Monday, August 31, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की जीएमसीएस कमेटी के चेयरमैन की जिम्मेदारी ठीक से न निभाने को लेकर हरित अग्रवाल अपने जिन सबसे बड़े समर्थक सुधीर कत्याल के कारण मुसीबत में फँसे हैं, उन सुधीर कत्याल को कोर टीम से निकालने की अपने समर्थकों की माँग से हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी का अभियान समर्थकों के झगड़े में फँसा

नई दिल्ली । हरित अग्रवाल नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी के सबसे बड़े समर्थक सुधीर कत्याल को लेकर भारी मुसीबत में फँस गए हैं - और यह मुसीबत भी उनके अपने दूसरे समर्थकों ने ही पैदा की है । दरअसल उनके समर्थक सुधीर कत्याल को साथ रखने को लेकर आपस में बुरी तरह बँट गए हैं, और हरित अग्रवाल के लिए यह फैसला करना मुश्किल हो रहा है कि वह अपने किन समर्थकों की बात मानें । उल्लेखनीय है कि हरित अग्रवाल के समर्थकों का एक तबका हरित अग्रवाल की कोर टीम में सुधीर कत्याल को शामिल किए जाने का विरोध कर रहा है : इनका कहना है कि सुधीर कत्याल का जिस तरह का रवैया रहता है और वह जिस तरह की गाली-गलौच भरी बातें करते हैं उससे लोगों के बीच नकारात्मक असर पड़ता है, और इस कारण लोग खिलाफ हो जाते हैं । हरित अग्रवाल के समर्थकों के किंतु एक दूसरे तबके का मानना/कहना है कि चुनावी माहौल में सुधीर कत्याल की तरह के लोगों की भी उपयोगिता होती ही है, नॉनसेंस भी आखिर एक 'वैल्यू' होती है और चुनावी माहौल में नॉनसेंस वैल्यू से भी फायदा होता है, इसलिए सुधीर कत्याल को साथ में रखे जाना चाहिए । दोनों तबकों की बातें और उनके तर्क अपनी अपनी जगह सही हैं, किंतु समस्या की बात यह है कि दोनों तबके के लोग एक दूसरे की बातों को समझने लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं । जो लोग हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी के अभियान को नियंत्रित करने वाली कोर टीम में सुधीर कत्याल को रखे जाने का विरोध कर रहे हैं, उनमें से कइयों ने तो हरित अग्रवाल को अल्टीमेटम तक दे दिया है कि सुधीर कत्याल यदि टीम में रहे तो फिर उनके लिए हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में रहना मुश्किल होगा । वास्तव में अपने कुछेक समर्थकों को तो हरित अग्रवाल ने सुधीर कत्याल के चक्कर में खो भी दिया है । 
इन्हीं समर्थकों के दबाव में हरित अग्रवाल ने पिछले दिनों सुधीर कत्याल से दूरी भी बना ली थी ।सुधीर कत्याल ने तब रतन सिंह यादव की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया था । रतन सिंह यादव को लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि सुधीर कत्याल यदि उनके समर्थन में रहे, तो फिर उनका बनता दिख रहा काम बिगड़ने में देर नहीं लगेगी । उनके समर्थकों/शुभचिंतकों ने भी उन्हें सुधीर कत्याल से दूर रहने की सलाह दी । और तब रतन सिंह यादव ने उनसे पीछा छुड़ा लिया । हरित अग्रवाल ने जिस तरह से सुधीर कत्याल से दूरी बना ली थी, सुधीर कत्याल उससे क्रोधित तो बहुत हुए थे और क्रोध में उन्होंने हरित अग्रवाल को बुरा-भला भी बहुत कहा था - लेकिन जब रतन सिंह यादव के यहाँ उनकी दाल नहीं गली और वह वहाँ से निकाल दिए गए, तब उन्होंने फिर से हरित अग्रवाल के यहाँ शरण ले ली । हरित अग्रवाल के एक नजदीकी ने इन पँक्तियों के लेखक को बताया कि सुधीर कत्याल के संग-साथ से खुद हरित अग्रवाल भी बहुत दुखी हैं, और अक्सर रोना रोते हैं कि सुधीर कत्याल के कारण उनका बहुत खर्चा हो रहा है; लेकिन सुधीर कत्याल से पीछा कैसे छुड़ाएँ, इसकी वह कोई तरकीब नहीं सोच पा रहे हैं । हालाँकि हरित अग्रवाल के एक अन्य नजदीकी ने इन पँक्तियों के लेखक से बात करते हुए दावा किया कि सुधीर कत्याल के साथ जो समस्या थी, बातचीत करके उसे हल कर लिया गया है और अब आगे कोई समस्या नहीं होगी । यद्यपि उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि दो लोगों के बीच कुछ न कुछ समस्या हो ही जाती है, और यह कोई बड़ी बात नहीं है । 
हरित अग्रवाल को सुधीर कत्याल के खर्चे उठाने को लेकर निजी रूप में जो परेशानी है, वह तो है ही - साथ ही उनकी सार्वजनिक भूमिका और खुन्नसी राजनीति से नुकसान अलग हो रहा है । नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन राज चावला तथा काउंसिल की ट्रेजरर योगिता आनंद से अपनी निजी खुन्नस निकालने के लिए सुधीर कत्याल ने जीएमसीएस में छात्रों को घटिया खाना परोसने के मामले को जोरशोर से उठाया - और राज चावला व योगिता आनंद पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए; किंतु उनके संज्ञान में जब यह बात लाई गई कि जीएमसीएस कमेटी के चेयरमैन तो हरित अग्रवाल हैं, और वहाँ की बदइंतजामी के लिए सीधे वही जिम्मेदार हैं - तो सुधीर कत्याल को साँप सूँघ गया । सुधीर कत्याल ने हालाँकि पहले तो बात को संभालने की कोशिश की और कुतर्क दिया कि जीएमसीएस में जो खर्च होता है, उसके बिल चेयरमैन पास करता है और भुगतान ट्रेजरर करता है - इसलिए वही दोनों दोषी हैं; किंतु जब सवाल उठे कि कमेटी का चेयरमैन क्या सिर्फ झुनझुना बजाने के लिए होता है ? जीएमसीएस में जो बदइंतजामी है, उसे दूर करने के लिए कमेटी के चेयरमैन के रूप में हरित अग्रवाल ने क्या कदम उठाए - तो सुधीर कत्याल अपने 'स्वभाव' के अनुरूप मैदान छोड़ गए । सुधीर कत्याल तो मैदान छोड़ गए, लेकिन मुसीबत हरित अग्रवाल के जिम्मे कर गए । जीएमसीएस में बदइंतजामी का मामला उनके गले पड़ गया है, और जीएमसीएस कमेटी के चेयरमैन के रूप में उनकी अक्षमता तथा गैरजिम्मेदारी लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गई है । हरित अग्रवाल के जो समर्थक सुधीर कत्याल को साथ नहीं रखना चाहते हैं, वह इसी मामले का उदाहरण देते हुए कह रहे हैं कि सुधीर कत्याल अपनी निजी खुन्नस में ऐसे ही काम करते रहेंगे और समस्याएँ खड़ी करते रहेंगे, इसलिए उनसे पीछा छुड़ा लेने में ही भलाई है । हरित अग्रवाल के जो समर्थक सुधीर कत्याल की 'जरूरत' को रेखांकित करते हैं, उनका भी मानना और कहना है कि सुधीर कत्याल ने जीएमसीएस में बदइंतजामी को जो रंग दिया, उससे वास्तव में हरित अग्रवाल की भारी फजीहत हुई है, और चुनावी नजरिए से हरित अग्रवाल को तगड़ा झटका लगा है । 
हरित अग्रवाल को जीएमसीएस मामले से जो झटका लगा है, उससे उन्हें मिल सकने वाले पहली वरीयता के वोटों पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है । पहली वरीयता के वोटों के मामले में पिछली बार का उनका रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं था । पिछली बार के चुनाव में हरित अग्रवाल को पहली वरीयता के कुल 605 वोट मिले थे, और वह 12वें नंबर पर आए थे । काउंसिल में उनका कामकाज कोई बहुत उल्लेखनीय तो नहीं रहा, किंतु काउंसिल में होने के कारण उन्होंने अपने आधार-क्षेत्र में कुछ बढ़ोत्तरी तो की ही है - और उसी के भरोसे हरित अग्रवाल तथा उनके समर्थकों को उम्मीद है कि पहली वरीयता के वोटों के मामले में उनकी स्थिति पिछली बार की तुलना में सुधरी हुई होगी; किंतु चुनावी वर्ष में जीएमसीएस कमेटी के चेयरमैन के रूप में बदइंतजामी का उन पर जो दाग लगा है, उसने उनकी उम्मीदों पर ग्रहण लगा दिया है । जीएमसीएस कमेटी के चेयरमैन की जिम्मेदारी ठीक से न निभाने के लिए हरित अग्रवाल अब जब सार्वजनिक रूप से निशाने पर हैं, तो लोग उन पर आखिर क्यों और कैसे विश्वास करेंगे ? हरित अग्रवाल के लिए मुसीबत सिर्फ जीएमसीएस में बदइंतजामी का दाग भर नहीं है - उनकी ज्यादा बड़ी मुसीबत यह है कि यह दाग उनके सबसे बड़े समर्थक सुधीर कत्याल के कारण उन पर लगा है; और इस प्रसंग के चलते उनके कई समर्थकों ने उन पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि सुधीर कत्याल से पीछा छुड़ाओ । हरित अग्रवाल के अन्य कुछेक समर्थक हालाँकि सुधीर कत्याल को साथ में बनाए रखने की वकालत भी कर रहे हैं । हरित अग्रवाल के लिए यह समझना अभी मुश्किल हो रहा है कि सुधीर कत्याल और उन्हें साथ बनाए रखने की वकालत करने वाले उनके समर्थक सचमुच में उनके शुभचिंतक हैं, या समर्थक/शुभचिंतक के भेष में उनके 'दुश्मन' हैं ? 

Sunday, August 30, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ का बुरा हाल करने के उद्देश्य से ही मुकेश अरनेजा ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रवीन निगम और दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को उकसा कर उनका इस्तेमाल करने की चाल चली है क्या ?

गाजियाबाद । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ को रोटरी क्लब नोएडा एक्सीलेंस में अपनी आधिकारिक यात्रा में जिस अपमान का सामना करना पड़ा था, उसकी स्क्रिप्ट मुकेश अरनेजा द्वारा लिखे जाने की जानकारी उन्हें मिली है । जेके गौड़ के नजदीकियों का कहना है कि क्लब के लोगों ने ही जेके गौड़ को यह बात बताई है । रोटरी क्लब नोएडा एक्सीलेंस की जीओवी में जेके गौड़ के साथ जो हुआ, उसके लिए क्लब के पदाधिकारियों ने सीधे-सीधे मुकेश अरनेजा को जिम्मेदार ठहराया है । मुकेश अरनेजा ने यह बात तो कुछेक जगह कही भी है ही कि वह जेके गौड़ का भी वैसा ही हाल करेंगे, जैसा कि उन्होंने अमित जैन का किया था । मुकेश अरनेजा दरअसल जेके गौड़ से बुरी तरह खफा हैं । पहले तो वह जेके गौड़ से इस बात पर खफा थे, कि जेके गौड़ डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में उनकी बजाए रमेश अग्रवाल को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं; पिछले दिनों उनका पारा लेकिन तबसे और चढ़ गया है, जबसे जेके गौड़ ने उन्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण न करने की हिदायत दी है । उल्लेखनीय है कि जेके गौड़ को यह हिदायत मुकेश अरनेजा को तब देनी पड़ी, जब डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन के रूप में मुकेश अरनेजा ने एक ईमेल पत्र लोगों को लिखा/भेजा । जेके गौड़ ने मुकेश अरनेजा को स्पष्ट बताया कि इस तरह का कोई पत्र लिखने का अधिकार उन्हें नहीं है, और यह अधिकार सिर्फ डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को है । जेके गौड़ के नजदीकियों के अनुसार, जेके गौड़ ने मुकेश अरनेजा को स्पष्ट संकेत दे दिए कि इस तरह का पत्र लिखने की उन्होंने यदि दोबारा कोशिश की तो वह उन्हें डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन पद से हटा देंगे । पद छिनने के डर से मुकेश अरनेजा ने दोबारा पत्र लिखने की तो हिम्मत नहीं की, लेकिन जेके गौड़ को सबक सिखाने का फैसला उन्होंने जरूर कर लिया । रोटरी क्लब नोएडा एक्सीलेंस में जेके गौड़ के साथ जो हुआ, उसके जरिए मुकेश अरनेजा ने जेके गौड़ को दरअसल झाँकी दिखाई है - और उनका कहना है कि पूरी पिक्चर तो अभी बाकी है ।
रोटरी क्लब नोएडा एक्सीलेंस की जीओवी में जेके गौड़ को एक के बाद एक दो बड़े झटके लगे । पहला झटका तो उन्हें तब लगा, जब वह तो निर्धारित समय पर मीटिंग स्थल पर पहुँच गए - किंतु मीटिंग के आयोजकों के रूप में नोएडा एक्सीलेंस के पदाधिकारियों का वहाँ कोई अतापता नहीं था । किसी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की ऐसी बेइज्जती शायद ही कहीं/कभी हुई होगी - कि किसी क्लब के पदाधिकारी जीओवी का कार्यक्रम तय करें, डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को समय और जगह बताएँ; और समय पर पहुँचे ही नहीं तथा डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को इंतजार करवाएँ । इसमें भी मजा यह रहा कि क्लब के पदाधिकारियों से जब किसी ने इस बारे में बात की तो 'उल्टा चोर कोतवाल को डांटे' वाले अंदाज में क्लब के पदाधिकारियों ने जबाव दिया कि गौड़ को समय से पहुँचने की जरूरत क्या थी, उन्हें क्या पता नहीं है कि कार्यक्रमों में आने/पहुँचने में देर हो ही जाती है । इस रवैये के चलते जेके गौड़ को अपमान का घूँट पी कर रह जाना पड़ा । खैर, देर-सवेर जीओवी हुई - जिसमें जेके गौड़ को दूसरा झटका तब लगा जब क्लब के पदाधिकारियों ने रोटरी फाउंडेशन के लिए एक भी पैसा देने से साफ इंकार कर दिया । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में जेके गौड़ को ऐसा दो-टूक इंकार किसी भी क्लब में सुनने को नहीं मिला । हर क्लब में, मरे से मरे क्लब में भी रोटरी फाउंडेशन के लिए की गई जेके गौड़ की माँग का सम्मान रखा गया, और कुछ न कुछ रकम अवश्य ही दी गई । किंतु रोटरी क्लब नोएडा एक्सीलेंस की जीओवी में रोटरी फाउंडेशन के लिए इकन्नी देने से भी साफ इंकार कर दिया गया । क्लब के पदाधिकारियों का कहना रहा कि उन्हें जो पैसे खर्च करने हैं, उसे वह रोटरी फाउंडेशन में देने की बजाए अपने प्रोजेक्ट्स में खर्च करेंगे । बाद में, क्लब के अधिष्ठापन समारोह में क्लब के कुछेक बड़े और महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स घोषित भी किए गए - जिनकी लोगों के बीच भारी प्रशंसा भी हुई । इस प्रशंसा के बीच लेकिन रोटरी फाउंडेशन के प्रति उनके नकारात्मक रवैये को लेकर आलोचना के स्वर भी रहे - और इस आलोचना को इसलिए भी तवज्जो मिली, क्योंकि इसमें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ के अपमान का भाव भी था । 
उल्लेखनीय है कि रोटरी फाउंडेशन को लेकर कई एक रोटेरियंस के बीच नकारात्मक भाव देखने/सुनने को मिलते रहते हैं । कई एक रोटेरियंस इस बात की वकालत करते देखे/सुने जाते रहे हैं कि रोटरी फाउंडेशन में पैसे देने का कोई फायदा नहीं होता है, और उसमें पैसे देने की बजाए उस पैसे को अपने प्रोजेक्ट्स में खर्च करना चाहिए । ऐसी बातें दरअसल इसलिए होती हैं, क्योंकि बहुत से रोटेरियंस के सामने रोटरी फाउंडेशन का कॉन्सेप्ट ही स्पष्ट नहीं होता है, और वह उस कॉन्सेप्ट को जानने/समझने की बजाए अपनी ही मनमानी करना चाहते हैं । ऐसे लोग दरअसल कन्फ्यूज्ड लोग होते हैं । ये रोटरी जैसे इंटरनेशनल ऑर्गेनाजेशन में भी सदस्य बनना चाहेंगे, किंतु उसके कॉन्सेप्ट को भी नहीं अपनायेंगे । ये लोग ऐसे लोग होते हैं जो अपनी पसंद और अपनी ही मर्जी से मिठाई खाने का फैसला करते हैं, और फिर शिकायत करते हैं कि इसमें नमक तो है ही नहीं ! इनकी शिकायत बहुत सही होती है, और नमक खाने की इनकी इच्छा इनका अधिकार भी होता है - बस इनका फैसला गलत होता है । खाने की हर चीज में जिसे नमक चाहिए ही, उसे मिठाई खाने का फैसला करना ही नहीं चाहिए । जो लोग अपने पैसे से अपने प्रोजेक्ट्स करना चाहते हैं, वह कोई गलत सोच नहीं रखते हैं; लेकिन अपनी सोच को क्रियान्वित करने के लिए उन्हें अपना एक एनजीओ खोलना/बनाना चाहिए, या किसी स्थानीय एनजीओ से जुड़ना चाहिए - रोटरी जैसे इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन में उन्हें शामिल ही नहीं होना चाहिए । इसीलिए रोटरी क्लब नोएडा एक्सीलेंस के पदाधिकारियों का रोटरी फाउंडेशन में एक भी पैसा न देने के फैसले को हैरानी और संदेह के साथ देखा गया । हैरानी इसलिए भी हुई क्योंकि इस क्लब के एक वरिष्ठ सदस्य प्रवीन निगम डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनने की दौड़ में हैं । सवाल यह है कि प्रवीन निगम यदि गवर्नर बन गए, तो क्या तब भी वह रोटरी फाउंडेशन के प्रति वही रवैया रखेंगे/दिखायेंगे - जो अभी उनके क्लब के पदाधिकारी दिखा रहे हैं ?
उस समय तो बात सिर्फ हैरानी तक सिमट कर रह गई, लेकिन अब भेद खुला कि यह सब मुकेश अरनेजा की पढ़ाई/सिखाई का नतीजा था । क्लब के पदाधिकारियों ने ही जेके गौड़ को बताया है कि मुकेश अरनेजा ने ही उन्हें सलाह दी थी कि जीओेवी में देर से पहुँचोगे और जेके गौड़ को इंतजार करवाओगे । मुकेश अरनेजा का तर्क था कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में जेके गौड़ क्लब के लोगों को कुछ समझ ही नहीं रहा है, और क्लब के लोगों को उपेक्षित कर रहा है - इसलिए उसे क्लब की ताकत दिखाने/बताने की जरूरत है । रोटरी फाउंडेशन को लेकर मुकेश अरनेजा ने उन्हें समझाया था कि रोटरी फाउंडेशन के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठे करके जेके गौड़ अपना रिकॉर्ड बनाना चाहता है, इसलिए उसमें पैसे देने से क्लब को कोई फायदा नहीं होगा और क्लब को रोटरी फाउंडेशन में एक पैसा देने की भी जरूरत नहीं है । मुकेश अरनेजा ने उन्हें पूरी पट्टी पढ़ाई कि रोटरी फाउंडेशन के लिए पैसे लेने खातिर जेके गौड़ उन्हें तरह तरह के लालच देगा और तरह तरह की बातें बनायेगा, लेकिन उसकी बातों में मत आना और बस एक ही तर्क देना कि हमें जो पैसे खर्च करने हैं, उन्हें हम अपने ही प्रोजेक्ट्स में करेंगे । मुकेश अरनेजा की इस पढ़ाई/सिखाई का एक ही मकसद था और वह यह कि वह जेके गौड़ को अपमानित करवाना चाहते थे । 
मुकेश अरनेजा ने जब दीपक गुप्ता से रोटरी फाउंडेशन में पैसे दिलवाए थे, तब भी जेके गौड़ को नीचा दिखाने का काम किया था । जेके गौड़ ने अलग अलग जगहों पर कई बार यह शिकायत की है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई को रोटरी फाउंडेशन के लिए ड्रॉफ्ट सौंपते समय दीपक गुप्ता ने उन्हें बिलकुल अलग-थलग और अँधेरे में रखा । जेके गौड़ ने इसे अपने अपमान के रूप में देखा/पहचाना है । लोगों के बीच की चर्चाओं में इसे मुकेश अरनेजा की खुराफात के रूप में समझा गया है । इस खुराफात के जरिए मुकेश अरनेजा ने जेके गौड़ को अपमानित करने का सुख भले ही प्राप्त कर लिया हो, किंतु दीपक गुप्ता और प्रवीन निगम के लिए तो मुसीबत पैदा कर दी है । मुकेश अरनेजा की करनी के चलते जेके गौड़ इन दोनों की उम्मीदवारी के प्रति दुश्मनी का भाव रखने लगे हैं । रोटरी की चुनावी राजनीति में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर यदि किसी उम्मीदवारी के प्रति दुश्मनी का भाव अपना ले, तो फिर उसे तो कदम कदम पर मुसीबतें ही खड़ी मिलती हैं । प्रवीन निगम और दीपक गुप्ता इन मुसीबतों का सामना कर भी रहे हैं । इनकी मुसीबतों का रोचक परिदृश्य यह है कि यह जिन मुकेश अरनेजा को अपनी अपनी उम्मीदवारी का खैवनहार समझ रहे हैं, वही मुकेश अरनेजा इनकी मुसीबतों के वास्तविक कारण हैं । इससे यह और साफ हुआ है कि प्रवीन निगम और दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को उकसा कर मुकेश अरनेजा वास्तव में अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं; इनकी उम्मीदवारी के पक्ष में समर्थन बढ़े इसके लिए प्रयास करने की बजाए मुकेश अरनेजा इनकी उम्मीदवारी को सीढ़ी बना कर अपने ही काम बनाने/निकालने में लगे हुए हैं और इस बात की भी परवाह करते हुए नहीं दिख रहे हैं कि उनकी कारगुजारियों से इनकी उम्मीदवारी के समर्थकों की बजाए विरोधी बढ़ रहे हैं । ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि यह दोनों मुकेश अरनेजा के झाँसे में कब तक फँसे रहते हैं ।

Saturday, August 29, 2015

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन के सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में भारी छूट के साथ घर खरीदने का ऑफर देकर अजय सिंघल मुसीबत में फँसे

गाजियाबाद । अजय सिंघल सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में अपने प्रोजेक्ट को बेचने निकल पड़ने के कारण लोगों की भारी आलोचना का निशाना बन रहे हैं । शिकायती अंदाज में लोगों का पूछना/कहना है कि अजय सिंघल क्या इसीलिए (सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट) गवर्नर बने हैं ? कुछेक लोगों ने बहुत ही तल्ख़ लहजे में आरोप लगाया है कि इस तरह तो अजय सिंघल लायनिज्म को धंधा करने का जरिया बना देंगे । कुछेक लोगों ने हालाँकि अजय सिंघल का बचाव करने का प्रयास भी किया और तर्क दिया कि लायनिज्म की स्थापना ही एक दूसरे के बीच अपने अपने बिजनेस को प्रमोट करने के उद्देश्य से हुई थी, इसलिए अजय सिंघल ने जो कुछ किया है उसमें कुछ भी गलत नहीं है । इन्हीं लोगों ने यह कह कर मामले को राजनीतिक ट्विस्ट देने का प्रयास भी किया कि अजय सिंघल से ईर्ष्या करने वाले उनके आसपास के लोग इस मामले में लोगों को भड़का रहे हैं, और अजय सिंघल को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं । आलोचकों व समर्थकों के बीच कुछेक तटस्थ किस्म के लोगों का मानना और कहना है कि अजय सिंघल से गलती तो हुई है, लेकिन वह इतनी बड़ी नहीं है कि उन्हें जोरशोर से निशाना बनाया जाए । इनका कहना है कि लायनिज्म में कई बेईमान किस्म के लोग हैं, जो लायनिज्म में अपनी पोजीशन का फायदा उठाते हुए लोगों को अपने बिजनेस के माध्यम से ठगने के काम में लगे रहते हैं; प्रॉपर्टी के बिजनेस में इस तरह की ठगी बहुत होती है - इसलिए अजय सिंघल को सावधानी के साथ लायनिज्म और बिजनेस में सामंजस्य बैठाना चाहिए । अभी उन्होंने जो किया है उसमें वह जरूरी सामंजस्य असंतुलित तो हुआ है, किंतु वह असंतुलन इतना बड़ा भी नहीं है कि उन्हें सीधे कठघरे में ही खड़ा कर दिया जाए । अजय सिंघल को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करने वाले लोगों का कहना किंतु यह है कि सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर अजय सिंघल को यदि अभी ही नहीं चेक किया गया, तो वह लायनिज्म को धंधा ही बना देंगे ।   
यह बबाल अजय सिंघल द्वारा लोगों को भेजी गई उस ईमेल से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने अपने आपको डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन के सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में प्रस्तुत करते हुए अपने प्रोजेक्ट में घटी कीमत पर घर खरीदने का ऑफर दिया । यह ईमेल पाकर कई लोग भड़क गए और उनका आरोप रहा कि लायनिज्म की साख व विश्वसनीयता की आड़ लेकर अजय सिंघल अपना प्रोजेक्ट बेचने का प्रयास कर रहे हैं । यह आरोप लगाने वाले लोगों का कहना रहा कि उन्हें यह बात अच्छी तरह से पता है कि गवर्नर बनने के बाद अजय सिंघल अपना बिजनेस बंद नहीं कर देंगे; वह यह भी समझते हैं कि लायनिज्म में उनके परिचय का जो विस्तार होगा, उसका फायदा अजय सिंघल निश्चित रूप से अपने बिजनेस में उठायेंगे ही - लेकिन वह यह उम्मीद जरूर करते हैं कि अजय सिंघल अपने बिजनेस और अपनी गवर्नरी को एक साथ मिला नहीं देंगे, और डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के 'रूप में' बिजनेस नहीं करेंगे । लोगों का कहना रहा कि हर गवर्नर कोई न कोई बिजनेस करता ही है; लेकिन वह बिजनेस और लायनिज्म में एक विभाजन रेखा भी बना कर रखता है । अजय सिंघल ने चूँकि इस विभाजन रेखा को खत्म कर दिया, इसलिए वह लोगों के निशाने और आरोपों के घेरे में आ गए । 
अजय सिंघल लोगों के निशाने और आरोपों के घेरे में इसलिए भी आ गए, क्योंकि लोगों ने उन्हें लायनिज्म में खूब खूब सक्रियता के साथ देखा है । लायनिज्म में सक्रियता बनाने और लायनिज्म में संपर्कों का दायरा बनाने/बढ़ाने में अजय सिंघल ने जिस तरह का उत्साह दिखाया है, वह वास्तव में एक बेमिसाल उदाहरण है । ऐसा उदाहरण अभी तक प्रायः उन थोड़े से लोगों ने ही प्रस्तुत किया है, जो लायनिज्म के साथ सचमुच में जुड़ कर यहाँ एक लंबी पारी खेलना चाहते हैं । अजय सिंघल ने सक्रियता तो दिखाई है, संपर्क बनाने में उत्साह भी दिखाया है - लेकिन लायनिज्म के साथ वास्तव में 'जुड़ने' का कोई संकेत नहीं दिया है । उनके नजदीकियों के हवाले से उनकी सक्रियता का नतीजा यह निकला/निकाला गया कि लायनिज्म में वह 'जुड़ने' नहीं, एन्जॉय करने के उद्देश्य से आए हैं । किंतु अजय सिंघल को आरोपों के घेरे में लेने वाली ईमेल से लोगों के बीच संदेह यह बना है कि लायनिज्म में कहीं वह बिजनेस करने के इरादे से तो नहीं आए हैं ? उक्त ईमेल को पाने वाले लोगों में कईयों को लगने लगा है कि अजय सिंघल की सक्रियता और संपर्क बनाने की मुहिम के पीछे बिजनेस ही मुख्य प्रेरक शक्ति है । 
कई लोगों का हालाँकि यह भी कहना है कि लायनिज्म में अजय सिंघल की सक्रियता और संपर्क बनाने की मुहिम के पीछे बिजनेस यदि मुख्य प्रेरक शक्ति हैं भी, तो यह कोई बुरी बात नहीं है; बुरी बात लेकिन यह है कि उन्होंने इसे बहुत ही फूहड़ तरीके से अंजाम देने की कोशिश की है - जिसमें उनके हाथ सिर्फ बदनामी ही लगनी है । यही हुआ भी है । सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में भारी छूट के साथ घर खरीदने का ऑफर देकर अजय सिंघल ने सचमुच में मुसीबत तो मोल ले ही ली है । 

Friday, August 28, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की कुछेक ब्रांचेज में राजिंदर नारंग की उपस्थिति के अभाव में कार्यक्रम स्थगित होने से उनकी पकड़ के मजबूत होने के जो संकेत और सुबूत मिले हैं, उससे हरियाणा/पंजाब से ज्यादा उम्मीदवार होने के कारण राजिंदर नारंग के लिए इस बार हालात अनुकूल न होने की आशंका निर्मूल साबित हो रही है

हिसार । नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की कुछेक ब्रांचेज में अभी हाल ही में कुछेक कार्यक्रम ऐन मौके पर जिस तरह स्थगित हुए, उसके लिए काउंसिल सदस्य राजिंदर नारंग की धमक को जिम्मेदार माना/ठहराया गया - और इसके चलते एक उम्मीदवार के रूप में राजिंदर नारंग के जलवे की चर्चा लोगों के बीच फैली । लोगों के बीच चर्चा है कि जो कार्यक्रम ऐन मौके पर स्थगित हुए, उनके आयोजनकर्ता कार्यक्रम में राजिंदर नारंग की उपस्थिति चाहते थे - लेकिन राजिंदर नारंग ने अपनी व्यस्तता का वास्ता देकर उक्त कार्यक्रम में उपस्थित हो पाने में अपनी असमर्थता बता दी, तो आयोजनकर्ताओं ने कार्यक्रम ही स्थगित कर दिया; और घोषित कर दिया कि जब राजिंदर नारंग को उपस्थित होने का समय मिलेगा वह तब कार्यक्रम कर लेंगे । ऐसी घटनाएँ हालाँकि कुछेक जगह ही हुई हैं, लेकिन कुछेक जगह होने वाली इन घटनाओं से यह सुबूत तो मिला ही है कि इन कुछेक जगहों पर यदि पत्ता भी हिलेगा तो राजिंदर नारंग की मर्जी से हिलेगा । रीजनल काउंसिल के एक उम्मीदवार के रूप में राजिंदर नारंग की यदि ऐसी स्थिति है - भले ही कुछेक जगहों पर ही; तो चुनावी माहौल में यह स्थिति उनका जलवा तो दिखाती ही है और लोगों के बीच इसका चर्चा का विषय बनना स्वाभाविक ही है । चुनावी माहौल में इस स्थिति और चर्चा के चलते सेंट्रल काउंसिल के कुछेक उम्मीदवारों ने राजिंदर नारंग से 'जुड़ने' की तिकड़में लगाना शुरू कर दिया है, ताकि राजिंदर नारंग के 'जलवे' से वह भी फायदा उठा सकें । 
राजिंदर नारंग के इस 'दिखते' जलवे के बावजूद इस बार के चुनाव में कुछेक लोग राजिंदर नारंग की स्थिति को 'फँसा' हुआ भी मान रहे हैं । उनका तर्क है कि हरियाणा और पंजाब में इस बार चूँकि पिछली बार की तुलना में ज्यादा उम्मीदवार आ रहे हैं, इसलिए राजिंदर नारंग के सामने पहली वरीयता के ज्यादा वोट पाने की समस्या होगी - और इस कारण उन्हें मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है । दिल्ली से बाहर के उम्मीदवारों को दूसरी वरीयता के वोटों का भी बहुत सहारा नहीं मिलता है; और फिर इस बार सोनीपत, पानीपत, लुधियाना से दो दो उम्मीदवारों के नामों चर्चा है - इसलिए दूसरी वरीयता के वोटों की भी राजिंदर नारंग बहुत उम्मीद नहीं कर सकते हैं । लिहाजा राजिंदर नारंग के सामने सचमुच संकट है । चुनावी गणित लगाने वाले लोग लेकिन इस तर्क से सहमत नहीं है । उनका कहना है कि 'एक और एक दो' के हिसाब से तो यह तर्क ठीक जान पड़ता है, लेकिन चुनावी राजनीति इस हिसाब से नहीं होती है - यदि होती हो ती तो दिल्ली में लोकसभा की सातों सीटें जीतने और साठ विधानसभा सीटों में बढ़त बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी विधानसभा चुनाव में तीन सीटों पर न सिमट जाती ! 
ऐसा मानने वालों का कहना है कि ज्यादा उम्मीदवार होने के बावजूद राजिंदर नारंग के लिए इस बार हालात बल्कि ज्यादा अनुकूल हैं । पिछली बार विशाल गर्ग, आलोक कृष्ण और अश्वनी कठपालिया को मजबूत उम्मीदवारों के रूप में देखा/पहचाना जा रहा था; और उनके रहते राजिंदर नारंग के लिए स्थिति ज्यादा चुनौतीपूर्ण थी । अश्वनी कठपालिया को अमरजीत चोपड़ा का खुला समर्थन था; और यह बात राजिंदर नारंग के लिए सबसे बड़ी समस्या थी । अबकी बार अमरजीत चोपड़ा का 'प्यार' राजिंदर नारंग के लिए दिखाई दे रहा है । इस बार जो उम्मीदवार हैं, उनमें एक आलोक कृष्ण को छोड़ कर और किसी ने अभी तक अपनी उम्मीदवारी को लेकर बहुत गंभीरता नहीं दिखाई है । सोनीपत, पानीपत और लुधियाना में जो दो दो उम्मीदवार सुने जा रहे हैं - वह अपने अपने जीतने की कोशिश करने की बजाए एक दूसरे की टाँग खींचने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हुए सुने/देखे जा रहे हैं । ऐसे में, यह राजिंदर नारंग के लिए कोई चुनौती भला क्यों और कैसे बन पायेंगे ? इसी आधार पर, चुनावी गणित लगाने वाले लोगों को विश्वास है कि ज्यादा उम्मीदवार होने के बावजूद राजिंदर नारंग के लिए पिछली बार की तुलना में इस बार स्थितियाँ अपेक्षाकृत ज्यादा अनुकूल हैं ।
इस विश्वास को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि काउंसिल सदस्य के रूप में राजिंदर नारंग ने लोगों के बीच अपनी पैठ को और बढ़ाया भी है, और अपने लिए नए समर्थन-आधार भी विकसित किए हैं । जैसे दिल्ली का ही मामला है - पिछली बार दिल्ली में राजिंदर नारंग की कोई पहचान नहीं थी; किंतु इस बार ऐसा नहीं कहा जा सकता है । हरियाणा/पंजाब के जो लोग दिल्ली में प्रैक्टिस रहे हैं, उनकी एक बड़ी संख्या को राजिंदर नारंग ने अपने व्यवहार से प्रभावित किया है, जो इस बार के चुनाव में उनके काम आयेंगे ही । हरियाणा/पंजाब के लोगों के लिए राजिंदर नारंग दिल्ली में जिस तरह से सहारा बने, उसके कारण हरियाणा/पंजाब में भी उनका समर्थन-आधार बढ़ा है । इसके अलावा, राजिंदर नारंग के जो मजबूत गढ़ हैं वहाँ जो वोट बढ़े हैं उसका तो सीधा फायदा उन्हें होना ही है । उनकी उपस्थिति के अभाव में जिस तरह पिछले दिनों कुछेक ब्रांचेज में कार्यक्रम स्थगित हुए हैं, उससे उन जगहों पर उनकी मजबूत पकड़ के संकेत और सुबूत भी मिले ही हैं ।
तमाम अनुकूल स्थितियों के बावजूद राजिंदर नारंग के लिए यदि समस्या कहीं हैं, तो उनके शुभचिंतकों को वह उनके मैनेजमेंट में दिख रही है । उनके कुछेक शुभचिंतकों का कहना है कि जिस तरह उनकी स्थिति को संकट में पा रहे लोग 'एक और एक दो' का हिसाब लगा रहे हैं; ठीक वैसे ही 'हिसाब' से राजिंदर नारंग अपनी स्थिति को मजबूत मान रहे हैं । राजिंदर नारंग का हिसाब तो ठीक है, लेकिन इस हिसाब को फलीभूत करने के लिए उन्हें अपने चुनाव अभियान को वास्तविकता के धरातल पर व्यवस्थित तो करना ही पड़ेगा । उनके शुभचिंतकों का कहना है कि राजिंदर नारंग ने इसमें अगर कोई लापरवाही बरती तो फिर सचमुच में उनके सामने चुनौती खड़ी हो सकती है ।

Thursday, August 27, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बने सुनील जिंदल ने अपने 'मेनिफेस्टो व मिशन' पत्र के जरिए मुद्दों पर जो फोकस किया है, उससे दूसरे उम्मीदवारों के सामने प्रोफेशन को लेकर अपने विचार व अपनी प्राथमिकताएँ स्पष्ट करने की मजबूरी आ पड़ी है

नई दिल्ली । सुनील जिंदल द्धारा नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ में अपना 'मेनिफेस्टो कम मिशन' घोषित करने से नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की चुनावी राजनीति में खासा उबाल पैदा हो गया है । सुनील जिंदल की 'मेनिफेस्टो कम मिशन' घोषणा को जहाँ कई लोगों से तारीफ मिली है, वहीं कुछेक लोगों ने उसकी आलोचना भी की है । तारीफ करने वाले लोगों का कहना है कि सुनील जिंदल ने अपनी इस घोषणा से चुनावी अभियान को मुद्दा आधारित बनाने का काम किया है, अन्यथा अभी तक चुनावी अभियान में बेमतलब और फ़िजूल की बातें ही हो रही थीं । आलोचना करने वाले लोगों का कहना है कि सुनील जिंदल ने मेनिफेस्टो के साथ जिस तरह मिशन शब्द जोड़ा है, उससे लगता है कि उन्होंने अपने आप को अभी से विजयी मान लिया है । आलोचना करने वाले लोगों की एक शिकायत और है तथा वह यह कि सुनील जिंदल की जो 'मेनिफेस्टो कम मिशन' घोषणा है, उससे आभास मिलता है कि उन्हें रीजनल काउंसिल और रीजनल काउंसिल सदस्य की सीमाओं का पता ही नहीं है, और वह ऐसे काम करने की बातें कर रहे हैं जो किसी एक रीजनल काउंसिल सदस्य के बस की बात ही नहीं है । तारीफ और आलोचना की बात अपनी जगह है - कोई भी कुछ कहेगा या करेगा तो उसकी तारीफ भी होगी और आलोचना भी होगी ही; महत्वपूर्ण बात लेकिन यह हुई है कि सुनील जिंदल की इस 'मेनिफेस्टो कम मिशन' घोषणा ने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनावी माहौल में गर्मी जरूर पैदा कर दी है ।
जैसा कि सुनील जिंदल की इस 'मेनिफेस्टो कम मिशन' घोषणा की तारीफ करने वाले लोगों का कहना है कि इस घोषणा ने एक बड़ा और अच्छा काम यह किया है कि इसने दूसरे उम्मीदवारों को भी यह सोचने और बताने के लिए मजबूर किया है कि काउंसिल सदस्य के रूप में आखिर वह करेंगे क्या ? प्रोफेशन और प्रोफेशन से जुड़े लोगों के लिए वह क्या कुछ होने तथा करने की जरूरत समझ रहे हैं । सुनील जिंदल की 'मेनिफेस्टो कम मिशन' घोषणा की तारीफ करने वाले लोगों का कहना है कि नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले उम्मीदवार अभी तक प्रोफेशन से जुडी सूचनाओं तथा सद्वचनों को ही दोहराते जाने में लगे हुए हैं । ऐसा लगता है कि जैसे उनके पास अपनी तरफ से कुछ कहने के लिए है ही नहीं, और वह बस इधर-उधर से नक़ल मार कर अपने आप को लोगों के बीच 'दिखाने' की तीन-तिकड़म लगा रहे हैं । उम्मीदवारों ने सद्वचनों की तो ऐसी रेल-पेल मचा रखी है कि समझना मुश्किल हो रहा है कि यह चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, या सत्संगी प्रवचनकर्ता ? काउंसिल में इन्हें प्रोफेशन के उत्थान के लिए काम करना है, या वहाँ इन्हें प्रवचन देने हैं ? कोई इन्हें बताने/समझाने वाला नहीं मिला कि आप एक प्रोफेशन से जुड़े इंस्टीट्यूट की गवर्निंग काउंसिल में जाने की कोशिश कर रहे हो, तो उसी के अनुरूप बात और व्यवहार करो न तथा थोड़ा मैच्योर बनो ! लोगों को यह बताओ कि काउंसिल में जा कर करोगे क्या ? यह जो कुछ इधर से नकल मार कर और कुछ उधर से नकल मार कर सद्वचन पेल देते हो, इससे क्या दिखाना/जताना चाहते हो ? 
मजे की बात तो यह होती है कि कई बार उम्मीदवार ऐसे ऐसे सद्वचन प्रस्तुत कर देते हैं, जिसमें कही गई बात उनके अपने व्यक्तित्व व व्यवहार के ठीक विपरीत होती है, और इस कारण वह लोगों के बीच हँसी के पात्र बनते हैं । बिडंवना यह होती है कि जिन सद्वचनों के सहारे उम्मीदवार लोग अपने आप को गंभीरता से लिए जाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वही सद्वचन उनका मजाक उड़वा रहे होते हैं । सुनील जिंदल ने 'मेनिफेस्टो कम मिशन' घोषणा करके एक तरफ तो अपने आपको दूसरे उम्मीदवारों से अलग व प्रोफेशन के प्रति जिम्मेदार उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया, तथा दूसरी तरफ चुनावी अभियान को मुद्दा आधारित बनाने का काम किया । सुनने में आ रहा है कि अब दूसरे उम्मीदवार भी सुनील जिंदल की नकल करके अपने अपने मेनिफेस्टो तैयार कर/करवा रहे हैं । इस तरीके से सुनील जिंदल ने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनाव के संदर्भ में ट्रेंड सेटर का रोल निभाया है - और उनकी पहल से उम्मीद है कि उम्मीदवार लोग अब मुद्दों पर बात करना शुरू करेंगे । 
और जैसा कि होता है कि हर किसी को आलोचक भी मिलते ही हैं - सो सुनील जिंदल को भी वह मिले हैं । सुनील जिंदल द्वारा प्रस्तुत 'मेनिफेस्टो व मिशन' घोषणा को लेकर उनके आलोचकों ने उन्हें इस बात पर घेरा है कि इंस्टीट्यूट में किसी भी स्तर पर बिल्डिंग बनवाने में रीजनल काउंसिल सदस्य की भूमिका बहुत ही मामूली सी होती है; और वास्तव में कोई रीजनल काउंसिल सदस्य अपने स्तर पर तो बिल्डिंग नहीं ही बनवा सकता है । इसके अलावा, बिल्डिंग को लेकर प्रोफेशन में समस्या तो है, किंतु यह प्रमुख समस्या नहीं है । आलोचकों का कहना है कि सुनील जिंदल ने लेकिन इसे अपने 'मेनिफेस्टो व मिशन' पत्र में सबसे पहले प्रस्तुत करके इसे जो महत्ता दी है, उससे लगता कि काउंसिल सदस्य के रूप में उनकी प्राथमिकताएँ प्रोफेशन से जुड़े लोगों की प्राथमिकताओं से मेल नहीं खाती हैं - जो उनके और लोगों के बीच बने गैप को दर्शाता है । सुनील जिंदल की खुशकिस्मती यह है कि उनके इन आलोचकों में से कई हालाँकि यह भी मानते और कहते हैं कि प्राथमिकताओं के संदर्भ में और या रीजनल काउंसिल के अधिकार क्षेत्र के मामले में सुनील जिंदल ने अभी जिस अपरिपक्वता का परिचय दिया है, उसे वह समय रहते जल्दी से दूर भी कर सकते हैं । आलोचक लोग भी इस बात के लिए हालाँकि सुनील जिंदल की तारीफ भी कर रहे हैं कि सुनील जिंदल ने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनाव अभियान को मुद्दों पर तो फोकस कर ही दिया है, और दूसरे उम्मीदवारों के सामने भी प्रोफेशन को लेकर अपने विचार व अपनी प्राथमिकताएँ स्पष्ट करने के लिए प्रेरित किया है । इस तरह, सुनील जिंदल की 'मेनिफेस्टो व मिशन' घोषणा ने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले दूसरे उम्मीदवारों के सामने एक गंभीर चुनौती पैदा कर दी है - जिसे मजबूरी में ही सही, लेकिन दूसरे उम्मीदवारों को स्वीकार करना ही पड़ेगा ।

Tuesday, August 25, 2015

कानपुर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सोसायटी के वार्षिक समारोह में उमेश गर्ग को तवज्जो मिलने से बौखलाए मनु अग्रवाल तथा उनके संगी-साथियों ने जो हरकत की उससे उमेश गर्ग का तो कुछ नहीं बिगड़ा, उलटे मनु अग्रवाल की फजीहत और हुई

कानपुर । कानपुर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सोसायटी के वार्षिक समारोह में उमेश गर्ग को तवज्जो मिलने से बौखलाए मनु अग्रवाल तथा उनके संगी-साथियों ने भारी बबाल तो मचाया, किंतु बबाल के बावजूद वह मनचाहा नतीजा प्राप्त नहीं कर पाए । दरअसल हुआ यह कि कानपुर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सोसायटी के 28वें स्थापना दिवस पर आयोजित वार्षिक समारोह को मनु अग्रवाल तथा उनके संगी-साथी सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत मनु अग्रवाल की उम्मीदवारी के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे, और इसके लिए उन्होंने पूरी तैयारी भी कर रखी थी - किंतु उमेश गर्ग की उपस्थिति ने उनकी सारी तैयारी पर पानी फेर दिया था । चूँकि उमेश गर्ग सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन हैं, इसलिए कानपुर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सोसायटी के वार्षिक समारोह में प्रोटोकॉल के तहत उन्हें मंच पर जगह मिलना ही थी - और वह जगह उन्हें मिली भी । रीजनल काउंसिल के चेयरमैन होने के नाते उन्हें सिर्फ मंच पर जगह ही नहीं मिली, बल्कि वक्ताओं की प्रशंसा भी मिली । किसी भी कार्यक्रम में यह एक स्वाभाविक सा दृश्य होता है कि प्रत्येक वक्ता मंच पर बैठे लोगों के लिए प्रशंसा के दो शब्द बोलता ही है । उमेश गर्ग चूँकि सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन हैं, इसलिए उनके बारे में बोलते हुए वक्ताओं ने जरा कुछ ज्यादा जोश दिखा दिया । उमेश गर्ग ने भी चूँकि सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित की हुई है, इसलिए समारोह के मंच पर उमेश गर्ग को मिल रही प्रशंसा को मनु अग्रवाल तथा उनके संगी-साथियों ने अपने से छिनते वोटों के रूप में देखा/पहचाना । उन्हें लगा कि उमेश गर्ग को यह जो तवज्जो और प्रशंसा मिल रही है, उससे सेंट्रल काउंसिल चुनाव के संदर्भ में कानपुर में उमेश गर्ग के वोट बढ़ रहे हैं - और इसका सीधा मतलब यह है कि कानपुर में उनके, यानि मनु अग्रवाल के वोट घट रहे हैं ।
उल्लेखनीय है कि मनु अग्रवाल तथा उनके संगी-साथी लगातार इस प्रयास में हैं कि कानपुर में मनु अग्रवाल के अलावा सेंट्रल काउंसिल के किसी भी अन्य उम्मीदवार को घुसने से रोक देना चाहिए; और कानपुर में कोई भी चार्टर्ड एकाउंटेंट मनु अग्रवाल के अलावा सेंट्रल काउंसिल के किसी अन्य उम्मीदवार से न मिले और न बात करे । मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथी अपने इस प्रयास में कानपुर के कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से लड़ बैठे हैं, जिन्होंने दूसरे उम्मीदवारों से बात/मुलाकात की । कई एक लोगों ने मनु अग्रवाल तथा उनके संगी-साथियों को विभिन्न मौकों पर समझाने की बहुत कोशिश की कि जैसा वह सोचते और चाहते हैं, वैसा नहीं हो सकता है - इसलिए वह लोगों से लड़ना/झगड़ना बंद करें; क्योंकि लड़ने/झगड़ने से उनका खुद का नुकसान हो रहा है । कभी तो ऐसा लगता रहा कि उन्हें यह बात समझ में आ रही है, लेकिन फिर जल्दी ही वह यही कुछ करते देखे/सुने जाने लगते हैं । मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथियों की इन्हीं हरकतों के चलते सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल की 'कानपुर प्रोग्राम कमेटी' को निष्प्रभावी बना दिया गया है । रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में उमेश गर्ग ने उक्त कमेटी का चेयरमैन नवीन भार्गव को बनाया । मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथी इस पर भड़क गए और उन्होंने प्रचारित किया कि नवीन भार्गव रीजनल काउंसिल की कानपुर प्रोग्राम कमेटी के चेयरमैन के रूप में वास्तव में कानपुर में उमेश गर्ग की उम्मीदवारी के चुनावी एजेंट बने हैं, और उनका काम उमेश गर्ग की उम्मीदवारी के लिए सहयोग व समर्थन जुटाना होगा । नवीन भार्गव रीजनल काउंसिल के चेयरमैन रह चुके हैं और कानपुर में उनकी अच्छी फॉलोइंग हैं - किंतु मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथियों ने उन्हें 'कानपुर-विरोधी' के रूप में प्रचारित किया । मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथियों ने इस बात पर ऐसा बखेड़ा खड़ा किया कि उक्त कमेटी को ही निष्प्रभावी कर दिया गया । 
दरअसल अपनी इसी मुहिम के तहत मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथियों ने प्रयास किया था कि कानपुर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सोसायटी के वार्षिक समारोह में सेंट्रल काउंसिल के किसी अन्य उम्मीदवार को कोई तवज्जो न मिले । सोसायटी के पदाधिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने व्यवस्था भी ऐसी पक्की जमा ली थी, जिसमें सेंट्रल काउंसिल के किसी अन्य उम्मीदवार के लिए समारोह में घुसपैठ कर पाना मुश्किल क्या, असंभव था । किंतु उमेश गर्ग के मामले में उनकी यह व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई । रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में उमेश गर्ग को समारोह के मंच से दूर रख पाना मुश्किल हुआ, और प्रोटोकॉल के तहत उमेश गर्ग को मंच पर बैठाना ही पड़ा । मंच पर बैठे उमेश गर्ग को जब वक्ताओं की प्रशंसा भी मिलने लगी, तब मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथी भड़क गए । पर्दे के पीछे से उन्होंने कोशिश तो बहुत की कि उमेश गर्ग को या तो मंच से हटा कर दर्शक दीर्घा में पहुँचा दिया जाए, और या वक्ताओं को निर्देश दिया जाए कि वह किसी भी रूप में उमेश गर्ग की प्रशंसा न करें । पर इनमें से कुछ भी कर पाना संभव नहीं हो सका और मनु अग्रवाल व उनके संगी-साथियों को सिर पीट कर रह जाना पड़ा । मनु अग्रवाल व उनके संगी-साथियों की इस हरकत के बारे में जिन लोगों को पता चला, उन्होंने उन्हें यही समझाया कि वह जो करना चाहते हैं, वह हो पाना संभव ही नहीं है । उन्हें यह भी बताया/समझाया गया कि अपने राजनीतिक स्वार्थ में वह ऐसी कोई बेबकूफी न करें - जिससे उनकी और भद्द पिटे तथा उनकी बदनामी हो । यही हुआ भी, मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथी जो करना चाहते थे - उसे तो नहीं ही कर पाए, लोगों के बीच अपनी बदनामी और करा बैठे । 
मनु अग्रवाल और उनके समर्थक दरअसल इस बार अपने चुनाव में कोई कमी नहीं रहने देना चाहते हैं । कानपुर में लोगों का मानना और कहना है कि पिछली बार की अपनी हार से सबक लेकर मनु अग्रवाल इस बार अपने चुनाव को पिछली बार की तुलना में खासी गंभीरता से ले रहे हैं । पर इस गंभीरता के चक्कर में वह कई तरह की बेबकूफियाँ भी कर रहे हैं - लोगों का कहना है कि मनु अग्रवाल कम कर रहे हैं, उनके नजदीकी और समर्थक ज्यादा कर रहे हैं; लेकिन नजदीकियों और समर्थकों का किया-धरा भी मनु अग्रवाल के सिर पर ही पड़ रहा है । मनु अग्रवाल अपनी तरफ से अपने विरोधियों को तथा अपने से नाराज रहने वाले लोगों को मनाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं; लेकिन उनके समर्थक और नजदीकी फिर कुछ ऐसी हरकत कर देते हैं जिससे पुराने घाव फिर से हरे हो जाते हैं । इस कारण से मनु अग्रवाल के लिए कानपुर में अपनी उम्मीदवारी को लेकर एकमत समर्थन बना पाना मुश्किल हो रहा है । मनु अग्रवाल कानपुर से चूँकि अकेले उम्मीदवार हैं, इसलिए वह यदि यहाँ के ज्यादा से ज्यादा वोट पाने की उम्मीद कर रहे हैं, तो यह बहुत स्वाभाविक ही है । इसके लिए किंतु यह जो तरीका अपना रहे हैं, उससे मामला बनने की बजाए बिगड़ और रहा है । उमेश गर्ग के मामले में मनु अग्रवाल और उनके संगी-साथियों की जो हरकत रही है, उससे उमेश गर्ग का तो वह कुछ नहीं बिगाड़ सके - उलटे अपनी ही फजीहत और करा बैठे हैं । 

Sunday, August 23, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रवीन निगम की उम्मीदवारी को प्रमोट करने के उद्देश्य से आयोजित हो रहे क्लब के अधिष्ठापन समारोह में मुकेश अरनेजा को जाने से रोकने की कोशिशें सफल होंगी क्या ?

नई दिल्ली । प्रवीन निगम के क्लब के अधिष्ठापन समारोह में विशेष आमंत्रित के रूप में शामिल होना स्वीकार करके मुकेश अरनेजा ने प्रवीन निगम के समर्थकों द्वारा किए गए उस दावे को विश्वसनीय बनाने का काम किया है, जिसमें प्रवीन निगम की उम्मीदवारी को मुकेश अरनेजा के समर्थन की बात कही गई है । मजे की बात यह है कि मुकेश अरनेजा के समर्थन का दावा अशोक गर्ग और दीपक गुप्ता भी कर रहे हैं । मुकेश अरनेजा का समर्थन सचमुच किसके साथ है, इसे खुद मुकेश अरनेजा स्पष्ट कर सकते हैं - और उनके स्पष्ट कर देने से सारा कन्फ्यूजन खुद-ब-खुद दूर हो जायेगा । मुकेश अरनेजा लेकिन कन्फ्यूजन दूर करने की बजाए कन्फ्यूजन बनाए रखने में दिलचस्पी ले रहे हैं - इसलिए सारा मामला और भी ज्यादा संदेहास्पद हो गया है । अशोक गर्ग तथा दीपक गुप्ता के शुभचिंतकों ने अपने अपने तरीके से मुकेश अरनेजा को प्रवीन निगम के क्लब के अधिष्ठापन समारोह से 'दूर' रहने का सुझाव दिया है, जिससे कि प्रवीन निगम के समर्थकों के उस दावे को झूठा ठहराया जा सके - जिसमें प्रवीन निगम की उम्मीदवारी को मुकेश अरनेजा के समर्थन की बातें की गई हैं । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रस्तुत प्रवीन निगम की उम्मीदवारी के समर्थकों ने पिछले दिनों तो यहाँ तक दावा किया कि प्रवीन निगम के क्लब के अधिष्ठापन समारोह के जोरशोर से होने के पीछे का 'आईडिया' मुकेश अरनेजा की खोपड़ी में ही उपजा था । मुकेश अरनेजा की खोपड़ी वास्तव में बड़ी उपजाऊ किस्म की खोपड़ी है, जिसमें तीन-तिकड़मों के नए नए फार्मूले निरंतर पैदा होते रहते हैं और कुलबुलाते रहते हैं । यह बात चूँकि जगजाहिर है, इसलिए हर किसी ने प्रवीन निगम के समर्थकों के इस दावे पर सहज ही विश्वास कर लिया । 
दरअसल प्रवीन निगम की उम्मीदवारी चूँकि लोगों के बीच अपनी कोई स्वीकार्यता बना पाते हुए नहीं नजर आ रही है, इसलिए लोगों को उनकी हर कार्रवाई एक फिजूल की कसरत जैसी लगती रही है । लोगों को भले ही उनकी हर कार्रवाई फिजूल की कसरत लगती रही हो, किंतु उम्मीदवारी को लेकर उनके और उनके समर्थकों के जोश में कोई फर्क नहीं देखा/पाया गया - जिससे इस प्रश्नवाचक चर्चा को बल मिला कि प्रवीन निगम व उनके समर्थकों को अपनी उम्मीदवारी के प्रति जोश दिखाने लिए खाद-पानी आखिर कहाँ से मिल रहा है ? इसी प्रक्रिया में प्रवीन निगम के क्लब के अधिष्ठापन समारोह के खासे जोरशोर से होने की चर्चा सुनी गई, तो लोगों के बीच सुगबुगाहट फिर तेज हुई कि प्रवीन निगम को अपने क्लब का अधिष्ठापन समारोह भव्य तरीके से करवाने के लिए आखिर सलाह/सुझाव कहाँ से मिला है ? लोगों को इस पर ज्यादा माथापच्ची नहीं करना पड़ी, क्योंकि प्रवीन निगम के समर्थकों ने खुद से ही इसका जबाव दे दिया और मुकेश अरनेजा का नाम लिया । उनका कहना रहा कि यह मुकेश अरनेजा का ही सुझाव रहा कि क्लब का अधिष्ठापन धूमधाम से करोगे, तो उम्मीदवारी की हवा बनेगी । अधिष्ठापन समारोह को कंट्री इन में करने का सुझाव भी मुकेश अरनेजा का ही है, अन्यथा प्रवीन निगम और उनके क्लब के सदस्य तो यह समारोह नोएडा के किसी होटल में करना चाहते थे - किंतु मुकेश अरनेजा ने उन्हें समझाया कि यह समारोह उन्हें गाजियाबाद में करना चाहिए और ऐसी जगह करना चाहिए, जहाँ गाजियाबाद के साथ साथ दिल्ली के लोगों के लिए भी पहुँचना आसान हो । उनके अनुसार तो अधिष्ठापन समारोह के निमंत्रण पत्र का मैटर भी मुकेश अरनेजा ने ही तैयार करवाया । धूमधाम से अधिष्ठापन समारोह करने के मुकेश अरनेजा के आईडिया ने वास्तव में 'काम' किया और प्रवीन निगम की उम्मीदवारी अचानक से महत्वपूर्ण हो उठी है ।
प्रवीन निगम की उम्मीदवारी के महत्वपूर्ण हो उठने से मुकेश अरनेजा के भरोसे उम्मीदवार बने अशोक गर्ग तथा दीपक गुप्ता के समर्थकों के बीच खलबली मचना स्वाभाविक ही था, और वह मची भी । इन दोनों के समर्थकों ने अपने अपने तरीके से मुकेश अरनेजा पर दबाव बनाया है कि वह प्रवीन निगम के क्लब के अधिष्ठापन समारोह में न जाएँ । इनका तर्क है कि प्रवीन निगम की उम्मीदवारी को मुकेश अरनेजा का सहयोग व समर्थन मिलने की बातों से लोगों के बीच बहुत कन्फ्यूजन पैदा हो रहा है; इस कन्फ्यूजन को दूर करने के लिए जरूरी है कि मुकेश अरनेजा कोई भी बहानेबाजी करके प्रवीन निगम के क्लब के अधिष्ठापन समारोह में न पहुँचे - जिससे कि प्रवीन निगम की उम्मीदवारी के समर्थकों द्वारा मुकेश अरनेजा का सहयोग व समर्थन मिलने के बाबत किए जा रहे दावे लोगों के बीच विश्वसनीयता प्राप्त न कर सकें । इस सब स्थिति में मजेदार सीन यह बना हुआ है कि एक तरफ तो प्रवीन निगम की उम्मीदवारी के समर्थकों की तरफ से दावा किया जा रहा है कि मुकेश अरनेजा को उनके क्लब के अधिष्ठापन समारोह में आने/पहुँचने से रोकने की कोशिशें सफल नहीं होंगी, और मुकेश अरनेजा अवश्य ही उनके क्लब के अधिष्ठापन समारोह में पहुँचेंगे; जबकि दूसरी तरफ अशोक गर्ग व दीपक गुप्ता के समर्थकों की तरफ से बताया जा रहा है कि मुकेश अरनेजा ने उन्हें आश्वस्त किया है कि वह कोई अच्छा सा बहाना सोच/खोज रहे हैं, जिसे वह समारोह में न पहुँचने के लिए ऐन मौके पर इस्तेमाल कर सकें । यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि इन दोनों तरफ के दावों में से किसका दावा सच साबित होगा । 
यूँ तो किसी उम्मीदवार के समारोह में कौन नेता जाता है, या नहीं जाता है - इसका कोई खास मतलब होता नहीं है, और न मतलब को लेकर किसी तरह का कोई विवाद ही होता है । जैसे, प्रवीन निगम के क्लब के अधिष्ठापन समारोह में मुकेश अरनेजा के साथ रमेश अग्रवाल का नाम भी विशेष आमंत्रितों वाली कैटेगरी में है; लेकिन रमेश अग्रवाल की पक्षधरता को लेकर कोई विवाद ही नहीं है । उल्लेखनीय है कि लोगों के बीच रमेश अग्रवाल को सुभाष जैन की उम्मीदवारी के समर्थन में देखा/पहचाना जाता है, किंतु न तो सुभाष जैन की उम्मीदवारी के समर्थकों को ही इस बात पर आपत्ति करते हुए सुना गया है कि प्रवीन निगम के क्लब के समारोह में रमेश अग्रवाल क्यों जा रहे हैं, और न ही प्रवीन निगम के समर्थकों की तरफ से रमेश अग्रवाल से सहयोग व समर्थन मिलने की बातें कही/सुनी जा रही हैं । यह सारा झमेला मुकेश अरनेजा को लेकर ही है । दरअसल राजनीति में धोखेबाजी करने को लेकर मुकेश अरनेजा का ज्यादा 'नाम' है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संदर्भ में मुकेश अरनेजा का नाम यदि तीन तीन उम्मीदवारों के साथ जुड़ रहा है, तो यह वास्तव में मुकेश अरनेजा की करनी का ही तो नतीजा है ! मुकेश अरनेजा ने तीन तीन लोगों को सहयोग व समर्थन देने का झाँसा देकर उम्मीदवारी के लिए जिस तरह से उकसाया हुआ है -  उसके चलते ही उनकी भूमिका संदेहास्पद बनी हुई है । प्रवीन निगम की उम्मीदवारी को प्रमोट करने के इरादे से हो रहे उनके क्लब के अधिष्ठापन समारोह में मुकेश अरनेजा की संलग्नता की बातों ने उनकी भूमिका को लेकर जन्मे संदेहों को पुख्ता बनाने का ही काम किया है । 

Thursday, August 20, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स में हुए सौ करोड़ रुपयों के जमीन घोटाले के कारण जयदीप शाह पर लगे दाग और नागपुर में मराठों व गैर मराठों के बीच विभाजन होने से जुल्फेश शाह के लिए सेंट्रल काउंसिल की राह मुश्किल बनी

नागपुर । जुल्फेश शाह के लिए भारी मुसीबत की बात यह हो गई है कि वह जिन जयदीप शाह के नाम/समर्थन के भरोसे सेंट्रल काउंसिल का चुनाव जीतने का जुगाड़ बैठा रहे हैं, वही जयदीप शाह लेकिन उनकी राह का रोड़ा बनते नजर आ रहे हैं । दरअसल जयदीप शाह के अध्यक्ष-काल में इंस्टीट्यूट में सौ करोड़ रुपयों का जो जमीन घोटाला हुआ था, और उसकी जो कालिख जयदीप शाह के नाम पर लगी थी - उसका दाग अभी तक धुला नहीं है, और यही दाग जुल्फेश शाह के लिए मुसीबत बना है । जुल्फेश शाह को चूँकि जयदीप शाह के 'आदमी' के रूप में ही देखा/पहचाना जाता है, इसलिए कई लोगों को लगता है कि जुल्फेश शाह की आड़ में जयदीप शाह फिर से प्रोफेशन के लोगों के बीच नागपुर का नाम खराब करेंगे । यूँ भी सौ करोड़ रुपयों के जमीन घोटाले के दाग के कारण जयदीप शाह की लोगों के बीच जो फजीहत हुई है, उसके चलते उनका लोगों के बीच पहले जैसा प्रभाव भी नहीं रह गया है । जयदीप शाह की बदनामी का ही नतीजा माना/समझा गया कि इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में 18 वर्ष से लगातार चलती चली आ रही नागपुर की उपस्थिति, पिछली बार अनुपस्थिति में बदल गई । पिछले चुनाव में राजेश लोया की चुनावी असफलता को जयदीप शाह की 'करनी' के नतीजे के रूप में ही देखा/पहचाना गया । राजेश लोया की साफ-सुथरी छवि, एक बड़े सहकारी बैंक की चेयरमैनी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गहरी पैठ के चलते राजेश लोया की जीत को सुनिश्चित ही समझा जा रहा था - किसी को भी उनके असफल होने की आशंका तक नहीं थी; किंतु उनकी तमाम खूबियों पर जयदीप शाह की बदनामी भारी पड़ी । 
जयदीप शाह की वही बदनामी जुल्फेश शाह के लिए मुसीबत बनती नजर आ रही है । पिछली बार रीजनल काउंसिल के चुनाव में जुल्फेश शाह को जयदीप शाह की बदनामी के कारण ही अपेक्षित वोट नहीं मिल सके थे, और पहली वरीयता में उन्हें एक हजार वोटों पर ही संतोष करना पड़ा था । इस बार सेंट्रल काउंसिल के लिए वेस्टर्न रीजन में कोटा तीन हजार वोट के आसपास तय होता दिख रहा है । इस आधार पर देखें तो रीजनल काउंसिल के चुनाव में एक हजार वोट पाने वाले जुल्फेश शाह के लिए सेंट्रल काउंसिल का चुनाव एक बहुत बड़ी चुनौती है । उनके लिए यह चुनौती इसलिए भी बड़ी है, क्योंकि वह अपनी चुनावी सफलता के लिए जयदीप शाह पर पूरी तरह निर्भर हैं । हालाँकि जयदीप शाह को लेकर जुल्फेश शाह थोड़ी सावधानी तो जरूर बरत रहे हैं - पहले जहाँ वह जयदीय शाह की छत्रछाया में रहना अपना गौरव समझते थे और जयदीप शाह की शान में कविताएँ सुनाया करते थे, वैसा सब तो करने से वह बचते नजर आ रहे हैं; लेकिन फिर भी अपने चुनाव अभियान में वह जयदीप शाह पर निर्भर तो हैं ही । जुल्फेश शाह के लिए यह बहुत मुश्किल है कि वह जयदीप शाह को पूरी तरह छोड़ दें । वास्तव में जयदीप शाह का संग-साथ और समर्थन ही उनकी कुल ताकत है - पर सौ करोड़ रुपयों का जमीन घोटाला उनकी बदकिस्मती का सबब बना हुआ है, जिसके कारण उनकी यह 'कुल ताकत' ही उनकी परेशानी भी बनी हुई है । 
जुल्फेश शाह के लिए परेशानी और चुनौती की बात यह भी है कि नागपुर में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की महान चट्टानी एकता जातीय आधार पर चटकती जा रही है । नागपुर के बारे में मशहूर रहा है कि यहाँ के वोट यहाँ के ही उम्मीदवार को पक्के तौर पर मिलते हैं, तथा अन्य किसी उम्मीदवार की दाल यहाँ नहीं गलती है । किंतु अब यह दावा कमजोर पड़ रहा है । दरअसल पिछले वर्षों में हुई राजनीति ने यहाँ मराठों को अपने ठगे जाने का अहसास कराया है, जिसके चलते मराठों में बगावती सुर पैदा हुए हैं । पहले अशोक चांडक ने और फिर जयदीप शाह ने जिस तरह से नागपुर की राजनीति पर कब्जा किया, उससे मराठों के बीच असंतोष पैदा हुआ है । उल्लेखनीय है कि जब अशोक चांडक सेंट्रल काउंसिल में होते थे, तब रीजनल काउंसिल में नागपुर का प्रतिनिधित्व जयदीप शाह और अनिरुद्ध शेनवई करते थे । अशोक चांडक की जगह लेने के लिए इन्हीं दोनों के बीच होड़ थी । अशोक चांडक के लिए जिस तरह से अनिल दानी ने राजनीतिक त्याग किया था, उसी तर्ज पर अनिरुद्ध शेनवई के लिए लोग जयदीप शाह से त्याग की उम्मीद करते थे । लोगों ने उम्मीद की थी कि जयदीप शाह बड़प्पन दिखायेंगे और सेंट्रल काउंसिल में अशोक चांडक की जगह अनिरुद्ध शेनवई के लिए छोड़ेंगे । जयदीप शाह ने लेकिन बड़प्पन दिखाने की बजाये चतुराई दिखाई । जयदीप शाह ने जिस तरह से सेंट्रल काउंसिल में अशोक चांडक की जगह हथियाई और अनिरुद्ध शेनवई को पीछे धकेल दिया, उससे नागपुर में मराठों व गैर मराठों के बीच एक गाँठ पड़ गई थी । 
जयदीप शाह ने अपनी राजनीतिक कुशलता से इस गाँठ के बावजूद नागपुर के वोटरों को विभाजित तो नहीं होने दिया, लेकिन वह गाँठ को खोलने का काम भी नहीं कर पाएँ । उनकी राजनीतिक कुशलता को उनकी चतुराईपूर्ण तीन-तिकड़म के रूप में देखा गया, जिसका खामियाजा उन्हें सौ करोड़ रुपयों के जमीन घोटाले के दाग के रूप में भुगतना पड़ा । जयदीप शाह के नजदीकियों का ही मानना और कहना है कि सौ करोड़ रुपयों के जमीन घोटाले वाले मामले की 'आग' पर्दे के पीछे से अनिरुद्ध शेनवई ने ही लगाई थी । इस मामले के सूत्रधारों के रूप में भले ही दूसरे लोगों के नाम लिए जाते हों, लेकिन जयदीप शाह के नजदीकियों की नजरों में मामले के असली सूत्रधार अनिरुद्ध शेनवई ही थे । नागपुर में और नागपुर के बाहर भी कई लोगों का साफ कहना है कि अनिरुद्ध शेनवई को राजनीतिक मोर्चे पर जयदीप शाह से जो मात खानी पड़ी थी, उसका बदला उन्होंने जयदीप शाह पर जमीन घोटाले का दाग लगा/लगवा कर लिया । इस प्रसंग ने नागपुर में मराठों व गैर मराठों के बीच विभाजन को और हवा दी । 
मराठों व गैर मराठों के बीच विभाजन होने तथा सौ करोड़ रुपयों के जमीन घोटाले के कारण जयदीप शाह पर लगे दाग के चलते बाहर के उम्मीदवारों को नागपुर में समर्थन जुटाने में खासी सफलता मिली । पिछले चुनाव में इसका फायदा श्रीनिवास जोशी, प्रफुल्ल छाजेड़ और सुधीर पंडित को मिला । सुधीर पंडित हालाँकि इस फायदे के बावजूद जीत नहीं पाए । इस बार नागपुर के मराठी वोटों में मंगेश किनरे के सेंध लगाने की चर्चा है । प्रफुल्ल छाजेड़ को जयदीप शाह की बदनामी के कारण नागपुर के गैर मराठी वोटों का अच्छा समर्थन मिला । प्रफुल्ल छाजेड़ को मिले समर्थन का हाल तो यह रहा कि जो लोग उन्हें पहली वरीयता का वोट नहीं दे पाये, उन्होंने उन्हें दूसरी वरीयता का वोट दिया - जिसने उनकी जीत में निर्णायक भूमिका निभाई । उल्लेखनीय है कि राजेश लोया के बाहर होने के बाद ही प्रफुल्ल छाजेड़, एनसी हेगड़े से आगे निकल कर विजयी हो पाए थे । इन स्थितियों ने जुल्फेश शाह की चुनावी दौड़ को मुश्किल बना दिया है । रीजनल काउंसिल सदस्य के रूप में जुल्फेश शाह ने यद्यपि अपने समर्थन आधार को बढ़ाने का काम किया है, अपने व्यवहार और अपनी संलग्नता से उन्होंने अपने दोस्तों व समर्थकों की संख्या में इजाफा भी किया है; किंतु कोई भी चुनाव चूँकि एक मैनेजमेंट भी होता है, और जो परिस्थितियों से नियंत्रित होता है - इसलिए जुल्फेश शाह के लिए सेंट्रल काउंसिल की राह आसान नहीं है । जुल्फेश शाह पर जयदीप शाह की बदनामी का बोझ तो है ही, साथ ही मराठों व गैर मराठों के बीच पनप रहे अविश्वास तथा विरोध से निपटने की चुनौती भी है ।

Tuesday, August 18, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के चुनाव - यानि फुल ड्रामा; उर्फ़ अभी तो पार्टी शुरू हुई है

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के चुनाव के लिए उम्मीदवारों ने कमर पूरी तरह कस ली है, और उनमें कइयों तथा उनके समर्थकों व शुभचिंतकों की हरकतों ने सी ग्रेड हिंदी फिल्मों का सा नजारा पेश किया हुआ है । इस नजारे में गीत/संगीत की महफिलें हैं, देशभक्ति के नारे हैं, डबल मीनिंग डायलॉग हैं, हिंसा उकसाने वाली परिस्थितियाँ हैं, माँ-बहन की गालियाँ हैं, फैमिली शो है, मजबूरियाँ हैं, लाचारियाँ हैं - यानि कुल मिलाकर यहाँ हर वह मसाला मौजूद है, जिसे किसी सीग्रेड मुंबईया फिल्म को कामयाब बनाने के लिए जरूरी समझा जाता है ।  
डांस पार्टियों के जरिए युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को लुभाने वाले विजय गुप्ता एक बार फिर अपने इसी फार्मूले को आजमाने निकल पड़े हैं, और उन्होंने तरह-तरह के बहानों से गीत-संगीत की महफिलों को सजाना शुरू कर दिया है । राजीव सिंह ने वोट माँगते हुए 'गाँधी जी की जय', 'नेहरू जी की जय' का उद्घोष करके चुनावी ड्रामे में देशभक्ति का डोज डाल दिया है । योगिता आनंद ने डबल मीनिंग वाला डायलॉग - 'आप को दूसरे तरीके से समझाना पड़ेगा' बोल कर माहौल में खासी गर्मी पैदा कर दी है । डबल मीनिंग वाले डायलॉग का फायदा यही होता है कि दूसरे लोग अपने अपने नजरिए से उसका अर्थ लगाते हैं । योगिता आनंद ने यह डायलॉग जिन प्रदीप महापात्रा से बोला, वह प्रदीप महापात्रा तो इस बात को धमकी के रूप में ले रहे हैं; किंतु योगिता आनंद के शुभचिंतक लग रहे सुनील अरोड़ा उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि नहीं, यह धमकी नहीं है । सुनील अरोड़ा को लोग यूँ तो नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के सेक्रेटरी राजेश कुमार अग्रवाल के पार्टनर के रूप में जानते/पहचानते हैं, लेकिन उनका आग्रह यह रहता है कि उन्हें 'कपड़े फाड़ देने वाले' के रूप में जाना/पहचाना जाए । योगिता आनंद का पक्ष लेते हुए सुनील अरोड़ा ने प्रदीप महापात्रा को फोन करके जो धमकी दी, और जिसमें उन्होंने सुधीर कत्याल को भी शामिल कर लिया - वह पूरी बातचीत किसी सी ग्रेड फिल्म को सफल बनाने के लिए अपनाया जाने वाला पिता/पिटाया फार्मूला है । करीब साढ़े सोलह मिनट की इस टेलीफोनिक बातचीत में सुनील अरोड़ा बात तो मर्यादा की और महिलाओं की इज्जत की करते हैं -  लेकिन 'तुम मुझे जानते नहीं हो, मैं कपड़े फाड़ देता हूँ' जैसे संवाद बार बार बोलते हैं और माँ-बहन की ऐसी गालियाँ निकालते हैं, जिन्हें यहाँ लिखा जाना संभव नहीं है । माँ-बहन की गालियाँ निकालते हुए माँ-बहनों की इज्जत की और मर्यादा की फिक्र करने का वाकया चार्टर्ड एकाउंटेंट इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य को सचमुच रोमांचपूर्ण बना देता है । इसे अतिथि भूमिका में आए सुधीर कत्याल और तनावपूर्ण बना देते हैं, जब वह सुनील अरोड़ा को ही 'चोरों का साथ देने वाला' और 'लुच्चा' ठहरा देते हैं । 
ऐसा न समझा जाए कि इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य में सिर्फ गालियाँ व धमकियाँ ही हैं - यहाँ पारिवारिक मिलन के पवित्र भावनात्मक दृश्य भी है, जिन्हें प्रस्तुत करने का श्रेय अतुल गुप्ता को है । अतुल गुप्ता ने महीन किस्म की होशियारी दिखाते हुए अपनी वैवाहिक वर्षगाँठ के दिन अपनी कमेटी का एक आधिकारिक कार्यक्रम तय कर लिया, जिसे शाम/रात को अपनी पत्नी को शामिल करके अपनी वैवाहिक वर्षगाँठ की पार्टी के रूप में कन्वर्ट कर लिया और लोगों को एक सुखद पारिवारिक माहौल वाली फीलिंग दी । चर्चा रही कि पार्टी में मौजूद कुछेक लोगों ने आहें भी भरी कि काश वह भी इस्टीट्यूट की किसी कमेटी के चेयरमैन होते, तो वह भी इंस्टीट्यूट के पैसे पर अपनी वैवाहिक वर्षगाँठ की पार्टी दे पाते । पर सब की किस्मत अतुल गुप्ता जैसी थोड़े ही होती है ! ग्लैमर और रोमांच से भरपूर इन दृश्यों के बीच मजबूरियों वाले सीन भी हैं, जिनमें पैसों की कमी का वास्ता देकर बंद कर दी गई इंस्टीट्यूट की फरीदाबाद ब्रांच की लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर पढ़ने को मजबूर बच्चे दिखाई दे रहे हैं - जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है । जिस फरीदाबाद ब्रांच के एक्सऑफिसो सदस्य विजय गुप्ता सेमीनारों के नाम पर इंस्टीट्यूट का पैसा पानी की तरह बहा रहे हों और ब्रांच के चेयरमैन के चुनाव में अपने वोट का इस्तेमाल करते रहे हों, उस फरीदाबाद ब्रांच में पैसों की कमी के चलते लाइब्रेरी बंद हो जाती है और विजय गुप्ता के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती है, और बच्चे परेशानी उठाने के लिए मजबूर होते हैं ।
मुंबईया हिंदी फिल्म जिस तरह एक लाचार बूढ़ी माँ या लाचार बूढ़े बाप के बिना पूरी नहीं होती है, तो उसी तर्ज पर यहाँ - इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य में लाचारी वाला रोल निभाने के लिए इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष मनोज फडनिस हैं, जो एक कुशल अभिनेता की तरह अपनी 'लाचारी' वाली भूमिका को बड़ी खूबी से निभाते 'दिख' रहे हैं ।    
इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य ने अभी जो सीन दिखाए हैं, उनसे आभास मिलता है कि जैसे जैसे चुनाव की गर्मी और बढ़ेगी, वैसे वैसे ड्रामा और ज्यादा दिलचस्प होता जायेगा - क्योंकि 'अभी तो पार्टी शुरू हुई है ।'

Sunday, August 16, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल से निपटने के लिए रमेश अग्रवाल को शरत जैन को अपनी मुट्ठी में रखना और 'दूसरा जेके गौड़' बनाना जरूरी लग रहा है; और इसी जरूरत के चलते रमेश अग्रवाल ने क्लब की मीटिंग में पेम वन के आमंत्रितों की सूची को लेकर शरत जैन को लताड़ लगाई

नई दिल्ली । रमेश अग्रवाल ने अपने क्लब की एक मीटिंग में शरत जैन को पेम वन के आमंत्रितों की सूची के संदर्भ में जिस तरह से कई लोगों के बीच लताड़ा, उससे संकेत मिले हैं कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में काम करने के लिए शरत जैन जिस तरह की आजादी चाहते हैं - रमेश अग्रवाल उन्हें उस तरह की आजादी देने को बिलकुल भी तैयार नहीं हैं । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर इलेक्ट शरत जैन ने अभी आधिकारिक रूप से अपने गवर्नर-काल के लिए डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर के नाम का ऐलान तो नहीं किया है, लेकिन लोगों के बीच उन्होंने यह संकेत जरूर दिए हुए हैं कि रमेश अग्रवाल ही उनके डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर होंगे । अपने क्लब की मीटिंग में रमेश अग्रवाल ने जिस अंदाज में शरत जैन को लताड़ा, उसमें डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर वाला भाव समाहित नजर आया । पेम वन के आमंत्रितों की सूची को लेकर रमेश अग्रवाल ने जिस तरह से सार्वजनिक रूप से शरत जैन को यह कहते हुए लताड़ पिलाई कि जिन लोगों ने तुम्हारी उम्मीदवारी का खुला विरोध किया था, उन्हें अपनी टीम में लेकर मेरी बेइज्जती करोगे क्या - उससे भी जाहिर हुआ है कि रमेश अग्रवाल ने डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर का पद-भार जैसे 'संभाल' लिया है । उल्लेखनीय है कि कई अवसरों पर रमेश अग्रवाल ने बार-बार यह संकेत साफ तौर पर दिए भी हैं कि शरत जैन के गवर्नर-काल की टीम चुनने का काम वह करेंगे - और करेंगे क्या, उन्होंने करना शुरू भी कर दिया है । रमेश अग्रवाल को यह काम शुरू करना दरअसल इसलिए भी जरूरी लगा - क्योंकि उन्हें डर हुआ कि शरत जैन कहीं 'गलत' लोगों को अपनी टीम में प्रमुख पद न दे दें । उन्हें डर इसलिए हुआ - क्योंकि उन्होंने सुना कि शरत जैन लोगों को बता/जता रहे हैं कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में वह किसी एक नेता के पिट्ठू बन कर नहीं रहेंगे और तटस्थ भूमिका निभाते हुए सभी को साथ लेकर चलेंगे । 
शरत जैन की इस तरह की बातों से रमेश अग्रवाल का माथा ठनका और फलस्वरूप उन्होंने शरत जैन की नकेल कसने की तैयारी कर ली । नकेल कसने की तैयारी के तहत ही रमेश अग्रवाल ने उस सूची पर खुला हमला बोला, जिसे शरत जैन ने पेम वन में आमंत्रित किए जाने वाले लोगों के नाम से तैयार की थी । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट में यह एक प्रथा सी बन गई है कि पेम वन में प्रेसीडेंट इलेक्ट के अलावा उन्हीं लोगों को आमंत्रित किया जाता है, जिन्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर इलेक्ट अपनी टीम में प्रमुख पद देने के बारे में विचार कर रहा होता है । शरत जैन द्वारा तैयार की गई पेम वन के आमंत्रितों की सूची को देखने के बाद रमेश अग्रवाल ने अपने क्लब की एक मीटिंग में शरत को निशाना बनाया - तो इसके पीछे रमेश अग्रवाल का एक खास मकसद था । रमेश अग्रवाल के नजदीकियों ने ही बताया कि कई लोगों के सामने शरत जैन को निशाना बनाने के पीछे एक उद्देश्य तो लोगों को यह 'दिखाना/बताना' था कि शरत जैन ने यदि कोई ऐसा फैसला कर भी लिया है जो रमेश अग्रवाल को पसंद नहीं है, तो उसका मतलब यही है कि वह फैसला शरत जैन ने उन्हें अँधेरे में रख कर किया है; और दूसरा उद्देश्य यह 'दिखाना/बताना' था कि शरत जैन का ऐसा कोई फैसला वह हर्गिज मंजूर नहीं करेंगे; और तीसरा उद्देश्य शरत जैन को यह 'बताना/दिखाना' था कि उन्होंने यदि उनसे पूछे बिना कोई फैसला किया और या उन्हें पसंद न आने वाला फैसला किया तो वह शरत जैन को भरी सभा में भी लज्जित करेंगे ।
रमेश अग्रवाल को ऐसा दिखाना/जताना दरअसल इसलिए जरूरी लग रहा है - क्योंकि उन्हें शरत जैन को भी ठीक उसी तरह से अपना 'गुलाम' बनाना है, जैसा उन्होंने जेके गौड़ को बनाया हुआ है । जेके गौड़ ने जिस तरह से रमेश अग्रवाल के सामने पूरी तरह से समर्पण किया हुआ है, रमेश अग्रवाल ठीक उसी तरह का पूरा पूरा समर्पण अब शरत जैन से भी चाहते हैं । इसमें समस्या लेकिन यह आड़े आ रही है कि शरत जैन अपने आप को जेके गौड़ से बेहतर गवर्नर दिखाना व साबित करना चाहते हैं । जेके गौड़ और शरत जैन की पर्सनलिटी में जो अंतर है, उसके कारण डिस्ट्रिक्ट में लोगों को लगता भी है कि शरत जैन रोटरी और डिस्ट्रिक्ट को उस तरह से डी-ग्रेड नहीं करेंगे, जैसे कि जेके गौड़ ने किया है - और शरत जैन रोटरी व डिस्ट्रिक्ट की गरिमा व प्रतिष्ठा का कुछ तो ख्याल रखेंगे । शरत जैन निश्चित रूप से लोगों के बीच 'दूसरा जेके गौड़' नहीं बनना चाहेंगे - किंतु इसके लिए उन्हें अपने आपको रमेश अग्रवाल की छाया से बाहर निकालना होगा; उनके लिए मुसीबत की बात यह है कि रमेश अग्रवाल को इस बात का पता है कि शरत जैन उनकी छाया से बाहर निकलना चाहते हैं । दरअसल इसीलिए रमेश अग्रवाल ने उनके प्रति क्रूर रवैया अपनाने का निश्चय किया हुआ है - जिसका इज़हार रमेश अग्रवाल ने क्लब की एक मीटिंग में कर दिखाया है । यूँ तो रमेश अग्रवाल लोगों के साथ बद्तमीजियाँ करने को लेकर पहले से ही खासे कुख्यात हैं - और अब उन्होंने दिखा दिया है कि वह शरत जैन जैसे भले व्यक्ति को भी नहीं छोड़ेंगे । 
रमेश अग्रवाल की समस्या यह है कि उन्होंने मुकेश अरनेजा के साथ जो दुश्मनी मोल ले ली है, उसमें सतीश सिंघल का सहयोग/समर्थन मुकेश अरनेजा को मिलता दिखने के कारण रमेश अग्रवाल अपनी स्थिति को कमजोर पा रहे हैं । इस कमजोर नजर आ रही स्थिति को वह शरत जैन के सहयोग से ही मजबूत बनाने/करने की उम्मीद रखते हैं । सतीश सिंघल चूँकि रमेश अग्रवाल से बुरी तरह भड़के हुए हैं, और जब/जहाँ मौका मिलता है - रमेश अग्रवाल के प्रति अपना गुबार निकालने से परहेज नहीं करते हैं; इसलिए भी रमेश अग्रवाल को शरत जैन का सहारा चाहिए ही । और सिर्फ सहारा ही नहीं चाहिए - रमेश अग्रवाल को शरत जैन पूरी तरह अपनी मुट्ठी में चाहिए । रमेश अग्रवाल समझ रहे हैं कि शरत जैन को जेके गौड़ की तरह अपनी मुट्ठी में करके ही वह मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल से निपट सकते हैं । इसीलिए रमेश अग्रवाल नहीं चाहते हैं कि शरत जैन की टीम में मुकेश अरनेजा व सतीश सिंघल के नजदीकियों को कोई जगह मिले । इसीलिए, शरत जैन द्वारा तैयार की गई पेम वन के आमंत्रितों की सूची में रमेश अग्रवाल ने जब मुकेश अरनेजा के नजदीकियों को देखा, तो उनका गुस्सा भड़क उठा और अपने इस गुस्से को 'दिखाने' के लिए उन्होंने उचित मौके का इंतजार किया तथा क्लब की मीटिंग में उन्हें जब वह मौका मिलता हुआ नजर आया तो कई लोगों के सामने उन्होंने शरत जैन को लताड़ लगाने में देर नहीं लगाई ।  
शरत जैन से हमदर्दी रखने वाले जिन लोगों को इस घटना की जानकारी मिली, उनका स्पष्ट रूप से मानना और कहना है कि शरत जैन यदि रमेश अग्रवाल की बद्तमीजियों से खुद को बचाना चाहते हैं तो उन्हें रमेश अग्रवाल के साथ वैसा ही सुलूक करना होगा, जैसा सुलूक मुकेश अरनेजा की बद्तमीजियों से बचने के लिए पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर अमित जैन ने किया था । लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि अमित जैन जैसा साहस शरत जैन दिखा भी पायेंगे क्या ? अधिकतर लोगों का हालाँकि मानना और कहना है कि शरत जैन वैसा साहस नहीं दिखा पायेंगे और कुल मिलाकर अपने आप को 'दूसरा जेके गौड़' ही बना लेंगे ।

Friday, August 14, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के सदस्य एसबी जावरे ने रीजनल काउंसिल के लिए यशवंत कसार की उम्मीदवारी को प्रस्तुत करवा कर अपनी जो दिलचस्पी व सक्रियता दिखाई है, उसने पुणे की चुनावी राजनीति को खासा दिलचस्प बना दिया है

पुणे । यशवंत कसार ने वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के संकेत देकर पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति को खासा दिलचस्प बना दिया है । यशवंत कसार अभी इंस्टीट्यूट की पुणे ब्रांच के चेयरमैन पद पर हैं । यशवंत कसार ने हालाँकि अभी सिर्फ अपने नजदीकियों को ही अपनी उम्मीदवारी की जानकारी दी है; और सभी को इससे अवगत कराने के लिए उचित मौके का इंतजार कर रहे हैं । अपने समर्थकों को उन्होंने बताया है कि वह जल्दी ही औपचारिक रूप से सभी को अपनी उम्मीदवारी की सूचना देंगे । यशवंत कसार को सेंट्रल काउंसिल सदस्य एसबी जावरे के नजदीकी के रूप में देखा/पहचाना जाता है, और माना जा रहा है कि उनको उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के लिए एसबी जावरे ने ही प्रोत्साहित किया है । पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों को लगता है कि रीजनल काउंसिल में और रीजनल काउंसिल के माध्यम से पुणे ब्रांच में अपना दबदबा रखने के लिए एसबी जावरे को रीजनल काउंसिल में चूँकि अपना एक 'आदमी' चाहिए, इसलिए ही उन्होंने यशवंत कसार को रीजनल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बनवा दिया है । दरअसल अंबरीश वैद्य की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने, तथा उनके जीतने की उम्मीद के बाद पुणे की चुनावी राजनीति में समीकरणों के बदलने की जो स्थितियाँ बनीं - उसके बाद एसबी जावरे के लिए पुणे में इंस्टीट्यूट की राजनीति में अपना दखल बनाए रखने के लिए 'कुछ' करना जरूरी लगा; और उनकी इस जरूरत के नतीजे के रूप में ही यशवंत कसार की उम्मीदवारी सामने आई है ।  
यशवंत कसार की उम्मीदवारी को सर्वेश जोशी की उम्मीदवारी के लिए चुनौती और खतरे के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । माना जा रहा है कि जो मराठा वोट पिछली बार सर्वेश जोशी को मिले थे, वह इस बार यशवंत कसार को मिलेंगे - इसलिए भी मिलेंगे, क्योंकि एसबी जावरे भी उसके लिए प्रयास करेंगे । सर्वेश जोशी को हालाँकि विश्वास है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पढ़े-लिखे होते हैं और वह जातीय गोलबंदी में नहीं फँसते हैं, इसलिए मराठावाद के नाम पर यशवंत कसार उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचा पायेंगे । सर्वेश जोशी को भले ही इसका विश्वास हो, लेकिन उनके साथियों/समर्थकों सहित अन्य दूसरे लोगों को उनका तर्क हजम नहीं हो रहा है । यद्यपि यह सच है कि सिर्फ जातीय आधार पर चुनाव जीते/ हारे नहीं जाते हैं - लेकिन चुनावी समर्थन जुटाने में जातीय गोलबंदी भूमिका निभाती अवश्य है - और कभी कभी तो वह भूमिका महत्वपूर्ण भी हो जाती है । सर्वेश जोशी और यशवंत कसार सिर्फ जातीय आधार पर ही एक दूसरे से नहीं भिड़ेंगे, बल्कि अपने अपने काम के सहारे भी एक दूसरे से मुकाबला करेंगे । सर्वेश जोशी को जहाँ रीजनल काउंसिल सदस्य होने के कारण फायदा मिलेगा, वहाँ यशवंत कसार को पुणे ब्रांच का चेयरमैन होने का लाभ मिलने का भरोसा है । यशवंत कसार पुणे ब्रांच में चेयरमैन पद की जिम्मेदारी सँभालने वाले सबसे युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, इस नाते से वह युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच उनके प्रेरणा स्रोत भी बने हैं और उनके बीच लोकप्रिय भी हुए हैं । पुणे से सेंट्रल काउंसिल सदस्य एसबी जावरे का उन्हें जो समर्थन है, उसके चलते उन्हें सीनियर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का सहयोग व समर्थन मिलने का भरोसा है । 
यशवंत कसार पुणे ब्रांच के चेयरमैन के रूप में किए जा रहे अपने कामों तथा अपनी सक्रियता के बल पर पुणे से बाहर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का समर्थन पाने की उम्मीद तो कर सकते हैं, लेकिन उनकी सारी चुनावी निर्भरता पुणे पर ही होगी; उधर रीजनल काउंसिल का सदस्य होने के नाते सर्वेश जोशी के लिए पुणे से बाहर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का समर्थन जुटाना ज्यादा मुश्किल तो नहीं होना चाहिए, किंतु उनके लिए मुश्किल की बात यह होगी कि रीजनल काउंसिल की अपनी सीट बचाने के लिए उन्हें पुणे के बाहर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का समर्थन हर हाल में जुटाना ही होगा । यशवंत कसार की उम्मीदवारी ने सर्वेश जोशी के लिए दरअसल समस्या यह खड़ी कर दी है कि पुणे में उनकी 'जगह' को छोटा कर दिया है । ऐसे में, सर्वेश जोशी के लिए दोहरी समस्या यह बनी है कि एक तरफ तो उन्हें पुणे में अपनी 'जगह' बचानी है, और दूसरी तरफ पुणे से बाहर अपने लिए समर्थन जुटाना है । यशवंत कसार के लिए चुनौती की बात यह होगी - और इसी बात पर उनकी सफलता निर्भर है कि पुणे में सर्वेश जोशी की जो 'जगह' है, उसमें वह कितनी जगह पर अपना कब्जा कर सकते हैं ? इन दोनों के लिए ही मुसीबत की बात यह भी होगी कि इन्हें जिन लोगों के पहली वरीयता के वोट मिलेंगे, उनके दूसरी वरीयता के वोट इनके बीच आपस में एक्सचेंज शायद नहीं होंगे - और इस कारण से इन्हें दूसरे के पहले आउट होने का फायदा भी नहीं मिल पायेगा । 
यशवंत कसार की उम्मीदवारी से सत्यनारायण मूंदड़ा और अंबरीश वैद्य को यूँ तो सीधी टक्कर मिलती नहीं दिख रही है; लेकिन यशवंत कसार की उम्मीदवारी के चलते पुणे में राजनीति और वोटों का जो नया समीकरण बनेगा - उसके कारण उनकी स्थिति में अवश्य ही कुछ उलट-फेर होने का अनुमान लगाया जा रहा है, और इस नाते से उन्हें अपनी चुनावी रणनीति व तैयारी में कुछ बदलाव करने पड़ सकते हैं । ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि यह दोनों यशवंत कसार की अचानक से प्रस्तुत हुई उम्मीदवारी को किस तरह से देख रहे हैं और उनकी उम्मीदवारी के कारण बदली हुई स्थिति में अपनी भूमिकाओं को कैसे देखते हैं । सत्यनारायण मूंदड़ा का जो 'स्टाइल' है, उसमें तो कोई बदलाव भला क्या आ सकेगा - किंतु यह देखना जरूर महत्वपूर्ण होगा कि उनके स्टाइल को तमाम आलोचनाओं के बावजूद जो सफलता मिलती रही है, क्या वह बरक़रार रह पायेगी ? अंबरीश वैद्य ने अपना एक अलग तरह का ऑडियंस बनाया है - जिसके भरोसे से उन्होंने पिछली बार पुणे ब्रांच के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट प्राप्त किए थे; पुणे ब्रांच में लेकिन वह अलग-थलग रहे । अलग-थलग रहने के बावजूद अंबरीश वैद्य ने प्रोफेशन और प्रोफेशन से जुड़े लोगों के लिए एक बड़ा मौलिक किस्म का 'विज़न' दिया है - उनके सामने चुनौती किंतु यह है कि वह लोगों के बीच अपने इस 'विज़न' की महत्ता को स्थापित कर सकें और उसे स्वीकार्य बना सकें । कुछ लोगों को लग रहा है कि अंबरीश वैद्य की 'हवा' तो अच्छी बनी हुई है, किंतु इस हवा को चुनावी समर्थन और वोट में बदलने की तरकीब उन्हें अभी अपनानी है । अंबरीश वैद्य के कुछेक नजदीकियों का ही कहना है कि अंबरीश वैद्य लगता है कि अभी अति-आत्मविश्वास के शिकार हैं, और इसके चलते ही अपनी चुनावी तैयारियों को लेकर गंभीर नहीं हुए हैं । अभी तक तो इस रवैये के बावजूद अंबरीश वैद्य के लिए कोई समस्या नहीं थी, लेकिन अब यशवंत कसार की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने के बाद जो हालात बनते दिख रहे हैं - उसमें अंबरीश वैद्य के सामने अपनी चुनावी तैयारियों को संयोजित व संगठित करने की जिम्मेदारी आ पड़ी है । यशवंत कसार की उम्मीदवारी के जरिए एसबी जावरे ने रीजनल काउंसिल के चुनाव में जो दिलचस्पी व सक्रियता दिखाई है, उसने पुणे की चुनावी राजनीति को खासा दिलचस्प बना दिया है । 

Thursday, August 13, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के दूसरे कुछेक उम्मीदवारों की तुलना में पानीपत में अपनी स्थिति को काफी कमजोर पाते/देखते हुए अतुल गुप्ता ने असीम पाहवा को मोहरा बनाया और उनकी मदद से अमरजीत चोपड़ा का कार्यक्रम फ्लॉप करवाया था क्या ?

नई दिल्ली । पानीपत ब्रांच के एक आयोजन में करीब पाँच महीने पहले हुए हंगामे के तार इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के सदस्य अतुल गुप्ता से जुड़ने की चर्चाओं ने मामले को खासा दिलचस्प बना दिया है । दरअसल उस हंगामे से पानीपत में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में जो नाटक शुरू हुआ था, उसका दूसरा भाग अभी हाल ही में खेला गया - जिसमें पोल खुली कि इस नाटक के असली सूत्रधार अतुल गुप्ता हैं । उल्लेखनीय है कि अभी तक इस मामले को असीम पाहवा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की परिणति के रूप में ही देखा/पहचाना जा रहा था, लेकिन हाल में दोबारा से जो तमाशा हुआ तो लोगों को 'पता चला' कि असीम पाहवा तो बेचारे इस्तेमाल हो रहे थे - और पूरे खेल की बागडोर तो दिल्ली में बैठे अतुल गुप्ता के हाथ में थी । इसी के साथ लोगों को इस बात का भी जबाव मिल गया कि करीब पाँच महीने पहले का तमाशा इतना 'आक्रामक' क्यों था कि इंस्टीट्यूट के पूर्व अध्यक्ष अमरजीत चोपड़ा को अपमानित होकर वापस लौटना पड़ा । दरअसल अभी तक इस सवाल पर असमंजस बना हुआ था कि ब्रांच में पदाधिकारियों का झगड़ा क्यों तो उस समय सामने आया, जब अमरजीत चोपड़ा ब्रांच के सेमिनार में भाषण देने आए; और क्यों उसने इतना उग्र रूप ले लिया कि अमरजीत चोपड़ा को बिना भाषण दिए वापस लौटना पड़ा । इंस्टीट्यूट के किसी बड़े पदाधिकारी के साथ इंस्टीट्यूट की किसी ब्रांच में ऐसा सुलूक इससे पहले कभी देखने में नहीं आया । हालाँकि तब भी लोगों को शक तो हुआ था, कि यह तमाशा कहीं 'बाहर से तो निर्देशित नहीं हो रहा है, लेकिन लोगों की समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं; और फिर उक्त तमाशे को एक तात्कालिक प्रतिक्रिया मान कर लगभग भुला भी दिया गया था ।    
किंतु अभी जब पानीपत ब्रांच में उस नाटक का अगला सीन मंचित हुआ, तो सारा माजरा साफ हो गया । उल्लेखनीय है कि करीब पांच महीने पहले पानीपत ब्रांच में जो तमाशा हुआ था, उसमें निशाना तत्कालीन चेयरमैन विशाल मल्होत्रा को बनाया गया था । उस तमाशे का नेतृत्व असीम पाहवा ने किया था । असीम पाहवा को खुन्नस तो इस बात की थी कि उनके उम्मीदवार गोविंद सैनी को हरा कर विशाल मल्होत्रा चेयरमैन बन गए थे; किंतु उन्होंने मुद्दा बनाया चेयरमैन के रूप में विशाल मल्होत्रा द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार को । विशाल मल्होत्रा को चेयरमैन बने कुछ ही दिन हुए थे - कुछ ही दिनों में उन्होंने भला ऐसा क्या भ्रष्टाचार कर लिया था कि असीम पाहवा को उनके खिलाफ हुड़दंग मचाना/मचवाना जरूरी लगा; और वह भी उस कार्यक्रम में जिसमें इंस्टीट्यूट के पूर्व चेयरमैन अमरजीत चोपड़ा को मुख्य वक्ता के रूप में भाषण करना था । असीम पाहवा और उनके साथियों को समझाने की बहुत कोशिश की गई कि जो मुद्दा वह उठा रहे हैं, उस पर बाद में बात हो जाएगी - अभी कार्यक्रम होने दिया जाए । असीम पाहवा और उनके साथियों ने लेकिन किसी की भी नहीं सुनी और कार्यक्रम नहीं हो पाया, तथा अमरजीत चोपड़ा को बिना भाषण दिए हुए ही वापस लौटना पड़ा । असीम पाहवा और उनके साथियों के रवैये को देखने वाले कुछेक लोगों को लगा भी कि इस हंगामे के पीछे असल उद्देश्य कहीं अमरजीत चोपड़ा को बैरंग लौटाने का तो नहीं है ?
उक्त हंगामे के बाद चूँकि विशाल मल्होत्रा ने चेयरमैन पद से इस्तीफा दे दिया, और असीम पाहवा अपनी मनमानी करने में कामयाब हो गए - इसलिए बात आई-गई हो गई । वह आई-गई बात लेकिन अभी तब फिर मुखर हो उठी, जब पानीपत के एक कार्यक्रम में अतुल गुप्ता मुख्य वक्ता के रूप में पधारे और जिसमें असीम पाहवा को भी भाषण देना था । कार्यक्रम में मौजूद कुछेक लोगों ने असीम पाहवा से जानना चाहा कि विशाल मल्होत्रा के खिलाफ भ्रष्टाचार के जो आरोप आपने लगाए थे, उन्हें लेकर क्या कार्रवाई की गई है ? उनसे पूछा गया कि उन्होंने तो विशाल मल्होत्रा पर बड़े गंभीर आरोप लगाए थे; अब जब ब्रांच पर उनका पूरी तरह से कब्जा है तो वह अपने आरोपों को सच साबित करने के लिए क्या कर रहे हैं ? असीम पाहवा ने पहले तो इन सवालों को टालने का प्रयास किया, किंतु बात जब बढ़ी तो असीम पाहवा ने बहानेबाजी की कि जाँच करने के लिए पर्याप्त दस्तावेज/कागज ही गायब मिले । इस पर उन्हें कहा गया कि इससे तो मामला और भी गंभीर हो गया है, और उन्हें इसके लिए पुलिस में रिपोर्ट करना चाहिए और विशाल मल्होत्रा के खिलाफ कार्रवाई करना/करवाना चाहिए । असीम पाहवा लेकिन फिर भी बहानेबाजी करते रहे और सवालों को टालते रहे । बात बढ़ती, लेकिन उससे पहले अतुल गुप्ता बीच में कूद पड़े और उन्होंने असीम पाहवा को लोगों के सवालों से बचाया । इस मौके पर अतुल गुप्ता ने असीम पाहवा की जिस तरह से वकालत की और लोगों के सवालों से उन्हें बचाने का काम किया, उससे लोगों को यह समझने में देर नहीं लगी कि अतुल गुप्ता और असीम पाहवा के बीच अवश्य ही बड़ी स्वादपूर्ण खिचड़ी पकी हुई है । 
इस 'खिचड़ी' को लेकर चर्चा चली तो फिर कई रहस्य उघड़ते चले गए । असीम पाहवा के नजदीकियों ने ही वहाँ लोगों को बताया कि रीजनल काउंसिल के लिए असीम पाहवा की उम्मीदवारी को अतुल गुप्ता ने ही उकसाया है; और अतुल गुप्ता के सहयोग/समर्थन के भरोसे ही असीम पाहवा चुनावी मैदान में उतरे हैं । हालाँकि कुछेक लोगों का यह भी कहना रहा कि अतुल गुप्ता वास्तव में असीम पाहवा को इस्तेमाल कर रहे हैं और उनके जरिए अपनी 'जमीन' को बढ़ाने का जुगाड़ कर रहे हैं । मजे की बात यह है कि चुनावी संदर्भ में अतुल गुप्ता की स्थिति बहुत ही सुरक्षित समझी जा रही है, और कई लोगों को तो यहाँ तक लगता है कि वह तो सबसे ज्यादा वोट पायेंगे - लेकिन फिर भी अपने वोटों की संख्या बढ़ाने के लिए उन्हें तरह तरह के प्रपंच करते हुए देखा/सुना जा रहा है । इसी प्रपंच के चलते उन्होंने पानीपत के नाटक की स्क्रिप्ट लिखी । दरअसल पानीपत में अतुल गुप्ता अपनी स्थिति दूसरे कुछेक उम्मीदवारों की तुलना में काफी कमजोर पाते/देखते हैं । पानीपत में अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए अतुल गुप्ता ने असीम पाहवा को मोहरा बनाया और उनकी मदद से अपने लिए मौके बनाने के प्रयास तेज किए । अब समझा जा रहा है कि अमरजीत चोपड़ा का कार्यक्रम फ्लॉप करवाने के लिए ही विशाल मल्होत्रा को निशाना बनाते हुए हंगामा करवाया गया था - और उस हंगामे का मास्टर माइंड अतुल गुप्ता थे । अतुल गुप्ता की इस भूमिका के खुलासे ने इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य को खासा दिलचस्प बना दिया है ।  

Wednesday, August 12, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में रोटरी फाउंडेशन के लिए घोषित की गई रकम जल्दी से जल्दी देने की बात कहने के जरिए मुकेश अरनेजा डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण कर उन्हें नीचा दिखाने का काम करने के साथ साथ अपने आप को इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई से भी ज्यादा जिम्मेदार, होशियार और रोटरी के प्रति प्रतिबद्ध साबित करने की फूहड़ कोशिश कर रहे हैं क्या ?

नई दिल्ली । मुकेश अरनेजा ने डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन के रूप में डिस्ट्रिक्ट के रोटेरियंस को एक ईमेल पत्र लिख कर न सिर्फ अपनी फजीहत करवा ली है, बल्कि लोगों के बीच दीपक गुप्ता का भी अच्छा मजाक बना/बनवा दिया है । मुकेश अरनेजा अब अपने किए-धरे के लिए लोगों से माफी माँगते फिर रहे हैं, और लोगों को यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि उनका इरादा वह नहीं था - जो समझा जा रहा है । मुकेश अरनेजा का वैसे यह प्रिय शगल है - वह स्मार्टनेस दिखाते हैं, लेकिन बदले में जब 'मार' पड़ती है तो माफी माँगने पर उत्तर आते हैं । अपनी इन्हीं हरकतों के चलते वह अपने ही क्लब में और अपनी ही कंपनी में अपने भाई-भतीजों से - यानि रोटरी में भी और बिजनेस में भी 'मार' खा चुके हैं लेकिन फिर भी सबक नहीं सीख पाए हैं । इसी का नतीजा है कि डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन के रूप में लिखे उनके ईमेल पत्र को लेकर उनपर चौतरफा 'मार' पड़ रही है, और लाख माफियाँ माँगने के बावजूद उन्हें माफी मिलती दिख नहीं रही है । कुछेक क्लब-अध्यक्षों ने मुकेश अरनेजा की कारस्तानी को लेकर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ को शिकायती पत्र लिखे हैं, और जेके गौड़ ने उन्हें आश्वस्त किया है कि उनकी शिकायतों पर वह आवश्यक कार्रवाई करेंगे तथा उनकी शिकायतों से रोटरी के बड़े पदाधिकारियों को भी वह अवगत करायेंगे । मुकेश अरनेजा की इस कारस्तानी ने दरअसल रोटरी फाउंडेशन ट्रस्ट के लिए मिलने वाली रकम पर प्रतिकूल असर डालने का खतरा पैदा कर दिया है - जिस कारण लोगों को भेजे गए उनके ईमेल पत्र को रोटरी विरोधी हरकत के रूप में भी देखा/पहचाना जा रहा है । 
मुकेश अरनेजा ने तमाम लोगों को भेजे अपने एक ईमेल पत्र के जरिए उन लोगों को आगाह किया, जिन्होंने 30 जून 2015 को रोटरी फाउंडेशन में रकम देने की घोषणा की थी, लेकिन अभी तक घोषित की गई रकम दी नहीं है । अपने इसी पत्र के जरिए मुकेश अरनेजा ने क्लब-अध्यक्षों को काम सौंपा कि वह देखें कि उनके क्लब के जिन जिन सदस्यों ने 30 जून 2015 को रोटरी फाउंडेशन में रकम देने की घोषणा की थी, वह जल्दी से जल्दी रोटरी फाउंडेशन में उक्त रकम का भुगतान करें । यह पत्र पाकर कई लोग भड़क गए हैं, और उनका सवाल है कि मुकेश अरनेजा यह सब कहने वाला होता कौन है ? डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन के रूप में यह सब कहना/करना न तो उनका काम है, और न ही यह उनके अधिकार क्षेत्र में आता है । यह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का काम है । रोटरी फाउंडेशन के लिए पैसा इकट्ठा करने और रोटरी फाउंडेशन में ज्यादा से ज्यादा पैसा देने के लिए लोगों को प्रेरित करने का काम डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का है, और लोग भी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के प्रति अपने सहयोग/समर्थन के भाव के अनुसार रोटरी फाउंडेशन में पैसा देते हैं । रोटरी की व्यवस्था में डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन का काम डिस्ट्रिक्ट गवर्नर व रोटरी फाउंडेशन ट्रस्ट के बीच पुल का काम करने का होता है, और डिस्ट्रिक्ट में उसकी कोई भी भूमिका डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के थ्रू ही हो सकने का प्रावधान है । मुकेश अरनेजा ने जो मुद्दा बनाया है, पहली बात तो यह कि वह कोई मुद्दा ही नहीं है; दूसरी बात यह कि मुकेश अरनेजा को यह बात यदि जरूरी लगी भी, तो इस बारे में उन्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ से बात करना चाहिए थी । सदस्यों और या क्लब-अध्यक्षों से सीधे कुछ कहने का अधिकार डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन को बिलकुल भी नहीं है । इसी बिना पर कई लोगों ने सवाल उठाया है कि मुकेश अरनेजा रोटरी फाउंडेशन के लिए घोषित की गई रकम जल्दी से जल्दी देने की बात कहने वाला होता कौन है ? 
मुकेश अरनेजा का ईमेल पत्र डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण कर उन्हें नीचा दिखाने का काम तो करता ही है, साथ ही वह उन लोगों को भी अपमानित करने का प्रयास करता है जो रोटरी फाउंडेशन के लिए बढ़चढ़ कर पैसे दे रहे हैं । उल्लेखनीय है कि 30 जून 2015 के आयोजन में कुछेक लोगों ने इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई को पोस्ट डेटेड चेक सौंपे थे, जिन्हें मनोज देसाई ने सहर्ष स्वीकार किया था और सिर्फ उस आयोजन में ही नहीं, बल्कि बाद में अपने फेसबुक एकाउंट की टाइमलाइन में भी उन लोगों की भूरि भूरि प्रशंसा की थी । मुकेश अरनेजा लेकिन ऐसे लोगों को हड़का रहे हैं, कि जल्दी से घोषित किए गए पैसे दो । मुकेश अरनेजा की यह हरकत क्या रोटरी फाउंडेशन के लिए कुछ अच्छा और बड़ा करने वाले लोगों को अपमानित करके हतोत्साहित करने का काम नहीं करती है । सवाल यह है कि पोस्ट डेटेड चेक लेने का जो काम करना इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई को गलत नहीं लगा है, वह मुकेश अरनेजा को स्वीकार क्यों नहीं हो रहा है ? सवाल यह भी है कि पोस्ट डेटेड चेक देने वाले जिन लोगों की इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई जगह जगह प्रशंसा कर रहे हैं, उन लोगों को अपमानित करने का काम मुकेश अरनेजा कैसे कर सकते हैं और क्यों कर रहे हैं ? मुकेश अरनेजा क्या अपने आप को मनोज देसाई से भी ज्यादा जिम्मेदार, होशियार और रोटरी के प्रति प्रतिबद्ध समझ रहे हैं ?
सवाल यह भी है कि 30 जून 2015 को जिन लोगों ने रोटरी फाउंडेशन में पैसा देने की घोषणा की थी, क्या उस समय उन्हें बताया गया था कि उन्हें घोषित किया गया पैसा 31 जुलाई तक देना है; या कब तक देना है ? रोटरी फाउंडेशन ट्रस्ट में इस तरह का कोई नियम ही नहीं है । मुकेश अरनेजा ने एक अनोखा ऐलान यह और किया कि 30 जून 2015 को पैसा देने की घोषणा करने वाले लोगों ने 31 जुलाई तक चूँकि पैसा नहीं दिया है, इसलिए वह चाहेंगे कि रोटरी फाउंडेशन के लिए लोग कमिटमेंट न करें, बल्कि सीधे डिमांड ड्राफ्ट दें । यह कह कर मुकेश अरनेजा ने अपनी घटिया सोच का एक बार फिर परिचय देते हुए अपने आप को रोटरी इंटरनेशनल से ऊँचा/ऊपर दिखाने का प्रयास किया है । लोगों का कहना/पूछना यह है कि रोटरी फाउंडेशन का काम रोटरी के नियम-कायदों से होगा, या मुकेश अरनेजा की मनमर्जियों से चलेगा ? रोटरी फाउंडेशन में पैसे देने का काम ऐच्छिक प्रेरणा का काम है, वह कोई जबर्दस्ती की जिम्मेदारी नहीं है; कमिटमेंट इसीलिए लिए/दिए जाते हैं, जिससे कि कमिटमेंट करने वाला एक नैतिक दबाव महसूस करे, और अपने कमिटमेंट को पूरा करे । कोई यदि अपने कमिटमेंट को पूरा नहीं भी कर पाता है, तो किसी को भी यह अधिकार नहीं दिया जा सकता है कि वह उसे अपमानित करे । पिछले वर्षों में लोगों के बीच चर्चा सुनी जाती रही है कि हाल-फिलहाल के वर्ष में मुकेश अरनेजा ने रोटरी फाउंडेशन में दो हजार डॉलर देने का कमिटमेंट किया था, किंतु दिए सिर्फ एक हजार डॉलर । किसी को भी यह अधिकार नहीं दिया जा सकता है कि वह मुकेश अरनेजा की गर्दन पकड़ पर रोटरी फाउंडेशन के लिए कमिट किए गए बाकी के एक हजार डॉलर भी बसूल करे । जैसे किसी और को यह अधिकार नहीं है कि वह मुकेश अरनेजा से कहे कि उन्होंने दो हजार डॉलर देने का जो कमिटमेंट किया था, उसे पूरा करें; वैसे ही मुकेश अरनेजा को भी यह अधिकार नहीं है कि वह किसी से कमिटमेंट पूरा करने की बात कहें । 
मुकेश अरनेजा ने अपने ईमेल पत्र से अपनी जो फजीहत कराई है, वह तो एक बात है ही - इससे भी बड़ी बात यह हुई है कि उन्होंने इस ईमेल पत्र के जरिए दीपक गुप्ता का भी मजाक बना/बनवा दिया है । कुछेक लोगों को हालाँकि लगता है कि मुकेश अरनेजा ने होशियारी तो दीपक गुप्ता को तारीफ दिलवाने की, की थी - लेकिन अपनी मूर्खता में उन्होंने जो किया और जैसे किया उससे दीपक गुप्ता का मजाक बन गया है । इस किस्से में दीपक गुप्ता का नाम घसीटने की कोई जरूरत ही नहीं थी, किंतु मुकेश अरनेजा ने अपनी होशियारी दिखाते हुए लोगों को यह बताना जरूरी समझा कि दीपक गुप्ता ने रोटरी फाउंडेशन में डिमांड ड्राफ्ट के जरिए पैसा दिया है । अब जब फजीहत हो रही है, तब मुकेश अरनेजा माफी माँगने की प्रक्रिया में लोगों को बता रहे हैं कि उन्होंने दीपक गुप्ता से इसीलिए ड्राफ्ट दिलवाया, क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं था कि दीपक गुप्ता कमिटमेंट करने के बाद भी पैसे दे ही देंगे - दीपक गुप्ता बाद में पैसे नहीं देते, तो आरोप उन पर भी लगता । लोगों के बीच चर्चा है ही कि मुकेश अरनेजा ने रोटरी फाउंडेशन में दीपक गुप्ता से पैसे राजनीतिक चाल के तहत ही दिलवाए हैं । इस संदर्भ के बीच मुकेश अरनेजा को लोग जब दीपक गुप्ता के प्रति अविश्वास व्यक्त करते हुए सुन/देख रहे हैं, तो लोगों के बीच इस चर्चा को और बल मिला है कि दीपक गुप्ता को तो मुकेश अरनेजा सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं, और दीपक गुप्ता को उकसा कर वास्तव में वह अशोक गर्ग के लिए राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे हैं । दीपक गुप्ता के प्रति हमदर्दी रखने वाले लोगों का ही कहना है कि मुकेश अरनेजा सहयोग करने की आड़ में दीपक गुप्ता का पूरी तरह कबाड़ा ही करेंगे । 

Monday, August 10, 2015

रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के सामने राजा साबू ने जो सफाई दी है, वह क्या राजा साबू को इस बात का अहसास होने का सचमुच संकेत और सुबूत है कि उन्होंने जिस तरह से कुछेक पूर्व गवर्नर्स को छूट दे रखी है तथा उनकी बातों पर वह आँख मूँद कर भरोसा करते रहते हैं, उससे न सिर्फ उनके डिस्ट्रिक्ट व रोटरी की साख का कबाड़ा हो रहा है, बल्कि उनकी खुद की पहचान व प्रतिष्ठा भी कलंकित हो रही है

नई दिल्ली । उदयपुर में रोटरी रिट्रीट में शामिल रोटरी इंटरनेशनल के पदाधिकारी दिल्ली पहुँचे, तो उनके साथ साथ यह सूचना भी दिल्ली के रोटेरियंस को मिली कि रोटरी इंटरनेशनल के पूर्व प्रेसीडेंट राजेंद्र उर्फ राजा साबू ने मौजूदा प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन से इस बात के लिए सॉरी फील किया है कि उनके डिस्ट्रिक्ट में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव को लेकर जो झमेला हो रहा है, उससे रोटरी तथा केआर रवींद्रन की खासी फजीहत हो रही है । यहाँ इस बात की भी चर्चा रही कि राजा साबू ने केआर रवींद्रन के सामने इस बात पर भी अफसोस प्रकट किया कि इस झमेले में उनका नाम और उनकी संलग्नता भी दिख रही है । इस अफसोस के साथ राजा साबू ने केआर रवींद्रन को यह विश्वास दिलाने का भी भरसक प्रयास किया कि उनके डिस्ट्रिक्ट में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संबंध में जो कुछ भी हो रहा है, उसमें किसी भी स्तर पर और किसी भी रूप में उनकी कोई संलग्नता नहीं है । 
केआर रवींद्रन के सामने राजा साबू को यह सब करने/कहने की जरूरत दरअसल इसलिए पड़ी, क्योंकि रोटरी रिट्रीट के तहत उदयपुर के होटल ताज लेक पैलेस में इकट्ठा हुए रोटरी के बड़े पदाधिकारियों के बीच माहौल यह खबर मिलने के बाद कुछ तनावपूर्ण हो गया था कि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में राजा साबू सहित अन्य कई पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के क्लब्स ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में चेलैंजर उम्मीदवार के लिए कॉन्करेंस जुटा/जुटवा कर अपनी खुली भागीदारी को दिखाया है - और इस तरह प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के चुनावों को हतोत्साहित करने के अभियान की ही फजीहत कर दी है । रिट्रीट में मौजूद पदाधिकारियों के अनुसार, केआर रवींद्रन ने इस खबर पर वहाँ मौजूद राजा साबू और/या यशपाल दास से तो कोई बात नहीं की; किंतु अपने स्तर पर इस खबर की पुष्टि जरूर कराई और इसके सच निकलने पर बहुत दुखी व निराश हुए । 
केआर रवींद्रन के सामने समस्या दरअसल यह आ खड़ी हुई कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट के रूप में जगह जगह भाषण देने के लिए उन्होंने जो मुख्य बिंदु तैयार किए हुए हैं, उनमें रोटेरियंस को चुनाव से दूर रहने की नसीहतें प्रमुख हैं । उनकी नसीहतों पर लेकिन जब पूर्व प्रेसीडेंट राजा साबू और पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर यशपाल दास और उनके डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर्स ही ध्यान नहीं देंगे, तब केआर रवींद्रन दूसरों से किस मुँह से इसके लिए उम्मीद करेंगे । राजा साबू के सीनियर होने के नाते और प्रेसीडेंट बनने में मिली उनकी मदद के नाते से केआर रवींद्रन की इस मामले में राजा साबू से सीधी बात करने की तो 'हिम्मत' नहीं हुई, किंतु यह जताने/'दिखाने' में केआर रवींद्रन ने कोई लिहाज भी नहीं किया कि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में पूर्व गवर्नर्स जो तमाशा कर रहे हैं - उससे वह बुरी तरह निराश और नाराज हैं । उनकी निराशा और नाराजगी की भनक राजा साबू को मिली तो उन्होंने केआर रवींद्रन से इस मामले में अकेले में सीधी बात करने की जरूरत समझी । केआर रवींद्रन और राजा साबू के बीच अकेले में जो बात हुई, उसके कंटेंट दूसरों के सामने नहीं भी आते - यदि वह आपस में बात करने के बाद चुप लगा जाते । किंतु आपस में बात करने के बाद चूँकि दोनों ने अपने अपने नजदीकियों के साथ उक्त बातचीत को शेयर किया; और फिर उनके नजदीकियों ने अपने अपने नजदीकियों से उसे बताया .... और फिर जब यह सिलसिला चल गया तो उनके बीच हुई बातचीत और उसके कंटेंट फिर गोपनीय नहीं रह पाए । 
केआर रवींद्रन और राजा साबू के बीच हुई बातचीत की गोपनीयता भंग हुई तो यह बात सामने कि राजा साबू ने अपने डिस्ट्रिक्ट में हो रही राजनीति पर सॉरी फील किया । दोनों के बीच हुई बातचीत के जो कंटेंट चर्चा में हैं उनमें बताया जा रहा है कि राजा साबू ने पहले केआर रवींद्रन को अपने डिस्ट्रिक्ट में पिछले छह महीने से चल रहे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव की पृष्ठभूमि बताना शुरू किया । केआर रवींद्रन ने लेकिन उन्हें यह कह कर रोका कि इसमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है; उनके लिए चिंता की बात सिर्फ यह है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में गवर्नर्स लोग खुल कर अपनी भूमिका निभा रहे हैं । केआर रवींद्रन ने संकेतों में यह स्पष्ट कर दिया कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में राजा साबू के खुद के एक उम्मीदवार के पक्ष में पार्टी बन जाने से रोटरी की प्रतिष्ठा को नुकसान हुआ है, तथा उन्हें बुरा लगा है । इन संकेतों को समझ कर राजा साबू ने सारा दोष अपने डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर्स के सिर मढ़ दिया । राजा साबू ने स्वीकार किया कि उनके डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर्स ने उन्हें अँधेरे में रखा और उनका नाम लेकर 'अपनी' राजनीति की । राजा साबू ने कहा कि उनके लिए हर बात पर ध्यान देना संभव नहीं होता है, जिसका फायदा उठा कर कई बड़े और छोटे नेता उनका नाम लेकर 'अपने काम' बनाते रहते हैं । केआर रवींद्रन के सामने राजा साबू ने जिस तरह से सफाई दी और अपने डिस्ट्रिक्ट के चुनावी झमेले में अपनी संलग्नता की बात से इंकार किया; और अपनी 'दिख' रही संलग्नता के लिए अपने डिस्ट्रिक्ट के कुछेक पूर्व गवर्नर्स को जिम्मेदार ठहराया - उससे लगा है कि राजा साबू को इस बात का अहसास हुआ है कि उन्होंने जिस तरह से कुछेक पूर्व गवर्नर्स को छूट दे रखी है तथा उनकी बातों पर वह आँख मूँद कर भरोसा करते रहते हैं, उससे न सिर्फ उनके डिस्ट्रिक्ट व रोटरी की साख का कबाड़ा हो रहा है, बल्कि उनकी खुद की पहचान व प्रतिष्ठा भी कलंकित हो रही है ।
उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट के कई लोग हालाँकि लगातार यह कहते और दावा करते रहे हैं कि डिस्ट्रिक्ट में बहुत सी ओछी व घटिया हरकतें राजा साबू का नाम लेकर होती रही हैं, उनके बारे में राजा साबू को पता भी नहीं होगा । डिस्ट्रिक्ट में यह एक फैशन बन गया है कि जिसे लोगों के बीच अपनी बात मनवानी होती है वह राजा साबू का हवाला दे देता है - जिससे कि सामने वाले लोग निरुत्तर हो जाते हैं और बात मान लेते हैं । राजा साबू का नाम लेकर काम निकालने वाले लोगों में बड़े नेता ही नहीं, बल्कि क्लब्स के छुटभैये नेता भी शामिल देखे गए हैं । इस बार के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संदर्भ में भी राजा साबू की भूमिका को लेकर डिस्ट्रिक्ट में लोग दो खेमों में बँटे नजर आए - कुछ का कहना रहा है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संदर्भ में जो मनमानीपूर्ण बेईमानी हो रही है, वह राजा साबू की रजामंदी और उनके ही दिशा-निर्देशन में हो रही है; लेकिन कुछेक अन्य का कहना यह भी रहा है कि जो कुछ भी हो रहा है राजा साबू की उसमें सीधी मिलीभगत नहीं है, और उन्हें अँधेरे में रख कर उनके नजदीकी पूर्व गवर्नर्स अपनी अपनी राजनीतिक 'रोटियाँ सेंक रहे हैं ।' डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संदर्भ में अब सच चाहें जो हो - राजा साबू की रजामंदी और उनका दिशा-निर्देशन सचमुच में रहा हो, और या वह इस्तेमाल हुए हों - इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के सामने दी गई अपनी सफाई के बाद अब लेकिन राजा साबू के सामने चुनौती यह आ खड़ी हुई है कि वह लोगों को 'दिखाएँ' कि केआर रवींद्रन से उन्होंने सच कहा है, और इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन को उन्होंने कोई 'गोली' नहीं दी है । 
यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि रोटरी रिट्रीट के तहत उदयपुर के होटल ताज लेक पैलेस में मौजूदा इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन से आमना-सामना होने पर पूर्व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट राजा साबू अपने डिस्ट्रिक्ट में हो रहे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में अपनी संलग्नता को लेकर जो सफाई देने के लिए मजबूर हुए - अपनी उस सफाई पर वह वास्तव में टिके भी रहते हैं और केआर रवींद्रन की चुनाव संबंधी नसीहतों पर अमल करने के लिए वह सचमुच में कोई प्रयास करते भी हैं ? राजा साबू, यशपाल दास तथा डिस्ट्रिक्ट के दूसरे पूर्व गवर्नर्स की समस्या यह है कि करीब चार महीने बाद, 18 से 20 दिसंबर 2015 को जयपुर में होने वाले रोटरी इंस्टीट्यूट में जब उनका आमना-सामना केआर रवींद्रन से होगा - तब वह अपना कौन सा मुँह लेकर उनके सामने जाना पसंद करेंगे; क्योंकि तब तक उनकी मिलीभगत के कारण खासा विवादित हो चुका डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव तो संभवतः हो चुका होगा और उसका नतीजा भी आ चुका होगा; लेकिन जरूरी नहीं है कि इस चुनाव के चक्कर में डिस्ट्रिक्ट में जो राजनीतिक आग भड़की है, वह भी बुझ चुकी होगी ?