायण माहेश्वरी ने उनकी उम्मीदवारी के समर्थक के रूप में दिखने से बचना शुरू कर दिया है, तो निर्मल सोनी के लिए दो तरफा मुसीबत खड़ी हो गई है और उनकी उम्मीदवारी को मिल सकने वाले समर्थन का ग्राफ तेजी से गिर गया है । निर्मल सोनी के लिए एक तरफ तो मुसीबत यह हुई कि सत्यनारायण माहेश्वरी के समर्थकों का समर्थन मिलने की संभावना धूमिल पड़ी, और दूसरी मुसीबत यह हुई कि सत्यनारायण माहेश्वरी के पीछे हटने से लोगों के बीच उनकी उम्मीदवारी की कमजोरी का लोगों के बीच संदेश गया । इस दूसरी मुसीबत ने रीजनल काउंसिल उम्मीदवार के रूप में निर्मल सोनी के लिए संकट ज्यादा बढ़ा दिया है । 
सत्यनारायण माहेश्वरी के नजदीकियों के अनुसार, उन्हें शुरू में दरअसल यह लगा कि रीजन में निर्मल सोनी का अच्छा समर्थन-आधार है और इसलिए उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करने में उनका भी फायदा है । लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि रीजनल काउंसिल उम्मीदवार के रूप में उदयपुर में भी और राजस्थान की अन्य ब्रांचेज में भी निर्मल सोनी की बजाए देवेंद्र सोमानी का पलड़ा भारी है; और तब उन्हें निर्मल सोनी की उम्मीदवारी के साथ बने रहने तथा 'दिखने' में अपना नुकसान नजर आया । इसके चलते सत्यनारायण माहेश्वरी ने निर्मल सोनी की उम्मीदवारी के समर्थन से पीछा छुड़ा लेने में अपनी भलाई देखी/पहचानी । सत्यनारायण माहेश्वरी के नजदीकियों का कहना है कि पिछले चुनाव में निर्मल सोनी हालाँकि चुनाव जीत नहीं सके थे, किंतु उनकी स्थिति चूँकि बहुत बुरी नहीं थी - इसलिए हमें लगा कि निर्मल सोनी ने पिछली बार की अपनी स्थिति में सुधार ही किया होगा और ऐसे में उनके साथ रहने में हमें लाभ ही होगा; किंतु हमने लोगों के बीच आना-जाना शुरू किया तो पता चला कि इस बार देवेंद्र सोमानी ने उनका सारा खेल ही बिगाड़ा हुआ है, और रीजनल काउंसिल उम्मीदवार के रूप में निर्मल सोनी के लिए इस बार बहुत ही बुरी स्थिति है । 
सत्यनारायण माहेश्वरी की तरफ से मिले इस झटके से निर्मल सोनी के समर्थकों के बीच भारी सन्नाटा खिंचा है । हालाँकि उनकी तरफ से यह दिखाने/जताने के प्रयास भी हो रहे हैं कि सत्यनारायण माहेश्वरी के इस बदले रवैये से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है । निर्मल सोनी के समर्थकों का कहना/पूछना है कि सत्यनारायण माहेश्वरी अपने स्वार्थ में उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करने को तैयार हुए थे, इसलिए अब समर्थन से पीछे हटने के उनके फैसले से निर्मल सोनी की स्थिति पर भला क्या असर पड़ेगा । निर्मल सोनी लोगों को फोन कर कर के बता रहे हैं कि इस बार मैं आपको जीत के दिखाऊँगा । निर्मल सोनी के बारे में लोगों के बीच यह प्रचार दरअसल जोर पकड़ गया है कि वह दो बार उदयपुर ब्रांच का चुनाव लड़े हैं तथा दोनों बार हारे हैं, और पिछली बार रीजनल काउंसिल का चुनाव भी वह नहीं जीत सके - इसलिए लगता है कि चुनाव जीतना या तो उनकी किस्मत में नहीं है; और या चुनाव जीतने के लिए जिस तरह के हुनर की जरूरत होती है, वह हुनर उनमें नहीं है ।
इस बार, रीजनल काउंसिल के चुनाव में उदयपुर से ही देवेंद्र सोमानी द्वारा प्रस्तुत की गई उम्मीदवारी ने निर्मल सोनी की उम्मीदवारी के लिए शुरू में ही संकट खड़ा कर दिया था । लोगों को लगा कि पिछली बार निर्मल सोनी जब उदयपुर से अकेले उम्मीदवार थे, तब चुनाव नहीं जीत सके - तो इस बार उदयपुर से देवेंद्र सोमानी के भी उम्मीदवार हो जाने से तो उनके लिए और भी मुसीबत हो गई है । चुनाव अभियान आगे बढ़ा तो देवेंद्र सोमानी को उदयपुर में भी और राजस्थान की अधिकतर ब्रांचेज के साथ साथ रीजन के दूसरे क्षेत्रों में भी अच्छा समर्थन मिलता दिखा । निर्मल सोनी की तुलना में देवेंद्र सोमानी का चुनाव अभियान भी लोगों ने ज्यादा व्यापक, सक्रियताभरा और संगठित पाया; जिसके कारण उनके समर्थन-आधार में तेजी से वृद्धि हुई । देवेंद्र सोमानी के समर्थन-आधार में वृद्धि हुई, तो नतीजे के रूप में निर्मल सोनी का समर्थन-आधार घटा । जो कोई भी निर्मल सोनी से यह बात कहता, निर्मल सोनी उसे देवेंद्र सोमानी का 'आदमी' घोषित कर देते । लेकिन अब जब उम्मीदवार के रूप में निर्मल सोनी की बुरी और निराशाजनक स्थिति देख कर सत्यनारायण माहेश्वरी ने भी उनके समर्थन से हाथ खींच लिए हैं, तो निर्मल सोनी के लिए अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में लोगों के बीच कोई तर्क देना खासा मुश्किल हो गया है । अब सत्यनारायण माहेश्वरी को तो वह देवेंद्र सोमानी का 'आदमी' घोषित नहीं कर सकते न ! 

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल की चुनावी लड़ाई में रोहित रुवाटिया अग्रवाल की आक्रामक व प्रभावी सक्रियता से गौतम शर्मा को रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने की अपनी योजना में पलीता लगता दिख रहा है

जयपुर । रोहित रुवाटिया अग्रवाल ने सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने हेतु जिस तरह की सक्रियता दिखाई हुई है, उसके चलते गौतम शर्मा के लिए रीजनल काउंसिल में सबसे ज्यादा वोट पाने का लक्ष्य दूर जाता नजर आ रहा है । उल्लेखनीय है कि उम्मीदवार के रूप में गौतम शर्मा ने चुनाव में अपनी अच्छी पकड़ प्रदर्शित की है, और राजस्थान के उम्मीदवारों में उन्हें सबसे आगे देखा/पहचाना जा रहा है । उनके इस प्रदर्शन को देखते हुए उनके कुछेक समर्थक दावा करने लगे कि गौतम शर्मा राजस्थान में ही नहीं, बल्कि पूरे रीजन में सबसे ज्यादा वोट पायेंगे और रीजन में सबसे आगे रहेंगे ।
रीजन में सबसे आगे रहने वाले उम्मीदवार के रूप में हालाँकि अभी तक भोपाल के अभय छाजेड़ को देखा/पहचाना जा रहा है । अभय छाजेड़ अकेले उम्मीदवार हैं, जो सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल की मौजूदा टर्म में सदस्य होते हुए अगली टर्म के लिए चुनावी मैदान में हैं । इस नाते, इस बार के चुनावी खेल में अभय छाजेड़ को न सिर्फ सबसे सुरक्षित उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाता रहा है, बल्कि नंबर एक की पोजीशन पर भी माना जाता रहा है । लेकिन जैसे जैसे चुनाव अभियान ने गर्मी पकड़ी, वैसे वैसे गौतम शर्मा के भी 'भाव' बढ़े और नंबर एक की पोजीशन के लिए उन्हें भी दावेदार के रूप में देखा/पहचाना जाने लगा । जयपुर में उनके समर्थकों की तरफ से सुनाई देने लगा कि काउंसिल में सदस्य होने के नाते रीजन में अभय छाजेड़ की पहचान का दायरा भले ही बड़ा हो, लेकिन गौतम शर्मा ने अपने चुनावी प्रबंधन को जिस तरह से मैनेज किया है और खास तौर से जयपुर व राजस्थान में अपने लिए समर्थन जुटाया है, उसके चलते रीजनल काउंसिल के चुनाव में उनके लिए वोट प्राप्त करने के मामले में अभय छाजेड़ से आगे निकलना मुश्किल नहीं होगा । 
किंतु जयपुर में गौतम शर्मा के जो समर्थक अभी कल तक यह दावा करते हुए सुने जा रहे थे, उन्हीं में से कुछेक समर्थक अब यह आशंका व्यक्त करने लगे हैं कि रोहित रुवाटिया के कारण गौतम शर्मा का रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने का लक्ष्य खतरे में पड़ सकता है । गौतम शर्मा के ही समर्थकों का कहना है कि राजस्थान की विभिन्न ब्रांचेज के लोगों से उन्हें जो फीडबैक मिल रहा है, उसमें यह बात कॉमन रूप से सामने आ रही है कि रोहित रुवाटिया अग्रवाल ने राजस्थान की अधिकतर ब्रांचेज में अपने लिए समर्थन पैदा किया है । इसे उनके आक्रामक व प्रभावी तरीके से चलाए जा रहे प्रचार/संपर्क अभियान के नतीजे के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । हालाँकि कुछेक लोगों का यह भी मानना/कहना है कि रोहित रुवाटिया अग्रवाल ने अपने आक्रामक व प्रभावी तरीके से चलाए गए प्रचार/संपर्क अभियान से लोगों के बीच अपने आप को परिचित तो कराया है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस परिचय से उन्हें वोट भी मिलेंगे ही । तकनीकी रूप से यह बात सच तो है, लेकिन यह एक ऐसा सच है जो प्रत्येक उम्मीदवार पर लागू होता है । उम्मीदवार अपने प्रचार/संपर्क अभियान से लोगों के बीच अपने आप को परिचित कराता है, और कोई नहीं सकता कि इस परिचय के चलते उसे वोट सचमुच में कितने मिलेंगे । यह बात रोहित रुवाटिया अग्रवाल के बारे में भी सच है, तो गौतम शर्मा के बारे में भी सच है, और अन्य दूसरे उम्मीदवार भी इस सच के दायरे में हैं । 
गौतम शर्मा के समर्थकों को डर दरअसल यह जान/देख कर हुआ कि प्रचार/संपर्क अभियान में रोहित रुवाटिया अग्रवाल का पलड़ा सबसे भारी है; हालाँकि कुछेक लोग उनकी बातों और उनके दावों को लेकर उनके मैच्योरिटी लेबल के बारे में सवाल जरूर उठा रहे हैं - लेकिन इससे उनकी चुनावी संभावना पर कोई प्रतिकूल असर पड़ता नहीं दिख रहा है । रोहित रुवाटिया अग्रवाल ने युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच जिस तरह का परिचय बनाया है, उसके कारण तो गौतम शर्मा के लिए अपना लक्ष्य पाना मुश्किल बना ही है; अग्रवाल वोटों के मामले में भी रोहित रुवाटिया अग्रवाल उनकी योजना को लंगड़ी लगाते दिख रहे हैं । अग्रवाल समाज में प्रभाव रखने वाले एक बड़े नेता ओपी अग्रवाल का समर्थन जुटा कर गौतम शर्मा ने अग्रवालों का वोट जुटाने का जो जुगाड़ किया था, रोहित रुवाटिया अग्रवाल ने अपनी सक्रियता से उनके उस जुगाड़ में भारी सेंध लगा दी है । हर उम्मीदवार का अपना अपना समर्थन आधार होता है, और हर समर्थन-आधार में एक से अधिक उम्मीदवारों को खपाने की क्षमता भी होती है; इसलिए रोहित रुवाटिया अग्रवाल की सक्रियता गौतम शर्मा को कोई सीधी चुनौती नहीं देती है - लेकिन खुद गौतम शर्मा के समर्थकों का ही कहना है कि रोहित रुवाटिया अग्रवाल की आक्रामक व प्रभावी सक्रियता रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने की गौतम शर्मा की योजना में पलीता जरूर लगाती दिख रही है ।

Thursday, November 12, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के उम्मीदवार रतन सिंह यादव अपने चुनाव अभियान में किए गए झूठे दावे के 'पकड़े जाने' के कारण मुसीबत में फँसे

नई दिल्ली । रतन सिंह यादव अपने एक घनघोर किस्म के समर्थक जयदीप सिंह गुसाईं के कारण भारी फजीहत का शिकार हो गए हैं - जिसके चलते उन्हें और उनके समर्थकों को लोगों के बीच से भागना/छिपना पड़ रहा है । नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के उम्मीदवार रतन सिंह यादव तथा उनके घनघोर समर्थक जयदीप सिंह गुसाईं दरअसल उस 'सोच' के शिकार हो गए जिसमें चुनावी जोश में उम्मीदवार और उनके समर्थक लंबी-लंबी फेंकने लगते हैं - वह समझते हैं कि लोग मूर्ख हैं और कुछ जानते/समझते नहीं हैं; तथा उन्हें अपनी झूठी बातों से उल्लू बनाया जा सकता है । उल्लेखनीय है कि इसी सोच के चलते जयदीप सिंह गुसाईं ने ऊँची ऊँची बातों से रतन सिंह यादव की तारीफों के पुल बाँधते हुए दावा किया कि रतन सिंह यादव इंस्टीट्यूट की 'कई' कमेटियों में रहे हैं । उनके इस दावे पर सवाल उठे और उनसे पूछा गया कि रतन सिंह यादव इंस्टीट्यूट की कौन कौन सी कमेटियों में कब कब रहे ? यह सीधा सा और आसान सा सवाल सुनकर जयदीप सिंह गुसाईं के होश उड़ गए । इस सवाल की उन्हें उम्मीद ही नहीं थी । उन्होंने तो सोचा यह था कि वह जो कुछ भी अंटशंट बकेंगे, लोग उसे चुपचाप सुन लेंगे और मान लेंगे । उनकी बदकिस्मती से किंतु ऐसा नहीं हुआ । उनके दावे के झूठ को लोगों ने तुरंत 'पकड़' लिया । 
जयदीप सिंह गुसाईं ने हालाँकि शुरू में साहस दिखाया और वह सवाल का सामना करते हुए दिखे भी - उन्होंने घोषणा की कि वह दो-तीन दिन में इंस्टीट्यूट की उन कमेटियों के नाम बतायेंगे, जिनमें रतन सिंह यादव रहे हैं । यह घोषणा करते हुए वह फिर लोगों को मूर्ख समझने वाली सोच का शिकार हुए । दरअसल उन्होंने सोचा कि दो-तीन में लोग बात भूल जायेंगे और उनका झूठ बेनकाब होने से बच जायेगा । उनकी बदकिस्मती लेकिन उनके पीछे पीछे चल रही थी । लोग बात को भूले ही नहीं, और सवाल दोहराते रहे । बात बढ़ती देख रतन सिंह यादव ने खुद मोर्चा सँभाला, लेकिन सँभालने की बजाये उन्होंने बात को और बिगाड़ दिया । बात को रफा-दफा करने के उद्देश्य से रतन सिंह यादव ने कहा कि अभी मैं चुनाव अभियान में व्यस्त हूँ, चुनाव पूरा होने पर मैं उन कमेटियों के नाम बतायूँगा जिनमें मैं रहा हूँ । रतन सिंह यादव से यह सुनकर मामला और भड़क गया । लोगों ने रतन सिंह यादव और जयदीप सिंह गुसाईं को बुरी तरह हड़काया कि लोगों को मूर्ख समझते हो तथा झूठे दावे करते हो । लोगों की नाराजगी और अपनी फजीहत देख कर जयदीप सिंह गुसाईं ने सोशल साइट पर से उक्त दावा करने वाली अपनी पोस्ट को हटा लिया । अपने दावे से भागने/छिपने की उनकी इस कार्रवाई से लोगों के बीच नाराजगी और बढ़ी । लोगों का कहना है कि जयदीप सिंह गुसाईं और रतन सिंह यादव को या तो इंस्टीट्यूट की उन 'कई' कमेटियों के नाम बताने चाहिये जिनमें रतन सिंह यादव के होने/रहने के दावे किए गए, अन्यथा अपनी इस हरकत के लिए चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से माफी माँगनी चाहिए तथा वायदा करना चाहिए कि अपनी उम्मीदवारी के प्रचार अभियान में वह कोई झूठा दावा नहीं करेंगे । रतन सिंह यादव और जयदीप सिंह गुसाईं अभी तक इन दोनों में से कोई भी काम नहीं कर सके हैं, तथा छिप-छिपाकर यह उम्मीद बनाये हुए हैं कि जल्दी ही यह बबाल अपने आप थम जायेगा । 
जयदीप सिंह गुसाईं के जोशो-खरोश ने रतन सिंह यादव को जैसा फँसाया है, उसने लोगों को सुधीर कत्याल द्वारा हरित अग्रवाल को फँसाए जाने का मामला याद दिला दिया है । सुधीर कत्याल ने जीएमसीएस के मुद्दे को लेकर बेबकूफ़ाना तरीके से बड़ी उछल-कूद मचाई थी । उन्होंने इस बात पर गौर ही नहीं किया कि उनकी इस उछल-कूद से उनके ही उम्मीदवार हरित अग्रवाल का ही बंटाधार हो रहा है । हरित अग्रवाल ने जब उनके कान उमेंठे, तब जीएमसीएस के मुद्दे को उन्होंने छोड़ा । सुधीर कत्याल जैसे समर्थक की बेबकूफ़ाना हरकत से हरित अग्रवाल का जितना जो नुकसान हुआ, वह तो एक अलग बात है; अब लेकिन यह दिलचस्प नजारा देखने को मिल रहा है कि सुधीर कत्याल जैसे 'महान नेता' की महानता अब सिर्फ गेट-टु-गेदर की सूचना देने लायक ही बची रह गई है । 
पहले हरित अग्रवाल और अब रतन सिंह यादव अपने अपने घनघोर समर्थक के बेबकूफ़ाना जोश-खरोश के कारण जिस फजीहत का शिकार बने हैं, उसे देख कर दूसरे उम्मीदवारों को अपने अपने समर्थकों पर निगाह रखने की जरूरत महसूस हुई है । हरित अग्रवाल और रतन सिंह यादव की हालत देख कर लगता है कि जोशीले समर्थक मदद कम करते हैं, मुसीबत ज्यादा पैदा करते हैं ।

Tuesday, November 10, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3100 में इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई की तरफ से राजीव सिंघल से मिले आश्वासन के भरोसे ही सुनील गुप्ता ने मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी की बलि लेकर 'लक्ष्मी जी' की व्यवस्था करके अपनी दीवाली तो अच्छे से मनाने का इंतजाम कर लिया है

मेरठ । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता ने अपनी दीवाली अच्छे से मनाने की व्यवस्था कर ली है । उनके नजदीकियों का ही कहना/बताना है कि राजीव सिंघल की तरफ से 'लक्ष्मी जी' का इंतजाम करने के उद्देश्य से ही सुनील गुप्ता ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की उम्मीदवारी के लिए प्रस्तुत मंजु गुप्ता के आवेदन को निरस्त कर दिया है । उल्लेखनीय है कि राजीव सिंघल और उनके समर्थक पहले से ही मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी को प्रस्तुत न होने देने के प्रयासों में लगे हुए थे, और उनकी तरफ से सुनील गुप्ता पर मंजु गुप्ता के आवेदन को स्वीकार न करने के लिए भारी दबाव भी था । इसी कारण से राजीव सिंघल और उनके समर्थकों ने मंजु गुप्ता के क्लब में बबाल तक करवा दिया, जिसका मामला रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय तक पहुँचा । रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय ने लेकिन राजीव सिंघल और उनके समर्थकों की चाल को कामयाब नहीं होने दिया । मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी के संदर्भ में रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय ने जैसा स्पष्ट रुख अपनाया, उसके चलते सुनील गुप्ता चाहते हुए भी राजीव सिंघल और उनके समर्थकों की 'उचित' सेवा नहीं कर सके । राजीव सिंघल और उनके समर्थकों ने लेकिन हार नहीं मानी । दरअसल उन्हें पता था कि जब सारे फार्मूले फेल हो जाएँ तब भी सुनील गुप्ता से काम कराने के लिए एक फार्मूला बचा रह जाता है । सुनील गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार, उसी अंतिम फार्मूले को इस्तेमाल करते हुए सुनील गुप्ता से मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी को निरस्त करने की कीमत पूछी गई - तो सुनील गुप्ता ने रोटरी इंटरनेशनल के फैसले को अनदेखा करने में देर नहीं लगाई । 
सुनील गुप्ता के बारे में दरअसल हर कोई यह जान गया है कि सुनील गुप्ता 'न बाप बड़ा न मय्या, सबसे बड़ा रुपय्या' फलसफे को मानने वाले व्यक्ति हैं । रोटेरियन और डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में सुनील गुप्ता यह भी समझ गए हैं कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में पैसा बनाने/कमाने के जो मौके अभी उनके पास हैं, वह ज्यादा समय तक नहीं बने/बचे रहेंगे - इसलिए पैसा बनाने/कमाने के चक्कर में हो रही बदनामी की परवाह करना भी उन्होंने छोड़ दिया है । सुनील गुप्ता में हालाँकि थोड़ा सा डर इस बात का जरूर दिखाई दे रहा है कि उनकी कारस्तानियों के चलते उनका डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का पद कहीं न छिन जाए । उनके नजदीकियों का कहना है कि लेकिन इस संदर्भ में वह राजीव सिंघल की तरफ से मिले इस आश्वासन पर भरोसा कर रहे हैं कि उन्होंने इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई से हरी झंडी ले ली है कि सुनील गुप्ता से गवर्नरी नहीं छीनी जाएगी । सुनील गुप्ता के नजदीकियों का कहना है कि सुनील गुप्ता ने इस भरोसे के साथ-साथ अपने आप को इस बात के लिए भी तैयार कर लिया है कि यदि उनकी गवर्नरी छिन जाने का खतरा हो भी, तो भी उन्हें पैसा बनाने/कमाने के मौके नहीं छोड़ने हैं । सुनील गुप्ता ने जब यह तय कर ही लिया कि इज्जत चली जाए, कोई परवाह नहीं; गवर्नरी चली जाए, कोई परवाह नहीं; लेकिन पैसा आने का मौका वापस नहीं लौटना चाहिए - तब राजीव सिंघल को अपना काम कराना मुश्किल नहीं लगा । 
उल्लेखनीय है कि सुनील गुप्ता काफी समय तक मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी के आवेदन को स्वीकार करने से बचते फिर रहे थे । मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी के आवेदन को स्वीकार करने के बाबत रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय से स्पष्ट आदेश न मिला होता, तो सुनील गुप्ता हरगिज हरगिज उनकी उम्मीदवारी का आवेदन स्वीकार न करते; लेकिन रोटरी इंटरनेशनल के फैसले से उनके हाथ बंध गए और वह मनमानी न कर सकें । सुनील गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार, मंजु गुप्ता की उम्मीदवारीरूपी काँटे को निकालने लिए राजीव सिंघल की तरफ से सुनील गुप्ता को दीवाली के मौके पर 'लक्ष्मी जी' का स्वागत करने का ऑफर लेकिन जैसे ही मिला - तब फिर सुनील गुप्ता ने रोटरी इंटरनेशनल के फैसले को भी धता बताने में देर नहीं की । 'लक्ष्मी जी' की कृपा के असर में सुनील गुप्ता ने इलेक्शन कमेटी के सदस्यों के रूप में अपने डिस्ट्रिक्ट के रवि भार्गव, ललित मोहन गुप्ता तथा अखिलेश कोठीवाल जैसे पूर्व गवर्नर्स को भी नहीं बख्शा । दरअसल हुआ यह कि इलेक्शन कमेटी की मीटिंग में कमेटी के इन तीनों सदस्यों को सुनील गुप्ता से यह सुनकर हैरानी हुई कि उन्होंने मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी का आवेदन निरस्त कर दिया है । इन तीनों सदस्यों ने इस मामले से संबंधित रिकॉर्ड देखना चाहा तो सुनील गुप्ता ने टालमटोल करके रिकॉर्ड दिखाने से मना कर दिया । सुनील गुप्ता के इस रवैये से यह तीनों निराश और नाराज तो बहुत हैं, लेकिन सुनील गुप्ता को इनकी नाराजगी की परवाह इसलिए नहीं है - क्योंकि वह यह विश्वास कर रहे हैं कि यह तीनों पूर्व गवर्नर्स उनसे नाराज भले ही हों, किंतु उनका कुछ कर नहीं पायेंगे । 
रोटरी को 'बेचने' के मामले में सुनील गुप्ता जो हिम्मत दिखा रहे हैं, उसका सबसे गंभीर पहलू यह है कि उनकी इस हिम्मत के पीछे इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई के समर्थन की बात की जा रही है । राजीव सिंघल और उनके समर्थक मनोज देसाई के साथ अपनी नजदीकी का दावा करते हुए सुनील गुप्ता को भरोसा दिलाये हुए हैं कि वह उनकी गवर्नरी को आँच नहीं आने देंगे । राजीव सिंघल और उनके समर्थकों ने मनोज देसाई का नाम लेकर सुनील गुप्ता को एमएस जैन तथा हितेश कुमार शर्मा की तरफ से भी आश्वस्त किया है कि यह दोनों नाराज चाहें जितने हों तथा बातें चाहें जो कर रहे हों - किंतु सचमुच में करेंगे कुछ नहीं । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट के कई गवर्नर्स सुनील गुप्ता की कारस्तानियों के चलते सुनील गुप्ता से खासे नाराज हैं, और उनकी इस नाराजगी के डर से ही सुनील गुप्ता कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग बुलाने की हिम्मत नहीं कर रहे थे । राजीव सिंघल और उनके समर्थकों ने लेकिन उन्हें आश्वस्त किया है कि मनोज देसाई के नाम पर सभी गवर्नर्स को मैनेज कर लिया गया है और नाराज गवर्नर्स थोड़ा बहुत गाली-गलौच भले कर लें, लेकिन उनकी कमाई/लूट के संदर्भ में उनकी गवर्नरी पर आँच नहीं आने देंगे । यह आश्वासन मिलने के बाद ही सुनील गुप्ता कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग बुलाने के लिए राजी हुए हैं । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में और रोटरी को बेचने की सुनील गुप्ता की कार्रवाई में इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई का नाम जिस धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है - उसने डिस्ट्रिक्ट 3100 में चल रही घटनाओं को खासा महत्वपूर्ण बना दिया है । 
मनोज देसाई की तरफ से राजीव सिंघल से मिले आश्वासन के भरोसे ही सुनील गुप्ता ने मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी की बलि लेकर 'लक्ष्मी जी' की व्यवस्था करके अपनी दीवाली तो अच्छे से मनाने का इंतजाम कर लिया है ।

Friday, November 6, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की फरीदाबाद ब्रांच में विजय गुप्ता, दीपक गर्ग और तेजेंद्र भारद्वाज को क्लीन चिट देने की गुमनाम कोशिश से साबित है कि बेईमान लोग कायर भी हैं

फरीदाबाद । चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की फरीदाबाद ब्रांच में ऑडीटोरियम बनाने में हुए घपले की जिम्मेदारी थोपने को लेकर फरीदाबाद में आरोपों-प्रत्यारोपों का जो खेल चल रहा है, वह अब उस मुकाम तक जा पहुँचा है - जहाँ 'नंगे' हुए लोग यह साबित करने का प्रयास करने में जुट गए हैं कि 'हमाम में तो सभी नंगे थे'; और अपने इस प्रयास में वह हमाम से बाहर आने को भी तैयार हो गए हैं - यानि उनका जो नंगापन अभी तक दूसरे लोग दिखा रहे थे, उसे अब वह खुद ही दिखाने को तैयार हो गए हैं । उल्लेखनीय है कि फरीदाबाद ब्रांच में आर्थिक घपलों को लेकर अभी तक विजय गुप्ता, दीपक गर्ग और तेजेंद्र भारद्वाज निशाने पर थे; लेकिन अभी हाल में सामने आए एक गुमनाम पत्र में दावा किया गया है कि इन बेचारों ने तो इंस्टीट्यूट की गाइडलाइंस के अनुसार ही काम किया था, और घपलों के लिए वास्तव में जिम्मेदार तो विपिन शर्मा हैं । गौर करने वाला तथ्य यह है कि फरीदाबाद ब्रांच में घपलों के लिए जो लोग विजय गुप्ता, दीपक गर्ग और तेजेंद्र भारद्वाज को जिम्मेदार ठहराते हैं - वह जाने/पहचाने लोग हैं और जो अपनी पहचान के साथ आरोप लगाते रहे हैं तथा सुबूत पेश करते रहे हैं; किंतु जिन लोगों ने घपलों के लिए विपिन शर्मा को जिम्मेदार ठहराया है, उन्होंने अपनी पहचान छिपा कर यह काम किया है । यानि उनमें न तो अपनी पहचान बताने का साहस है, और न उन्होंने सीधे विपिन शर्मा का नाम लिया है । इस तरह से उन्होंने साबित किया है कि जो बेईमान और कायर थे, वह बेईमान और कायर ही रहेंगे । यह कौन लोग हैं ? गुमनाम पत्र में जिस तरह से विजय गुप्ता, दीपक गर्ग और तेजेंद्र भारद्वाज को क्लीन चिट देने की फूहड़ सी कोशिश की गई है, उससे स्पष्ट रूप से जाहिर/साबित है कि इस गुमनाम पत्र के पीछे यही लोग हैं ।
उल्लेखनीय बात यह भी है कि इन चारों लोगों में विजय गुप्ता सेंट्रल काउंसिल की तथा दीपक गर्ग रीजनल काउंसिल की सीट बचाने की चुनौती का सामना कर रहे हैं, और यह दोनों गुरु-चेले के रूप में पहचाने जाते हैं; तेजेंद्र भारद्वाज और विपिन शर्मा रीजनल काउंसिल में प्रवेश करने के लिए प्रयासरत हैं । तेजेंद्र भारद्वाज एक समय विजय गुप्ता गिरोह के सदस्य हुआ करते थे, लेकिन गिरोह में नंबर दो की दौड़ में दीपक गर्ग से पिछड़ जाने के कारण वह हालाँकि गिरोह से अलग हो गए थे, किंतु ब्रांच में मची लूट में चूँकि उनकी भी भागीदारी को रेखांकित किया जाता है, इसलिए उन्हें भी विजय गुप्ता गिरोह के साथ ही देखा जाता है ।  विपिन शर्मा अपने आप को प्रोफेशन में 'ट्रू सेवक' के रूप में प्रस्तुत करते हैं । मजे की बात यह है कि फरीदाबाद में जो लोग विजय गुप्ता गिरोह की कारस्तानियों को उद्घाटित करते हैं, उन्हें विपिन शर्मा के समर्थकों के रूप में देखा/पहचाना जाता है । विजय गुप्ता और उनके गिरोह के सदस्यों के लिए मुसीबत की बात यह है कि करीब दो हजार की सदस्यता वाली फरीदाबाद ब्रांच में उन्हें एक व्यक्ति ऐसा नहीं मिला, जो अपनी पहचान के साथ उनकी करतूतों की वकालत कर सके, और इसलिए ही उन्हें गुमनाम पत्र का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा । यानि जिन लोगों पर बेईमान और कायर होने के आरोप रहे, वह बेईमान और कायर ही साबित हुए । 
फरीदाबाद ब्रांच बिल्डिंग में घपलों का मामला मुख्य रूप से पिछली टर्म से शुरू हुआ, जबकि ब्रांच की मैनेजिंग कमेटी में दूसरे कुछेक लोगों के साथ विजय गुप्ता के पार्टनर महेश गोयल, दीपक गर्ग, तेजेंद्र भारद्वाज व विपिन शर्मा भी होते थे । ब्रांच बिल्डिंग कमेटी के अध्यक्ष विजय गुप्ता रहे हैं । ऑडिट रिपोर्ट में ब्रांच बिल्डिंग में अनियमितता/फ्रॉड बताया गया । एक तर्क यह बनता है कि ब्रांच बिल्डिंग में यदि घपला हुआ, तो ब्रांच की मैनेजिंग कमेटी के सभी सदस्य उसके लिए जिम्मेदार हुए । यह तर्क घपले के लिए जिम्मेदार लोगों को बचाने का काम करता है; क्योंकि जब सभी को जिम्मेदार बता दिया गया तो मामले को रफा-दफा करना आसान हो जाता है । और यदि इस तर्क को सच मान भी लिया जाए, तो यह सवाल तो फिर भी बचा रह जाता है कि घपले के जिम्मेदार सभी लोगों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की/करवाई गई ? इसलिए देखने/समझने की बात यह है कि जब घपले का मामला सामने आया, तो किस किस का क्या क्या रवैया था ? कौन मामले को छिपाना/दबाना चाहता था, और कौन घपलेबाजों को पकड़ना/पकड़वाना चाहता था ? इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में फरीदाबाद ब्रांच की बिल्डिंग के घपले का मामला संजीव चौधरी ने उठाया था, और उन्होंने फंड रोक देने की सिफारिश की थी - जिसका विजय गुप्ता ने जोरदार तरीके से विरोध किया था । विजय गुप्ता का कहना था कि ऑडिट रिपोर्ट में जिसे अनियमितता कहा गया है - उसका संबंध पैसों की हेराफेरी से नहीं है, बल्कि व्यवस्थासंबंधी ऊँच-नीच से है; और इस आधार पर फंड रोकना अन्याय होगा । 
यह विजय गुप्ता ही हैं, जिनकी शह पर ब्रांच के फंड इस्तेमाल करने की प्रक्रिया से ट्रेजरर को बाहर करने/रखने के काम हुए । तेजेंद्र भारद्वाज के चेयरमैन-काल में ट्रेजरर रहे विपिन मंगला ने इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट को लिख कर आरोप लगाया था कि उन्हें ट्रेजरर की जिम्मेदारी नहीं निभाने दी जा रही हैं । विजय गुप्ता की लॉबीइंग के चलते तत्कालीन प्रेसीडेंट ने इस शिकायत पर कान नहीं दिया । उसके अगले वर्ष, सेक्रेटरी के रूप में विपिन मंगला ने ऑडिटोरियम के खर्चे का स्पेशल ऑडिट करने की माँग करते हुए इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट को फिर एक पत्र लिखा था, लेकिन विजय गुप्ता ने उसकी भी कोई सुनवाई नहीं होने दी । उल्लेखनीय है कि फरीदाबाद ब्रांच में मोटे तौर पर दो ग्रुप बन गए थे - एक ग्रुप का नेतृत्व विजय गुप्ता के हाथ में था; और विजय गुप्ता ने हमेशा यह प्रयास किया कि चेयरमैन पद उनके गिरोह के पास ही रहे, जिससे कि वह अपनी बेईमानियों पर पर्दा डाले रह सकें और बेईमानियों को करने का मौका बनाए रख सकें । दूसरे ग्रुप में वह लोग थे जो समय समय पर आरोप लगाते रहे और जाँच कराए जाने की माँग करते रहे । विपिन शर्मा इस दूसरे ग्रुप में थे । चेयरमैन पद अपने हाथ में रखने के लिए विजय गुप्ता को जब भी जरूरी लगा, एक्स-ऑफिसो सदस्य के रूप में उन्होंने अपने वोट का इस्तेमाल किया । अपने वोट का इस्तेमाल करते हुए विजय गुप्ता ने विपिन शर्मा को दरअसल इसीलिए चेयरमैन नहीं बनने दिया, क्योंकि उन्हें डर रहा कि विपिन शर्मा चेयरमैन बन गए तो ब्रांच बिल्डिंग के घपले सामने आ जायेंगे, और वह तथा उनके साथी फँसेंगे । विजय गुप्ता को चूँकि पत्थर पर अपना नाम लिखवाना था, इसलिए उन्होंने हर धतकर्म किया और अपने साथियों से साथ भी फरेब करने से नहीं चूके । विजय गुप्ता, दीपक गर्ग, तेजेंद्र भारद्वाज की तिकड़ी ने ब्रांच बिल्डिंग के घपले के मामले को कभी भी ब्रांच की एजीएम में नहीं उठने/आने दिया; और विजय गुप्ता ने सेंट्रल काउंसिल में कभी इस मामले को उठाने का प्रयास तक नहीं किया । जैसा कि पहले बताया गया है कि सेंट्रल काउंसिल की मीटिंग में संजीव चौधरी ने मामला उठाया भी, तो विजय गुप्ता ने उनका विरोध किया ।  
इन तथ्यों से जाहिर है कि विजय गुप्ता और उनके गिरोह के लोगों ने न सिर्फ ब्रांच बिल्डिंग में घपला किया, बल्कि घपले को छिपाने व दबाए रखने के लिए अनैतिक किस्म की राजनीति भी की; और अब कायरों की तरह अपनी पहचान छिपा कर लोगों को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि घपला तो उन्होंने किया था, जो बार-बार जाँच कराए जाने की माँग करते रहे हैं । विपिन शर्मा, विपिन मंगला आदि का यह दोष तो माना जा सकता है कि उन्होंने घपलेबाजों को रोकने/पकड़ने का और और ज्यादा प्रयास नहीं किया - उन्हें और ज्यादा प्रयास करना चाहिए था; लेकिन इस दोष के कारण उन्हें घपलेबाजों से भी बड़ा दोषी मानना घपलेबाजों को सम्मान देने जैसा काम है । यह काम भी लेकिन जिस तरह गुमनाम रह कर किया जा रहा है, उससे साबित है कि बेईमान लोग कायर भी हैं । 

Thursday, November 5, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में दिल्ली, सोनीपत व गाजियाबाद की मीटिंग से निराश हुए दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों को प्रवीन निगम की अचानक बढ़ी सक्रियता से और झटका लगा है

गाजियाबाद/नई दिल्ली । प्रवीन निगम ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने हेतु गाजियाबाद में पिछले दो-तीन दिनों में जो चक्कर लगाए हैं, और अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में गाजियाबाद में मीटिंग करने का मौका बनाने का जो प्रयास किया है, उसने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों को निराश व हताश करने का काम किया है । इसका कारण बनता भी है । प्रवीन निगम अपनी उम्मीदवारी को लेकर कभी भी इतने गंभीर नहीं दिखे हैं, जितने गंभीर वह पिछले दो-तीन दिनों में नजर आए हैं - और इन दिनों की अपनी सारी गंभीरता उन्होंने गाजियाबाद में ही उड़ेल दी है । प्रवीन निगम की इस गंभीरतापूर्ण सक्रियता पर लोगों का ध्यान इस कारण से और गया है, क्योंकि इन्हीं दिनों मुकेश अरनेजा को दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के प्रचार अभियान से पीछे हटते हुए देखा गया है । दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में दिल्ली में हुई मीटिंग में तो मुकेश अरनेजा बहुत सक्रिय थे - सक्रिय क्या थे, पूरी मीटिंग की कमान उन्होंने ही संभाली हुई थी; किंतु उसके बाद सोनीपत व गाजियाबाद में हुई मीटिंग्स से वह पूरी तरह नदारत रहे । मुकेश अरनेजा चूँकि कुछ ही दिन पहले यह घोषणा कर चुके थे कि चुनावी प्रक्रिया में खुल कर भाग लेने को लेकर उनकी हुई शिकायत की उन्हें कोई परवाह नहीं है, और वह किसी से नहीं डरते हैं, और वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के पक्ष में खुलकर काम करते रहेंगे - इसलिए दीपक गुप्ता के प्रचार अभियान से मुकेश अरनेजा के अंतर्ध्यान होने का लोगों ने नोटिस लिया । लोगों के बीच चर्चा रही कि 'मैं किसी से नहीं डरता' का उद्घोष करने वाले मुकेश अरनेजा आखिर दीपक गुप्ता को बीच मँझदार में छोड़ कर कहाँ छिप गए हैं ? लोगों को पिछले तीन-चार दिनों में हुई इन दो 'घटनाओं' ने चकराया हुआ है - जिनमें दीपक गुप्ता के प्रचार अभियान से मुकेश अरनेजा के गायब होने के साथ साथ प्रवीन निगम के प्रचार अभियान में अचानक से गर्मी देखी गई । कुछ लोगों को यह महज एक संयोग दिख रहा है, तो कुछ लोग इसमें पर्दे के पीछे की राजनीति देख रहे हैं । 
दीपक गुप्ता के प्रचार अभियान से मुकेश अरनेजा के गायब होने को लेकर दीपक गुप्ता के समर्थक अलग अलग कारण बता रहे हैं - कोई कह रहा है कि मुकेश अरनेजा निजी व्यस्तता के चलते पिछले तीन-चार दिन रोटरी से छुट्टी पर रहे और इसलिए वह दीपक गुप्ता के आयोजनों में नजर नहीं आए; तो किसी ने बताया कि दीपक गुप्ता की दिल्ली की मीटिंग के फ्लॉप होने का ठीकरा जिस तरह मुकेश अरनेजा के सिर फोड़ा गया, उससे नाराज होकर मुकेश अरनेजा ने खुद को दीपक गुप्ता के प्रचार अभियान से दूर कर लिया है । उल्लेखनीय है कि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने/दिखाने हेतु दिल्ली में हुई मीटिंग में उपस्थिति तो अच्छी थी, लेकिन चुनावी मुकाबले में महत्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका निभाने वाले लोग वहाँ न के बराबर थे । यह देख कर दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों व शुभचिंतकों का माथा ठनका । दिल्ली मीटिंग का सारा जिम्मा चूँकि मुकेश अरनेजा के पास था, इसलिए उन्हीं से पूछा गया कि जो लोग यहाँ दिख रहे हैं, क्या इन्हीं के भरोसे चुनाव जीता जायेगा ? चुनाव में महत्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका निभाने वाले लोगों की अनुपस्थिति से मुकेश अरनेजा खुद भी उखड़े हुए से थे, और ऐसे में इस तरह के सवालों ने उन्हें बुरी तरह बौखला दिया था । दिल्ली की मीटिंग में मुकेश अरनेजा ने जो बकवासबाजी  की, उसे उनकी बौखलाहट के नतीजे के रूप में ही देखा/पहचाना गया । मुकेश अरनेजा की बौखलाहटभरी बकवासबाजी की खबर डिस्ट्रिक्ट में फैली, तो दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के संदर्भ में मामला और खराब हुआ । इसी के बाद दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के कुछेक समर्थकों व शुभचिंतकों की तरफ से सुझाव मिलता सुना गया कि मुकेश अरनेजा के कारण फायदा कम, नुकसान ज्यादा हो रहा है - इसलिए दीपक गुप्ता के प्रचार अभियान में उन्हें पीछे कर देना चाहिए । कुछेक लोगों का कहना है कि मुकेश अरनेजा इसी सुझाव पर अमल करने के चलते दीपक गुप्ता की सोनीपत व गाजियाबाद की मीटिंग से दूर रहे; तो अन्य कुछेक लोगों का कहना है कि उक्त सुझाव से नाराज होकर मुकेश अरनेजा ने दीपक गुप्ता की मीटिंग्स से खुद को दूर कर लिया । 
मुकेश अरनेजा की नाराजगी की बात को प्रवीन निगम की सक्रियता से बल मिला । कई लोगों को लगता है कि प्रवीन निगम की सक्रियता के पीछे मुकेश अरनेजा ही हैं । मजे की बात है कि अभी कुछ दिन पहले ही दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के कुछेक समर्थकों ने दावा किया था कि प्रवीन निगम जल्दी ही दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में अपनी उम्मीदवारी वापस ले लेंगे । प्रवीन निगम ने इस दावे पर सार्वजनिक रूप से गहरी नाराजगी व्यक्त की थी । दावा करने वाले लोगों का कहना था कि उन्हें मुकेश अरनेजा ने प्रवीन निगम की उम्मीदवारी की वापसी के बारे में आश्वस्त किया था; लेकिन प्रवीन निगम का कहना था कि मुकेश अरनेजा उनके निरंतर संपर्क में हैं और मुकेश अरनेजा ने उनसे कभी भी उम्मीदवारी को वापस लेने के बारे में नहीं कहा है । प्रवीन निगम यह बात अलग अलग मौकों पर लोगों को बताते रहे हैं कि मुकेश अरनेजा अपनी कंपनी के झगड़े /लफड़े में उनकी प्रोफेशनल मदद ले रहे हैं, और इसके बदले में उन्हें उनकी उम्मीदवारी के बारे में सलाह-सुझाव देते रहते हैं । प्रवीन निगम ने कभी-कभार इस बात पर निराशा तो जाहिर की कि उन्हें मुकेश अरनेजा से जितनी मदद की उम्मीद थी, मुकेश अरनेजा से उन्हें उतनी मदद नहीं मिली है - लेकिन इस बात को लेकर प्रवीन निगम ने ज्यादा रोना/धोना नहीं मचाया । घटना-चक्र ने जो मोड़ लिया है, उससे कुछेक लोगों को यह भी लग रहा है कि प्रवीन निगम को मुकेश अरनेजा की तरफ से यह आश्वासन रहा होगा कि ऐन मौके पर वह उनके साथ आ जायेंगे । धोखेबाजी में मुकेश अरनेजा ने दरअसल इतना नाम कमाया हुआ है कि लोग विश्वास करते हैं कि मुकेश अरनेजा कुछ भी कर सकते हैं । प्रवीन निगम के नजदीकियों का कहना है कि मुकेश अरनेजा को भी वास्तव में समझ में आ गया है कि दीपक गुप्ता के लिए वह ज्यादा कुछ कर नहीं सकते हैं, इसलिए अब वह प्रवीन निगम पर दाँव लगाना चाहते हैं । दिल्ली में दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में हुई मीटिंग के फ्लॉप होने से मुकेश अरनेजा को सचमुच खासा तगड़ा वाला झटका लगा है, और इसके बाद ही मुकेश अरनेजा ने अपने आपको दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी से दूर करना/दिखाना शुरू कर दिया है - जिससे कि दीपक गुप्ता की पराजय का ठीकरा उनके सिर पर न फूटे । वह कह सकेंगे कि दीपक गुप्ता ने उन्हें अपने अभियान से चूँकि अलग कर दिया, और सोनीपत व गाजियाबाद में हुई मीटिंग की योजना व तैयारी से उन्हें दूर रखा - इसलिए इन दोनों जगहों पर हुई मीटिंग्स भी बहुत खराब गईं । गाजियाबाद की मीटिंग का हाल इसलिए और बुरा हुआ क्योंकि  मीटिंग के लिए आमंत्रित किए गए कई एक क्लब-अध्यक्षों से तो फिर कहना पड़ा कि वह उनके कार्यक्रम में न आएँ । प्रवीन निगम के नजदीकियों के अनुसार, दीपक गुप्ता की तरफ से क्लब-अध्यक्षों का यह जो अपमान हुआ - उसके लिए मुकेश अरनेजा व दीपक गुप्ता के अभियान के बीच पैदा हुई तनातनी ही जिम्मेदार है । इस तनातनी से प्रवीन निगम और उनके समर्थक बम बम हैं - और इसकी प्रतिक्रिया में ही प्रवीन निगम ने अपनी सक्रियता अचानक से बढ़ा दी है । प्रवीन निगम की सक्रियता ने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी की बची-खुची उम्मीद को भी ग्रहण लगा दिया है ।