Wednesday, March 29, 2017

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में चेयरमैन राकेश मक्कड़ तथा उनकी टीम के सदस्यों की कोशिशें अनिल लाल की वापसी करवा सकेंगी क्या ?

नई दिल्ली । नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में इंस्टीट्यूट के पदाधिकारी के रूप में अनिल लाल की वापसी की आहट ने काउंसिल के स्टॉफ सदस्यों को एक बार फिर आंदोलित कर दिया है । उल्लेखनीय है कि स्टॉफ सदस्यों की लगातार की जा रही शिकायतों के चलते ही अनिल लाल को पिछली 13 जनवरी को नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल से पदमुक्त किया गया था । काउंसिल के पॉवर ग्रुप के प्रमुख सदस्य उन्हीं अनिल लाल की वापसी की जिस तरह से कोशिशें कर रहे हैं, उसे जानने/सुनने के बाद काउंसिल के स्टॉफ सदस्यों का गुस्सा भड़का हुआ है । स्टॉफ सदस्यों का आरोप है कि काउंसिल चेयरमैन राकेश मक्कड़ और काउंसिल में उनके खास साथी नितिन कँवर, राजेंद्र अरोड़ा और सुमित गर्ग आदि जिस तरह से अनिल लाल को वापस लाने का प्रयास कर रहे हैं - उससे न सिर्फ एक बार फिर काउंसिल का माहौल बिगड़ेगा, बल्कि काउंसिल का कामकाज भी बुरी तरह प्रभावित होगा । स्टॉफ सदस्यों का कहना है कि उन्होंने अनिल लाल को हटाने के लिए खासी लड़ाई लड़ी है, और लड़ाई को निरंतरता के साथ लड़ते हुए बड़ी मुश्किल से उन्हें हटाने/हटवाने में उन्होंने सफलता पाई है - जिसे वह किसी भी हालत में व्यर्थ नहीं जाने देंगे ।
स्टॉफ सदस्यों के भारी विरोध के बावजूद राकेश मक्कड़ और उनके संगी-साथी अनिल लाल की वापसी कराने को लेकर लेकिन जिस तरह से अड़े दिख रहे हैं, उसने इंस्टीट्यूट की प्रशासन व्यवस्था से जुड़े लोगों को हैरान किया हुआ है । किसी के लिए भी यह समझना मुश्किल बना हुआ है कि काउंसिल के मुख्य पदाधिकारी(यों) के रूप में जिन लोगों को प्रोफेशन तथा उससे जुड़े लोगों के हितों से संबंधित मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए - वह एक अधिकारी के ट्रांसफर-पोस्टिंग में आखिर क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहे हैं ? वह भी तब जब, स्टॉफ सदस्यों की लगातार रहने वाली शिकायतों के कारण उसको हटाया गया था । उल्लेखनीय है कि अनिल लाल के अभद्र व्यवहार को लेकर स्टॉफ सदस्यों के गंभीर आरोप रहे हैं । स्टॉफ सदस्यों के आरोप रहे हैं कि अनिल लाल उनके साथ बहुत ही बदतमीजी के साथ पेश आते हैं और बात-बेबात उन्हें अपमानित करते रहते हैं । पिछली 17 दिसंबर को स्टॉफ-सदस्यों ने तत्कालीन कार्यकारी चेयरपरसन पूजा बंसल से मिलकर उन्हें हस्ताक्षरित ज्ञापन दिया जिसमें अनिल लाल के अभद्र व अशालीन व्यवहार का जिक्र करते हुए साफ कहा गया कि उनके लिए अनिल लाल के साथ काम करना संभव नहीं है । इसके बाद ही अनिल लाल की विदाई की तैयारी शुरू हो गई और अंततः 13 जनवरी को उनका ट्रांसफर आर्डर आ गया था ।
अनिल लाल की विदाई हालाँकि आसानी से नहीं हुई थी; उस समय अपने आप को नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का स्वयंभू मुखिया समझने और जताने वाले राकेश मक्कड़ तथा उनके साथियों ने अनिल लाल को बचाने की बहुत कोशिश की थी, किंतु अपने आप को तुर्रमखाँ समझने के बावजूद तब वह असफल रहे थे । राकेश मक्कड़ और उनके साथी अब जब सचमुच सत्ता में आ गए हैं, तो उन्हें लगता है कि अब वह अनिल लाल को वापस बुला सकते हैं । अनिल लाल की वापसी में इनके इतनी दिलचस्पी लेने से इंस्टीट्यूट प्रशासन के लोगों के कान खड़े हुए हैं । यह बात तो लोगों को समझ में आती है कि अनिल लाल के जरिए यह स्टॉफ-सदस्यों पर दबाव बनाए रखने का काम करते हैं और अनिल लाल इनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए इनके खाने-पीने की व्यवस्था करवाते रहते हैं; लेकिन सिर्फ इस कारण से यह अनिल लाल की वापसी कराने की बदनामी मोल लेंगे - यह बात किसी को हजम नहीं हो रही है । लोगों को लगता है कि अनिल लाल के साथ राकेश मक्कड़ एंड टीम का यह 'रिश्ता' कुछ ज्यादा गहरा है ।
इस गहरे रिश्ते की पड़ताल की कोशिश इस तथ्य से सामना करवाती है कि अनिल लाल पिछले कुछेक वर्षों से नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के सेमिनार्स के आयोजन का जिम्मा सँभाले हुए थे, जिसमें भारी झोल-झाल होने के आरोप लगते रहे हैं । आशंका है कि अनिल लाल ने राकेश मक्कड़ और उनकी टीम के लोगों को उस झोल-झाल में से हिस्सा देना शुरू कर दिया था, जिसके चलते वह राकेश मक्कड़ एंड टीम के चहेते बन गए । स्टॉफ-सदस्यों की शिकायत के चलते अनिल लाल से सेमिनार्स करवाने की जिम्मेदारी भी छिन गई थी, जिसके कारण राकेश मक्कड़ एंड टीम के सदस्यों के ऊपरी खर्चों की व्यवस्था पर भी रोक लग गई । समझा जाता है कि अनिल लाल की वापसी करवा कर वह उस 'व्यवस्था' को फिर से चालू करवाना चाहते हैं - और इसीलिए स्टॉफ-सदस्यों के विरोध के बावजूद अनिल लाल को नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में वापस लाने के लिए राकेश मक्कड़ एंड टीम के सदस्यों ने अपने प्रयासों में तेजी ला दी है । अनिल लाल की वापसी का विरोध करने के लिए काउंसिल के स्टॉफ-सदस्यों ने भी चूँकि कमर कस ली है, इसलिए उम्मीद की जा रही है कि रीजनल काउंसिल में टकरावपूर्ण दिलचस्प नजारे देखने को मिल सकेंगे ।
अनिल लाल के खिलाफ स्टॉफ-सदस्यों का शिकायती पत्र :

Tuesday, March 28, 2017

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए टू में ब्लड बैंक के मामले में जेपी सिंह और उनके भक्तों ने बैठे-बिठाए खुद ही मुसीबत और फजीहत को आमंत्रित कर अपने लिए पिछले वर्ष जैसे ही हालात बना लिए हैं क्या ?

नई दिल्ली । जेपी सिंह के 'सेनानियों' की वाट्स-ऐप पर जारी छिछोरपंती ने जिस तरह से ब्लड बैंक से जुड़े आरोपों की चपेट में एक बार फिर जेपी सिंह को ले लिया है, उससे लगता है कि पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी जेपी सिंह के भक्त ही उनकी फजीहत का कारण बनेंगे । उल्लेखनीय है कि ब्लड बैंक का मामला पूरी तरह से शांत हो गया था, किंतु जेपी सिंह के भक्तों को पता नहीं किस च्यूंटी ने काटा कि वह ब्लड बैंक का मामला फिर से चर्चा में ले आए । दरअसल ब्लड बैंक से जुड़ी जेपी सिंह की बदनामी के दाग को धोने की कोशिश में जेपी सिंह के भक्तों ने ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन को ललकारा कि ब्लड बैंक में पैसा बनाने के जो आरोप जेपी सिंह पर लगाए गए थे, उन आरोपों को अभी तक साबित क्यों नहीं किया गया है ? यह सवाल तो अपने आप में में बड़ा वाजिब है, लेकिन दुस्साहस भरा है, और बहुत ही गलत समय पर पूछा गया । यह ऐसी ही बात हुई कि चोरी के आरोप में पकड़ा गया व्यक्ति यदि सुबूतों के अभाव में छूट जाता है, तो फिर वह आरोप लगाने और पकड़ने वालों को ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करने लगे । उसकी कोशिश जायज हो सकती है, लेकिन उसे समझना चाहिए कि यह वास्तव में व्यवस्था की एक बड़ी खामी है - जिसमें हम कभी शिकार 'करते' हैं, तो कभी शिकार 'बनते' हैं । इसलिए इसे लेकर ज्यादा हायतौबा नहीं मचाना चाहिए । जेपी सिंह और उनके भक्त लेकिन इस सबक को भूल गए, और बदले में अपनी बेवकूफाना हरकतों से अपने लिए और ज्यादा फजीहत व मुसीबत को आमंत्रित कर बैठे । 
जेपी सिंह के सेनानियों की वाट्स-ऐप पर ललकार सुनी तो ब्लड बैंक का मौजूदा प्रबंधन भी चार पृष्ठों की चिट्ठी के साथ मैदान में उतर आया । इस चिट्ठी ने ब्लड बैंक की बदनामी के संदर्भ में जेपी सिंह के बचे-खुचे कपड़े भी उतार लिए । इस चिट्ठी ने दरअसल ब्लड बैंक से जुड़े आरोपों को क्रमबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण काम किया, जिसके कारण जेपी सिंह के लिए भ्रष्ट-आचरण के आरोपों से बचना और मुश्किल हो गया । इस चिट्ठी में कहा/बताया गया कि ब्लड बैंक में पैसा बनाने का आरोप तो प्रतिप्रश्न था, जिसका मुख्य प्रश्न यह था कि वर्ष 2013-14 में एक करोड़ 33 लाख रुपए का लाभ दर्ज करने वाले ब्लड बैंक को अगले ही वर्ष 80 लाख रुपए का भारी घाटा क्यों और कैसे हो जाता है ? ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन ने उक्त तथ्य को रेखांकित करते हुए इस बात को भी स्पष्ट किया कि इस सवाल का जबाव जेपी सिंह को ही देना है - कल भी उन्हें ही देना था, और आज भी उन्हें ही देना है । इस दो-टूक जबाव ने एक बार फिर जेपी सिंह को कठघरे में खड़ा कर दिया । मजे की बात यह रही कि कठघरे से निकलने की कोशिश में जेपी सिंह पहले यह जबाव दे चुके थे कि वर्ष 2013-14 में दिल्ली में चूँकि डेंगू का प्रकोप ज्यादा था, इसलिए ब्लड बैंक का धंधा अच्छा चला और उसे तगड़ा फायदा हुआ, लेकिन उसके अगले वर्ष चूँकि डेंगू का प्रकोप ज्यादा नहीं था, इसलिए ब्लड बैंक का धंधा पिटा और उसे घाटा हुआ । कई लोगों ने जेपी सिंह के इस तर्क को स्वीकार कर लिया था और मान लिया था कि डेंगू के बढ़ने/घटने के कारण ही ब्लड बैंक का नफा-नुकसान प्रभावित हुआ है, और इसका जेपी सिंह की प्रबंधकीय अक्षमता तथा ब्लड बैंक में की गई उनकी लूट-खसोट से कोई संबंध नहीं है ।
ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन की चार पृष्ठीय चिट्ठी ने लेकिन जेपी सिंह के इस झूठ को भी बेनकाब कर दिया । मौजूदा प्रबंधन ने चार वर्षों का हिसाब देते हुआ सवाल उठाया कि यदि डेंगू ही ब्लड बैंक के नफे-नुकसान का कारण है, तो वर्ष 2015-16 में डेंगू का प्रकोप होने के बाद भी ब्लड बैंक का लाभ 37 लाख रुपए ही क्यों रह गया - जबकि वर्ष 2013-14 में यह एक करोड़ 33 लाख रुपए था । प्रबंधन ने मौजूदा वर्ष के दस महीनों का आँकड़ा देते हुए बताया कि इस वर्ष डेंगू का प्रकोप न होने के बावजूद दस महीने में 80 लाख रुपए लाभ दर्ज किया गया है । इन तथ्यों से सवाल पैदा हुआ कि डेंगू न होने के बाद भी मौजूदा प्रबंधन यदि दस महीनों में ही 80 लाख रुपए कमा लेता है, तो जेपी सिंह के प्रबंधन को पूरे वर्ष में 80 लाख रुपए खोने क्यों पड़े थे ? यह सवाल इसलिए और भी गंभीर है क्योंकि जेपी सिंह के साथ ब्लड बैंक के प्रबंधन में जुड़े लोगों का साफ कहना रहा है कि ब्लड बैंक में होने वाली खरीद-बेच की सारी डील जेपी सिंह अकेले ही करते थे, और उन्हें किसी भी स्तर पर डील में शामिल नहीं होने देते थे ।
ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन की चार पृष्ठीय चिट्ठी ने जेपी सिंह की हरकतों की और बचाव में दिए उनके जबाव की जो पोल खोली, तो जेपी सिंह और उनके भक्तों को लगा कि वह जैसे 'रंगे हाथ' पकड़ लिए गए हैं । तब उन्होंने इस बात का शोर मचाया कि वर्ष पूरा होने से पहले ही लाभ के आंकड़े देकर ब्लड बैंक प्रबंधन राजनीति कर रहा है; इस पर उन्हें सुनने को मिला कि जेपी सिंह तो वर्ष पूरा हो जाने के बाद - बार बार माँगने के बाद भी हिसाब नहीं देते थे, हिसाब देने में आपत्ति की क्या बात है ? और रही राजनीति की बात, तो इसकी शुरुआत तो खुद जेपी सिंह और उनके भक्तों ने ही की है । जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि जेपी सिंह और उनके भक्त अपने ही बिछाए जाल में खुद ही फँस गए हैं । इस प्रसंग ने पिछले वर्ष के घटना-चक्र को एक बार फिर से प्रासंगिक और उल्लेखनीय बना दिया है । जेपी सिंह के साथ सच्ची हमदर्दी रखने वाले लोगों को ही कहना/बताना है कि पिछले वर्ष जेपी सिंह के लिए हालात शुरू में ज्यादा बुरे नहीं थे, किंतु उनकी और उनके भक्तों की बड़बोली और बेवकूफाना हरकतों के चलते हालात लगातार बिगड़ते चले गए - जिसका नतीजा हुआ कि वह अपने आप से ही हार गए । ब्लड बैंक के मामले में अभी जिस तरह से जेपी सिंह और उनके भक्तों ने बैठे-बिठाए खुद ही मुसीबत और फजीहत को आमंत्रित कर लिया है, उससे लग रहा है कि जेपी सिंह और उनके भक्तों ने पिछले वर्ष की फजीहत से कोई सबक नहीं सीखा है - और इस वर्ष भी अपने लिए वह पिछले वर्ष जैसे ही हालात बना रहे हैं ।

Monday, March 27, 2017

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में पॉवर ग्रुप के सदस्यों की टीए/डीए के नाम पर मनमानीभरी लूट के तथ्य चिंदीचोरों को भी मात करने वाले हैं

नई दिल्ली । नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल सदस्यों के टीए/डीए बिल के लेजर अकाउंट के जो दस्तावेज 'रचनात्मक संकल्प' को मिले हैं, वह काउंसिल के सत्ता खेमे के कुछेक सदस्यों की लूट-खसोट का बड़ा दिलचस्प ब्यौरा देते हैं - और बताते हैं कि टीए/डीए के नाम पर पैसों की लूट के मामले में इन्होंने तो चिंदी चोरों को भी मात कर रखा है । उल्लेखनीय है कि मौजूदा रीजनल काउंसिल में तीन सदस्य दीपक गर्ग, राजिंदर नारंग और पंकज पेरिवाल दिल्ली के बाहर के हैं - इस नाते रीजनल काउंसिल की मीटिंग में शामिल होने के लिए इनका टीए/डीए बसूलना तो एक बार के लिए फिर भी समझ में आता है; लेकिन काउंसिल मुख्यालय से कुछ कदमों की दूरी पर स्थित - लक्ष्मी नगर, शकरपुर, निर्माण विहार, दिलशाद गार्डन आदि कालोनियों में रहने तथा ऑफिस रखने वाले राकेश मक्कड़, सुमित गर्ग, नितिन कँवर आदि का मीटिंग में शामिल होने के लिए टीए/डीए बसूलना किसी की भी समझ से परे ही है । पिछले वर्ष के पहले छह महीने के जो लेजर अकाउंट 'रचनात्मक संकल्प' को मिले हैं, उनके अनुसार राकेश मक्कड़ ने टीए/डीए के नाम पर आठ हजार रुपए तथा दैनिक भत्ते के नाम पर 23 हजार रुपए के बिल दिए । इनका घर और ऑफिस निर्माण विहार में है । लक्ष्मी नगर में रहने और शकरपुर में ऑफिस रखने वाले सुमित गर्ग ने उक्त समयावधि में टीए/डीए के नाम पर 9 हजार रुपए बसूले । टीए/डीए बसूलने के मामले में सबसे लंबा हाथ नितिन कँवर ने मारा है : उक्त समयावधि के लिए उन्होंने टीए/डीए के नाम पर 14,400 तो बसूल लिए और 38,200 रुपए का और बिल दिया । नितिन कँवर दिलशाद गार्डन में रहते हैं, और शकरपुर में ऑफिस रखते हैं । टीए/डीए बसूलने में लंबा हाथ मारने में उनकी मदद उनके दूसरे ऑफिस ने की, जो गुड़गाँव में है ।
नितिन कँवर वैसे तो अपने गुड़गाँव ऑफिस में कम ही आते/जाते हैं, लेकिन रीजनल काउंसिल की मीटिंग में उन्हें जब भी आना होता है - वह गुड़गाँव से ही 'आते' हैं, और वापस भी गुड़गाँव ही जाते हैं । इसीलिए उनका टीए/डीए बिल अपने 'साथियों' से ज्यादा बना । राजेंद्र अरोड़ा ने उक्त समयावधि में 9 हजार और 2 हजार के टीए/डीए बिल बसूल किए । शुक्र है कि इनके घर और ऑफिस काउंसिल के ऑफिस के पास ही हैं, कहीं यदि ज्यादा दूर होते तो काउंसिल का सारा बजट तो इनके टीए/डीए में ही खर्च हो जाना था । रीजनल काउंसिल की मीटिंग के अलावा भी, टीए/डीए के नाम पर उलटे/सीधे बिल बनाने और बसूलने के लिए इन लोगों ने बड़ा आसान सा तरीका यह बनाया हुआ है कि स्टडी सर्किल से लेकर ब्रांचेज तक में तथा अन्य सेमिनार्स में यह अपने आप को स्पीकर के रूप में आमंत्रित करवाते हैं । इन तथ्यों को देखते हुए रीजनल काउंसिल के ही सदस्यों के उक्त आरोपों में सच्चाई नजर आने लगती है, जिनमें बताया जाता है कि विभिन्न क्लासेज के लिए फैकल्टी तय करने में पैसे खाए जाते हैं, और सेमिनार्स आदि में खाने-पीने की व्यवस्था करने वाले वेंडर्स तक से रिश्वत ली जाती है । आरोपों के अनुसार, छोटे-मोटे काम करने वालों तक से हजार/पाँच सौ रुपए झटकने में भी यह लोग शर्म महसूस नहीं करते हैं ।
रीजनल काउंसिल में पॉवर ग्रुप के चौगुटे की हरकतों के चलते हो रही बदनामी से परेशान दूसरे सदस्य जब मीटिंग में हिसाब-किताब रखने/देने की बात करते/उठाते हैं, तो यह झगड़ा करने पर उतारू हो जाते हैं । काउंसिल के बाकी सदस्यों तथा स्टॉफ हावी होने के लिए इन्होंने फार्मूला यह निकाला हुआ है कि सामने वाला इन्हें जब भी सवाल करता/उठाता दिखता है, यह तुरंत आक्रामक हो जाते हैं और गाली-गलौच करने लगते हैं । माँ/बहनों से जुड़ी अश्लील व अशालीन किस्म की गालियाँ तो इनकी जुबाँ पर हमेशा चढ़ी रहती हैं । एक महिला स्टॉफ से की गई बदतमीजी का मामला तो इतना बढ़ गया था कि पुलिस तक में रिपोर्ट हो गई थी । तब माफी-वाफी मांग कर इन्होंने मामले को खत्म करवाया था । अपने इस व्यवहार से यह काउंसिल के दूसरे सदस्यों तथा स्टॉफ के लोगों के साथ-साथ वेंडर्स लोगों पर हावी हो जाते हैं, जिससे कि इनकी मनमानियों पर सवाल करने/उठाने वाले लोग फिर चुप लगा जाते हैं - और इन्हें बेरोकटोक रूप से अपनी मनमानियाँ और लूट करते रहने का मौका मिलता रहता है ।

Saturday, March 25, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 - यानि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए रमेश बजाज की उम्मीदवारी जितेंद्र ढींगरा के लिए चुनौती क्यों है ?

पानीपत । रमेश बजाज ने वर्ष 2018-19 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद हेतु समर्थन जुटाने के लिए हाल ही में जिन शहरों का दौरा किया है, वहाँ के रोटेरियंस - खासकर क्लब्स के अध्यक्षों की प्रतिक्रिया ने उनके और अभी हाल ही में चुने गए वर्ष 2019-20 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जितेंद्र ढींगरा के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है । अधिकतर रोटेरियंस ने रमेश बजाज की उम्मीदवारी को लेकर नकारात्मक प्रतिक्रिया ही व्यक्त की है; यह बात रमेश बजाज और जितेंद्र ढींगरा के लिए गंभीर चुनौती की इसलिए है - क्योंकि नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले लोगों में उन लोगों की संख्या भी अच्छी-खासी है, जो जितेंद्र ढींगरा के नजदीक और समर्थक रहे हैं । इन लोगों का कहना है कि जितेंद्र ढींगरा के नजदीक और समर्थक होने का यह अर्थ तो नहीं है कि हम हमेशा उन्हीं के कहने पर वोट डालेंगे । हालाँकि इन्हीं नजदीकियों और समर्थकों में से कुछ का कहना है कि जितेंद्र ढींगरा जब रमेश बजाज के लिए समर्थन जुटाने निकलेंगे, तब अपने नजदीकियों और समर्थकों को रमेश बजाज के समर्थन के लिए राजी कर लेंगे । जितेंद्र ढींगरा के नजदीकियों और समर्थकों का यूँ भी कहना है कि रमेश बजाज की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने से वह खुश तो नहीं हैं, लेकिन अंततः उन्हें रहना तो रमेश बजाज के पक्ष में ही होगा ।
रमेश बजाज की उम्मीदवारी दो परस्पर विरोधी 'वैचारिक' ध्रुवों के बीच है : उनकी उम्मीदवारी को उनके अपने खेमे के लोगों के बीच पसंद भी नहीं किया जा रहा है, लेकिन साथ ही उनके जीतने को लेकर हर कोई आश्वस्त भी है । दरअसल बाकी जो उम्मीदवार हैं, उनकी उम्मीदवारी में लोगों को कोई करंट नहीं नजर आ रहा है । डॉक्टर सुधीर चौधरी की उम्मीदवारी को लेकर लोगों के बीच हमदर्दी का भाव तो है, लेकिन लोगों की इस हमदर्दी को वोट में बदलने का मैकेनिज्म डॉक्टर सुधीर चौधरी के पास नहीं दिख रहा है । कपिल गुप्ता को लेकर उम्मीद की गई थी कि सत्ता खेमे में 'वजनदार' उम्मीदवार की जो कमी महसूस की जा रही है, वह उसे पूरा करेंगे और चुनावी मुकाबले को प्रतिस्पर्द्धी बनायेंगे; पूरी तरह से किसी निर्णय पर पहुँचना हालाँकि अभी जल्दबाजी करना होगा, लेकिन अभी तक के जो संकेत हैं उससे लगता नहीं है कि कपिल गुप्ता अपनी उम्मीदवारी को मुकाबले में ला पायेंगे । इस तरह, दूसरे उम्मीदवारों की कमजोरियाँ रमेश बजाज की उम्मीदवारी को मजबूती देती हैं - और इसी आधार पर रमेश बजाज के नजदीकियों व समर्थकों को लगता है कि तमाम विरोधों और प्रतिकूलताओं के बावजूद रमेश बजाज को चुनावी कामयाबी अंततः मिल ही जाएगी ।
रमेश बजाज को तमाम विरोधों और प्रतिकूलताओं के बावजूद कामयाबी मिलने की यही आश्वस्ति - वास्तव में खुद रमेश बजाज और जितेंद्र ढींगरा के लिए चुनौती बनी है । चुनौती इसलिए कि इस आश्वस्ति के चलते इनके लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि रमेश बजाज की उम्मीदवारी के प्रति जो विरोध है, खुद इनके अपने लोगों के बीच जो विरोध है - उसे अनदेखा कर दें, या उसे खत्म करने के लिए कोई कार्रवाई करें ? यह सवाल दरअसल इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जितेंद्र ढींगरा के सामने चुनौती यह है कि उन्हें यह तय करना है कि उन्हें डिस्ट्रिक्ट का एक आम गवर्नर बनना है - जैसे बाकी गवर्नर हैं; या एक खास गवर्नर बनना है - जिसे डिस्ट्रिक्ट में एक नया माहौल बनाना है । डिस्ट्रिक्ट में कुछेक गवर्नर हैं, जो हर वर्ष अपने अपने उम्मीदवारों को हवा देते हैं - उनमें से कोई किसी वर्ष कामयाब होता है, तो कोई अन्य किसी वर्ष सफल हो जाता है । जितेंद्र ढींगरा के ही कई नजदीकियों का कहना है कि दूसरे गवर्नर जो करते रहे हैं, उसके चलते खुद जितेंद्र ढींगरा कभी फायदे में रहे हैं, तो कभी नुकसान उठाने के लिए मजबूर हुए हैं - इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि अब जब जितेंद्र ढींगरा खुद उस खेल के एक खिलाड़ी हो गए हैं, तो वह खेल को पहले की ही तरह चलने देना चाहेंगे, या खेल को बदलने का प्रयास करेंगे ।
इसीलिए वर्ष 2018-19 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के लिए होने वाले चुनाव की केमिस्ट्री और उसका गणित - सिर्फ एक डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का ही चुनाव नहीं करेगा, बल्कि डिस्ट्रिक्ट की आगे की चुनावी राजनीति तथा दशा-दिशा को भी तय करेगा । रमेश बजाज की उम्मीदवारी के नजदीक दिखने से बचने की जो कोशिश जितेंद्र ढींगरा की तरफ से होती हुई दिख रही है, उससे लगता है कि जितेंद्र ढींगरा अपनी भूमिका को लेकर अभी जैसे अनिश्चय में हैं और - चुनावी राजनीति के दूसरे 'ठेकेदारों' जैसा व्यवहार करने से बचना चाहते हैं । जितेंद्र ढींगरा के सम्मान में होने वाले कार्यक्रमों में तो रमेश बजाज की उपस्थिति और उनकी उम्मीदवारी का प्रमोशन होता हुआ दिखा है, लेकिन उसके अलावा जितेंद्र ढींगरा ने अभी तक रमेश बजाज की उम्मीदवारी के लिए कुछ करने से बचने का ही प्रयास किया है । जितेंद्र ढींगरा के इस रवैये ने रमेश बजाज के लिए चुनौती बढ़ा दी है - क्योंकि जितेंद्र ढींगरा के ही कई नजदीकियों और समर्थकों ने रमेश बजाज की उम्मीदवारी के प्रति नाखुशी दिखाई/जताई है । ऐसे में, रमेश बजाज को यदि जितेंद्र ढींगरा की खुली मदद के बिना ही अपना चुनाव लड़ना पड़ता है, तो इससे जितेंद्र ढींगरा के 'खेमे' में एक अलग तरह की केमिस्ट्री बनने की स्थितियाँ बनेंगी । यही कारण है कि बहुत अनुकूलताओं और जीत की आश्वस्ति की बावजूद रमेश बजाज की उम्मीदवारी डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति को गहरे से प्रभावित करेगी - और यही चीज रमेश बजाज और जितेंद्र ढींगरा के लिए अलग अलग रूप में चुनौती की बात है ।

Thursday, March 23, 2017

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए टू के चुनाव में गुरचरण सिंह भोला को मिलती दिख रही बढ़त को यशपाल अरोड़ा ब्लड बैंक से जुड़ी जेपी सिंह की बदनामी और अगले लायन वर्ष के पदों के बँटवारे के जरिये रोक सकेंगे क्या ?

नई दिल्ली । सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के चुनाव में डिस्ट्रिक्ट 321 ए टू के क्लब्स के बीच गुरचरण सिंह भोला की बढ़ती स्वीकार्यता का मुकाबला करने के लिए यशपाल अरोड़ा के समर्थकों ने जेपी सिंह पर लगे ब्लड बैंक के आरोपों को जिस तरह दोबारा से 'हथियार' बनाया है, उससे सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद का चुनाव खासा दिलचस्प हो गया है । मजे की बात यह देखने में आ रही है कि जेपी सिंह की बदनामी की छड़ी से जेपी सिंह की उम्मीदवारी को 'पीटने' की बजाए गुरचरण सिंह भोला की उम्मीदवारी को चोट पहुँचाने की कोशिश की जा रही है । इससे सत्ता खेमे के नेताओं की रणनीति का यह अंतर्विरोध सामने आ रहा है कि उन्होंने इंटरनेशनल डायरेक्टर एंडोर्सी वाले चुनाव की बजाए अपना सारा ध्यान और जोर सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के चुनाव पर केंद्रित कर लिया है, और इसीलिए उन्होंने जेपी सिंह की बदनामी की छड़ी से जेपी सिंह की उम्मीदवारी को पीटना छोड़ कर गुरचरण सिंह भोला की उम्मीदवारी को निशाना बनाना शुरू कर दिया है । उल्लेखनीय है कि गुरचरण सिंह भोला की उम्मीदवारी के खिलाफ शुरू से ही ब्लड बैंक से जुड़ी जेपी सिंह की बदनामी को इस्तेमाल किया गया है; लेकिन लगता है कि सत्ता खेमे के नेताओं का यह फार्मूला कामयाब नहीं हुआ; और जेपी सिंह की भारी बदनामी के बावजूद गुरचरण सिंह भोला का पलड़ा पहले मुकेश गोयल और फिर यशपाल अरोड़ा पर भारी साबित होता गया है । अब जब चुनाव नजदीक आ पहुँचा है, तब एक फिर गुरचरण सिंह भोला की उम्मीदवारी की बढ़ती दिख रही बढ़त को रोकने के लिए यशपाल अरोड़ा की उम्मीदवारी के समर्थक नेताओं ने जेपी सिंह की बदनामी को ही जिस तरह से मुद्दा बनाने का प्रयास शुरू किया है - उससे लग रहा है कि गुरचरण सिंह भोला की उम्मीदवारी को कमजोर करने/बनाने के लिए उनके पास रणनीति का खासा अभाव है ।
लायनिज्म में गुरचरण सिंह भोला की तुलना में यशपाल अरोड़ा के बेहतर प्रोफाइल का भी यशपाल अरोड़ा को फायदा नहीं हो सका है । इस आधार पर भी हालाँकि यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थकों ने हवा बनाने की कोशिश की थी और तर्क दिए थे कि गुरचरण सिंह भोला की तुलना में यशपाल अरोड़ा डिस्ट्रिक्ट में चूँकि ज्यादा पदों पर रहे हैं, इसलिए लायनिज्म में उन्होंने ज्यादा काम किया है और उनका अनुभव गुरचरण सिंह भोला से ज्यादा है । लेकिन यह फार्मूला भी उनके काम नहीं आया । चुनावी राजनीति में दरअसल सिर्फ इस तरह की बातों के ही भरोसे फायदा नहीं मिलता है । राष्ट्रीय राजनीति से संदर्भ लें - तो पाते हैं कि दिल्ली में कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और पंजाब में अकाली-भाजपा को भरोसा था कि उन्होंने चूँकि बहुत काम किए हैं, इसलिए उन्हें हराना संभव नहीं है; किंतु बहुत काम करने के बावजूद तीनों ही न सिर्फ हारे, बल्कि बुरी तरह से हारे । चुनाव दरअसल स्थितियों/परिस्थितियों के मैनेजमेंट से भी प्रभावित होता है - इसीलिए स्थितियों/परिस्थितियों के मामले में 'भारी' होने के बावजूद यशपाल अरोड़ा को गुरचरण सिंह भोला के सामने मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है । यशपाल अरोड़ा को सत्ता खेमे का एकतरफा समर्थन है, लायनिज्म का उनका प्रोफाइल बढ़िया है, प्रतिद्धंद्धी उम्मीदवार पर जेपी सिंह की बदनामी का भार लटका हुआ है - लेकिन फिर भी प्रतिद्धंद्धी उम्मीदवार गुरचरण सिंह भोला से उन्हें कड़ी टक्कर मिल रही है, तो इसका कारण यही माना/समझा जा रहा है कि उनके चुनावी मैनेजमेंट में भारी कमी है ।
गुरचरण सिंह भोला और उनके समर्थक नेताओं ने संगठित व योजनाबद्ध तरीके से अभियान चलाया है, जबकि यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थक नेताओं का अभियान बिखरा-बिखरा सा रहा है; इसी का नतीजा रहा कि यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थक नेता न तो अपने कुनबे को एक रख सके - और न अपने समर्थकों व शुभचिंतकों की सामर्थ्य का उचित और पूरा फायदा उठा सके हैं । गुरचरण सिंह भोला के समर्थक नेताओं ने दिल्ली में विनय सागर जैन तथा हरियाणा में नरेंद्र गोयल को अपनी तरफ मिला कर सत्ता खेमे को तगड़ा झटका दिया । अपने कुनबे को संभाले रखने में असफल रहे सत्ता खेमे के लोग अपनी असफलता पर पर्दा डालने की कोशिश करते हुए विनय सागर जैन और नरेंद्र गोयल को ही कोसते रहे । गुरचरण सिंह भोला और उनके समर्थक नेताओं ने क्लब्स के पदाधिकारियों तथा प्रमुख लोगों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए योजनाबद्ध रूप से हर तरकीब भिड़ाई - उन्होंने अपनी कमजोरियों और कमियों को पहचानते हुए उन्हें दूर करने का हर संभव प्रयास किया; दूसरी तरफ यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थक नेताओं ने यह समझने/मानने का प्रयास ही नहीं किया कि उनकी कोई कमजोरी और कमी भी है - वह अधिकतर समय इसी भरोसे रहे कि गुरचरण सिंह भोला को लायनिज्म का कुछ पता नहीं है, और जेपी सिंह की लोगों के बीच बदनामी है । यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थक नेताओं ने गुरचरण सिंह भोला और जेपी सिंह की कमजोरियों और कमियों को तो बढ़ा-चढ़ा कर देखा, लेकिन अपनी कमजोरियों और कमियों की तरफ से आँखें बंद रखीं - और इसलिए उन्हें इस बात का आभास भी नहीं हुआ कि कैसे और कब हालात उनके लिए मुश्किल भरे हो गए ।
यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थक नेताओं के बीच परस्पर अविश्वास और तालमेल के अभाव का दिलचस्प उदाहरण यह है कि बीमारी के चलते यशपाल अरोड़ा जब उम्मीदवारी से पीछे हट गए थे, और उनकी जगह मुकेश गोयल उम्मीदवार थे - तब यशपाल अरोड़ा ने ही गुरचरण सिंह भोला को जोरदार तरीके से हौंसला व प्रोत्साहन देने का काम किया था । संभवतः यशपाल अरोड़ा को यह बात पसंद नहीं आई थी कि उनके पीछे हटने का फायदा उनके अपने खेमे के मुकेश गोयल को मिले, उक्त फायदा वह अपने लगभग-पड़ोसी गुरचरण सिंह भोला को 'देना' चाहते थे - इसलिए जब/तब वह गुरचरण सिंह भोला को समझाते रहते थे कि 'पीछे मत हटना', 'डटे रहना', 'मेहनत करोगे तो जरूर कामयाब होगे', आदि-इत्यादि । उस समय यशपाल अरोड़ा को इस बात की भनक भी नहीं थी कि हालात पलटेंगे और गुरचरण सिंह भोला को वह जो सबक दे रहे हैं, वह सबक मुकेश गोयल के लिए नहीं बल्कि खुद उनके लिए भारी पड़ेंगे । यशपाल अरोड़ा ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि पड़ोसी-धर्म निभाने की आड़ में गुरचरण सिंह भोला को प्रोत्साहित करने के जरिये मुकेश गोयल के लिए वह जो खड्डा खोद रहे हैं, उसमें खुद उनके गिरने का खतरा पैदा हो जायेगा ।
गुरचरण सिंह भोला की उम्मीदवारी के अभियान को मिलती दिख रही सफलता से अब जब यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थकों को खतरा महसूस हुआ है, तब उन्होंने ब्लड बैंक से जुड़ी जेपी सिंह की बदनामी और अगले लायन वर्ष के पदों के बँटवारे के जरिये अपनी स्थिति को सुधारने के लिए कमर कसी है । यशपाल अरोड़ा और उनके समर्थक नेताओं को भरोसा है कि जेपी सिंह की बदनामी का वास्ता देकर तथा अगले लायन वर्ष के पदों का ऑफर देकर वह जरूरी वोटों की व्यवस्था कर लेंगे तथा गुरचरण सिंह भोला को मिलती नजर आ रही सफलता को रोक लेंगे । चुनाव के नजदीक आते आते सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के दोनों उम्मीदवारों और उनके समर्थक नेताओं की सक्रियताओं व गतिविधियों में जिस तरह की तेजी आई है, उसने डिस्ट्रिक्ट के चुनावी परिदृश्य को रोमांचपूर्ण बना दिया है ।

Monday, March 20, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 की चुनावी राजनीति में फरीदाबाद के वोटों का ठेकेदार बनने की कोशिश में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी विनय भाटिया द्धारा केसी लखानी व नवदीप चावला का नाम घसीटे जाने से फरीदाबाद में बबाल

फरीदाबाद । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी विनय भाटिया ने पप्पूजीत सिंह सरना के साथ मिलकर फरीदाबाद के वरिष्ठ रोटेरियन केसी लखानी तथा नवदीप चावला का नाम लेकर इस वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में फरीदाबाद का ठेकेदार बनने की जो कोशिश की है, उसे लेकर केसी लखानी और नवदीप चावला ने तो अपनी नाराजगी व्यक्त की ही है - फरीदाबाद के क्लब्स के अध्यक्षों ने भी अपना असंतोष जताया है । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि पिछले रोटरी वर्ष में विनय भाटिया को चुनाव जितवाने के लिए पप्पूजीत सिंह सरना ने जिस तरह की छिछोरपंती की थी, उसकी चर्चा रोटरी इंटरनेशनल बोर्ड की मीटिंग तक में हुई थी, और बोर्ड के फैसले में नाम लेकर पप्पूजीत सिंह सरना की भूमिका की भर्त्सना की गई थी और डिस्ट्रिक्ट पदाधिकारियों को स्पष्ट हिदायत दी गई थी कि आगे के चुनावों की प्रक्रिया में पप्पूजीत सिंह सरना को आधिकारिक रूप से शामिल नहीं किया जाना चाहिए । विनय भाटिया और पप्पूजीत सिंह सरना की हरकतों के कारण रोटरी की दुनिया में डिस्ट्रिक्ट 3011 की न सिर्फ भारी बदनामी हुई, बल्कि डिस्ट्रिक्ट के सामने अपने अस्तित्व को बचाए/बनाए रखने का खतरा तक पैदा हुआ । पिछले रोटरी वर्ष की उनकी हरकतों को तथा उनकी हरकतों के कारण रोटरी इंटरनेशनल बोर्ड के आए फैसले को देखते हुए ही पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता ने इस वर्ष के चुनाव में रोटरी 'पदाधिकारियों' के दूर रहने की उम्मीद घोषित की थी । रोटरी इंटरनेशनल बोर्ड में पप्पूजीत सिंह सरना की हरकतों का संज्ञान लिए जाने तथा उनकी भूमिका की भर्त्सना होने - और सुशील गुप्ता की उम्मीद घोषित होने - के चलते विश्वास किया गया था कि कम से कम विनय भाटिया तो अपने पद की जिम्मेदारी समझेंगे और चुनावी छिछोरपंती से इस बार दूर रहेंगे । लेकिन डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में फरीदाबाद के वोटों का ठेकेदार बनने की कोशिश में विनय भाटिया ने न डिस्ट्रिक्ट की बदनामी की परवाह की, न रोटरी इंटरनेशनल बोर्ड के पिछले वर्ष के फैसले को याद रखा और न डिस्ट्रिक्ट के वरिष्ठ पूर्व गवर्नर सुशील गुप्ता की हिदायत की चिंता की है । 
फरीदाबाद के वोटों का ठेकेदार बनने की कोशिश में विनय भाटिया ने हद तो यह की कि फरीदाबाद के केसी लखानी तथा नवदीप चावला जैसे जिन वरिष्ठ रोटेरियंस के सहयोग और समर्थन के बूते वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनने की लाइन में लग पाए हैं, उन्होंने उनको भी अपने 'अंडर' में दिखाने/जताने का काम किया है । हुआ दरअसल यह कि इस वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में भूमिका को लेकर फरीदाबाद के प्रमुख रोटेरियंस की एक मीटिंग हुई । मीटिंग में विनय भाटिया ने सुझाव दिया कि फरीदाबाद के क्लब्स को किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में वोट करना चाहिए और इस तरह फरीदाबाद की एकता को जाहिर करना चाहिए । उनके इस सुझाव का सभी ने समर्थन किया - किंतु आगे बात इस मुद्दे पर बिगड़ गई कि फरीदाबाद के क्लब्स किस 'एक उम्मीदवार' का समर्थन करें ? किसी ने संजीव राय मेहरा का नाम लिया, तो अधिकतर क्लब्स के अध्यक्षों का कहना रहा कि उन्हें और रोटरी में उनकी सक्रियता व संलग्नता के बारे में तो हम जानते ही नहीं हैं; किसी ने रवि दयाल का नाम लिया, तो अधिकतर लोगों का कहना रहा कि पिछले वर्ष उन्हें अस्वीकार करने के बाद इस वर्ष यदि हम उन्हें चुनते हैं तो डिस्ट्रिक्ट में लोगों के बीच समझा यह जायेगा कि हम उन्हें गवर्नर के रूप में योग्य तो मानते हैं, किंतु पिछले वर्ष हमने क्षेत्रवाद के चक्कर में उन जैसे योग्य को न चुनकर एक घटिया व्यक्ति को चुन लिया था - और इससे हमारी ही बदनामी होगी; मीटिंग में सुरेश भसीन का नाम भी लिया गया, किंतु उनके नाम पर आपत्तियाँ आईं कि उन्होंने रोटरी में चुनाव लड़ने के अलावा और क्या किया है; मीटिंग में कई लोगों ने अनूप मित्तल के पक्ष में बातें कीं और कहा कि अनूप मित्तल ने पिछले कुछेक वर्षों में डिस्ट्रिक्ट में उल्लेखनीय काम भी किया है, रोटरी में व्यापक स्तर पर उनकी संलग्नता और स्वीकार्यता भी है और एक उम्मीदवार के रूप में भी उन्होंने पूरी एनर्जी के साथ अपना अभियान चलाया हुआ है - और यह सब देखते हुए उनकी उम्मीदवारी को समर्थन दिया जाना चाहिए । मीटिंग में अनूप मित्तल के नाम पर सहमति बनती देख, दूसरे उम्मीदवारों के समर्थकों ने यह कहते हुए जल्दी जल्दी मचाते हुए मीटिंग को खत्म करने पर जोर दिया कि फरीदाबाद में किसी के नाम पर सहमति नहीं बन पा रही है, इसलिए फरीदाबाद के क्लब्स अपनी अपनी समझ और अपने अपने विवेक के आधार पर फैसला करें और जिसे ठीक समझें उसे वोट दें । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अनूप मित्तल के नाम पर सहमति बनाने की कोशिश करने वाले लोगों ने भी इस बात को मान लिया - और मीटिंग समाप्त हो गई ।
विनय भाटिया और पप्पूजीत सिंह सरना ने अगले दिन लेकिन लोगों को फोन कर कर के यह बताना शुरू किया कि 'हमने तय किया है कि' फरीदाबाद के क्लब्स संजीव राय मेहरा के पक्ष में वोट करेंगे । विनय भाटिया ने अपनी बात में वजन पैदा करने के लिए लोगों से यह भी कहा कि 'मैंने' केसी लखानी और नवदीप चावला को भी बता दिया है कि ऐसा करने में ही फरीदाबाद की भलाई है, और उन्हें भी 'मेरी' बात समझ में आ गई है । यह बात तुरंत ही केसी लखानी और नवदीप चावला तक पहुँची, तो वह विनय भाटिया पर बहुत बिगड़े । उनका कहना रहा कि विनय भाटिया अपनी राजनीति में उनका नाम न घसीटें और लोगों को यह बताने/दिखाने की कोशिश न करें कि वह उन्हें 'समझायेंगे' । फरीदाबाद की राजनीति का ठेकेदार बनने की कोशिश में विनय भाटिया ने केसी लखानी व नवदीप चावला जैसे वरिष्ठ रोटेरियंस की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने की जो कोशिश की है, उसे फरीदाबाद के दूसरे लोगों ने भी पसंद नहीं किया है । फरीदाबाद में लोगों का कहना है कि विनय भाटिया को अपनी हरकतों के कारण होती अपनी बदनामी की फिक्र भले ही न हो, लेकिन उन्हें फरीदाबाद की और केसी लखानी व नवदीप चावला जैसे रोटेरियंस की पहचान और प्रतिष्ठा के साथ तो खिलवाड़ नहीं ही करना चाहिए । विनय भाटिया के नजदीकियों के अनुसार, उन्होंने विनय भाटिया को कहा भी कि अपने रवैये से उन्हें केसी लखानी व नवदीप चावला जैसे लोगों को नाराज नहीं करना चाहिए, अन्यथा उन्हें मुश्किल होगी - जिस पर विनय भाटिया से उन्हें सुनना पड़ा कि इनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है, 'मैं' जानता हूँ कि इन्हें कैसे खुश किया जा सकता है; आप देखियेगा कि यह वही करेंगे, जो 'मैं' कह रहा हूँ ।
फरीदाबाद में क्लब्स के अध्यक्ष भी तथा अन्य लोग भी इस बात पर लेकिन हैरान हैं कि विनय भाटिया आखिर संजीव राय मेहरा के प्रति इतने लगाव में क्यों हैं कि वह केसी लखानी व नवदीप चावला जैसे वरिष्ठ रोटेरियंस की प्रतिष्ठा से भी खिलवाड़ करने को तैयार हो गए हैं । विनय भाटिया के नजदीकियों का ही कहना/बताना है कि संजीव राय मेहरा पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और उनसे विनय भाटिया को प्रोफेशनल काम मिलने की उम्मीद है, जिसे और ठोस रूप देने के लिए विनय भाटिया ने उन्हें गवर्नर चुनवाने का जिम्मा ले लिया है । उनके नजदीकियों का भी कहना है कि प्रोफेशनल स्वार्थ में वह जो करना चाहें, वह करें - लेकिन होशियारी से करें; और इस बात का ख्याल रखें कि ऐसा करते हुए वह फरीदाबाद के रोटेरियंस को इस्तेमाल न करें और उन्हें बेइज्जत न करें । देखना दिलचस्प होगा कि केसी लखानी, नवदीप चावला तथा फरीदाबाद के दूसरे लोगों की नाराजगी से विनय भाटिया कोई सबक लेते हैं - या अपने प्रोफेशनल स्वार्थ तथा फरीदाबाद के वोटों के ठेकेदार बनने की कोशिश में वह उन्हें बेइज्जत करना जारी रखेंगे ?

Sunday, March 19, 2017

लायंस इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर शिव कुमार चौधरी की डिस्ट्रिक्ट से लेकर मल्टीपल तक होती/बढ़ती फजीहत को देखते हुए अनुपम भटनागर तथा रेखा गुप्ता ने भी उनकी ठगी की राजनीति से पीछा छुड़ाया

देहरादून । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर शिव कुमार चौधरी की कारस्तानियों से तंग आकर उनके भरोसे सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की उम्मीदवार बनीं रेखा गुप्ता न सिर्फ अपनी उम्मीदवारी से पीछे हट गईं हैं, बल्कि उन्होंने मुकेश गोयल की छत्रछाया में लायनिज्म की अपनी आगे की यात्रा को पूरा करने का संकल्प भी घोषित कर दिया है । रेखा गुप्ता के अचानक आए इस फैसले से भन्नाए शिव कुमार चौधरी 27 मार्च को बुलाई गई कैबिनेट मीटिंग को स्थगित करने के लिए मजबूर हुए हैं । डिस्ट्रिक्ट में शिव कुमार चौधरी की कार्यप्रणाली से परिचित लोगों को लगता है कि उक्त कैबिनेट मीटिंग का खर्चा वह रेखा गुप्ता से ऐंठने वाले थे, लेकिन उम्मीदवारी से पीछे हठकर रेखा गुप्ता ने चूँकि उस संभावना को खत्म कर दिया - इसलिए 'विशेष परिस्थितियों' और 'विशेष कारणों' का नाम लेकर शिव कुमार चौधरी के सामने उक्त कैबिनेट मीटिंग को स्थगित करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं रहा । पिछले दिनों ही, शिव कुमार चौधरी के ही भरोसे सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के उम्मीदवार बनने की तैयारी कर रहे अनुपम भटनागर ने शिव कुमार चौधरी पर बहुत ही गंभीर आरोप लगाते हुए उनसे पीछा छुड़ाया था, और मुकेश गोयल की राजनीति के साथ जुड़ने की घोषणा की थी । देहरादून के लायन सदस्यों के बीच चर्चा सुनी गई कि अनुपम भटनागर की उम्मीदवारी का हव्वा खड़ा करके शिव कुमार चौधरी रेखा गुप्ता को ब्लैकमेल कर रहे थे, और रेखा गुप्ता की उम्मीदवारी के भरोसे वह फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर अजय सिंघल को ब्लैकमेल करने का जाल बिछा रहे थे ।
फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर अजय सिंघल को ब्लैकमेल करने की योजना के कारण ही शिव कुमार चौधरी ने डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस लेट करने - मल्टीपल काउंसिल की कॉन्फ्रेंस से पहले न करने की चाल चली । इससे होना सिर्फ यह है कि अजय सिंघल मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन के चुनाव में वोट देने का अधिकार नहीं पा सकेंगे । इसमें अजय सिंघल का भला क्या जायेगा ? शिव कुमार चौधरी की यह कारस्तानी ठीक वैसी ही है, जैसे कोई धोबी ऐन मौके पर दूल्हे की ड्रेस प्रेस करके न दे और इस बात पर अपनी पीठ थपथपाए कि उसने दूल्हे को वह ड्रेस नहीं पहनने दी, जिसे उसने पसंद से तैयार करवाया था । यह ठीक है कि दूल्हे और उसके परिवार के अन्य सदस्यों के मन में धोबी की इस हरकत से थोड़ी देर के लिए खिन्नता पैदा होगी, लेकिन पूरे संदर्भ में देखें तो इस बात से भला क्या फर्क पड़ेगा ? छोटी/ओछी और घटिया सोच के चलते शिव कुमार चौधरी ने अपनी हरकत से डिस्ट्रिक्ट में ही नहीं, बल्कि मल्टीपल में भी अपनी फजीहत और करवा ली है, जिस कारण मल्टीपल में वह पूरी तरह अलग-थलग पड़ गए हैं । उल्लेखनीय है कि इस समय हर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर अगले लायन वर्ष की मल्टीपल काउंसिल में कोई न कोई पद पाने की कोशिश कर रहा है, हर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का यह सपना होता है कि वह जहाँ तक पहुँचा है - वहाँ से आगे बढ़े; मल्टीपल के नौ डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स में लेकिन एक अकेले शिव कुमार चौधरी ऐसे हैं, जिन्हें अपनी हरकतों के चलते मल्टीपल के लोगों से मुँह छिपाते रहना पड़ रहा है । उनकी हरकत से इंटरनेशनल प्रेसीडेंट होने जा रहे नरेश अग्रवाल तक को नीचा और देखना पड़ रहा है, जिस कारण मल्टीपल में हर कोई शिव कुमार चौधरी को आलोचना और मजाक का शिकार बना रहा है । अपनी दशा का उन्हें पता भी है, इसीलिए उन्हें मल्टीपल के लोगों से मुँह छिपाना पड़ रहा है और इसी चक्कर में वह मल्टीपल की तीसरी मीटिंग में भी नहीं गए और मल्टीपल कॉन्फ्रेंस में भी वह - अपनी ही हरकतों के चलते नहीं जा पायेंगे । अजय सिंघल के लिए जरा सी परेशानी पैदा करने के ऐवज में उन्होंने अपनी भारी दुर्गति और बदनामी करवा ली । मूर्खतापूर्ण और घटिया सोच की हद यह है कि इसे वह अपनी 'उपलब्धि' मान/बता रहे हैं ।
शिव कुमार चौधरी की हर जगह होती/बढ़ती फजीहत को देख कर पहले अनुपम भटनागर और फिर रेखा गुप्ता ने भी उनका साथ छोड़ने में अपनी भलाई देखी/पहचानी - और उनका साथ छोड़ कर मुकेश गोयल की छत्रछाया में पहुँचने का कदम उठाया । उल्लेखनीय है कि रेखा गुप्ता ने पिछले लायन वर्ष में शिव कुमार चौधरी के समर्थन के भरोसे मुकेश गोयल के उम्मीदवार विनय मित्तल के खिलाफ चुनाव लड़ा था, और चुनाव में उन्हें बहुत ही बुरी हार का सामना करना पड़ा था । इस वर्ष भी वह शिव कुमार चौधरी के समर्थन के बल पर अपनी उम्मीदवारी बनाए हुए थीं । उनके नजदीकी हालाँकि बताते रहे हैं कि इस वर्ष के हालात को और भी चुनौतीपूर्ण मानते/समझते हुए वह अपनी उम्मीदवारी बनाए रखने के पक्ष में नहीं थीं, लेकिन शिव कुमार चौधरी ने उन्हें समझाया हुआ था कि वह यदि उम्मीदवार नहीं बनीं तो कोई और उम्मीदवार हो जायेगा और फिर उनके लिए गवर्नर का पद और पीछे खिसक जाएगा; शिव कुमार चौधरी ने उन्हें समझाया हुआ था कि वह थोड़े-बहुत पैसे खर्च करते हुए उम्मीदवार बनीं रहें, ताकि हारने के बावजूद अगले वर्ष के लिए उनका मौका बना रहे - अगले वर्ष चाहें तो वह मुकेश गोयल के खेमे में चलीं जाएँ । शिव कुमार चौधरी ने उन्हें यह भी बता दिया कि वह यदि उम्मीदवार नहीं रहती हैं, तो अनुपम भटनागर उम्मीदवार बनने के लिए तैयार हैं ।
रेखा गुप्ता को धीरे-धीरे यह बात लेकिन समझ में आ गई कि उम्मीदवार बने रहने की सलाह शिव कुमार चौधरी उनसे पैसे ऐंठने के लिए दे रहे हैं । उनसे भी पहले अनुपम भटनागर ने इस बात को समझ लिया कि शिव कुमार चौधरी, अजय सिंघल को ब्लैकमेल करने के लिए रेखा गुप्ता को, और रेखा गुप्ता से पैसे ऐंठने के लिए उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं - और साथ ही साथ उनसे भी पैसे ऐंठने के चक्कर में हैं । लिहाजा अनुपम भटनागर ने पहले ही उनसे पीछा छुड़ा लिया; और जल्दी ही रेखा गुप्ता ने भी समझ लिया कि शिव कुमार चौधरी के साथ रहकर उन्होंने अपना काफी नुकसान कर लिया है, और अब यदि उन्होंने शिव कुमार चौधरी से पीछा छुड़ाने में और देर की तो वह अपने नुकसान को और बढ़ाने का काम ही करेंगी । फलस्वरूप उन्होंने भी शिव कुमार चौधरी की ठगी की गंदी राजनीति को नमस्कार करने की घोषणा कर दी । रेखा गुप्ता की इस घोषणा ने शिव कुमार चौधरी के लिए इतिहास को दिलचस्प तरीके से दोहराया है । चार वर्ष पहले शिव कुमार चौधरी अपने पहले चुनाव में जब सुनील निगम से बहुत ही बुरी तरह हार गए थे, तब उन्हें समझ में आ गया था कि मुकेश गोयल की शरण में जाए बिना वह गवर्नर नहीं बन पायेंगे । मुकेश गोयल के समर्थन की कृपा से गवर्नर बने शिव कुमार चौधरी भले ही मुकेश गोयल के अहसान को भुला बैठे हैं, लेकिन रेखा गुप्ता ने अंततः यह समझ लिया कि गवर्नर बनने के लिए जो 'तरीका' शिव कुमार चौधरी ने अपनाया था, मुकेश गोयल की छत्रछाया में जाने के उसी तरीके को उन्हें भी अपना लेना चाहिए ।

Saturday, March 18, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में मुकेश अरनेजा के भरोसे रमेश अग्रवाल ने जेके गौड़ को चुनौती देने की तैयारी शुरू की, तो अगले रोटरी वर्ष का डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव आलोक गुप्ता की मुट्ठी में जाता दिखा

नई दिल्ली । रमेश अग्रवाल ने इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार का चयन करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी के लिए अपनी उम्मीदवारी के बाबत सक्रियता दिखा कर डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में हलचल मचा दी है - जो अगले रोटरी वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए बनने वाले चुनावी समीकरणों को भी प्रभावित करती नजर आ रही है । उल्लेखनीय है कि उक्त पद के लिए अभी तक जेके गौड़ की दावेदारी को निर्विवाद रूप से देखा/पहचाना जा रहा था, और रमेश अग्रवाल ने भी इस 'स्थिति' के सामने समर्पण किया हुआ था । लेकिन अब जिस तरह अचानक से रमेश अग्रवाल उक्त पद के लिए अपनी उम्मीदवारी के बाबत सक्रिय हुए हैं, उससे लोगों को लगा है कि अंदरखाने रमेश अग्रवाल को कोई बड़ा 'ताकत का इंजेक्शन' लगा है - जिसके असर में उन्हें उक्त नोमीनेटिंग कमेटी में अपनी जगह पक्की होती हुई दिखी है, और उन्होंने इसके लिए प्रयास शुरू कर दिया है । दो दिन पहले रोटरी क्लब गाजियाबाद आईडियल के कार्यक्रम में अपनी पत्नी के साथ उनके आने/पहुँचने तथा देर रात तक अशोक अग्रवाल के साथ तू तू मैं मैं में उनके उलझे रहने से लोगों को यह 'संदेश' तो मिल गया है कि रमेश अग्रवाल ने उक्त पद के लिए जेके गौड़ के साथ दो-दो हाथ करने की तैयारी कर ली है । रमेश अग्रवाल के नजदीकियों ने इन पँक्तियों के लेखक से बात करते हुए साफ कहा कि रमेश अग्रवाल इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चयन के लिए बनने वाली नोमीनेटिंग कमेटी की सदस्यता के लिए उम्मीदवार हो रहे हैं, और वह चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं ।
रमेश अग्रवाल को इसके लिए ताकत का इंजेक्शन कहाँ से और किस से मिल रहा है, इस बारे में उनके नजदीकी साफ साफ तो कुछ नहीं बता रहे हैं - लेकिन वह यह जरूर कह रहे हैं कि यहाँ दुश्मन को दोस्त बनने में कितनी देर लगती है ? इससे समझा जा रहा है कि रमेश अग्रवाल को ताकत का इंजेक्शन मुकेश अरनेजा की तरफ से लगा है । मजे की बात यह है कि मुकेश अरनेजा के भरोसे ही अभी तक जेके गौड़ उक्त पद के लिए अकेले और निर्विवाद दावेदार बने हुए थे । माना जा रहा था कि मुकेश अरनेजा किसी भी कीमत पर उक्त पद के लिए रमेश अग्रवाल का समर्थन नहीं ही करेंगे; और इस तरह जेके गौड़ का रास्ता इतना साफ था - कि रमेश अग्रवाल ने उनके रास्ते में आने की हिम्मत तक नहीं की । मुकेश अरनेजा का समर्थन और पक्का करने के लिए ही जेके गौड़ ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में अशोक जैन के साथ धोखा किया । इस धोखाधड़ी के चक्कर में जेके गौड़ वास्तव में अपने ही जाल में फँस गए । अशोक जैन के साथ धोखाधड़ी की तो उन्होंने रमेश अग्रवाल से बदला लेने के लिए - लेकिन इसे अंजाम तक पहुँचाने के लिए उन्होंने सुभाष जैन को जिस तरह से सीढ़ी बनाया और फिर सुभाष जैन को धोखा दिया, उससे जेके गौड़ के बुरे दिनों की शुरुआत हुई ।
जेके गौड़ ने दीपक गुप्ता की जीत का श्रेय जिस तरह से खुद लिया और उसके बाद आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी की खिलाफत करना शुरू किया, उससे उन्होंने वास्तव में मुकेश अरनेजा को भड़काने का काम किया । मुकेश अरनेजा ने अपना अगला लक्ष्य आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी को सफल बनाने का तय किया हुआ है । आलोक गुप्ता को धोखा देने का कलंक वह एक बार अपने माथे पर ले चुके हैं; वह जल्दी से जल्दी उस कलंक से मुक्त होना चाहते हैं । इससे भी बड़ी बात यह कि वह ललित खन्ना की उम्मीदवारी के रास्ते में मुसीबतें खड़ी करना चाहते हैं । ऐसे में, जेके गौड़ ने आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी का विरोध घोषित करके तथा ललित खन्ना की उम्मीदवारी के प्रति नजदीकी दिखा कर वास्तव में मुकेश अरनेजा को सीधी चुनौती देने का काम किया । समझा जाता है कि जेके गौड़ के इसी रवैये ने मुकेश अरनेजा को रमेश अग्रवाल की तरफ धकेलने का काम किया । मुकेश अरनेजा जानते/समझते हैं कि रमेश अग्रवाल इस समय इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार का चयन करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी की सदस्यता के लिए मरे जा रहे हैं; रोटरी में अपने भविष्य को बचाए रखने के लिए रमेश अग्रवाल को उक्त सदस्यता प्राप्त करना जरूरी लग रहा है । मुकेश अरनेजा को लगता है कि उक्त सदस्यता दिलवाने के लिए वह यदि रमेश अग्रवाल की मदद करते हैं, तो रमेश अग्रवाल भी बदले में आलोक गुप्ता को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाने में उनकी मदद करेंगे ।
मुकेश अरनेजा की तरफ से दोस्ती के लिए बढ़े हाथ ने रमेश अग्रवाल को उत्साहित किया है, और उन्हें उम्मीद हो चली है कि मुकेश अरनेजा के भरोसे वह जेके गौड़ का चुनावी मुकाबला कर लेंगे । डिस्ट्रिक्ट में हालाँकि कई लोगों का मानना और कहना है कि रमेश अग्रवाल की डिस्ट्रिक्ट में बहुत ही बदनामी है; पिछले दिनों ही संपन्न हुए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में अशोक जैन को मिली भारी हार के नतीजे को रमेश अग्रवाल के प्रति डिस्ट्रिक्ट के लोगों की नाराजगी के रूप में ही देखा/पहचाना गया है । मुकेश अरनेजा का संग-साथ उनकी बदनामी में कोई कमी करेगा - इसे लेकर लोगों को शक है; क्योंकि मुकेश अरनेजा की उनसे ज्यादा बदनामी है । पिछले दिनों ही संपन्न हुए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में मुकेश अरनेजा जिन दीपक गुप्ता के समर्थन में थे, उन दीपक गुप्ता ने उनसे कहा हुआ था कि - तुम बस मेरी एक मदद करो और वह यह कि तुम मेरी कोई मदद न करो ! मुकेश अरनेजा ने दीपक गुप्ता की बात मान ली थी, और वह उनकी उम्मीदवारी के लिए कुछ करते हुए नहीं नजर आए - जिसका नतीजा रहा कि दीपक गुप्ता को अच्छी जीत मिली । पिछले रोटरी वर्ष में मुकेश अरनेजा ने दीपक गुप्ता के पक्ष में जोरदार अभियान चलाया था, और नतीजा हुआ था कि दीपक गुप्ता बुरी तरह हार गए थे । इसी आधार पर माना/कहा जा रहा है कि मुकेश अरनेजा का संग-साथ मिल जाने से रमेश अग्रवाल की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो जायेगा । हाँ, यह जरूर होगा कि जेके गौड़ के लिए डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच जब कोई समर्थन-आधार नहीं बचा रह जायेगा, तब रमेश अग्रवाल के लिए जेके गौड़ से निपटना आसान जरूर हो जायेगा ।
इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार का चयन करने वाली नोमीनेटिंग कमेटी की सदस्यता के लिए रमेश अग्रवाल को मिलते दिख रहे मुकेश अरनेजा के समर्थन का डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के समीकरणों पर भी असर पड़ना लाजिमी है । रमेश अग्रवाल की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा कर मुकेश अरनेजा ने अगले रोटरी वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव को आलोक गुप्ता की मुट्ठी में कर देने का उपक्रम भी कर दिया है । आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी को मुकेश अरनेजा के साथ साथ रमेश अग्रवाल का भी समर्थन मिलेगा, तो आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी के अभियान के सामने चुनौती कम होगी और उन्हें मनोवैज्ञानिक फायदा पहुँचेगा ।

Friday, March 17, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 - यानि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में अपने प्रतिद्धंद्धियों के मुकाबले 'वजनदार' दिख रहे कपिल गुप्ता को अचानक से प्रस्तुत हुई रमेश बजाज की उम्मीदवारी से झटका लगा

पानीपत । रमेश बजाज ने वर्ष 2018-19 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करके डिस्ट्रिक्ट 3080 की चुनावी राजनीति में भारी उठा-पटक की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं । रमेश बजाज को अभी हाल ही में चुने गए वर्ष 2019-20 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जितेंद्र ढींगरा के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है; दरअसल इसीलिए हर किसी को रमेश बजाज की उम्मीदवारी के प्रस्तुत होने पर हैरानी हुई है - क्योंकि दो दिन पहले तक जितेंद्र ढींगरा का समर्थन कपिल गुप्ता को मिलने की चर्चा की जा रही थी । रोटरी क्लब यमुनानगर के कपिल गुप्ता को पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सतीश सलूजा के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है - और सतीश सलूजा अपने उम्मीदवार के रूप में कपिल गुप्ता के लिए समर्थन जुटाने को लेकर चंडीगढ़ के कुछेक 'बड़े' नेताओं की आलोचना का शिकार भी हो चुके हैं । माना जा रहा था कि जितेंद्र ढींगरा की अगुआई में डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में जो विरोधी खेमा बना है, वह कपिल गुप्ता को समर्थन देकर राजा साबू के नेतृत्व वाले खेमे में फूट की प्रक्रिया को तेज और बड़ा करेगा । जितेंद्र ढींगरा यूँ भी सतीश सलूजा के नजदीक रहे हैं । कपिल गुप्ता ने उम्मीदवारी प्रस्तुत करने से पहले स्थितियों की चूँकि खासी 'पड़ताल' कर ली थी; और जितेंद्र ढींगरा भी 'टकराव' की बजाए 'शांति' के मार्ग पर चलने के संकेत दे रहे थे - इसलिए कपिल गुप्ता को जितेंद्र ढींगरा की अगुआई वाले खेमे का समर्थन मिलना पक्का माना जा रहा था । लेकिन अचानक से प्रस्तुत हुई रमेश बजाज की उम्मीदवारी ने वर्ष 2018-19 के गवर्नर के लिए बनने वाले समीकरणों को छिन्न-भिन्न कर दिया है । 
रमेश बजाज की उम्मीदवारी ने कपिल गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए तो समस्या खड़ी की ही है, साथ ही जितेंद्र ढींगरा के लिए भी चुनौती पैदा कर दी है । पानीपत में रमेश बजाज के नजदीकियों का ही कहना है कि अचानक से प्रस्तुत हुई रमेश बजाज की उम्मीदवारी से जितेंद्र ढींगरा खुश नहीं हैं; जितेंद्र ढींगरा ने उनसे कहा है कि वह अभी यह नहीं चाहते हैं कि उनके साथ नजदीकी से जुड़े लोग उम्मीदवार बनें - क्योंकि इससे डिस्ट्रिक्ट में टकराव बढ़ेगा । रमेश बजाज के इन्हीं नजदीकियों का कहना है कि वह जितेंद्र ढींगरा के इस तर्क से सहमत तो हैं, लेकिन कपिल गुप्ता ने पानीपत में जिस तरह से पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स - प्रमोद विज और रंजीत भाटिया के साथ नजदीकी बनाने और 'दिखाने' की कोशिश की है, उसके विरोध स्वरूप ही रमेश बजाज अपनी उम्मीदवारी के साथ आगे आए हैं । रमेश बजाज के नजदीकियों को भरोसा है कि रमेश बजाज यदि अपनी उम्मीदवारी पर बने/टिके रहे तो जितेंद्र ढींगरा अंततः उनका समर्थन करने के लिए मजबूर हो जायेंगे । रमेश बजाज के कुछेक नजदीकियों का यह भी कहना है कि कपिल गुप्ता पानीपत में यदि प्रमोद विज और रंजीत भाटिया से 'दूर' रहें, तो रमेश बजाज अपनी उम्मीदवारी पर पुनर्विचार करते हुए पीछे भी हट सकते हैं ।  
यह सारा झंझट वास्तव में इसलिए भी खड़ा हुआ है, क्योंकि जितेंद्र ढींगरा की अगुआई वाले खेमे के लोगों में आगे की रणनीति को लेकर गंभीर मतभेद हैं : जितेंद्र ढींगरा कुछ समय 'शांत' रहना चाहते हैं और राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे के बँटने का इंतजार करना तथा बँटवारे को तेज करने में मदद करना चाहते हैं; अन्य कुछ लोग लेकिन जितेंद्र ढींगरा की जोरदार जीत से उत्साहित हैं और चाहते हैं कि सत्ता खेमे के साथ उन्हें अपनी 'लड़ाई' जारी रखनी चाहिए । जितेंद्र ढींगरा को 'शांति के मार्ग' पर बढ़ता देख उनके अपने लोगों को भी लगता है कि जितेंद्र ढींगरा की शायद सत्ता खेमे के कुछेक नेताओं से साठगाँठ है; जितेंद्र ढींगरा ने पिछले दो वर्ष जो लड़ाई लड़ी है और जीती है, उसमें सत्ता खेमे के लोगों की दबी-छिपी साठगाँठ का 'सहयोग' भी देखा/पहचाना गया है; जितेंद्र ढींगरा खुद सत्ता खेमे के हिस्सा रहे ही हैं - इन्हीं सब तथ्यों के आलोक में समझा जाता है कि जितेंद्र ढींगरा सत्ता खेमे के ही एक ग्रुप के साथ मिल कर अपनी आगे की 'यात्रा' जारी रखना चाहते हैं; और इसीलिए वह चाहते हैं कि पिछले दो वर्षों की लड़ाई में जो लोग घोषित रूप से उनके साथ थे, वह सब अपनी अपनी तलवारें अब म्यानों में वापस रख लें - लेकिन उनके साथ रहे लोग जीत से इतने उत्साहित हैं कि वह तलवारें चमकाते हुए अभी और 'मारकाट' मचाना चाहते हैं । इस नजारे को नजदीक से देख/पहचान रहे लोगों का कहना है कि जितेंद्र ढींगरा के साथी तो जोश के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं, लेकिन जितेंद्र ढींगरा जोश के साथ होश भी बनाए रखना चाहते हैं । जीत के जोश से भरे अपने ही साथियों को 'नियंत्रण' में रखना जितेंद्र ढींगरा की आगे की राजनीति के लिए गंभीर चुनौती है ।
रमेश बजाज के नजदीकियों का ही कहना/बताना है कि जितेंद्र ढींगरा ने रमेश बजाज की उम्मीदवारी को लेकर नाखुशी इसी कारण से प्रकट की है, क्योंकि इससे राजा साबू की छत्रछाया में चल रहे सत्ता खेमे को अपनी एकजुटता बनाए रखने में मदद मिलेगी । रमेश बजाज की उम्मीदवारी से निपटने के लिए, अभी चंडीगढ़ और उत्तराखंड के जो नेता कपिल गुप्ता की उम्मीदवारी को हजम नहीं कर पा रहे हैं - वह सभी कपिल गुप्ता की उम्मीदवारी का समर्थन करने के लिए मजबूर हो जायेंगे । दरअसल वर्ष 2018-19 के गवर्नर पद के लिए बाकी जो नाम चर्चा में हैं, जो पिछले वर्षों में भी उम्मीदवार रहे हैं, उनमें ज्यादा एनर्जी नहीं देखी/पहचानी जा रही है - उनके मुकाबले कपिल गुप्ता का 'वजन' ज्यादा देखा/पहचाना जा रहा है । कपिल गुप्ता को अभी चंडीगढ़ और उत्तराखंड के पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की जिस नापसंदगी तथा विरोध का सामना करना पड़ रहा है, उसका कारण खेमे के लोगों के बीच की आपसी ईर्ष्या व प्रतिस्पर्धा है; चंडीगढ़ व उत्तराखंड के पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को यह बात हजम करना मुश्किल हो रहा है कि वह जिन उम्मीदवारों को पिछले दो दो और चार चार वर्षों से ढो रहे हैं, उन्हें दस दिन पहले उम्मीदवार बने कपिल गुप्ता किनारे धकेल कर आगे आ जाएँ । समझा जाता है कि जितेंद्र ढींगरा सत्ता खेमे की इसी 'लड़ाई' का फायदा उठाने की कोशिश के चलते कपिल गुप्ता की उम्मीदवारी का समर्थन करने की तैयारी कर रहे थे, जिसे लेकिन रमेश बजाज की अचानक से प्रस्तुत हुई उम्मीदवारी ने फेल कर दिया है ।
रमेश बजाज की उम्मीदवारी को एक स्थानीय 'झगड़े' की प्रतिक्रिया के रूप में भी देखा/पहचाना जा रहा है, और इसलिए अभी उनकी उम्मीदवारी को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है । दरअसल पिछले दो वर्षों की 'लड़ाई' ने जगह जगह के स्थानीय झगड़ों को मुखर बनाने का काम किया है, जिसकी सबसे तीखी प्रतिक्रिया पानीपत में देखने को मिल रही है । यहाँ रंजीत भाटिया और प्रमोद विज से नाराज रहने वालों की एक बड़ी संख्या है, जो जितेंद्र ढींगरा की जीत से खासे उत्साहित हैं - और जो रंजीत भाटिया व प्रमोद विज को किनारे लगाने/रखने का काम जारी रखना चाहते हैं । कपिल गुप्ता पानीपत के लोगों के इस मूड को भाँपने में लगता है कि चूक गए और रंजीत भाटिया व प्रमोद विज के साथ अपनी नजदीकी बनाने/दिखाने में लग गए । रमेश बजाज के नजदीकियों का ही कहना है कि रमेश बजाज की उम्मीदवारी कपिल गुप्ता के इसी व्यवहार के प्रति नाराजगी का प्रकटीकरण भी है । इसी कारण से उनकी उम्मीदवारी के बने रहने को लेकर लोगों के बीच सवाल है । रमेश बजाज की उम्मीदवारी बनी रहेगी या नहीं, यह तो अगले कुछ दिनों में साफ हो जायेगा; अभी लेकिन उनकी उम्मीदवारी ने कपिल गुप्ता के लिए मुसीबत यह तो बढ़ाई है कि अब उन्हें चंडीगढ़ व उत्तराखंड के रूठे हुए पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को मनाने में जुटना पड़ेगा, और जितेंद्र ढींगरा के लिए चुनौती यह पैदा की है कि उनकी जोरदार जीत ने लोगों के बीच उनसे राजनीतिक किस्म की जो उम्मीदें लगाई हैं, उन पर वह कैसे खरे उतरें ?

Thursday, March 16, 2017

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन का चुनाव रद्द करके दोबारा होने की घोषणा से सेंट्रल काउंसिल सदस्य मुकेश कुशवाह की फजीहत हुई और प्रकाश शर्मा की मुसीबत बढ़ी

कानपुर । मुकेश कुशवाह ने सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल तथा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट के गौरवशाली इतिहास को कलंकित करने की जो हरकत की, उसके निशान मिटाने के लिए इंस्टीट्यूट प्रशासन ने कदम तो उठाया है - लेकिन मुकेश कुशवाह की हरकतों के दाग इतने गहरे हैं कि लगता नहीं है कि इंस्टीट्यूट प्रशासन के प्रयासों के बावजूद वह पूरी तरह मिट पायेंगे । सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के चुनाव में चुनाव अधिकारी की भूमिका निभा रहे सेंट्रल काउंसिल सदस्य मुकेश कुशवाह ने अपनी मनमानीपूर्ण बेईमानी से दीप कुमार मिश्र को चेयरमैन 'चुनवाने' का जो कांड किया, इंस्टीट्यूट प्रशासन ने उसे रद्द कर दिया है - और चेयरमैन पद के लिए दोबारा चुनाव कराने का आदेश दिया है । चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट के इतिहास में यह पहला मौका है, जब उसकी किसी रीजनल काउंसिल में चेयरमैन का चुनाव रद्द करके दोबारा चुनाव कराने का निर्णय हुआ है । इंस्टीट्यूट के इतिहास में इस काले अध्याय को जोड़ने की जिम्मेदारी के लिए मुकेश कुशवाह को याद किया जायेगा । इस कलंक-कथा की खास बात यह है कि मुकेश कुशवाह जब इसे 'लिख' ही रहे थे, तब ही इंस्टीट्यूट प्रशासन की तरफ से साफ शब्दों में बता दिया गया था कि वह जो कर रहे हैं - वह नियम विरुद्ध है और गलत है; मुकेश कुशवाह उस समय लेकिन पद की गर्मी और अहंकार में इस कदर जकड़े हुए थे कि उन्होंने साफ साफ लिखे उन शब्दों को कोई अहमियत ही नहीं दी ।
मुकेश कुशवाह को दरअसल उम्मीद थी कि वह जो फैसला कर देंगे, इंस्टीट्यूट प्रशासन अंततः उसे स्वीकार कर ही लेगा । मुकेश कुशवाह की तरफ से उस समय दावा किया भी गया था कि उन्होंने इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट नीलेश विकमसे के खास सेंट्रल काउंसिल सदस्य अनिल भंडारी से बात कर ली है और अनिल भंडारी ने उन्हें आश्वस्त किया है कि उन्होंने जो किया है, प्रेसीडेंट के रूप में नीलेश विकमसे उसे पलटेंगे नहीं । अनिल भंडारी से मिले आश्वासन के भरोसे ही मुकेश कुशवाह ने इंस्टीट्यूट के संयुक्त सचिव जी रंगनाथन की तरफ से नियमों के मिले हवाले की परवाह करने की जरूरत नहीं समझी । मुकेश कुशवाह अपनी कारस्तानी को लेकर इसलिए भी आश्वस्त थे क्योंकि उनके किए-धरे को सेंट्रल रीजन के बाकी चार सेंट्रल काउंसिल सदस्यों में से तीन - मनु अग्रवाल, प्रकाश शर्मा तथा केमिशा सोनी का खुला समर्थन मिला था । किंतु किसी का भी आश्वासन और समर्थन उनके काम नहीं आया । लोगों का कहना/मानना है कि दरअसल मुकेश कुशवाह की जैसी छवि है, उसके चलते इंस्टीट्यूट प्रशासन को लगा होगा कि मुकेश कुशवाह की इस हरकत पर उन्होंने यदि कोई कार्रवाई नहीं की तो मुकेश कुशवाह का हौंसला बढ़ेगा और फिर वह अपनी कारस्तानियों से इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन को बदनाम करते रहेंगे । इसलिए इंस्टीट्यूट प्रशासन की तरफ से चुनाव अधिकारी के रूप में मुकेश कुशवाह द्धारा मनमानीपूर्ण बेईमानी से कराए गए सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन पद के चुनाव को रद्द करके उक्त चुनाव को दोबारा कराने का आदेश दिया गया है ।
इंस्टीट्यूट प्रशासन ने इंस्टीट्यूट के इतिहास और उसकी पहचान/प्रतिष्ठा पर मुकेश कुशवाह द्धारा पोती गई कालिख को इस तरह से पौंछने की कोशिश तो की गई है, लेकिन उसकी यह कोशिश अधिकतर लोगों को आधी-अधूरी भी लग रही है । लोगों का मानना/कहना है कि सिर्फ चेयरमैन का ही नहीं, सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल का पूरा चुनाव ही दोबारा होना चाहिए । उनका तर्क है कि रीजनल काउंसिल में पहले चेयरमैन का चुनाव होता है, और यह चुनाव बाकी पदों के लिए होने वाले चुनाव की भावभूमि और केमिस्ट्री तय करता है - इसलिए चेयरमैन के चुनाव में हुई बेईमानी ने बाकी सभी चुनावों पर अपना असर डाला है, इसलिए इंस्टीट्यूट प्रशासन यदि वास्तव में न्याय करना चाहता है तो उसे पूरा चुनाव दोबारा कराना चाहिए; अन्यथा चेयरमैन पद के लिए दोबारा होने वाला चुनाव महज खानापूर्ति करना होगा । मुकेश कुशवाह की मनमानीपूर्ण बेईमानी के चलते चेयरमैन पद पाने से वंचित रहे रोहित रुवाटिया अग्रवाल के समर्थकों व शुभचिंतकों को भी लगता है कि तीन सेंट्रल काउंसिल सदस्यों के समर्थन के बूते मुकेश कुशवाह जो बेईमानी कर सके, उसके चलते दोबारा होने वाले चुनाव में 'वास्तविक चुनाव' नहीं हो सकेगा - और रोहित रुवाटिया अग्रवाल के साथ सचमुच न्याय नहीं हो पायेगा । समर्थकों व शुभचिंतकों की तरफ से रोहित रुवाटिया अग्रवाल को सलाह दी जा रही है कि उन्हें सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के सभी पदों का चुनाव दोबारा कराने हेतु इंस्टीट्यूट प्रशासन को राजी करने के लिए उपलब्ध सभी विकल्पों पर विचार करना चाहिए ।
सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन पद के लिए दोबारा चुनाव होने की स्थिति ने सेंट्रल काउंसिल सदस्य प्रकाश शर्मा के लिए खासी मुसीबत खड़ी कर दी है । माना/समझा जाता है कि रद्द हुए चुनाव में प्रकाश शर्मा ने रोहित रुवाटिया अग्रवाल को समर्थन नहीं दिया था । इसके लिए जयपुर और राजस्थान में उन्हें भारी आलोचना का शिकार होना पड़ा है । लोगों ने उन्हें याद दिलाया कि सेंट्रल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी के लिए उन्होंने जयपुर और राजस्थान का वास्ता देकर ही समर्थन जुटाया था, और अगले चुनाव में भी उन्हें यही 'वास्ता' देना पड़ेगा - ऐसे में जयपुर और राजस्थान को चेयरमैन 'मिलने' के मौके के साथ उन्होंने धोखा क्यों कर दिया ? प्रकाश शर्मा समय के साथ जयपुर और राजस्थान के लोगों के 'घाव' के भरने का इंतजार कर रहे थे कि दोबारा चुनाव होने/कराने की घोषणा ने उनके घावों को कुरेद कर फिर से ताजा कर दिया है । प्रकाश शर्मा और उनके नजदीकियों को यह डर सता रहा है कि चेयरमैन पद के लिए दोबारा होने वाले चुनाव में रोहित रुवाटिया अग्रवाल यदि नहीं जीते, तो जयपुर और राजस्थान में लोग इसके लिए प्रकाश शर्मा को ही जिम्मेदार ठहरायेंगे और इसका खामियाजा उन्हें अगले चुनाव में भुगतना पड़ सकता है ।
सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन पद के लिए दोबारा होने वाले चुनाव का नतीजा क्या होगा, इसका जबाव तो जल्दी ही मिल जायेगा - लेकिन दोबारा चुनाव होने की स्थिति ने मुकेश कुशवाह की बेईमानीपूर्ण कारस्तानी पर जो मोहर लगाई है और प्रकाश शर्मा के लिए जो मुसीबत खड़ी की है, उसने सेंट्रल रीजन में एक दिलचस्प नजारा खड़ा किया है ।

Wednesday, March 15, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 में पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को सुशील गुप्ता की चेतावनी के चलते डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए मजबूत समझे/देखे जा रहे उम्मीदवारों को लगे झटके से फायदा अनूप मित्तल को मिलता दिख रहा है

नई दिल्ली । सुशील गुप्ता द्धारा कुछेक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को चुनावी राजनीति में दिलचस्पी लेने के लिए लगाई फटकार ने संजीव राय मेहरा तथा रवि दयाल की मुसीबत बढ़ाने का काम किया, तो उनकी इस मुसीबत में अनूप मित्तल को अपनी दाल गलाने का मौका मिल गया । उल्लेखनीय है कि पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता को जब यह पता चला कि कुछेक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स अपने अपने उम्मीदवारों को समर्थन दिलवाने के लिए सक्रिय हैं, तो वह बुरी तरह नाराज हुए और उन्होंने उन पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स से अपनी नाराजगी व्यक्त की; सुशील गुप्ता का कहना रहा कि राजनीतिक खेमेबाजी के कारण रोटरी इंटरनेशनल के बड़े पदाधिकारियों के बीच डिस्ट्रिक्ट 3011 की पहले से ही बहुत बदनामी है, और निवर्तमान इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रविंद्रन पता नहीं किस 'दुश्मनी' के चलते डिस्ट्रिक्ट पर निगाह लगाए हुए हैं, इसलिए पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स का डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी लेना डिस्ट्रिक्ट के लिए भी और खुद उनके लिए भी आत्मघाती साबित हो सकता है । सुशील गुप्ता की चेतावनी रही कि जिन पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के बारे में प्रतिकूल रिपोर्ट्स 'ऊपर' गईं, उन्हें रोटरी इंटरनेशनल के असाइनमेंट्स मिलना मुश्किल हो जायेंगे । काउंसिल ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग में भी सुशील गुप्ता ने अपनी इस चेतावनी को दोहराया । सुशील गुप्ता की इस चेतावनी का असर होता हुआ दिखा भी, और जो पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स 'छिप-छिपा' कर भी इस या उस उम्मीदवार के समर्थन में कुछ करने के लिए सक्रिय होते देखे/सुने जा रहे थे, वह पीछे हटते देखे/सुने गए ।
इस स्थिति ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के दो उम्मीदवारों - संजीव राय मेहरा तथा रवि दयाल पर बहुत ही बुरा असर डाला है । संजीव राय मेहरा तो पूरी तरह दो-तीन पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स पर निर्भर हैं, जिनके पीछे हटने से संजीव राय मेहरा का पूरा अभियान ही ठहर-सा गया है । रवि दयाल ने उम्मीदवार के रूप में अपनी तरफ से यूँ तो काफी मेहनत की है, किंतु उनकी मेहनत को स्वीकार्यता पाने के लिए पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के समर्थन की दरकार है । दरअसल पिछले रोटरी वर्ष में चुनावी मुकाबले में पिछड़ जाने पर उन्होंने जिस तरह से कई पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स पर धोखाधड़ी करने का आरोप लगा कर उन्हें निशाना बनाया था, उसके कारण पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स उनके खिलाफ रहे हैं । रवि दयाल के सामने पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की इस खिलाफत और नाराजगी को दूर करने की गंभीर चुनौती है । सभी पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की नाराजगी दूर करने की बजाए रवि दयाल की तरफ से आसान रास्ता यह निकाला गया कि उनके पक्के वाले समर्थक समझे जाने वाले दो-तीन पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स उनकी उम्मीदवारी के समर्थन में सक्रिय होंगे, तो उनके प्रति नाराजगी और खिलाफत वाला परसेप्शन खत्म हो जायेगा और उनकी उम्मीदवारी के प्रति स्वीकार्यता का भाव पैदा होगा । किंतु सुशील गुप्ता की चेतावनी के चलते सब गुड़ गोबर हो गया लगता है ।
संजीव राय मेहरा और रवि दयाल की इस मुसीबत में अनूप मित्तल को अपनी दाल गलाने का मौका मिल गया । यूँ तो अनूप मित्तल की उम्मीदवारी को भी सात-आठ पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स का सहयोग और समर्थन मिल रहा है, लेकिन वह पूरी तरह उन्हीं के समर्थन के भरोसे नहीं हैं । अनूप मित्तल की तरफ से होशियारी यह की गई कि समर्थक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स से उन्हें जो फायदा हो सकता है, वह फायदा उनका नाम लेकर लेने का प्रयास अनूप मित्तल ने खुद किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि उनके समर्थक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स कहीं सीन में भी नहीं आए - और इस कारण वह बदनामी से तथा सुशील गुप्ता की फटकार खाने से भी बचे और उन्होंने काम भी 'कर लिया' । पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स से मिले सहयोग और समर्थन को अपनी सक्रियता तथा अपने प्रबंधन से अनूप मित्तल ने जिस तरह संयोजित किया, उसी का नतीजा रहा कि फरीदाबाद और रोहतक में जो प्रमुख होली मिलन कार्यक्रम हुए, उनमें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों में एक अकेले अनूप मित्तल ही आमंत्रित किए गए । दिल्ली में तीन-चार बड़े और प्रमुख क्लब्स ने सदगुरु का जो कार्यक्रम आयोजित किया, उसमें भी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों में एक अकेले अनूप मित्तल ही आमंत्रित हुए और पहुँचे ।
फरीदाबाद, रोहतक और दिल्ली के बड़े व प्रमुख क्लब्स के आयोजनों में जिस तरह से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों में एक अकेले अनूप मित्तल को ही उपस्थित देखा/पाया गया - और यह जाना गया कि इन आयोजनों में आमंत्रित ही एक अकेले उन्हीं को किया गया है; उससे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में अनूप मित्तल की उम्मीदवारी का महत्त्व बढ़ गया । इसके अलावा, एक बड़ा काम यह और हुआ कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के दूसरे उम्मीदवारों - खासकर संजीव राय मेहरा, रवि दयाल और सुरेश भसीन ने जिस तरह फरीदाबाद व रोहतक के वोटरों पर निर्भरता दिखाई, उससे दिल्ली में इनके प्रति विरोध का भाव बना - और इसका फायदा अनूप मित्तल को मिलता नजर आ रहा है । दिल्ली के छह/सात प्रमुख क्लब्स ने पिछले दिनों एक मीटिंग की, जिसमें करीब 25/26 क्लब्स के प्रेसीडेंट्स उपस्थित हुए - जिसमें इस बात पर नाराजगी व्यक्त की गई कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवार समझने लगे हैं कि वह फरीदाबाद व रोहतक के वोटों से ही गवर्नर चुन लिए जायेंगे और इस तरह वह दिल्ली के क्लब्स की ताकत को कम करके देखते हैं । इस मीटिंग में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों में एक अकेले अनूप मित्तल को ही आमंत्रित किया गया था । इससे अनुमान लगाया गया है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों द्धारा अपनी उपेक्षा को लेकर दिल्ली के क्लब्स के प्रेसीडेंट्स के बीच जो नाराजगी है, वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में अनूप मित्तल की उम्मीदवारी के लिए जैसे वरदान का काम कर रही है ।
डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में हाल-फिलहाल के दिनों में जो घटना-चक्र रहा है, और कुछेक घटनाओं के कारण जिस तरह पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता को पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के लिए चेतावनी घोषित करना पड़ी है, उसके कारण डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए मजबूत समझे/देखे जा रहे उम्मीदवारों को तगड़ा झटका लगा है - और इसका फायदा अनूप मित्तल को मिलता हुआ दिखा है । इस स्थिति ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनावी परिदृश्य को खासा दिलचस्प बना दिया है ।

Saturday, March 11, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 में संजीव राय मेहरा के चक्कर में विनय भाटिया की फरीदाबाद में हुई फजीहत अनूप मित्तल के लिए वरदान बन गई

फरीदाबाद । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी विनय भाटिया ने फरीदाबाद में संजीव राय मेहरा की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की मुहिम के बुरी तरह फेल हो जाने के लिए पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनोद बंसल को जिम्मेदार ठहरा कर डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में खासी गर्मी पैदा कर दी है । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के संदर्भ में फरीदाबाद के रोटेरियंस का नेता बनने और 'दिखने' की विनय भाटिया की कोशिश जिस तरह उन्हें ही उल्टी पड़ी है, और फरीदाबाद में वह जिस तरह अलग-थलग पड़े हैं - और अपनी इस फजीहत को छिपाने के लिए उन्होंने जिस तरह विनोद बंसल के पीछे छिपने की कोशिश की है, उससे मामला दिलचस्प भी हो उठा है । फरीदाबाद में विनोद बंसल के जो दूसरे नजदीकी हैं, उनका साफ आरोप है कि विनय भाटिया ने अपने स्वार्थ में विनोद बंसल का नाम इस्तेमाल करते हुए उनका नाम और खराब करने की कोशिश की है । उल्लेखनीय है कि विनोद बंसल ने इस वर्ष अपने आप को डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति से दूर रखा हुआ है - इतना दूर कि उन्होंने सीओएल के लिए अपनी उम्मीदवारी को सफल बनाने के लिए कोई हाथ-पैर नहीं मारे । ऐसे में, लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हुआ कि जिन विनोद बंसल ने अपनी खुद की उम्मीदवारी हेतु समर्थन जुटाने के लिए 'राजनीति' नहीं की, वह विनोद बंसल किसी दूसरे के लिए राजनीति भला क्यों करेंगे ? लोगों की इसी समझ के चलते विनय भाटिया का झूठ आसानी से पकड़ा गया ।
विनय भाटिया की फजीहत लेकिन अनूप मित्तल के लिए वरदान बन गई । फरीदाबाद के लोगों ने अपने आप को विनय भाटिया की मुहिम से अलग और दूर दिखाने की कोशिश में जो मीटिंग की, उसमें उन्होंने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों में एक अकेले अनूप मित्तल को आमंत्रित किया । इस 'घटना' से सुरेश भसीन और रवि दयाल को तगड़ा झटका लगा । यह दोनों फरीदाबाद में कुछ कुछ समर्थन मिलने की उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन विनय भाटिया से निपटने के चक्कर में फरीदाबाद के लोगों ने जो सक्रियता दिखाई - उसका फायदा उठाने में यह और फरीदाबाद के इनके समर्थक चूक गए, और तात्कालिक रूप से सारा फायदा अनूप मित्तल के हिस्से में आ गिरा । अनूप मित्तल के लिए सारा मामला 'विंडफॉल गेन' की तरह रहा ।
विनय भाटिया ने जिस अचानक तरीके से संजीव राय मेहरा की उम्मीदवारी का झंडा उठाया, उससे फरीदाबाद के लोगों को घोर आश्चर्य हुआ - किसी के लिए भी यह समझना मुश्किल हुआ कि फरीदाबाद में संजीव राय मेहरा के लिए जब कोई समर्थन ही नहीं है, तो विनय भाटिया ने क्या सोच कर उनकी उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया है । चर्चा चली कि संजीव राय मेहरा से चार्टर्ड एकाउंटेंसी से संबंधित प्रोफेशनल काम मिलने के लालच में विनय भाटिया ने उन्हें फरीदाबाद में समर्थन दिलवाने का सौदा कर लिया है । इस चर्चा से फरीदाबाद के लोगों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई; खासकर क्लब्स के अध्यक्षों के बीच इस बात पर नाराजगी पैदा हुई कि विनय भाटिया अपने निजी स्वार्थ में उनके नाम और उनके अधिकार की सौदेबाजी कैसे कर सकते हैं ? क्लब्स के अध्यक्षों की नाराजगी के चलते फरीदाबाद के जो नेता लोग हैं, वह भी सावधान हुए और उन्होंने संजीव राय मेहरा के पक्ष में शुरू किए जाने वाले विनय भाटिया के अभियान से खुद को दूर कर लिया । इस स्थिति ने विनय भाटिया को फरीदाबाद में बुरी तरह अलग-थलग कर दिया । अपनी इस स्थिति के लिए विनय भाटिया ने विनोद बंसल को जिम्मेदार ठहरा दिया । उनका आरोप रहा कि उन्हें इस मामले में विनोद बंसल से मदद मिलने की उम्मीद थी, लेकिन मौके पर विनोद बंसल पीछे हट गए और वह अकेले पड़ गए ।
विनोद बंसल को मामले में लपेटने के कारण विनय भाटिया और मुसीबत में फँस गए । फरीदाबाद में कई लोगों ने इस बात के लिए विनय भाटिया को कोसा कि अपनी हरकत को जस्टीफाई करने के लिए वह विनोद बंसल को मामले में नाहक ही घसीट रहे हैं । लोगों का कहना है कि विनय भाटिया ने जब अपने आप को फँसा हुआ और अकेला पाया तो उन्होंने विनोद बंसल से मदद की गुहार की । विनोद बंसल को तब तक अपने दूसरे नजदीकियों से पता चल चुका था कि संजीव राय मेहरा को समर्थन दिलवाने की विनय भाटिया की मुहीम पूरी तरह पिट चुकी है - इसलिए उन्होंने विनय भाटिया की गुहार को अनसुना करने में ही अपनी भलाई देखी । विनय भाटिया की हरकत से सावधान हुए फरीदाबाद के क्लब्स के अध्यक्षों ने यह स्पष्ट करने और संदेश देने की जरूरत समझी कि उनके वोट का फैसला कोई और नहीं - बल्कि वह स्वयं करेंगे ! यह स्पष्ट करने और संदेश देने के लिए उन्होंने एक मीटिंग की, जिसमें फरीदाबाद के 16 में से 14 क्लब्स के अध्यक्ष जुटे - इस मीटिंग में उन्होंने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों में से एक अकेले अनूप मित्तल को ही अपने बीच बुलाया । इस घटना ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के दूसरे उम्मीदवारों को बेचैन कर दिया है और डरा दिया है । उनकी चिंता यह सोच कर खासी बढ़ी है कि फरीदाबाद में अनूप मित्तल को यदि इतना बम्पर समर्थन है, तो फिर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में अनूप मित्तल के मुकाबले में वह कैसे टिकेंगे ?

Thursday, March 9, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 - यानि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट की कॉन्फ्रेंस में डिस्ट्रिक्ट ग्रांट के बारे में पूछे गए मोहिंदर पॉल गुप्ता के सवाल में रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट के जिक्र पर राजा साबू के भड़कने से प्रोजेक्ट की फंडिंग तथा उसके खर्च को लेकर लगने वाले आरोप और भी गंभीर हो उठे हैं

करनाल/चंडीगढ़ । करनाल में आयोजित हुई डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में पूछे गए एक सवाल में रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट का जिक्र सुन कर राजेंद्र उर्फ राजा साबू के गुस्से में आग-बबूला हो जाने के पीछे के रहस्य की पर्तें धीरे-धीरे खुल रही हैं - और जैसे जैसे सच्चाई लोगों के सामने आ रही है, राजा साबू का असली रूप लोगों के सामने प्रकट हो रहा है । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में जब रोटरी क्लब चंडीगढ़ सिटी ब्यूटीफुल के वरिष्ठ पूर्व अध्यक्ष मोहिंदर पॉल गुप्ता ने अपने एक सवाल में रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट का संदर्भ दिया, तो राजा साबू बुरी तरह बौखला गए थे और गुस्से से तमतमाते हुए वह अपनी सीट छोड़ कर हॉल के बीच आ गए थे और लोगों से सवाल करने लगे थे कि उन्हें रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट नहीं करना चाहिए क्या ? उनके इस व्यवहार और सवाल पर हॉल में मौजूद अधिकतर लोग तो हक्के-बक्के रह गए थे और उनके बीच जो जबाव मिला वह यही कि - जरूर करना चाहिए । रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट राजा साबू के क्लब का एक महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, और इसके पीछे की पूरी सोच सचमुच बहुत शानदार सोच है । इस प्रोजेक्ट से किसी को भी भला क्या ऐतराज हो सकता है ? मोहिंदर पॉल गुप्ता ने इस प्रोजेक्ट के होने या न होने को लेकर सवाल नहीं उठाया था; उनका सवाल तो डिस्ट्रिक्ट ग्रांट के दुरुपयोग को लेकर था, जिसमें संदर्भ के रूप में रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट की फंडिंग का जिक्र था - लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हुआ कि प्रोजेक्ट की फंडिंग के बारे में पूछे गए सवाल का सीधा-सीधा जबाव देने की बजाए, सवाल से राजा साबू इस कदर बौखला क्यों गए ? राजा साबू की बौखलाहट 'बता' रही थी जैसे कि मोहिंदर पॉल गुप्ता के उक्त सवाल ने राजा साबू को भरी सभा में 'रंगे हाथ' पकड़ लिया था - जिससे बचने के लिए राजा साबू को अपना गुस्सा दिखा कर अपने लिए सहानुभूति जुटाने का नाटक करना पड़ा ।
राजा साबू के इस नाटक में राजा-भक्ति दिखाते हुए पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेपीएस सिबिया ने भी अतिथि कलाकार की भूमिका निभाने की कोशिश की, किंतु राजा साबू ने उन्हें जब अपना मुँह बंद रखने की हिदायत दी तो फिर वह चुप लगा गए । जेपीएस सिबिया ने दरअसल सुझाव दिया कि रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट होने या न होने को लेकर उपस्थिति लोगों के बीच वोटिंग करा ली जाए । कुछ ही वर्ष पहले राजा साबू के हाथों से आउटस्टैंडिंग डिस्ट्रिक्ट चेयरमैन का अवॉर्ड ले चुके मोहिंदर पॉल गुप्ता ने कहा कि लोगों को पूरी बात बताई जाए और फिर वोटिंग करा ली जाए । मोहिंदर पॉल गुप्ता के तेवर देख कर राजा साबू ने मामले की नाजुकता को पहचाना और जेपीएस सिबिया को अपना मुँह बंद रखने को कहा । राजा-भक्ति में जेपीएस सिबिया ने जिस तत्परता के साथ अपना मुँह खोला था, राजा-झिड़की के बाद उसी तत्परता से उन्होंने फिर अपना मुँह बंद कर लिया - और वोटिंग की बात भी फिर गायब हो गई । राजा साबू ने भी मामले को जल्दी से समेट लिया - वह समझ रहे थे कि मामले में बात यदि आगे बढ़ी तो फिर उनकी सारी पोल पट्टी अभी यहीं खुल जायेगी । राजा साबू ने तो मामले को समेट लिया, किंतु लोगों के मन में यह सवाल बना ही रहा कि मोहिंदर पॉल गुप्ता के सवाल में आखिर ऐसा क्या था जिससे कि राजा साबू ने अपना आपा खो दिया और वह बुरी तरह बौखला गए ?
कॉन्फ्रेंस के बाद जिन लोगों ने इस बारे में सच्चाई समझने/जानने की कोशिश की, उन्हें यह जानकर गहरा धक्का लगा कि राजा साबू जैसे व्यक्ति ने सेवा कार्यों की आड़ में कैसे कैसे कारनामे किये हुए हैं, और जैसे ही उनके कारनामे सामने आने को हुए वह अपने गुस्से को दिखाते हुए लोगों को भावनात्मक रूप से भड़काने का प्रयास करने लगे । मोहिंदर पॉल गुप्ता का सवाल वास्तव में डिस्ट्रिक्ट ग्रांट को लेकर था; उनका आरोप था कि डिस्ट्रिक्ट ग्रांट को कुछ ही क्लब मनमाने तरीके से इस्तेमाल करते हैं और उसे दिखा कर मैचिंग ग्रांट ले लेते हैं - जिसे ऐसे कामों में खर्च किया जाता है जो डिस्ट्रिक्ट की भौगोलिक सीमाओं से दूर-दराज होते हैं । मोहिंदर पॉल गुप्ता का कहना था कि इससे रोटरी की बुनियादी सोच का उल्लंघन होता है । इसी संदर्भ में उन्होंने राजा साबू के क्लब के रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट का जिक्र किया, जिस पर राजा साबू बुरी तरह भड़क गए । उनके भड़कने से लोगों का ध्यान रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट की फंडिंग संरचना पर गया तो इसमें चल रही धोखाधड़ी की पोल खुली । मजे की बात यह है कि रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट की फंडिंग को लेकर कई बार सवाल उठे हैं, लेकिन कभी भी लोगों को इसका जबाव नहीं मिला । जो तथ्य चर्चा में आया है, वह यह है कि राजा साबू पहले तो डिस्ट्रिक्ट ग्रांट से इस प्रोजेक्ट के लिए पैसे ले लेते हैं, फिर इस पैसे से मैचिंग ग्रांट का जुगाड़ करते हैं और फिर इस पैसे से समाज सेवा करते हुए अपनी फोटो खिंचवाते हैं । राजा साबू ने डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में लोगों से पूछा था कि उन्हें यह प्रोजेक्ट करना चाहिए कि नहीं करना चाहिए ? लोग अब उसका जबाव देते हुए कह रहे हैं कि राजा साबू को यह प्रोजेक्ट अवश्य करना चाहिए - किंतु अपने पैसे से करना चाहिए; डिस्ट्रिक्ट ग्रांट पर डिस्ट्रिक्ट के दूसरे क्लब्स का भी अधिकार हैं, उन्हें भी डिस्ट्रिक्ट ग्रांट इस्तेमाल करने का मौका मिलना चाहिए ।
रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट धोखाधड़ीभरी फंडिंग संरचना के कारण ही विवाद में नहीं है, बल्कि अपनी 'प्रकृति' के कारण भी संदिग्ध बना हुआ है । यह प्रोजेक्ट उस मशहूर कहावत/शिक्षा का मजाक बनाता है - जिसमें कहा गया है कि 'चैरिटी बिगिन्स एट होम' । मैं यदि अपने पड़ोसियों/नजदीकियों की मुश्किलों व परेशानियों की अनदेखी करके दूर-दराज के लोगों की मुश्किलों व परेशानियों को दूर करने की बात करता हूँ, तो वास्तव में मैं धूर्तता और पाखंड का परिचय दे रहा होता हूँ । रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट के जरिये राजा साबू अपना ऐसा ही परिचय दे रहे हैं । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि कुछ वर्ष पहले राजा साबू का क्लब चंडीगढ़ में गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल चलाया करता था, जिसमें कुछ हजार रुपए वार्षिक का खर्च आता था - लेकिन जिसे पैसों की कमी के कारण बंद कर दिया गया । चंडीगढ़ में गरीब बच्चों के लिए स्कूल को चलाते रहने में राजा साबू ने कोई दिलचस्पी नहीं ली, इसीलिए अफ्रीका के बच्चों के लिए उनकी दिलचस्पी सवालों के घेरे है । लोगों को लगता है कि राजा साबू दिखावे के लिए लिए सेवा करते हैं - और इसलिए ही वहीं सेवा करते हैं जहाँ बड़ा दिखावा किया जा सकने की संभावना बनती है । अब चंडीगढ़ में गरीब बच्चों का स्कूल चलाने में तो कोई 'फायदा' नहीं है, इसलिए उसे बंद कर देने में ही अक्लमंदी है; लेकिन अफ्रीकी देशों में बच्चों का ईलाज कराने में फायदा ही फायदा है - लोगों के बीच आरोपपूर्ण चर्चा है कि रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट के नाम पर अफ्रीकी देशों में जाकर राजा साबू अपने बिजनेस के लिए संभावनाएँ जुगाड़ने का काम करते हैं । किसी की भी समझ में यह बात नहीं आती है कि अफ्रीकी देशों में बच्चों का ईलाज करने के लिए जाने वाली डॉक्टर्स की टीम में राजा साबू क्यों और क्या करने जाते हैं ?
रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट की फंडिंग संरचना तथा उसके खर्च का हिसाब-किताब देने में राजा साबू जिस तरह से बचने की कोशिश करते हैं, उससे अफ्रीकी बच्चों के ईलाज के नाम पर चलने वाले इस प्रोजेक्ट में पैसों की हेराफेरी के आरोपों को भी बल मिला है । लोगों का कहना है कि इस तरह के आरोपों की चर्चा को रोकने का सबसे अच्छा और आसान तरीका है कि राजा साबू फंडिंग और खर्च का सारा ब्यौरा सार्वजनिक कर दें - इससे आरोप लगाने वालों का मुँह अपने आप बंद हो जायेगा । डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में डिस्ट्रिक्ट ग्रांट के बारे में पूछे जाने वाले मोहिंदर पॉल गुप्ता के सवाल में रीचआउट टू अफ्रीका प्रोजेक्ट का जिक्र आने से राजा साबू जिस तरह भड़के, उससे उक्त आरोप और भी गंभीर हो उठे हैं ।

Tuesday, March 7, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 - यानि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में राजा साबू और उनके गिरोह के समर्पण के बाद, डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमन अनेजा ने जितेंद्र ढींगरा को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी डेजिग्नेटिड घोषित किया

पानीपत । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमन अनेजा ने जितेंद्र ढींगरा को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी डेजिग्नेटिड घोषित करके राजेंद्र उर्फ राजा साबू गिरोह के कई नेताओं और सदस्यों को बुरी तरह निराश किया है । निराश होने वाले इन नेताओं और सदस्यों को उम्मीद थी कि जिस तरह से दो वर्ष पहले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी डेजिग्नेटिड चुने जाने वाले टीके रूबी के लिए बखेड़ा खड़ा किया गया था, उसी तरह इस बार जितेंद्र ढींगरा को भी लपेटा जायेगा । गिरोह के दो नेताओं - मधुकर मल्होत्रा और प्रमोद विज ने तो लोगों के बीच घोषणा भी की थी कि वह किसी भी कीमत पर जितेंद्र ढींगरा को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की कुर्सी तक नहीं बढ़ने देंगे । मधुकर मल्होत्रा ने तर्क भी दिया था कि टीके रूबी के साथ जो हुआ, वह वास्तव में जितेंद्र ढींगरा के साथ 'लड़ाई' के चलते हुआ; उनके अनुसार, लड़ाई टीके रूबी से नहीं बल्कि जितेंद्र ढींगरा से थी - टीके रूबी तो घुन के रूप में पिसे । मधुकर मल्होत्रा और प्रमोद विज के तेवरों के चलते लोगों को यह देखने का इंतजार था कि जितेंद्र ढींगरा से निपटने के लिए राजा साबू गिरोह के लोग क्या हथकंडा अपनाते हैं । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमन अनेजा की घोषणा ने लेकिन तमाशा होने के इंतजार को खत्म कर दिया और जितेंद्र ढींगरा से 'लड़ने' की घोषणा करने वाले मधुकर मल्होत्रा व प्रमोद विज जैसे 'वीरों' को चुप रह जाने के लिए मजबूर होना पड़ा ।
मधुकर मल्होत्रा और प्रमोद विज के नजदीकियों के अनुसार, राजा साबू ने कुछ न करने की सख्त हिदायत दी थी, जिस कारण इन्हें न चाहते हुए भी चुप रहने के लिए मजबूर होना पड़ा । दरअसल टीके रूबी के मामले में राजा साबू को जिस फजीहत का सामना करना पड़ा और उनकी 'महानता' का छप्पर जिस तरह तिनका तिनका बिखर गया, उसके कारण राजा साबू की फिर से एक नई लड़ाई छेड़ देने की हिम्मत हुई नहीं । टीके रूबी के मामले में उल्लेखनीय है कि राजा साबू और उनके गिरोह के लोग टीके रूबी को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनने से रोकने में तो कामयाब रहे, लेकिन इसके ऐवज में राजा साबू को बड़ी भारी 'कीमत' चुकानी पड़ी है । इस बात को मधुकर मल्होत्रा और प्रमोद विज जैसे लोग नहीं समझ पायेंगे - वास्तव में इन्होंने तो कुछ खोया नहीं; ये ऐसे लोग हैं जो 'बदनामी' को भी उपलब्धि मानते हैं - बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हुआ । किंतु टीके रूबी से निपटने के चक्कर में राजा साबू की तो जीवन भर की सारी 'कमाई' लुट गई । राजा साबू ने बड़ी मेहनत से रोटरी में अपना एक आभामंडल बनाया था - जिसमें उनके प्रति सम्मान भी था, और उनका डर भी था । अधिकतर लोग उनके प्रति सम्मान का भाव ही रखते थे, और जो नहीं रखते थे - वह उनसे डरते थे, और डर के चलते चुप रहते थे । लेकिन टीके रूबी से निपटने के चक्कर में उन्होंने अपनी ऐसी भद्द पिटवाई कि रोटरी में उन्होंने सम्मान भी खोया और लोगों ने उनसे डरना भी बंद कर दिया ।
टीके रूबी से पहले, डिस्ट्रिक्ट में हालत यह थी कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के जिन भी उम्मीदवारों को राजा साबू का नाम लेकर कह दिया जाता था कि राजा साबू अभी तुम्हें गवर्नर के रूप में देखने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वह उम्मीदवार बेचारे घर बैठ जाते थे । पहली बार टीके रूबी ने राजा साबू के 'फतबे' को चुनौती दी, तो राजा साबू अपने पूरे दल-बल के साथ उन पर पिल पड़े । इस लड़ाई के नतीजे को लेकर राजा साबू खुद कंफ्यूज हुए कि नतीजे को वह अपनी जीत के रूप में देखें या अपनी तबाही भरी हार के रूप में देखें । टीके रूबी से निपटने के चक्कर में राजा साबू की तरफ से जो और जैसी हरकतें हुईं, उनके कारण पूरे रोटरी समाज में उनकी जमकर थू थू हुई; उनकी हरकतों के बारे में लोगों ने चटखारे ले ले कर बातें कीं - हर किसी का कहना रहा कि राजा साबू का असली चेहरा देख कर वह मायूस हुए हैं, और वह सोच भी नहीं सकते थे कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट के पद पर रह चुका व्यक्ति इस तरह की हरकतें करेगा, या अपने डिस्ट्रिक्ट में होने देगा । राजा साबू की सबसे ज्यादा बुरी दशा तो उनके अपने डिस्ट्रिक्ट में हुई - जहाँ दो वर्ष पहले तक उनके कहे हुए शब्द 'वेद-वाक्य' की तरह लिए जाते थे और उनसे कोई सवाल करने की हिम्मत नहीं कर पाता था, वहाँ अब हालत यह हो गई कि उनसे जुड़े मामलों में लोग न सिर्फ उनसे सवाल करने लगे, बल्कि उनके जबाव से संतुष्ट न होने पर प्रतिसवाल तक करने लगे । आयोजनों में लोगों को अपनी उपेक्षा करते देख उन्हें तगड़ा झटका लगा, और उन्हें खुद लोगों के पास जाकर पूछना पड़ा कि 'तुम मुझे इग्नोर तो नहीं कर रहे हो न ?'
राजा साबू के निकटवर्तियों को उम्मीद तो हालाँकि नहीं थी कि टीके रूबी के चक्कर में राजा साबू को जो चौतरफा फजीहत झेलना पड़ी है, उससे राजा साबू कोई सबक लेंगे - लेकिन जितेंद्र ढींगरा के मामले में राजा साबू की तरफ से जिस तरह का समर्पण हुआ है, उसे देखते हुए लोगों को लगा है कि राजा साबू ने अपने नुकसान की भरपाई करने के बारे में सोचना शुरू कर दिया है । दरअसल राजा साबू को यह देखकर भी खासा तगड़ा झटका लगा कि उनके और उनके 'सैनिकों' के विरोध के बावजूद जितेंद्र ढींगरा को नोमीनेटिंग कमेटी में एकतरफा समर्थन मिला और नौ में से आठ सदस्यों के पहली वरीयता के वोट पाकर जितेंद्र ढींगरा अधिकृत उम्मीदवार चुने गए । इस नतीजे से राजा साबू ने भाँप लिया कि डिस्ट्रिक्ट में हवा पूरी तरह उनके खिलाफ है । डिस्ट्रिक्ट में लोगों को लगता है कि इस नजारे को देख कर भी राजा साबू ने समझ लिया होगा कि अभी जितेंद्र ढींगरा और नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले से पंगा लेना उचित नहीं होगा और इस फैसले के सामने समर्पण करने में ही भलाई है । राजा साबू के बारे में रोटरी में हालाँकि (कु)ख्यात है कि वह अपने विरोधियों को भूलते नहीं हैं और जब जैसे जहाँ मौका मिलता है, उनसे बदला लेने का पूरा पूरा प्रयास करते हैं । इसलिए लोगों को लगता है कि राजा साबू ने अभी भले ही जितेंद्र ढींगरा की जीत के सामने समर्पण कर दिया हो, लेकिन मौका मिलने पर वह जितेंद्र ढींगरा के सामने अवश्य ही मुश्किलें खड़ी करेंगे । वह सब जब होगा, तब देखा जायेगा - अभी लेकिन जितेंद्र ढींगरा को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी डेजिग्नेटिड घोषित करने की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमन अनेजा की घोषणा पर डिस्ट्रिक्ट के लोगों ने राहत की साँस लेते हुए खुशी जाहिर की है ।

Monday, March 6, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स का समर्थन पाने के मामले में संजीव राय मेहरा तथा अनूप मित्तल को मिलती दिख रही असफलता रवि दयाल के लिए सुनहरा अवसर बन कर आई है

नई दिल्ली । रवि दयाल ने नाराज पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की नाराजगी को दूर करने के लिए जो प्रयास किए हैं, वह कुछ कुछ सफल होते दिखने से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संदर्भ में रवि दयाल के समर्थकों और शुभचिंतकों का हौंसला काफी बढ़ा है । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कुछेक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स - जो अभी कुछ दिन पहले तक रवि दयाल को चुनावी मुकाबले में नहीं देख/पा रहे थे, अब जिस तरह से उनकी वकालत-सी करते सुने जा रहे है - उससे लग रहा है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी लड़ाई में रवि दयाल के 'भाव' अचानक से बढ़ गए हैं । इन पँक्तियों के लेखक से बात करते हुए एक पूर्व गवर्नर का कहना रहा कि रवि दयाल को संजीव राय मेहरा और अनूप मित्तल से तगड़ी चुनौती मिलती हुई दिख रही थी, लेकिन संजीव राय मेहरा के पूरी तरह फेल रहने और अनूप मित्तल के तेजी पकड़ने के बाद सुस्त पड़ने से रवि दयाल के लिए उक्त चुनौती उतनी तगड़ी नहीं बची है - जितनी कि वह पहले दिखाई दे रही थी । इस बीच रवि दयाल की सक्रियता में भी तेजी आई है और उनकी पत्नी ज्योत्स्ना दयाल ने भी मोर्चा संभाला है - तो लोगों को अचानक से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में रवि दयाल के लिए स्थितियाँ अनुकूल बनती नजर आईं हैं ।
डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए इस बार यूँ तो छह उम्मीदवार मैदान में हैं, लेकिन मुकाबले में रवि दयाल, संजीव राय मेहरा और अनूप मित्तल को ही देखा/पहचाना जा रहा है । अनूप मित्तल ने हालाँकि देर से अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की, लेकिन अपनी जोरदार सक्रियता से वह जल्दी ही प्रमुख मुकाबलेबाजों में देखे जाने लगे । रवि दयाल ने पिछले वर्ष पराजय का शिकार होने के बाद जिस तरह से पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स पर धोखेबाजी करने के आरोप लगाए थे, उसके कारण पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर उनसे खफा थे और माना जा रहा था कि पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स उनकी राह में रोड़े अटकाने का काम तो जरूर ही करेंगे । संजीव राय मेहरा और अनूप मित्तल को उम्मीद थी कि रवि दयाल के प्रति पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की यह नाराजगी उनके लिए फायदे का कारण बनेगी - और उन्होंने इसके लिए भरसक प्रयास भी किया । लेकिन लगता है कि उनकी दाल गली नहीं है । संजीव राय मेहरा तो अपने ढीले-ढाले रवैये से पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को इंप्रेस नहीं कर पाए, और अनूप मित्तल की ताबड़तोड़ तेजी ने लगता है कि पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के ईगो को हर्ट किया है । पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के समर्थन के मामले में इन दोनों को मिलती दिख रही असफलता रवि दयाल के लिए सुनहरा अवसर बन कर आई है ।
संजीव राय मेहरा की उम्मीदवारी के प्रति पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स का झुकाव शुरू में दिखा भी था, लेकिन उन्होंने जब देखा कि संजीव राय मेहरा पूरी तरह उन्हीं पर निर्भर हैं और खुद ज्यादा कुछ करने को तैयार नहीं हैं - और इस कारण लोगों के बीच उनकी कोई स्वीकार्यता बन ही नहीं रही है, तब फिर पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स उनकी उम्मीदवारी से पीछे हटने लगे । इस स्थिति का फायदा उठाने के लिए अनूप मित्तल ने कमर कसी, लेकिन परिस्थितियों ने उन पर कुछ ऐसा शिकंजा कसा - जिसका कि वह मुकाबला नहीं कर सके । अनूप मित्तल दरअसल बहुत 'महीन' तरीके से इस जाल में फँसे कि उन्हें निवर्तमान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुधीर मंगला के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना गया । यह जाल इतना महीन था कि अनूप मित्तल इसमें फँसने के खतरे को समझ/पहचान ही नहीं पाए । सुधीर मंगला की पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के बीच जैसी जो 'पहचान' है, उसके कारण अनूप मित्तल पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के बीच अछूत बन गए । दूसरी बड़ी प्रतिकूल परिस्थिति अनूप मित्तल ने खुद बना ली - कहीं उन्होंने कह दिया कि वह यदि इस बार के चुनाव में सफल नहीं हुए तो अगले रोटरी वर्ष में उम्मीदवार बनेंगे । उनकी इस घोषणा के कारण उन्हें अगले रोटरी वर्ष के उम्मीदवार के रूप में देखा जाने लगा । कुछेक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स ने तो उन्हें सलाह भी दे डाली कि अगले रोटरी वर्ष के लिए कोई गंभीर उम्मीदवार नहीं दिख रहा है, इसलिए उन्हें अगले रोटरी वर्ष में ही उम्मीदवार होना चाहिए । इस तरह की बातों ने तेजी से आगे बढ़ते अनूप मित्तल के कदमों की रफ्तार को कम कर दिया । संजीव राय मेहरा और अनूप मित्तल की इस दशा ने रवि दयाल को चुनावी मुकाबले में वापस लाने का काम किया है ।
रवि दयाल अनुकूल परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए मुकाबले में वापस लौटते हुए भले ही दिख रहे हों, लेकिन उनके ही समर्थकों व शुभचिंतकों के अनुसार - उनके लिए हालात अभी भी पूरी तरह आसान और सुरक्षित नहीं हैं । असल में, पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की बातों और बातों में व्यक्त किये जाने वाले समर्थन से माहौल तो बनता है - किंतु उससे वोट मिलने जरूरी नहीं हैं । वोट पाने के लिए एक अलग तरह के 'मैनेजमेंट' की जरूरत होती है । इस बार के चुनाव में एक तो उम्मीदवार ज्यादा हैं, और दूसरे किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में एकतरफा माहौल नहीं बन सका है - इस कारण डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने तथा उसे प्रभावित करने वाले नेता लोग असमंजस में हैं । इस असमंजसता के चलते नेता लोग स्टैंड नहीं ले पा रहे हैं और इस कारण मतदाता तबके को बँटा हुआ देखा/पाया जा रहा है । ऐसे में उम्मीदवारों के लिए जीतने लायक वोटों को प्राप्त करना एक बड़ी चुनौती है । जैसे जैसे चुनाव के दिन नजदीक आ रहे हैं, उम्मीदवारों के लिए यह चुनौती और गंभीर होती जा रही है ।

Sunday, March 5, 2017

लायंस इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन में लायन लीडर के रूप में मुकेश गोयल की सक्रियता व उपलब्धियों को देखते हुए फ्रांस की प्रतिष्ठित सोर्बोन यूनिवर्सिटी ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस किया

नई दिल्ली । नई दिल्ली के पार्क होटल में आयोजित एक कार्यक्रम में कुछेक राजदूतों और देश भर से आए विभिन्न पेशों से जुड़े प्रबुद्ध लोगों की उपस्थिति में फ्रांस की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी - सोर्बोन यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट डॉक्टर जॉन थॉमस ने जब लायंस इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन के पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर मुकेश गोयल को डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया, तो लायंस इंटरनेशनल के गौरवशाली सौ वर्षों के इतिहास में एक नया अध्याय और जुड़ा । मुकेश गोयल पहले और अकेले पूर्व गवर्नर हैं, जिन्हें फ्रांस ही नहीं बल्कि विश्व की उक्त प्रमुख यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट की उपाधि के लिए चुना । यह यूनिवर्सिटी प्रत्येक वर्ष दुनिया के विभिन्न देशों में जनहित के कामों में लीडरशिप क्वालिटी के साथ निर्णायक व महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली विभूतियों की पहचान करती है, और उन्हें सम्मानित करती है । नई दिल्ली के पार्क होटल में आयोजित कार्यक्रम में भारत के विभिन्न शहरों से चुने गए 43 लोगों को सम्मानित किया गया । इस कार्यक्रम में तथा इससे पहले के कार्यक्रमों में सम्मानित होने वाले लोगों में लायंस इंटरनेशनल के पदाधिकारियों में अकेले मुकेश गोयल का नाम है । यह तथ्य मुकेश गोयल के लिए तो खास और गर्व करने योग्य होगा ही, डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन के लिए और लायंस इंटरनेशनल के लिए भी खास व गर्व करने योग्य है ।
सोर्बोन यूनिवर्सिटी फ्रांस की ही नहीं, बल्कि दुनिया की एक ऐसी बड़ी और बर्ल्ड-क्लास यूनिवर्सिटी है, जिसमें शिक्षा और ज्ञान की प्रत्येक धारा में उच्चस्तरीय पढ़ाई होने के साथ साथ शोध कार्यों को प्रोत्साहित किया जाता है । विज्ञान, मेडिसिन, इंजीनियरिंग, मानविकी, सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र, कानून, मास मीडिया आदि विषयों में प्रतिभाओं को सामने लाने का तथा अपने अपने क्षेत्रों में उन्हें और योग्यता हासिल करने के लिए प्रोत्साहित करने का विलक्षण काम इस यूनिवर्सिटी ने किया है । यूनिवर्सिटी में 20 डिपार्टमेंट हैं, और इसके पेरिस में ही 12 कैम्पस हैं । उच्च शिक्षा में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए यहाँ हर तरह की एकेडमिक व व्यवस्था संबंधी सुविधा है, और यही कारण है कि इस यूनिवर्सिटी ने दुनिया के तमाम देशों की युवा प्रतिभाओं को अपनी ओर आकर्षित किया है । सोर्बोन यूनिवर्सिटी का एक अनोखा कार्यक्रम विभिन्न देशों में अलग अलग क्षेत्रों में ऐसे कामयाब लोगों की पहचान करना तथा उन्हें सम्मानित करना है, जिन्होंने अपने अपने क्षेत्रों में सफलता तो पाई ही है - साथ ही साथ अपने अपने काम को निरंतरता के साथ लीडरशिप का आयाम भी दिया है, और दूसरे लोगों को भी प्रेरित व प्रोत्साहित किया है ।
सोर्बोन यूनिवर्सिटी की टीम ने मुकेश गोयल को सामाजिक क्षेत्र में अपनी लीडरशिप की निरंतरता को बनाए रखने का ऐतिहासिक काम करने के लिए पहचाना और दिल्ली में आयोजित कन्वोकेशन में उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा । जैसा कि इसी रिपोर्ट में पहले बताया जा चुका है कि मुकेश गोयल लायंस इंटरनेशनल के पहले और अकेले पदाधिकारी हैं, जिन्हें इस उपाधि के लिए चुना गया है । इस तथ्य को यहाँ फिर से दोहराने का उद्देश्य इस तथ्य को वास्तविक व संपूर्ण फलक पर देखना है, जो यह है कि हजारों पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स - जिनमें कई इंटरनेशनल डायरेक्टर्स व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट्स भी बने - के बीच सोर्बोन यूनिवर्सिटी ने मुकेश गोयल को डॉक्टरेट उपाधि के लिए चुना । सोर्बोन यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट जॉन थॉमस ने खुद से मुकेश गोयल को उपाधि से नवाजते हुए कहा कि मुकेश गोयल के जीवन संघर्ष तथा एक लायन लीडर के रूप में उनकी सक्रियता व जीवटता तथा उनकी उपलब्धियों ने उन्हें आकर्षित और प्रेरित किया है । उन्होंने कहा कि विलक्षण व्यक्तित्व के मुकेश गोयल को डॉक्टरेट की उपाधि के लिए चुनते हुए सोर्बोन यूनिवर्सिटी खुद को गौरवान्वित महसूस करती है ।
लायन लीडर के रूप में मुकेश गोयल की उपलब्धियों ने फ्रांस की ही नहीं, बल्कि दुनिया की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के पदाधिकारियों का ध्यान खींचा है, तो यह लायन लीडर के रूप में मुकेश गोयल की उपलब्धियों की एक बड़ी स्वीकार्यता की सच्चाई को सामने लाता है । लायन लीडर के रूप में मुकेश गोयल की संगठनात्मक सफलता का मुकाबला शायद ही कोई दूसरा लायन लीडर कर पाए । डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन में जिसे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनना होता है, उसके लिए मुकेश गोयल का आशीर्वाद और समर्थन लेना जरूरी होता है । जिन कुछेक लोगों ने मुकेश गोयल की छाया में आए बिना गवर्नर बनने की कोशिश की भी, उन्हें भी ठोकर खाने के बाद अंततः मुकेश गोयल की शरण में आने के लिए मजबूर होना ही पड़ा । मौजूदा डिस्ट्रिक्ट गवर्नर शिव कुमार चौधरी आज भले ही मुकेश गोयल के साथ बदतमीजी से पेश आ रहे हों, लेकिन गवर्नर बनने के लिए उन्हें भी मुकेश गोयल की खुशामद करना पड़ी थी । शिव कुमार चौधरी ने पहली बार सुनील निगम के खिलाफ चुनाव लड़ा था, और बुरी तरह हारे थे । सुनील निगम खुद भी तीसरी/चौथी (या पाँचवी ?) बार में गवर्नर बने थे; शिव कुमार चौधरी जब उनसे भी चुनाव हार गए - और बुरी तरह हार गए, तब उन्होंने समझ लिया कि मुकेश गोयल की शरण में गए बिना तो वह जीवन में गवर्नर नहीं बन पायेंगे । और तब शिव कुमार चौधरी ने अपना रंग बदला और मुकेश गोयल का विरोध छोड़ कर उनका समर्थन पाने के लिए उनकी खुशामद शुरू की - और मुकेश गोयल के समर्थन के बाद ही वह गवर्नर बन सके ।
मुकेश गोयल को डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में दो/एक बार हालाँकि हार का सामना भी करना पड़ा है - लेकिन उन इक्का/दुक्का पराजयों ने उन्हें और और मजबूत बनाने का काम ही किया है । एक मशहूर हिंदी फिल्म का डायलॉग है - हार कर जीतने वाले को ही बाजीगर कहते हैं । मुकेश गोयल ने लायन राजनीति में इस डायलॉग को चरितार्थ किया है । लायन राजनीति में सचमुच उन्हें बाजीगर के रूप में ही देखा/पहचाना जाता है । उनकी सफलता की कहानी इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उनकी सफलता से ईर्ष्या करने वाले उनके विरोधियों की संख्या भी कम नहीं है, जो हर समय और हर तिकड़म से उन्हें फेल करने के प्रयासों में लगे रहते हैं । इसलिए फ्रांस की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी सोर्बोन यूनिवर्सिटी से उन्हें मिली डॉक्टरेट की उपाधि उनके विरोधियों के लिए एक करारा तमाचा भी है ।

Friday, March 3, 2017

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की इंदौर ब्रांच को कब्ज़ाने की कोशिशों के चलते सेंट्रल काउंसिल सदस्य केमिशा सोनी की बढ़ती बदनामी ने विष्णु झावर व मनोज फडनिस को वापसी करने के लिए उत्साहित और सक्रिय किया

इंदौर । इंदौर ब्रांच के दूसरे वर्ष के पदाधिकारियों के चुनाव में एक्सऑफिसो सदस्य के रूप में इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल की सदस्य केमिशा सोनी ने जिस तरह की मनमानियाँ कीं, उससे उनके समर्थकों व शुभचिंतकों तक को तगड़ा झटका लगा है - और उनके लगे झटके ने इंस्टीट्यूट की इंदौर की राजनीति में उथल-पुथल मचने के संकेत दिए हैं । इस प्रसंग ने इंदौर में केमिशा सोनी की बदनामी में और इजाफा किया है । केमिशा सोनी की बढ़ती बदनामी और उनके समर्थकों व शुभचिंतकों के भी उनके खिलाफ होते जाने से विष्णु झावर उर्फ़ काका जी और मनोज फडनिस को इंदौर की राजनीति में अपनी खोई हुई जमीन वापस मिलने की उम्मीद होने लगी है, और उन्होंने इस बारे में अपने प्रयास भी तेज कर दिए हैं । उल्लेखनीय है कि पिछले चुनाव में केमिशा सोनी ने इन्हें कड़ी टक्कर दी थी, और इंदौर की राजनीति में इनके प्रभुत्व को धूल चटा दी थी; हालाँकि उस समय भी माना/समझा गया था कि विष्णु झावर और मनोज फडनिस को केमिशा सोनी ने नहीं, बल्कि उनकी खुद की चौधराहटभरी कार्रवाइयों ने हराया है । विष्णु झावर के 'आशीर्वाद' से नियंत्रित होने वाली इंस्टीट्यूट की इंदौर की राजनीति से लोग इतने त्रस्त हो गए थे कि पिछले चुनाव में उनके सेंट्रल काउंसिल व रीजनल काउंसिल के उम्मीदवारों को हार का शिकार होना पड़ा था । यह हार इसलिए और उल्लेखनीय बन गई थी क्योंकि मनोज फडनिस के इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट होने के बावजूद उन्हें यह हार मिली थी । उम्मीद की गई थी कि विष्णु झावर और मनोज फडनिस का हाल देखकर केमिशा सोनी सबक लेंगी और वह गलतियाँ नहीं करेंगी जो विष्णु झावर और मनोज फडनिस ने कीं - और जिनके कारण उन्हें फजीहत झेलना पड़ी ।
लेकिन लोगों ने पाया कि केमिशा सोनी तो उनकी भी 'गुरु' साबित हो रही हैं । पिछले एक वर्ष में इंदौर ब्रांच के कामकाज में उनका जैसा हस्तक्षेप रहा है, उससे लोगों को लगा है जैसे इंदौर ब्रांच को वह अपना निजी ऑफिस मान रही हैं और ब्रांच के पदाधिकारियों व सदस्यों को अपने ऑफिस के कर्मचारी के रूप में देख रही हैं । लोगों का कहना है कि उनका रवैया तो विष्णु झावर और मनोज फडनिस से भी बुरा है - यह लोग मनमानी और पक्षपात तो करते थे, लेकिन ऐसा करते हुए दूसरों को बेइज्जत नहीं करते थे; केमिशा सोनी विरोधियों को तो छोड़िये, अपने समर्थकों तक का लिहाज नहीं करतीं हैं और वह यदि उनकी बात मानते हुए नहीं दिखते हैं तो उन्हें भी बुरी तरह झिड़क देती हैं । इंदौर ब्रांच में पिछले वर्ष चेयरपर्सन रहीं गर्जना राठौर शुरू में केमिशा सोनी के समर्थकों में देखी/पहचानी जाती थीं, लेकिन केमिशा सोनी के निरंतर बने रहने वाले हस्तक्षेप व दबाव से वह इतनी परेशान हो उठीं कि कार्यकाल पूरा होते होते वह केमिशा सोनी के विरोधियों के नजदीक दिखाई देने लगीं । सबसे दिलचस्प मामला निलेश गुप्ता का है : रीजनल काउंसिल के सदस्य निलेश गुप्ता खेमेबाजी के संदर्भ में यूँ तो केमिशा सोनी वाले खेमे में 'होते' हैं, लेकिन कई मौकों पर उन्हें केमिशा सोनी के रवैये पर इर्रीटेट होते हुए देखा गया है । निलेश गुप्ता के नजदीकियों का कहना है कि सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल की राजनीति में निलेश गुप्ता चूँकि केमिशा सोनी की 'राजनीति' का समर्थन नहीं करते हैं, इसलिए इंदौर ब्रांच के मामलों में केमिशा सोनी उन्हें अक्सर हड़काती रहती हैं - इंदौर ब्रांच में राजनीतिक खेमेबाजी का जो तानाबाना है, उसके कारण निलेश गुप्ता चूँकि केमिशा सोनी के साथ रहने के लिए मजबूर हैं, इसलिए मनमसोस कर वह अपमानित होते रहते हैं ।
इंदौर ब्रांच के सदस्यों को ही नहीं, रीजनल काउंसिल के सदस्यों को भी अभी चार दिन पहले इंदौर ब्रांच के दूसरे वर्ष के पदाधिकारियों के चुनाव में केमिशा सोनी की मनमानियों का शिकार होना पड़ा । इस चुनाव में पहला झमेला तो चेयरमैन के चुनाव को लेकर हुआ - केमिशा सोनी ने इंस्टीट्यूट के नए बने नियम के हवाले से वाइस चेयरमैन को ही चेयरमैन बनाने के लिए दबाव बनाया; ब्रांच के बहुमत सदस्य लेकिन मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए चेयरमैन पद के लिए चुनाव कराने की माँग कर रहे थे - केमिशा सोनी ने लेकिन हाईकोर्ट के फैसले को मानने/अपनाने से इंकार कर दिया । केमिशा सोनी ने हाईकोर्ट के फैसले की ही अवमानना नहीं की, बल्कि इंस्टीट्यूट के उक्त नियम के उस प्रावधान की भी अवहेलना की जो ब्रांच के दो-तिहाई सदस्यों को अधिकार देता है कि वह यदि एकमत हों तो चेयरमैन पद के लिए चुनाव कर सकते हैं । इससे भी बड़ी बात यह कि एक्सऑफिसो सदस्य के रूप में केमिशा सोनी को ब्रांच के चुनाव को गवर्न करने का नैतिक अधिकार ही नहीं था - ब्रांच के पदाधिकारियों का चुनाव ब्रांच के सदस्यों को ही करने देना चाहिए था; लेकिन ब्रांच पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिए केमिशा सोनी ने न नैतिकता की परवाह की, न हाईकोर्ट के फैसले को स्वीकार किया और न इंस्टीट्यूट के नियम को ही माना । ऐसा करते हुए उन्होंने ब्रांच के सदस्यों और रीजनल काउंसिल सदस्यों को तरह तरह से हड़काया व अपमानित किया, सो अलग ।
चेयरमैन पद 'हथियाने' के बाद केमिशा सोनी ने बाकी पदों पर भी नजर गड़ाई और उन्हें कब्जाने के लिए भी चालें चलीं - कुछेक पदों पर लेकिन उन्हें मात भी खानी पड़ी; इस सारे नज़ारे को लोगों ने बहुत ही बुरे प्रसंग के रूप में देखा और रेखांकित किया है । केमिशा सोनी के रवैये से इंदौर ब्रांच में पहली बार यह हुआ कि एक्सऑफिसो सदस्यों ने ब्रांच के पदाधिकारियों के चुनाव में वोट डाले - और इस तरह ब्रांच के सदस्यों की हैसियत घटाने का काम हुआ । पहली बार अल्पमत का व्यक्ति चेयरमैन बना है । ब्रांचेज के संचालन में एक अलिखित 'नियम' है कि ब्रांच के पदाधिकारियों का चुनाव ब्रांच के सदस्यों को ही करना चाहिए तथा एक्सऑफिसो सदस्यों को उनके अभिभावक तथा उनके सलाहकार के रूप में ही रहना चाहिए । जो नेता लोग ब्रांचेज में अपना प्रभुत्व बनाना चाहते हैं और बना कर रखना चाहते हैं, वह भी और चाहें जो उठापटक करें - लेकिन इस 'लक्ष्मणरेखा' को पार करने से बचते हैं; केमिशा सोनी ने लेकिन इस 'लक्ष्मणरेखा' की मर्यादा की कोई परवाह नहीं की और इस तरह इंदौर ब्रांच के इतिहास में काला पन्ना जोड़ा ।
केमिशा सोनी की इस कार्रवाई को लेकर इंदौर में नाराजगी का जो माहौल बना है, उसने विष्णु झावर तथा मनोज फडनिस व उनके नजदीकियों को खासा उत्साहित किया है । उन्हें उम्मीद बंधी है कि केमिशा सोनी की जिस तेजी से लोगों के बीच बदनामी बढ़ रही है, और उनके समर्थक ही उनसे खफा और दूर होते जा रहे हैं - उससे उन्हें इंदौर की राजनीति में अपनी वापसी करने का मौका आसानी से मिल जायेगा ।