नई दिल्ली । अतुल गुप्ता, संजीव चौधरी, नवीन गुप्ता और विजय गुप्ता को इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में वापसी करने के लिए जिस तरह की जद्दोजहद करना पड़ रही है - उससे लोगों को लग रहा है कि संजय अग्रवाल की तो जैसे निकल पड़ी है और रीजन में सबसे ज्यादा वोट उन्हें ही मिलेंगे । संजय अग्रवाल जिस तरह विवादों से बचने में और अपने आप को विवादों से बचाए रखने में कामयाब रहे हैं, उसके चलते एक उम्मीदवार के रूप में उनका ऑरा(आभामंडल) तो बढ़ा ही - साथ ही उनका समर्थन आधार भी फैला है । विवादों व नकारात्मकता से बचे रहने से संजय अग्रवाल को दोतरफा फायदा हुआ - एक तरफ तो उनके पहले से जो समर्थक थे, वह उनके साथ ही न सिर्फ बने रहे बल्कि उनके पक्ष में और ज्यादा सक्रिय हुए; दूसरी तरफ, यह सब देख/जान कर बहुत बड़ी संख्या में नए लोग उनके साथ जुड़े । हरियाणा व पंजाब की कई ब्रांचेज के पदाधिकारी जिस तरह खुलकर संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी का झंडा उठाए हुए हैं, और उनकी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के काम में दिन-रात एक किए हुए हैं - उससे इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी को एक अलग ही मुकाम मिला है और वह बाकी सब पर भारी साबित हो रहे हैं ।
अपनी उम्मीदवारी के लिए एक अलग मुकाम बनाने तथा सब पर भारी साबित होने के लिए संजय अग्रवाल को किस्मत और परिस्थितियों का भी बहुत सहयोग/समर्थन मिला । यह एक दिलचस्प नजारा है कि इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में वापसी के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले उम्मीदवारों में एक संजय अग्रवाल को छोड़ कर बाकी सभी अपनी अपनी मुसीबतों में घिरे/फँसे हुए हैं, और उन्हें निहायत प्रतिकूल स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है । प्रायः सभी के मामलों में प्रतिकूल स्थितियाँ उनकी चूँकि खुद की बनाई हुई हैं, इसलिए उनसे निपटने में उन्हें जिस तरह की जद्दोजहद करना पड़ रही है - उसके कारण संजय अग्रवाल के लिए स्थितियाँ खासी अनुकूल हो उठी हैं । नवीन गुप्ता और संजीव चौधरी को अपने रूखे व्यवहार तथा लोगों से दूर दूर रहने का भुगतान भुगतना पड़ रहा है; तो अतुल गुप्ता और विजय गुप्ता ने बेमतलब की लड़ाईयाँ मोल लेकर अपने अपने विरोधी खड़े कर लिए हैं और उनके निशाने पर बने हुए हैं । नवीन गुप्ता का रवैया देख/जान कर लोगों को लगता है कि वह सार्वजनिक जीवन जीने के लायक ही नहीं हैं, और उनके पिताजी ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उन्हें नाहक ही यहाँ फँसा दिया है । लोगों के बीच नवीन गुप्ता की खासी बुरी हालत को देख कर उनके पिता एनडी गुप्ता को खुद मोर्चा सँभालना पड़ा है और नवीन गुप्ता के रवैये से खफा लोगों की खुशामद व मिन्नतें करते हुए नवीन गुप्ता की उम्मीदवारी को अपनी इज्जत का सवाल बनाना पड़ा है । संजीव चौधरी सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में इस 'नशे' में रहे कि बिग फोर का होने के चलते उन्हें लोगों के संपर्क में रहने की कोई जरूरत ही नहीं है, लेकिन अब चुनाव के मौके पर उन्होंने जब लोगों को उनके 'जैसा' रवैया अपनाते और उनकी उम्मीदवारी के प्रति बेरुखी दिखाते/जताते पाया तो उनके तो तोते ही उड़ गए हैं । नवीन गुप्ता को तो बचाने के लिए उनके पिताजी मैदान में आ गए; बेचारे संजीव चौधरी को तो बचने के लिए खुद ही हाथ-पैर मारने पड़ रहे हैं । संजीव चौधरी के लिए मुसीबत की बात यह हुई है कि दूसरे लोगों को तो छोड़िए, खुद बिग फोर कंपनियों के लोगों से उन्हें उचित सहयोग/समर्थन नहीं मिल पा रहा है, जिसके चलते कई लोगों को सेंट्रल काउंसिल की उनकी सीट जाती दिख रही है ।
अतुल गुप्ता और विजय गुप्ता का मामला बिलकुल जुदा किस्म का है । दोनों लोग बहुत एनर्जेटिक हैं, बहुत महत्वाकांक्षी हैं, बड़ा विजन रखते हैं, लोगों के बीच रहना चाहते हैं और रहते भी हैं, मौका बनाने व मौकों का उपयोग करने का हुनर रखते हैं - एक बड़ा नेता 'बनने' के लिए जिन जिन खूबियों की जरूरत होती है, वह सब खूबियाँ इनमें जैसे कूट-कूट कर भरी हैं; लेकिन इन दोनों को एक बड़ा भारी 'शौक' दुश्मन बनाने व पालने का भी है, और इनका यही शौक अब इन्हें भारी पड़ रहा है । इनके बनाए और पाले दुश्मन इनके खिलाफ सक्रिय हुए पड़े हैं और इनके लिए मुसीबत खड़ी किए हुए हैं । इनमें विजय गुप्ता अनुभवी व होशियार हैं और उन्हें दुश्मनों से निपटने की कला भी आती है, लिहाजा उन्होंने तो अपने दुश्मनों को काफी हद तक काबू में कर लिया है - लेकिन अतुल गुप्ता ने अनुभवहीनता के चलते अपने भाई/भतीजों को आगे करके दबंगई से दुश्मनों से निपटने की जैसी जो कोशिश की, उससे बात सँभलने की बजाए बिगड़ और गई है । अतुल गुप्ता अकेले ऐसे उम्मीदवार हैं, जिनके खिलाफ लोगों ने खुले मोर्चे खोले हुए हैं और घोषित किया हुआ है कि उनकी सक्रियता का एकमात्र उद्देश्य अतुल गुप्ता को हराना है । मजे की, लेकिन साथ ही गंभीर बात यह है कि जिन लोगों ने अतुल गुप्ता के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है, उनमें ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो पीछे किसी न किसी रूप में अतुल गुप्ता के साथ जुड़े रहे हैं । इस कारण से अतुल गुप्ता के लिए चुनाव काफी टफ हो गया है । इंस्टीट्यूट के इस बार के चुनावी परिदृश्य में नाटकीय परिवर्तन यह हुआ है कि अभी कुछ दिन पहले तक जो विजय गुप्ता खतरे में देखे/पहचाने जा रहे थे, वह विजय गुप्ता तो खतरे से बाहर आते नजर आ रहे हैं; लेकिन जिन अतुल गुप्ता को सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़/दौड़ में गिना जा रहा था, लोगों को वही अतुल गुप्ता अब अपनी सीट खोते हुए नजर आ रहे हैं ।
नवीन गुप्ता, संजीव चौधरी, विजय गुप्ता व अतुल गुप्ता की जद्दोजहद ने संजय अग्रवाल के लिए हालात को अनुकूल बनाने का काम किया है । संजय अग्रवाल को सिर्फ हालात का ही फायदा नहीं मिला है, उन्होंने हालात का फायदा उठाने के लिए सुचिंतित किस्म के प्रयास भी किए - और चूँकि अपने प्रयासों में उन्होंने अपनी यूएसपी (यूनिक सेलिंग प्रोपोजीशन) को भी बचाए रखा, इसलिए उनकी स्थिति में गुणात्मक सुधार देखा गया । उनके प्रतिस्पर्द्धी दूसरे उम्मीदवारों के नजदीकियों व समर्थकों ने भी माना और कहा कि संजय अग्रवाल ने जिस तरह से पिछले छह वर्षों से काउंसिल सदस्य के रूप में लोगों के साथ निरंतर संपर्क बनाए रखा हुआ है और प्राथमिकता के आधार पर लोगों के साथ जुड़े रहे हैं, उसके कारण उन्होंने अपनी एक भरोसेपूर्ण फॉलोइंग बनाई है । काउंसिल सदस्य के रूप में संजय अग्रवाल ने लिखने-पढ़ने पर ज्यादा जोर दिया है, और विशेष रूप से लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी रखने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच ही अपनी पैठ बनाई है । इसमें उन्हें लोगों से न तो झूठे व बड़बोले किस्म के वायदे करने पड़े और न फिर वायदों पर खरे न उतरने के चलते आलोचना का उन्हें शिकार होना पड़ा । इससे एक फायदा उन्हें अपने आप मिला और वह यह कि वह विवादों में नहीं फँसे । कभी जहाँ कहीं विवादों वाली स्थितियाँ आईं भी, तो वह या तो उनकी अनदेखी करते हुए और या उन्हें होशियारी के साथ हैंडल करते हुए उनसे बच निकले । काउंसिल सदस्य के रूप में अपनाई गई अपनी यूएसपी का उन्होंने अपने चुनाव अभियान में भी सख्ती से पालन किया और इस कारण विवादों से बचे रह पाने में कामयाब हुए । पिछले दिनों अपनी तीन पुस्तकों को उन्होंने लोगों के बीच जिस तरह से प्रस्तुत किया, उससे उनकी लिखने-पढ़ने वाली छवि व पहचान और समृद्ध ही हुई और एक उम्मीदवार के रूप में उनकी साख व विश्वसनीयता में और इजाफा ही हुआ । पुस्तकें प्रस्तुत करके हालाँकि कुछेक और उम्मीदवारों ने लोगों के बीच पैठ बनाने के प्रयास किए, लेकिन उनके प्रयास इतने घालमेल वाले रहे कि उनके प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं बन सका । संजय अग्रवाल की पुस्तकों की प्रस्तुति चूँकि उनकी यूएसपी के अनुरूप रही, इसलिए उनकी प्रस्तुति ने अच्छा प्रभाव जमाया । इसी प्रभाव में संजय अग्रवाल की उम्मीदवारी औरों की उम्मीदवारी से आगे बढ़ गई है और माना जा रहा है कि नॉर्दर्न रीजन में उन्हें ही सबसे ज्यादा वोट मिलेंगे ।