Friday, December 28, 2012

रवि भाटिया की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद की उम्मीदवारी को राजेश बत्रा के ‘कनेक्शन’ के कारण विनोद बंसल का समर्थन भी मिल सकेगा क्या ?

नई दिल्ली । रवि भाटिया के जरिये रोटरी क्लब दिल्ली सेंट्रल की अगले रोटरी वर्ष में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने की खबरों ने अगले रोटरी वर्ष की चुनावी राजनीति को दिलचस्प बना दिया है । दिलचस्प इसलिए क्योंकि रोटरी क्लब दिल्ली सेंट्रल ने मौजूदा रोटरी वर्ष में डॉक्टर सुब्रमणियन के जरिये अपनी जो उम्मीदवारी प्रस्तुत की थी, उसमें उसे सफलता नहीं मिली; लिहाजा हर किसी के लिए उत्सुकता का विषय यह है कि मौजूदा रोटरी वर्ष के अनुभव से रोटरी क्लब दिल्ली सेंट्रल के लोगों ने क्या सबक सीखा है और उस सीखे हुए सबक से वह रवि भाटिया की उम्मीदवारी को किस तरह लोगों के बीच समर्थन दिलवाते हैं और स्वीकार्य बनाते/बनवाते हैं । क्लब के एक वरिष्ठ सदस्य का कहना है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के चुनाव में यूँ तो उम्मीदवार की अपनी सक्रियता ही काम आती है और क्लब की कोई बहुत भूमिका नहीं होती है - लेकिन फिर भी कोई उम्मीदवार यदि क्लब के लोगों को अपने अभियान में प्रभावी तरीके से शामिल करता है; क्लब के लोगों की मदद लेता है तो निश्चित ही उसे इसका फायदा मिलता है । रवि भाटिया चूँकि क्लब के पुराने सदस्य हैं, इसलिए क्लब के पुराने और प्रमुख लोगों के साथ उनके गहरे विश्वास के संबंध हैं । जाहिर है की यह संबंध चुनाव में व्यावहारिक तरीके से उनके काम आयेंगे । यूँ तो क्लब के लोगों के साथ डॉक्टर सुब्रमणियन के भी अच्छे संबंध थे; और क्लब के लोगों ने उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में काम भी किया - लेकिन क्लब के लोगों का काम डॉक्टर सुब्रमणियन के काम इसलिए नहीं आ सका, क्योंकि क्लब के लोगों के साथ उनका बहुत जुड़ाव नहीं था; और जो लोग डॉक्टर सुब्रमणियन के साथ सक्रिय थे, उनका न डिस्ट्रिक्ट के लोगों के साथ और न डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के साथ कोई परिचय रहा है ।
रवि भाटिया के मामले में संबंधों का ‘गणित’ और संबंधों की 'केमिस्ट्री’ लेकिन बिल्कुल अलग है । रवि भाटिया ने कई डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के साथ काम किया है; और इस कारण से वह कई डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की कोर टीम का हिस्सा रहे हैं । इस नाते से डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच रवि भाटिया की पहचान तो है ही, लोग उनकी कार्य-क्षमताओं और रोटरी में तथा डिस्ट्रिक्ट में उनकी सक्रिय संलग्नता से भी परिचित हैं । डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच रवि भाटिया के इस परिचय के चलते क्लब के लोगों के लिए भी रवि भाटिया की उम्मीदवारी के लिए अभियान चलाना सुविधाजनक हो जाता है । उल्लेखनीय है कि रवि भाटिया की उम्मीदवारी के संदर्भ में इन्हीं ‘सुविधाओं’ का वास्ता देकर क्लब के कुछेक प्रमुख लोग मौजूदा वर्ष में ही रवि भाटिया की उम्मीदवारी की वकालत कर रहे थे; किंतु पिछली डिस्ट्रिक्ट कांफ्रेंस में निभाई गई अपनी सक्रिय भूमिका से लाभ मिलने का वास्ता देकर डॉक्टर सुब्रमणियन ने अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने का प्रस्ताव रखा, तो रवि भाटिया की उम्मीदवारी की वकालत करने वालों ने डॉक्टर सुब्रमणियन को मौका दे देने की बात मान ली । डॉक्टर सुब्रमणियन के चुनावी मुकाबले से बाहर होने के बाद रोटरी क्लब दिल्ली सेंट्रल के तथा डिस्ट्रिक्ट के कई एक नेताओं का मानना और कहना रहा कि रवि भाटिया यदि उम्मीदवार होते तो इस वर्ष डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के चुनाव का परिदृश्य कुछ और होता । किंतु जो हुआ, उसे खिलाड़ीभावना के साथ स्वीकार करते हुए रोटरी क्लब दिल्ली सेंट्रल के प्रमुख लोगों ने अगले रोटरी वर्ष में रवि भाटिया की उम्मीदवारी के लिए कमर कसना शुरू कर दिया है ।
रवि भाटिया के समर्थक व शुभचिंतक अब की बार वह गलती नहीं करना चाहते हैं, जो पिछली बार हो जाने के कारण उम्मीदवारी प्रस्तुत करने का मौका उनसे छिन गया था । पिछली बार रवि भाटिया के समर्थक व शुभचिंतक रवि भाटिया की उम्मीदवारी की घोषणा करने की टाइमिंग को लेकर गच्चा खा गये थे । वह रवि भाटिया की उम्मीदवारी को जब तक सामने लाते, उससे पहले ही डॉक्टर सुब्रमणियन ने चूँकि अपनी उम्मीदवारी के लिए लॉबीइंग शुरू कर दी - जिस कारण रवि भाटिया की उम्मीदवारी के प्रस्तुत होने का मौका जाता रहा । अगले रोटरी वर्ष के लिए चूँकि अभी तक किसी ने भी अपनी उम्मीदवारी की बात नहीं की है, इसलिए रवि भाटिया के समर्थकों व शुभचिंतकों ने अभी से उनकी उम्मीदवारी की बात करना शुरू करके बढ़त बनाने का लाभ लेने की होशियारी चली है । अगले रोटरी वर्ष के लिए उम्मीदवार के रूप में कुछेक नाम बीच-बीच में सुने तो गये हैं, लेकिन जितने अचानक तरीके से वह नाम सामने आये उतने ही रहस्यपूर्ण ढंग से वह गुम भी हो गये हैं । पिछले दो-तीन वर्षों का नजारा देखें तो एक बात कॉमन दिखती है और वह यह कि जिस उम्मीदवार ने पहले से अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की, चुनावी बाजी उसके हाथ लगी । इस वर्ष जेके गौड़ चुने गये हैं, तो उनकी उम्मीदवारी की चर्चा दूसरे उम्मीदवारों की तुलना में पहले से थी । उनसे पहले संजय खन्ना और उनसे भी पहले विनोद बंसल जीते तो उनकी उम्मीदवारी भी अपने-अपने प्रतिद्धंद्धियों से पहले सामने आई थी । यह कोई टोटके का मामला नहीं है - पहले से उम्मीदवारी प्रस्तुत करने से आम लोगों के बीच यह संदेश जाता है कि पहले से उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाला उम्मीदवार अपनी उम्मीदवारी को गंभीरता से ले रहा है । जब कोई उम्मीदवार अपनी उम्मीदवारी को गंभीरता से लेता नजर आता है, तो दूसरे लोग भी उसकी उम्मीदवारी को गंभीरता से लेते हैं । देर से उम्मीदवारी प्रस्तुत होने के मामले में इम्प्रेशन यही पड़ता है कि उक्त उम्मीदवार लगता है कि अपनी उम्मीदवारी को लेकर खुद ही कन्फ्यूज रहा होगा, इसलिए देर से अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत कर रहा है । अब जो उम्मीदवार अपनी उम्मीदवारी को लेकर खुद ही कन्फ्यूज रहा हो, उसके लिए अपनी उम्मीदवारी के प्रति लोगों के कन्फ्यूजन को दूर कर पाना मुश्किल ही होता है । चुनावी नतीजों से भी यही बात साबित होती रही है । इसलिए ही रवि भाटिया के समर्थकों व शुभचिंतकों को अभी से ही रवि भाटिया की उम्मीदवारी को प्रस्तुत करना जरूरी भी लगा और उपयोगी भी ।
रवि भाटिया के समर्थकों व शुभचिंतकों को अगले रोटरी वर्ष में स्थितियाँ यदि रवि भाटिया के अनुकूल लग रही हैं तो इसका एक बड़ा कारण राजेश बत्रा का डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर के पद पर होना है । राजेश बत्रा यूँ तो चुनावी राजनीति में कोई सक्रिय भूमिका निभाते हुए नहीं देखे/पाये गये हैं, लेकिन रवि भाटिया के साथ उनके नजदीकी संबंधों को देखते हुए यह विश्वास तो किया ही जा सकता है कि उनके नजदीकी संबंधों के चलते मनोवैज्ञानिक फायदा तो रवि भाटिया को मिलेगा ही । राजेश बत्रा के डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर होने के कारण डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में विनोद बंसल के लिए भी ऐसा कुछ कर पाना संभव नहीं होगा, जिससे कि रवि भाटिया की उम्मीदवारी को नुकसान पहुंचे । रवि भाटिया से विनोद बंसल के कोई विरोध के संबंध नहीं हैं; लेकिन मुकेश अरनेजा के साथ विनोद बंसल की जो निकटता है उसे देखते हुए रवि भाटिया के समर्थकों व शुभचिंतकों को विनोद बंसल के रवैये को लेकर कुछ आशंका है । रवि भाटिया हालाँकि इस नाते से खुशकिस्मत हैं कि जिन लोगों के विनोद बंसल के भरोसे उम्मीदवार बनने की चर्चा/संभावना थी, वह पीछे हटते दिख रहे हैं; और अभी तक ऐसे किसी नाम की चर्चा नहीं है जिसे विनोद बंसल के उम्मीदवार के तौर पर देखा/पहचाना जाये । रवि भाटिया के कुछेक समर्थकों व शुभचिंतकों को ही नहीं, दूसरे अन्य लोगों को यह विश्वास भी है कि राजेश बत्रा के ‘कनेक्शन’ के कारण रवि भाटिया ही हो सकता है कि विनोद बंसल के उम्मीदवार हो जायें । यह विश्वास इसलिए बना और बढ़ा है क्योंकि रवि भाटिया की उम्मीदवारी की चर्चा शुरू होते ही कुछेक संभावनाशील उम्मीदवारों ने अपनी-अपनी उम्मीदवारी से इंकार करना शुरू कर दिया है । ऐसा ही नजारा रहा तो नेताओं के पास और डिस्ट्रिक्ट के पास ज्यादा विकल्प ही नहीं होंगे - और तब रवि भाटिया को हो सकता है कि किसी खास चुनौती का सामना ही न करना पड़े । हालाँकि यह सोचना/मानना थोड़ा जल्दबाजी करना भी होगा । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए आक्रामक तरीके से अभियान चला सकने की क्षमता रखने वाले कुछेक रोटेरियंस को उम्मीदवारी प्रस्तुत करने को लेकर उत्सुक देखा/सुना जा रहा है । हालाँकि उनके बारे में अभी यह सुनिश्चित नहीं है कि वह अगले वर्ष उम्मीदवारी प्रस्तुत करेंगे या और आगे आने वाले वर्षों में ? जो होगा, वह तो आगे पता चलेगा - फ़िलहाल तो रवि भाटिया के समर्थकों व शुभचिंतकों ने रवि भाटिया की उम्मीदवारी की चर्चा चला कर अगले वर्ष होने वाली चुनावी दौड़ में रवि भाटिया की उम्मीदवारी को आगे तो बढ़ा ही दिया है ।

Thursday, December 27, 2012

विनोद बंसल ने रंजन ढींगरा के जरिये मंजीत साहनी को इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव से 'बाहर' करने की रणनीति बनाई

नई दिल्ली । मंजीत साहनी को इंटरनेशनल डायरेक्टर का चयन करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव से बाहर रखने के लिए रंजन ढींगरा को आगे करने की जो चाल विनोद बंसल ने चली है, उसके कारण उक्त नोमीनेटिंग कमेटी का चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प हो गया है । उल्लेखनीय है कि इस चुनाव में मंजीत साहनी को पहले कोई रूचि नहीं थी, लेकिन फिर अचानक से उन्हें इस चुनाव की होड़ में शामिल देखा जाने लगा । माना/समझा गया कि उन्हें ऊपर के नेताओं से इसके लिए इशारा और समर्थन का भरोसा मिला होगा । यही मानने/समझने के चलते नोमीनेटिंग कमेटी के लिए मंजीत साहनी की उम्मीदवारी को गंभीरता के साथ देखा/पहचाना जाने लगा । चुनावी राजनीति के समीकरणों को समझने/पहचानने वाले लोगों ने भी मान लिया कि मंजीत साहनी उम्मीदवार हुए तो चुनावबाज मुकेश अरनेजा भी उम्मीदवार बने रहने का दम नहीं बनाये रख पायेंगे और मंजीत साहनी निर्विरोध ही चुन लिए जायेंगे । लेकिन विनोद बंसल के एक 'राजनीतिक' स्ट्रोक ने इस संभावना के घुर्रे उड़ा दिए हैं ।
मंजीत साहनी के निर्विरोध चुने जाने की संभावना में रूकावट पैदा करने के उद्देश्य से विनोद बंसल ने बड़ी होशियारी से नोमीनेटिंग कमेटी के लिए रंजन ढींगरा की वकालत शुरू कर दी । विनोद बंसल की होशियारी यह रही कि उन्होंने भाँप लिया कि वह यदि मंजीत साहनी की उम्मीदवारी का सिर्फ विरोध करेंगे तो उनकी बात कोई नहीं सुनेगा और वह सफल नहीं होंगे, और कि वह रंजन ढींगरा को आगे करके ही मंजीत साहनी का 'शिकार' कर सकते हैं । इसी समझ के साथ, विनोद बंसल ने काउंसिल ऑफ गवर्नर्स के सदस्यों में मंजीत साहनी के विरोधियों की पहचान करते हुए चर्चा चलाई कि मंजीत साहनी का समर्थन करने को लेकर कुछेक लोगों को ऐतराज है, इसलिए उनके नाम पर सहमति बनना मुश्किल है; लेकिन रंजन ढींगरा के नाम पर सहमति बनाई जा सकती है । विनोद बंसल ने तर्क दिया कि रंजन ढींगरा चूँकि पिछली बार नोमीनेटिंग कमेटी का चुनाव हार गए थे, इसलिए इस बार उन्हें चुन लिए जाने पर सहमति बनाई जा सकती है । मजे की बात यहाँ यह है कि रंजन ढींगरा की उम्मीदवारी के प्रति सहमति बनाये जाने की कोई वकालत या कोशिश विनोद बंसल ने उस समय तक बिलकुल भी नहीं की थी, जब तक कि मंजीत साहनी ने अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत नहीं की थी । उस समय तो वह रंजन ढींगरा के लिए समर्थन जुटने/जुटाने की मुश्किलों का ही विवरण दिया करते थे । लेकिन अब वह रंजन ढींगरा के बड़े समर्थक बन गए हैं ।
रंजन ढींगरा को आगे करके मंजीत साहनी को 'बाहर' करने की विनोद बंसल की तरकीब के पीछे कुछेक लोगों को मुकेश अरनेजा की मदद करने की रणनीति भी दिख रही है । मुकेश अरनेजा के प्रति विनोद बंसल का समर्थन-भाव राजेश बत्रा के कारण मुसीबत में है । राजेश बत्रा को मुकेश अरनेजा फूटी आँख भी नहीं भाते हैं । मुकेश अरनेजा के साथ विनोद बंसल के संबधों को लेकर राजेश बत्रा विभिन्न तरीकों से अपनी नाराजगी जता चुके हैं । राजेश बत्रा के रवैये को देख कर विनोद बंसल ने मुकेश अरनेजा को लेकर थोड़ा सावधानी रखना तो शुरू किया है, लेकिन रंजन ढींगरा का नाम लेकर उन्होंने जो राजनीति शुरू की है - उसके पीछे उनकी राजेश बत्रा को धोखे में रख कर मुकेश अरनेजा का काम आसान करने की तरकीब को देखा/पहचाना जा रहा है । तरकीब यह कि मंजीत साहनी और रंजन ढींगरा मुकाबले में रहेंगे तो मुकेश अरनेजा के विरोधियों में फूट पड़ेगी और उसका फायदा स्वाभाविक रूप से मुकेश अरनेजा को मिलेगा ।
विनोद बंसल की इस राजनीति की बात लोगों को चूंकि अशोक अग्रवाल के मुँह से सुनने को मिल रही है, इसलिए भी विनोद बंसल की इस राजनीति के पीछे मुकेश अरनेजा की मदद को देखा/पहचाना जा रहा है । जेके गौड़ को प्राप्त हुई चुनावी जीत के बाद से अशोक अग्रवाल को 'सुपर गवर्नर' के अवतार में देखा जा रहा है और वह लगातार मंजीत साहनी तथा अमित जैन को निशाना बना रहे हैं और उनके बारे में गाली-गलौजपूर्ण अपशब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हुए लोगों को बता रहे हैं कि मंजीत साहनी का ईलाज तो विनोद बंसल करेंगे । अशोक अग्रवाल के अनुसार ही विनोद बंसल ने रंजन ढींगरा रूपी इंजेक्शन से मंजीत साहनी का ईलाज शुरू भी कर दिया है । मंजीत साहनी से अशोक अग्रवाल की नाराजगी इस बात को लेकर है क्योंकि मंजीत साहनी ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी के चुनाव में जेके गौड़ की बजाये सुधीर मंगला का साथ दिया । मंजीत साहनी के रवैये का हो सकता है कि जेके गौड़ को भी बुरा लगा हो, लेकिन जेके गौड़ अपनी बड़ी हो गई जिम्मेदारी को समझते हुए अब सभी का साथ लेने की जरूरत को समझते हुए चुप हैं; लेकिन अशोक अग्रवाल आपे से बाहर दिख रहे हैं । विनोद बंसल की भी मंजीत साहनी से कुछ पुरानी खटपट है - लिहाजा उन्होंने रंजन ढींगरा के कंधे का सहारा लेकर मंजीत साहनी को निशाने पर लिया तो अशोक अग्रवाल को भी मंजीत साहनी के खिलाफ भड़ास निकालने का मौका मिल गया है । अशोक अग्रवाल की भड़ास ने लेकिन विनोद बंसल की राजनीति को सबके सामने ला दिया है ।

Tuesday, December 25, 2012

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की खाली हुई कुर्सी को भरने का मामला कहीं राकेश त्रेहन और विजय शिरोहा के बीच के झगड़े का शिकार तो नहीं बनेगा ?

नई दिल्ली । सुभाष गुप्ता के आकस्मिक निधन से खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद को भरने के लिए डिस्ट्रिक्ट की राजनीति में हलचल तेज हो गई है । इस हलचल में खेमों की दीवारें टूटती हुई सी दिख रही हैं और नई खेमेबाजियाँ आकार लेती हुई नजर आ रही हैं । हालांकि अभी कुछ भी पक्के तौर पर कहना संभव नहीं है, लेकिन तेजी से घटते हुए घटनाचक्र में कई बातें ऐसी हो रही हैं जिनके होने के कई.कई अर्थ लगाये जा रहे हैं - और उन अर्थों के भरोसे नए समीकरणों को बनते-बिगड़ते देखा जा रहा है । नए समीकरणों की बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस हलचल ने कई दबे-ढके झगड़ों को पुनः सतह पर ला दिया है | ऊपर से साथ-साथ दिखने वाले चंद्रशेखर मेहता और केएल खट्टर के बीच नेतृत्व की होड़ का मामला हो; या रोहतक मीटिंग की सफलता के बाद इन दोनों का राजिंदर बंसल से खतरा महसूस करने का मुद्दा हो; या डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश त्रेहन से तनातनी की घटनाओं के बाद फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विजय शिरोहा का रोहतक मीटिंग में जाना और फिर वहाँ वाह-वाही लूटने का किस्सा हो; या चंद्रशेखर मेहता के साथ राकेश त्रेहन की नजदीकियों की कहानियाँ हों - खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद को भरने के लिए होने वाली जोड़-तोड़ में यह सब बातें अचानक से महत्वपूर्ण हो उठी हैं ।
खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद को भरने के लिए होने वाली जोड़-तोड़ में कुछेक लोगों को राकेश त्रेहन के साथ नजदीकी के चलते चंद्रशेखर मेहता की भूमिका महत्वपूर्ण लग रही है, तो कुछेक लोगों को राजिंदर बंसल और विजय शिरोहा के बीच बढ़ती ‘दिखती’ नजदीकी में एक अलग खिचड़ी के पकने की ‘खुशबू’ महसूस हो रही है । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि चंद्रशेखर मेहता के साथ राकेश त्रेहन की नजदीकी को राकेश त्रेहन के साथी नेताओं ने कभी भी ऐप्रीशियेट नहीं किया - और उनकी नजदीकी को हमेशा ही संशय के साथ देखा/पहचाना है; लेकिन फिर भी राकेश त्रेहन ने चंद्रशेखर मेहता के साथ अपनी नजदीकी को न सिर्फ बनाये रखने पर, बल्कि किसी न किसी रूप में उसे ‘दिखाते’ रहने पर भी जोर दिया है । कुछेक लोगों को लगता है कि सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की खाली जगह को भरने के मामले में सारा खेल चूँकि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश त्रेहन के हाथ में है, इसलिए उनकी मदद से चंद्रशेखर मेहता अपना काम बना लेंगे । चंद्रशेखर मेहता अपना काम बना लेंगे या नहीं बना लेंगे - यह तो बाद में पता चलेगा; काम बना लेने की चर्चाओं के बीच अभी केएल खट्टर को ही यह बात पसंद नहीं आ रही है कि चंद्रशेखर मेहता इस मामले में नाहक ही नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं । इन दोनों के बीच नेतृत्व को लेकर जो होड़ है, वह इस मामले के कारण और मुखर हो गई है । केएल खट्टर का कहना है कि चंद्रखेखर मेहता कर कुछ भी नहीं पायेंगे, इस तरह की बातें उड़वा कर बस अपने आप को चर्चा में बनाये रखेंगे । मजे की बात यह है कि एक तरफ तो यह दोनों आपस में लड़ रहे हैं, और दूसरी तरफ इन्हें राजिंदर बंसल और विजय शिरोहा के बीच बढ़ती नजदीकी में अपने लिए खतरा नजर आ रहा है ।
रोहतक में राजिंदर बंसल की पहल पर आयोजित डिस्ट्रिक्ट के ‘हरियाणवी’ नेताओं की मीटिंग में विजय शिरोहा ने जिस तरह से वाह-वाही लूटी, उसे देख कर चंद्रशेखर मेहता और केएल खट्टर के तो होश ही उड़ गये हैं । उन्हें आश्चर्य इस बात का है कि राजिंदर बंसल ने ‘अपने मंच’ पर विजय शिरोहा को इतनी महत्ता क्यों दी कि कार्यक्रम की सारी रौनक विजय शिरोहा लूट ले गये । चंद्रशेखर मेहता और केएल खट्टर को इसके पीछे राजिंदर बंसल और विजय शिरोहा के बीच कुछ खिचड़ी पकने की महक आ रही है । इस महक के प्रभाव में रहते हुए, सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के खाली पद को भरने के लिए आरके शाह की सक्रियता के बारे में जानते/सुनते हुए चंद्रशेखर मेहता और केएल खट्टर को कुछ ज्यादा ही बेचैनी होने लगी है । पहले विजय शिरोहा को तवज्जो देकर और फिर आरके शाह को आगे करके राजिंदर बंसल ने हरियाणवी नेताओं के बीच तो अपना कद बढ़ा ही लिया है - क्योंकि उन्होंने दिखा दिया है कि उनके पास योजना भी है; योजना को क्रियान्वित करने का हुनर भी है; और मौका आने पर आगे बढ़ाने के लिए उम्मीदवार भी है । चंद्रशेखर मेहता और केएल खट्टर के पास सिर्फ बातें ही बातें हैं । विजय शिरोहा के साथ राजिंदर बंसल की बढ़ती नजदीकी में चंद्रशेखर मेहता और केएल खट्टर को इसलिए खतरा नजर आ रहा है क्योंकि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश त्रेहन के साथ विजय शिरोहा की तनातनी की खबरें अब आम हैं और डिस्ट्रिक्ट के बाहर भी सुनी/बताई जाती हैं । ऐसे में, कई एक लोगों को आशंका है कि चुनावी खेमेबाजी कहीं डिस्ट्रिक्ट गवर्नर और फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को आगे करके तो नए समीकरण नहीं बनायेगी । सत्ता खेमे के दूसरे नेताओं का हालाँकि दावा है कि राकेश त्रेहन और विजय शिरोहा के बीच के झगड़े को सुलझा लिया गया है, और दोनों के बीच के झगड़े को इस्तेमाल करके सत्ता खेमे में फूट डालने का सपना देखने वाले लोगों को निराशा ही हाथ लगेगी ।
सत्ता खेमे के नेताओं ने यह दावा कर तो दिया है लेकिन उन्हें भी पता है कि इसे पूरा करना उनके लिए आसान नहीं है । दरअसल इसीलिए सत्ता खेमे की तरफ भी, खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए अभी किसी नाम पर सहमति बनना तो दूर, आपस में विचार.विमर्श भी नहीं हुआ है । दरअसल, हर कोई एक दूसरे की तरफ देख रहा है कि कौन किसका नाम लाता है और क्यों लाता है ? राकेश त्रेहन और विजय शिरोहा के बीच की तनातनी ने खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की कुर्सी के लिए होने वाले ‘चुनाव’ को सत्ता खेमे के लिए एक बड़ी चुनौती बना दिया है । चुनौती इसलिए क्योंकि सत्ता खेमे के नेता भी जानते और मानते हैं कि राकेश त्रेहन और विजय शिरोहा के बीच किसी बड़े मुद्दे को लेकर झगड़ा नहीं है, बल्कि बहुत छोटी-छोटी बातों का बखेड़ा भर है - लेकिन यदि छोटी-छोटी बातें बड़ा बखेड़ा खड़ा कर सकती हैं तो फिर उस बखेड़े के कारण पैदा हुआ परस्पर अविश्वास और अपनी.अपनी चलाने की जिद खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद को भरने के मामले में क्या-क्या नजारे पेश कर सकती है ? यह बात तब और महत्वपूर्ण हो जाती है, जब खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद को भरने के मामले में पैसे देने-लेने की चर्चाएँ भी सुनी/बताई जा रही हैं । सत्ता खेमे के नेताओं के सामने एक चुनौती यह भी है कि उन्होंने ‘दिल्ली के’ इस मामले को यदि होशियारी से हल नहीं किया तो फिर डर यह है कि कहीं ‘हरियाणा का’ मामला भी उनके हाथ से न निकल जाये । सत्ता खेमे के नेताओं को ‘हरियाणा के’ संभावित उम्मीदवार संजय खन्ना ने जिस तरह से छकाया हुआ है, उसके कारण ‘हरियाणा का’ मामला उनके लिए पहले से ही परेशानी का सबब बना हुआ है । अचानक से पैदा हो गये ‘दिल्ली के’ मामले ने सत्ता खेमे के नेताओं को डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाने/करने का हालांकि एक बड़ा मौका दे दिया है - लेकिन इस मौके के साथ बनी परिस्थितियों ने उनके सामने यह खतरा भी पैदा कर दिया है कि ‘यहाँ’ से आगे का रास्ता उन्हें बढ़ा भी सकता है और घटा भी सकता है । सत्ता खेमे के नेता भी समझ रहे हैं और मान रहे हैं कि ‘दिल्ली के’ मामले को हल करने में उन्होंने जरा सा भी चूक की, तो ‘हरियाणा का’ मामला उनके हाथ से निकलने में देर नहीं लगेगी । सत्ता खेमे के नेताओं की खुशकिस्मती सिर्फ इतनी ही है कि उन्हें फँसाने/गिराने को लेकर विरोधी खेमे के नेताओं में एका नहीं है - विरोधी खेमे के नेता हालाँकि अपने-अपने स्तर पर मौके का फायदा उठाने की कोशिश में जरूर लगे हुए हैं, और सीमित दायरे में सफलता पाने की तरफ बढ़ने का आभास भी दे रहे हैं । जाहिर है कि सत्ता खेमे के सामने दोहरी चुनौती है - एक चुनौती उन्हें विरोधी खेमे के नेताओं से मिल रही है; और दूसरी चुनौती उन्हें अपने आपस के अंतर्विरोधों से, आपस के अविश्वासों व अपनी-अपनी जिदों से मिल रही है ।

Tuesday, December 18, 2012

सुरेश जैन के यह स्वीकार करने के साथ ही कि सुधीर मंगला की उम्मीदवारी को पर्याप्त समर्थन नहीं मिला है, जेके गौड़ की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद की चुनावी जीत का रास्ता साफ हुआ

नई दिल्ली । सुरेश जैन के सुधीर मंगला को मिले समर्थन की सच्चाई को जान/समझ लेने के साथ ही वह हुआ जिसकी तथ्यपूर्ण ठोस संभावना 'रचनात्मक संकल्प' में लगातार व्यक्त की जाती रही थी । उल्लेखनीय है कि पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुरेश जैन को सुधीर मंगला के समर्थन में उस समय से बताया/देखा/पहचाना जा रहा था जिस समय में, बाद में सुधीर मंगला के समर्थन में आये नेता लोग सुधीर मंगला को चुनावी दौड़ में कहीं भी नहीं देख/पहचान रहे थे । सुधीर मंगला जब चुनावी दौड़ में शामिल होते हुए-से दिखे तब तीन सदस्यीय चुनावी कमेटी के एक सदस्य होने के नाते से सुरेश जैन की सुधीर मंगला के प्रति समर्थन की बात खासी महत्वपूर्ण हो उठी । सुरेश जैन की भूमिका तब और महत्वपूर्ण हो गई जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद का चुनाव डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर्स के दो खेमों के झगड़े में बदलता हुआ दिखा । गौर करने की बात है कि पिछले कुछ दिनों में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के चुनाव के बहाने से पूर्व गवर्नर नेताओं ने अपनी-अपनी पोजीशन ले ली थी - रंग बदलने में गिरगिट को भी मात देने वाले मुकेश अरनेजा और मुहावरे की भाषा में 'थूक कर चाटने वाले' रमेश अग्रवाल ने जैसे ही जेके गौड़ की चुनावी स्थिति को मजबूत पाया, जेके गौड़ की उम्मीदवारी का झंडा लपक लिया । डिस्ट्रिक्ट में बनी मुकेश अरनेजा और रमेश अग्रवाल की बदनामी का फायदा उठाने के उद्देश्य से मंजीत साहनी ने सुधीर मंगला की उम्मीदवारी का झंडा थाम लिया । मुकेश अरनेजा और मंजीत साहनी की इस पोजीशनिंग ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी के चुनाव को इंटरनेशनल डायरेक्टर का चुनाव करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव की रिहर्सल में बदल दिया । मौजूदा इंटरनेशनल डायरेक्टर यश पाल दास की एंट्री ने इस रिहर्सल को और व्यापक बना दिया । यश पाल दास की एंट्री के बाद, इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की चुनावी राजनीति के दूसरे खिलाड़ियों के लिए डिस्ट्रिक्ट 3010 की चुनावी राजनीति से दूर 'दिखना' मुश्किल हो गया और फिर वह भी इस लड़ाई में कूद पड़े ।
पिछले दो-तीन दिनों में तेजी से घटे घटना चक्र में पहले तो यह माहौल बनता हुआ नजर आया कि यश पाल दास डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के चुनाव के झगड़े को सुलटायेंगे, लेकिन फिर जल्दी ही दूसरे इंटरनेशनल डायरेक्टर शेखर मेहता का नजरिया सुनने को मिला कि रोटरी के बड़े नेताओं को इस तरह के झगड़ों में पार्टी नहीं बनना चाहिए । शेखर मेहता के इस नजरिये के साथ पार्टी बनने की खबर मिलते ही यश पाल दास ने अपने बढ़े हुए क़दमों को पीछे खींच लिया । शेखर मेहता के इस नजरिये ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के चुनाव को झगड़े में फँसाने की कोशिश करने वाले लोगों को तगड़ा झटका दिया और वह एकदम से शांत हो गए । सुधीर मंगला की उम्मीदवारी की आड़ में राजनीति करने का जुगाड़ देखने वाले नेताओं के लिए सच्चाई को अनदेखा करना संभव नहीं रह गया । रिकॉर्ड पर जो चीजें थीं उन्हें देख/जान कर सुधीर मंगला के समर्थक के रूप में देखे/पहचाने जाने वाले सुरेश जैन ने भी समझ लिया कि सुधीर मंगला उतना समर्थन सचमुच नहीं जुटा सके हैं, जितने समर्थन की जरूरत थी - और तब उन्होंने भी जेके गौड़ की चुनावी जीत की घोषणा पर मुहर लगाने में देर नहीं की ।
'रचनात्मक संकल्प' में लगातार कहा जाता रहा है कि सुधीर मंगला को अपने तथाकथित समर्थक नेताओं का ही समर्थन नहीं मिला । मंजीत साहनी का ही उदहारण लें - तो हर कोई मानता और जानता है कि मंजीत साहनी यदि सचमुच सुधीर मंगला की मदद करना चाहते तो वह पाँच-छह क्लब्स का समर्थन तो आराम से दिलवा सकते थे, लेकिन उन्होंने अंतिम समय तक जिस तरह से असमंजस बनाये रखा - उससे साफ हुआ कि सुधीर मंगला की उम्मीदवारी का झंडा थामने के बावजूद उनका उद्देश्य सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के लिए कुछ करना नहीं था; वह तो बस अपने आप को एक खेमे का नेता दिखाना चाहते थे । समर्थन और सहयोग जेके गौड़ को भी अपने तथाकथित समर्थक नेताओं से नहीं मिला । जेके गौड़ की चुनावी जीत का श्रेय लेने की होड़ में आगे दिखने की कोशिश करने वाले मुकेश अरनेजा के बारे में कौन नहीं जानता कि जेके गौड़ की उम्मीदवारी को रोकने के लिए मुकेश अरनेजा ने ही आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी को प्रस्तुत करवाया था और जेके गौड़ को हतोत्साहित करने के उद्देश्य  से आलोक गुप्ता के गले में बाहें डाल कर लोगों के सामने घूमा करते थे । सिर्फ इतना ही नहीं, नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला होने से ठीक एक दिन पहले ही मुकेश अरनेजा ने पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर हरीश मल्होत्रा से डॉक्टर सुब्रा के समर्थन में फैसला करवाने को लेकर बात की थी । लेकिन जब नोमीनेटिंग कमेटी में जेके गौड़ का पलड़ा भारी दिखा तो मुकेश अरनेजा ने यह सूँघने में देर नहीं की कि जेके गौड़ के साथ होने में ही फायदा है ।
इस बार के चुनाव से एक बार फिर साबित हुआ है कि चुनाव में नेता लोग काम नहीं आते - जितना आते भी हैं मजबूरी में ही आते हैं; काम अपनी ही सक्रियता और अपना ही व्यवहार आता है । जेके गौड़ की चुनावी जीत उनकी अपनी सक्रियता, उनके अपने व्यवहार और चुनावी समीकरणों को अपने अनुकूल करने की उनकी अपनी तत्परतापूर्ण पहल का ही नतीजा है । जेके गौड़ की उम्मीदवारी को लेकर हर छोटा-बड़ा नेता जिस तरह की बातें करता रहा है, उन्हें याद करते और ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि जेके गौड़ की चुनावी जीत ने बड़बौले नेताओं को बौना साबित किया है ।

Monday, December 10, 2012

मंजीत साहनी ने सुधीर मंगला के रवैये पर हैरानी व्यक्त की और साफ कहा कि सुधीर मंगला को अपनी 'राजनीति' में उनका नाम बदनाम नहीं करना चाहिए

नई दिल्ली । मंजीत साहनी को लेकर सुधीर मंगला ने जो 'राजनीति' की वह मंजीत साहनी के स्पष्टीकरण के कारण सुधीर मंगला को उल्टी पड़ गई है । उल्लेखनीय है कि मंजीत साहनी के लिए तब बड़ी अजीब स्थिति पैदा हो गई जब उन्हें दूसरों से सुनने को मिला कि सुधीर मंगला प्रचारित कर रहे हैं कि उन्होंने अपने क्लब का समर्थन सुधीर मंगला को दिलवा दिया है । मंजीत साहनी को कई लोगों के फोन आये कि सुधीर मंगला का यह दावा क्या सच है ? मंजीत साहनी ने हर किसी से यही कहा कि उन्हें आश्चर्य है कि सुधीर मंगला इस तरह का दावा कर रहे हैं । दूसरों के साथ-साथ मंजीत साहनी के लिए भी हैरानी की बात यह थी कि सुधीर मंगला अपनी राजनीती में उनका नाम क्यों बदनाम कर रहे हैं ? आश्चर्य और हैरानी के बीच मंजीत साहनी ने जो कहा उससे स्पष्ट हुआ कि मंजीत साहनी द्धारा अपने क्लब का समर्थन सुधीर मंगला को दिलवाने की बात सफ़ेद झूठ है । मंजीत साहनी ने बताया कि वह चूंकि लगातार बाहर रहे हैं, इसलिए अपने क्लब की गतिविधियों से ज्यादा परिचित नहीं हैं; लेकिन उन्हें इतना अवश्य पता है कि क्लब के बोर्ड ने चुनाव को लेकर फैसला करने का अधिकार क्लब के अध्यक्ष को दे दिया है और ऐन मौके पर अध्यक्ष जो ठीक समझेंगे, वह फैसला करेंगे ।
मंजीत साहनी ने हालाँकि यह बताने/जताने में कोई परहेज नहीं किया कि सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के प्रति उनकी शुरू से ही सहानुभूति थी और इस बात को उन्होंने हमेशा ही स्पष्ट रूप से लोगों से कहा/बताया है । उन्होंने यहाँ तक कहा/बताया कि सुधीर मंगला के साथ उनके वर्षों पुराने संबंध हैं और डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में भी उन्हें सुधीर मंगला का सहयोग और समर्थन मिलता रहा है - इसलिए उनकी सहानुभूति सुधीर मंगला के प्रति होना स्वाभाविक ही है । लेकिन इसके साथ ही मंजीत साहनी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि चूंकि उनके क्लब की यह परंपरा रही है कि नोमीनेटिंग कमेटी द्धारा चुने गए अधिकृत उम्मीदवार को चेलैंज करने का समर्थन वह नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें उम्मीद है कि इस वर्ष के क्लब के पदाधिकारी भी इस परंपरा का पालन करेंगे । मंजीत साहनी जानते हैं कि उनके क्लब का फैसला रोटरी में उनकी अपनी साख और प्रतिष्ठा पर भी असर डालेगा तथा उनकी 'राजनीति' पर भी - इसलिए वह संभल कर ही फैसला करना चाहते हैं । संभल कर फैसला करने का एक पेंच यह भी है कि उनके क्लब में जिस तरह फैसला करने का अधिकार अध्यक्ष को दे दिया गया है, और अध्यक्ष मनमाने तरीके से फैसला करे - जिसे तकनीकी आधार पर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर निरस्त कर दे, तब क्लब की तो चलिए जाने दीजिये - मंजीत साहनी की साख और प्रतिष्ठा के लिए तो यह एक बड़ा आघात होगा ।
मंजीत साहनी के क्लब के ही कई लोगों का कहना है कि मंजीत साहनी अपने लिए - या क्लब उनकी साख का ध्यान रखते हुए यह 'खतरा' क्यों उठाये ? क्या मंजीत साहनी ने सुधीर मंगला की उम्मीदवारी को अपने तईं कोई मुद्दा बनाया हुआ है ? यह सच है कि वर्षों के संबंधों के चलते मंजीत साहनी के मन में सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के प्रति सहानुभूति का भाव रहा है - कुछ लोग उनके इस 'भाव' को हालाँकि विनोद बंसल के प्रति उनकी नाराजगी 'दिखाने' के रूप में भी देखते/पहचानते हैं । उल्लेखनीय है कि विनोद बंसल द्धारा की जा रही अपनी उपेक्षा से मंजीत साहनी काफी आहत हैं; और चूँकि वह जानते हैं कि विनोद बंसल का विरोध सुधीर मंगला की उम्मीदवारी से है; इसलिए विनोद बंसल के प्रति अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए ही उन्होंने अपने आप को सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के साथ खड़ा दिखाना शुरू किया । यहाँ इस बात पर गौर करना महत्वपूर्ण है कि मंजीत साहनी ने चाहे किसी भी कारण से सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की हो - लेकिन वह सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के समर्थन में सक्रिय कभी भी नहीं नज़र आये हैं । जेके गौड़ की उम्मीदवारी के खिलाफ खड़े दिखने से बचने की भी उन्होंने हर संभव कोशिश की है ।
जेके गौड़ ने दरअसल उनके साथ रोटरी का काफी काम किया है, जिसके लिए मंजीत साहनी कई कई बार सार्वजानिक रूप से जेके गौड़ की प्रशंसा करते रहे हैं । सुधीर मंगला उनके साथ रोटरी का कोई काम करते हुए तो कभी दिखाई नहीं दिए हैं । ऐसे में मंजीत साहनी के लिए यह फैसला करना सचमुच चुनौतीपूर्ण बना कि वह रोटरी के काम में मिले सहयोग को तरजीह दें या व्यक्तिगत संबधों को ? मंजीत साहनी ने - अभी तक तो - दोनों के बीच सामंजस्य बैठाने का अद्भुत कौशल दिखाया है : सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के प्रति अपनी सहानुभूति दिखाने में उन्होंने कोई परहेज नहीं किया, लेकिन साथ ही जेके गौड़ की उम्मीदवारी को नुकसान पहुँचाने वाला कोई काम भी उन्होंने नहीं किया है । सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के प्रति सहानुभूति का भाव होने के बावजूद उन्होंने सुधीर मंगला की उम्मीदवारी को समर्थन दिलवाने की उन्होंने कहीं कोई कोशिश नहीं की है ।
इसीलिये मंजीत साहनी ने जब सुना कि सुधीर मंगला लोगों के बीच दावा कर रहे हैं कि मंजीत साहनी ने अपने क्लब का समर्थन उन्हें दिलवा दिया है, तब मंजीत साहनी ने सुधीर मंगला के रवैये पर आश्चर्य और हैरानी व्यक्त की और साफ कहा कि सुधीर मंगला को अपनी 'राजनीति' में उनका नाम बदनाम नहीं करना चाहिए । लोगों को दिए मंजीत साहनी के इस जबाव ने सुधीर मंगला की तिकड़मों को तगड़ा झटका दिया है । सुधीर मंगला ने सोचा तो यह होगा कि वह मंजीत साहनी का नाम लेकर इस तरह की बात कहेंगे तो उन्हें दूसरे क्लब्स का समर्थन जुटाने में आसानी होगी - लेकिन मंजीत साहनी के दो-टूक जबाव ने सब गड़बड़ कर दिया; और सुधीर मंगला की राजनीतिक चाल को न सिर्फ फेल कर दिया बल्कि सुधीर मंगला का ही नुकसान करवा दिया । इस तरह सुधीर मंगला को अपनी ही होशियारी भारी पड़ी है ।

Sunday, December 9, 2012

समर्थन में समझे जाने वाले क्लब्स और नेताओं के पीछे हटने से सुधीर मंगला के लिए जरूरी क्लब्स का समर्थन जुटाना मुश्किल हुआ

नई दिल्ली । सुधीर मंगला को यह देख/जान कर झटके पर झटके लग रहे हैं कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद की उम्मीदवारी के संदर्भ में जिन लोगों ने उन्हें समर्थन और सहयोग का भरोसा दिया था, वह अब उनका समर्थन करने से बचने लगे हैं । सुधीर मंगला के लिए हालात इतने ख़राब हो गए हैं कि उन्होंने जिन क्लब के समर्थन की खुली घोषणा की थी, उनमें से कई ने उनका समर्थन करने से साफ इंकार कर दिया है । सुधीर मंगला के लिए सबसे बड़ा झटका उन पूर्व गवर्नर्स का रवैया रहा जिन्होंने उनके समर्थन का सिर्फ वायदा ही नहीं किया था, बल्कि खुले तौर पर समर्थन का ऐलान भी किया था । सुधीर मंगला के नजदीकियों का कहना है कि सुधीर मंगला ने जिन पूर्व गवर्नर्स पर भरोसा करके अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की, वही पूर्व गवर्नर्स अब उनकी मदद करने के बजाये बहानेबाजी कर रहे हैं । समर्थन की घोषणा करने वाले पूर्व गवर्नर्स के रवैये को देख कर सुधीर मंगला अपने आप को ठगा हुआ पा रहे हैं ।
उल्लेखनीय है कि नोमीनेटिंग कमेटी द्धारा जेके गौड़ को अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने का फैसला करने के बाद, जेके गौड़ के मुकाबले खड़े होने की घोषणा करते हुए सुधीर मंगला ने कई पूर्व गवर्नर्स का समर्थन मिलने का दावा किया था । उन्होंने लोगों को बताया था कि फलाँ फलाँ पूर्व गवर्नर अपने अपने क्लब का समर्थन तो दिलवायेंगे ही, साथ ही अपने समर्थकों के क्लब से भी समर्थन दिलवायेंगे । सुधीर मंगला की इसी तरह की बातें अब उनके लिए मुसीबत बन गईं हैं । सुधीर मंगला जिस भी क्लब से समर्थन की बात करते हैं, उस क्लब के पदाधिकारी उनसे कहते हैं कि पहले अपने समर्थक पूर्व गवर्नर के क्लब का समर्थन दिखाओ, तब हम समर्थन देंगे । समर्थक पूर्व गवर्नर अपने क्लब का समर्थन देने/दिलवाने से यह कह कर बच रहे हैं कि पहले कुछेक क्लब्स का समर्थन तो जुटाओ, हम तब अपने क्लब का समर्थन देंगे/दिलवायेंगे । इस तरह सुधीर मंगला दोनों तरफ से ही 'मारे' जा रहे हैं - 'पहले उनसे' 'पहले उनसे' के चक्कर में सुधीर मंगला को किसी का भी समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है ।
सुधीर मंगला को सबसे तगड़ा झटका विनोद बंसल के रवैये से लगा है । विनोद बंसल ने पिछले रोटरी वर्ष के अनुभव से सबक लेकर इस बार होशियारी से काम लिया, और बदनाम हुए बिना अपनी राजनीति जमाई । विनोद बंसल के लिए सुधीर मंगला को सबक सिखाना जरूरी था - क्योंकि सुधीर मंगला ने उस समय विनोद बंसल को बहुत तंग किया था जब विनोद बंसल उम्मीदवार थे । उस समय, विनोद बंसल की उम्मीदवारी को बाधित करने और नुकसान पहुँचाने के लिए सुधीर मंगला ने हर संभव प्रयास किया था । सुधीर मंगला के उस समय के किये-धरे को विनोद बंसल भूले नहीं हैं और बदला लेने के लिए पूरी तरह से तैयारी किये हुए रहे । पिछले रोटरी वर्ष के अनुभव से सबक लेकर विनोद बंसल इस वर्ष खुल कर कुछ करने से बचे हैं, लेकिन अंदर-खाने उन्होंने उन क्लब्स के पदाधिकारियों को 'अपना' संदेश भिजवा दिया जिन पर सुधीर मंगला का समर्थन करने का शक था । विनोद बंसल चूंकि आने वाले रोटरी वर्ष में गवर्नर होंगे इसलिए लोगों को उनसे डिस्ट्रिक्ट टीम में पद पाने की उम्मीद है । ऐसे में कोई भी नहीं चाहेगा कि वह ऐसा कुछ करे जो विनोद बंसल को बुरा लगे और अगले रोटरी वर्ष में पद पाने की उसकी उम्मीद मारी जाये । इसी कारण से कई क्लब्स ने - जो सुधीर मंगला के समर्थन में देखे/पहचाने जा रहे थे - सुधीर मंगला का समर्थन करने से साफ इंकार कर दिया है ।
सुधीर मंगला और उनके समर्थकों के लिए हैरानी की बात यह बनी हुई है कि जो पूर्व गवर्नर्स उनके प्रति हमदर्दी भी रखते हैं, या विभिन्न कारणों से जेके गौड़ से खुश नहीं हैं - वह भी उनकी उम्मीदवारी को समर्थन दिलवाने के लिए कुछ कर क्यों नहीं रहे हैं ? मोटे तौर पर इसके दो कारण समझ में आ रहे हैं - एक कारण तो यह है कि पूर्व गवर्नर्स को रोटरी इंटरनेशनल के बड़े नेताओं के बीच अपनी बदनामी का डर है । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के चुनाव में पक्षपातपूर्ण धांधलियों की शिकायतों को लेकर रोटरी इंटरनेशनल के बड़े नेता काफी गंभीर हैं और धांधलियों पर रोक लगाने के उद्देश्य से जो पायलट प्रोजेक्ट लागू किया गया है - उसके पालन पर उनकी नज़र है । पायलट प्रोजेक्ट के पीछे जो भावना है उसमें नोमीनेटिंग कमेटी द्धारा चुने गए अधिकृत उम्मीदवार को चेलैंज करने की प्रक्रिया को हतोत्साहित करने की बात है । ऐसे में, कोई भी पूर्व गवर्नर नहीं चाहेगा कि अधिकृत उम्मीदवार को चेलैंज करने/करवाने की प्रक्रिया में उसकी सक्रियता या मिलीभगत सामने आये । इसे स्वाभाविक रूप से उसके रोटरी इंटरनेशनल के बड़े नेताओं के खिलाफ खड़े होने के रूप में देखा/पहचाना जायेगा - जिसका प्रतिकूल असर रोटरी इंटरनेशनल से उसे मिल सकने वाले ऐसाइनमेंट पर पड़ सकता है । दूसरा कारण यह है कि अधिकतर पूर्व गवर्नर्स को - जो विभिन्न कारणों से जेके गौड़ से खुश नहीं भी हैं उन्हें भी - विश्वास हो चला है कि लोगों के बीच जेके गौड़ ने जैसी जो पैठ बनाई हुई है उसके कारण जीतना/बनना जेके गौड़ को ही है - इसलिए सुधीर मंगला के पक्ष में सक्रिय दिख कर वह यह बदनामी मोल क्यों लें कि उनकी सक्रियता के बाद भी सुधीर मंगला का कुछ नहीं हुआ । कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने इन पक्तियों के लेखक से अलग अलग बात करते हुए साफ कहा कि उन्होंने जेके गौड़ को पहले ही बता दिया है कि वर्षों के परिचय के कारण उनकी हमदर्दी तो सुधीर मंगला के साथ है, लेकिन वह सुधीर मंगला की उम्मीदवारी को समर्थन दिलवाने के लिए कुछ करेंगे नहीं - और रोटरी इंटरनेशनल के पायलट प्रोजेक्ट के उद्देश्य तथा उसकी पीछे की भावना का सम्मान रखेंगे । समर्थन में दिखने/समझे जाने वाले पूर्व गवर्नर्स के इस रवैये ने सुधीर मंगला की उम्मीदवारी के सामने कठिन मुश्किलें खड़ी कर दी हैं और उनके लिए जरूरी क्लब्स का समर्थन जुटाना लोहे के चने चबाना जैसा हो गया है ।


Sunday, December 2, 2012

आलोक गुप्ता ने रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा के धोखे का बदला लेने के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की है क्या ?

गाजियाबाद/नई दिल्ली । आलोक गुप्ता ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत करके सभी को चौंका दिया है । उनकी दावेदारी से सबसे ज्यादा आश्चर्य डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमेश अग्रवाल और डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर मुकेश अरनेजा को हुआ है । आलोक गुप्ता इन दोनों को ही अपना बहुत खास मानते रहे हैं और इन्हीं दोनों के भरोसे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनने की मुहीम में कूदे थे । नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला आने से पहले तक आलोक गुप्ता जो भी करते थे, रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा से पूछ कर या उन्हें बता कर ही करते थे । नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले ने लेकिन संबंधों की इस केमिस्ट्री को पूरी तरह से बदल दिया है । नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला आने के बाद आलोक गुप्ता ने जो पहला फैसला किया - जेके गौड़ के रूप में नोमीनेटिंग कमेटी द्धारा चुने गए अधिकृत उम्मीदवार को चुनौती देने का और अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने का फैसला; उसके बाबत उन्होंने रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा को भी पूरी तरह अँधेरे में रखा । इसीलिये उनकी उम्मीदवारी के कागज डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कार्यालय में पहुँचे तो रमेश अग्रवाल भी हैरान रह गए ।
आलोक गुप्ता के इस फैसले ने सभी को हैरान किया है - क्योंकि वह जोर-शोर के साथ घोषणा कर चुके थे कि यदि जेके गौड़ अधिकृत उम्मीदवार चुने गए तो वह अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत नहीं करेंगे । जिन भी लोगों को उनकी इस घोषणा पर भरोसा नहीं होता था और जो उनकी इस घोषणा को एक स्टंट के रूप में देखते/बताते थे, उन्हें वह आश्वस्त करते थे कि वह उसूलों वाले व्यक्ति हैं और भले ही हालात उनकी उम्मीदवारी के कितने भी अनुकूल दिखते हों, लेकिन वह जेके गौड़ की अधिकृत उम्मीदवारी का विरोध नहीं करेंगे । इतनी साफ घोषणा के बावजूद आलोक गुप्ता ने अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की तो सभी का हैरान होना स्वाभाविक ही है । आलोक गुप्ता अपनी ही घोषणा से क्यों मुकरे हैं - इसे लेकर रहस्य आलोक गुप्ता की चुप्पी के कारण और भी गहरा गया है । राजनीतिक शब्दावली में कहें तो अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के बाद से आलोक गुप्ता जैसे अंडरग्राउंड हो गए हैं, और फोन पर उपलब्ध नहीं हो रहे हैं ।
आलोक गुप्ता का यह व्यवहार किसी की भी समझ से बाहर है - हर कोई मान रहा है कि आलोक गुप्ता अपनी उम्मीदवारी को लेकर यदि वास्तव में गंभीर हैं, तो अंडरग्राउंड रह कर - लोगों से बात करने से बच कर भला कैसे अपनी उम्मीदवारी के लिए काम कर सकेंगे ? इसी कारण से, लोगों का अनुमान है कि उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के पीछे आलोक गुप्ता का उद्देश्य रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा की धोखाधढ़ी का बदला लेना है । आलोक गुप्ता नोमीनेटिंग कमेटी में अधिकृत उम्मीदवार चुनने के तौर-तरीके को लेकर पहले ही आपत्ति दर्ज करा चुके हैं । उन आपत्तियों को हालाँकि इसलिए गंभीरता से नहीं लिया गया है क्योंकि उन्होंने अपनी आपत्तियाँ नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला आने के बाद दर्ज कराई हैं । नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला आने के बाद आलोक गुप्ता की जिन भी लोगों से बातें हुईं हैं, उनसे उन्होंने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में रमेश अग्रवाल की भूमिका को लेकर अपनी नाराजगी खासी तल्खी के साथ व्यक्त की है । इसी आधार पर समझा जाता है कि आलोक गुप्ता ने रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा से अपने आप को ठगा हुआ पाया है ।
आलोक गुप्ता अक्सर ही दावा किया करते थे कि रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा किसी भी कीमत पर जेके गौड़ को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनता हुआ नहीं देखना चाहते हैं । जेके गौड़ के प्रति रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा के विरोध की बातें आलोक गुप्ता जिस विश्वास के साथ बताते/कहते थे, उन पर इसलिए विश्वास किया जाता था क्योंकि उस समय आलोक गुप्ता की नजदीकी रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा के साथ सार्वजानिक रूप से देखी जाती थी । मजे की बात यह है कि उन दिनों जेके गौड़ भी कहा/बताया करते थे कि आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी के पीछे रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा हैं, जिनका उद्देश्य उनके सामने बाधा खड़ी करना है । जेके गौड़ के प्रति रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा के रवैये से आलोक गुप्ता खासे उत्साहित थे - लेकिन नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले के बाद उन्होंने पाया/समझा कि रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा ने उन्हें लगातार धोखे में रखा और उन्हें इस्तेमाल किया । आलोक गुप्ता को पता नहीं क्यों यह विश्वास था कि रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा ने दूसरों के साथ भले ही धोखा किया हो, लेकिन उनके साथ धोखा नहीं करेंगे । किंतु अब उन्हें विश्वास हो चला है कि रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा किसी के भी सगे नहीं हो सकते हैं और अपने स्वार्थ के सामने किसी को भी धोखा दे सकते हैं ।
आलोक गुप्ता ने नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला आने के बाद जिन भी लोगों से बात की है उनका अनुमान है कि आलोक गुप्ता अब रमेश अग्रवाल को बदनाम और परेशान करने के अभियान में जुटेंगे - जैसा कि ललित खन्ना ने और सरोज जोशी ने किया । आलोक गुप्ता को भी इस बात का आभास है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के चुनाव में अब उनके लिए कुछ नहीं बचा है - इसके बावजूद उन्होंने अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की है; जाहिर है कि उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के पीछे उनका उद्देश्य डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद का चुनाव नहीं, बल्कि रमेश अग्रवाल की ऐसी-तैसी करना है । इस मामले में भी, आलोक गुप्ता सचमुच कुछ कर पायेंगे या नहीं, और करेंगे तो क्या और कैसे - यह देखना दिलचस्प होगा ।

Saturday, December 1, 2012

संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में गिरीश आहुजा की सक्रियता ने सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में खासी खलबली पैदा कर दी है

नई दिल्ली । गिरीश आहुजा ने इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए होने वाले चुनाव में संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी का समर्थन करके चुनावी माहौल को खासा गर्मा दिया है । संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में गिरीश आहुजा ने जिस तरह निरंतर अभियान चलाया है, उसे और उसके प्रभाव को देख/जान कर दूसरे उम्मीदवार हक्के-बक्के रह गए हैं, और उनके लिए यह समझ पाना मुश्किल हुआ है कि संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में लगे इस मास्टर स्ट्रोक से बने राजनीतिक माहौल में वह क्या करें ? कुछेक उम्मीदवारों ने कोशिश की कि गिरीश आहुजा उनके समर्थन में भी कहीं कुछ अच्छा कह दें, ताकि लोगों को यह बताया/दिखाया जा सके कि गिरीश आहुजा अकेले संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल के साथ ही नहीं हैं - बल्कि उनके साथ भी हैं । गिरीश आहुजा को इसके लिए राजी करने में असफल रहने के बाद उन्होंने चाल चली कि गिरीश आहुजा लोगों के बीच यह कह दें कि संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल के साथ उन्होंने पिछले दिनों जो प्लेटफॉर्म शेयर किया, वह उनकी एक बिजनेस और इंस्टीट्यूशनल एक्सरसाइज थी और उस एक्सरसाइज का सेंट्रल काउंसिल के चुनाव से या संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी से कोई संबंध नहीं था । गिरीश आहुजा ने लेकिन ऐसा कुछ भी करने से साफ इंकार कर दिया और उनके इस इंकार ने स्पष्ट कर दिया कि संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में चलाया गया उनका अभियान एक सोचा-समझा अभियान है जिसे उन्होंने प्रोफेशनल तैयारी के साथ क्रियान्वित किया है ।
उल्लेखनीय है कि गिरीश आहुजा पहले भी सेंट्रल काउंसिल के चुनावों में कभी इस तो कभी उस उम्मीदवार का समर्थन करते और उन्हें जिताते रहे हैं - लेकिन अभी तक उन्होंने कभी भी सघन रूप से किसी उम्मीदवार के पक्ष में चुनावी अभियान नहीं चलाया । पहली बार, इस बार गिरीश आहुजा ने संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल के समर्थन में जैसा अभियान संयोजित किया है - उसने सभी को हैरान और सेंट्रल काउंसिल के दूसरे उम्मीदवारों को परेशान किया है । पंजाब के विभिन्न प्रमुख शहरों में गिरीश आहुजा ने संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल के साथ जो साझा मीटिंग्स कीं और चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को संबोधित किया, उसने पूरे रीजन में अपना प्रभाव डाला । पूरे रीजन में प्रभाव इसलिए पड़ा, क्योंकि गिरीश आहुजा और संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल के साझा कार्यक्रम का फायदा उठाने के उद्देश्य से नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के कई उम्मीदवार उन मीटिंग्स में शामिल हुए । मजे की बात यह हुई कि सेंट्रल काउंसिल के दूसरे-दूसरे उम्मीदवारों के साथ 'जुड़े' हुए रीजनल काउंसिल के उम्मीदवार इन मीटिंग्स में शामिल होने के लिए संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल के साथ जुड़ने की कोशिश करते देखे/सुने गए । रीजनल काउंसिल के उम्मीदवारों की भागीदारी के चलते संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में होने वाली गिरीश आहुजा की मीटिंग्स को जोरदार प्रचार मिला ।
संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल के समर्थन में गिरीश आहुजा ने जो मीटिंग्स कीं, उसके साथ-साथ उन्होंने चूँकि अपनी क्लासेस के लिए भी कैम्पेन किया - जिसके चलते जिन भी शहरों में उनके आयोजन हुए वहाँ वह बहुत गहमागहमी के साथ हुए और उनके आयोजनों को अच्छा-खासा प्रचार मिला । गिरीश आहुजा की छात्रों के बीच जो लोकप्रियता और प्रतिष्ठा है, उसका संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल ने जमकर फायदा उठाया । दरअसल गिरीश आहुजा के बहुत से पुराने छात्र जो अब चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के रूप में काम कर रहे हैं, गिरीश आहुजा के शहर में आने/होने की बात सुनकर उनके कार्यक्रमों में आये, जिसका फायदा सेंट्रल काउंसिल उम्मीदवार के रूप में संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल को मिला । गिरीश आहुजा की डायरेक्ट टैक्सेस में खास विशेषज्ञता है, जिसके चलते डायरेक्ट टैक्सेस में काम करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स भी उनके कार्यक्रम में जुटे । गिरीश आहुजा से अलग-अलग कारणों से प्रभावित होने/रहने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने गिरीश आहुजा को जब संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में देखा - तो संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी के प्रति उनके बीच भी समर्थन का भाव पैदा हुआ । गिरीश आहुजा के समर्थन के कारण संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी को एक अलग तरह का ऑरा (आभामंडल), एक अलग तरह की विश्वसनीयता और एक अलग तरह की स्वीकार्यता मिली । दरअसल इसीलिये संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी को मिले गिरीश आहुजा के समर्थन ने चुनाव में खासी खलबली पैदा कर दी है ।

काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थिति के मामले में नवीन गुप्ता फिसड्डी, तो संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल फर्स्ट

नई दिल्ली । नवीन गुप्ता को सेंट्रल काउंसिल का चुनाव जितवाने के लिए उनके पापा ने तो दिन-रात एक किया हुआ है, लेकिन नवीन गुप्ता को काउंसिल की मीटिंग में शामिल होना ही पसंद नहीं है । नवीन गुप्ता के पापा एनडी गुप्ता से पूछा जाना चाहिए कि उनके बेटे को जब काउंसिल की मीटिंग्स में कोई दिलचस्पी ही नहीं है और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होना वह जरूरी नहीं समझते हैं तो उन्हें काउंसिल में चुनवाने को लेकर वह इतना परेशान क्यों हो रहे हैं ? एनडी गुप्ता इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट रह चुके हैं; इस लिहाज से उनसे इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह अपने बेटे को काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थित रहने की आवश्यकता और अहमियत बताते/समझाते । काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थिति को लेकर नवीन गुप्ता का जो रिकार्ड है, उसे देख कर लगता है कि या तो उनके पापा ने उन्हें मीटिंग्स में उपस्थित होने की आवश्यकता और अहमियत बताई नहीं है और या पापा के बताये जाने के बावजूद उन्होंने उसे एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर निकाल दिया है । यही कारण है कि फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच काउंसिल की कुल हुईं 15 मीटिंग्स में से नवीन गुप्ता नौ मीटिंग्स में गायब रहे ।
'रचनात्मक संकल्प' के पास फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच हुईं 15 मीटिंग्स का ब्यौरा है । नवीन गुप्ता इनमें से कुल छह मीटिंग्स में उपस्थित हुए । इन 15 में से जो 5 मीटिंग्स वर्ष 2011 तथा 2012 में हुईं हैं, उनमें से तो एक में भी नवीन गुप्ता शामिल नहीं हुए । यह जान कर हो सकता है कि उन लोगों की नाराजगी कुछ कम हो जाये, जिन्हें शिकायत रही है कि नवीन गुप्ता उनके फोन तक नहीं उठाते हैं और जरूरत पड़ने पर जिनसे संपर्क करना तक मुश्किल होता है । इस तरह की शिकायत रखने वाले लोगों को संतोष हो सकता है कि नवीन गुप्ता को जब काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होने में कोई दिलचस्पी नहीं है तो उनके फोन उठाने में वह क्यों दिलचस्पी लें ? नवीन गुप्ता को पूरा हक़ है कि वह किसी के फोन न उठाये और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल न हों - लेकिन तब उन्हें और उनके पापा को लोगों को यह तो बताना ही चाहिए न कि उन्हें काउंसिल के लिए दोबारा क्यों चुना जाये ? स्कूल-कॉलिज तक में नियम है कि उपस्थिति कम होने पर छात्र को परीक्षा में नहीं बैठने दिया जाता है । लेकिन इन बाप-बेटे ने इंस्टीट्यूट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की हैसीयत ऐसी बना दी है कि इसे स्कूल-कॉलिज से भी गई-बीती हालत में पहुँचा दिया है ।
इंस्टीट्यूट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की ऐसी दशा करने के लिए अकेले यही बाप-बेटे जिम्मेदार नहीं हैं - कुछेक दूसरे काउंसिल सदस्यों का रिकॉर्ड भी नवीन गुप्ता से कुछ ही बेहतर है । संदर्भित 15 मीटिंग्स में चरनजोत सिंह नंदा कुल आठ में और पंकज त्यागी नौ में उपस्थित रहे । विनोद जैन ग्यारह मीटिंग्स में उपस्थित हुए, जबकि संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल का 13 उपस्थिति के साथ रिकॉर्ड सबसे अच्छा रहा । अमरजीत चोपड़ा भी 13 मीटिंग्स में उपस्थित रहे । काउंसिल की मीटिंग्स का इस कारण से महत्त्व होता है कि उनमें खास मुद्दों पर विचार-विमर्श होता है जिनके आधार पर नीतिगत फैसले होते हैं । काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थिति के मामले में फिसड्डी रहने के बावजूद अपनी सदस्यता को बचाये रखने के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि वह जब काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थित रहना जरूरी नहीं समझते हैं तो उन्हें फिर से क्यों चुना जाये ?