Tuesday, March 28, 2017

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए टू में ब्लड बैंक के मामले में जेपी सिंह और उनके भक्तों ने बैठे-बिठाए खुद ही मुसीबत और फजीहत को आमंत्रित कर अपने लिए पिछले वर्ष जैसे ही हालात बना लिए हैं क्या ?

नई दिल्ली । जेपी सिंह के 'सेनानियों' की वाट्स-ऐप पर जारी छिछोरपंती ने जिस तरह से ब्लड बैंक से जुड़े आरोपों की चपेट में एक बार फिर जेपी सिंह को ले लिया है, उससे लगता है कि पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी जेपी सिंह के भक्त ही उनकी फजीहत का कारण बनेंगे । उल्लेखनीय है कि ब्लड बैंक का मामला पूरी तरह से शांत हो गया था, किंतु जेपी सिंह के भक्तों को पता नहीं किस च्यूंटी ने काटा कि वह ब्लड बैंक का मामला फिर से चर्चा में ले आए । दरअसल ब्लड बैंक से जुड़ी जेपी सिंह की बदनामी के दाग को धोने की कोशिश में जेपी सिंह के भक्तों ने ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन को ललकारा कि ब्लड बैंक में पैसा बनाने के जो आरोप जेपी सिंह पर लगाए गए थे, उन आरोपों को अभी तक साबित क्यों नहीं किया गया है ? यह सवाल तो अपने आप में में बड़ा वाजिब है, लेकिन दुस्साहस भरा है, और बहुत ही गलत समय पर पूछा गया । यह ऐसी ही बात हुई कि चोरी के आरोप में पकड़ा गया व्यक्ति यदि सुबूतों के अभाव में छूट जाता है, तो फिर वह आरोप लगाने और पकड़ने वालों को ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करने लगे । उसकी कोशिश जायज हो सकती है, लेकिन उसे समझना चाहिए कि यह वास्तव में व्यवस्था की एक बड़ी खामी है - जिसमें हम कभी शिकार 'करते' हैं, तो कभी शिकार 'बनते' हैं । इसलिए इसे लेकर ज्यादा हायतौबा नहीं मचाना चाहिए । जेपी सिंह और उनके भक्त लेकिन इस सबक को भूल गए, और बदले में अपनी बेवकूफाना हरकतों से अपने लिए और ज्यादा फजीहत व मुसीबत को आमंत्रित कर बैठे । 
जेपी सिंह के सेनानियों की वाट्स-ऐप पर ललकार सुनी तो ब्लड बैंक का मौजूदा प्रबंधन भी चार पृष्ठों की चिट्ठी के साथ मैदान में उतर आया । इस चिट्ठी ने ब्लड बैंक की बदनामी के संदर्भ में जेपी सिंह के बचे-खुचे कपड़े भी उतार लिए । इस चिट्ठी ने दरअसल ब्लड बैंक से जुड़े आरोपों को क्रमबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण काम किया, जिसके कारण जेपी सिंह के लिए भ्रष्ट-आचरण के आरोपों से बचना और मुश्किल हो गया । इस चिट्ठी में कहा/बताया गया कि ब्लड बैंक में पैसा बनाने का आरोप तो प्रतिप्रश्न था, जिसका मुख्य प्रश्न यह था कि वर्ष 2013-14 में एक करोड़ 33 लाख रुपए का लाभ दर्ज करने वाले ब्लड बैंक को अगले ही वर्ष 80 लाख रुपए का भारी घाटा क्यों और कैसे हो जाता है ? ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन ने उक्त तथ्य को रेखांकित करते हुए इस बात को भी स्पष्ट किया कि इस सवाल का जबाव जेपी सिंह को ही देना है - कल भी उन्हें ही देना था, और आज भी उन्हें ही देना है । इस दो-टूक जबाव ने एक बार फिर जेपी सिंह को कठघरे में खड़ा कर दिया । मजे की बात यह रही कि कठघरे से निकलने की कोशिश में जेपी सिंह पहले यह जबाव दे चुके थे कि वर्ष 2013-14 में दिल्ली में चूँकि डेंगू का प्रकोप ज्यादा था, इसलिए ब्लड बैंक का धंधा अच्छा चला और उसे तगड़ा फायदा हुआ, लेकिन उसके अगले वर्ष चूँकि डेंगू का प्रकोप ज्यादा नहीं था, इसलिए ब्लड बैंक का धंधा पिटा और उसे घाटा हुआ । कई लोगों ने जेपी सिंह के इस तर्क को स्वीकार कर लिया था और मान लिया था कि डेंगू के बढ़ने/घटने के कारण ही ब्लड बैंक का नफा-नुकसान प्रभावित हुआ है, और इसका जेपी सिंह की प्रबंधकीय अक्षमता तथा ब्लड बैंक में की गई उनकी लूट-खसोट से कोई संबंध नहीं है ।
ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन की चार पृष्ठीय चिट्ठी ने लेकिन जेपी सिंह के इस झूठ को भी बेनकाब कर दिया । मौजूदा प्रबंधन ने चार वर्षों का हिसाब देते हुआ सवाल उठाया कि यदि डेंगू ही ब्लड बैंक के नफे-नुकसान का कारण है, तो वर्ष 2015-16 में डेंगू का प्रकोप होने के बाद भी ब्लड बैंक का लाभ 37 लाख रुपए ही क्यों रह गया - जबकि वर्ष 2013-14 में यह एक करोड़ 33 लाख रुपए था । प्रबंधन ने मौजूदा वर्ष के दस महीनों का आँकड़ा देते हुए बताया कि इस वर्ष डेंगू का प्रकोप न होने के बावजूद दस महीने में 80 लाख रुपए लाभ दर्ज किया गया है । इन तथ्यों से सवाल पैदा हुआ कि डेंगू न होने के बाद भी मौजूदा प्रबंधन यदि दस महीनों में ही 80 लाख रुपए कमा लेता है, तो जेपी सिंह के प्रबंधन को पूरे वर्ष में 80 लाख रुपए खोने क्यों पड़े थे ? यह सवाल इसलिए और भी गंभीर है क्योंकि जेपी सिंह के साथ ब्लड बैंक के प्रबंधन में जुड़े लोगों का साफ कहना रहा है कि ब्लड बैंक में होने वाली खरीद-बेच की सारी डील जेपी सिंह अकेले ही करते थे, और उन्हें किसी भी स्तर पर डील में शामिल नहीं होने देते थे ।
ब्लड बैंक के मौजूदा प्रबंधन की चार पृष्ठीय चिट्ठी ने जेपी सिंह की हरकतों की और बचाव में दिए उनके जबाव की जो पोल खोली, तो जेपी सिंह और उनके भक्तों को लगा कि वह जैसे 'रंगे हाथ' पकड़ लिए गए हैं । तब उन्होंने इस बात का शोर मचाया कि वर्ष पूरा होने से पहले ही लाभ के आंकड़े देकर ब्लड बैंक प्रबंधन राजनीति कर रहा है; इस पर उन्हें सुनने को मिला कि जेपी सिंह तो वर्ष पूरा हो जाने के बाद - बार बार माँगने के बाद भी हिसाब नहीं देते थे, हिसाब देने में आपत्ति की क्या बात है ? और रही राजनीति की बात, तो इसकी शुरुआत तो खुद जेपी सिंह और उनके भक्तों ने ही की है । जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि जेपी सिंह और उनके भक्त अपने ही बिछाए जाल में खुद ही फँस गए हैं । इस प्रसंग ने पिछले वर्ष के घटना-चक्र को एक बार फिर से प्रासंगिक और उल्लेखनीय बना दिया है । जेपी सिंह के साथ सच्ची हमदर्दी रखने वाले लोगों को ही कहना/बताना है कि पिछले वर्ष जेपी सिंह के लिए हालात शुरू में ज्यादा बुरे नहीं थे, किंतु उनकी और उनके भक्तों की बड़बोली और बेवकूफाना हरकतों के चलते हालात लगातार बिगड़ते चले गए - जिसका नतीजा हुआ कि वह अपने आप से ही हार गए । ब्लड बैंक के मामले में अभी जिस तरह से जेपी सिंह और उनके भक्तों ने बैठे-बिठाए खुद ही मुसीबत और फजीहत को आमंत्रित कर लिया है, उससे लग रहा है कि जेपी सिंह और उनके भक्तों ने पिछले वर्ष की फजीहत से कोई सबक नहीं सीखा है - और इस वर्ष भी अपने लिए वह पिछले वर्ष जैसे ही हालात बना रहे हैं ।