Friday, May 29, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत प्रमोद जैन की उम्मीदवारी का चुनावी रास्ता, बैंक के झमेले में फँसे विनोद जैन की 'बदनामी' के कारण काँटों भरा हो गया दिख रहा है

नई दिल्ली । विनोद जैन के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के चुनाव से बाहर होने के 'कारण' प्रमोद जैन को उम्मीदवारी प्रस्तुत करने का जो मौका मिला है, वही कारण प्रमोद जैन की उम्मीदवारी के लिए चुनौती और मुसीबत बन गया है । उल्लेखनीय है कि इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों को विनोद जैन की उम्मीदवारी प्रस्तुत/घोषित होने का इंतजार था; लेकिन इंतजार करने वाले लोगों को यह जानकर तगड़ा झटका लगा कि विनोद जैन तो एक बैंक खोलने की कोशिशों में लगे हैं और उसके लिए अनुमति प्राप्त करने की तिकड़मों में लगे हुए हैं । ऐसे में, लोगों के बीच यह माथापच्ची हो ही रही थी कि यदि विनोद जैन नहीं, तो फिर उनके ग्रुप का कौन सा सदस्य सेंट्रल काउंसिल की उम्मीदवारी के लिए आयेगा - कि प्रमोद जैन का नाम सामने आ गया । प्रमोद जैन को उस ग्रुप के एक अत्यंत सक्रिय सदस्य के रूप में देखा/पहचाना जाता रहा है, जिस ग्रुप के उम्मीदवार के रूप में विनोद जैन पिछले कई वर्षों से उम्मीदवार बनते तथा जीतते व हारते रहे हैं । ग्रुप के लोगों में प्रमोद जैन को प्रोफेशन के साथ सचमुच में जुड़े व्यक्ति के रूप में मान्यता मिलती रही है, और इसी मान्यता के चलते लोगों को हैरानी भी रही कि प्रमोद जैन जैसे 'पढ़े-लिखे' और प्रोफेशन में ईमानदारी के साथ जुड़े व्यक्ति विनोद जैन के साथ क्यों 'रहते' हैं । विनोद जैन की उम्मीदवारी की अनुपस्थिति में सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रमोद जैन को उम्मीदवार होने का मौका मिला, जिससे यह भी साबित हुआ कि प्रमोद जैन, ग्रुप में विनोद जैन के बड़े खास हैं । विनोद जैन के साथ 'दिखती' यह नजदीकी ही प्रमोद जैन के लिए मुसीबत बनी है । 
उल्लेखनीय है कि विनोद जैन की चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच यूँ भी कोई अच्छी छवि नहीं थी, बैंक वाले किस्से ने तो उनकी छवि को और भी नकारात्मक बना दिया है । मीडिया रिपोर्ट्स में भी बैंक खोलने की विनोद जैन की कोशिशों को आश्चर्य व संदेह के साथ देखा गया है । मीडिया रिपोर्ट्स में विनोद जैन को एक 'लो प्रोफाइल चार्टर्ड एकाउंटेंट' के रूप में पहचानते हुए प्रस्तावित बैंक के लिए आवश्यक पूँजी की उपलब्धता को लेकर संदेह और सवाल खड़े किए गए । संदेहों और सवालों को बढ़ाने का काम विनोद जैन के रवैये ने भी किया । मीडिया रिपोर्ट्स में कहा/बताया गया है कि विनोद जैन ने आवश्यक पूँजी के बाबत पूछे गए सवालों से हमेशा ही बचने की कोशिश की और कभी भी पूँजी सोर्सेज के बारे में जबाव नहीं दिया । इससे मीडिया में अनुमान लगाया गया कि प्रस्तावित बैंक के लिए आवश्यक पूँजी विनोद जैन अपनी जेब से ही लगायेंगे । मीडिया रिपोर्ट्स के संदेहों, सवालों और अनुमानों के आधार पर ही चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच चर्चा बनी और बढ़ी कि सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में विनोद जैन ने मोटा माल बनाया है, और उसी माल से अब वह बैंक खोल रहे हैं । विनोद जैन को लेकर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच चल रही यह चर्चा ही प्रमोद जैन की उम्मीदवारी के लिए बड़ी चुनौती बनी है । 
प्रमोद जैन के लिए चुनौती और मुसीबत की बात यह है कि अपने चुनाव अभियान के लिए उन्हें विनोद जैन पर ही निर्भर रहना है । चुनावी राजनीति के समीकरणों को समझने/साधने का जो अनुभव विनोद जैन को है, प्रमोद जैन स्वाभाविक रूप से उसका फायदा उठाना ही चाहेंगे और इसके लिए अपनी उम्मीदवारी का झंडा विनोद जैन के हाथों में सौंपना ही उन्हें सुविधाजनक लगेगा । विनोद जैन की 'बदनामी' को देखते हुए प्रमोद जैन का ऐसा करना आत्मघाती ही होगा । समस्या यह भी है कि विनोद जैन की 'बदनामी' के कारण प्रमोद जैन उन्हें अपने चुनाव-अभियान से यदि दूर रखते हैं तो विनोद जैन इसका बुरा मान सकते हैं और तब प्रमोद जैन के लिए अपने ग्रुप के लोगों का समर्थन जुटाना/पाना ही मुश्किल हो जायेगा - क्योंकि ग्रुप में तो विनोद जैन की ही पकड़ है । यानि प्रमोद जैन यदि अपने चुनाव अभियान में विनोद जैन का सहयोग व संग-साथ लेते हैं, तो मुसीबत में फँसते हैं; और यदि नहीं लेते हैं, तो आफत को आमंत्रित करते हैं । 
प्रमोद जैन के लिए यह स्थिति विडंबनापूर्ण इसलिए है क्योंकि लोगों के बीच उनकी अपनी छवि बहुत अच्छी है । प्रोफेशन के साथ उनका गहरा और जेनुइन लगाव है, इसलिए लोगों को उम्मीद और विश्वास है कि प्रमोद जैन यदि सेंट्रल काउंसिल में आते हैं तो यह इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन के लिए बहुत ही अच्छी बात होगी । कुछेक लोगों ने इन पँक्तियों लेखक से कहा भी है कि सेंट्रल काउंसिल में गैर प्रोफेशनल काम करने वाले और फर्जी एंट्री का काम करने वाले लोग हों - इससे अच्छा है कि प्रमोद जैन जैसे जेनुइन व प्रोफेशन को समझने वाले लोग हों । यह विडंबना ही है कि जिन प्रमोद जैन को लोग सेंट्रल काउंसिल में देखना चाहते हैं, और प्रमोद जैन को यह मौका जिन विनोद जैन के कारण मिला है - उन्हीं विनोद जैन के कारण प्रमोद जैन का चुनावी रास्ता काँटों भरा दिख रहा है । इस विडंबनापूर्ण स्थिति को प्रमोद जैन किस तरह हैंडल करते हैं, यह देखने की बात होगी । 

Wednesday, May 27, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3010 के एक आयोजन में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर इलेक्ट सुधीर मंगला के हाथों हुई पूर्व गवर्नर रमेश अग्रवाल की फजीहत का शरत जैन और जेके गौड़ ने भी जो मजा लिया, उससे रमेश अग्रवाल बहुत खफा हैं

नई दिल्ली । रमेश अग्रवाल, शरत जैन और जेके गौड़ से इस बात पर बुरी तरह खफा हैं कि 'वाश' प्रोग्राम को लेकर रोटरी इंडिया विन्स कमेटी व यूनिसेफ के बीच मेमोरेण्डम पर हस्ताक्षर होने के कार्यक्रम में सुधीर मंगला जब उन्हें डांट-फटकार लगा रहे थे, तब यह दोनों चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे थे और मजे ले रहे थे । रमेश अग्रवाल का रोना है कि इन दोनों को गवर्नर बनवाने में उन्होंने अथक मेहनत की, और अपने आप को लोगों के बीच बुरी तरह बदनाम तक करवाया - लेकिन इसका बदला इन्होंने इस तरह दिया कि सुशील गुप्ता, संजय खन्ना, विनोद बंसल, संगीता बंसल, रमेश चंद्र तथा यूनिसेफ के प्रमुख पदाधिकारियों के बीच सुधीर मंगला जब उन्हें बुरी तरह लताड़ रहे थे, तब यह दोनों चुपचाप खड़े मजे ले रहे थे । सुशील गुप्ता यदि बीच-बचाव नहीं करते, तो सुधीर मंगला पता नहीं उनका क्या हाल करते । रमेश अग्रवाल का दुःख है कि सुधीर मंगला के हाथों होती उनकी फजीहत पर संजय खन्ना, विनोद बंसल, रमेश चंद्र आदि ने मजे लिए - यह तो वह समझ सकते हैं; किंतु शरत जैन और जेके गौड़ जैसे लोग भी मजे लेने से नहीं चूके, जो गवर्नर बनने के लिए और गवर्नरी चलाने के लिए पूरी तरह उन पर निर्भर रहे हैं और हैं । सुधीर मंगला के हाथों हुई रमेश अग्रवाल की फजीहत के दृश्य ने राजेंद्र जैना द्वारा हुई रमेश अग्रवाल की पिटाई/दौड़ाई के दृश्य को याद दिला दिया ।
मजे की बात यह रही कि राजेंद्र जैना के मामले की तरह ही सुधीर मंगला के मामले में भी अपनी फजीहत को रमेश अग्रवाल ने खुद ही आमंत्रित किया । रमेश अग्रवाल का दरअसल स्वभाव और तरीका ही ऐसा है कि वह दूसरों को उकसाता है । उल्लेखनीय है कि रोटरी इंडिया विन्स कमेटी व यूनिसेफ के बीच मेमोरेण्डम पर हस्ताक्षर होने का कार्यक्रम बड़े मजे से और गरिमापूर्ण तरीके से चल रहा था । आपसी बातचीत के बीच सुधीर मंगला ने रोटरी इंडिया विन्स कमेटी के चेयरमैन सुशील गुप्ता से 'वाश' प्रोग्राम की एक वीडियो फिल्म उपलब्ध करवाने की बात की, जिसे वह डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच प्रदर्शित करना चाहते थे । सुशील गुप्ता ने उन्हें बताया कि उक्त वीडियो फिल्म रमेश अग्रवाल के पास है और वह उनसे ले सकते हैं । सुशील गुप्ता से यह जानकर सुधीर मंगला ने तुरंत ही वहीं मौजूद रमेश अग्रवाल से उक्त वीडियो फिल्म उपलब्ध करवाने की बात कही । प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, रमेश अग्रवाल ने सुधीर मंगला को जबाव दिया कि वीडियो फिल्म तो वह उपलब्ध करवा देंगे, लेकिन शिकायत यह है कि तुम अपने कार्यक्रमों में मुझे बुलाते ही नहीं हो । सुधीर मंगला ने उनसे यह शिकायत सुनी, तो रमेश अग्रवाल को तुरंत से पूरी विनम्रता से आश्वस्त किया कि वह उन्हें अपने अगले किसी कार्यक्रम में अवश्य ही बुलायेंगे । बात यहाँ खत्म हो जानी चाहिए थी - किंतु पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमेश अग्रवाल की यह खूबी है कि सामने वाला यदि उनसे तमीज से बात कर रहा होता है, तो वह सामने वाले को कमजोर समझने लगते हैं और फिर उसके सिर पर सवार होने की कोशिश करने लगते हैं ।
सुधीर मंगला के साथ भी उन्होंने यही किया । सुधीर मंगला ने उनकी शिकायत सुनकर तमीज के साथ जब उन्हें अपने अगले किसी कार्यक्रम में बुलाने के प्रति आश्वस्त किया, तो सुधीर मंगला की इस तमीज और विनम्रता को रमेश अग्रवाल ने उनकी कमजोरी समझा और उनके सिर पर सवार होने की कोशिश करते हुए सुधीर मंगला से कुछ अनाप-शनाप कहने लगे । रमेश अग्रवाल का कहना रहा कि मैंने तुम्हें गवर्नर बनवाया और पहले तुम मेरी खुशामद किया करते थे और अब अपने कार्यक्रमों में जिस-तिस को बुलाते हो, लेकिन मुझे नहीं बुलाते हो । मेमोरेण्डम हस्ताक्षरित होने वाला कार्यक्रम एक छोटा कार्यक्रम था, और वहाँ गिनती के ही लोग मौजूद थे । वहाँ का माहौल ऐसा था ही नहीं जिसमें कि रमेश अग्रवाल इस तरह की बातें करते । लेकिन रमेश अग्रवाल तो रमेश अग्रवाल हैं - अपनी निजी खुन्नस निकालने के लिए वह इस बात की बिलकुल भी परवाह नहीं करते कि मौका क्या है, माहौल क्या है और आसपास कौन लोग हैं । सुधीर मंगला से वह जिस तरह भिड़े हुए थे, उससे लग रहा था कि सुधीर मंगला ने अपने कार्यक्रमों में उन्हें न बुला कर उन्हें गहरी चोट दी है और रमेश अग्रवाल अपने भीतर बहुत सा गुबार ले कर बैठे हैं । रमेश अग्रवाल को अपना गुबार निकालते देख सुधीर मंगला ने पहले तो उनकी बातों को नजरअंदाज किया, लेकिन जब उन्होंने देखा कि रमेश अग्रवाल उनकी भलमनसाहत को उनकी कमजोरी समझ कर बदतमीजी करते ही जा रहे हैं, तो फिर वह भी अपने हरियाणा वाले तेवर में आ गए; और फिर उन्होंने रमेश अग्रवाल को जो सुनाना शुरू किया तो रमेश अग्रवाल को बचने/छिपने की जगह भी नहीं दिखी/मिली । 
राजेंद्र जैना के मामले में भी ऐसा ही हुआ था - पहले तो रमेश अग्रवाल ने राजेंद्र जैना के साथ बदतमीजी की, लेकिन जब राजेंद्र जैना ने उन्हें जबाव देना शुरू किया तो रमेश अग्रवाल ने महिलाओं के बीच छिप कर अपने आप को बचाया था । यहाँ लेकिन लोग बहुत ही कम थे, लिहाजा रमेश अग्रवाल को बचने/छिपने के लिए जगह ही नहीं मिली । सुधीर मंगला ने जमकर रमेश अग्रवाल की क्लास ली और कहा कि तुम हो किसी लायक नहीं और बड़े नेताओं की खुशामद कर कर के अपने लिए निमंत्रण माँगते हो; दूसरे डिस्ट्रिक्ट्स के गवर्नर इलेक्ट्स ने मुझे बताया है कि तुमने उनकी खुशामद कर कर के अपने लिए निमंत्रण जुटाए हैं; लोगों से काम निकालते हो और फिर उनके साथ बदतमीजी करते हो; तुम्हारी हरकतों के कारण ही रोटरी में तुम्हारी बदनामी है और तुम्हें कोई पसंद नहीं करता है; जैसे तैसे करके अपने लिए कुछ जगह बना लेते हो और फिर उसका प्रदर्शन करके अपने आप को बड़ा दिखाते हो; सब जानते हैं कि तुम क्या हो; आदि-इत्यादि । सुधीर मंगला ने जो कुछ कहा, यह तो भले शब्दों में उसकी एक बानगी भर है; उन्होंने रमेश अग्रवाल को ऐसा बहुत कुछ कहा जो यहाँ लिखा/छापा भी नहीं जा सकता । सुधीर मंगला के उग्र तेवर देख कर रमेश अग्रवाल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई थी । वहाँ मौजूद कोई भी वरिष्ठ रोटेरियन उनकी मदद को आगे नहीं आया । सुशील गुप्ता थोड़ा अलग यूनिसेफ के पदाधिकारियों के साथ बातचीत कर रहे थे । उन्होंने शोर सुना तो वह बीच-बचाव करने आए और उन्होंने सुधीर मंगला को शांत किया । 
रमेश अग्रवाल एक 'बहादुर' व्यक्ति हैं । सुधीर मंगला ने उनके साथ जो किया, उसकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की है । राजेंद्र जैना ने उनके साथ जो किया था, उन्होंने उसकी भी कोई परवाह नहीं की थी । रमेश अग्रवाल अच्छी तरह से जानते हैं कि रोटरी में अधिकतर लोग उन्हें पसंद नहीं करते हैं - उन्हें इसकी भी परवाह नहीं है, क्योंकि इसके बावजूद रोटरी में वह अपने कुछ-कुछ काम बनाने में सफल हो ही जाते हैं । अपनी सफलताओं के साथ वह कुल मिलाकर खुश हैं । यहाँ भी रमेश अग्रवाल को इस बात से कोई रंज नहीं हुआ कि संजय खन्ना, विनोद बंसल, रमेश चंद्र आदि ने उन्हें सुधीर मंगला के प्रकोप से बचाने का कोई प्रयास नहीं किया और जो हुआ उसका मजा ही लिया । रमेश अग्रवाल को लेकिन यह देख कर बुरा लगा कि शरत जैन और जेके गौड़ जैसे उनके 'भक्त' भी मजा लेते रहे और इन्होंने भी सुधीर मंगला को रोकने की या मौके पर उनके साथ सहानुभूति दिखाने का कोई प्रयास तक नहीं किया । शरत जैन और जेके गौड़ के इस व्यवहार ने रमेश अग्रवाल को जरूर आहत किया है ।

Tuesday, May 26, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संदर्भ में अपने हुड़दंगी आयोजनों के चलते बदनामी कमा और नुकसान उठा कर विनय भाटिया और उनके संगी-साथियों ने हुड़दंग से फिलहाल तौबा तो की है, लेकिन उनकी मुश्किलें जहाँ की तहाँ ही बनी हुई हैं

फरीदाबाद/नई दिल्ली । विनय भाटिया को लोग चैन नहीं लेने दे रहे हैं, और इसलिए उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ में वह करें तो आखिर क्या करें ? अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने हेतु जब वह जोरशोर से लगे थे, तब लोग शिकायत कर रहे थे कि इतना हुड़दंग क्यों मचाये हुए हो; लोगों की सलाह पर उन्होंने हुड़दंग मचाना बंद किया तो अब लोग शिकायती लहजे में पूछ रहे हैं कि ठंडे क्यों पड़ गए हो ? जाहिर है कि लोग उनकी किसी भी कार्रवाई से खुश नहीं हो रहे हैं; और इसीलिए उनके सामने यह सवाल बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है कि लोग आखिर उनसे चाहते क्या हैं ? लोगों को तो छोड़िये, डिस्ट्रिक्ट को 'चलाने' वाले प्रमुख पदाधिकारियों ने उनसे जैसे मुँह मोड़ लिया दिख रहा है - उससे तो उनके शुभचिंतकों तक के बीच गहरी निराशा पैदा हो गई है । डिस्ट्रिक्ट के फेसबुक पेज पर डिस्ट्रिक्ट असेम्बली की सात सौ से अधिक तस्वीरें लगी हैं, जिनमें विनय भाटिया कहीं भी नजर नहीं आ रहे हैं; जबकि इससे पहले के आयोजनों की जो तस्वीरें इस पेज पर हैं उनमें विनय भाटिया की धूम मची दिखती है । इसी से लोगों के बीच सवाल उठे कि डिस्ट्रिक्ट असेम्बली में विनय भाटिया ने दिलचस्पी नहीं ली, या उनकी दिलचस्पी में डिस्ट्रिक्ट चलाने वाले लोगों ने दिलचस्पी नहीं दिखाई ? इसे विनय भाटिया की बदकिस्मती ही कहेंगे कि उन्होंने जो भी किया, उस पर विवाद हो गया - लोगों ने उसे अच्छा नहीं माना और उसके चलते उनकी उम्मीदवारी के संदर्भ में एक नकारात्मक प्रभाव बना । 
विनय भाटिया के कुछेक नजदीकियों का कहना लेकिन यह है कि शुरूआत में उनकी तरफ से जो हुड़दंग मचाया गया, वह एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा भी था - जिसका उद्देश्य दरअसल रवि दयाल को 'डराना' था । उल्लेखनीय है कि उस समय रवि दयाल की उम्मीदवारी को लेकर असमंजस बना हुआ था और रवि दयाल खुद अपनी उम्मीदवारी को लेकर हाँ/ना की स्थिति में फँसे हुए थे । ऐसे में, विनय भाटिया और उनके संगी-साथियों ने सोचा कि वह अपनी उम्मीदवारी का जोर दिखायेंगे तो रवि दयाल हतोत्साहित होंगे और चुनावी मैदान छोड़ देंगे । रवि दयाल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनावी मैदान से बाहर करने/रखने के लिए विनय भाटिया और उनके संगी-साथियों ने जो रणनीति बनाई, उसका लेकिन उलटा ही असर दिखाई दिया । विनय भाटिया और उनके संगी-साथियों की तरफ से मचे हुड़दंग से पहले रवि दयाल की उम्मीदवारी को लेकर जो असमंजस था, वह हुड़दंग के बीच दूर हो गया और रवि दयाल चुनावी मैदान में आ डटे । विनय भाटिया के ही समर्थकों का मानना और कहना है कि उनकी रणनीति बूमरैंग कर गई और उम्मीदवार के रूप में रवि दयाल को डराने की बजाये ताकत दे गई । 
विनय भाटिया और उनके संगी-साथी दरअसल इस तथ्य को भूल बैठे कि हुड़दंग जब लाया जाता है और आता है, तब वह 'बेबकूफी' और 'बेहूदगी' नाम की अपनी चचेरी बहनों को अपने साथ लाता है । वह भले ही इस तथ्य को भूल बैठे, और उन्होंने सिर्फ हुड़दंग को बुलाया - लेकिन हुड़दंग अपने साथ बेबकूफी और बेहूदगी को लाना नहीं भूला । विनय भाटिया और उनके संगी-साथियों ने जिस तरह की जो हुड़दंगी हरकतें कीं - उनमें बेबकूफी और बेहूदगी के जो निशान दिखे, उससे फरीदाबाद से लेकर डिस्ट्रिक्ट तक में लोग नाराज हुए । पेट्स से पहले फरीदाबाद में तो नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि फरीदाबाद में कुछेक लोगों ने पेट्स में विनय भाटिया और उनके संगी-साथियों के साथ 'खड़े होने' तक से इंकार तक कर दिया । चारों तरफ किरकिरी हुई तो विनय भाटिया के ही कुछेक समर्थकों ने उन्हें सलाह दी कि इस तरह के हुड़दंग से फायदा कुछ नहीं होगा, उलटे नुकसान ही होगा - इसलिए इससे बचो । विनय भाटिया ने भी अपने अनुभव से समझा/पाया कि जो लोग यह सलाह दे रहे हैं, वह ठीक ही कह रहे हैं । इसलिए विनय भाटिया ने यह सलाह मानने में देर नहीं लगाई । 
विनय भाटिया ने लेकिन जब तक यह सलाह मानी और इस पर अमल किया, तब तक उनका बहुत नुकसान हो चुका था । अपने हुड़दंगी आयोजनों को संभव बनाने के लिए उन्होंने फरीदाबाद में लोगों से जिस तरह के 'सहयोग' माँगे, और इन सहयोगों को जुटाने के लिए जिस तरह की तरकीबें लड़ाई - उससे उन्होंने फरीदाबाद में तो कई लोगों को नाराज कर ही लिया; साथ ही डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच भी अपनी 'कमजोरियों' को जाहिर कर दिया । समझा जाता है कि इससे ही रवि दयाल और उनके समर्थकों को बल मिला और उन्होंने रवि दयाल की उम्मीदवारी के झंडे को चुनावी मैदान में मजबूती से गाड़ दिया ।
जो हुआ, सो हुआ । बदनामी कमा और नुकसान उठा कर विनय भाटिया और उनके संगी-साथियों ने हुड़दंग से फिलहाल तौबा की । विनय भाटिया अपनी उम्मीदवारी के अभियान को चलाने के लिए फरीदाबाद के जिन लोगों पर निर्भर हैं, उन्हें जानने/पहचानने वाले लोगों का कहना हालाँकि यह है कि यह तौबा ज्यादा दिन तक बनी नहीं रह पाएगी । यह तो चलो बाद की बात है, इसे बाद में देखा जायेगा; विनय भाटिया के लिए लेकिन अभी की समस्या यह पैदा हो गई है कि अब जब वह उम्मीदवार के रूप में भले और गंभीर बनने/दिखने का प्रयास कर रहे हैं, तो लोग पूछ रहे हैं कि वह ठंडे क्यों पड़ गए हैं ? 

Monday, May 25, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी ने अलग अलग कारणों से नवीन गुप्ता और राधेश्याम बंसल के लिए सीधी चुनौती खड़ी की

नई दिल्ली । सुधीर अग्रवाल ने चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा करके नवीन गुप्ता और राधेश्याम बंसल की उम्मीदवारी के लिए सीधा खतरा पैदा कर दिया है । उल्लेखनीय है कि यूँ तो सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी के प्रस्तुत होने की चर्चा काफी समय से थी; कुछेक लोगों का कहना/बताना था भी कि सुधीर अग्रवाल ने उनसे अपने उम्मीदवार होने की बात कही/बताई है - लोगों को लेकिन फिर भी सुधीर अग्रवाल की तरफ से औपचारिक घोषणा होने का इंतजार था । यह इंतजार इसलिए भी था क्योंकि सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी की चर्चा तो खूब थी, लेकिन खुद सुधीर अग्रवाल अपनी उम्मीदवारी के लिए कुछ करते हुए नहीं दिख रहे थे । उनका मामला कुछ कुछ मधुसुदन गोयल जैसा था - मधुसुदन गोयल के मुकाबले हालाँकि उनकी उम्मीदवारी को लेकर ज्यादा विश्वास जरूर था । लोगों के बीच बने इस विश्वास पर बस सुधीर अग्रवाल की मोहर लगने का इंतजार किया जा रहा था । लोगों का यह इंतज़ार अंततः खत्म हुआ और अभी हाल ही में सुधीर अग्रवाल ने एक कार्यक्रम में उपस्थित होकर अपनी उम्मीदवारी का सार्वजनिक रूप से ऐलान किया ।  
सुधीर अग्रवाल द्वारा अपनी उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा में की गई इस देरी के लिए वेद जैन की हरी झंडी मिलने में हुई देरी को जिम्मेदार माना जा रहा है । हालाँकि सुधीर अग्रवाल यह नहीं मानते हैं कि उन्होंने अपनी उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा करने में कोई देर की है; लेकिन इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों तथा सुधीर अग्रवाल व वेद जैन की नजदीकियत को जानने वाले लोगों का मानना/कहना है कि सुधीर अग्रवाल दरअसल वेद जैन से हरी झंडी मिलने का इंतजार कर रहे थे । नवीन गुप्ता की उम्मीदवारी को देखते हुए वेद जैन के लिए सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी के पक्ष में खड़ा दिखना मुश्किल लग रहा था । उल्लेखनीय है कि सुधीर अग्रवाल और वेद जैन को एनडी गुप्ता खेमे के सदस्य के रूप में ही देखा/पहचाना जाता रहा है । पिछले कुछेक वर्षों से हालाँकि इन दोनों के एनडी गुप्ता के साथ पहले जैसे संबंध नहीं रह गए बताए जाते हैं । वेद जैन जब इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट थे, तभी उनकी एनडी गुप्ता के साथ दूरी बनना शुरू हो गया था । दोनों के नजदीकियों का कहना है कि दोनों के बीच अब पहले जैसे संबंध नहीं रह गए हैं । कई लोग हालाँकि मानते हैं कि एनडी गुप्ता और वेद जैन के बीच भले ही पहले जैसे संबंध न रह गए हों, लेकिन वेद जैन ऐसा कुछ नहीं करेंगे या कर सकेंगे जिससे एनडी गुप्ता और उनके बेटे नवीन गुप्ता को राजनीतिक नुकसान होता हो ।
सुधीर अग्रवाल द्वारा अपनी उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा करने के लिए इंतजार करवाने से लोगों के बीच लेकिन इंप्रेशन यही गया है कि राजनीतिक मोर्चे पर वेद जैन ने एनडी गुप्ता से एक अलग राह पकड़ ली है । मजे की बात यह है कि न तो सुधीर अग्रवाल की तरफ से और न वेद जैन की तरफ से सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी को वेद जैन के समर्थन के बारे में कोई घोषणा की गई है, किंतु लोगों ने मान लिया है कि सुधीर अग्रवाल ने लंबा इंतजार करवा कर अपनी उम्मीदवारी की अब जो औपचारिक घोषणा की है, तो वेद जैन से हरी झंडी मिलने के बाद ही की है । राजनीति समझने और करने वाले लोग जानते हैं कि राजनीति तथ्यों से नहीं, परसेप्शन से होती है । नवीन गुप्ता के लिए मुसीबत की बात यही है । लोगों के बीच परसेप्शन चूँकि यह बन रहा है कि सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी को वेद जैन का समर्थन है, इसलिए लोगों के बीच इसकी प्रतिक्रिया इस रूप में हो रही है कि सेंट्रल काउंसिल में नवीन गुप्ता की जो परफॉर्मेंस है, वेद जैन उससे संतुष्ट नहीं हैं और इसीलिए अब वह नवीन गुप्ता का साथ छोड़ कर सुधीर अग्रवाल को आगे बढ़ाना चाहते हैं । नवीन गुप्ता के नजदीकियों की तरफ से हालाँकि यह बताने का प्रयास हो रहा है कि वेद जैन उनके ही साथ हैं तथा रहेंगे; लेकिन समस्या यह है कि यह बात बताने भर से लोगों के बीच स्वीकार्य नहीं होगी - उनकी यह बात यदि सच भी है, तो इसे उन्हें लोगों को 'दिखाना' भी होगा; और इस दिखाने में जितनी देर होगी उतना ही उन्हें नुकसान होता जायेगा । इस तरह, सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी और उनकी उम्मीदवारी को वेद जैन के समर्थन का परसेप्शन नवीन गुप्ता के लिए भारी मुसीबत बन गया है । 
सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी राधेश्याम बंसल के लिए भी मुसीबत बन कर आई है । उल्लेखनीय है कि सुधीर अग्रवाल और राधेश्याम बंसल कभी एक साथ हुआ करते थे; और इस नाते दोनों का कार्य-क्षेत्र और समर्थन-आधार लगभग एक ही है । पिछले वर्ष नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में अपनी सक्रियता के भरोसे राधेश्याम बंसल ने सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी जिस उम्मीदवारी को आगे बढ़ाया है, उसे सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी ने ग्रहण लगा दिया है । सुधीर अग्रवाल भले ही छह वर्ष पहले नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन थे, लेकिन उनका चेयरमैन-काल चूँकि ज्यादा सक्रियताभरा रहा था - इसलिए चेयरमैन होने के नाते मिलने वाले फायदे के संदर्भ में उनका पलड़ा राधेश्याम बंसल से भारी ही साबित होगा । कार्य-क्षेत्र और समर्थन-आधार में भी राधेश्याम बंसल की तुलना में सुधीर अग्रवाल का प्रभाव व स्वीकार्यता ज्यादा है, इसलिए सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी राधेश्याम बंसल की उम्मीदवारी के लिए चौतरफा मुसीबत बनकर ही आई है । राधेश्याम बंसल के समर्थक और नजदीकी यह कहने भी लगे हैं कि सुधीर अग्रवाल उम्मीदवार बने ही राधेश्याम बंसल का रास्ता रोकने के लिए हैं । उनका कहना है कि वर्ष 2009 के चुनाव में जो 'काम' भगवानदास गुप्ता ने सुधीर अग्रवाल के लिए किया था, वही काम अब राधेश्याम बंसल के लिए सुधीर अग्रवाल करने उतरे हैं ।
सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी ने नवीन गुप्ता और राधेश्याम बंसल के लिए जिस तरह की चुनौती पैदा कर दी है, उसके चलते इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल का चुनाव खासा दिलचस्प हो उठा है ।

Thursday, May 21, 2015

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल मल्टीपल डिस्ट्रिक्ट 321 में अंबरीश सरीन के मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन बनने से जेपी सिंह का एक बड़ा दाँव फेल हो गया है और उनकी बड़ी फजीहत हो रही है - इससे उनके सामने मल्टीपल की अपनी नेतागिरी को बचाने की एक बड़ी चुनौती भी पैदा हो गई है

नई दिल्ली । मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन के पद पर अंबरीश सरीन की जीत का श्रेय लेने की पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील अग्रवाल और जगदीश गुलाटी ने जो कोशिश की है - उसने उमेश गौतम, जितेंद्र सिंह चौहान, जेपी सिंह, तेजपाल सिंह खिल्लन जैसे नेताओं को बुरी तरह भड़का दिया है; और इन लोगों ने सुशील अग्रवाल और जगदीश गुलाटी को अवसरवादी घोषित करते हुए दावा किया है कि चुनावी नतीजा आने से पहले तक यह दोनों पीएस चावला के समर्थन में ही थे । कहा/बताया जा रहा है कि अगले लायन वर्ष में मल्टीपल में पूछ/तवज्जो बनाये रखने के उद्देश्य से ही सुशील अग्रवाल और जगदीश गुलाटी ने पलटी मार ली और बताने लगे हैं कि वह तो अंबरीश सरीन के साथ ही थे । उल्लेखनीय है कि सुशील अग्रवाल तो पहले से ही (कु)ख्यात हैं कि वह तो हमेशा ही जीतने वाले के साथ ही होते हैं; इस 'जरूरत' को लगता है कि अब जगदीश गुलाटी ने भी 'समझ' लिया है । लोगों को लेकिन इनके रवैये पर नहीं - बल्कि उमेश गौतम, जितेंद्र सिंह चौहान, जेपी सिंह और तेजपाल सिंह खिल्लन के रवैये पर हैरानी हो रही है कि यह चौकड़ी सुशील अग्रवाल और जगदीश गुलाटी की पलटी पर इस कदर बौखला क्यों रही है ? दरअसल अंबरीश सरीन की जीत ने इस चौकड़ी को खासा तगड़ा झटका दिया है - और पीएस चावला की हार को पीएस चावला की हार के रूप में नहीं, बल्कि इस चौकड़ी की हार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । पीएस चावला को मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन बनवाने का 'ठेका' दरअसल इसी चौकड़ी ने - इस चौकड़ी में भी खासकर जेपी सिंह ने लिया हुआ था; और यही लोग अपने आप को मल्टीपल के लीडर के रूप में दिखा/जता रहे थे । 
मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन पद के चुनाव में पीएस चावला को लीडरशिप के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा था; इस बात पर फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स भड़के हुए थे । उनकी शिकायत यह थी कि वोट तो उनको देना है लेकिन राजनीति करने और मलाई खाने का काम लीडरशिप के नाम पर कुछेक स्वयंभू नेता कर रहे हैं । इस संबंध में फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के निशाने पर जेपी सिंह और जितेंद्र सिंह चौहान खासतौर पर थे । इसका नतीजा यह हुआ कि कुछेक फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स ने अपने आप को संगठित कर लिया और तय किया कि मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन वह चुनेंगे । इस काम में ड्रिस्ट्रिक्ट 321 सी वन के फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील निगम ज्यादा सक्रिय थे; उन्होंने दूसरे फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को फार्मूला दिया कि मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन बनने की दौड़ में शामिल उम्मीदवारों से कहा जाए कि वह लीडरशिप पर पैसा खर्च करने की बजाए उनपर पैसा खर्च करें और उनके वोट प्राप्त करें । राजीव मित्तल और अंबरीश सरीन को इस फार्मूले पर सहमत तो बताया गया लेकिन दोनों में से कोई भी इस फार्मूले पर आगे बढ़ता हुआ नहीं दिखा । समस्या दरअसल यह हुई कि इस फार्मूले के सूत्रधार और प्रस्तोता सुनील निगम पैसों के लेनदेन के मामले में चूँकि थोड़ा बदनाम रहे हैं, इसलिए राजीव मित्तल और अंबरीश सरीन उनसे डील करने के लिए तैयार नहीं थे; डील करने के लिए दूसरा कोई सामने नहीं आया । राजीव मित्तल और अंबरीश सरीन चूँकि अपनी अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में दोनों ही डील करने के लिए प्रयास कर रहे थे, इसलिए भी मामला थोड़ा गफलतभरा हो गया था । 
जेपी सिंह ने इस गफलत का पूरा पूरा फायदा उठाया । वह पीएस चावला को यह समझाने में कामयाब रहे कि उन्हें पैसे चाहने/माँगने वाले फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के पास जाने की और उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है; वह उन्हें मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन बनवा देंगे । लोगों का आरोप है कि यह भरोसा देकर जेपी सिंह ने अकेले ही पीएस चावला से माल सूत लिया । इसी तरह की बातों और चर्चाओं के बीच यह लगभग तय हो गया था कि पीएस चावला फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की पसंद नहीं रह गए थे; फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स इस बात पर उनसे बुरी तरह खफा हो गए थे कि वह पूरी तरह जेपी सिंह की गोद में जा बैठे हैं और फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को कोई तवज्जो ही नहीं दे रहे हैं । कई फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स पीएस चावला से नाराज जरूर थे, लेकिन वह चूँकि किसी और उम्मीदवार के साथ भी जुड़ते हुए नहीं दिख रहे थे - या यह कहें कि दूसरे उम्मीदवार उन्हें अपने साथ जोड़ने में सफल होते हुए नहीं दिख रहे थे; इसलिए पीएस चावला निश्चिंत थे । जेपी सिंह भी उन्हें भरोसा दिलाए हुए थे कि जो नाराज हैं वह चूँकि गफलत में हैं और बँटे हुए हैं, इसलिए वह कुछ कर नहीं पायेंगे । उमेश गौतम और जितेंद्र सिंह चौहान ने अंबरीश सरीन के खिलाफ और तेजपाल सिंह खिल्लन ने राजीव मित्तल के खिलाफ कमर कसी हुई थी ही, इसलिए पीएस चावला और भी निश्चिंत थे । वही क्या, मल्टीपल काउंसिल की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाला हर कोई पीएस चावला के चुने जाने को लेकर आश्वस्त था ।
इन आश्वस्त लोगों ने लेकिन ऐन मौके पर हुए एक बड़े बदलाव को अनदेखा कर दिया । ऐन मौके पर एक बड़ी घटना यह हुई कि राजीव मित्तल ने चेयरमैन पद की अपनी उम्मीदवारी को वापस ले लिया, और वह वाइस चेयरमैन पद के उम्मीदवार हो गए । अंडरकरेंट पीएस चावला और जेपी सिंह की जोड़ी के खिलाफ था ही - उनके विरोधी वोटों के बँटे होने का जो फायदा उन्हें मिलता दिख रहा था, राजीव मित्तल के पीछे हटते ही उस फायदे की संभावना घट गई थी । इस तथ्य को भाँपने/पहचानने और सावधान होने में वह चूक गए और जीतती दिख रही बाजी को हार बैठे । अब वह अपने एक वोट के बिक जाने का आरोप लगा रहे हैं । उन्हें पाँच वोट मिलने का विश्वास था, लेकिन मिले चार वोट । कौन सा एक वोट उनके हाथ से निकल गया, इसे लेकर उनमें आपस में ही मतभेद हैं । ज्यादा शक जगदीश वर्मा और प्रमोद सपरा पर किया जा रहा है । जेपी सिंह की तरफ से कहा जा रहा है कि जगदीश वर्मा ने धोखा दिया है, तो तेजपाल सिंह खिल्लन की तरफ से प्रमोद सपरा का नाम लिया जा रहा है । इस आरोप-प्रत्यारोप को जेपी सिंह और तेजपाल सिंह खिल्लन की 'लड़ाई' के रूप में भी देखा जा रहा है । लोगों को लग रहा है कि इस आरोप-प्रत्यारोप के जरिए यह दोनों एक दूसरे को लोगों की निगाह में नीचा करने/गिराने का प्रयास कर रहे हैं । हार के बाद का यह एक स्वाभाविक दृश्य है - हारने वाले खेमे के लोग एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराते ही हैं ।  
सुशील अग्रवाल और जगदीश गुलाटी की कलाबाजी ने लेकिन इनके लिए - खासकर जेपी सिंह के लिए बड़ा संकट पैदा कर दिया है । पीएस चावला को मल्टीपल काउंसिल चेयरमैन बनवाने की मुहिम के जरिए जेपी सिंह ने दरअसल एक बड़ा दाँव चला था; जिसके फेल होने पर जिस तरह उनकी फजीहत हो रही है - उससे उनके सामने अपनी नेतागिरी को बचाने की एक बड़ी चुनौती पैदा हो गई है । सुशील अग्रवाल और जगदीश गुलाटी की कलाबाजी ने उनकी चुनौती को और बढ़ाने का ही काम किया है, इसलिए उन्हें इनके खिलाफ भी बातें करने को मजबूर होना पड़ा है । 

Tuesday, May 19, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 में टीके रूबी की चुनावी शिकायत के कारण मुसीबत में फँसी राजा साबू एण्ड कंपनी ने पीटी प्रभाकर की मदद जुटाने के लिए रोटरी इंडिया अवार्ड फंक्शन में उन्हें आमंत्रित करने का फैसला किया है क्या ?

चंडीगढ़ । राजा साबू एण्ड कंपनी ने 'रोटरी इंडिया अवार्ड' नामक अपने आयोजन में पीटी प्रभाकर को तवज्जो देने का जो काम किया है, रोटरी नेताओं के बीच उसे लेकर दिलचस्प चर्चा छिड़ी हुई है । राजा साबू एण्ड कंपनी की तरफ से पीटी प्रभाकर को अचानक से मिलती दिख रही इस तवज्जो को राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में इस वर्ष पहले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुने गए और फिर हटाए गए टीके रूबी द्वारा रोटरी इंटरनेशनल में दर्ज की/कराई गई चुनावी शिकायत के मामले में फैसला अपने पक्ष में करवाने की तिकड़म के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । 21 मई को दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में आयोजित हो रहे रोटरी इंडिया अवार्ड फंक्शन में उपस्थिति को संभव बनाने के लिए पीटी प्रभाकर की राजा साबू एण्ड कंपनी की तरफ से जिस तरह से 'खुशामद' की जा रही है, उससे पीटी प्रभाकर काफी गद्गद हैं, और अपने इस गद्गदपने को लोगों के बीच जाहिर भी कर रहे हैं - और उनके इसे जाहिर करने से ही रोटरी के बड़े नेताओं के बीच इस चर्चा को बल मिला है कि टीके रूबी की चुनावी शिकायत के मामले में फैसला अपने पक्ष में करवाने के लिए राजा साबू एण्ड कंपनी ने पीटी प्रभाकर पर डोरे डालना शुरू दिया है । दिल्ली के एक डिस्ट्रिक्ट की डिस्ट्रिक्ट एसेम्बली में गत 17 मई को शामिल हुए डिस्ट्रिक्ट 3080 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी रमन अनेजा ने भी वहाँ लोगों को बताया कि राजा साबू कुछ भी करके पीटी प्रभाकर को खुश कर लेंगे और मनमाफिक फैसला करवा लेंगे । राजा साबू एण्ड कंपनी के लोग लेकिन इस बात से इंकार कर रहे हैं कि रोटरी इंडिया अवार्ड फंक्शन में पीटी प्रभाकर की उपस्थिति को संभव बनाने के लिए उनके द्वारा किए जा रहे प्रयासों का कोई संबंध टीके रूबी की चुनावी शिकायत के फैसले को प्रभावित करने से हैं । उनका कहना है कि पीटी प्रभाकर इंटरनेशनल डायरेक्टर हैं, और इस नाते उनकी उपस्थिति को रोटरी इंडिया अवार्ड फंक्शन में संभव बनाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं; और उनके इन प्रयासों का टीके रूबी की चुनावी शिकायत के मामले से कोई लेना-देना नहीं है । 
राजा साबू एण्ड कंपनी की तरफ से दी गई इस सफाई ने पीटी प्रभाकर के नजदीकियों को चुटकी लेने का लेकिन अच्छा मौका उपलब्ध करवाया है । उनका कहना है कि चलो शुक्र है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के 24 महीनों के पीटी प्रभाकर के कार्यकाल के आखिरी दो महीनों में राजा साबू एण्ड कंपनी के लोगों को पता तो चला कि पीटी प्रभाकर इंटरनेशनल डायरेक्टर हैं । पीटी प्रभाकर के नजदीकियों और समर्थकों की शिकायत है कि पहले 22 महीनों में तो राजा साबू एण्ड कंपनी के लोगों ने पीटी प्रभाकर को कभी इंटरनेशनल डायरेक्टर 'माना' ही नहीं; और इंटरनेशनल डायरेक्टर के रूप में उनके द्वारा किए जा रहे कामों में और लिए जा रहे फैसलों में अड़ंगा डालने का ही प्रयास किया जाता रहा है । राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में चुनावी बबाल होने के बाद राजा साबू एण्ड कंपनी के लोगों को जब लगा कि इस बबाल के चलते उन्हें इंटरनेशनल डायरेक्टर पीटी प्रभाकर की मदद की जरूरत पड़ सकती है तब उन्होंने पीटी प्रभाकर को सीरियसली लेना और उन्हें इंटरनेशनल डायरेक्टर 'मानना' शुरू किया; और रोटरी इंडिया अवार्ड फंक्शन ने उन्हें इसका मौका भी उपलब्ध करवा दिया । 
उल्लेखनीय है कि रोटरी इंडिया अवार्ड फंक्शन का रोटरी इंटरनेशनल से कोई लेना देना नहीं है और यह पूरी तरह राजा साबू एण्ड कंपनी का उपक्रम है । इस उपक्रम के संस्थापक चेयरमैन राजा साबू हैं, लेकिन अब चेयरमैन का पद अशोक महाजन के पास हैं । राजा साबू का चेयरमैन पद पर बने रहने का 'शौक' चूँकि पूरा नहीं हुआ है, इसलिए वह मानद चेयरमैन बन गए हैं । वाइस चेयरमैन यश पाल दास हैं । अवार्ड के लिए नोमिनेशन यश पाल दास के पते पर मंगवाएँ गए हैं । दिल्ली में हो रहे इस अवार्ड फंक्शन में इन तीनों के अलावा दिल्ली के दोनों पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर्स सुदर्शन अग्रवाल और सुशील गुप्ता उपस्थित रहेंगे । बाहर से सिर्फ पूर्व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट कल्याण बनर्जी को बहुत आग्रह से बुलाया गया है - और पीटी प्रभाकर को । पीटी प्रभाकर की तो शुद्ध रूप से 'लाटरी' लगी है - राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में चुनावी शिकायत न हुई होती तो पीटी प्रभाकर को इस फंक्शन में शामिल होने का न्यौता शायद ही मिलता; मिलता भी तो सिर्फ औपचारिकता भरा । राजा साबू एण्ड कंपनी दरअसल 'अपने' इस आयोजन में 'दूसरे' प्रमुख रोटेरियंस को शामिल करने में दिलचस्पी नहीं लेती है । राजा साबू एण्ड कंपनी इस बार पीटी प्रभाकर को तवज्जो देने पर मजबूर हुई है तो इसका एकमात्र कारण यही समझा जा रहा है कि डिस्ट्रिक्ट से दर्ज हुई चुनावी शिकायत के कारण राजा साबू एण्ड कंपनी अपने राजनीतिक जीवन में सबसे बड़े संकट में फँसी है, और इस संकट ने उसकी पूरी पहचान और प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा दिया है; और इससे उबरने/बचने के लिए राजा साबू एण्ड कंपनी को पीटी प्रभाकर की मदद की जरूरत है । 
राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट से रोटरी इंटरनेशनल में जो चुनावी शिकायत दर्ज हुई है, उसकी सुनवाई/पड़ताल के लिए जो कमेटी बनी है उसमें पीटी प्रभाकर के नजदीकी सदस्य हैं । उक्त कमेटी के लिए सदस्य चुनने का काम इंटरनेशनल डायरेक्टर होने के नाते पीटी प्रभाकर को ही करना था; सो यह स्वाभाविक ही है कि उन्होंने 'अपने' ही लोगों को चुना होगा । दिल्ली के एक डिस्ट्रिक्ट की 17 मई को आयोजित हुई डिस्ट्रिक्ट असेम्बली में शामिल हुए राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी रमन अनेजा ने कुछेक नेताओं के बीच जो कुछ कहा/बताया, उससे यही आभास मिला कि राजा साबू एण्ड कंपनी इसी बात से डरी हुई है कि चुनावी शिकायत पर विचार करते हुए पीटी प्रभाकर के नजदीकियों वाली कमेटी पता नहीं क्या फैसला कर दे । उसके फैसले को अपने अनुकूल बनाने के लिए ही राजा साबू एण्ड कंपनी ने पीटी प्रभाकर को 'पटाना' शुरू कर दिया है । रमन अनेजा के अनुसार, टीके रूबी की चुनावी शिकायत से निपटने के लिए राजा साबू एण्ड कंपनी ने दो प्लान बनाये हैं : प्लान 'ए' के अनुसार, चुनावी शिकायत के साथ दी गईं कॉन्करेंस को वापस करवा कर शिकायत को ही अमान्य करवा दिया जाए; और यदि यह प्लान सफल न हो सके तो प्लान 'बी' के अनुसार, शिकायत को कमेटी में खारिज करवा दिया जाए । प्लान 'बी' को सफल बनाने के लिए राजा साबू एण्ड कंपनी को पीटी प्रभाकर की मदद की जरूरत पड़ेगी । प्लान 'ए' को सफल बनाने के लिए राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट के कुछेक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स ने पूरी तरह कमर कस ली है और वह साम-दाम-दंड-भेद रूपी सारे हथकंडे कॉन्करेंस देने वाले क्लब-अध्यक्षों पर अपना रहे हैं । प्लान 'बी' के लिए राजा साबू एण्ड कंपनी ने पीटी प्रभाकर पर डोरे डालने शुरू कर दिए हैं । इसी वजह से 21 मई को दिल्ली में राजा साबू एण्ड कंपनी के रोटरी इंडिया अवार्ड फंक्शन में पीटी प्रभाकर को भी भाषण देने का मौका मिलेगा ।
यह इस बात का एक दिलचस्प उदाहरण है कि रोटरी की राजनीतिक मजबूरियाँ राजा साबू जैसे बड़े नेताओं को भी कैसे कैसे 'मजबूर' बना देती हैं । 

Friday, May 15, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद हेतु प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने में लगे सुभाष जैन को जेके गौड़ ने जो आईना दिखाया है, सुभाष जैन उससे कोई सबक लेंगे क्या ?

गाजियाबाद । सुभाष जैन को अपनी तमाम सक्रियता के बावजूद अपनी उम्मीदवारी के लिए जितना/जैसा ठंडा और नकारात्मक रिस्पॉन्स मिल रहा है, उससे उनकी उम्मीदवारी के अभियान के तेजी पकड़ने के अनुमान फेल होते हुए दिखने लगे हैं । बहुत लोगों को उम्मीद थी कि सुभाष जैन ने जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की है, तो वह अच्छी तैयारी के साथ उसके लिए समर्थन जुटाने के अभियान में निकलेंगे । सुभाष जैन अपने परिचितों के बीच अपनी इसी खूबी के लिए जाने/पहचाने जाते हैं कि वह जो भी काम हाथ में लेते हैं, उसे प्रभावी तरीके से अंजाम तक पहुँचाते हैं । लेकिन अगले रोटरी वर्ष में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रस्तावित अपनी उम्मीदवारी के अभियान के संदर्भ सुभाष जैन अपनी उक्त खूबी को प्रदर्शित कर पाने में अभी तक तो विफल ही नजर आ रहे हैं । रोटरी क्लब गाजियाबाद आईडियल के प्रेसीडेंट इलेक्ट पंकज जैन के एक बिजनेस ईवेंट में उन्होंने अपनी उम्मीदवारी के प्रमोशन का जो मौका बनाया, उसके कारण तो उनकी भारी फजीहत हुई है । उक्त ईवेंट में सुभाष जैन की तरफ से आमंत्रित किए गए रोटेरियंस को वहाँ जिस बदइंतजामी का शिकार होना पड़ा, उससे देख/सुन कर उन लोगों को गहरा धक्का लगा जो सुभाष जैन की तरफ से बेहतर तैयारियों की उम्मीद लगाए हुए थे । मौके पर मौजूद कुछेक रोटेरियंस के अनुसार, बदइंतजामी को दूर करने के लिए लोगों के बीच सुभाष जैन को खुद पकौड़े सर्व करने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन फिर भी कई रोटेरियंस पकौड़े न मिलने की शिकायत करते सुने/देखे गए । सुभाष जैन के उक्त उपक्रम को कई रोटेरियंस ने आपसी बातचीत में, तो कुछेक ने सुभाष जैन के सीधे मुँह पर वाहियात बताया । 'बेगाने की शादी में अब्दुल्ला के दीवाने' होने वाले मुहावरे की तर्ज पर पंकज जैन के आयोजन से फायदा उठाने की सुभाष जैन ने जो कोशिश की, उसने उन्हें ऐसा झटका दिया है कि उससे उबरना उनके लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है । 
सुभाष जैन के लिए इससे भी बड़ी चुनौती लेकिन क्लब में बनी हुई है, जिससे उबरने/निकलने के लिए उन्हें कोई उपाय तक नहीं सूझ रहा है । क्लब में योगेश गर्ग ने अपनी उम्मीदवारी का दावा जता कर सुभाष जैन की उम्मीदवारी की राह में जो रोड़ा डाला हुआ है, उस रोड़े को हटाने के बारे में सुभाष जैन अभी तक कोई प्रयास करते हुए भी नहीं दिखे हैं । उनके नजदीकियों का कहना है कि क्लब में योगेश गर्ग द्वारा पैदा हुए इस झंझट से निबटने की उनकी सारी उम्मीद अगले रोटरी वर्ष में होने वाले क्लब के अध्यक्ष आशीष गर्ग पर टिकी है । आशीष गर्ग को सुभाष जैन 'अपना आदमी' बताते हुए दावा कर रहे हैं कि अगले रोटरी वर्ष में योगेश गर्ग से आशीष गर्ग निपटेंगे । सुभाष जैन को आशीष गर्ग से यह उम्मीद भले ही हो, लेकिन क्लब के दूसरे सदस्यों का मानना/कहना है कि आशीष गर्ग भले ही सुभाष जैन के 'आदमी' हों, लेकिन अध्यक्ष के रूप में काम तो उन्हें नियमानुसार ही करना होगा; और इसलिए सुभाष जैन जिस मनमाने तरीके से मामले को हल कर लेने की उम्मीद लगाये हुए हैं, उससे तो बात बनेगी नहीं । उल्लेखनीय है कि योगेश गर्ग से निपटने के लिए सुभाष जैन ने अभी ही प्रयास किए थे और उन्हें उम्मीद थी कि स्कूली धंधे में संग-साथ के चलते मौजूदा अध्यक्ष स्वाति गुप्ता उनका साथ देंगी । लेकिन स्वाति गुप्ता से उन्हें कोई मदद या फेवर मिलता नहीं दिखा तो उन्होंने अपने प्रयासों को समेट लिया और अपनी सारी उम्मीद आशीष गर्ग पर टिका दी हैं । क्लब में जो सुभाष जैन के शुभचिंतक भी हैं, उनका भी मानना और कहना है कि सुभाष जैन 'जिस तरह की' मदद अध्यक्ष से चाहते हैं उस तरह की मदद करने को न स्वाति गुप्ता तैयार हुईं और न आशीष गर्ग तैयार होंगे - तैयार हो भी गए, तो भी कर नहीं पायेंगे । 
सुभाष जैन के लिए क्लब का यह झमेला डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच समर्थन जुटाने की उनकी कोशिशों में एक बड़ी रूकावट बना हुआ है । दरअसल डिस्ट्रिक्ट में लोगों को यही समझना मुश्किल हो रहा है कि सुभाष जैन अपनी उम्मीदवारी के लिए जब अपने क्लब में हरी झंडी नहीं ले पा रहे हैं, तो वह उम्मीदवार बनेंगे कैसे ? सुभाष जैन के सामने उम्मीदवार बनने के यूँ तो दूसरे रास्ते हो सकते हैं, लेकिन समस्या स्पष्टता की है - जिसके अभाव में सुभाष जैन की उम्मीदवारी को लेकर ही कन्फ्यूजन बना हुआ है । ऐसे में, जबकि सुभाष जैन लोगों के बीच अपनी उम्मीदवारी को लेकर ही भरोसा पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तब फिर अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाना उनके लिए कितना मुश्किल हो रहा होगा - इसे सहज ही समझा जा सकता है । सुभाष जैन के लिए मुसीबत की बात यह हो रही है कि डिस्ट्रिक्ट में लोगों के बीच उनकी उम्मीदवारी की हवा नहीं बनती दिख रही है, तो उसके कारण क्लब में उनकी उम्मीदवारी के संभावित समर्थक हतोत्साहित हो रहे हैं । यानि क्लब का झंझट उन्हें दोनों तरफ से चोट पहुँचा रहा है । इसीलिए सुभाष जैन की उम्मीदवारी के प्रति समर्थन का भाव रखने रोटेरियंस का मानना और कहना है कि सुभाष जैन को पहले अपने क्लब में पैदा हुए झंझट को हल करना चाहिए, जिससे कि डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच उनकी उम्मीदवारी को लेकर पैदा हुआ और बना हुआ कन्फ्यूजन दूर हो सके ।
सुभाष जैन को जेके गौड़ के रवैये से भी झटका लगा है । स्कूली धंधे की जो सक्रियता है उसमें तो जेके गौड़ उनके साथ बिलकुल कंधे से कंधा मिलाकर रहते हैं और उनकी हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं; रोटरी में भी जेके गौड़ अभी तक उनके साथ 'ठीक' ही रहे हैं; लेकिन सुभाष जैन ने शिकायत की है कि जब से वह उम्मीदवार 'बने' हैं, तब से जेके गौड़ का रवैया कुछ बदला बदला से है । जेके गौड़ के बदले बदले रवैये की शिकायत कई अन्यों को भी है - हालाँकि यह शिकायत जायज नहीं है । जेके गौड़ अब गवर्नर हैं यार, रवैया कुछ बदलना भी चाहिए; और उनके बदले रवैये को झेलने के लिए दूसरे लोगों को तैयार भी होना चाहिए । सुभाष जैन की समस्या लेकिन दूसरी है । अपनी उम्मीदवारी को उन्होंने अचानक से यदि प्रस्तुत किया है, तो उसके पीछे जेके गौड़ की ही प्रेरणा रही है । सुभाष जैन ने खुद ही लोगों को बताया है कि जेके गौड़ से मदद मिलने का आश्वासन मिलने के बाद ही उन्होंने अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है । लेकिन अब जब वह उम्मीदवार बन गए हैं, तब जेके गौड़ उन्हें कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं और उनकी पर्याप्त मदद नहीं कर रहे हैं । जेके गौड़ का कहना लेकिन कुछ और है । जिन लोगों ने उन्हें बताया कि सुभाष जैन उनसे मदद नहीं मिलने से खफा हैं, उन्हें जेके गौड़ ने कहा कि सुभाष जैन की समस्या यह है कि वह सोचते/चाहते हैं कि मैं रोजाना सुबह उन्हें फोन करूँ और उनसे पूछूँ कि मुझे उनकी क्या क्या मदद करनी है: जेके गौड़ ने थोड़ा तल्खी से कहा कि मदद सुभाष जैन को मुझसे चाहिए तो सुभाष जैन को मुझे फोन करना होगा और बताना होगा कि मुझसे उन्हें क्या मदद चाहिए । जेके गौड़ ने अपने इस रिएक्शन से सुभाष जैन को आईना दिखाने का जो काम किया है, वह स्वाभाविक भी है और सही भी है; साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि सुभाष जैन के एटीट्यूड से जेके गौड़ कितने आहत हैं । 
सुभाष जैन का यह एटीट्यूड ही उनके लिए सबसे बड़ी समस्या है और इसी के कारण तमाम सक्रियता के बावजूद उनकी उम्मीदवारी के अभियान में हवा भरती हुई नहीं दिख रही है । 

Thursday, May 14, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080, यानि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग में जो हुआ, और उसके बाद जो हो रहा है - वह है तो शर्मनाक ! किंतु सवाल यह है कि शर्म आयेगी किसे ? और आयेगी भी कि नहीं ?

चंडीगढ़ । राजेंद्र उर्फ़ राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट के कुछेक पूर्व गवर्नर्स 11 मई को संपन्न हुई कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग के बाद रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसादेवी द्वारा की गई इलेक्शन कम्प्लेंट के साथ गईं कॉन्करेंस को वापस कराने के काम में जुट गए हैं । इस बात का तो पता नहीं चल सका है कि इस काम में जुटने लिए उन्हें राजा साबू से निर्देश मिला है या नहीं, लेकिन यह बात जरूर साफ हो गई है कि इस काम में जुटने वाले पूर्व गवर्नर्स को सफल होने पर राजा साबू की गुडबुक में आने का विश्वास जरूर है । कॉन्करेंस वापस कराने के काम में जुटे पूर्व गवर्नर्स को पक्का भरोसा है कि जो जितनी ज्यादा कॉन्करेंस वापस करवायेगा, वह राजा साबू के उतना ही ज्यादा नजदीक पहुँच जायेगा । मजे की बात यह है कि डिस्ट्रिक्ट में राजा साबू के जो दूसरे समर्थक व शुभचिंतक हैं वह पूर्व गवर्नर्स की इस हरकत को शर्मनाक बता रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि राजा साबू के नजदीक आने/पहुँचने के अपने स्वार्थ को पूरा करने के चक्कर में यह पूर्व गवर्नर्स वास्तव में राजा साबू के लिए बदनामी और फजीहत पैदा कर रहे हैं । डिस्ट्रिक्ट में बहुत से लोग अब यह मानने/समझने लगे हैं कि डिस्ट्रिक्ट में जो तमाशा खड़ा हुआ है, उसे राजा साबू का नाम लेकर कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने अपने स्वार्थ को पूरा करने और अपनी निजी खुन्नस निकालने के उद्देश्य से खड़ा किया है । तमाशा तो उन्होंने खड़ा कर दिया लेकिन उस तमाशे को समेटना उनके लिए भारी पड़ रहा है । तमाशे को समेटने में वह जो हरकतें कर रहे हैं उससे रोटरी और डिस्ट्रिक्ट की ही नहीं, राजा साबू की भी फजीहत हो रही है । 
राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में - और डिस्ट्रिक्ट के बाहर जो दूसरे समर्थक व शुभचिंतक हैं, वह कहने भी लगे हैं कि इन जैसे समर्थकों व तथाकथित मददगारों के होते राजा साबू को विरोधियों या दुश्मनों की जरूरत नहीं पड़ेगी । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट में और रोटरी में राजा साबू के विरोधियों या दुश्मनों की कमी नहीं है, लेकिन कोई भी उनका बाल भी बाँका नहीं कर सका है । उनकी साख और प्रतिष्ठा में उनके विरोधी या दुश्मन एक खरोंच भी पैदा नहीं कर सके । लेकिन असंभव सा लगने वाला जो काम उनके विरोधी और दुश्मन नहीं कर सके, उसे उनके समर्थक व मददगार पूर्व गवर्नर्स ने कर दिखाया है । मजे की बात यह है कि मामला जितना ज्यादा बढ़ता जा रहा है, वह राजा साबू की साख और प्रतिष्ठा के संदर्भ में उतना ही और ज्यादा संगीन होता जा रहा है । जो पूर्व गवर्नर्स राजा साबू को आश्वस्त कर रहे हैं कि वह मामले को सँभाल लेंगे, मामला उनसे संभलना तो दूर बल्कि और भी ज्यादा बिगड़ता जा रहा है । इससे सबक लेने और सावधान होने की बजाये, सच्ची स्थिति को स्वीकारने तथा उसके अनुरूप काम करने की बजाये ये पूर्व गवर्नर्स अभी भी दावा कर रहे हैं और अपने दावे को सही साबित करने के लिए ऐसी हरकतें कर रहे हैं जिससे हालात शर्मनाक स्थिति में पहुँच गए हैं । 
रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसादेवी द्वारा दर्ज कराई गई इलेक्शन कम्प्लेंट के साथ गईं कॉन्करेंस वापस कराने के लिए कुछेक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स जिस तरह की ओछी हरकतों पर उत्तर आये हैं; तथा कॉन्करेंस देने वाले क्लब्स के अध्यक्षों/सचिवों पर जिस तरह से दबाव बना कर उन्हें अपमानित करने का प्रयास कर रहे हैं - उसने डिस्ट्रिक्ट में वास्तव में एक शर्मनाक दृश्य पैदा कर दिया है । इन कुछेक पूर्व गवर्नर्स की हरकत से डिस्ट्रिक्ट का पूरा माहौल न सिर्फ तनावपूर्ण हो गया है, बल्कि अशालीन भी हो गया है । जो लोग अभी कल तक इन पूर्व गवर्नर्स को इज्जत की निगाह से देखते थे, वह आज इनके बारे में बहुत ही खराब तरीके से बातें कर रहे हैं । कॉन्करेंस वापस कराने के काम में नीचे स्तर तक गिरे इन पूर्व गवर्नर्स ने अपनी हरकतों से लोगों के बीच अपनी इज्जत तो गँवाई ही है, राजा साबू के लिए भी बहुत ही बुरी स्थिति पैदा कर दी है । बुरी स्थिति पैदा होने का सुबूत यह है कि आज चौथे दिन तक भी इन पूर्व गवर्नर्स को एक भी कॉन्करेंस वापस कराने में सफलता नहीं मिली है । सुनने में तो यहाँ तक आ रहा है कि इन पूर्व गवर्नर्स की इन हरकतों से डिस्ट्रिक्ट में इतना रोष पैदा हुआ है कि कई एक क्लब्स ने रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसादेवी के पदाधिकारियों को अपनी अपनी कॉन्करेंस ऑफर की हैं । 
दुर्भाग्य की और निहायत शर्म की बात यह है कि 11 मई की कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग नेपाल में आए भूकंप से उजड़े लोगों को मदद पहुँचाने के उपायों पर बात करने के उद्देश्य से बुलाई गई थी; लेकिन इस बारे में मीटिंग में कोई बात ही नहीं हुई । बात सिर्फ रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसादेवी द्वारा दर्ज कराई गई इलेक्शन कम्प्लेंट के बारे में हुई । कुछेक पूर्व गवर्नर्स इस बात पर बुरी तरह बौखलाए हुए थे कि इस इलेक्शन कम्प्लेंट के समर्थन में डिस्ट्रिक्ट के दूसरे कई क्लब्स ने कॉन्करेंस कैसे दे दीं । मीटिंग में उपस्थित कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने मीटिंग के मुख्य एजेंडे - नेपाल में भूकंप से उजड़े लोगों की मदद के उपायों पर बात करने की कोशिश की भी तो उन्हें चुप करा दिया गया; और सारी चर्चा इस बात पर केंद्रित रही कि कॉन्करेंस वापस कैसे करवाई जाएँ ? कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने अपने आप ही ड्यूटियाँ बाँट लीं कि फलाँ फलाँ क्लब्स की कॉन्करेंस फलाँ फलाँ पूर्व गवर्नर वापस करवायेंगे । मीटिंग खत्म होने के तुरंत बाद से कुछेक पूर्व गवर्नर्स काम पर लग भी गए । सफलता अभी चार दिन बाद तक भी किसी को नहीं मिली है - लेकिन उनके अहंकारपूर्ण दावे पहले जैसे ही बने हुए हैं । पूर्व गवर्नर्स की इस हरकत पर रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसादेवी की तरफ से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर दिलीप पटनायक को लिखा ईमेल पत्र डिस्ट्रिक्ट में कई लोगों को मिला है; जिससे पूर्व गवर्नर्स की हरकत डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच चर्चा का विषय तो बन ही गई है, उनकी जमकर थुक्काफजीहत भी हो रही है । 
डिस्ट्रिक्ट के लोगों को लेकिन राजा साबू के रवैये पर ज्यादा हैरानी और निराशा हो रही है । लोगों को लग रहा है कि राजा साबू ने जिस तरह से इस मामले को लेकर आँखों पर पट्टी बाँध कर धृतराष्ट का रूप अपना लिया है, उससे खुद उनकी ही पहचान और प्रतिष्ठा धूल में मिली जा रही है । किसी के लिए भी यह समझना मुश्किल हो रहा है कि राजा साबू कुछेक पूर्व गवर्नर्स के हाथों इतना मजबूर क्यों हो गए हैं कि अपने भले-बुरे को देखने का विवेक भी खो बैठे हैं ? उनकी शह या उनकी चुप्पी से प्रोत्साहन पाकर कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने जिस तरह से डिस्ट्रिक्ट में रोटरी भावना और रोटरी आदर्शों को तार-तार किया हुआ है - उससे डिस्ट्रिक्ट, रोटरी और खुद राजा साबू के लिए स्थितियाँ शर्मनाक बन गईं हैं । किंतु सवाल यही है कि शर्म आयेगी किसे ? और आयेगी भी कि नहीं ?

Tuesday, May 12, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में जेके गौड़ व शरत जैन जैसों के जरिए मुकेश अरनेजा को किनारे लगाने में कामयाब रहे रमेश अग्रवाल ने प्रसून चौधरी की उम्मीदवारी का झंडा उठाया, लेकिन प्रसून चौधरी के समर्थक रमेश अग्रवाल के खुले समर्थन को आत्मघाती मान रहे हैं

नई दिल्ली । प्रसून चौधरी की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की उम्मीदवारी को रमेश अग्रवाल के समर्थन की चर्चाओं के कारण डिस्ट्रिक्ट के सत्ता खेमे में फूट पड़ने के अनुमान लगाये जाने लगे हैं । यह अनुमान इसलिए लगाए जा रहे हैं क्योंकि मुकेश अरनेजा को अशोक गर्ग के समर्थक के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । लोगों को लग रहा है कि अगले रोटरी वर्ष में होने वाला डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव मुकेश अरनेजा और रमेश अग्रवाल की राहों को अलग अलग करने का कारण बनेगा । दरअसल जेके गौड़ तथा शरत जैन के रवैये ने मुकेश अरनेजा को तगड़ा झटका दिया है; और उन्हें लगने लगा है कि उनके साथ 'इस्तेमाल करो और किनारे लगाओ' वाला फार्मूला इस्तेमाल किया जा रहा है । पहले जेके गौड़ को तथा फिर शरत जैन को चुनवाने में मुकेश अरनेजा ने अपना सारा 'हुनर' इस्तेमाल किया - लेकिन यह दोनों रमेश अग्रवाल के ज्यादा सगे बने हैं और इन्होंने मुकेश अरनेजा को तो 'एक्स्ट्रा कलाकार' मान कर अलग ही बैठा दिया है । जेके गौड़ जिस तरह रमेश अग्रवाल को ही 'माई-बाप' माने बैठे हैं, उससे सबसे ज्यादा फजीहत मुकेश अरनेजा की हुई है और हो रही है । शरत जैन ने भी अभी से जेके गौड़ जैसे ही रंग-ढंग दिखाने शुरू कर दिए हैं, जिससे यह लगने लगा है कि शरत जैन के गवर्नर-काल में भी मुख्य भूमिका रमेश अग्रवाल की ही रहेगी, तथा मुकेश अरनेजा को तो ज्यादा से ज्यादा अतिथि कलाकार की भूमिका मिल जायेगी । डिस्ट्रिक्ट में मुकेश अरनेजा की यह जो दुर्गति हो रही है, उसका असर डिस्ट्रिक्ट के ऊपर की रोटरी की दुनिया पर भी पड़ रहा है - जहाँ कि रमेश अग्रवाल अपने लिए तो छोटे-मोटे असाइनमेंट जुगाड़ लेते हैं, और मुकेश अरनेजा को हाथ मलते हुए ही रह जाना पड़ता है । 
इसीलिए मुकेश अरनेजा को लग रहा है कि रमेश अग्रवाल से अलग होकर ही वह अपनी खोई हुई ताकत तथा हैसियत को पुनः पा सकते हैं । दूसरे लोगों का तो कहना है ही, लेकिन अब तो मुकेश अरनेजा को भी लगने लगा है कि उनकी रोटरी की राजनीति को रमेश अग्रवाल की हरकतों के चलते ही ग्रहण लग रहा है । अपनी हरकतों के चलते रोटरी के नेताओं के बीच रमेश अग्रवाल बुरी तरह बदनाम हैं; उनकी यह बदनामी मुकेश अरनेजा के पीछे भी चिपक जाती है - क्योंकि माना/समझा जाता है कि रमेश अग्रवाल जो भी करते हैं उसमें मुकेश अरनेजा का सहयोग व समर्थन होता ही है । इस तरह रमेश अग्रवाल के कारण मुकेश अरनेजा को दोहरा नुकसान होता है - एक तरफ तो रमेश अग्रवाल की बदनामी उनकी बदनामी में और इजाफा करती है, और दूसरी तरफ उनके लिए जो थोड़े-बहुत मौके बनते हैं उन्हें भी रमेश अग्रवाल झपट लेते हैं । बड़ा कमाल तो डिस्ट्रिक्ट में यही हुआ है कि रमेश अग्रवाल के प्रभाव में जेके गौड़ जैसे 'ना-कुछ' ने मुकेश अरनेजा को धो कर रख दिया है । मुकेश अरनेजा की बेचारगी का आलम यह है कि वह जेके गौड़ का कुछ कर भी नहीं पा रहे हैं । मुकेश अरनेजा ऐसे थे नहीं - लोगों को याद है कि अमित जैन ने जब उन्हें 'धोया' था, तब मुकेश अरनेजा ने उनसे कैसा बदला लिया था । जेके गौड़ के मामले में मुकेश अरनेजा की लेकिन सिट्टी-पिट्टी गुम है । जेके गौड़ के बाद शरत जैन भी मुकेश अरनेजा को 'ठिकाने' लगाने की तैयारी में हैं । मुकेश अरनेजा जैसे धाकड़ नेता जेके गौड़ तथा शरत जैन जैसों के सामने असहाय बने हुए हैं, तो इसका कारण यही है कि इन दोनों को रमेश अग्रवाल से शह व समर्थन मिल रहा है ।
अपनी खोई हुई ताकत व हैसियत को वापस पाने के लिए मुकेश अरनेजा ने लेकिन इस बीच एक बड़ा काम यह जरूर किया है कि उन्होंने सतीश सिंघल से तार जोड़ लिए हैं । वह भाँप रहे हैं कि सतीश सिंघल के गवर्नर-काल में रमेश अग्रवाल को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलेगी, इसलिए सतीश सिंघल के साथ तार जोड़ कर वह रोटरी की राजनीति में अपने पुराने मुकाम को पाने की उम्मीद लगाये हुए हैं और इस उम्मीद को पूरा करने के लिए उन्होंने अपना कदम बढ़ा दिया है । अपने इस कदम के वास्ते ठोस जमीन तैयार करने के लिए मुकेश अरनेजा ने सतीश सिंघल के बाद अशोक गर्ग को गवर्नर बनवाने का जिम्मा उठा लिया है । मुकेश अरनेजा की इस चाल को पहचान कर ही रमेश अग्रवाल ने अशोक गर्ग की उम्मीदवारी के समर्थन से हाथ खींच लिया है । उल्लेखनीय है कि अभी कुछ समय पहले तक रमेश अग्रवाल को अशोक गर्ग की उम्मीदवारी के समर्थक के रूप में ही देखा/पहचाना जा रहा था, लेकिन रमेश अग्रवाल ने अब प्रसून चौधरी की उम्मीदवारी का समर्थन करने के संकेत देना शुरू कर दिया है । मुकेश अरनेजा को यह स्थिति अपनी रणनीति के अनुरूप ही घटित होती हुई दिख रही है । रमेश अग्रवाल की इस उम्मीदवार-बदली से उनके लिए लोगों के बीच यह कहने/बताने का मौका बना है कि उन्होंने रमेश अग्रवाल का साथ नहीं छोड़ा है, बल्कि रमेश अग्रवाल ने उनका साथ छोड़ा है ।
रमेश अग्रवाल के समर्थन को लेकर प्रसून चौधरी के समर्थकों के बीच जो खलबली मची है, उसे देख/जान कर भी मुकेश अरनेजा उत्साहित हुए हैं । प्रसून चौधरी के कई समर्थक व शुभचिंतक रमेश अग्रवाल के खुले समर्थन को प्रसून चौधरी की उम्मीदवारी के लिए आत्मघाती मान रहे हैं । उनका कहना है कि डिस्ट्रिक्ट में रमेश अग्रवाल की जैसी जो बदनामी है - उसके कारण रमेश अग्रवाल के समर्थन से फायदा कम,नुकसान ज्यादा होगा । यह सच है कि रमेश अग्रवाल के समर्थन के बावजूद जेके गौड़ और शरत जैन जीते हैं, लेकिन यह मानना कि इन्हें जीत रमेश अग्रवाल के कारण मिली है - सच्चाई व तथ्यों से मुँह चुराना होगा । इसी का वास्ता देकर प्रसून चौधरी के कुछेक समर्थकों का सुझाव है कि रमेश अग्रवाल के समर्थन को पर्दे के पीछे छिपा कर रखे जाने की जरूरत है । सवाल लेकिन यह है कि इसके लिए रमेश अग्रवाल तैयार होंगे क्या ? यह सुझाव रमेश अग्रवाल को अपनी तौहीन नहीं लगेगा क्या ? और इस तौहीन के बाद भी वह प्रसून चौधरी की उम्मीदवारी के समर्थन में बने रहेंगे क्या ? इन सवालों से जो स्थितियाँ बन रही हैं, उन्हें सुभाष जैन और भड़का रहे हैं । वह लोगों को बता रहे हैं कि स्कूली धंधे के कारण जेके गौड़ और जैन होने के कारण शरत जैन उनके समर्थन के लिए राजी हो गए हैं, और यह दोनों रमेश अग्रवाल पर दबाव बनायेंगे कि रमेश अग्रवाल इस बार प्रसून चौधरी को उनके पक्ष में बैठा लें । सुभाष जैन का यह दावा कितना सच है, और यदि सच है तो कब तक कामयाब हो पायेगा - यह तो अगले कुछ दिनों में ही स्पष्ट हो पायेगा; लेकिन अभी यह जरूर हुआ है कि रमेश अग्रवाल के समर्थन से पैदा हुई मुसीबत में प्रसून चौधरी और उनके समर्थक अभी उलझे हुए थे ही कि सुभाष जैन के इस 'हमले' ने उनकी मुसीबत को और बढ़ा दिया है । 
रमेश अग्रवाल के नाम पर पैदा हुए इस झमेले में मुकेश अरनेजा को अपना काम आसान होता हुआ दिख रहा है; और उनकी इस आसानी में डिस्ट्रिक्ट की राजनीति एक दिलचस्प मोड़ लेती हुई नजर आ रही है । 

Monday, May 11, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी ने संजीव चौधरी, विजय गुप्ता, विनोद जैन और विशाल गर्ग के लिए एक साथ मुश्किलें तो खड़ी कर दी हैं; लेकिन खुद संजय वासुदेवा के लिए भी मामला उतना आसान नहीं दिख रहा है, जितना कि समझा जा रहा है

नई दिल्ली । एससी वासुदेवा ने अपने बेटे संजय वासुदेवा को इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए चुनवाने का बीड़ा जिस तरह उठा लिया है, उसके कारण उन्होंने संजीव चौधरी, विजय गुप्ता, विनोद जैन और विशाल गर्ग के लिए एक साथ मुश्किलें खड़ी कर दी हैं । एससी वासुदेवा का प्रोफेशन के लोगों के बीच जो ऑरा (आभामंडल) है तथा उन्होंने संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी के पक्ष में जो सक्रियता दिखाई है; उसके चलते एक तरफ जहाँ संजीव चौधरी और विजय गुप्ता के लिए सेंट्रल काउंसिल की अपनी मौजूदा सीट की रक्षा कर पाना मुश्किल हो गया है, वहीं दूसरी तरफ विनोद जैन और विशाल गर्ग के लिए सेंट्रल काउंसिल में घुसने का दरवाजा लोगों को और दूर हो गया लग रहा है । ऑडिट और कन्सल्टिंग क्षेत्र में नामी फर्म होने के नाते एससी वासुदेव का कंपनियों में जो वोट है, उस पर अच्छा प्रभाव है । संजीव चौधरी और विनोद जैन भी चूँकि कंपनियों के वोटों पर निर्भर रहते हैं, इसलिए इनके सामने कंपनियों के वोटों के छिन जाने का खतरा पैदा हो गया है । गौर करने वाला तथ्य यही है कि पिछली बार वासुदेवा खेमे का समर्थन मिलने के कारण ही संजीव चौधरी को जीत मिली थी; और संजीव चौधरी को वासुदेवा खेमे का समर्थन मिलने के कारण ही विनोद जैन सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट खो बैठे थे । इसीलिए लोगों को लग रहा है कि इस बार जब वासुदेवा खेमे से संजय वासुदेवा उम्मीदवार हो रहे हैं, तो विनोद जैन के लिए तो हालात और बुरे हो ही जाते हैं, संजीव चौधरी के लिए भी मुसीबत खड़ी हो जाती है । 
वासुदेवा फर्म का ब्राँच ऑफिस लुधियाना में होने के कारण लुधियाना तथा आसपास के शहरों में संजय वासुदेवा को अच्छा समर्थन मिलने की उम्मीद है - यही उम्मीद विजय गुप्ता और विशाल गर्ग के लिए खतरे की घंटी बजाती है । उल्लेखनीय है कि विजय गुप्ता को पिछली बार लुधियाना से ही संजीवनी मिली थी; संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी और उनकी उम्मीदवारी को लुधियाना में मिलने वाले समर्थन की चर्चा ने विजय गुप्ता से वह संजीवनी छीन लेने का खतरा पैदा कर दिया है । विशाल गर्ग तो लुधियाना के भरोसे ही सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत कर रहे हैं । लोगों का पूछना लेकिन यह है कि लुधियाना में जब संजय वासुदेवा का डंका बजेगा, तब विशाल गर्ग के लिए बचेगा क्या ?
संजय वासुदेवा के लिए इस तरह ऊपरी तौर पर तो मामला बड़ा आसान लगता है, किंतु इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के गणित तथा उसकी केमिस्ट्री को जानने/समझने वाले लोगों का यह भी मानना और कहना है कि संजय वासुदेवा के लिए मामला उतना आसान नहीं है, जितना कि समझा जा रहा है । संजय वासुदेवा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि लोगों के बीच उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है, वह एससी वासुदेवा के बेटे के रूप में ही पहचाने जाते हैं । यह सच है कि लोगों के बीच एससी सचदेवा की अच्छी साख, पहचान और प्रतिष्ठा है - किंतु इस साख, पहचान और प्रतिष्ठा को वोटों में बदलने का मैकेनिज्म भी उनके पास है, यह बात कोई भी विश्वास के साथ नहीं कह पा रहा है । वासुदेवा खेमे के एक प्रमुख सदस्य ने इन पँक्तियों के लेखक से साफ कहा कि एससी वासुदेवा के कारण संजय वासुदेवा को प्लेटफॉर्म तो अच्छा मिला है, लेकिन इस पर 'गाड़ी चलाने' का काम संजय वासुदेवा को ही करना पड़ेगा । वासुदेवा खेमे के जो बड़े नेता या लोग हैं, वह वास्तव में एससी वासुदेवा के साथ अपने को कनेक्ट करते हैं; उनका सक्रिय समर्थन संजय वासुदेवा को मिल सके - इसके लिए प्रयास संजय वासुदेवा को ही करने पड़ेंगे । यह प्रयास संजय वासुदेवा के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सक्रिय राजनीति से वर्ष 2006 में एससी वासुदेवा के अलग होने के बाद से वासुदेवा खेमे के लिए 'अपने' उम्मीदवार को जितवा पाना और ला पाना मुश्किल हुआ है । 
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2006 में वासुदेवा खेमे से सुनील अरोड़ा उम्मीदवार बने थे, लेकिन कामयाब नहीं हो सके थे; और उसके बाद  चुनावों में वासुदेवा खेमे से कोई उम्मीदवार नहीं आया । आरोप की शक्ल में चर्चा यह रही है कि खेमे का पर्याप्त समर्थन न मिलने के कारण सुनील अरोड़ा कामयाब नहीं हो सके थे, और बाद के चुनावों में भी खेमे का पर्याप्त समर्थन न मिलने के डर से ही खेमे से कोई उम्मीदवार नहीं बना । हालाँकि खुद सुनील अरोड़ा इस तरह की बातों को गलत और बेबुनियाद बताते रहे हैं । कई मौकों पर सुनील अरोड़ा ने कहा है कि 2006 में यदि वह कामयाब नहीं हो सके थे, तो इसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार थे । एक तो उन्होंने अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने में बहुत देर लगा दी थी, और दूसरे फिर वह अपने चुनाव अभियान के लिए भी आवश्यक समय नहीं दे पाए थे । सुनील अरोड़ा के अनुसार, खेमे के नेताओं ने तो वर्ष 2006 में भी उनको भरपूर सहयोग व समर्थन दिया था, तथा वर्ष 2009 में भी उन्हें उम्मीदवार बनने के लिए खूब प्रेरित किया था - लेकिन अपनी व्यस्तता के कारण वह ही उम्मीदवार नहीं बने थे । अब कारण चाहें जो रहे हों, सच्चाई यही है कि इंस्टीट्यूट के पिछले तीन चुनावों में वासुदेवा खेमे की जो 'प्रत्यक्ष' अनुपस्थिति रही है, उससे जो गैप बना है उसकी भरपाई करने की चुनौती एक उम्मीदवार के रूप में संजय वासुदेवा के सामने हैं । 
संजय वासुदेवा के जो कुछेक समर्थक नवीन गुप्ता के उदाहरण के साथ तर्क देते हैं कि जिस तरह 'सिर्फ' एनडी गुप्ता के बेटे होने के नाते नवीन गुप्ता इंस्टीट्यूट का चुनाव जीत सकते हैं, उसी तरह संजय वासुदेवा भी एससी वासुदेवा के बेटे होने के कारण चुनाव जीत लेंगे; वह एक तथ्य मिस कर रहे हैं कि जब नवीन गुप्ता पहली बार उम्मीदवार बने थे, तब तक एनडी गुप्ता की राजनीतिक सक्रियता में कोई गैप नहीं बना था और उनका खेमा वेद जैन को कामयाब करवा चुका था । एक बड़ा फर्क और है तथा वह यह कि एनडी गुप्ता का लोगों के बीच जो इन्वॉल्वमेंट और या प्रभाव रहा है उसमें राजनीतिक पुट ज्यादा रहा है; जबकि एससी वासुदेवा का लोगों के बीच जो इन्वॉल्वमेंट और या प्रभाव रहा है, उसमें एकेडमिक व कैरियर वाला पुट ज्यादा रहा है । इस एकेडमिक व कैरियर वाले पुट को राजनीति में - सीधे सीधे कहें तो वोटों में बदलने का काम संजय वासुदेवा को ही करना पड़ेगा, जो नवीन गुप्ता को नहीं करना पड़ा था । नवीन गुप्ता को तो बिना कुछ किए-धरे, अपने पिताजी के भरोसे जीत मिल गई थी - लेकिन संजय वासुदेवा को शायद उतनी आसानी से जीत न मिल सके । एससी वासुदेवा इस बात को बखूबी समझ रहे हैं और इसीलिए उन्होंने खुद भी मोर्चा सँभाला है तथा अपनी तरफ से पहल करके अपने लोगों को संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी के पक्ष में सक्रिय होने के लिए प्रेरित करने में लगे हैं । 
संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी के समर्थकों ने विश्वास व्यक्त किया है कि संजय वासुदेवा निश्चित रूप से एक उम्मीदवार की जिम्मेदारी निभायेंगे और वासुदेवा खेमे में चुनावी राजनीति के खिलाड़ी जो नेता हैं उनके सहयोग से संजय वासुदेवा चुनावी समीकरणों को अपने पक्ष में कर लेंगे । यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि अपनी उम्मीदवारी के समर्थकों के इस विश्वास को बनाये रखने के लिए संजय वासुदेवा क्या करते हैं और कैसे करते हैं ? 

Sunday, May 10, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया की सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल से सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बने मनु अग्रवाल ने लगता है कि पिछली बार की गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा है; और इसीलिए उनके शुभचिंतकों को भी डर हुआ है कि पिछली बार की तरह कहीं इस बार भी हाथ में आता आता मौका फिसल कर निकल न जाए

कानपुर । मनु अग्रवाल ने अपने खुद के रवैये से ही सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी को मजाक का विषय बना दिया है, और अपने लिए विरोध व मुसीबत का माहौल बना लिया है । उल्लेखनीय है कि इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए सेंट्रल रीजन में पिछली बार मामूली अंतर से जीतने से रह गए मनु अग्रवाल अगली बार अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने की घोषणा लगातार करते रहे थे और थोड़ी बहुत जितनी संभव थी उतनी सक्रियता भी बनाए हुए थे । किंतु अभी चार-पाँच महीने पहले उन्होंने अचानक से ऐलान कर दिया कि वह चुनाव में चक्कर में नहीं पड़ेंगे और अपने कामधाम में ध्यान देंगे । लोगों को उन्होंने खुद ही बताया कि उन्हें एक बड़ा बिजनेस मिल रहा है, जिसमें उन्हें खूब कमाई होगी - इसलिए वह अपना समय और अपनी एनर्जी उसमें लगायेंगे । चुनाव, चुनावी राजनीति, चुने गए सदस्यों के क्रियाकलापों को लेकर उन्होंने बहुत ही नकारात्मक तथा आपत्तिजनक किस्म की बातें कहीं; जिनका लब्बोलुबाब यह था कि चुनाव-फुनाव क्या होता है, चुने जाने के बाद सदस्य अपना घर भरने में ही लगे रहते हैं, मुझे अपना घर भरने का जब दूसरा मौका मिल रहा है तो मैं चुनाव के चक्कर में क्यों पडूँ ? आदि-इत्यादि । उनकी इस तरह की बातें चल ही रही थीं कि लोगों ने देखा/पाया कि उन्होंने अचानक से फिर पलटा खाया और वह दोबारा से अपनी उम्मीदवारी की बात करने लगे । उन्होंने तो नहीं बताया कि जिस बड़े बिजनेस के लिए उन्होंने पहले अपनी उम्मीदवारी को छोड़ने की घोषणा कर दी थी, उसके लिए समय और एनर्जी कैसे निकालेंगे; लेकिन उनके नजदीकियों ने बताया कि जिस बड़े बिजनेस के चक्कर में उन्होंने चुनाव से हटने की घोषणा की थी, वह बड़ा बिजनेस उन्हें मिला ही नहीं, और इसलिए वह वापस चुनाव लड़ने की तैयारी में जुट गए । इस कारण से मनु अग्रवाल को लोगों के इस सवाल का सामना अक्सर करना पड़ जाता है कि अब यदि उन्हें फिर से ज्यादा कमाई करने के लिए चुनाव लड़ने के अलावा कोई और बिजनेस मिल गया, तो क्या वह फिर से अपनी उम्मीदवारी छोड़ देंगे ? मनु अग्रवाल समझते हैं कि यह सवाल उन्हें चिढ़ाने के लिए पूछा जाता है, इसलिए इस सवाल को वह अलग अलग तरीकों से दाएँ-बाएँ कर देते हैं । 
मनु अग्रवाल का दावा है कि अपने धुर विरोधियों अक्षय गुप्ता और राजीव मेहरोत्रा को उन्होंने अपनी उम्मीदवारी का समर्थन करने के लिए राजी कर लिया है; और 'हम तीनों' ने तय किया है कि अब की बार कानपुर से मैं अकेला ही उम्मीदवार बनूँ, ताकि कानपुर से सीट को पक्का किया जा सके । मनु अग्रवाल के इस दावे ने कानपुर में कई लोगों को भड़काया और उन्होंने कहना शुरू किया कि कानपुर में क्या हो, इसे 'तुम तीनों' ही क्यों तय करोगे ? मामला बढ़ा तो अक्षय गुप्ता और राजीव मेहरोत्रा को सफाई देने सामने आना पड़ा और उन्होंने कहा कि उन्होंने तो बस इतना कहा है कि वह उम्मीदवार नहीं हो रहे हैं; कौन उम्मीदवार हो या न हो, इसे वह भला कैसे तय कर सकते हैं; और जहाँ तक इसकी बात है कि वह किसका समर्थन करेंगे, तो इसका फैसला वह तब करेंगे जब सारा सीन क्लियर हो जायेगा । मजे की बात यह है कि मनु अग्रवाल बिजनेस के चक्कर में अपनी उम्मीदवारी से पीछे हटने से पहले जब उम्मीदवार होने की बात कर रहे थे, तब तो अक्षय गुप्ता और राजीव मेहरोत्रा भी अपनी अपनी उम्मीदवारी की बातें कर रहे थे; लेकिन जब मनु अग्रवाल बिजनेस के चक्कर में पीछे हटे, तो इन्होंने भी अपनी अपनी उम्मीदवारी की बात करना बंद कर दिया । इससे समझा यह जा रहा है कि इन्हें उम्मीदवार होना कभी नहीं था, यह तो बस मनु अग्रवाल का काम बिगाड़ने के लिए अपनी अपनी उम्मीदवारी की बात चला रहे थे । हाँ-न-हाँ का जो तमाशा मनु अग्रवाल ने दिखाया, वैसा तमाशा चूँकि यह दोनों नहीं कर सकते हैं - इसलिए मनु अग्रवाल अपने आप को निश्चिंत और अकेला मान रहे हैं । मनु अग्रवाल मान रहे हैं और कह रहे कि इन दोनों के पास उनका समर्थन करने के अलावा और कोई चारा भी नहीं होगा; इनके समर्थन से विवेक खन्ना के उम्मीदवार हो सकने की संभावना को भी मनु अग्रवाल यह कहते/बताते हुए खारिज कर रहे हैं कि विवेक खन्ना अपनी पारिवारिक मुश्किलों में बुरी तरह उलझे हुए हैं, इसलिए वह चाहते हुए भी उम्मीदवार नहीं हो सकेंगे - और इस तरह कानपुर का मैदान उनके लिए पूरी तरह खाली है । 
यह सच लग भी रहा है कि कानपुर में मनु अग्रवाल को चुनावी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ रहा है - किंतु इससे उनकी राह आसान नहीं हो गई है । कानपुर की और इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति की बारीकियों को जानने/समझने वाले लोगों का कहना है कि मनु अग्रवाल दरअसल कुछेक गलतफहमियों के शिकार हैं और स्थितियों को तथ्यपरक रूप से नहीं, बल्कि अपनी सुविधा के नजरिये से देख रहे हैं । मनु अग्रवाल को सबसे बड़ी गलतफहमी यही है कि पिछली बार उन्हें जो थोड़े से वोट कम पड़ गए थे, उनकी भरपाई तो वह आराम से कर लेंगे और इसलिए उन्हें ज्यादा कुछ करने की जरूरत ही नहीं है । कानपुर में किसी और उम्मीदवार के न होने से उनका काम और आसान हो गया है । लोगों का कहना/पूछना लेकिन यह है कि चुनावी समीकरण यदि इतने ही सीधे होते तो पिछली बार रवि होलानी क्यों हारते ? दरअसल हर बार चुनाव का एक नया गणित होता है, और एक नई केमिस्ट्री होती है - इसे समझने/पहचानने की कोशिश जो नहीं करता है, वह औंधे मुँह ही गिरता है । कानपुर में कई लोगों का कहना है कि पिछली बार मनु अग्रवाल ने अपनी उम्मीदवारी को यदि थोड़ा गंभीरता से लिया होता, तो वह सेंट्रल काउंसिल में होते । पिछली बार उन्हें मुकेश कुशवाह ने नहीं हराया था, उनकी खुद की मूर्खताओं व लापरवाहियों ने उन्हें हराया था । कानपुर में लोगों को लग रहा है कि पिछली बार की गलतियों से उन्होंने लगता नहीं है कि कोई सबक सीखा है । 
मनु अग्रवाल ने पिछले तीन-चार महीनों में जिस तरह की हरकतें/बातें की हैं, उससे उन्होंने अपनी स्थिति को कमजोर ही किया है । उनकी कमजोरी का पूरा पूरा फायदा अविचल कपूर ने उठाया है । कानपुर में एक बड़ा तबका मनु अग्रवाल के खिलाफ है - सच होते हुए भी यह कोई खास बात नहीं है । हर जगह दो खेमे होते ही हैं । समस्या तब बड़ी हो जाती है जब आप खिलाफ लोगों के साथ होशियारी से डील करने का प्रयास नहीं करते हैं । कानपुर में मनु अग्रवाल के लिए समस्या की बात यह है कि कानपुर के मठाधीशों को डर यह है कि मनु अग्रवाल यदि जीत गए तो उनकी मठधीशी ही खत्म हो जायेगी; अपनी मठधीशी बचाने के लिए उन्हें यह जरूरी लग रहा है कि वह मनु अग्रवाल को जीतने से रोकें । यही मठाधीश अविचल कपूर का समर्थन करते हुए सुने जा रहे हैं । कानपुर में अकेले उम्मीदवार होने के नाते मनु अग्रवाल के लिए भावनात्मक अपील बनाना हालाँकि संभव है और मनु अग्रवाल इसके लिए प्रयास भी करते देखे गए हैं; किंतु उनके प्रयास प्रायः इतने फूहड़ और नकारात्मक साबित हुए हैं कि उनसे बात बनने की बजाये बिगड़ और गई है । मनु अग्रवाल के शुभचिंतकों का भी मनना और कहना है कि वैसे तो मनु अग्रवाल के लिए अब की बार अच्छा मौका है, लेकिन यदि उन्होंने हालात को समझदारी से हैंडल नहीं किया तो पिछली बार की तरह हाथ में आता आता मौका फिसल कर निकल भी सकता है । 

Saturday, May 9, 2015

रोटरी इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर का पद प्राप्त करने के चलते इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की चुनावी राजनीति में रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3010 के विनोद बंसल की संभावित उपस्थिति क्या सचमुच में खासी वजनदार बन गई है ?

नई दिल्ली । विनोद बंसल के रोटरी इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर बनने की खबर से रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव के लिए सज रहे 'बहादुरों' तथा दूसरे खिलाड़ियों के बीच हड़कंप मच गया है । दरअसल रोटरी की चुनावी राजनीति में रोटरी इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर के पद को इंटरनेशनल डायरेक्टर पद तक पहुँचने की सीढ़ी के रूप में देखा/पहचाना जाता है । इंटरनेशनल कन्वेंशन में करीब साढ़े पाँच सौ डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को ट्रेंड करने के लिए विभिन्न देशों से करीब चालीस पूर्व गवर्नर्स को ट्रेनिंग लीडर के रूप में चुना जाता है । भारत से दो पूर्व गवर्नर्स को इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर के रूप में चुना जाता है - एक दक्षिण भारत से और दूसरा गैर दक्षिण भारत से । माना/समझा जाता है कि रोटरी राजनीति के बड़े खिलाड़ी ऐसे पूर्व गवर्नर्स को ही इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर चुनते हैं, जिन्हें वह आगे बढ़ाना चाहते हैं । इसीलिए विनोद बंसल के इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर चुने जाने पर इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के संभावित उम्मीदवारों की नींद उड़ जाना स्वाभाविक ही है । यह नींद उड़ना इसलिए भी स्वाभाविक है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए अभी जो लोग दौड़ लगाते दिख रहे हैं, उनमें विनोद बंसल को तो काफी पीछे माना/समझा जा रहा है । इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की चुनावी दौड़ में आगे दिखने वाले लोगों में भरत पांड्या, अशोक गुप्ता, दीपक कपूर, सुरेंद्र सेठ आदि का नाम लिया जा रहा है; तो इनके बाद के लोगों में जेटी व्यास, गुलाम वाहनवती, आलोक बिलौरे, विनय कुलकर्णी, राजीव प्रधान आदि का नाम लिया/सुना जा रहा है । विनोद बंसल का नाम तो इनके बाद कहा/बताया जाता है । कुछेक लोग तो यहाँ तक कहते/मानते हैं कि विनोद बंसल तो वास्तव में अगली से अगली बार के लिए उम्मीदवार बनने की तैयारी कर रहे हैं । 
विनोद बंसल को लेकिन लंबी छलांग के खिलाड़ी के रूप में भी देखा/पहचाना जाता है । बहुत सी पोजिशंस उन्होंने बहुत ही जल्दी प्राप्त की हैं । जिन पोजिशंस को प्राप्त करने में दूसरों को लंबा इंतजार करना पड़ा है तथा काफी एड़ियाँ रगड़नी पड़ी हैं, उन्हें विनोद बंसल ने चमत्कारिक तरीके से बहुत ही कम समय में हासिल किया है । रोटरी के बड़े पदाधिकारियों तथा नेताओं के साथ नजदीक व विश्वास के संबंध बनाने में विनोद बंसल ने जो कामयाबी हासिल की है, उसके चलते तो वह कई लोगों के बीच ईर्ष्या के पात्र भी बन गए हैं । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर होते हुए ही विनोद बंसल को दिल्ली में प्रस्तावित रोटरी इंस्टीट्यूट के चेयरमैन बनने का जो मौका मिल रहा था, उसकी आहट से उनके अपने डिस्ट्रिक्ट के कुछेक पूर्व गवर्नर्स तो इतना जल-भुन गए थे कि उन्होंने दिल्ली में इंस्टीट्यूट होने की संभावना में ही मट्ठा डाल दिया था । दिल्ली की बजाये चेन्नई में हुए इंस्टीट्यूट में विनोद बंसल को हालाँकि वाइस चेयरमैन के पद से ही संतोष करना पड़ा था, लेकिन दूसरे वाइस चेयरमैनों की तुलना में वह काफी 'जूनियर' ही थे । बहुत ही कम समय में तथा तेज रफ्तार के साथ विनोद बंसल ने रोटरी में जो कुछ पाया है, उसे देखते/जानते हुए रोटरी की राजनीति में वह बहुतों के लिए चुनौती बन गए हैं - कईयों को तो उन्होंने पीछे धकेल दिया है । 
रोटरी इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर बन कर विनोद बंसल ने अपने डिस्ट्रिक्ट - जो अभी डिस्ट्रिक्ट 3010 ही है, डिस्ट्रिक्ट 3011 तो एक जुलाई से होगा  - के ही कई तुर्रमखाओं को जैसे जमीन सुँघा दी है । डिस्ट्रिक्ट 3010 में अभी तक सुशील गुप्ता, राजेश बत्रा, रंजन ढींगरा ही इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर बने हैं । विनोद बंसल के रूप में डिस्ट्रिक्ट 3010 को कई वर्षों के बाद इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर का पद मिला है । दूसरे महत्वाकांक्षी व आगे बढ़ने के लिए तिकड़में और जुगाड़ लगाते रहने वाले, तथा खुद को डिस्ट्रिक्ट का 'चौधरी' समझने/बताने वाले नेताओं को विनोद बंसल की इस उपलब्धि से खासा तगड़ा झटका लगा है । उन्हें झटका इस कारण से भी लगा है, क्योंकि वह भी जान/समझ रहे हैं कि इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर के रूप में विनोद बंसल को अगले रोटरी वर्ष में जयपुर में होने जा रहे रोटरी इंस्टीट्यूट में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को ट्रेनिंग देने का मौका मिलेगा और इस वजह से रोटरी इंस्टीट्यूट में उन्हें खासी अहमियत मिलेगी । डिस्ट्रिक्ट के कुछेक चौधरियों की नींद लेकिन यह जान/देख कर और भी ज्यादा उड़ी हुई है कि इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर का पद प्राप्त करने के चलते इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की चुनावी राजनीति में विनोद बंसल की संभावित उपस्थिति खासी वजनदार बन गई है ।  
रोटरी इंटरनेशनल ट्रेनिंग लीडर बन कर विनोद बंसल ने इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की चुनावी दौड़ में शामिल नेताओं के बीच जिस तरह से खलबली मचाई है, उसके कारण रोटरी की चुनावी राजनीति खासी दिलचस्प भी हो गई है । 

Friday, May 8, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080, यानि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट की रोटरी इंटरनेशनल में दर्ज हुई शिकायत के साथ प्रस्तुत हुईं कॉन्करेंस की संख्या तथा शिकायत की ड्रॉफ्टिंग से साबित और जाहिर यह हुआ है कि टीके रूबी ने अपनी लड़ाई में डिस्ट्रिक्ट के लोगों के साथ साथ डिस्ट्रिक्ट के बाहर के रोटरी के बड़े नेताओं का भी सक्रिय समर्थन जुटा लिया है

चंडीगढ़ । टीके रूबी ने डिस्ट्रिक्ट 3080, यानि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट के इतिहास में एक नया अध्याय अंततः जोड़ दिया है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुने जाने के नतीजे को मनमाने व षड्यंत्रपूर्ण तरीके से अमान्य कर देने के फैसले को रोटरी इंटरनेशनल में आधिकारिक तरीके से चेलैंज करके टीके रूबी ने सभी को जैसे हैरान कर दिया है । दरअसल किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि टीके रूबी इस हद तक जा सकेंगे । वह इस हद तक न जा सकें, इसके लिए उनकी घेराबंदी भी कस कर की गई थी । उन्हें 'समझाने' के नाम पर तथा तरह तरह के ललचाने वाले ऑफर देते हुए उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की पूरी कोशिश की गई कि अपने साथ हुई नाइंसाफी को वह ज्यादा मुद्दा न बनायें । एक तरफ टीके रूबी को घेरने और उन्हें दबाव में लेने की कोशिश की गई थी, तो दूसरी तरफ डिस्ट्रक्ट में हवा बनाई गई कि टीके रूबी को न डिस्ट्रिक्ट में और न डिस्ट्रिक्ट के बाहर कोई समर्थन मिलेगा और ऐसे में वह कुछ कर ही नहीं सकेंगे । डिस्ट्रिक्ट चलाने का अहंकार रखने वाले नेताओं को ऐसा लगा भी कि उनकी यह दोहरी तरकीब सफल हो रही है । दरअसल टीके रूबी की तरफ से भी ठंडापन दिखाया जा रहा था; वह ऐसा जाहिर कर रहे थे जैसे कि वह बड़ी बेचारगी और लाचारी वाली स्थिति में हैं और उन्होंने समझ लिया है कि जो हुआ है वही अंतिम सच है तथा इसके अलावा कुछ और होना जाना नहीं है । टीके रूबी की तरफ से मिल रहे इस रिएक्शन ने खेल के मुख्य खिलाड़ियों के हौंसले को बढ़ाने का काम किया और वह आश्वस्त होते हुए दिखे कि टीके रूबी को उन्होंने घेर लिया है । टीके रूबी के क्लब की तरफ से रोटरी इंटरनेशनल के दिल्ली स्थित साऊथ एशिया ऑफिस को लिखी शिकायती चिट्ठी को जिस फुर्ती के साथ लौटा दिया गया, उससे तो खेल के मुख्य खिलाड़ियों की जैसे बाँछे खिल गईं और उन्होंने मान लिया कि इस बात से टीके रूबी और उनके समर्थकों का मनोबल पूरी तरह टूट चुका है तथा उनके पास अब चुप रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा रह गया है । 
टीके रूबी की तरफ से निश्चिंत हो चुके, डिस्ट्रिक्ट को अपनी उँगलियों पर चलाने वाले नेताओं को लेकिन तब खासा जोर का झटका लगा जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कार्यालय को रोटरी इंटरनेशनल से टीके रूबी द्वारा एक हजार डॉलर की फीस के साथ दर्ज की गई आधिकारिक शिकायत पर जबाव देने का नोटिस मिला । टीके रूबी को निपटा देने की खुशफहमी पाले नेताओं के लिए चकराने वाली बात यह रही कि टीके रूबी ने उन्हें या अन्य किसी को यह आभास भी नहीं होने दिया और इतना बड़ा कदम उठा लिया । बड़ी बात यह रही कि अपनी शिकायत के पक्ष में उन्होंने बीस से ज्यादा क्लब्स की कॉन्करेंस भी जुटा लीं - और डिस्ट्रिक्ट के नेताओं को इसकी भनक भी नहीं लगी । इस तथ्य ने यही साबित किया कि टीके रूबी को जिस मनमाने व षड्यंत्रपूर्ण तरीके से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी नहीं बनने दिया गया है, उससे डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच काफी रोष है तथा टीके रूबी के प्रति हमदर्दी है । उक्त षड्यंत्र में शामिल नेताओं को झटका लेकिन इस बात से लगा है कि लोगों के बीच यह स्पष्ट हो जाने के बावजूद, कि जो हुआ है वह राजा साबू की सहमति और मिलीभगत से हुआ है, क्लब्स टीके रूबी की शिकायत को सपोर्ट करने के लिए कॉन्करेंस देने के लिए तैयार हो गए । नेताओं को उम्मीद थी कि जो हुआ उससे डिस्ट्रिक्ट में लोगों को नाराजगी तथा टीके रूबी के प्रति हमदर्दी भले ही हो, उनके साथ खड़ा होने की हिम्मत कोई नहीं करेगा । नेताओं की यह उम्मीद जिस तरह से झूठी साबित हुई उससे यही साबित हुआ है कि टीके रूबी के प्रति डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच समर्थन तो है ही, उस समर्थन को जरूरत पड़ने पर अपने साथ 'दिखाने' का मैकेनिज्म भी टीके रूबी को पता है ।
डिस्ट्रिक्ट गवर्नर दिलीप पटनायक के कार्यालय में रोटरी इंटरनेशनल से टीके रूबी द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत की जो कॉपी पहुँची है, उसे देखने/पढ़ने वाले नेताओं के कान शिकायत की ड्रॉफ्टिंग देख/पढ़ कर भी खड़े हुए हैं । रोटरी इंटरनेशनल के नियम-कानूनों का हवाला देते हुए जिस तरह से अपनी आपत्तियाँ बताई गईं हैं और नोमीनेटिंग कमेटी के गठन को तथा उसके द्वारा लिए गए फैसले को अमान्य करने के निर्णय में बरती गईं अनदेखियों तथा मनमानियों को रेखांकित किया गया है, उससे जाहिर होता दिखता है कि शिकायत को ड्रॉफ्ट करने का काम रोटरी के किन्हीं बड़े नेताओं ने किया है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर और दूसरे नेता लोग चूँकि टीके रूबी को और उनके संगी-साथियों को अच्छे से 'जानते' हैं, इसलिए मानते/समझते हैं कि इतनी परफेक्ट ड्रॉफ्टिंग इनके बस की बात तो नहीं है; और अवश्य ही यह ड्रॉफ्टिंग रोटरी के किन्हीं बड़े नेताओं की गाइडेंस में हुई है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर तथा टीके रूबी को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी न बनने देने के खेल में शामिल दूसरे बड़े नेता इस सब से यह नतीजा निकाल रहे हैं कि अपनी लड़ाई में टीके रूबी उतने अकेले नहीं हैं, जितना अकेला उन्हें समझा जा रहा था । टीके रूबी को घेरने में लगे नेताओं को लग रहा है कि टीके रूबी ने अपनी लड़ाई में डिस्ट्रिक्ट के लोगों के साथ साथ डिस्ट्रिक्ट के बाहर के रोटरी के बड़े नेताओं का भी सक्रिय समर्थन जुटा लिया है । इन नेताओं को यह बात भी अच्छी तरह पता है कि रोटरी के बड़े नेताओं में कई ऐसे हैं जिन्हें राजा साबू से अपने अपने हिसाब-किताब पूरे करने हैं; और ऐसे नेताओं में से ही कोई या कई टीके रूबी को न्याय दिलाने में मदद कर रहे हैं । 
इस मदद से स्वाभविक रूप से टीके रूबी की लड़ाई का दायरा बड़ा - बहुत बड़ा हो जाता है । टीके रूबी के लिए यह लड़ाई भले ही हाथ में आ चुके डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के छिन जाने से पैदा हुई निराशा से उबरने तथा न्याय पाने भर से जुड़ी हो; रोटरी में उनकी इस लड़ाई को लेकिन एक बड़े संदर्भ के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है । उल्लेखनीय है कि राजा साबू जब किसी डिस्ट्रिक्ट में भाषण देते हैं, तो अपने भाषण का एक बड़ा हिस्सा वह यह बताने पर खर्च करते हैं कि उनके डिस्ट्रिक्ट में तो कोई राजनीति होती नहीं है, और सभी काम बड़े आपसी सौहार्दपूर्ण तरीके से होते हैं, और किसी को कभी कोई शिकायत नहीं होती । सुनने वाले हालाँकि अच्छी तरह जानते हैं कि उनके डिस्ट्रिक्ट में भी खूब राजनीति होती है; राजा साबू अपने प्रभाव और अपनी 'कलाकारी' से शिकायत सामने नहीं आने देते और डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच एक झूठा और नकली किस्म का सौहार्द 'दिखता' रहता है । राजा साबू इसी का वास्ता देकर अपनी पीठ खुद ही थपथपाते रहते हैं और दूसरे डिस्ट्रिक्ट्स के लोगों के बीच इसी बात के लिए अपनी बड़ाई करते रहते हैं । इस बार लेकिन उनकी राजनीति का दाँव उलटा पड़ गया लग रहा है । उनकी तरफ से टीके रूबी को मैनेज करने की कोशिशें तो हालाँकि काफी हुईं हैं, लेकिन लोगों को मैनेज करने में अभी तक सफल होते रहे उनके फार्मूले लगता है कि टीके रूबी के मामले में काम नहीं आए हैं । इसीलिए जिस बात की किसी को उम्मीद नहीं थी, टीके रूबी ने उसे कर दिखाया है । सचमुच में, न डिस्ट्रिक्ट में और न डिस्ट्रिक्ट के बाहर के रोटेरियंस में किसी को उम्मीद नहीं थी कि टीके रूबी अपनी लड़ाई को इस हद तक ले जायेंगे और एक हजार डॉलर की फीस के साथ रोटरी इंटरनेशनल में अपनी शिकायत दर्ज करवायेंगे । राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट की लड़ाई रोटरी इंटरनेशनल में आधिकारिक रूप से दर्ज हो जाए, इसकी वास्तव में किसी ने कल्पना भी नहीं की थी । इसीलिए इस आलेख के शुरू में ही कहा गया है कि टीके रूबी ने वास्तव में डिस्ट्रिक्ट के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा है ।
राजा साबू के नजदीकियों का कहना है कि टीके रूबी के साथ जो हुआ, उसमें राजा साबू का सीधा दखल कुछ नहीं है; वह तो बस उन लोगों के कहे में आ गए जिनसे वह घिरे रहते हैं । ऐसे लोगों ने उन्हें आश्वस्त किया था कि वह टीके रूबी को मैनेज कर लेंगे । अब जब टीके रूबी मैनेज नहीं हो पाए हैं और मामला रोटरी इंटरनेशनल की अदालत में दर्ज हो गया है, तो फजीहत लेकिन राजा साबू की हो रही है । राजा साबू के नजदीकियों ने ही बताया कि जो हो रहा है, राजा साबू उससे दुखी हैं और तथाकथित ग्रीवन्स कमेटी के गठन व उसके फैसले को अमान्य करवा कर टीके रूबी को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी घोषित करवा देना चाहते हैं; ताकि झंझट खत्म हो तथा रोटरी में उनकी और फजीहत न हो । इस खेल के मास्टरमाइंड लोग लेकिन अभी भी उन्हें आश्वस्त करने में लगे हुए हैं कि वह मामले को संभाल लेंगे और ज्यादा आगे नहीं बढ़ने देंगे । इन लोगों ने राजा साबू को बताया है कि जिन क्लब्स ने कॉन्करेंस दी हैं, उन क्लब्स के लोगों पर दबाव बना कर वह कॉन्करेंस वापस करवा देंगे, जिससे कि शिकायत अपने आप ही अमान्य हो जायेगी । इस फार्मूले में समस्या लेकिन यह है कि शिकायत को मान्य बनाये रखने के लिए कुल पाँच-छह कॉन्करेंस ही चाहिए हैं; अभी जो बीस के करीब कॉन्करेंस दी गईं हैं उनमें से आखिर वह कितनी कॉन्करेंस वापस करवा लेंगे ? समस्या टीके रूबी के संगी-साथियों द्वारा कही/बताई जा रही उन बातों से भी है, जिनमें दावा किया गया है कि उन्हें इस तरह की हरकत होने का पहले से ही आभास है और इसलिए उन्होंने छह-आठ क्लब्स की कॉन्करेंस और ली हुई हैं जिन्हें अभी जमा नहीं कराया गया है; और वक्त-जरूरत के लिए गोपनीय रूप से रखा हुआ है । टीके रूबी की तरफ की इस तैयारी को देखते हुए ही राजा साबू के कुछेक शुभचिंतकों ने सलाह दी है कि राजा साबू को अपनी तरफ से पहल करके इस मामले को सम्मानजनक तरीके से खत्म करना/करवाना चाहिए । इन शुभचिंतकों का कहना है कि राजा साबू को समझना चाहिए कि उन्हें घेरे रहने वाले नेता अपने स्वार्थ में उनकी किरकिरी करवा रहे हैं और उनकी पहचान व प्रतिष्ठा को धूल में मिलाये दे रहे हैं ।

Thursday, May 7, 2015

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में सुरेश बिंदल के लिए बन रहे मौके को बोगस वोटों की मदद से छीन कर विनोद खन्ना के 'बच्चों के मामा' डीके अग्रवाल चार्टर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बने थे और इस तरह डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में बोगस वोटों की राजनीति की नींव रखने के लिए डीके अग्रवाल ही जिम्मेदार ठहरते हैं; हर्ष बंसल और दीपक टुटेजा तो उनके चेले हैं

नई दिल्ली । हर्ष बंसल ने अपनी ताजा कारस्तानी में अपने पापों को छिपाने तथा दूसरों पर दोष मढ़ने की जो कुत्सित हरकत की है, उसके कारण वह लायन नेताओं के बीच एक बार फिर हँसी का पात्र बन गए हैं । लायन नेताओं के बीच चर्चा का विषय यही है कि दूसरों को मूर्ख समझने/बनाने की अपनी ओछी हरकतों के जरिए हर्ष बंसल कब तक अपने आप को मूर्ख साबित करता रहेगा ? पौराणिक कथाओं में शैतानों द्वारा अपने बुरे उद्देश्यों को पूरा करने के लिए देवताओं का रूप धरने और उनकी भाषा बोलने के असंख्य किस्से हैं । सीता का हरण करने के लिए रावण द्वारा साधू का भेष धरने का किस्सा तो खासा लोकप्रिय है । मौजूदा समय में भी अपराधी किस्म के लोगों द्वारा भले दिखने व भली बातें करके अपने काम निकालने के प्रयास खूब देखे जाते हैं । हर्ष बंसल ने तो लेकिन भले दिखने की कोशिश में बेशर्मी की सारी हदें पार कर देने का काम किया है । अपने डिस्ट्रिक्ट - डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री के मॉरटोरियम में जाने के संदर्भ में लायन नेताओं को लिखे एक ईमेल पत्र में बोगस क्लब्स को लायनिज्म व डिस्ट्रिक्ट के लिए नुकसानदेह बताते हुए उन्होंने कहा है कि उनके डिस्ट्रिक्ट में बोगस क्लब्स की शुरुआत वर्ष 2007-08 में उम्मीदवार बने वीके हंस द्वारा 50 बोगस क्लब्स बनाने से हुई है । डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री की चुनावी राजनीति से परिचित लोगों के अनुसार हर्ष बंसल का यह दावा सरासर झूठा है कि डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में बोगस क्लब्स की शुरुआत वीके हंस की उम्मीदवारी से हुई; सच तो यह है कि इस डिस्ट्रिक्ट में बोगस क्लब्स की राजनीति इससे बहुत पहले से शुरू हो चुकी थी । कब से ? इसकी पड़ताल करने से पहले यह जानना दिलचस्प होगा कि वीके हंस द्वारा 50 बोगस क्लब्स बनाये जाने के संदर्भ में हर्ष बंसल ने किस तरह अपने शैतानी रूप पर साधू का मुखौटा लगाने का बेशर्मीभरा प्रयास किया है । 
हर्ष बंसल की यह बात सच है कि वर्ष 2007-08 में वीके हंस की उम्मीदवारी को कामयाब बनाने के लिए डिस्ट्रिक्ट में 50 बोगस क्लब्स बनाये गए थे । हर्ष बंसल ने लेकिन बेशर्मी दिखाते हुए इस बात को छिपा लिया कि इन 50 बोगस क्लब्स के बनने के पीछे गंदा दिमाग और ओछी सक्रियता किसकी थी ? लायन राजनीति को जो कोई थोड़ा-बहुत भी जानता है वह समझता है कि कोई भी उम्मीदवार डिस्ट्रिक्ट में बोगस क्लब्स नहीं बना सकता; यह काम उसके लिए उसके समर्थक बड़े नेता करते हैं । उम्मीदवार को तो बस बोगस क्लब्स बनने में खर्च होने वाला पैसा देना होता है । वर्ष 2007-08 में वीके हंस जब पहली बार उम्मीदवार बने थे, तब उनके सरपरस्त नेता ने उन्हें बोगस वोटों के सहारे चुनाव जीतने का फार्मूला सुझाया था और खर्चे का हिसाब बताया था । वीके हंस खर्चा करने को तैयार हो गए थे और तब उस वर्ष 50 बोगस क्लब्स बने । हर्ष बंसल उस वर्ष 50 बोगस क्लब बनने की बात तो बताते हैं, लेकिन इस बात को पूरी बेशर्मी के साथ छिपा जाते हैं कि वह 50 बोगस क्लब्स किसकी सरपरस्ती में बने थे ? दरअसल हर्ष बंसल इस तथ्य का यदि खुलासा करते तो उन्हें अपना ही नाम लेना पड़ता । उस वर्ष वीके हंस की उम्मीदवारी का झंडा हर्ष बंसल के पास ही था, और 50 बोगस क्लब्स बना कर चुनाव जीतने का फार्मूला हर्ष बंसल के गंदे दिमाग की ही उपज था । हर्ष बंसल को लगा होगा कि इस सच्चाई को वह नहीं बतायेंगे और छिपा जायेंगे, तो अपनी काली करतूतों से लोगों का ध्यान भटका लेंगे । हर्ष बंसल की करतूतों का लेकिन ऐसा बोलबाला है कि उनकी यह चाल सफल नहीं हो सकी और लायन नेताओं के बीच वह हँसी का पात्र बन बैठे । हालाँकि इसका मतलब यह भी नहीं है कि डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में बोगस क्लब्स की राजनीति की शुरुआत हर्ष बंसल ने की थी; शुरुआत तो यह पहले से ही हो चुकी थी - हर्ष बंसल ने तो इस कलाकारी को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की । 
डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री का इतिहास वर्ष 1993-94 से शुरू होता है, जिसमें पहले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डीके अग्रवाल थे । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में उनका 'चुनाव' उससे पिछले वर्ष, यानि वर्ष 1992-93 में अविभाजित डिस्ट्रिक्ट 321 ए में हुआ था । वर्ष 1992-93, अविभाजित डिस्ट्रिक्ट 321 ए का अंतिम वर्ष था, और उस वर्ष अविभाजित डिस्ट्रिक्ट के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनोद खन्ना थे । अविभाजित डिस्ट्रिक्ट में विभाजित डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री के लिए जो चुनाव हुआ था, उसकी कहानी बड़ी दिलचस्प है । डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री के लिए चार्टर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का जो चुनाव होना था, उसमें सुरेश बिंदल का पलड़ा भारी था और हर कोई सुरेश बिंदल को ही डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री के चार्टर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में देख/पहचान रहे थे । लेकिन सुरेश बिंदल का मौका डीके अग्रवाल ने विनोद खन्ना की मदद से हड़प लिया । आज कई लोगों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि उस समय डीके अग्रवाल के विनोद खन्ना के साथ बहुत ही नजदीकी संबंध होते थे । उनके नजदीकी संबंधों की जड़ें उनके परिवारों तक पहुँची हुई थीं । डीके अग्रवाल, विनोद खन्ना की पत्नी रेणु खन्ना को बहन मानते थे । रेणु खन्ना को डीके अग्रवाल जिस तरह दीदी दीदी कह कर संबोधित करते थे, उसे सुनते/देखते हुए लायन नेताओं ने डीके अग्रवाल का नाम ही 'बच्चों के मामा' रख दिया था । उस समय उनका यह नाम इतना लोकप्रिय हो गया था कि बड़े लायन नेता भी डीके अग्रवाल की बात करते थे, तो उन्हें 'बच्चों के मामा' कह कर संबोधित/उच्चारित करते थे । अपने 'बच्चों के मामा' डीके अग्रवाल को विनोद खन्ना ने टिप्स दी कि वह यदि पीपी भारद्वाज की मदद जुगाड़ लें, तो सुरेश बिंदल को पछाड़ कर नए डिस्ट्रिक्ट के चार्टर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बन जायेंगे । 
पीपी भारद्वाज अविभाजित डिस्ट्रिक्ट में करीब सौ सौ की सदस्यता वाले तीन-चार बोगस क्लब्स रखने वाले पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर थे, और अपने बोगस क्लब्स के जरिये अविभाजित डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में अच्छा-खासा दखल रखने वाले नेता के रूप में देखे/पहचाने जाते थे । पीपी भारद्वाज मूलतः नरेश अग्रवाल के डिस्ट्रिक्ट के खिलाड़ी थे और वही वह गवर्नर बने थे । एक सरकारी बीमा कंपनी में नौकरी करने वाले पीपी भारद्वाज ट्रांसफर के चलते दिल्ली आ गए तो यहाँ के डिस्ट्रिक्ट में 'खिलाड़ी' बन गए । विनोद खन्ना ने ही पीपी भारद्वाज के बोगस क्लब्स के वोटों का सौदा डीके अग्रवाल से करवाया, जिनकी ताकत से सुरेश बिंदल का चार्टर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बनने का मौका छिना और डीके अग्रवाल चार्टर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बने । इस तरह डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री की शुरुआत ही बोगस क्लब्स के वोटों के भरोसे मिली जीत के 'सम्मान' से हुई । सुरेश बिंदल का मौका छीनने में डीके अग्रवाल को जो सफलता मिली, उससे बोगस क्लब्स की ताकत पर डीके अग्रवाल को ऐसा भरोसा हुआ कि अपने गवर्नर-काल में उन्होंने ललित नरूला को अगले लायन वर्ष का गवर्नर और नरहरि डालमिया को वाइस गवर्नर बनवाने/चुनवाने का जाल बिछाया और नरहरि डालमिया के पैसे लगवा कर बोगस वोट बनाये । डीके अग्रवाल के यह दोनों उम्मीदवार हालाँकि चुनाव हार गए थे, लेकिन नरहरि डालमिया को जेएन भूटानी से हरवाने का आरोप डीके अग्रवाल पर ही लगा था । ललित नरूला तो सुरेश बिंदल से चार-पाँच वोटों से ही हारे थे, किंतु नरहरि डालमिया को जेएन भूटानी से 35 के करीब वोटों से पराजय मिली थी । उस समय आरोप लगा था कि नरहरि डालमिया को डीके अग्रवाल ने जितवाने का भरोसा तो उनका पैसा लगवाने के लिए दिया था, वास्तव में साथ वह जेएन भूटानी के थे । 
डीके अग्रवाल इस तरह के खेल करते रहे हैं । वह 'दिखते' किसी के साथ और सचमुच में 'होते' किसी और के साथ । उनके इसी रवैये पर राकेश जैन ने उन्हें 'डुप्लीकेट कुमार' जैसा नाम दिया था । जिन विनोद खन्ना के 'बच्चों के मामा' जैसी उन्हें पहचान मिली थी, उन्हीं विनोद खन्ना की फिर उन्होंने ऐसी हालत कर दी थी कि विनोद खन्ना को डिस्ट्रिक्ट से भाग कर डिस्ट्रिक्ट 321 ए टू में शरण लेनी पड़ी । बोगस वोट तथा क्लब्स बनवाने का खेल हर्ष बंसल ने वास्तव में डीके अग्रवाल से ही सीखा । बोगस वोट और क्लब्स बनाने के लिए जो क्लेरिकल हुनर चाहिए होता है, उसमें हर्ष बंसल चूँकि एक्सपर्ट रहे इसलिए वह डीके अग्रवाल की गुडबुक में शामिल हुए । बोगस वोट के खेल की ताकत समझने के बाद जिस तरह डीके अग्रवाल ने विनोद खन्ना को किनारे लगाया, ठीक वैसे ही हर्ष बंसल ने डीके अग्रवाल से निपटने की कोशिश की तो दोनों में खटक गई । तब क्लेरिकल काम के लिए डीके अग्रवाल ने दीपक टुटेजा का सहारा लिया । डीके अग्रवाल की देखरेख में ही दीपक टुटेजा बोगस वोटों के खिलाड़ी बने । दीपक टुटेजा के इस खिलाड़ीपने से मिली ऑक्सीजन के सहारे ही डीके अग्रवाल ने हर्ष बंसल को डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में उसकी औकात बताई और हर्ष बंसल को जीरो बना कर रख दिया । फिर लेकिन डीके अग्रवाल को दीपक टुटेजा से भी शिकायत होने लगी । समझा जाता है कि डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में दीपक टुटेजा की बढ़ती ताकत से अजय बुद्धराज को खतरा महसूस हुआ, और उन्होंने डीके अग्रवाल के कान भरे । डीके अग्रवाल ने दीपक टुटेजा से निपटने की रणनीति में हर्ष बंसल से हाथ मिला लिया, लेकिन हर्ष बंसल की लोगों के बीच इतनी बदनामी है कि उनसे मिलकर डीके अग्रवाल खुद भी जीरो हो गए ।
दीपक टुटेजा से मिली मात पर मात से उबरने के लिए डीके अग्रवाल और हर्ष बंसल की जोड़ी ने ऐसे हालात पैदा किए कि डिस्ट्रिक्ट मॉरटोरियम में चला गया है । मजे की बात यह है कि बोगस वोटों का सारा ठीकरा दीपक टुटेजा के सिर फोड़ने की कोशिश करते हुए डीके अग्रवाल और हर्ष बंसल अपने आप को बड़ा पवित्र दिखाने/जताने की जो कोशिश कर रहे हैं, उससे कई दबी/छिपी बातें सामने आ रही हैं - जिनसे वास्तव में इन्हीं की किरकिरी व फजीहत हो रही है ।