नई दिल्ली । एससी वासुदेवा ने अपने बेटे संजय वासुदेवा को इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए चुनवाने का बीड़ा जिस तरह उठा लिया है, उसके कारण उन्होंने संजीव चौधरी, विजय गुप्ता, विनोद जैन और विशाल गर्ग के लिए एक साथ मुश्किलें खड़ी कर दी हैं । एससी वासुदेवा का प्रोफेशन के लोगों के बीच जो ऑरा (आभामंडल) है तथा उन्होंने संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी के पक्ष में जो सक्रियता दिखाई है; उसके चलते एक तरफ जहाँ संजीव चौधरी और विजय गुप्ता के लिए सेंट्रल काउंसिल की अपनी मौजूदा सीट की रक्षा कर पाना मुश्किल हो गया है, वहीं दूसरी तरफ विनोद जैन और विशाल गर्ग के लिए सेंट्रल काउंसिल में घुसने का दरवाजा लोगों को और दूर हो गया लग रहा है । ऑडिट और कन्सल्टिंग क्षेत्र में नामी फर्म होने के नाते एससी वासुदेव का कंपनियों में जो वोट है, उस पर अच्छा प्रभाव है । संजीव चौधरी और विनोद जैन भी चूँकि कंपनियों के वोटों पर निर्भर रहते हैं, इसलिए इनके सामने कंपनियों के वोटों के छिन जाने का खतरा पैदा हो गया है । गौर करने वाला तथ्य यही है कि पिछली बार वासुदेवा खेमे का समर्थन मिलने के कारण ही संजीव चौधरी को जीत मिली थी; और संजीव चौधरी को वासुदेवा खेमे का समर्थन मिलने के कारण ही विनोद जैन सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट खो बैठे थे । इसीलिए लोगों को लग रहा है कि इस बार जब वासुदेवा खेमे से संजय वासुदेवा उम्मीदवार हो रहे हैं, तो विनोद जैन के लिए तो हालात और बुरे हो ही जाते हैं, संजीव चौधरी के लिए भी मुसीबत खड़ी हो जाती है ।
वासुदेवा फर्म का ब्राँच ऑफिस लुधियाना में होने के कारण लुधियाना तथा आसपास के शहरों में संजय वासुदेवा को अच्छा समर्थन मिलने की उम्मीद है - यही उम्मीद विजय गुप्ता और विशाल गर्ग के लिए खतरे की घंटी बजाती है । उल्लेखनीय है कि विजय गुप्ता को पिछली बार लुधियाना से ही संजीवनी मिली थी; संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी और उनकी उम्मीदवारी को लुधियाना में मिलने वाले समर्थन की चर्चा ने विजय गुप्ता से वह संजीवनी छीन लेने का खतरा पैदा कर दिया है । विशाल गर्ग तो लुधियाना के भरोसे ही सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत कर रहे हैं । लोगों का पूछना लेकिन यह है कि लुधियाना में जब संजय वासुदेवा का डंका बजेगा, तब विशाल गर्ग के लिए बचेगा क्या ?
संजय वासुदेवा के लिए इस तरह ऊपरी तौर पर तो मामला बड़ा आसान लगता है, किंतु इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के गणित तथा उसकी केमिस्ट्री को जानने/समझने वाले लोगों का यह भी मानना और कहना है कि संजय वासुदेवा के लिए मामला उतना आसान नहीं है, जितना कि समझा जा रहा है । संजय वासुदेवा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि लोगों के बीच उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है, वह एससी वासुदेवा के बेटे के रूप में ही पहचाने जाते हैं । यह सच है कि लोगों के बीच एससी सचदेवा की अच्छी साख, पहचान और प्रतिष्ठा है - किंतु इस साख, पहचान और प्रतिष्ठा को वोटों में बदलने का मैकेनिज्म भी उनके पास है, यह बात कोई भी विश्वास के साथ नहीं कह पा रहा है । वासुदेवा खेमे के एक प्रमुख सदस्य ने इन पँक्तियों के लेखक से साफ कहा कि एससी वासुदेवा के कारण संजय वासुदेवा को प्लेटफॉर्म तो अच्छा मिला है, लेकिन इस पर 'गाड़ी चलाने' का काम संजय वासुदेवा को ही करना पड़ेगा । वासुदेवा खेमे के जो बड़े नेता या लोग हैं, वह वास्तव में एससी वासुदेवा के साथ अपने को कनेक्ट करते हैं; उनका सक्रिय समर्थन संजय वासुदेवा को मिल सके - इसके लिए प्रयास संजय वासुदेवा को ही करने पड़ेंगे । यह प्रयास संजय वासुदेवा के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सक्रिय राजनीति से वर्ष 2006 में एससी वासुदेवा के अलग होने के बाद से वासुदेवा खेमे के लिए 'अपने' उम्मीदवार को जितवा पाना और ला पाना मुश्किल हुआ है ।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2006 में वासुदेवा खेमे से सुनील अरोड़ा उम्मीदवार बने थे, लेकिन कामयाब नहीं हो सके थे; और उसके बाद चुनावों में वासुदेवा खेमे से कोई उम्मीदवार नहीं आया । आरोप की शक्ल में चर्चा यह रही है कि खेमे का पर्याप्त समर्थन न मिलने के कारण सुनील अरोड़ा कामयाब नहीं हो सके थे, और बाद के चुनावों में भी खेमे का पर्याप्त समर्थन न मिलने के डर से ही खेमे से कोई उम्मीदवार नहीं बना । हालाँकि खुद सुनील अरोड़ा इस तरह की बातों को गलत और बेबुनियाद बताते रहे हैं । कई मौकों पर सुनील अरोड़ा ने कहा है कि 2006 में यदि वह कामयाब नहीं हो सके थे, तो इसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार थे । एक तो उन्होंने अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने में बहुत देर लगा दी थी, और दूसरे फिर वह अपने चुनाव अभियान के लिए भी आवश्यक समय नहीं दे पाए थे । सुनील अरोड़ा के अनुसार, खेमे के नेताओं ने तो वर्ष 2006 में भी उनको भरपूर सहयोग व समर्थन दिया था, तथा वर्ष 2009 में भी उन्हें उम्मीदवार बनने के लिए खूब प्रेरित किया था - लेकिन अपनी व्यस्तता के कारण वह ही उम्मीदवार नहीं बने थे । अब कारण चाहें जो रहे हों, सच्चाई यही है कि इंस्टीट्यूट के पिछले तीन चुनावों में वासुदेवा खेमे की जो 'प्रत्यक्ष' अनुपस्थिति रही है, उससे जो गैप बना है उसकी भरपाई करने की चुनौती एक उम्मीदवार के रूप में संजय वासुदेवा के सामने हैं ।
संजय वासुदेवा के जो कुछेक समर्थक नवीन गुप्ता के उदाहरण के साथ तर्क देते हैं कि जिस तरह 'सिर्फ' एनडी गुप्ता के बेटे होने के नाते नवीन गुप्ता इंस्टीट्यूट का चुनाव जीत सकते हैं, उसी तरह संजय वासुदेवा भी एससी वासुदेवा के बेटे होने के कारण चुनाव जीत लेंगे; वह एक तथ्य मिस कर रहे हैं कि जब नवीन गुप्ता पहली बार उम्मीदवार बने थे, तब तक एनडी गुप्ता की राजनीतिक सक्रियता में कोई गैप नहीं बना था और उनका खेमा वेद जैन को कामयाब करवा चुका था । एक बड़ा फर्क और है तथा वह यह कि एनडी गुप्ता का लोगों के बीच जो इन्वॉल्वमेंट और या प्रभाव रहा है उसमें राजनीतिक पुट ज्यादा रहा है; जबकि एससी वासुदेवा का लोगों के बीच जो इन्वॉल्वमेंट और या प्रभाव रहा है, उसमें एकेडमिक व कैरियर वाला पुट ज्यादा रहा है । इस एकेडमिक व कैरियर वाले पुट को राजनीति में - सीधे सीधे कहें तो वोटों में बदलने का काम संजय वासुदेवा को ही करना पड़ेगा, जो नवीन गुप्ता को नहीं करना पड़ा था । नवीन गुप्ता को तो बिना कुछ किए-धरे, अपने पिताजी के भरोसे जीत मिल गई थी - लेकिन संजय वासुदेवा को शायद उतनी आसानी से जीत न मिल सके । एससी वासुदेवा इस बात को बखूबी समझ रहे हैं और इसीलिए उन्होंने खुद भी मोर्चा सँभाला है तथा अपनी तरफ से पहल करके अपने लोगों को संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी के पक्ष में सक्रिय होने के लिए प्रेरित करने में लगे हैं ।
संजय वासुदेवा की उम्मीदवारी के समर्थकों ने विश्वास व्यक्त किया है कि संजय वासुदेवा निश्चित रूप से एक उम्मीदवार की जिम्मेदारी निभायेंगे और वासुदेवा खेमे में चुनावी राजनीति के खिलाड़ी जो नेता हैं उनके सहयोग से संजय वासुदेवा चुनावी समीकरणों को अपने पक्ष में कर लेंगे । यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि अपनी उम्मीदवारी के समर्थकों के इस विश्वास को बनाये रखने के लिए संजय वासुदेवा क्या करते हैं और कैसे करते हैं ?