मुंबई । पीयूष छाजेड़ के लिए मुसीबत और चुनौती की बात यह हो रही है कि सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की वह जितनी जो कोशिश कर रहे हैं, वह सब सेंट्रल काउंसिल के दूसरे उम्मीदवार प्रफुल्ल छाजेड़ के खाते में जुड़ रही हैं और उनके किए-धरे का फायदा प्रफुल्ल छाजेड़ को मिल रहा है । इससे जाहिर हो रहा है कि पीयूष छाजेड़ की उम्मीदवारी को लोगों के बीच गंभीरता से लिया ही नहीं जा रहा है और पीयूष छाजेड़ लोगों के बीच अपनी उम्मीदवारी को लेकर कोई प्रभाव बना सकने में विफल ही हो रहे हैं । पीयूष छाजेड़ के साथ मजाक यह हो रहा है कि वह एसएमएस व ईमेल के जरिए कोई बात कहते हैं और फिर उसका फीडबैक लेना चाहते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि उनके एसएमएस व ईमेल संदेश लोग प्रफुल्ल छाजेड़ के एसएमएस व ईमेल संदेश समझे बैठे हैं; वह फोन पर किसी से बात करते हैं, तो दूसरे लोग उनसे ऐसे बात करते हैं जैसे कि वह प्रफुल्ल छाजेड़ से बात कर रहे हों; हद की बात तो तब हो जाती है जब वह किसी से आमने-सामने मिलते हैं तो दूसरे लोग यह समझते हैं कि वह अपने भाई या रिश्तेदार प्रफुल्ल छाजेड़ की उम्मीदवारी के लिए सहयोग/समर्थन माँग रहे हैं । ऐसी स्थिति में पीयूष छाजेड़ को अपना बहुत सा समय व अपनी एनर्जी यह बताने/जताने में खर्च करना पड़ रही है कि वह और प्रफुल्ल छाजेड़ अलग अलग हैं और दोनों ही सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार हैं ।
इस स्थिति ने पीयूष छाजेड़ को दो तरफा चोट पहुँचाई है - एक तरफ तो चुनावी संदर्भ में किया जा रहा उनका काम प्रफुल्ल छाजेड़ के खाते में जुड़ रहा है; और दूसरी तरफ नाम की समानता की गलतफहमी में उन्होंने फायदा उठाने का जो मौका बनाया/देखा था, उस मौके को मिटाने का काम करने में भी उन्हें ही जुटना पड़ रहा है । उल्लेखनीय है कि पीयूष छाजेड़ के नजदीकियों के हवाले से लोगों के बीच चर्चा थी कि उन्होंने पहले से ही यह माना हुआ था कि नाम की समानता की गलतफहमी में प्रफुल्ल छाजेड़ के कुछेक वोट तो उन्हें मिलेंगे ही - और यह उनके लिए बोनस होगा । लेकिन अब उन्हें समझ में आ रहा है कि 'इस बोनस' के चक्कर में रहे, तो उन्हें फिर सिर्फ बोनस 'ही' मिलेगा । प्रफुल्ल छाजेड़ के समर्थकों व शुभचिंतकों को भी हालाँकि शुरू में इस बात की चिंता हुई थी कि नाम की समानता की गलतफहमी में उनके कुछेक वोट पीयूष छाजेड़ के खाते में जा सकते हैं । किंतु अब जब वह यह देख रहे हैं कि नाम की समानता की गलतफहमी का ज्यादा नुकसान पीयूष छाजेड़ को हो रहा है; और इस नुकसान से बचने के लिए खुद पीयूष छाजेड़ ने प्रयास करना शुरू किया है - तो उन्होंने चैन की साँस ली है ।
पीयूष छाजेड़ को जिस तरह से लोगों को यह विश्वास दिलाने में जुटना पड़ रहा है कि इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रफुल्ल छाजेड़ अलग उम्मीदवार हैं तथा वह अलग उम्मीदवार हैं, उससे पीयूष छाजेड़ के लिए न सिर्फ मेहनत बढ़ गई है - बल्कि अपने वोटों को प्रफुल्ल छाजेड़ के पास जाने से रोकने की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है । इस मेहनत व जिम्मेदारी को निभाने के चक्कर में पीयूष छाजेड़ के लिए अपने चुनाव अभियान को व्यवस्थित तरीके से चला पाना मुश्किल हो रहा है - और उनके लिए अपने पिता की राजनीतिक विरासत का फायदा उठाना तक संभव नहीं हो पा रहा है । उल्लेखनीय है कि पीयूष छाजेड़ के पास एक बड़ा प्लस प्वाइंट था, और वह यह कि वह करीब पंद्रह वर्ष पहले इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट रहे स्वर्गीय एसपी छाजेड़ के बेटे हैं । लेकिन वह इस प्लस प्वाइंट का कोई फायदा नहीं उठा पा रहे हैं । इसका फायदा उठाने की दरअसल स्थिति भी नहीं है । इसका कारण यह है कि प्रेसीडेंट पद का कार्यकाल पूरा करने के बाद एसपी छाजेड़ इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति से पूरी तरह दूर हो गए थे । वर्ष 2008 में उनका निधन हो गया था । उनकी राजनीतिक विरासत पर किसी ने भी दावेदारी नहीं की । इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में उनकी फर्म का, उनके ग्रुप का और/या उनकी फॉलोइंग का किसी भी रूप में कभी नाम नहीं सुना गया । पीयूष छाजेड़ की भी इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में कभी किसी भी तरह की सक्रियता या संलग्नता नहीं देखी/सुनी गई । इस कारण से पीयूष छाजेड़ के लिए लोगों से कनेक्ट कर पाना मुश्किल हो रहा है । पीयूष छाजेड़ के नजदीकियों का कहना है कि कुछेक लोगों ने पीयूष को सलाह दी थी कि उन्हें पहले रीजनल काउंसिल का चुनाव लड़ना चाहिए, तथा उसके जरिए लोगों के बीच अपनी पहचान बनानी चाहिए और फिर उसके बाद उन्हें सेंट्रल काउंसिल के लिए आना चाहिए ।उनके नजदीकियों का ही कहना है कि पीयूष छाजेड़ ने पहले तो इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया और जोशो-खरोश में सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार हो गए; लेकिन अब पछता रहे हैं कि ऐसा करके उन्होंने गलती कर दी है ।