नई दिल्ली । एनडी गुप्ता ने अपने बेटे नवीन गुप्ता को इंस्टीट्यूट ऑफ
चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया का प्रेसीडेंट बनवाने के लिए आजकल
अपना दिन-रात एक किया हुआ है । उल्लेखनीय है कि एनडी गुप्ता खुद भी
इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के प्रेसीडेंट रह चुके हैं और चूँकि
प्रेसीडेंट रहते हुए उन्होंने इंस्टीट्यूट को अपनी निजी जायदाद की तरह
इस्तेमाल किया था, इसलिए उसी समय लोगों ने यह भाँप लिया था कि एनडी गुप्ता
अपने बेटे को भी इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में लायेंगे और उसे भी
प्रेसीडेंट बनवायेंगे । लोगों ने जो भाँपा था, एनडी गुप्ता ने करीब तीन
वर्ष पहले उसे चरितार्थ कर दिया और अपने बेटे नवीन गुप्ता को सेंट्रल
काउंसिल के लिए उम्मीदवार बना कर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स मतदाताओं के
बीच प्रस्तुत किया । चार्टर्ड एकाउंटेंट्स अपने आपको समझते/बताते जरूर
पढ़ा-लिखा हैं, लेकिन मतदाता के रूप में उनका 'व्यवहार' भेड़ों 'सरीखा' ही
नज़र आता है । मतदाता के रूप में जिन चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने एनडी
गुप्ता की सेवा की थी, करीब-करीब उन्हीं चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने उनका आदेश
मिलते ही उनके बेटे की भी सेवा की । एनडी गुप्ता जानते थे कि चार्टर्ड
एकाउंटेंट्स का चोला पहने हुए कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स उनके भक्त हैं - उन
भक्तों को सिर्फ इतना पता चलना चाहिए कि नवीन गुप्ता उनका बेटा है, वह
नवीन की सेवा में जुट जायेंगे; इसलिए उम्मीदवार बनाने से पहले एनडी गुप्ता ने अपने बेटे का नाम नवीन गुप्ता से बदल कर 'नवीन एनडी गुप्ता' कर दिया ।
नवीन गुप्ता अपने पापा की इच्छा और अपने पापा के भक्तो की कृपा से सेंट्रल काउंसिल में तो आ गए, लेकिन सेंट्रल काउंसिल की गतिविधियों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखी । यह बात इससे जाहिर है कि फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच काउंसिल की कुल हुईं 15 मीटिंग्स में से नवीन गुप्ता नौ मीटिंग्स में गायब रहे । 'रचनात्मक संकल्प' के पास फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच हुईं 15 मीटिंग्स का जो ब्यौरा है, उसके अनुसार इस समयावधि में संपन्न हुईं 15 मीटिंग्स में नवीन गुप्ता कुल छह मीटिंग्स में उपस्थित हुए । इन 15 में से जो 5 मीटिंग्स वर्ष 2011 तथा 2012 में हुईं हैं, उनमें से तो एक में भी नवीन गुप्ता शामिल नहीं हुए । एनडी गुप्ता इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट रह चुके हैं; इस लिहाज से उनसे इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह अपने बेटे को काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थित रहने की आवश्यकता और अहमियत बताते/समझाते । काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थिति को लेकर नवीन गुप्ता का जो रिकार्ड है, उसे देख कर लगता है कि या तो उनके पापा ने उन्हें मीटिंग्स में उपस्थित होने की आवश्यकता और अहमियत बताई नहीं है और या पापा के बताये जाने के बावजूद उन्होंने उसे एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर निकाल दिया है ।
जिन नवीन गुप्ता ने काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होने की जरूरत नहीं समझी, वह नवीन गुप्ता उन लोगों के संपर्क में रहने की भला क्या जरूरत समझते जिन्होंने उन्हें वोट देकर चुनवाया था । कई लोगों की शिकायत रही कि नवीन गुप्ता उनके फोन तक नहीं उठाते हैं और जरूरत पड़ने पर जिनसे संपर्क करना तक मुश्किल होता है । नवीन गुप्ता को पूरा हक़ है कि वह किसी के फोन न उठाये और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल न हों - उनका यह हक़ तब और बढ़ जाता है जब वह समझ लेते हैं कि उनके पिता के भक्त चार्टर्ड एकाउंटेंट्स मतदाता के रूप में इतने मूढ़ हैं कि फिर भी उन्हें ही वोट देंगे । यही कारण बना कि दूसरी बार भी उन्हें अच्छे-खासे वोट मिले और वह जीते । हालाँकि कई लोगों को यह बाप-बेटे की बेशर्मी ही लगती है कि नवीन गुप्ता को सेंट्रल काउंसिल की मीटिंग में शामिल होने का समय और दिलचस्पी भले ही न हो, लेकिन उन्हें इंस्टीट्यूट का प्रेसीडेंट बनना है । दरअसल दोनों जानते हैं कि नाकारा भूमिका के बावजूद नवीन गुप्ता जिस तरह काउंसिल का चुनाव जीत गए हैं, उसी तरह वह प्रेसीडेंट भी बन जा सकते हैं । दरअसल वह जानते हैं कि हर शाख पे उनके भक्त चार्टर्ड एकाउंटेंट्स बैठे हैं ।
'भक्तों' के आलावा जो लोग हैं उन्हें तो लेकिन नवीन गुप्ता को प्रेसीडेंट बनाने/बनवाने में लगे एनडी गुप्ता से यह पूछने का हक़ है कि उनके बेटे को जब काउंसिल की मीटिंग्स में कोई दिलचस्पी ही नहीं है और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होना वह जरूरी नहीं समझते हैं तो उन्हें काउंसिल में चुनवाने को लेकर तथा अब प्रेसीडेंट बनवाने को लेकर वह इतना परेशान क्यों हो रहे हैं ? उल्लेखनीय है कि स्कूल-कॉलिज तक में नियम है कि उपस्थिति कम होने पर छात्र को परीक्षा में नहीं बैठने दिया जाता है । लेकिन इन बाप-बेटे ने इंस्टीट्यूट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की हैसीयत ऐसी बना दी है कि इसे स्कूल-कॉलिज से भी गई-बीती हालत में पहुँचा दिया है । ऐसे में, नवीन गुप्ता यदि कहीं सचमुच प्रेसीडेंट बन गए तो कल्पना कीजिये कि इंस्टीट्यूट का क्या हाल होगा ?
नवीन गुप्ता अपने पापा की इच्छा और अपने पापा के भक्तो की कृपा से सेंट्रल काउंसिल में तो आ गए, लेकिन सेंट्रल काउंसिल की गतिविधियों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखी । यह बात इससे जाहिर है कि फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच काउंसिल की कुल हुईं 15 मीटिंग्स में से नवीन गुप्ता नौ मीटिंग्स में गायब रहे । 'रचनात्मक संकल्प' के पास फरवरी 2010 से जून 2012 के बीच हुईं 15 मीटिंग्स का जो ब्यौरा है, उसके अनुसार इस समयावधि में संपन्न हुईं 15 मीटिंग्स में नवीन गुप्ता कुल छह मीटिंग्स में उपस्थित हुए । इन 15 में से जो 5 मीटिंग्स वर्ष 2011 तथा 2012 में हुईं हैं, उनमें से तो एक में भी नवीन गुप्ता शामिल नहीं हुए । एनडी गुप्ता इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट रह चुके हैं; इस लिहाज से उनसे इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह अपने बेटे को काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थित रहने की आवश्यकता और अहमियत बताते/समझाते । काउंसिल की मीटिंग्स में उपस्थिति को लेकर नवीन गुप्ता का जो रिकार्ड है, उसे देख कर लगता है कि या तो उनके पापा ने उन्हें मीटिंग्स में उपस्थित होने की आवश्यकता और अहमियत बताई नहीं है और या पापा के बताये जाने के बावजूद उन्होंने उसे एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर निकाल दिया है ।
जिन नवीन गुप्ता ने काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होने की जरूरत नहीं समझी, वह नवीन गुप्ता उन लोगों के संपर्क में रहने की भला क्या जरूरत समझते जिन्होंने उन्हें वोट देकर चुनवाया था । कई लोगों की शिकायत रही कि नवीन गुप्ता उनके फोन तक नहीं उठाते हैं और जरूरत पड़ने पर जिनसे संपर्क करना तक मुश्किल होता है । नवीन गुप्ता को पूरा हक़ है कि वह किसी के फोन न उठाये और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल न हों - उनका यह हक़ तब और बढ़ जाता है जब वह समझ लेते हैं कि उनके पिता के भक्त चार्टर्ड एकाउंटेंट्स मतदाता के रूप में इतने मूढ़ हैं कि फिर भी उन्हें ही वोट देंगे । यही कारण बना कि दूसरी बार भी उन्हें अच्छे-खासे वोट मिले और वह जीते । हालाँकि कई लोगों को यह बाप-बेटे की बेशर्मी ही लगती है कि नवीन गुप्ता को सेंट्रल काउंसिल की मीटिंग में शामिल होने का समय और दिलचस्पी भले ही न हो, लेकिन उन्हें इंस्टीट्यूट का प्रेसीडेंट बनना है । दरअसल दोनों जानते हैं कि नाकारा भूमिका के बावजूद नवीन गुप्ता जिस तरह काउंसिल का चुनाव जीत गए हैं, उसी तरह वह प्रेसीडेंट भी बन जा सकते हैं । दरअसल वह जानते हैं कि हर शाख पे उनके भक्त चार्टर्ड एकाउंटेंट्स बैठे हैं ।
'भक्तों' के आलावा जो लोग हैं उन्हें तो लेकिन नवीन गुप्ता को प्रेसीडेंट बनाने/बनवाने में लगे एनडी गुप्ता से यह पूछने का हक़ है कि उनके बेटे को जब काउंसिल की मीटिंग्स में कोई दिलचस्पी ही नहीं है और काउंसिल की मीटिंग्स में शामिल होना वह जरूरी नहीं समझते हैं तो उन्हें काउंसिल में चुनवाने को लेकर तथा अब प्रेसीडेंट बनवाने को लेकर वह इतना परेशान क्यों हो रहे हैं ? उल्लेखनीय है कि स्कूल-कॉलिज तक में नियम है कि उपस्थिति कम होने पर छात्र को परीक्षा में नहीं बैठने दिया जाता है । लेकिन इन बाप-बेटे ने इंस्टीट्यूट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की हैसीयत ऐसी बना दी है कि इसे स्कूल-कॉलिज से भी गई-बीती हालत में पहुँचा दिया है । ऐसे में, नवीन गुप्ता यदि कहीं सचमुच प्रेसीडेंट बन गए तो कल्पना कीजिये कि इंस्टीट्यूट का क्या हाल होगा ?