Thursday, January 31, 2013

कई लोगों की चिंता है कि इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की काउंसिल की मीटिंग्स में दिलचस्पी न लेने वाले नवीन गुप्ता प्रेसीडेंट बन गए तो क्या होगा

नई दिल्ली । एनडी गुप्ता ने अपने बेटे नवीन गुप्ता को इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया का प्रेसीडेंट बनवाने के लिए आजकल अपना दिन-रात एक किया हुआ है । उल्लेखनीय है कि एनडी गुप्ता खुद भी इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के प्रेसीडेंट रह चुके हैं और चूँकि प्रेसीडेंट रहते हुए उन्होंने इंस्टीट्यूट को अपनी निजी जायदाद की तरह इस्तेमाल किया था, इसलिए उसी समय लोगों ने यह भाँप लिया था कि एनडी गुप्ता अपने बेटे को भी इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में लायेंगे और उसे भी प्रेसीडेंट बनवायेंगे । लोगों ने जो भाँपा था, एनडी गुप्ता ने करीब तीन वर्ष पहले उसे चरितार्थ कर दिया और अपने बेटे नवीन गुप्ता को सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बना कर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स मतदाताओं के बीच प्रस्तुत किया । चार्टर्ड एकाउंटेंट्स अपने आपको समझते/बताते जरूर पढ़ा-लिखा हैं, लेकिन मतदाता के रूप में उनका 'व्यवहार' भेड़ों 'सरीखा' ही नज़र आता है । मतदाता के रूप में जिन चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने एनडी गुप्ता की सेवा की थी, करीब-करीब उन्हीं चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने उनका आदेश मिलते ही उनके बेटे की भी सेवा की । एनडी गुप्ता जानते थे कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का चोला पहने हुए कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स उनके भक्त हैं - उन भक्तों को सिर्फ इतना पता चलना चाहिए कि नवीन गुप्ता उनका बेटा है, वह नवीन की सेवा में जुट जायेंगे; इसलिए उम्मीदवार बनाने से पहले एनडी गुप्ता ने अपने बेटे का नाम नवीन गुप्ता से बदल कर 'नवीन एनडी गुप्ता' कर दिया ।
नवीन गुप्ता अपने पापा की इच्छा और अपने पापा के भक्तो की कृपा से सेंट्रल काउंसिल में तो आ गए, लेकिन सेंट्रल काउंसिल की गतिविधियों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखी । यह बात इससे जाहिर है कि फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच काउंसिल की कुल हुईं 15 मीटिंग्स में से नवीन गुप्ता नौ मीटिंग्स में गायब रहे । 'रचनात्मक संकल्प' के पास फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच हुईं 15 मीटिंग्स का जो ब्यौरा है, उसके अनुसार इस समयावधि में संपन्न हुईं 15 मीटिंग्स में नवीन गुप्ता कुल छह मीटिंग्स में उपस्थित हुए । इन 15 में से जो 5 मीटिंग्स वर्ष 2011 तथा 2012 में हुईं हैं, उनमें से तो एक में भी नवीन गुप्ता शामिल नहीं हुए । एनडी गुप्ता इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट रह चुके हैं; इस लिहाज से उनसे इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह अपने बेटे को काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थित रहने की आवश्यकता और अहमियत बताते/समझाते । काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थिति को लेकर नवीन गुप्ता का जो रिकार्ड है, उसे देख कर लगता है कि या तो उनके पापा ने उन्हें मीटिंग्स में उपस्थित होने की आवश्यकता और अहमियत बताई नहीं है और या पापा के बताये जाने के बावजूद उन्होंने उसे एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर निकाल दिया है ।
जिन नवीन गुप्ता ने काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होने की जरूरत नहीं समझी, वह नवीन गुप्ता उन लोगों के संपर्क में रहने की भला क्या जरूरत समझते जिन्होंने उन्हें वोट देकर चुनवाया था । कई लोगों की शिकायत रही कि नवीन गुप्ता उनके फोन तक नहीं उठाते हैं और जरूरत पड़ने पर जिनसे संपर्क करना तक मुश्किल होता है । नवीन गुप्ता को पूरा हक़ है कि वह किसी के फोन न उठाये और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल न हों - उनका यह हक़ तब और बढ़ जाता है जब वह समझ लेते हैं कि उनके पिता के भक्त चार्टर्ड एकाउंटेंट्स मतदाता के रूप में इतने मूढ़ हैं कि फिर भी उन्हें ही वोट देंगे । यही कारण बना कि दूसरी बार भी उन्हें अच्छे-खासे वोट मिले और वह जीते । हालाँकि कई लोगों को यह बाप-बेटे की बेशर्मी ही लगती है कि नवीन गुप्ता को सेंट्रल काउंसिल की मीटिंग में शामिल होने का समय और दिलचस्पी भले ही न हो, लेकिन उन्हें इंस्टीट्यूट का प्रेसीडेंट बनना है । दरअसल दोनों जानते हैं कि नाकारा भूमिका के बावजूद नवीन गुप्ता जिस तरह काउंसिल का चुनाव जीत गए हैं, उसी तरह वह प्रेसीडेंट भी बन जा सकते हैं । दरअसल वह जानते हैं कि हर शाख पे उनके भक्त चार्टर्ड एकाउंटेंट्स बैठे हैं ।
'भक्तों' के आलावा जो लोग हैं उन्हें तो लेकिन नवीन गुप्ता को प्रेसीडेंट बनाने/बनवाने में लगे एनडी गुप्ता से यह पूछने का हक़ है कि उनके बेटे को जब काउंसिल की मीटिंग्स में कोई दिलचस्पी ही नहीं है और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होना वह जरूरी नहीं समझते हैं तो उन्हें काउंसिल में चुनवाने को लेकर तथा अब प्रेसीडेंट बनवाने को लेकर वह इतना परेशान क्यों हो रहे हैं ? उल्लेखनीय है कि स्कूल-कॉलिज तक में नियम है कि उपस्थिति कम होने पर छात्र को परीक्षा में नहीं बैठने दिया जाता है । लेकिन इन बाप-बेटे ने इंस्टीट्यूट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की हैसीयत ऐसी बना दी है कि इसे स्कूल-कॉलिज से भी गई-बीती हालत में पहुँचा दिया है । ऐसे में, नवीन गुप्ता यदि कहीं सचमुच प्रेसीडेंट बन गए तो कल्पना कीजिये कि इंस्टीट्यूट का क्या हाल होगा ?

Tuesday, January 29, 2013

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 बी वन में अपनी राजनीति को बचाने के लिए गुरनाम सिंह ने भूपेश बंसल और अनुपम बंसल के बीच झगड़ा पैदा करने की चाल चली है

लखनऊ । गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा अपने फायदे के लिए क्या पूर्व गवर्नर भूपेश बंसल और अगले लायन वर्ष में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का पदभार संभालने की तैयारी कर रहे उनके भाई अनुपम बंसल के बीच झगड़ा करवाने की कोशिश कर रहे हैं ? लोगों के बीच यह सवाल इसलिए पैदा हुआ क्योंकि पिछले कुछ समय से गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा की तरफ से लोगों को बताया जा रहा है कि भूपेश बंसल भले ही केएस लूथरा के साथ हों, लेकिन अनुपम बंसल को भूपेश बंसल का यह रवैया पसंद नहीं है और अनुपम बंसल पूरी तरह से गुरनाम सिंह के साथ हैं । मजे की बात यह है कि भूपेश बंसल और अनुपम बंसल ने अपने आप को विशाल सिन्हा और शिव कुमार गुप्ता के बीच होने वाले चुनावी झमेले से दूर ही रखा हुआ है - लेकिन फिर भी गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा उन्हें अपने समर्थन में होने का झूठा प्रचार लगातार किये जा रहे हैं । भूपेश बंसल के बारे में किये जा रहे उनके झूठे प्रचार की पोल तो इस बात से खुल गई है कि उनकी लाख कोशिशों के बाद भी भूपेश बंसल ने कॉन्फ्रेंस चेयरपरसन का पद नहीं छोड़ा है । भूपेश बंसल के कॉन्फ्रेंस चेयरपरसन के पद को न छोड़ने के फैसले को गुरनाम सिंह के समानांतर सत्ता केंद्र बनने के उनके प्रयास के रूप में देखा/पहचाना गया है ।
भूपेश बंसल ने हालाँकि लगातार यह कहा/बताया है कि कॉन्फ्रेंस चेयरपरसन का पद उन्होंने सिर्फ इसलिए स्वीकार किया है, ताकि डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस को डिस्ट्रिक्ट की और लायनिज्म की परंपरा व मर्यादा के अनुसार आयोजित किया जा सके । भूपेश बंसल ने जोर देकर कहा कि केएस लूथरा को हमीं लोगों ने दिन-रात एक करके गवर्नर बनाया/बनवाया है, इसलिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में उनकी मदद करना भी हमारा फ़र्ज़ है और हम उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकते हैं । भूपेश बंसल का कहना है कि उनके कॉन्फ्रेंस चेयरपरसन बनने के पीछे कोई राजनीति नहीं देखी जानी चाहिए । लोग लेकिन उनके कॉन्फ्रेंस चेयरपरसन बनने के फैसले के पीछे राजनीति देख रहे हैं । गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा को उनका यह फैसला अभी तक भी हज़म नहीं हो सका है । विशाल सिन्हा ने तो भूपेश बंसल पर इस बात के लिए पूरा दबाव बनाया कि वह कॉन्फ्रेंस चेयरपरसन का पद स्वीकार न करें । भूपेश बंसल ने विशाल सिन्हा को हड़काया भी कि तुम खुद तो पद प्राप्त करने के लिए तिकड़में करते रहते हो, और मुझसे कह रहे हो कि मैं पद न लूँ । भूपेश बंसल ने उन्हें साफ शब्दों में जता/बता दिया कि तुम्हें मुझसे यह कहने का कोई हक़ नहीं है कि मैं कहाँ क्या पद लूँ या न लूँ । लेकिन विशाल सिन्हा फिर भी भूपेश बंसल पर दबाव बनाने की कोशिश करते रहे । गुरनाम सिंह ने भी विशाल सिन्हा का समर्थन किया - लेकिन भूपेश बंसल ने किसी की नहीं सुनी ।
भूपेश बंसल को कॉन्फ्रेंस चेयरपरसन न बनने के लिए राजी करने में असफल रहने के बाद गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा की जोड़ी ने नई चाल चली । अब उन्होंने भूपेश बंसल को बदनाम करने की मुहिम शुरू की । उन्होंने प्रचारित किया कि भूपेश बंसल डिस्ट्रिक्ट के नेता बनना चाहते हैं और गुरनाम सिंह की जगह लेना चाहते हैं । इसी प्रचार-क्रम में उन्होंने कहा/बताया कि भूपेश बंसल को भारी गलतफहमी है कि अगले वर्ष जब अनुपम बंसल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद पर होंगे तब डिस्ट्रिक्ट में उनकी चलेगी । गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा ने लोगों के बीच दावा किया हुआ है कि सब देखेंगे कि अनुपम बंसल के गवर्नर-काल में भी चलेगी गुरनाम सिंह की ही और भूपेश बंसल को कोई पूछेगा भी नहीं । उल्लेखनीय है कि भूपेश बंसल और अनुपम बंसल रिश्ते में भाई हैं और एक ही क्लब में हैं । इस तथ्य के संदर्भ में गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा की इस तरह की बातों को भूपेश बंसल और अनुपम बंसल के बीच झगड़ा पैदा करने की कोशिश के रूप में देखा/पहचाना गया है ।
गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा को ऐसा करना दरअसल इसलिए जरूरी लग रहा है क्योंकि वह मान और समझ रहे हैं कि भूपेश बंसल भले ही चुनावी राजनीति में कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभा रहे हैं - लेकिन लोगों के बीच उन्हें केएस लूथरा के साथ होने के कारण शिव कुमार गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में देखा/पहचाना जा रहा है । ऐसे में उन्हें डर इस बात का हुआ है कि भूपेश बंसल के साथ कहीं अनुपम बंसल को भी शिव कुमार गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में न देखा/पहचाना जाना लगे ? यह डर इसलिए भी हुआ क्योंकि अनुपम बंसल ने भी अपने आप को विशाल सिन्हा और शिव कुमार गुप्ता के बीच के चुनावी मुकाबले में किसी एक तरफ 'दिखने' से बचाया हुआ है । अनुपम बंसल ने ऐसा इसलिए किया हुआ है, ताकि उन्हें नेगेटिव वोट न पड़ें । अनुपम बंसल की इस 'राजनीति' में गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा को लेकिन अपनी राजनीति पिटती हुई दिख रही है । अपनी राजनीति को बचाने के लिए गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा ने भूपेश बंसल और अनुपम बंसल के बीच झगड़ा पैदा करने और उस 'झगड़े' को प्रचारित करने की चाल चल दी है । देखने की बात होगी कि गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा की इस चाल का भूपेश बंसल और अनुपम बंसल कैसे और क्या जबाव देते हैं ?   

Monday, January 28, 2013

मुकेश अरनेजा ने ललित खन्ना का बदला उनकी पत्नी नीलू खन्ना से लेने का निश्चय किया है और दावा किया है कि वह नीलू खन्ना को इनरव्हील की डिस्ट्रिक्ट चेयरपरसन नहीं बनने देंगे

नई दिल्ली । मुकेश अरनेजा ने अब इनरव्हील क्लब्स की राजनीति करने का भी निश्चय किया है और वहाँ उनके निशाने पर होंगी नीलू खन्ना । नीलू खन्ना को इनरव्हील क्लब्स में एक वर्ष बाद डिस्ट्रिक्ट चेयरपरसन बनना है; लेकिन मुकेश अरनेजा ने ऐलान किया है कि वह देखते हैं कि नीलू खन्ना कैसे चेयरपरसन का पदभार संभालती हैं । मुकेश अरनेजा के निशाने पर आने के लिए नीलू खन्ना का गुनाह सिर्फ यह है कि वह ललित खन्ना की पत्नी हैं । मुकेश अरनेजा का असली गुस्सा ललित खन्ना के प्रति है - लेकिन उनका तो वह कुछ कर नहीं सकते हैं; इसलिए ललित खन्ना से अपना बदला पूरा करने के लिए उन्होंने नीलू खन्ना को निशाने पर लेने की तैयारी की है । मुकेश अरनेजा आजकल खाली भी हैं, रोटरी में उन्हें कोई उम्मीदवार अभी मिला नहीं है - लिहाजा उन्होंने ललित खन्ना से निपटने का काम खोज लिया है ।
ललित खन्ना से मुकेश अरनेजा की नाराजगी का कारण यह है कि ललित खन्ना के कारण मुकेश अरनेजा की राजनीति की सारी चमक और धमक मिट्टी में मिल गई है । मुकेश अरनेजा खुद से इतराते हुए डींगे भले ही मारते हों कि वह ही डिस्ट्रिक्ट की राजनीति को नियंत्रित करते हैं, और वह ही चुनाव जितवाते हैं और उन्होंने ही जेके गौड़ को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बनवाया है - लेकिन जब लोग उनसे पूछते हैं कि तुम अगर इतने ही प्रभावी नेता हो तो तुमने अपने क्लब के ललित खन्ना को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी क्यों नहीं बनवाया; तब मुकेश अरनेजा का सारा इतराना झड़ जाता है । इस सवाल के चलते मुकेश अरनेजा की सबसे ज्यादा किरकिरी अपने ही क्लब में हो रही है । अपनी तथाकथित उपलब्धियों का बखान करके मुकेश अरनेजा अभी तक अपने क्लब में अपनी तारीफों के कसीदे खुद ही पढ़ लिया करते थे - लेकिन उक्त सवाल के चलते उनके लिए ऐसा कर पाना अब मुश्किल हो गया है । क्लब के लोग उनसे पूछते भी हैं कि ललित खन्ना उनके क्लब के पुराने सदस्य हैं, हमेशा ही उनके बहुत खास रहे हैं, उनके ही कहने और प्रेरित करने पर वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवार बने - तब फिर उन्होंने ललित खन्ना को क्यों नहीं डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बनवाया, जेके गौड़ को क्यों बनवाया ?
ललित खन्ना को लेकर पूछे जाने वाले इस सवाल के बाद क्लब के लोगों के बीच अगला सवाल यह पैदा हुआ कि मुकेश अरनेजा ने कहीं जेके गौड़ का समर्थन करने के बदले में उनसे पैसे तो नहीं ऐंठे हैं ? यह सवाल दरअसल इसलिए पैदा हुआ क्योंकि क्लब के लोग जानते हैं कि बिजनेस फ्रंट पर मुकेश अरनेजा की हालत आजकल पतली चल रही है और वह भी असित मित्तल वाले 'रास्ते' पर हैं । क्लब के लोग यह भी जानते हैं कि मुकेश अरनेजा ने जेके गौड़ को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लायक कभी माना ही नहीं; और जेके गौड़ ही उन्हें तथा दूसरों को बताया करते थे कि मुकेश अरनेजा ने उन्हें चुनावी मुकाबले से बाहर करने के लिए आलोक गुप्ता को मोहरा बनाया हुआ है । नोमीनेटिंग कमेटी का गठन होने और उसके द्धारा फैसला करने के ठीक एक दिन पहले मुकेश अरनेजा ने पूर्व गवर्नर हरीश मल्होत्रा को फोन करके डॉक्टर सुब्रमणियन को नोमीनेट कराने में मदद का भरोसा दिया था तब फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि मुकेश अरनेजा ने अचानक से जेके गौड़ की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया । कुछेक लोगों को लगता है कि यह भांप लेने के बाद कि जेके गौड़ में ही दम है और वही डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुने जायेंगे, मुकेश अरनेजा ने रंग बदल कर जेके गौड़ की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया; लेकिन जो लोग मुकेश अरनेजा के बिजनेस के बुरे दौर से गुजरने की बात जानते हैं उनका कहना है कि जेके गौड़ के समर्थन को उन्होंने एक बिजनेस डील के रूप में पहचाना और जेके गौड़ की उम्मीदवारी का समर्थन करने के लिए मुकेश अरनेजा ने मोटी रकम बसूली है ।
मुकेश अरनेजा के क्लब के लोगों का ही कहना है कि मोटी रकम के लालच में ही मुकेश अरनेजा ने अपने ही क्लब के सदस्य ललित खन्ना की उम्मीदवारी के साथ धोखा किया - जबकि ललित खन्ना के साथ उनके वर्षों के संबंध हैं और ललित खन्ना ने उनके ही कहने से अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत किया था । इस स्थिति के चलते मुकेश अरनेजा के लिए अपने ही क्लब के लोगों का सामना करना मुश्किल हो गया है । मुकेश अरनेजा इस स्थिति के लिए ललित खन्ना को जिम्मेदार मानते/ठहराते हैं । उम्मीदवारी प्रस्तुत करके ललित खन्ना अपने लिए तो कुछ नहीं पा सके, लेकिन उनकी उम्मीदवारी ने मुकेश अरनेजा की अच्छी खासी फजीहत जरूर कर दी है । मुकेश अरनेजा के सामने समस्या लेकिन यह है कि वह ललित खन्ना का करें तो क्या करें ? ललित खन्ना का कुछ करना भी उन्हें लेकिन जरूरी लगता है । सो, मुकेश अरनेजा ने ललित खन्ना का बदला उनकी पत्नी नीलू खन्ना से लेने का निश्चय किया है । अपने नजदीकियों से मुकेश अरनेजा ने बता दिया है कि वह नीलू खन्ना को इनरव्हील की डिस्ट्रिक्ट चेयर परसन नहीं बनने देंगे ।
जाहिर है कि मुकेश अरनेजा को काम मिल गया है । 

Sunday, January 27, 2013

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 बी वन में शिव कुमार गुप्ता की उम्मीदवारी को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर केएस लूथरा के खुले समर्थन के चलते विशाल सिन्हा की मुश्किलें बढ़ीं

लखनऊ । शिव कुमार गुप्ता ने सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए अपनी उम्मीदवारी को जिस तेवर और आयाम के साथ प्रस्तुत किया है, उसके चलते डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में खासी गर्मी पैदा हो गई है । सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के उम्मीदवार के रूप में शिव कुमार गुप्ता की खूबी सिर्फ यही नहीं है कि वह डिस्ट्रिक्ट के एक अनुभवी लायन हैं और वर्षों से डिस्ट्रिक्ट में बने बसंत और पतझड़ के मौकों के गवाह होने के साथ-साथ उनके वाहक और पथमार्गी भी रहे हैं - उनकी खूबी यह भी है कि वह एक जुझारू व्यक्तित्व के स्वामी भी हैं; और उनका जुझारूपन सिर्फ जोश वाला नहीं, बल्कि होश वाला भी है । इसी कारण से, उनकी उम्मीदवारी को संशय के घेरे में घेरने की विरोधियों की चाल सफल नहीं हो पाई है । एक उम्मीदवार के रूप में, देरी से अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले शिव कुमार गुप्ता ने लोगों के बीच यह विश्वास बना लेने में लेकिन कोई देर नहीं लगाई है कि वह काफी दमदारी से चुनाव लड़ेंगे । सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की उनकी उम्मीदवारी का आयाम तब और बड़ा हो जाता है, जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर केएस लूथरा को उनके साथ देखा/पहचाना जाता है । केएस लूथरा को यूँ तो काफी सीधा-साधा माना/समझा जाता है, लेकिन अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के मामले में उन्हें काफी लगनशील रहते हुए देखा/पाया गया है । शिव कुमार गुप्ता और केएस लूथरा की जोड़ी को एक और एक दो के गणित में नहीं, बल्कि एक और एक ग्यारह के गणित में माना/समझा जा रहा है - और इसीलिए इन दोनों के एक साथ होने को एक बड़ी घटना के घटित होने की आहट के रूप में ‘सुना’ और महसूस किया जा रहा है ।
शिव कुमार गुप्ता को सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनना है तो केएस लूथरा को गुरनाम सिंह से निपटना है । दोनों हालांकि अच्छे से जानते हैं कि उनका ‘काम’ कोई आसान काम नहीं है - लेकिन फिर भी अपने.अपने काम को लेकर यह दोनों उत्साहित दिख रहे हैं तो इसका कारण लोगों से मिल रही सकारात्मक प्रतिक्रिया में देखा/पहचाना जा रहा है । यहाँ इस बात पर गौर करना महत्वपूर्ण होगा कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में किए जाने वाले केएस लूथरा के कार्यक्रमों को फेल करने की गुरनाम सिंह ने जो भी कोशिश की, उसमें गुरनाम सिंह को जरा भी सफलता नहीं मिली । डिस्ट्रिक्ट के कार्यक्रमों से लोगों को दूर रखने/करने की गुरनाम सिंह की तमाम कोशिशों के बावजूद लोगों की जो भागीदारी कार्यक्रमों में रही, उससे केएस लूथरा का उत्साह ही बढ़ा है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में केएस लूथरा ने प्रोजेक्ट्स करने पर जो जोर दिया, उसे भी लोगों का और क्लब्स का अच्छा समर्थन और सहयोग मिला । प्रोजेक्ट्स पर जोर देने की केएस लूथरा की प्रेरणा को क्लब्स ने और लोगों ने जिस उत्साह के साथ अपनाया, उससे यह आभास भी मिला कि डिस्ट्रिक्ट में लोग लायनिज्म के नाम पर गुरनाम सिंह की ‘सिर्फ और सिर्फ राजनीति’ से तंग आ गये हैं, और कुछ सचमुच की लायनिज्म करना चाहते हैं । इसी ‘बात’ को शिव कुमार गुप्ता ने अपनी उम्मीदवारी को देरी से प्रस्तुत करने के कारण के रूप में रेखांकित किया है । उम्मीदवारी को देरी से प्रस्तुत करने को लेकर विरोधियों द्धारा ‘घेरे जाने’ का शिव कुमार गुप्ता ने यह कहते हुए करारा जबाव दिया है कि उनका मानना है कि चुनावी राजनीति का झमेला दूसरी कैबिनेट मीटिंग के बाद शुरू होना चाहिए, ताकि लायन वर्ष के शुरू के कुछेक महीनों में प्रोजेक्ट्स पर ध्यान दिया जा सके ।  
शिव कुमार गुप्ता की उम्मीदवारी का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है। शिव कुमार गुप्ता जिस क्लब में हैं उस क्लब में विद्या शंकर दीक्षित और नीरज बोरा हैं । चुनावी राजनीति के संदर्भ में, नए लायन सदस्यों के लिए इस महत्वपूर्ण तथ्य को जानना प्रसंगिक होगा कि विद्या शंकर दीक्षित करीब दो दशक पहले गुरनाम सिंह को हरा कर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बने थे; और नीरज बोरा करीब एक दशक पहले गुरनाम सिंह के खुले विरोध के बावजूद डिस्ट्रिक्ट गवर्नर चुने गये थे । तो क्या शिव कुमार गुप्ता के रूप में नियति ने गुरनाम सिंह के सामने एक बार फिर ‘पराजय’ को भेजा है । हालांकि कई लोगों का मानना और कहना है कि दो दशक पहले और एक दशक पहले उनके साथ चाहे जो हुआ हो, किंतु अब गुरनाम सिंह को ‘हराना’ आसान नहीं है । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति पर गुरनाम सिंह की जैसी पकड़ है; लोगों को विरोधी खेमे से दूर करके अपने साथ लाने का उनका जो हुनर है - उसका मुकाबला करना आसान नहीं है । पुराने लायन सदस्य हालांकि बताते हैं कि विद्या शंकर दीक्षित और नीरज बोरा के लिए भी गुरनाम सिंह को हराना आसान नहीं था - लेकिन फिर भी उन्होंने गुरनाम सिंह को हराया ही था । दरअसल हर चुनाव की अपनी एक अलग केमिस्ट्री होती है - जो चुनावी नतीजे को प्रभावित करती है । गुरनाम सिंह जो चुनाव जीते हैं और या जो हारे हैं - वह उस चुनाव की केमिस्ट्री के नतीजे के रूप में सामने आये हैं । इसी आधार पर कहा जा सकता है कि इस वर्ष के चुनाव का नतीजा इस वर्ष की केमिस्ट्री पर निर्भर करेगा । केएस लूथरा और शिव कुमार गुप्ता का गठजोड़ यदि मजबूत नजर आता है, तो गुरनाम सिंह और विशाल सिन्हा का गठजोड़ भी कमजोर नहीं दिखता है । पिछले वर्षों में विशाल सिन्हा की सक्रियता को भी उल्लेखनीय रूप में देखा/पहचाना गया है ।
गौर करने की बात यह भी है कि विशाल सिन्हा पिछले कुछेक वर्षों में डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में बहुत नजदीक से शामिल रहे हैं; और इस कारण से वह चुनावी राजनीति के हथकंडों को अच्छे से जानते/पहचानते भी हैं और उन्हें इस्तेमाल करने की सलाहियत भी रखते  हैं । अपने सहयोगी व्यवहार से उन्होंने लोगों को अपना दोस्त बनाया है और अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन पक्का करने का काम भी किया है । उनके खिलाफ सिर्फ एक ही बात जाती है और वह यह कि उन्होंने अपनी स्वतंत्रा पहचान बनाने की कोशिश नहीं की और उन्हें गुरनाम सिंह के ‘भक्त’ के रूप में ही देखा और पहचाना जाता है । उनकी यह पहचान उनके लिए एक तरफ यदि फायदे का सौदा है, तो दूसरी तरफ नुकसान का कारण भी है । दरअसल अपनी इस पहचान के चलते, विशाल सिन्हा के लिए ऐसे लोगों का समर्थन जुटाना मुश्किल हो सकता है जो गुरनाम सिंह के खिलाफ रहते हैं । दरअसल, विरोधियों ने भी इसी बात को ‘इस्तेमाल’ करने की रणनीति बनाई है । विशाल सिन्हा और शिव कुमार गुप्ता के बीच मुकाबले का जो ‘स्टेज’ तैयार होता नजर आ रहा है, उसमें मुद्दा गुरनाम सिंह, उनका व्यवहार और उनकी राजनीति को ही बनना है । केएस लूथरा ने बड़ी होशियारी से इस बात को लोगों के बीच बहस के केंद्र में लाने की तैयारी की है कि गुरनाम सिंह जब उनके जैसे व्यक्ति के साथ नहीं निभा सकते हैं, तो फिर किसके साथ निभा सकेंगे ? 
गुरनाम सिंह दरअसल ‘डिस्ट्रिक्ट गवर्नर केएस लूथरा’ को वह हक और सम्मान नहीं दे सके, जिसके ‘डिस्ट्रिक्ट गवर्नर केएस लूथरा’ पूरी तरह हकदार थे । अंदर की बात जानने वालों का दावा है कि केएस लूथरा ने गुरनाम सिंह को झेलने की बहुत कोशिश की, लेकिन गुरनाम सिंह के तौर-तरीके जब हद से बाहर ही होते गये, तो अपने आत्मसम्मान को बचाये रखने की खातिर केएस लूथरा को उनकी गिरफ्त से बाहर आने के लिए मजबूर होना ही पड़ा । केएस लूथरा को बदनाम करने में गुरनाम सिंह और उनके लोगों ने हालांकि कोई कसर नहीं छोड़ी है; लेकिन गुरनाम सिंह की बदकिस्मती है कि लोग उन्हें भी जानते हैं और केएस लूथरा को भी जानते हैं । इसलिए केएस लूथरा को कठघरे में खड़े करने की उनकी कोई भी तरकीब काम करती हुई नहीं दिख रही है । इसी कारण से, केएस लूथरा और शिव कुमार गुप्ता को लग रहा है कि गुरनाम सिंह का पहले जैसा जलवा अब नहीं रह गया है । लेकिन कई लोगों का मानना और कहना है कि केएस लूथरा को डिस्ट्रिक्ट गवर्नरी न करने देने के मामले में गुरनाम सिंह को भले ही मुँहकी खानी पड़ी हो, लेकिन चुनावी मुकाबले के मामले में गुरनाम सिंह को कमजोर समझना भूल होगी । यह बात तो सच है, लेकिन शिव कुमार गुप्ता की उम्मीदवारी को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर केएस लूथरा का जैसा जो खुला और सक्रिय समर्थन मिल रहा है, उसके चलते विशाल सिन्हा के लिए मुश्किलें तो बढ़ गईं हैं ।

Wednesday, January 23, 2013

अनुज गोयल को लगता है कि लोग उनकी करतूतों को भूल गए होंगे और तीन-तिकड़मों के भरोसे वह इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का वाइस प्रेसीडेंट पद पा लेंगे

नई दिल्ली/गाजियाबाद । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया के वाइस प्रेसीडेंट पद की दौड़ में अनुज गोयल के शामिल हो जाने से उन लोगों को तगड़ा झटका लगा है जो इंस्टीट्यूट को और प्रोफेशन को बहुत ही आदर्श और पवित्र निगाह से देखते हैं । ऐसे लोगों के बीच डर यह पैदा हुआ है कि अनुज गोयल यदि वाइस प्रेसीडेंट बन गए तो इंस्टीट्यूट की साख और प्रतिष्ठा का क्या होगा ? लोग करीब तीन वर्ष पहले की उस घटना को अभी भूले नहीं हैं, जब इंस्टीट्यूट के मुख्यालय में एक लड़की को लेकर मारपिटाई और तमाम हंगामा हो गया था तथा मुख्यालय में पुलिस बुलानी पड़ गई थी । उत्तम अग्रवाल के अध्यक्ष-काल में घटी इस घटना के प्रमुख सूत्रधार अनुज गोयल ही थे । अनुज गोयल चूँकि उत्तम के बहुत ही खास थे, इसलिए अनुज गोयल ने यह एक ऐसा कांड रचा कि इंस्टीट्यूट की और प्रोफेशन की साख और प्रतिष्ठा के धूल में मिलने का खतरा पैदा हो गया था । लीपा-पोती करके किसी तरफ मामले को रफा-दफा किया गया ।
अनुज गोयल ने लेकिन उसके बाद इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन को तब सुर्ख़ियों में ला दिया जब इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के चुनाव के इतिहास में पहली बार बूथ कैप्चरिंग जैसी घटना हुई । गाजियाबाद के एक पोलिंग बूथ पर हुई बूथ कैप्चरिंग की घटना के पीछे अनुज गोयल को पहचाना गया और इसे लेकर इंस्टीट्यूट में जाँच आदि का नाटक भी रचा गया - पर किसी को उम्मीद नहीं थी कि उस जाँच का कोई नतीजा निकलेगा, सो बात आई-गई हो गई । इन घटनाओं से लेकिन अनुज गोयल सेंट्रल काउंसिल के दूसरे सदस्यों के बीच अलग-थलग जरूर पड़ गए । सेंट्रल काउंसिल में अपने दूसरे टर्म के तीन वर्ष अनुज गोयल ने कतई अकेलेपन और बेगानेपन में काटे । वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए अपने पहले ही टर्म में प्रयास करने वाले अनुज गोयल ने दूसरे टर्म में - इसी कारण से कोई प्रयास नहीं किया । तीसरे टर्म में अनुज गोयल ने लेकिन फिर अपने आप को सक्रिय किया है और वाइस प्रेसीडेंट पद की दौड़ में शामिल हो गए हैं । अनुज गोयल को लगता है कि लोग उनकी करतूतों को भूल गए होंगे और तीन-तिकड़मों के भरोसे वह वाइस प्रेसीडेंट पद पा लेंगे ।
अनुज गोयल की बदकिस्मती लेकिन यह है कि लोग उनकी करतूतों को भूले नहीं हैं और मानते हैं कि उनके जैसा व्यक्ति यदि वाइस प्रेसीडेंट बन गया तो यह इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा । अनुज गोयल के इंस्टीट्यूट - रिलाइबल इंस्टीट्यूट में हाल ही में घटी एक घटना ने अनुज गोयल की करतूतों की याद को और ताज़ा बना दिया है । रिलाइबल इंस्टीट्यूट अनुज गोयल का अपना निजी पारिवारिक किस्म का इंस्टीट्यूट है जिसमें वह प्रेसीडेंट हैं । अनुज गोयल का यह इंस्टीट्यूट एकेडमिक क्षेत्र में तो अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया है, लेकिन पिछले दिनों इसने अश्लील मैसेज को लेकर अख़बारों की सुर्खियाँ जरूर बटोरी । अखबारी ख़बरों के अनुसार, यहाँ भी अनुज गोयल के नेतृत्व वाले प्रबंधन ने मामले को दबाने और रफा-दफा करवाने में दिलचस्पी ली । रिलाइबल इंस्टीट्यूट में घटी घटना और अनुज गोयल के नेतृत्व वाले प्रबंधन के रवैये ने इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स में की गई अनुज गोयल की कारस्तानियों को लोगों के ध्यान में ला दिया है और इसके चलते अनुज गोयल की अध्यक्ष पद की चुनावी दौड़ पर प्रतिकूल असर पड़ा है ।


Monday, January 21, 2013

सौ करोड़ रुपयों के नागपुर जमीन घोटाले में मिलीभगत वाइस प्रेसीडेंट पद के चुनाव में चरनजोत सिंह नंदा के लिए मुसीबत बनी

नई दिल्ली । चरनजोत सिंह नंदा की इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के अध्यक्ष पद तक की दौड़ में नागपुर का सौ करोड़ रुपयों का जमीन घोटाला बाधा बनता दिख रहा है । उल्लेखनीय है कि उक्त घोटाले के संभव होने में चरनजोत सिंह नंदा का प्रमुख हाथ बताया/पहचाना जाता है । इसी तथ्य का वास्ता देकर कहा जा रहा है कि चरनजोत सिंह नंदा यदि कहीं अध्यक्ष बन गए तो वह तो इंस्टीट्यूट को बिलकुल लुटवा ही देंगे । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के एक सदस्य का कहना है कि चरनजोत सिंह नंदा जब अध्यक्ष नहीं थे, तब उन्होंने इंस्टीट्यूट को सौ करोड़ रुपयों की चपत लगवा दी - तो समझिये कि यदि वह अध्यक्ष बन गए तो इंस्टीट्यूट में कैसी लूट मचवा देंगे ।
चरनजोत सिंह नंदा और उनके समर्थक हालाँकि इस तरह की बातों से निश्चिंत दिखने की कोशिश कर रहे हैं । उनका तर्क है कि इस तरह की बातों के बावजूद अभी हाल ही में हुए चुनाव में अपने रीजन में उन्हें सबसे ज्यादा वोट मिले हैं । नागपुर के सौ करोड़ रुपयों के जमीन घोटाले में मिलीभगत के आरोपों के बावजूद चरनजोत सिंह नंदा को जिस तरह से चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का समर्थन मिला है, उसी तरह से - उन्हें उम्मीद है कि - वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में भी उन्हें समर्थन मिल जायेगा । वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए समर्थन जुटाने के अपने अभियान में चरनजोत सिंह नंदा ने वोटरों को समझाया है - और उनके समर्थक भी धड़ल्ले से दावा कर रहे हैं कि चुनाव जीतने की एक ट्रिक होती है, और चरनजोत सिंह नंदा को वह ट्रिक पता है । चरनजोत सिंह नंदा को और उनके समर्थकों को विश्वास है कि सौ करोड़ रुपयों के नागपुर जमीन घोटाले में मिलीभगत के आरोपों के बावजूद चरनजोत सिंह नंदा के लिए जब सेंट्रल काउंसिल का चुनाव जीतना मुश्किल नहीं हुआ - उसमें बल्कि उन्हें सबसे ज्यादा वोट मिले, तो फिर वाइस प्रेसीडेंट का चुनाव जीतना क्यों मुश्किल होगा ?
चरनजोत सिंह नंदा और उनके कुछेक समर्थकों को भले ही विश्वास हो, लेकिन उनके ही अन्य कई एक समर्थकों को लगता है कि सौ करोड़ रुपयों के नागपुर जमीन घोटाले में उनकी मिलीभगत वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में उन्हें ले डूबेगी । ऐसा मानने वाले लोगों का तर्क है कि सेंट्रल काउंसिल की पिछली मीटिंग में नागपुर जमीन घोटाले को लेकर एस संथनाकृष्णन और महेश सारडा के बीच जो गर्मागर्मी हुई, उससे यह संकेत स्पष्ट रूप से मिलता है कि नागपुर घोटाले में जिन जिन लोगों की मिलीभगत है - सेंट्रल काउंसिल के सदस्य उनसे दूरी बनाने और दिखाने को लेकर सावधान हैं । ऐसे में चरनजोत सिंह नंदा के लिए वाइस प्रेसीडेंट पद के चुनाव में समर्थन जुटाना सचमुच मुश्किल ही होगा ।
चरनजोत सिंह नंदा के नजदीकियों का कहना है कि चरनजोत सिंह नंदा इस बात से परेशान तो हैं कि वाइस प्रेसीडेंट पद के कुछेक उम्मीदवार सौ करोड़ रुपयों के नागपुर जमीन घोटाले में उनकी मिलीभगत को वाइस प्रेसीडेंट पद के चुनाव में उनके खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं; पर उन्हें इस नकारात्मक प्रचार से निपटने का कोई उपाय अभी समझ में नहीं आ रहा है । सचमुच, सौ करोड़ रुपयों का नागपुर जमीन घोटाला चरनजोत सिंह नंदा के लिए बड़ी मुसीबत बन गया है ।

Friday, January 11, 2013

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की लड़ाई में नरेश गुप्ता के जरिये सत्ता खेमे के नेताओं ने सुरेश बिंदल को क्या 'पप्पू' बना दिया है

नई दिल्ली । नरेश गुप्ता को आगे करके डिस्ट्रिक्ट के सत्ता खेमे के नेताओं ने एक तरफ विपक्षी नेताओं को तो दूसरी तरफ अलग होने की कोशिश करते दिख रहे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश त्रेहन को दबाव में ले लिया है । मजे की बात यह है कि दो दिन पहले दिल्ली के पूर्व गवर्नरों की मीटिंग में नरेश गुप्ता का नाम जिन सुरेश बिंदल ने आगे किया था, वही सुरेश बिंदल अपने लोगों के बीच नरेश गुप्ता को लेकर अपनी नापसंदगी व्यक्त कर रहे हैं । सुरेश बिंदल के कुछेक नजदीकी बता रहे हैं कि नरेश गुप्ता की उम्मीदवारी सुरेश बिंदल के गले में ऐसी फँसी है जिसे सुरेश बिंदल के लिए न उगलते बन रहा है और न निगलते बन रहा है । उल्लेखनीय है कि सुरेश बिंदल ने पहले अपने क्लब के एस जयरमन का नाम आगे बढ़ाया था लेकिन किसी का समर्थन नहीं मिलने के कारण उन्हें मुहँकी खानी पड़ी । नेता बनने की कोशिश में सुरेश बिंदल ने तब लायंस क्लब दिल्ली प्रभात के प्रमोद अग्रवाल और देवेंद्र जैन को राजी करने का प्रयास किया । इन दोनों ने लेकिन इस झमेले में पड़ने से इंकार कर दिया । सुरेश बिंदल भी तब यह सोच कर चुप बैठ गए कि अभी उनकी किस्मत में 'डिस्ट्रिक्ट का नेता' बनना है नहीं । नरेश गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार, यही वजह रही कि जब नरेश गुप्ता ने सुरेश बिंदल से उनका नाम आगे बढ़ाने के लिए कहा, तो सुरेश बिंदल ने साफ इंकार कर दिया । सुरेश बिंदल ने नरेश गुप्ता की सिफारिश करने वाले प्रभात क्लब के सदस्यों से कहा भी कि इसे कौन उम्मीदवार स्वीकार करेगा ? नरेश गुप्ता और उनके समर्थकों ने सुरेश बिंदल को किसी तरह बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए राजी किया कि वह नरेश गुप्ता का नाम आगे तो बढ़ायें ।
सुरेश बिंदल ने पूर्व गवर्नर्स की मीटिंग में बहुत ही बेमन से नरेश गुप्ता की उम्मीदवारी की बात रखी । लेकिन वह यह देख कर हैरान रह गए कि मीटिंग में मौजूद सभी पूर्व गवर्नर्स ने नरेश गुप्ता की उम्मीदवारी के प्रति सकारात्मक रवैया ही दिखाया । सुरेश बिंदल के लिए चौंकने की बात यह रही कि सत्ता खेमे के मुखिया डीके अग्रवाल ने तो आगे बढ़ कर यह सुझाव भी दिए कि नरेश गुप्ता को किस तरह अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के लिए काम करना चाहिए । सुरेश बिंदल जब तक माजरा समझते, तब तक नरेश गुप्ता की उम्मीदवारी की बात पूर्व गवर्नर्स के बीच स्थापित हो चुकी थी । दरअसल उस मीटिंग में और किसी उम्मीदवार का नाम ही नहीं लिया गया । एक अकेले नरेश गुप्ता का नाम आया और किसी ने भी उनके नाम पर नकारात्मक रवैया नहीं दिखाया । नरेश गुप्ता की उम्मीदवारी को लेकर नकारात्मक बातें होना तो बाद में शुरू हुईं; और यह नकारात्मक बातें सुरेश बिंदल के प्रभाव वाले क्लब्स के लोगों की ही तरफ से ज्यादा आईं । अधिकतर लोगों को लगता है कि नरेश गुप्ता तो ज्यादा सक्रिय ही नहीं हैं; न वह डिस्ट्रिक्ट में लोगों को जानते/पहचानते हैं, और न लोग ही उन्हें जानते/पहचानते हैं - ऐसे में वह कैसे गवर्नर बन सकते हैं और कैसे और क्यों सुरेश बिंदल ने उनका नाम आगे बढ़ाया ।
नरेश गुप्ता की उम्मीदवारी से हतप्रभ लोगों को लगता है कि सत्ता खेमे के कुछेक नेताओं ने बड़ी होशियारी से नरेश गुप्ता को तैयार करके सुरेश बिंदल के जरिये उनका नाम आगे बढ़वाया है; और इस तरह सत्ता खेमे के नेताओं ने नरेश गुप्ता के जरिये सुरेश बिंदल को 'पप्पू' बना दिया । सत्ता खेमे के सामने समस्या दरअसल यह है कि उनके पास 'अपना' कोई उम्मीदवार ही नहीं है । दूसरे लोगों के बीच सत्ता खेमे के उम्मीदवार के रूप में जिन ओंकार सिंह को देखा/पहचाना भी जा रहा है; सत्ता खेमे में ही उन्हें राकेश त्रेहन के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है और यही बात उनके विरोध का कारण बनी हुई है । सत्ता खेमे में ओंकार सिंह से किसी को शिकायत नहीं है, लेकिन राकेश त्रेहन के नजदीक होना ही उनके लिए मुसीबत बन गया है । सत्ता खेमे के नेताओं की चिंता यह भी है कि राकेश त्रेहन कहीं विपक्षी खेमे के साथ मिल कर ओंकार सिंह को न नोमिनेट करवा लें - इसलिए उन्हें एक ऐसा उम्मीदवार चाहिए, जिसके नाम पर विपक्षी खेमा ऐतराज न व्यक्त कर सके । समझा जाता है कि इसी चाहत में उनकी निगाह नरेश गुप्ता पर पड़ी । कहने/दिखाने को तो नरेश गुप्ता विपक्षी खेमे के हैं, लेकिन सत्ता खेमे के नेता उन्हें विपक्षी खेमे में अपने 'आदमी' के रूप में देखते/पहचानते हैं । सत्ता खेमे के नेताओं ने जिस होशियारी के साथ नरेश गुप्ता को सुरेश बिंदल के गले में फँसाया है, उसके चलते सुरेश बिंदल अपने आपको ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं ।
मजे की बात यह है कि सत्ता खेमे के नेताओं ने अपनी इस चाल से अपने दोनों हाथों में पत्ते कर लिए हैं - उन्हें यदि नरेश गुप्ता के रवैये को लेकर कोई समस्या हुई तो वह यह कह/बता कर बच निकल सकते हैं कि उनकी उम्मीदवारी से सुरेश बिंदल ही बिदके हुए थे; और यदि उन्हें कोई बेहतर विकल्प नहीं मिला और वह नरेश गुप्ता को ही नोमिनेट करवाने के लिए मजबूर हुए तो सुरेश बिंदल के बिदकने की परवाह करने की उन्हें कोई जरूरत नहीं है । सत्ता खेमे के एक प्रमुख नेता ने इन पंक्तियों के लेखक से साफ कहा कि होगा वह जो 'वे' चाहेंगे; दूसरे लोगों का कहना लेकिन यह है कि मौटे तौर पर तो यह बात सच है कि होगा वही, जो 'वे' चाहेंगे लेकिन सत्ता खेमे के लोगों के बीच जिस तरह की उठा-पटक और विकल्पहीनता की स्थिति है उसे समझते हुए यह देखना दिलचस्प होगा कि 'वे' जो चाहेंगे उसे खुशी से चाहेंगे या मजबूरी में स्वीकार करेंगे ?

Friday, January 4, 2013

सुधीर मंगला की शिकायत का रोटरी इंटरनेशनल में स्वीकार होना इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव का साइड इफेक्ट है क्या

नई दिल्ली । रमेश अग्रवाल द्धारा मनमाने तरीके से कोंक्रेंसेज को निरस्त करने की सुधीर मंगला की शिकायत के रोटरी इंटरनेशनल में स्वीकार हो जाने ने सभी को हैरान किया है । अपनी हार से बौखलाये सुधीर मंगला हालाँकि रमेश अग्रवाल के फैसले को चेलैंज करने की बात तो शुरू से कर रहे थे, किंतु उनकी बात को कोई गंभीरता से ले नहीं रहा था । हर किसी को लग रहा था कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद पर जेके गौड़ के चुने जाने की औपचारिक घोषणा के बाद सुधीर मंगला जिस तरह अलग-थलग पड़ गए हैं, और उनका समर्थन करने वाले पूर्व गवर्नर नेताओं ने भी उनसे दूरी बना ली है - उसके बाद सुधीर मंगला के लिए करने-धरने को कुछ बचा नहीं है । इससे भी बड़ी बात यह कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में रमेश अग्रवाल ने चुनाव को लेकर जो फैसला किया, वह इंटरनेशनल डायरेक्टर यश पाल दास को दिखा/बता कर - उन्हें विश्वास में लेकर किया; जिसके बाद रोटरी इंटरनेशनल द्धारा किसी शिकायत को तवज्जो देने की कोई सूरत ही नहीं बची रह जाती है । इसी कारण से सभी - यहाँ तक की सुधीर मंगला के समर्थक छोटे-बड़े नेता भी यह मान बैठे थे कि खेल पूरा हो चुका है और सुधीर मंगला के लिए करने को न तो कुछ बचा है और न उनकी कहीं कोई सुनवाई होगी ।
लेकिन रोटरी इंटरनेशनल ने सुधीर मंगला की शिकायत को स्वीकार करके न सिर्फ सभी को हैरान कर दिया है, बल्कि यह भी जता दिया है कि रमेश अग्रवाल ने फैसला भले ही यश पाल दास को विश्वास में लेकर किया हो - मामला लेकिन फिर भी ख़त्म नहीं मान लिया जा सकता । रोटरी इंटरनेशनल द्धारा सुधीर मंगला की शिकायत को स्वीकार करने के साथ ही वह किस्से महत्वपूर्ण हो उठे हैं, जिनमें कहा/बताया जा रहा था कि रमेश अग्रवाल के फैसलों पर यश पाल दास की सहमति उन पर दबाव बना कर, उन्हें घेर-घार कर ली गई है । उल्लेखनीय है कि रमेश अग्रवाल के कई मनमाने फैसलों को यश पाल दास ने पलटा है । कुछेक मामलों में तो पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता के समर्थन के बाद भी रमेश अग्रवाल के लिए यश पाल दास के कोप से बचना संभव नहीं हुआ । कहा/बताया जाता है कि इसके बाद ही रमेश अग्रवाल और सुशील गुप्ता की जोड़ी ने यश पाल दास को तरह-तरह से घेरा और डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी के चुनाव के संदर्भ में लिए अपने फैसलों में उन्हें साझीदार बनाया । इस मामले में यश पाल दास के नजदीक रहे कुछेक लोगों का दावा रहा कि रमेश अग्रवाल और सुशील गुप्ता ने यश पाल दास से जो 'करवाया', उससे यश पाल दास ने अपने आपको बहुत अपमानित-सा भी महसूस किया ।
रोटरी इंटरनेशनल द्धारा सुधीर मंगला की शिकायत स्वीकार करने को यश पाल दास द्धारा अपमानित महसूस करने की बात से जोड़ कर देखने से मामला गंभीर हो जाता है । यह गंभीरता तब और बढ़ जाती है, जब इंटरनेशनल डायरेक्टर का चुनाव करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव को लेकर सुशील गुप्ता तक को रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा की धोखाधड़ी का शिकार होना पड़ रहा है । सुधीर मंगला की शिकायत के रोटरी इंटरनेशनल में स्वीकार होने की टाईमिंग महत्वपूर्ण है और यह बड़े उथल-पुथल का संकेत करती है । डिस्ट्रिक्ट के जो कई बड़े नेता अभी दो दिन पहले तक सुधीर मंगला को शिकायत को लेकर हतोत्साहित कर रहे थे, अचानक से सुधीर मंगला की शिकायत के प्रति गंभीर नज़र आने लगे हैं । सुधीर मंगला के कुछेक नजदीकियों का कहना/बताना है कि किसी का भी समर्थन न मिलता देख सुधीर मंगला ने तो शिकायत करने का इरादा छोड़ ही दिया था; लेकिन फिर अचानक ही उनमें 'हवा भरती हुई' दिखी । यह हवा तब से भरती हुई दिखी जब से इंटरनेशनल डायरेक्टर की नोमीनेटिंग कमेटी को लेकर रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा ने डिस्ट्रिक्ट के और ऊपर के नेताओं को ठेंगा दिखाना शुरू किया । रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा ने रंग बदल कर पहले तो जेके गौड़ की जीत का श्रेय लेने की बेशर्म-सी कोशिश की, और फिर नोमीनेटिंग कमेटी की राजनीति में दूसरों को - यहाँ तक की सुशील गुप्ता तक को नीचा दिखाने की कोशिश की; जिससे राजनीतिक समीकरण बुरी तरह गड़बड़ा गए हैं । नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव में मुकेश अरनेजा और उनके अकेले समर्थक रमेश अग्रवाल के रवैये ने रोटरी के बड़े नेताओं को भी नाराज किया है ।
रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा के खिलाफ बने इस माहौल ने सुधीर मंगला के लिए कुछ करने को उत्सुक नेताओं को प्रेरित किया और इसके साथ ही सुधीर मंगला में हवा भरी और उनकी शिकायत रोटरी इंटरनेशनल में स्वीकार हो गई । रोटरी के बड़े नेताओं की हरी झंडी मिले बिना इस शिकायत का दर्ज होना मुश्किल ही नहीं असंभव ही था । इसी कारण से सुधीर मंगला की शिकायत के दर्ज होने को नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव के साइड इफेक्ट के रूप में ही देखा/पहचाना जा रहा है । यह सभी जानते हैं कि रोटरी इंटरनेशनल में फैसले तथ्यों के आधार पर नहीं, राजनीतिक समीकरणों के आधार पर होते हैं । राजनीतिक समीकरणों के चलते ही पिछले रोटरी वर्ष में दो डिस्ट्रिक्ट में चुनावी नतीजों को निरस्त कर दिया गया था । रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा ने अपनी अपनी बेवकूफीपूर्ण और जिदभरी मनमानियों से जो जो बदनामी कमाई है, उसके चलते डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी के चुनाव की लगभग बंद हो चुकी फाइल फिर से खुल गई है ।

Wednesday, January 2, 2013

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए राकेश त्रेहन का समर्थन यदि ओंकार सिंह रेनु के लिए वरदान की तरह है तो साथ ही यह मुश्किलों का कारण भी है

नई दिल्ली । ओंकार सिंह रेनु का नाम सुभाष गुप्ता के आकस्मिक निधन से खाली हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए आने के बाद से डिस्ट्रिक्ट के राजनीतिक माहौल में खासी गर्मी पैदा हो गई है । इस 'गर्मी' में उनके लिए शुभकामनाएँ व्यक्त करने वाले लोग भी हैं, तो उनकी राह में कांटे बिछाने की तैयारी करते हुए लोग भी हैं । ओंकार सिंह रेनु को यूँ तो लायनिज्म में ज्यादा समय नहीं हुआ है, लेकिन मौजूदा लायन वर्ष में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश त्रेहन के साथ उनकी सक्रियता के चलते उनका नाम लोगों के बीच तेजी से उभरा है । डिस्ट्रिक्ट की गतिविधियों में उनकी सक्रियता और संलग्नता को देखते हुए ही उन्हें अगले लायन वर्ष में - दिल्ली का नंबर आने के समय - सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के संभावित उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाने लगा था । दरअसल इसी कारण से, सुभाष गुप्ता के आकस्मिक निधन के कारण खाली हुए पद के लिए उनके नाम की चर्चा तेज हो गई । उनके नाम की चर्चा तेज होने के लिए एक तो वह खुद जिम्मेदार हैं और दूसरे उनकी राकेश त्रेहन के साथ की निकटता जिम्मेदार है ।
ओंकार सिंह रेनु खुद इसलिए जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने अपने को नोमीनेट कराने के लिए तेजी से लॉबिइंग की; और तेजी के साथ की गई उनकी लॉबिइंग को जब राकेश त्रेहन के साथ की उनकी निकटता के साथ जोड़ कर देखा गया तो फिर उनके नाम की चर्चा तेज होनी ही थी । लॉबिइंग हालाँकि आरके शाह ने भी तेजी से की है, और उनके पक्ष में राजिंदर बंसल ने भी नए समीकरणों की संभावनाओं को बनाने की कोशिश की है । आरके शाह और उनके पक्ष में सत्ता खेमे के नेताओं से बात कर रहे राजिंदर बंसल ने तर्क दिया है कि आरके शाह ने पहले राकेश त्रेहन को और फिर सुभाष गुप्ता को सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए निर्विरोध चुनवाने का रास्ता बनाने के लिए अपनी उम्मीदवारी की दो-दो बार जो बलि दी हुई है, उसको ध्यान में रखते हुए उन्हें नोमीनेट किया जाना चाहिए । तर्क भले ही आरके शाह के पक्ष में मजबूत हों, लेकिन राजनीतिक समीकरण उनके अनुकूल नहीं है । इसलिए राजनीतिक समीकरणों में कोई बड़ा उलटफेर हुए बिना आरके शाह की दाल के गलने का कोई मौका नहीं दिख रहा है ।
आरके शाह की दाल गलने का मौका कुछेक लोगों को लेकिन ओंकार सिंह रेनु की उम्मीदवारी में छिपा दिख रहा है । दरअसल ओंकार सिंह रेनु की उम्मीदवारी को सत्ता खेमे में दरार पैदा करने वाले एक कारण के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । ओंकार सिंह रेनु इतने अचानक और इतनी तेजी से 'सामने' आये हैं कि अभी सत्ता खेमे के दूसरे नेताओं के साथ उनकी ठीक से पहचान ही नहीं हो पाई है । सत्ता खेमे के दूसरे नेताओं के साथ उनका विश्वास का संबंध अभी नहीं बन सका है - राकेश त्रेहन के साथ उनकी निकटता के कारण सत्ता खेमे के दूसरे नेताओं के साथ विश्वास का संबंध जल्दी से बन पाना थोड़ा मुश्किल-सा भी दिख रहा है । ओंकार सिंह रेनु ने सत्ता खेमे के नेताओं का विश्वास जीतने के लिए जल्दी-जल्दी में जो प्रयास किये भी हैं, और जिस तरह से किये हैं - उनमें उनकी चाल की बजाये चूँकि राकेश त्रेहन की 'चाल' को देखा/पहचाना जा रहा है, इसलिए भी ओंकार सिंह रेनु के लिए सत्ता खेमे के नेताओं के बीच विश्वास बना सकना थोड़ा मुश्किल हुआ है ।
राजनीतिक लड़ाईयाँ लेकिन चूँकि सिर्फ अपने बल के भरोसे ही नहीं जीती जातीं, वह अपने प्रतिद्धंद्धियों की कमजोरियों के भरोसे भी जीती जाती हैं - इसलिए ओंकार सिंह रेनु के लिए उम्मीद अपने प्रतिद्धंद्धियों की कमजोरी में बनी हुई है । उनके प्रमुख प्रतिद्धंद्धी के रूप में विजय गोयल को देखा/पहचाना जा रहा है, जिन्हें दीपक टुटेजा का समर्थन प्राप्त है । इन दोनों को लेकिन अभी तक लॉबिइंग करते हुए नहीं सुना/पाया गया है । विजय गोयल की सत्ता खेमे के नेताओं के बीच पहचान तो अच्छी है, विश्वास भी है लेकिन उनके 'कुछ कर सकने' को लेकर सत्ता खेमे के नेताओं के बीच अविश्वास भी है । विजय गोयल को महत्वाकांक्षी और संभावनाशील उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना तो जाता रहा है, लेकिन विजय गोयल को उम्मीदवार के रूप में 'व्यवहार' करते हुए हुए नहीं देखा/पाया गया है । पिछले लायन वर्ष में विजय गोयल को उम्मीदवार बनाने के प्रयास किये गए थे, लेकिन विजय गोयल ने कोई दिलचस्पी ही नहीं ली और तब अभी के सत्ता खेमे के नेताओं को झकमार कर सुभाष गुप्ता का समर्थन करने के लिए मजबूर होना पड़ा था । विजय गोयल की यह 'कमजोरी' ओंकार सिंह रेनु के काम आ सकती है ।
लेकिन अभी कुछ भी कह सकना मुश्किल है । कुछेक नामों की और चर्चा हवा में तो है, किंतु उन नामों पर कई-कई 'किंतु' 'परंतु' हैं । कुल मिला कर अभी ओंकार सिंह रेनु के नाम की ज्यादा चर्चा है । इसका कारण यही है कि एक तो उन्होंने अपने आपको भावी उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने के उद्देश्य से काम करना शुरू कर दिया है, और दूसरे उन्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश त्रेहन का खुला और सक्रिय समर्थन प्राप्त है । लेकिन राकेश त्रेहन का समर्थन उनके लिए एक तरफ यदि वरदान की तरह है, तो दूसरी तरफ उक्त समर्थन कई मुश्किलों का कारण भी है । अगले कुछ दिनों में घटना चक्र तेजी से चलेगा इसलिए खुले-छिपे रूप में चलने वाली गतिविधियाँ महत्वपूर्ण साबित होंगी ।

Tuesday, January 1, 2013

सुशील गुप्ता के सामने मुकेश अरनेजा और विनोद बंसल की मिलीजुली राजनीति के सामने समर्पण करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा लगता है

नई दिल्ली । सुशील गुप्ता की इंटरनेशनल डायरेक्टरी की हेकड़ी की नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव को लेकर मुकेश अरनेजा ने जैसी रेड़ मारी है, उसके चलते सुशील गुप्ता की खासी किरकिरी हो रही है । सुशील गुप्ता ने डिस्ट्रिक्ट के और डिस्ट्रिक्ट के बाहर के नेताओं के बीच रुतबा तो यह जताया/दिखाया था कि उनके डिस्ट्रिक्ट में नोमीनेटिंग कमेटी के लिए उसका नाम जायेगा जिसे वह चाहेंगे/कहेंगे - लेकिन मुकेश अरनेजा के रवैये के चलते उनके लिए अपने रुतबे की घोषणा को कार्यरूप दे पाना मुश्किल हो रहा है । सुशील गुप्ता की इस 'दुर्गति' के एक गवाह का कहना है कि सुशील गुप्ता चाहते हैं कि रंजन ढींगरा नोमीनेट कमेटी में शामिल हों, लेकिन मुकेश अरनेजा ने उन्हें ऐसी टंगड़ी मारी है कि उनके लिए अपनी इज्ज़त बचाना मुश्किल हो गया है । दरअसल सुशील गुप्ता को विश्वास था कि वह मुकेश अरनेजा से उम्मीदवारी छोड़ने को कहेंगे तो मुकेश अरनेजा तुरंत से अपनी उम्मीदवारी को वापस ले लेंगे । मुकेश अरनेजा ने लेकिन उन्हें ठेंगा दिखा दिया है । जिन लोगों ने मुकेश अरनेजा को समझाने की कोशिश की कि सुशील गुप्ता ने चूँकि सीओएल के चुनाव में उनकी मदद की थी इसलिए भी अब उन्हें सुशील गुप्ता की बात को मान लेना चाहिए । लेकिन मुकेश अरनेजा ने इस समझाईश को मानने से साफ इंकार कर दिया है ।
मुकेश अरनेजा का कहना है कि सीओएल के चुनाव में सुशील गुप्ता ने उनकी मदद तो इसलिए की थी ताकि कहीं अशोक घोष सीओएल में न पहुँच जाएँ । इस तरह से, मुकेश अरनेजा का तर्क है कि सीओएल के चुनाव में सुशील गुप्ता ने उनकी मदद नहीं की थी, बल्कि उन्होंने सुशील गुप्ता की मदद की थी । नोमीनेटिंग कमेटी को लेकर मुकेश अरनेजा ने खुली घोषणा की है कि सुशील गुप्ता यदि रंजन ढींगरा को नोमीनेटिंग कमेटी में भेजना चाहते हैं तो उन्हें चुनाव लड़वायें और जितवा लें । मुकेश अरनेजा के इन तेवरों के बाद सुशील गुप्ता की सिट्टी-पिट्टी गुम है । सिट्टी-पिट्टी इसलिए गुम है, क्योंकि सुशील गुप्ता इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के संभावित उम्मीदवारों को और उन उम्मीदवारों के सिपहसालारों को बता चुके हैं कि वह रंजन ढींगरा को नोमीनेटिंग कमेटी में भिजवा रहे हैं; लेकिन मुकेश अरनेजा ने इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के उन्हीं संभावित उम्मीदवारों को और उन उम्मीदवारों के सिपहसालारों को बताया हुआ है कि डिस्ट्रिक्ट के चौधरी बनते भले ही सुशील गुप्ता हों, किन्तु उनके बस की कुछ है नहीं; रंजन ढींगरा को नोमीनेटिंग कमेटी में भिजवाना तो उनके बस की बात बिलकुल भी नहीं है ।
मुकेश अरनेजा के हाथों हो रही सुशील गुप्ता की इस किरकिरी के लिए कुछेक लोग सुशील गुप्ता को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं । उनका कहना है कि सुशील गुप्ता को पहले ही समझ लेना चाहिए था कि मुकेश अरनेजा धोखेबाज व्यक्ति हैं और उन पर विश्वास करके वह कभी भी मुसीबत में फँस जायेंगे । कई एक लोगों ने सुशील गुप्ता को आगाह भी किया था कि मुकेश अरनेजा भरोसा करने लायक व्यक्ति नहीं हैं - लेकिन सुशील गुप्ता ने किसी की नहीं सुनी, और नतीजे में अब उन्हें मुँह छिपाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है । मजे की बात यह हो रही है कि मुकेश अरनेजा ने ही यह उपाय भी सुझाया है कि सुशील गुप्ता रोटरी नेताओं के बीच अपनी इज्जत कैसे बचा सकते हैं ? मुकेश अरनेजा ने उपाय सुझाया है कि सुशील गुप्ता के सामने अब इसके आलावा कोई चारा नहीं है कि वह लोगों को यह कहने/बताने लगें कि वह तो मुकेश अरनेजा को ही नोमीनेटिंग कमेटी में भेजना चाहते हैं । सुशील गुप्ता को यह उपाय जँच तो रहा है, लेकिन उनकी समस्या यह है कि वह अभी तक चूँकि रंजन ढींगरा का नाम लेते रहे हैं इसलिए अब अचानक से मुकेश अरनेजा का नाम लेंगे तो लोगों के बीच और ज्यादा हँसी होगी । रोटरी नेताओं के बीच रंजन ढींगरा को सुशील गुप्ता के 'ब्ल्यू आइड ब्यॉय' के रूप में देखा/पहचाना जाता है, इसलिए कोई भी इस उपाय की बात पर विश्वास नहीं करेगा और यही माना जायेगा कि मुकेश अरनेजा का नाम सुशील गुप्ता मजबूरी में ही ले रहे हैं ।
विनोद बंसल ने जब रंजन ढींगरा के लिए लॉबिइंग शुरू की थी तो कुछ लोगों को लगा था कि विनोद बंसल के जरिये सुशील गुप्ता ने मुकेश अरनेजा को अलग-थलग करने/दिखाने के लिए कोई जाल बिछाया है; लेकिन अब उन्हीं लोगों को लग रहा है कि वह जाल सुशील गुप्ता के लिए नहीं बल्कि मुकेश अरनेजा का काम आसान बनाने के लिए बिछाया गया था । विनोद बंसल की उस लॉबिइंग ने पहले तो मंजीत साहनी को नोमीनेटिंग कमेटी की चुनावी दौड़ से बाहर किया, और ऐसा करते हुए रंजन ढींगरा को लेकर सुशील गुप्ता के दावे को विश्वसनीय-सा बनाया । इसके बाद जब सुशील गुप्ता जोर-शोर से रंजन ढींगरा का नाम लेने लगे तो अगली चाल मुकेश अरनेजा ने यह घोषणा करते हुए चली कि वह सुशील गुप्ता के कहने में आकर अपनी उम्मीदवारी बिलकुल भी नहीं छोड़ेंगे और सुशील गुप्ता चाहें तो रंजन ढींगरा को चुनाव लड़वा लें । मुकेश अरनेजा ने यह दावा करके कि चुनाव होने की स्थिति में विनोद बंसल उनका समर्थन करेंगे, न कि रंजन ढींगरा का - लोगों को यह अनुमान लगाने के लिए प्रेरित किया है कि कहीं मुकेश अरनेजा और विनोद बंसल ने मिलकर तो सुशील गुप्ता को 'पोपट' नहीं बनाया है ? खुद को डिस्ट्रिक्ट का चौधरी समझने वाले पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता के सामने वास्तव में बड़ी विकट स्थिति है - उनके लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि वह रंजन ढींगरा के लिए कुछ करें या मुकेश अरनेजा और विनोद बंसल की मिलीजुली राजनीति के सामने समर्पण करें ?