Friday, October 30, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने वास्ते की गई विजय गुप्ता की मीटिंग का बहिष्कार करके फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने विजय गुप्ता की स्थिति को और मुश्किल बनाया

फरीदाबाद । विजय गुप्ता की सेंट्रल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से फरीदाबाद में आयोजित की गई मीटिंग के बुरी तरह फ्लॉप होने से विजय गुप्ता के बचे-खुचे समर्थकों का हौंसला भी पस्त होता दिख रहा है । उनके नजदीकियों व समर्थकों ने बताया कि उन्हें यह आभास तो पहले से था कि विजय गुप्ता के लिए इस बार मामला मुश्किल बना हुआ है; लेकिन यह अंदाज उन्हें बिलकुल नहीं था कि उनके लिए हालात सिर्फ मुश्किल नहीं, बल्कि वास्तव में बहुत ही बुरे बन गए हैं । फरीदाबाद में लोग उनसे खफा हैं, यह चर्चा तो रही है; लेकिन लोग उनसे इतने खफा हैं कि उनके द्वारा लगातार खुशामद करते रहने के बावजूद लोग उनके साथ खड़े तक दिखने के लिए तैयार नहीं हुए - तो विजय गुप्ता के लिए खतरे की घंटी को उनके नजदीकियों व समर्थकों ने भी साफ साफ सुन लिया है । विजय गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार ही, विजय गुप्ता ने फरीदाबाद की मीटिंग के लिए फरीदाबाद के करीब छह सौ लोगों को खुद फोन करके निमंत्रित किया था । कई लोगों से उन्होंने साफ साफ कहा भी था कि मेरी हालत इस बार बहुत टाइट है, इसलिए तुम्हें आना जरूर है ताकि मैं दूसरे शहरों के लोगों को बता/दिखा सकूँ कि मेरी हालत उतनी खस्ता नहीं है, जितनी की बताई जा रही है । कई लोगों से उन्होंने यह भी कहा कि अपने साथ जिसे चाहो उसे भी ले आओ, तुम लोगों की पार्टी हो जायेगी और मेरा काम बन जायेगा । मीटिंग शुरू होने के समय तक वह लोगों को फोन करके मीटिंग में आने की बात याद दिलाते रहे और पूछते रहे कि अभी तक निकले नहीं, कहाँ तक पहुँचे, कितनी देर में पहुँच रहे हो, आदि-इत्यादि । लेकिन मीटिंग में पहुँचने वालों की संख्या पचास-साठ के बीच तक ही पहुँच पाई । उनके समर्थकों ने हालाँकि करीब अस्सी लोगों के मीटिंग में पहुँचने का दावा किया ।
फरीदाबाद की मीटिंग के फ्लॉप होने का विजय गुप्ता पर दोहरा असर पड़ा है । इससे एक तरफ तो उनके सामने 'अपने घर' को संभालने की जरूरत पैदा हुई है, और दूसरी तरफ दूसरे शहर के लोगों को यह समझाने में दिक्कत खड़ी हुई है कि जब उनके अपने शहर के लोग उनके साथ नहीं हैं, तो वह क्यों उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करें ? उल्लेखनीय है कि पिछले महीनों में विजय गुप्ता से दूसरे शहरों में लगातार यह पूछा जाता रहा है कि फरीदाबाद में तुम्हारी स्थिति के खराब होने की बातें क्यों हो रही हैं ? विजय गुप्ता लोगों को आश्वस्त करते रहे कि यह सब दूसरे उम्मीदवारों के समर्थकों का झूठा प्रचार है, जो उन्हें बदनाम करने के लिए किया जा रहा है । विजय गुप्ता दूसरे शहरों के लोगों को आश्वस्त करते रहे कि फरीदाबाद में लोग उनके साथ पहले भी थे और अब भी हैं; जब भी मैं फरीदाबाद में मीटिंग करूँगा तब यह बात साबित हो जायेगी । लेकिन अब जब फरीदाबाद में की गई उनकी मीटिंग बुरी तरह फ्लॉप हो गई है, तो दूसरे शहरों के लोगों का सामना करना उनके लिए मुश्किल हो गया है । दूसरे शहरों के उन लोगों का सामना करना तो उनके लिए और भी मुश्किल हो गया है, जिनसे वह यह दावा कर चुके थे कि फरीदाबाद में लोग पूरी तरह उनके साथ हैं । फरीदाबाद की मीटिंग के फ्लॉप होने से वास्तव में यह साबित हो गया है कि फरीदाबाद में अपनी बुरी स्थिति को छिपाने के लिए वह लगातार झूठ पर झूठ बोले जा रहे थे, और दूसरे उम्मीदवारों के समर्थकों पर नाहक ही आरोप मढ़ रहे थे । 
फरीदाबाद में अपनी बुरी स्थिति का विजय गुप्ता को आभास तो था; यह दावा करते हुए उनके नजदीकियों ने बताया कि लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि वह जब मीटिंग में लोगों को आमंत्रित करेंगे तो मीटिंग में तो लोग आ ही जायेंगे । विजय गुप्ता ने चालाकी यह खेली कि लोगों से सहयोग/समर्थन की सीधी बात करने की बजाए उन्हें मीटिंग में आने का निमंत्रण दिया । उन्हें पता था कि वह पहले यदि सहयोग/समर्थन की बात करेंगे, तो लोग भड़केंगे और अपना गुस्सा निकालेंगे; इससे बचने के लिए उन्होंने मीटिंग में आने का निमंत्रण दिया । उनका सोचना यह था कि मीटिंग में खाने-पीने के चक्कर में लोग आ जायेंगे और वह जब वहाँ खाते-पीते हुए लोगों की भीड़ देखेंगे, तो उनका गुस्सा खुद-ब-खुद ठंडा पड़ जायेगा । फरीदाबाद में मीटिंग करने के जरिए विजय गुप्ता ने एक तीर से दो निशाने लगाने की योजना बनाई थी - उन्हें उम्मीद थी कि उनकी इस योजना से एक तरफ तो फरीदाबाद में उनके प्रति लोगों के बीच जो गुस्सा है, वह शांत हो जायेगा; तथा दूसरी तरफ इस मीटिंग में जुटी भीड़ को दिखा/बता कर वह दूसरे शहरों के लोगों को समझा सकेंगे कि फरीदाबाद में उनकी पतली हालत की जो बातें हो रही हैं, वह दूसरे उम्मीदवारों के समर्थकों द्वारा फैलाई जा रही अफवाहें हैं । लेकिन फरीदाबाद में हुई उनकी मीटिंग जिस बुरी तरह से पिटी, और फरीदाबाद में लोगों ने उनकी मीटिंग का जिस संगठित तरीके से बहिष्कार किया - उससे साबित हुआ है कि फरीदाबाद में लोग उनकी चालों व कारस्तानियों से अब सावधान हो गए हैं तथा उनमें फँसने को तैयार नहीं हैं । 
विजय गुप्ता को फरीदाबाद में सार्वजनिक रूप से पहला झटका कुछेक महीने पहले तब लगा था जब फरीदाबाद ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के सदस्य विपिन मंगला ने फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की ई डायरेक्टरी इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रेसीडेंट वेद जैन के हाथों रिलीज करवा दी थी । उल्लेखनीय है कि फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की डायरेक्टरी छापना और चुनाव से पहले उसे रिलीज करना विजय गुप्ता का पुराना फंडा रहा है; लेकिन विपिन मंगला ने जिस तरह विजय गुप्ता से उनका यह फंडा छीन लिया - उसके कारण वह न केवल फंडा-विहीन हो गए, बल्कि उनकी भारी किरकिरी भी हुई । इस मामले को लेकर फरीदाबाद में और फरीदाबाद के बाहर भी लोगों को यह कहने का मौका मिला कि फरीदाबाद में विजय गुप्ता का यह कैसा हाल है कि उनकी नाक के नीचे फरीदाबाद ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के एक सदस्य ने उनसे उनका फंडा छीन लिया, और उन्हें भनक तक नहीं मिली । विपिन मंगला ने जिस कार्यक्रम में वेद जैन के हाथों ई डायरेक्टरी रिलीज करवाई थी, उस कार्यक्रम में विजय गुप्ता भी मौजूद थे; और विपिन मंगला द्वारा ई डायरेक्टरी प्रस्तुत करने पर वह हक्के-बक्के रह गए थे । विजय गुप्ता भुनभुनाए तो बहुत थे, लेकिन विपिन मंगला ने उन्हें जो चोट पहुँचाई - उसके दर्द से वह बच नहीं सके । उनके समर्थक मानते हैं और कह भी रहे हैं कि विपिन मंगला ने उन्हें जो चोट पहुँचाई थी, उससे उन्हें सावधान हो जाना चाहिए था - और स्थिति को सँभालने की कोशिश करना चाहिए थी । विजय गुप्ता ने लेकिन सच्चाई को ठीक से समझा/पहचाना नहीं, और यह मान लिया कि वह अपनी चालबाजियों से स्थिति को अपने पक्ष में ले आयेंगे । फरीदाबाद में मीटिंग के जरिए विजय गुप्ता ने वास्तव में यही करने की कोशिश की थी - लेकिन जो उन्हें उलटी पड़ी है और जिसने पलट कर उनकी स्थिति को और मुश्किल बना दिया है । 

Thursday, October 29, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनाव में राजस्थान में उम्मीदवारों की चुनावी तैयारियों को देखते हुए फिलवक्त गौतम शर्मा, रोहित अग्रवाल व देवेंद्र सोमानी का पलड़ा भारी नजर आ रहा है

जयपुर । गौतम शर्मा, रोहित अग्रवाल व देवेंद्र सोमानी ने सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी अपनी उम्मीदवारी को लेकर जो गंभीरता दिखाई है - उसके चलते प्रमोद बूब, रोहित माहेश्वरी, सचिन जैन व निर्मल सोनी के लिए चुनावी मुकाबला चुनौतीपूर्ण हो गया दिख रहा है । यह सातों इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल की दस सीटों के लिए होने वाले चुनाव में राजस्थान के उम्मीदवार हैं - जिनमें देवेंद्र सोमानी व निर्मल सोनी उदयपुर के हैं तथा बाकी पाँचों जयपुर के हैं । यह छोटी सी जानकारी इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल में अभी जो नौ सदस्य हैं, उनमें तीन राजस्थान का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं; और इन तीन में से दो जयपुर के हैं तथा एक जयपुर के बाहर के शहर के हैं । दरअसल इसी तर्ज पर उम्मीद की जा रही है कि इस बार भी जयपुर के दो और जयपुर के बाहर के एक उम्मीदवार तो चुनाव जीत ही जायेंगे । सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल में इस बार जो एक सीट बढ़ी है, उसके जयपुर को मिल जाने का अनुमान भी लगाया जा रहा है । हालाँकि कुछेक लोगों की खामख्याली यह भी है कि रीजनल काउंसिल में इस बार राजस्थान को चार सीटें मिल जायेंगी और यह चारों सीटें जयपुर के हिस्से में आयेंगी । जयपुर के अलावा उदयपुर से चूँकि दो उम्मीदवार हैं, इसलिए जयपुर के कुछेक लोगों को लगता है कि वह दोनों एक दूसरे को ही मार-काट लेंगे, और इसका फायदा जयपुर को मिलेगा । इस तर्क का जबाव लेकिन इसी तर्ज के तर्क से मिल रहा है कि जयपुर में भी तो पाँच उम्मीदवार हैं, क्या वहाँ मार-काट नहीं मचेगी - और उस मार-काट का फायदा उदयपुर के उम्मीदवारों को क्यों नहीं मिलेगा ?
गौर करने वाला तथ्य यह है कि चुनावी नजरिए से सकारात्मक समझी जाने वाली बातों के आधार पर राजस्थान के सातों उम्मीदवारों का पलड़ा भारी नजर आ रहा है और कोई भी किसी दूसरे से कम साबित होता नहीं दिख रहा है : प्रमोद बूब वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट होने के नाते जयपुर में एक जाना-पहचाना चेहरा हैं; गौतम शर्मा ने नेटवर्किंग अच्छी जमाई हुई है; रोहित माहेश्वरी ने राजस्थान के बाहर की ब्रांचेज में अपनी अच्छी पकड़ बनाई हुई है; रोहित अग्रवाल की युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स में अच्छी पैठ है; सचिन जैन को रीजन के जैन वोट मिलने का भरोसा है; देवेंद्र सोमानी ने चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के हितों के लिए संघर्ष करने को लेकर पीछे जिस तरह की सक्रियता दिखाई, उसके चलते रीजन में उन्होंने संघर्षशील व्यक्तित्व की पहचान बनाई; निर्मल सोनी पिछले चुनाव में हालाँकि कामयाब नहीं हो पाए थे, किंतु उनका प्रदर्शन बहुत बुरा नहीं था और पहली वरीयता के वोटों की गिनती में वह ग्यारहवें नंबर पर थे तथा नितीश अग्रवाल से आगे थे । जाहिर है कि आधार-क्षेत्र के आकलन के अनुसार राजस्थान के सभी सातों उम्मीदवार मजबूत दिखाई दे रहे हैं - लेकिन समस्या की बात यह है कि सातों को तो जीतना नहीं है; इसलिए मुसीबत दरअसल यहाँ से शुरू होती है । कोई भी चुनाव सिर्फ समर्थन के आधार-क्षेत्र की मजबूती के भरोसे नहीं जीता जा सकता है ! चुनाव वास्तव में एक प्रबंधन-कला भी है । चुनाव में जीतता वह है जो अपने समर्थन-आधार को व्यावहारिक तरीके से मैनेज कर पाता है । 
पिछली बार अशोक ताम्बी चुनावी प्रबंधन में कौशल न दिखा पाने के कारण ही जीतते-जीतते हार गए थे; और आशीष व्यास जीतने की तरफ बढ़ते बढ़ते हार की तरफ निकल गए । गौर करने वाला तथ्य यह है कि पहली वरीयता के वोटों की गिनती में अशोक ताम्बी सातवें नंबर पर तथा आशीष व्यास नौवें नंबर पर थे, लेकिन फिर भी काउंसिल में नहीं जा पाए । राजस्थान के इस बार के जो उम्मीदवार हैं, वह अशोक ताम्बी व आशीष व्यास के साथ पिछली बार जो हुआ - चाहें तो उससे सबक ले सकते हैं । पिछली बार के चुनावी नतीजों का विश्लेषण यदि करें, तो एक मजेदार तथ्य यह पता चलता है कि एक नितीश अग्रवाल को छोड़ कर राजस्थान के बाकी सभी उम्मीदवारों को दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों का टोटा पड़ गया था, और इस कारण उनकी रैंकिंग पीछे गई । पहली वरीयता के वोटों की गिनती में तीसरे नंबर पर रहने वाले सीएल यादव फाइनली पाँचवें नंबर पर रहे; मनीष बारोद छठे नंबर से पहले तो सातवें नंबर पर खिसके, लेकिन अंततः अपने छठे नंबर को बचाए रखने में कामयाब रहे; अशोक ताम्बी और आशीष व्यास का हाल पहले ही बताया जा चुका है; निर्मल सोनी के लिए भी अपने ग्यारहवें नंबर को बचाये रख पाना संभव नहीं हुआ । एक अकेले नितीश अग्रवाल ने अपनी स्थिति सुधारी थी और वह बारहवें नंबर से आठवें नंबर पर पहुँचे थे । यह नतीजा बताता है कि राजस्थान के उम्मीदवार दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों का फायदा उठाने की व्यवस्था करने में पिछड़ जाते हैं । पिछली बार जयपुर के बाहर के शहरों के उम्मीदवार के रूप में नितीश अग्रवाल, आशीष व्यास और निर्मल सोनी का जो प्रदर्शन रहा, वह जयपुर के उम्मीदवारों की उम्मीदों पर पानी फेरने का काम करता है । 
समझा जाता है कि जयपुर के बाहर के शहरों के तीनों उम्मीदवारों का जो प्रदर्शन रहा था, उसमें जयपुर-विरोधी भावना की महत्वपूर्ण भूमिका थी । उल्लेखनीय है कि राजस्थान में कई ब्रांचेज में लोगों को इस बात पर बड़ी चिढ़ है कि इंस्टीट्यूट की दोनों काउंसिल में सारी सीटें जयपुर के लोग ही हथिया लेना चाहते हैं । इसी चिढ़ के कारण जयपुर के उम्मीदवारों के लिए राजस्थान की दूसरी ब्रांचेज में वोट जुटाना मुश्किल हो जाता है; और यही बात जयपुर के बाहर के उम्मीदवारों के लिए वरदान बन जाती है । देवेंद्र सोमानी ने इसी स्थिति का फायदा उठाने की अच्छी तैयारी दिखाई है, और इसी बिना पर उनकी चुनावी स्थिति को मजबूत देखा/पहचाना जा रहा है । उनकी स्थिति को खतरा बस निर्मल सोनी की तरफ से देखा जा रहा है । दोनों चूँकि एक ही शहर के हैं, और निर्मल सोनी का पिछली बार का प्रदर्शन अपेक्षाकृत ठीक ही रहा था - इसलिए कुछेक लोगों को लगता है कि देवेंद्र सोमानी के लिए मामला आसान नहीं होगा । किंतु उदयपुर में लोगों का मानना/कहना है कि निर्मल सोनी को पिछली बार जो वोट मिले थे, वह इसलिए मिले थे क्योंकि पिछली बार वह पूरे रीजन में अकेले माहेश्वरी थे; इस बार राजस्थान में ही चार माहेश्वरी हैं । दावा किया जा रहा है कि उदयपुर में ही निर्मल सोनी को खास समर्थन नहीं है; और उदयपुर में इस बार उनकी उम्मीदवारी के पीछे उन लोगों को देखा/पहचाना जा रहा है, जो पिछली बार उनके खिलाफ थे - और जो इस बार सिर्फ उनके साथ इसलिए हैं क्योंकि उन्हें देवेंद्र सोमानी का विरोध करने के लिए कोई 'मोहरा' चाहिए । देवेंद्र सोमानी ने निर्मल सोनी की तरफ से मिलने वाली चुनौती को पहचाना हुआ है, और उससे निपटने की रणनीति के तहत राजस्थान की विभिन्न ब्रांचेज के साथ-साथ मध्य प्रदेश की इंदौर ब्रांच में तथा बिहार की कुछेक ब्रांचेज में समर्थन जुटाने की कोशिशें की हैं । देवेंद्र सोमानी ने अपने पक्ष में 'हवा' तो अच्छी बनाई है, लेकिन फिर भी उनकी सफलता इस बात पर निर्भर होगी कि अपने समर्थन-आधार को वह व्यवस्थित कैसे करते हैं । 
जयपुर के उम्मीदवारों में गौतम शर्मा और रोहित अग्रवाल अपनी चुनावी तैयारी को गंभीरता से लेते दिख रहे हैं - इसलिए उनकी चुनावी स्थिति को बाकी उम्मीदवारों की तुलना में फिलवक्त बेहतर देखा/पहचाना जा रहा है । जयपुर में कई लोगों का हालाँकि यह भी मानना/कहना है कि जयपुर के दूसरे उम्मीदवारों का भी समर्थन-आधार चूँकि अच्छा है, इसलिए यदि वह अपनी अपनी चुनावी तैयारियों को लेकर वास्तव में गंभीर हो जाते हैं - तब फिर गौतम शर्मा व रोहित अग्रवाल के लिए मामला उतना आसान शायद नहीं रह जायेगा, जितना आसान वह अभी दिख रहा है । सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनाव के संदर्भ में राजस्थान का चुनावी परिदृश्य इसलिए दिलचस्प है क्योंकि यहाँ सीन बहुत कुछ स्पष्ट होने के बावजूद अभी भी पूरी तरह सुनिश्चित नहीं माना/कहा जा सकता है । 

Tuesday, October 27, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में 26 अक्टूबर के आलोक गुप्ता के शो के मुकेश अरनेजा के प्रति बढ़ते/फैलते विरोध का शिकार होने से दीपक गुप्ता के चुनाव अभियान में मुसीबत बढ़ी

नई दिल्ली/गाजियाबाद । मुकेश अरनेजा की चुनावी भूमिका की शिकायत इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई के यहाँ तक पहुँच जाने के कारण डिस्ट्रिक्ट 3012 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए सुभाष जैन और दीपक गुप्ता के बीच हो रहा मुकाबला खास हो उठा है । इसके चलते हालाँकि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के कुछेक समर्थकों व शुभचिंतकों के बीच आशंकाभरा सवाल भी पैदा हो गया है कि मुकेश अरनेजा का चुनावी हथकंडा कहीं आत्मघाती तो साबित नहीं हो जायेगा ? दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के कुछेक समर्थकों को लगता है, और वह यह कहते भी हैं कि मुकेश अरनेजा का लोगों के बीच जैसा विरोध है और इस विरोध के बावजूद जैसी वह हरकतें करते हैं - उसके कारण दीपक गुप्ता का चुनाव अभियान जितना आगे नहीं बढ़ता, उससे ज्यादा पीछे खिसक जाता है । दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के पक्ष में समर्थन जुटाने के मकसद से 25 अक्टूबर को हुए अमित अग्रवाल के 'शो' के मुकाबले 26 अक्टूबर को हुए आलोक गुप्ता के 'शो' के फीका रहने के एक बड़े कारण के रूप में मुकेश अरनेजा की उपस्थिति/अनुपस्थिति को ही देखा/पहचाना गया । अमित अग्रवाल अपने शो से मुकेश अरनेजा को दूर रखने के कारण ज्यादा होशियार साबित हुए; उनके शो से दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के अभियान को बढ़त मिलती दिखी थी, जिसे लेकिन अगले ही दिन हुए आलोक गुप्ता के शो से खासा तगड़ा झटका लगा । आलोक गुप्ता के शो में मुकेश अरनेजा को मुख्य अतिथि के रूप में देख कर आमंत्रित लोगों ने शो से दूर रहना ही उचित समझा - और इस बात ने एक दिन पहले ही बनी 'हवा' की हवा निकालने का काम किया । 
इस झटके पर लीपापोती करने की कोशिश में हालाँकि तर्क दिया गया है कि आलोक गुप्ता के शो का दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के अभियान से कोई लेना-देना नहीं था; और वह क्लब का कार्यक्रम था, जिसमें ज्यादा लोगों को बुलाया ही नहीं गया था । इस तर्क के चलते लेकिन बात और बिगड़ गई । कहा/पूछा जाने लगा कि आलोक गुप्ता जब दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थक बने हुए हैं और अपने कार्यक्रम में वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के प्रवर्तक मुकेश अरनेजा को मुख्य अतिथि बना रहे हैं, तो चुनावी घमासान के मौके पर आयोजित हो रहे अपने क्लब के एक कार्यक्रम को दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के अभियान से जोड़ने का काम उन्होंने क्यों नहीं किया ? फिर वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के कैसे समर्थक हैं ? यह तर्क यदि वास्तव में सच है, तो इस बात को साबित करता है कि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थक पूरे मन/कर्म से उनके समर्थक नहीं हैं । और यदि यह तर्क सिर्फ बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, तो इससे जाहिर हो रहा है कि दीपक गुप्ता और उनके समर्थक अपनी मेहनत से जितना समर्थन बना/जुटा पाते हैं, मुकेश अरनेजा एक झटके में उस पर पानी फेर देते हैं । दीपक गुप्ता के कुछेक समर्थकों का कहना है कि उन्हें मुकेश अरनेजा के समर्थन से फायदा तो उठाना चाहिए, लेकिन मुकेश अरनेजा को 'आगे' रखने तथा सब कुछ उनके ऊपर छोड़ देने से सिर्फ नुकसान ही होगा ।
मुकेश अरनेजा की चुनावी भूमिका की शिकायत इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई तक पहुँच जाने से मामला और गंभीर हो गया है । चर्चा है कि मुकेश अरनेजा की हरकतों की जो शिकायतें मनोज देसाई तक पहुँची हैं, मनोज देसाई ने अपने स्तर पर उनकी पुष्टि की है और मामले को गंभीर माना है । इस मामले में मनोज देसाई को दरअसल इसलिए दिलचस्पी लेना पड़ रहा है, क्योंकि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन ने रोटरी की चुनावी राजनीति में गवर्नर्स द्वारा भूमिका निभाने को लेकर कड़ी चेतावनी दी हुई है । पिछले दिनों दिल्ली में डिस्ट्रिक्ट 3012 व डिस्ट्रिक्ट 3011 द्वारा संयुक्त रूप से की गई इंटरसिटी में भाषण देते हुए केआर रवींद्रन ने अपनी चेतावनी को दोहराते हुए साफ कहा था कि कोई पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रोटरी की चुनावी राजनीति में संलग्न दिखा, तो उसका 'डिस्ट्रिक्ट गवर्नर' छीन कर उसे सिर्फ 'पूर्व' बना दिया जायेगा । केआर रवींद्रन के इस रवैये के चलते मनोज देसाई को डर है कि उन्होंने यदि इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लिया, तो केआर रवींद्रन की ब्लैक लिस्ट में शामिल होंगे । मुकेश अरनेजा का दावा लेकिन यह है कि उनके बारे में मनोज देसाई को चाहें जितनी शिकायतें मिल जाएँ, मनोज देसाई उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेंगे । अपने इस दावे के पक्ष में उनका तर्क है कि मनोज देसाई इस बात को अच्छे से जानते हैं कि वह आज यदि इंटरनेशनल डायरेक्टर हैं, तो उनकी वजह से हैं - ऐसे में वह उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई भला कैसे कर सकेंगे ? मुकेश अरनेजा इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के बारे में भी इसी तरह की बातें कर रहे हैं । उनका कहना है कि केआर रवींद्रन सिर्फ बातें बना रहे हैं, कुछ करना-धरना उनके बस में नहीं है । मुकेश अरनेजा का कहना है कि खुद केआर रवींद्रन पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की राजनीति के सहारे ही इंटरनेशनल प्रेसीडेंट के पद तक पहुँचे हैं, और अभी भी राजनीति करते हैं । 
मनोज देसाई और केआर रवींद्रन को लेकर मुकेश अरनेजा का जो कहना है, हो सकता है कि वह सच हो; और मुकेश अरनेजा की चुनावी भूमिका की शिकायत पर कार्रवाई करने की हिम्मत हो सकता है कि मनोज देसाई सचमुच न कर पाएँ - लेकिन दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के कुछेक समर्थकों का कहना है कि उनकी हरकतों से एक नकारात्मक प्रभाव तो बन ही रहा है, जो कुल मिलाकर नुकसान पहुँचाने का ही काम करेगा । मुकेश अरनेजा ने क्लब्स तथा लोगों के बीच दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के प्रति समर्थन बनाने की बजाए क्लब्स में तोड़फोड़ कराने तथा क्लब्स के सदस्यों के बीच झगड़ा पैदा करने/करवाने वाले जो काम किए हैं, उन्हें लेकर उनके प्रति विरोध और फैला है । नोमीनेटिंग कमेटी के लिए नाम तय कराने से लेकर तय हुए नामों वाले लोगों पर दबाव डालने का जो काम मुकेश अरनेजा ने किया है, उसका उल्टा ही असर पड़ता नजर आ रहा है । कई लोगों का मानना और कहना है कि मुकेश अरनेजा की सक्रियता के नाम पर लोगों के साथ की जा रही बेहूदगियाँ लोगों को उनके साथ-साथ उनके नजदीकियों व समर्थकों तक से दूर करने का काम कर रही हैं, जिसका सुबूत 26 अक्टूबर के आलोक गुप्ता के शो में देखने को मिला - और यही बात दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने में मुसीबत बनी हुई है ।

Monday, October 26, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल रीजन में नितिन गुप्ता को अनुज गोयल की चालों में मदद करता देख विनय मित्तल ऐसा भड़के हैं कि अपना चुनाव छोड़ कर उन्होंने नितिन गुप्ता के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है

गाजियाबाद । नितिन गुप्ता के अनुज गोयल से हाथ मिला लेने की खबरें सुन कर विनय मित्तल इतने खफा हुए हैं कि वह सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की बात भूल कर रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत नितिन गुप्ता की उम्मीदवारी के खिलाफ प्रचार करने में जुट गए हैं । इस 'जुटने' के तहत ही विनय मित्तल जहाँ भी जाते हैं, वहाँ के लोगों को नितिन गुप्ता की धोखेबाजी का किस्सा बताने से नहीं चूकते हैं । किस्सा भी सिर्फ यह कि नितिन गुप्ता ने उनसे उनकी उम्मीदवारी के लिए काम करने का वायदा किया था, लेकिन फिर अचानक से पता नहीं क्या हुआ कि अपने वायदे को भूल कर नितिन गुप्ता खुद ही उम्मीदवार हो गए । विनय मित्तल को लगता है कि उनके चुनाव अभियान को नुकसान पहुँचाने के इरादे से अनुज गोयल ने नितिन गुप्ता को उम्मीदवारी के लिए प्रेरित किया; और अनुज गोयल की बातों में आकर नितिन गुप्ता ने उनके साथ धोखा किया । विनय मित्तल लोगों को यह भी बताते हैं कि नितिन गुप्ता को रीजनल काउंसिल का चुनाव जितवाने का लालच देकर अनुज गोयल ने नितिन गुप्ता को पूरी तरह अपने वश में कर लिया है, तथा नितिन गुप्ता के जरिए उनके समर्थकों को बरगलाने व तोड़ने का काम करते हुए सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उनकी उम्मीदवारी को नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं । 
उल्लेखनीय है कि नितिन गुप्ता पिछले चुनाव में विनय मित्तल के साथ थे, और पिछली बार रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत विनय मित्तल की उम्मीदवारी के पक्ष में उन्होंने जम कर काम किया था । गाजियाबाद में ही नहीं, गाजियाबाद के आसपास की ब्रांचेज में भी लोगों का मानना और कहना रहा है कि पिछली बार रीजनल काउंसिल के चुनाव में विनय मित्तल को जो जीत मिली थी - उसमें नितिन गुप्ता की महत्वपूर्ण भूमिका थी । पिछले चुनाव के दौरान लोगों को विनय मित्तल और नितिन गुप्ता के बीच जो केमिस्ट्री देखने को मिली थी, उसके आधार पर ही अनुमान लगाया जा रहा था कि अबकी बार सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत विनय मित्तल की उम्मीदवारी के अभियान की बागडोर नितिन गुप्ता के हाथ में ही होगी । खुद विनय मित्तल भी नितिन गुप्ता के सहयोग को लेकर आश्वस्त थे । किंतु नितिन गुप्ता ने सभी अनुमानों और आश्वस्तियों को गलत साबित करते हुए सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित कर दी । नितिन गुप्ता की इस घोषणा से विनय मित्तल को तगड़ा वाला झटका तो लगा, तथा दूसरों को भी आश्चर्य तो हुआ - लेकिन यह मान लिया गया कि आखिर नितिन गुप्ता की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ हैं और यदि वह उन्हें पूरा करना चाहते हैं, तो किसी को भी उन पर ऊँगली उठाने का हक नहीं है । विनय मित्तल ने भी इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया कि सेंट्रल काउंसिल का चुनाव उन्हें नितिन गुप्ता की मदद के बिना ही लड़ना होगा; तथा इस हकीकत के चलते पैदा हुई स्थितियों से निपटने लिए उन्होंने अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ में तैयारी भी कर ली । 
विनय मित्तल लेकिन यह देख/जान कर भड़क गए हैं कि नितिन गुप्ता ने अनुज गोयल से नजदीकी बना ली है । रीजनल काउंसिल के चुनाव के संदर्भ में अनुज गोयल को पहले हालाँकि मुकेश बंसल के समर्थन में देखा/पहचाना जा रहा था, और अनुज गोयल कुछेक जगह मुकेश बंसल की उम्मीदवारी को समर्थन दिलाने के प्रयास करते देखे/सुने भी गए थे; किंतु अभी उन्हें नितिन गुप्ता के साथ देखा जाने लगा है । लोगों के बीच चर्चा है कि अनुज गोयल ने मुकेश बंसल का साथ छोड़ कर अब नितिन गुप्ता की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया है । यह तो कोई ऐसी बात नहीं है, जिस पर विनय मित्तल भड़कें - लेकिन उनके भड़कने का कारण अनुज गोयल का नितिन गुप्ता को उनके खिलाफ इस्तेमाल करना बना । नितिन गुप्ता का अनुज गोयल के हाथों इस्तेमाल होने के लिए तैयार जाने ने उनके 'भड़कने' को और ज्यादा भड़काने का काम किया । दरअसल देखा/पाया यह गया कि अनुज गोयल ने नितिन गुप्ता की मदद से विनय मित्तल की जड़ें खोदने का काम शुरू किया है, और चुन चुन कर विनय मित्तल के समर्थकों व शुभचिंतकों को 'तोड़ने' व विनय मित्तल से दूर करने का प्रयास कर रहे हैं । नितिन गुप्ता चूँकि विनय मित्तल के समर्थकों व शुभचिंतकों को अच्छे से जानते/पहचानते हैं, इसलिए नितिन गुप्ता की मदद अनुज गोयल के खूब काम आ रही है । नितिन गुप्ता की मदद से अनुज गोयल सिर्फ विनय मित्तल के नजदीकियों को पहचानने का ही काम नहीं कर रहे हैं, बल्कि नितिन गुप्ता की मदद से वह विनय मित्तल के खिलाफ नकारात्मक अभियान भी चला रहे हैं । अनुज गोयल जो कर रहे हैं, या करना चाहते हैं - वह तो अपनी जगह है ही; विनय मित्तल के लिए झटके की बात यह है कि नितिन गुप्ता इस काम में बढ़चढ़ कर अनुज गोयल की मदद कर रहे हैं । 
अनुज गोयल दरअसल नहीं चाहते हैं कि सेंट्रल काउंसिल में उनके द्वारा खाली की गई सीट पर विनय मित्तल काबिज हों । इसके लिए उन्होंने अपने भाई जितेंद्र गोयल को भी बलि का बकरा बना दिया, लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि जितेंद्र गोयल के जरिए वह विनय मित्तल को शायद न रोक सकें । जितेंद्र गोयल को समर्थन दिलाने की अनुज गोयल ने जितनी जो कोशिशें  की हैं, उनसे फायदा होना तो दूर की बात - रीजन में उनकी फजीहत और हुई है । लोग खुलेआम कहने भी लगे हैं कि चुनाव में जितेंद्र गोयल की हालत तो अमरेश वशिष्ट से भी बुरी होनी है । जितेंद्र गोयल के जरिए विनय मित्तल को 'रोकने' में असफलता मिलती देख कर ही अनुज गोयल ने नितिन गुप्ता के मार्फत विनय मित्तल का शिकार करने की योजना बनाई । नितिन गुप्ता को अपनी तरफ मिलाना अनुज गोयल के लिए इसलिए भी आसान हुआ, क्योंकि खुद नितिन गुप्ता अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ में विनय मित्तल के रवैये से आहत थे । असल में, नितिन गुप्ता को विश्वास था कि विनय मित्तल के साथ पीछे उनके जैसे सहयोगात्मक संबंध रहे हैं, उसके कारण विनय मित्तल उनकी मदद करेंगे । लेकिन मदद करना तो दूर की बात, विनय मित्तल ने उनकी उम्मीदवारी के प्रति दुश्मनी जैसा भाव रखा । इसीलिए अनुज गोयल ने जैसे ही उनकी तरफ सहयोग का हाथ बढ़ाया, तो उन्होंने हाथ पकड़ने में देर नहीं लगाई - और फिर वह विनय मित्तल को उखाड़ने के लिए चली जा रही अनुज गोयल की चालों में भी मदद करते हुए दिखने लगे । यह देख/जान कर विनय मित्तल ने नितिन गुप्ता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है । लोगों का कहना है कि विनय मित्तल सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की बजाए नितिन गुप्ता की रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उम्मीदवारी के खिलाफ काम करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं । 

Sunday, October 25, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3100 में राजीव सिंघल की उम्मीदवारी के समर्थक पूर्व गवर्नर्स की 'ठुकाई'/'बजाई' से बचने लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता ने कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग का विचार छोड़ने में ही अपनी भलाई देखी है

मेरठ । पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स पर भरोसा न कर पाने के कारण डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग बुलाने को लेकर असमंजस में फँस गए हैं । मजे की बात यह हुई है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन से मिले चेतावनी पत्र की मार से बचने के लिए सुनील गुप्ता ने पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के यहाँ शरण खोजने की जो कोशिश की, उसका उन्हें बड़ा उत्साहजनक जबाव मिला और प्रायः हर पूर्व गवर्नर ने कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग बुलाने के उनके प्रस्ताव का हाथों-हाथ समर्थन किया - किंतु फिर भी कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग बुलाने का वह कोई फैसला नहीं कर पा रहे हैं । दरअसल राजीव सिंघल व उनके समर्थकों ने सुनील गुप्ता को आगाह किया है कि कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग बुलाने के उनके प्रस्ताव पर पूर्व गवर्नर्स ने जो उत्साह दिखाया है, वह उनकी मदद करने के संदर्भ में नहीं दिखाया है - बल्कि उनकी 'ठोकने'/'बजाने' का मौका बनाने/पाने के संदर्भ में दिखाया है । राजीव सिंघल व उनके समर्थकों ने सुनील गुप्ता को कहा/बताया है कि कुछेक पूर्व गवर्नर्स तो कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग को लेकर इसलिए उत्साहित हैं क्योंकि उसमें 'उन्हें' उन्हें 'धोने' का मौका मिलेगा, और बाकी कई फ्री का तमाशा देखने की उम्मीद में कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग करवा लेना चाहते हैं । सुनील गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार ही, यह कहते/बताते हुए राजीव सिंघल ने सुनील गुप्ता को आश्वस्त किया है कि इन पूर्व गवर्नर्स के चक्कर में मत पड़ो - मैं इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई से कह कर तुम्हें बचवाऊँगा । 
राजीव सिंघल से यह आश्वासन मिलने के बाद ही सुनील गुप्ता ने दो काम एक साथ किए - एक तरफ तो उन्होंने यह कहते हुए अपना 'दम' दिखाना शुरू किया कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट की चिट्ठी से क्या होता है, देखना मैं सब मैनेज कर लूँगा; और दूसरी तरफ उन्होंने कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग के विचार से पीछे हटने के संकेत देने शुरू कर दिए । कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग से उन्हें पीछे हटता पाकर कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने अपने आप को ठगा हुआ महसूस किया है । उनका कहना है कि सुनील गुप्ता ही तो उनके पास आया था; रोते-धोते हुए और अपने बच्चों की कसमें देते हुए खुद को बचाने की गुहार लगाते हुए उनके पैरों में बैठ गया था; खुद ही कह/बता रहा था कि अब पूर्व गवर्नर्स ही मुझे बचा सकते हैं; उसके रोने-धोने को देखते हुए उन्होंने आपस में विचार-विमर्श भी किया तथा उसकी मदद करने को लेकर सक्रिय भी हुए - अब सुना है कि सुनील गुप्ता लोगों के बीच कह रहे हैं कि उन्हें पूर्व गवर्नर्स पर भरोसा ही नहीं है । मजे की बात यह हुई है कि राजीव सिंघल की उम्मीदवारी को समर्थन देने के चक्कर में सुनील गुप्ता ने जिन बृज भूषण व योगेश मोहन गुप्ता को तवज्जो दी, वही दोनों सुनील गुप्ता के हाथों उपेक्षित होने की शिकायत करते सुने गए हैं । उनकी शिकायतों की सुनील गुप्ता हालाँकि कोई परवाह करते हुए भी नहीं देखे जा रहे हैं । कहीं कहीं तो सुनील गुप्ता यह तक कहते सुने गए हैं कि बृज भूषण और योगेश मोहन गुप्ता ने ज्यादा शिकायतबाजी की, तो उनका हाल भी एमएस जैन जैसा कर दिया जायेगा । एमएस जैन भी राजीव सिंघल की उम्मीदवारी के बड़े समर्थक हैं, जिनकी सुनील गुप्ता ने खासी दुर्गति करते हुए उन्हें उनके क्लब से निकलवा दिया हुआ है । 
कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग कराने से पीछे हटने के पीछे सुनील गुप्ता का एक बड़ा डर दरअसल एमएस जैन वाला किस्सा भी है । राजीव सिंघल की तरफ से सुनील गुप्ता को स्पष्ट बता दिया गया है कि कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग यदि हुई तो एमएस जैन तथा दूसरे गवर्नर्स उनकी ऐसी हालत करेंगे, जैसी उन्होंने सोची भी नहीं होगी । सुनील गुप्ता ने अपनी हरकतों और बातों से पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को इतना अपमानित किया हुआ है, कि कई पूर्व गवर्नर्स बदला लेने की ताक में ही बैठे हुए हैं । कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स को सुनील गुप्ता से बदला लेने का अच्छा मौका उपलब्ध करवा सकती है । राजीव सिंघल के समर्थक पूर्व गवर्नर्स की तरफ से बन रहे इस खतरे को भाँप कर ही सुनील गुप्ता कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग करने/कराने से बच रहे हैं ।    
इस तरह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता और डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवार राजीव सिंघल के संबंध एक पहेली की तरह बन गए हैं - जिसमें हर किसी के लिए फिलहाल यह समझना मुश्किल हो रहा है कि कौन किसको इस्तेमाल कर रहा है ? सुनील गुप्ता डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में राजीव सिंघल की हर संभव मदद कर रहे हैं और करने के प्रयासों में लगे हैं, किंतु दूसरी तरफ राजीव सिंघल के समर्थक नेता सुनील गुप्ता की पूरी तरह ऐसी-तैसी करने में लगे हैं । डिस्ट्रिक्ट में हर किसी के लिए हैरानी की बात यह है कि राजीव सिंघल के समर्थक नेता जब सुनील गुप्ता की गवर्नरी खराब करने के साथ-साथ 'छीनने' की भी कोशिश कर रहे हैं, तब सुनील गुप्ता आखिर किस 'लालच' में   राजीव सिंघल की उम्मीदवारी के समर्थन में अपना तन-मन लगाए हुए हैं ? राजीव सिंघल के नजदीकियों की तरफ से हालाँकि इसका कारण यह बताया गया है कि राजीव सिंघल की उम्मीदवारी का समर्थन करने के बदले में उनसे मोटी रकम ऐंठ लेने की उम्मीद में सुनील गुप्ता उनके समर्थक नेताओं से प्रताड़ित व अपमानित होने के बावजूद उनकी उम्मीदवारी का काम करने में लगे हुए हैं । राजीव सिंघल ने इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई के नाम का इस्तेमाल करते हुए सुनील गुप्ता को उनकी गवर्नरी बचाने का आश्वासन देकर अपनी तरफ और खींच लिया है । 
डिस्ट्रिक्ट में लोगों का कहना/पूछना लेकिन यह है कि राजीव सिंघल के मनोज देसाई के साथ यदि सचमुच नजदीकी संबंध हैं, और उन संबंधों के चलते वह वास्तव में सुनील गुप्ता की गवर्नरी को बचा लेंगे - तो उन्होंने सुनील गुप्ता की गवर्नरी को मुसीबत में फँसने ही क्यों दिया ? उल्लेखनीय है कि सुनील गुप्ता की गवर्नरी पर जो आफत है, उसके प्रमुख सूत्रधार के रूप में मनोज देसाई को ही देखा/पहचाना जा रहा है । मनोज देसाई यदि चाहते तो सुनील गुप्ता के खिलाफ हुई शिकायतों को बीच में ही दफ़्न कर सकते थे । उन्होंने ऐसा नहीं किया, उससे जाहिर है कि राजीव सिंघल ने उनसे सुनील गुप्ता की वकालत या तो की नहीं और या उनकी सुनी नहीं गई । यह इस बात का सुबूत है कि मनोज देसाई का नाम लेकर राजीव सिंघल वास्तव में डिस्ट्रिक्ट के लोगों को तथा सुनील गुप्ता को उल्लू ही बना रहे हैं । सुनील गुप्ता इसलिए खुशी खुशी बन भी रहे हैं, क्योंकि दूसरी बातों की बजाए उनकी निगाह राजीव सिंघल से रकम ऐंठने पर ज्यादा है । 

Friday, October 23, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल में एनसी हेगड़े को भेजने के लिए डेलॉयट मैनेजमेंट द्वारा की गई 'तैयारी' ही लेकिन एनसी हेगड़े की मुसीबत भी बनती दिख रही है

मुंबई । एनसी हेगड़े की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उम्मीदवारी को सफल बनाने के लिए डेलॉयट मैनेजमेंट ने चुनाव अभियान में अपनी पूरी मशीनरी को जिस तरह से झोंक दिया है, उसके चलते वेस्टर्न रीजन में चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प हो गया है । लगता है कि डेलॉयट मैनेजमेंट अपने माथे पर लगे कलंक को इस बार धो देना चाहता है कि पिछली बार उसका सक्रिय सहयोग न मिलने के कारण ही एनसी हेगड़े चुनाव में पिछड़ गए थे । गौर करने वाली बात यह है कि वर्ष 2009 में रीजनल काउंसिल के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट प्राप्त करने वाले एनसी हेगड़े तीन वर्ष बाद, वर्ष 2012 में सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में हार गए । एनसी हेगड़े की यह हार इसलिए भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2009 में रीजनल काउंसिल के चुनाव में जिन जय छैरा को उनके मुकाबले आधे से भी कम वोट मिले थे, वह जय छैरा वर्ष 2012 में सेंट्रल काउंसिल का चुनाव जीत गए थे । पिछली बार एनसी हेगड़े की पराजय के लिए डेलॉयट मैनेजमेंट को ही जिम्मेदार माना/ठहराया गया था - आरोप था कि मैनेजमेंट ने उनके चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी और चुनावी समर में उन्हें अकेला छोड़ दिया गया था ।
समझा जाता है कि इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में डेलॉयट का प्रतिनिधित्व महेश सारडा से छीन कर जिस तरह से एनसी हेगड़े को सौंपा गया था, उससे डेलॉयट मैनेजमेंट का एक बड़ा तबका नाखुश था - और उस नाखुशी में ही उन्होंने एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी से अपने आप को दूर रखा । मैनेजमेंट से मिले इस धोखे के कारण ही एनसी हेगड़े इस बार उम्मीदवार बनने को राजी नहीं थे । ऐन मौके पर वह राजी हुए, तो तब जब मैनेजमेंट से उन्हें पूर्ण सहयोग का वायदा मिला । इसी चक्कर में एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी बहुत देर से प्रस्तुत हुई । 
देर से प्रस्तुत होने के कारण एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए डेलॉयट मैनेजमेंट ने पूरी तरह कमर कस ली है और एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी के बाबत अपने पुराने से पुराने तथा नए से नए स्टाफ-सदस्य को खटखटाना शुरू कर दिया है । डेलॉयट मैनेजमेंट अपने स्टाफ-सदस्य को इस बात के लिए भी प्रेरित कर रहा है कि वह फर्म से बाहर के अपने परिचित चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच भी एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने का प्रयास करे । खुद एनसी हेगड़े ने भी अपने रवैये में बड़ा बदलाव किया है । पिछली बार उनकी इस बात के लिए बहुत तारीफ हुई थी कि उन्होंने एसएमएस, ईमेल, फोन कॉल्स के जरिए लोगों को 'परेशान' नहीं किया - और बहुत ही 'सज्जनता' के साथ अपना चुनाव अभियान चलाया; किंतु इस बार एनसी हेगड़े अपनी पिछली बार वाली सज्जनता दिखाने के मूड में नहीं हैं । एनसी हेगड़े की तरफ से तथा डेलॉयट मैनेजमेंट की तरफ से एसएमएस व ईमेल्स का जो तूफान खड़ा किया गया है, उससे साबित है कि एनसी हेगड़े इस बार चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा आजमाने के लिए तैयार हैं । उनकी इस तैयारी में लेकिन डेलॉयट के स्टाफ-सदस्य अपने आप को भारी मुसीबत में पा रहे हैं ।            
डेलॉयट के स्टाफ-सदस्य की यह मुसीबत कहीं एनसी हेगड़े की मुसीबत तो नहीं बन जायेगी ? कुछेक लोगों को लगता है कि इंस्टीट्यूट की राजनीति के संदर्भ में डेलॉयट मैनेजमेंट ने महेश सारडा के साथ जो अन्याय किया है, उसकी नाराजगी डेलॉयट के कई प्रमुख लोगों में अभी बनी हुई है, और वह मुसीबत में फँसे स्टाफ-सदस्यों को एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी के खिलाफ भड़का सकते हैं । हालाँकि अधिकतर लोगों को इस तरह का कोई डर प्रासंगिक नहीं लगता है; उनका कहना है कि महेश सारडा वाला किस्सा अब पुराना पड़ गया है - तथा इस समय जबकि डेलॉयट मैनेजमेंट खुल कर एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी के पक्ष में सक्रिय है, तब कोई भी उस पुराने किस्से के कारण एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी के खिलाफ काम नहीं करेगा ।
डेलॉयट मैनेजमेंट ने एनसी हेगड़े की उम्मीदवारी को लेकर इस बार जिस तरह की आक्रामक सक्रियता दिखाई है, उसके चलते चुनावी राजनीति के आकलनकर्ताओं को उनकी जीत सुनिश्चित जान पड़ रही है । उनका तर्क है कि पिछली बार डेलॉयट मैनेजमेंट ने उनकी उम्मीदवारी के लिए काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी, उसके बावजूद उनका प्रदर्शन कोई बहुत बुरा नहीं था, और वह बारहवें नंबर पर थे ही । इसलिए इस बार इस एक वजह से ही एनसी हेगड़े की स्थिति सुरक्षित हो जाती है कि डेलॉयट मैनेजमेंट का इस बार उन्हें पूरा पूरा और सक्रिय समर्थन मिल रहा है । डेलॉयट मैनेजमेंट ने दूसरी बिग फोर कंपनियों के साथ इस तरह का समझौता करने की संभावनाओं को भी तलाशना शुरू किया है, जिसके तहत दूसरे रीजन में उनके उम्मीदवारों को डेलॉयट के लोग समर्थन देंगे - और बदले में वेस्टर्न रीजन में उनके लोग डेलॉयट के एनसी हेगड़े को समर्थन देंगे ।  
इतने सब इंतजामों के बावजूद, एनसी हेगड़े के लिए डेलॉयट से ही रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत राकेश अलशि की उम्मीदवारी जरूर एक बड़ी चुनौती है । डेलॉयट मैनेजमेंट ने एनसी हेगड़े के साथ-साथ राकेश अलशि की उम्मीदवारी के लिए भी समर्थन जुटाने का अभियान छेड़ा हुआ है । इससे लोगों के बीच एक नकारात्मक फीलिंग पैदा होने का खतरा है । लोगों को लग सकता है कि बिग फोर कंपनियाँ हर जगह काबिज होना चाहती हैं ! बिग फोर कंपनियों के खिलाफ लोगों के बीच एक विरोधी किस्म की फीलिंग होती ही है । लोगों को लगता है कि बिग फोर के उम्मीदवार उनकी परवाह नहीं करते हैं । एनसी हेगड़े के खिलाफ ही एक बड़ा आरोप यह है कि मुंबई के बाहर की ब्रांचेज में शायद ही उनकी कोई सक्रियता रही है । पिछली बार ग्यारहवीं सीट के लिए हुए गंभीर मुकाबले में प्रफुल्ल छाजेड़ से उन्हें मिली हार का एक कारण यह भी माना गया था, कि लोगों के बीच उनकी बजाए प्रफुल्ल छाजेड़ की वर्किंग चूँकि ज्यादा अच्छी थी - इसलिए दूसरी/तीसरी वरीयता के वोट उनकी बजाए प्रफुल्ल छाजेड़ को मिले और वह जीते । लोगों के बीच सक्रियता के अभाव में एनसी हेगड़े के सामने जो चुनौती है, वह रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत राकेश अलशि की उम्मीदवारी के कारण पड़ सकने वाले नकारात्मक प्रभाव के कारण और बढ़ जाती है । दरअसल इसीलिए कई लोगों को लगता है कि डेलॉयट मैनेजमेंट द्वारा एनसी हेगड़े के चुनाव को लेकर पूरी तरह कमर कस लेने के बावजूद, एनसी हेगड़े के सामने मुश्किलें कम नहीं हैं । 

Thursday, October 22, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में सतीश सिंघल ने अपने 'माल' पर दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों की कब्जा करने की कोशिशों को फेल करके उन्हें तगड़ा झटका दिया

नोएडा । सतीश सिंघल ने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों के उस दावे पर नाराजगी व्यक्त करते हुए उसे नितांत झूठा बताया है, जिसमें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रस्तुत दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को उनके समर्थन की बात की/कही गई है । सतीश सिंघल के इस रवैये से दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के अभियान को खासा तगड़ा झटका लगा है । उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में सतीश सिंघल को कई एक लोगों से जब यह सुनने को मिला कि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थक नेता उनके समर्थन का दावा करते हुए, डिस्ट्रिक्ट के लोगों को उनके गवर्नर-काल के पदों का ऑफर तक दे रहे हैं - तो उनका पारा गर्म हुआ; और उन्होंने भड़कते हुए यहाँ तक कहा कि मैं कहीं किसी से दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के पक्ष में समर्थन की बात करता हुआ सुनाई/दिखाई दिया हूँ क्या ? और अपने गवर्नर-काल के लिए पद ऑफर करने की जिम्मेदारी मैंने किसी को भी नहीं दी है । सतीश सिंघल का कहना है कि दीपक गुप्ता और उनकी उम्मीदवारी के समर्थक नेता उनसे मिलते हैं, तो वह उनसे अच्छे से बात करते हैं; और कभी कभी किसी किसी से अपने गवर्नर-काल में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर भी बात कर लेते हैं - लेकिन इसका मतलब यह कहा और कैसे है कि मैं दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी का समर्थन कर रहा हूँ, और अपने गवर्नर-काल की टीम के लिए सदस्य चुनने का अधिकार मैंने किसी को दे दिया है ? सतीश सिंघल ने लोगों को चेतावनी भी दी कि किसी की बातों में आकर मेरे गवर्नर-काल में किसी पद विशेष की उम्मीद मत करने लगना, अन्यथा बाद में निराश होना व पछताना पड़ सकता है । सतीश सिंघल के इस रवैये से दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के उन समर्थकों को तगड़ा वाला झटका लगा है, जो लोगों के बीच दावा करते रहे हैं कि शरत जैन का पदों का 'गोदाम' तो खाली चुका है, इसलिए वह तो सुभाष जैन के लिए वोट खरीदने का काम नहीं कर पायेंगे; लेकिन सतीश सिंघल के पास अभी पद रूपी 'पूरा माल' पड़ा हुआ है, जिसे बेच कर हम दीपक गुप्ता के लिए वोट इकट्ठे करेंगे ।
सतीश सिंघल के आक्रामक तेवरों ने लेकिन दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों की सतीश सिंघल के गवर्नर-काल के पदों को बेच कर दीपक गुप्ता के लिए समर्थन जुटाने की योजना व तैयारियों पर पानी फेर दिया है । दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों ने सतीश सिंघल के 'माल' को जैसे चाहें वैसे इस्तेमाल करने की गलतफहमी दरअसल इसलिए पाली, क्योंकि सतीश सिंघल ने पिछले दिनों अपने गवर्नर-काल की तैयारियाँ शुरू करने की प्रक्रिया में कुछेक लोगों से इस अंदाज में बात की कि लोगों को लगा जैसे कि सतीश सिंघल पूरी तरह उन पर निर्भर हैं । मजे की बात यह देखने में आई कि कई कई लोग अपने आप को सतीश सिंघल का बड़ा खास समझने लगे; कई कई लोगों को यह दावा करते हुए सुना जाने लगा कि सतीश सिंघल जो भी करते हैं, उनसे पूछ कर ही करते हैं । बस इसी से दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के कुछेक समर्थकों को गलतफहमी हो गई कि सतीश सिंघल अपनी गवर्नरी चलाने के लिए उन पर पूरी तरह निर्भर हैं, और इस निर्भरता के चलते वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी का समर्थन करने के लिए मजबूर हैं - और इसी मजबूरी में उन्होंने अपने गवर्नर-काल का पद रूपी 'माल' उन्हें जैसे चाहें वैसे 'बेचने' के लिए सौंप दिया है । उन्होंने यह देखने/जानने/समझने का जरा भी कष्ट नहीं किया कि अपने गवर्नर-काल की तैयारियाँ शुरू करने की प्रक्रिया में सतीश सिंघल ने जिन जिन लोगों से बात की है, उनमें सुभाष जैन की उम्मीदवारी के समर्थक भी बहुतायत में हैं । यह देख/जान/समझ लेते तो वह इस गलतफहमी का शिकार न होते कि सतीश सिंघल ने अपना 'माल' उन्हें सौंप दिया है; और फिर उन्हें सतीश सिंघल से लताड़ भी न सुननी पड़ती ।
सतीश सिंघल के मजबूर होने की बात दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों को इसलिए भी लगी, क्योंकि सतीश सिंघल खुद ही कई बार रमेश अग्रवाल के प्रति अपनी खुन्नस व्यक्त करते हुए यह शिकायत करते रहे हैं कि जेके गौड़ और शरत जैन उन्हें उचित सम्मान व तवज्जो नहीं देते हैं । चूँकि इन तीनों को सुभाष जैन की उम्मीदवारी के समर्थक के रूप में देखा/पहचाना जाता है, इसलिए मान लिया गया कि सतीश सिंघल इन तीनों से बदला लेने के लिए सुभाष जैन की उम्मीदवारी का विरोध करेंगे ही । जिन दिनों सुभाष जैन का चुनावी मुकाबला अशोक गर्ग से होता दिख रहा था, उन दिनों सतीश सिंघल ने सुभाष जैन की उम्मीदवारी के कुछेक समर्थकों को तोड़ कर उन्हें अशोक गर्ग के समर्थन में लाने का प्रयास किया भी था; किंतु उन्हीं लोगों ने सतीश सिंघल को समझाया था कि चुनाव में जब सुभाष जैन का पलड़ा भारी दिख रहा है और उन्हीं के जीतने की संभावना नजर आ रही है, तो उनका विरोध करके और एक हारते दिख रहे उम्मीदवार के समर्थन में जाकर क्या हासिल करोगे ? सुभाष जैन की उम्मीदवारी का समर्थन कर रहे सतीश सिंघल के विश्वासपात्र लोगों का उनसे कहना/समझाना रहा कि अतीत की कुछेक बातों का बदला लेने के चक्कर में भविष्य बिगाड़ लेना, भला किस तरह की अक्लमंदी होगी ? इस कहने/समझाने का सतीश सिंघल पर असर होता हुआ दिखा भी था । 
फिर लेकिन अचानक घटनाचक्र बदला और सुभाष जैन का चुनावी मुकाबला अशोक गर्ग की बजाए दीपक गुप्ता से होता हुआ नजर आने लगा । इससे सुभाष जैन की चुनावी स्थिति और सुदृढ़ होती हुई दिखी । चुनावी राजनीति के आकलनकर्ताओं का मानना/कहना है कि अशोक गर्ग यदि मुकाबले पर होते, तो सुभाष जैन के लिए मामला टफ होता - क्योंकि तब मुकाबला दिल्ली बनाम गाजियाबाद हो सकता था; मुकाबले पर दीपक गुप्ता के आने से सुभाष जैन के लिए मामला आसान इसलिए होता हुआ दिखा है क्योंकि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थक गाजियाबाद व उत्तर प्रदेश में तो ज्यादा समर्थन जुटा नहीं पाए हैं; और इस बिना पर दिल्ली व सोनीपत के लोगों को राजी करना उनके लिए और मुश्किल हुआ है कि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को जब उनके अपने इलाके में ही समर्थन नहीं मिल रहा है, तो फिर वह ही उन्हें क्यों समर्थन दें ? सतीश सिंघल के सामने भी यह सच्चाई आई ही होगी, और इससे उन्हें भी यह समझ में आ ही रहा होगा कि डिस्ट्रिक्ट में माहौल और हवा सुभाष जैन के पक्ष में है । इसलिए ही उन्होंने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों को इस बात के लिए लताड़ लगाने में देर नहीं लगाई, कि वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को उनके समर्थन का दावा करें, तथा उनके गवर्नर-काल के पद रूपी 'माल' को बेच कर दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने का काम करें । सतीश सिंघल के इस रवैये ने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थकों को तगड़ा वाला झटका तो दिया ही है, साथ ही इस बात का सुबूत भी पेश किया है कि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थक निराशा/हताशा में अब झूठ का जो सहारा ले रहे हैं, वह भी उनके काम नहीं आ पा रहा है ।

Wednesday, October 21, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में अहमदाबाद में पराग रावल, पुरुषोत्तम खंडेलवाल व अनिकेत तलति के बीच बने गठजोड़ में सुबोध केडिया के लिए उम्मीद पुरुषोत्तम खंडेलवाल के अपने निजी 'एजेंडे' में छिपी है क्या ?

अहमदाबाद । पराग रावल और पुरुषोत्तम खंडेलवाल ने वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए अनिकेत तलति को चुनाव जितवाने का जो बीड़ा उठाया हुआ है, उसके कारण सुबोध केडिया की रीजनल काउंसिल की सीट खतरे में पड़ती दिख रही है । मजे की बात यह है कि अहमदाबाद में खेमेबाजी की छतरी के लिहाज से देखें तो सुबोध केडिया भी उसी छतरी में आते हैं, जिसमें पराग रावल के साथ पुरुषोत्तम खंडेलवाल व अनिकेत तलति हैं; लेकिन इन तीनों ने सुबोध गुप्ता को फिलहाल छतरी से बाहर कर दिया है । इन तीनों के नजदीकियों का कहना है कि इनका सुबोध केडिया से कोई विरोध नहीं हो गया है, लेकिन चूँकि छतरी में ज्यादा जगह ही नहीं है - इसलिए इन्हें सुबोध केडिया को छतरी से बाहर करना पड़ा है । उल्लेखनीय है कि पिछली बार पराग रावल के अतिरिक्त वोटों की बदौलत ही सुबोध केडिया रीजनल काउंसिल में अपनी जगह बना पाए थे । पिछली बार पहली वरीयता के उन्हें कुल 686 वोट ही मिले थे, जिनके आधार पर उन्हें रीजनल काउंसिल से बाहर ही रहना था - लेकिन पराग रावल के अतिरिक्त वोटों में से 272 वोट जब उनके खाते में जुड़े तब वह मुकाबले में जा पहुँचे थे । पराग रावल के अतिरिक्त वोटों में सबसे ज्यादा वोट सुबोध केडिया को ही मिले थे । उनके बाद, 180 वोट प्रियम शाह के खाते में जुड़े थे । पराग रावल के अतिरिक्त वोटों की बदौलत ही सुबोध केडिया अंतिम गणना में प्रियम शाह से आगे निकल पाए थे; अन्यथा पहली वरीयता के वोटों की गिनती में वह प्रियम शाह से बहुत पीछे थे । प्रियम शाह को पहली वरीयता के 805 वोट प्राप्त हुए थे । 
जाहिर है कि पिछली बार तो पराग रावल के अतिरिक्त वोटों ने सुबोध केडिया की चुनावी नैय्या पार लगा दी थी, लेकिन इस बार पराग रावल जब पुरुषोत्तम खंडेलवाल व अनिकेत तलति के लिए प्रचार कर रहे हैं, तो सुबोध केडिया का क्या होगा ? यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पराग रावल इस बार खुद सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार हैं, और इसके बावजूद वह खुलकर रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत पुरुषोत्तम खंडेलवाल व अनिकेत तलति की उम्मीदवारी के लिए प्रचार कर रहे हैं । इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में इस तरह का नजारा शायद पहली बार ही देखा जा रहा है । सेंट्रल काउंसिल के कुछेक उम्मीदवारों के किसी किसी रीजनल काउंसिल उम्मीदवार के साथ तार जुड़े ही होते हैं; इस बार ही सेंट्रल काउंसिल उम्मीदवार के पार्टनर रीजनल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बने हुए हैं - जाहिर है कि वह उनके लिए समर्थन जुटाने का काम कर ही रहे होंगे; अहमदाबाद में ही प्रियम शाह को दीनल शाह के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाता है; लेकिन किसी को भी खुलेआम एकसाथ प्रचार पर निकलते नहीं देखा गया है । पराग रावल ने लेकिन इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य में एक नई प्रथा शुरू की है । पराग रावल की इस नई प्रथा को हालाँकि प्रशंसक व आलोचक दोनों मिले हैं - लेकिन प्रशंसक व आलोचक दोनों इस बात पर एकमत हैं कि उनकी इस नई प्रथा ने सुबोध केडिया के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है । प्रियम शाह पर चूँकि दीनल शाह का हाथ है, इसलिए उनकी सीट तो पक्की ही समझी जा रही है । पराग रावल और पुरुषोत्तम खंडेलवाल व अनिकेत तलति ने जिस तरह का गठजोड़ बना लिया है, उससे पुरुषोत्तम खंडेलवाल व अनिकेत तलति का पलड़ा भारी हो गया है । समस्या सिर्फ सुबोध केडिया के लिए ही बची रह गई है । 
सुबोध केडिया के समर्थक लेकिन सुबोध केडिया की जीत को लेकर चिंतित नहीं हैं । उनका तर्क है कि रीजनल काउंसिल में रहते हुए सुबोध केडिया ने अपने समर्थन-आधार का विस्तार किया है, जिसके चलते इस बार उनकी स्थिति पिछली बार जितनी बुरी नहीं रह गई है । उन्हें उम्मीद है कि पिछली बार जो वोट उन्हें वाया पराग रावल मिले थे, इस बार वह उन्हें सीधे मिलेंगे और इसलिए उनके सामने अपनी सीट को बरकरार रखने में कोई समस्या नहीं आएगी । सुबोध केडिया के समर्थक मानते हैं और चाहते हैं कि दूसरे भी मानें कि समस्या अनिकेत तलति के सामने है । ब्रांच का चुनाव ही उन्होंने मुश्किल से जीता था, और तब जीता था जब उनके पिता पूर्व प्रेसीडेंट सुनील तलति ने उन्हें समर्थन दिलाने के लिए दिन-रात एक किया हुआ था । पिता की पहचान और उनकी मेहनत के बूते अनिकेत तलति ब्रांच का चुनाव तो जैसे तैसे जीत गए थे; रीजनल काउंसिल का चुनाव जीतना उनके लिए लेकिन मुश्किल ही होगा । सुबोध केडिया के समर्थक ही नहीं, अन्य कई लोग भी अनिकेत तलति को जितवाने को लेकर पराग रावल व पुरुषोत्तम खंडेलवाल द्वारा अपनाए गए 'तरीके' की सफलता को लेकर संदेहग्रस्त हैं । यह संदेह इसलिए भी है क्योंकि एक उम्मीदवार के रूप में पुरुषोत्तम खंडेलवाल का अपना एजेंडा भी है - और वह यह कि वह पराग रावल की तरह सबसे ज्यादा वोट पाकर जीतना चाहते हैं । पिछली बार ब्रांच का चुनाव भी उन्होंने सबसे ज्यादा वोट प्राप्त करते हुए ही जीता था । इसी तरह का रिकॉर्ड वह रीजनल काउंसिल में बनाना चाहेंगे । ऐसे में, वह किसी से भी यह भला क्यों कहेंगे कि मैं तो आराम से जीत ही रहा हूँ, इसलिए अपना वोट आप अनिकेत तलति को देना । 
पुरुषोत्तम खंडेलवाल के नजदीकियों का कहना भी है कि अनिकेत तलति के साथ उनके संबंध प्रतिस्पर्द्धा वाले ही रहे हैं, और अनिकेत तलति तथा उनके लोग कभी इस बात को हजम नहीं कर पाए कि ब्रांच के चुनाव में पुरुषोत्तम खंडेलवाल को सबसे ज्यादा वोट मिले थे; और इस नाते जहाँ जब कभी मौका मिलता वह पुरुषोत्तम खंडेलवाल को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहे हैं । दोनों के बीच खुले विरोध को प्रदर्शित करने की नौबत तो हालाँकि नहीं आई, किंतु दोनों के बीच शीत-युद्ध की सी स्थिति हमेशा बनी रही है । यह पराग रावल के प्रयास हैं कि आज दोनों साथ-साथ मिलकर अपना चुनाव अभियान चला रहे हैं । पराग रावल को भी अनिकेत तलति की तुलना में पुरुषोत्तम खंडेलवाल के ज्यादा नजदीक पहचाना/समझा जाता है । समझा जाता है कि अनिकेत तलति को पुरुषोत्तम खंडेलवाल के साथ अपनी छतरी के नीचे लाने का काम पराग रावल ने यह सोच कर किया है, कि इससे उन्हें सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने में मदद मिलेगी । अनिकेत तलति भी उनकी छतरी के नीचे आने के लिए इसीलिए तैयार हो गए, क्योंकि उन्हें भी अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ में एक छतरी की जरूरत तो है ही । ब्रांच के चुनाव में अनिकेत तलति को यह सबक मिल ही गया था कि इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में सिर्फ अपने पिता के भरोसे वह ज्यादा लंबी यात्रा नहीं कर सकेंगे । लोगों को लगता है कि पराग रावल और अनिकेत तलति अपने अपने मतलब से एक साथ आए हैं, और पुरुषोत्तम खंडेलवाल खेमेबाजी व दोस्ती के दबाव में - और शायद 'मजबूरी' में उनके साथ बने हैं; और यही चीज इन तीनों के साथ साथ वाले अभियान की सफलता को संदेहजनक बनाती है । इसी संदेह में सुबोध केडिया को अपने लिए उम्मीद नजर आती है । अनिकेत तलति व सुबोध केडिया के बीच चलने वाली लुकाछिपी ने अहमदाबाद में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के परिदृश्य को दिलचस्प बना दिया है । 

Tuesday, October 20, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सेंट्रल काउंसिल चुनाव में नॉर्दर्न रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़ में संजय अग्रवाल से आगे रहने की अतुल गुप्ता की कोशिशों में पंकज त्यागी ने फच्चर फँसाया

नई दिल्ली । पंकज त्यागी ने सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए फरीदाबाद में समर्थन जुटाने की प्रक्रिया में अतुल गुप्ता के कई समर्थकों को अपनी तरफ मिला कर अतुल गुप्ता को जो झटका दिया है - उसके चलते अतुल गुप्ता को सबसे ज्यादा वोट प्राप्त करने का अपना लक्ष्य खतरे में पड़ता दिख रहा है । पंकज त्यागी से फरीदाबाद में मिली चोट का दर्द अतुल गुप्ता ज्यादा महसूस नहीं भी करते, यदि दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब तथा हिंदी भवन में पिछले दिनों 'वॉयस ऑफ सीए' द्वारा आयोजित सेमिनारों में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की उम्मीद से कहीं ज्यादा भीड़ न जुटी होती । 'वॉयस ऑफ सीए' चूँकि संजय अग्रवाल का उपक्रम है, इस नाते 'वॉयस ऑफ सीए' की उपलब्धियों को संजय अग्रवाल की उपलब्धियों के रूप में देखा/पहचाना जाना स्वाभाविक ही है । संजय अग्रवाल की उपलब्धियों में अतुल गुप्ता को खतरे की घंटियाँ इसलिए भी सुनाई देती हैं, क्योंकि नॉर्दर्न रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़ में अतुल गुप्ता को संजय अग्रवाल से ही चुनौती मिलती दिख रही है । नॉर्दर्न रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़ में पहले नवीन गुप्ता को भी देखा/पहचाना जा रहा था, किंतु उनके पापा एनडी गुप्ता की तमाम कोशिशों के बाद भी उनका समर्थन-आधार जिस तरह घटता गया है और वेद जैन जैसे लोग भी एनडी गुप्ता के झाँसे में आने से बच निकले हैं; उसे देखते/जानते हुए नवीन गुप्ता को उक्त दौड़ से बाहर हुआ मान लिया गया है । नॉर्दर्न रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़ में अब सिर्फ अतुल गुप्ता और संजय अग्रवाल को ही देखा/पहचाना जा रहा है । 
इस होड़ में अभी तक अतुल गुप्ता का पलड़ा भारी पड़ता नजर आ रहा था - इसका कारण यह रहा कि सबसे ज्यादा वोट जुटाने की होड़ में अतुल गुप्ता हर दाँव आजमाने की तैयारी करते देखे/सुने जा रहे थे, जबकि संजय अग्रवाल खेमे की तरफ से कोई हलचल नहीं दिखाई/सुनाई दे रही थी । अतुल गुप्ता ने पिछले चुनाव में अपने चुनाव अभियान को चलाने के लिए अपनी टीम बनाई थी और टीम के सदस्यों के रूप में युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को नौकरी पर रखा था; इस बार उन्होंने अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव लेकिन यह किया कि इस बार अपनी टीम बनाने की बजाये उन्होंने टीमों को आउट-सोर्स किया । इसका सबसे आसान फार्मूला उन्होंने यह निकाला कि रीजनल काउंसिल के कुछेक उम्मीदवारों को उन्होंने 'गोद' ले लिया । असीम पाहवा, पंकज पेरिवाल, अविनाश गुप्ता, आलोक जैन, आरएस यादव आदि को अतुल गुप्ता के गोद लिए उम्मीदवारों के रूप में पहचाना गया । अतुल गुप्ता ने इन्हें गोद लेने के अलावा राजिंदर नारंग, योगिता आनंद, स्वेदश गुप्ता, नितिन कँवर आदि से भी तार जोड़े । अतुल गुप्ता का यह फार्मूला किंतु जल्दी ही पिट गया; क्योंकि रीजनल काउंसिल के इन उम्मीदवारों ने जल्दी ही इस बात को समझ लिया कि अतुल गुप्ता ने इन्हें इनके भले के लिए नहीं, बल्कि अपने फायदे के लिए गोद लिया है - और इनकी चिंता करने की बजाए सिर्फ अपनी फिक्र कर रहे हैं; और इन्हें सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं । यह समझते ही कुछेक लोग तो अतुल गुप्ता की गोद से उतर कर तथा तार तोड़ कर निकल भागे; और जो अभी भी अतुल गुप्ता को उनकी गोद में बने रहने और उनके साथ तार जोड़े रखने का भ्रम दे रहे हैं उन्होंने भी सेंट्रल काउंसिल के दूसरे उम्मीदवारों से तार जोड़ लिए हैं । 
इस संदर्भ में आलोक जैन का मामला खासा दिलचस्प है । अतुल गुप्ता ने गुड़गाँव में अपने समर्थन-आधार को बढ़ाने के लिए आलोक जैन को गोद लिया; आलोक जैन भी यह सोच कर उनकी गोद में चढ़ बैठे कि इससे गुड़गाँव में उनका समर्थन-आधार भी बढ़ेगा - किंतु जल्दी ही उन्हें अतुल गुप्ता के गेम-प्लान की असलियत पता चली, तो उन्होंने अतुल गुप्ता का ही फार्मूला अतुल गुप्ता पर ही चला दिया । आलोक जैन ने गुड़गाँव में संजीव चौधरी के लोगों के साथ भी अपने तार जोड़ लिए हैं । लुधियाना में पंकज पेरिवाल ने भी यही फार्मूला अपना लिया है । अतुल गुप्ता के गेम-प्लान को इससे झटका तो लगा, लेकिन उन्होंने इस झटके की परवाह इसलिए नहीं की - क्योंकि सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़ में उन्हें जिन संजय अग्रवाल से चुनौती मिलने की उम्मीद की जा रही थी, वह संजय अग्रवाल ज्यादा कुछ करते हुए 'नजर' नहीं आ रहे थे । 
लेकिन संजय अग्रवाल के उपक्रम 'वॉयस ऑफ सीए' द्वारा ऐवान-ए-गालिब व हिंदी भवन में आयोजित किए गए सेमीनारों में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की जो भीड़ जुटी, उसने अतुल गुप्ता के लिए सारा नजारा ही बदल दिया । दरअसल इन दो सेमीनारों की सफलता से एक बड़ा भ्रम यह दूर हुआ कि संजय अग्रवाल ज्यादा कुछ कर नहीं रहे हैं । इन दो सेमीनारों की जोरदार सफलता से साबित हुआ कि संजय अग्रवाल बिना शोर मचाए चुपचाप तरीके से काम करते रहे हैं और मौका आने पर उन्हें उसका भरपूर फायदा मिला । उल्लेखनीय है कि हाल-फिलहाल के दिनों में जिन उम्मीदवारों ने तरह तरह की बहानेबाजियों से पार्टियाँ और/या सेमीनार आदि आयोजित किए, उन्हें लोगों को इकट्ठा करने में मुश्किलों का भारी सामना करना पड़ा । दूसरे आयोजनों में जहाँ उतने लोग भी नहीं पहुँचे, जितने लोगों के लिए इंतजाम किया गया था; वहाँ संजय अग्रवाल के आयोजन में उम्मीद से ज्यादा लोग इकट्ठा - और एक बार नहीं, बार-बार इकट्ठा हुए; उससे लोगों के बीच यही संदेश गया है कि संजय अग्रवाल ने अपने समर्थन-आधार का अच्छे से विस्तार किया है, और उसे पक्के तौर पर अपने साथ जोड़ा हुआ है । संजय अग्रवाल की इस तैयारी ने अतुल गुप्ता को चौकन्ना किया है । जो अतुल गुप्ता अभी कुछ समय पहले तक अच्छे-भले झटकों को भी गंभीरता से नहीं ले रहे थे, उन्हीं अतुल गुप्ता ने अब लेकिन छोटे-मोटे झटकों पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है ।
इसी पृष्ठभूमि में फरीदाबाद में पंकज त्यागी की तरफ से अतुल गुप्ता को जो झटका मिला है, उस पर अतुल गुप्ता ने तुरंत से ध्यान दिया है । मजे की बात यह है कि फरीदाबाद यूँ तो विजय गुप्ता का इलाका है, किंतु इस बार के चुनाव में यह कई एक अन्य उम्मीदवारों के लिए चुनावी-तीर्थ बना हुआ है । दरअसल विजय गुप्ता की हालत इस बार खासी पतली समझी जा रही है । फरीदाबाद में तो उनका बड़ा भारी विरोध है - इतना भारी विरोध कि विजय गुप्ता के लिए फरीदाबाद में अपनी उम्मीदवारी के लिए अभियान तक चलाना मुश्किल हो रहा है । ऐसे में, स्वाभाविक रूप से दूसरे उम्मीदवारों की बन आई है और उन्होंने फरीदाबाद में अपने अपने समर्थन के लिए हाथ-पैर मारे/चलाए - जिसका उन्हें भरपूर फायदा भी मिला । ज्यादा फायदा उठाने वालों में अतुल गुप्ता, संजय अग्रवाल व नवीन गुप्ता का ही नाम रहा । इनमें भी अतुल गुप्ता का नाम सबसे ऊपर रहा । फरीदाबाद में विजय गुप्ता को वोटों का जो नुकसान होता हुआ दिखा, उसका सबसे बड़ा हिस्सा अतुल गुप्ता के पास/साथ जाता हुआ नजर आया । किंतु अचानक से शुरू हुई पंकज त्यागी की सक्रियता ने अतुल गुप्ता की नींद हराम कर दी है । दरअसल फरीदाबाद में जो कई लोग अतुल गुप्ता के समर्थन में देखे जा रहे थे, उन्हें बाद में लेकिन जब पंकज त्यागी की उम्मीदवारी का झंडा उठाए देखा गया तो अतुल गुप्ता का चिंतित होना स्वाभाविक ही था । अतुल गुप्ता ने अपने 'भूतपूर्व समर्थकों' को समझाने की बहुत कोशिश की कि पंकज त्यागी चुनावी परिदृश्य में कहीं नहीं हैं, इसलिए उनके साथ क्यों अपना समय और एनर्जी खराब कर रहे हो, किंतु उनके भूतपूर्व समर्थकों पर उनकी समझाइस का कोई असर पड़ता हुआ नहीं दिखा है । 
ऐसा नहीं है कि पंकज त्यागी ने फरीदाबाद में अतुल गुप्ता के समर्थकों को तोड़ कर उन्हें कोई बहुत बड़ा झटका दिया है, लेकिन अतुल गुप्ता फिर भी उनसे मिले झटके से चिंतित हैं तो इसलिए क्योंकि अब उन्हें यह जरूर समझ में आ रहा है कि इस तरह के छोटे छोटे झटके उन्हें सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़ में संजय अग्रवाल से पीछे कर देंगे । इसी बात को ध्यान में रखते हुए अतुल गुप्ता ने कहीं कहीं पंकज त्यागी को संजय अग्रवाल के डमी उम्मीदवार के रूप में भी प्रचारित किया । असल में, वह संजय-ग्रंथि से इस कदर ग्रस्त हो गए हैं कि अपनी खिलाफत करता हर व्यक्ति उन्हें संजय अग्रवाल का 'आदमी' लगता है । नॉर्दर्न रीजन में सबसे ज्यादा वोट पाने की होड़ में अतुल गुप्ता को संजय अग्रवाल से मिलती दिख रही चुनौती ने रीजन के चुनावी परिदृश्य को खासा रोमांचक बना दिया है ।

Monday, October 19, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3100 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता की गवर्नरी पर इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन की चिट्ठी से लटकी तलवार ने राजीव सिंघल की उम्मीदवारी के समर्थकों की हरकतों पर भी रोक लगने की उम्मीद पैदा की है


मेरठ । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता को इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन की तरफ से लिखे गए पत्र के मजमून ने उस आशंका को सच साबित कर दिया है, जो रोटरी को बेचने के आरोपों के संदर्भ में 'रचनात्मक संकल्प' की आठ अक्टूबर 2015 की पोस्ट में व्यक्त की गई थी । सुनील गुप्ता पर जो आरोप लगते रहे हैं, उन्हें प्रथम दृष्टया सच मानते हुए इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन ने उन पर कार्रवाई शुरू कर दी है । कार्रवाई के तहत ही, केआर रवींद्रन ने सुनील गुप्ता को उक्त आरोपों पर अपना जबाव देने के लिए नोटिस भेजा है, जिसमें उन्होंने साफ साफ लिख दिया है कि आरोपों पर उन्होंने यदि संतोषजनक जबाव नहीं दिया तो जनवरी में होने वाली इंटरनेशनल बोर्ड मीटिंग में उनकी गवर्नरी को जारी रखने व मान्य रखने के बारे में फैसला लिया जायेगा । डिस्ट्रिक्ट टीम के सदस्यों को पद बेचने के आरोप पर केआर रवींद्रन ने बहुत ही तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है; साथ ही डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों से पैसे ऐंठने तथा डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव की आड़ में मोटा पैसा कमाने की सुनील गुप्ता की कोशिशों को भी केआर रवींद्रन ने खासा गंभीर माना है । उल्लेखनीय है कि रोटरी को बेचने के आरोपों को लेकर सुनील गुप्ता पिछले काफी समय से डिस्ट्रिक्ट में लोगों के निशाने पर रहे हैं । सुनील गुप्ता ने डिस्ट्रिक्ट के लोगों द्वारा लगाए जा रहे आरोपों का कभी कोई नोटिस नहीं लिया । दरअसल वह यह सोच कर आश्वस्त रहे कि डिस्ट्रिक्ट के लोग आरोप लगाते रहने से ज्यादा कुछ कर नहीं पायेंगे, और रोटरी के बड़े पदाधिकारी इन आरोपों पर कोई कार्रवाई नहीं करेंगे । किंतु खुद इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन की तरफ से लिखे गए पत्र के प्राप्त होने के बाद से सुनील गुप्ता के लिए मामला गंभीर हो गया है । दरअसल 15 अक्टूबर की आधी रात के बाद आए तथा 16 अक्टूबर की सुबह देखे/पढ़े गए केआर रवींद्रन के पत्र से सुनील गुप्ता की गवर्नरी छिनने की जमीन तैयार होती दिख रही है ।  
सुनील गुप्ता ने अपनी गवर्नरी बचाने के लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव की स्थिति को टलवाने का फार्मूला सोचा है, तथा इस पर अपनी तरफ से प्रयास उन्होंने शुरू भी कर दिए हैं । दरअसल केआर रवींद्रन के कोप से बचने को लेकर सुनील गुप्ता ने डिस्ट्रिक्ट के बाहर के कुछेक प्रमुख लोगों से सलाह ली, तो उन्हें समझाया गया कि केआर रवींद्रन का मुख्य एजेंडा वास्तव में यह है कि उनके प्रेसीडेंट-काल में रोटरी में किसी भी स्तर पर कोई चुनाव न हो । वह मानते हैं कि चुनाव के चक्कर में ही रोटरी में तमाम झगड़े-झंझट होते हैं, इसलिए जब चुनाव ही नहीं होंगे तो झगड़े-झंझट स्वतः ही खत्म हो जायेंगे । न रहेगा बाँस, तो न रहेगी बाँसुरी । सुनील गुप्ता को समझाया गया है कि वह यदि अपने डिस्ट्रिक्ट में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव की संभावना को खत्म कर/करवा दें, तो केआर रवींद्रन उनसे खुश हो जायेंगे - और तब रोटरी को बेच कर मोटा पैसा बनाने के जो आरोप उन पर हैं, उसकी कालिख को भी केआर रवींद्रन अनदेखा कर देंगे । इस तरह उनकी गवर्नरी भी बच जायेगी, तथा रोटरी को बेच कर जो पैसा उन्होंने बनाया/कमाया है वह भी बच जायेगा । यह सलाह मिलने के बाद से सुनील गुप्ता ने मंजु गुप्ता तथा दिवाकर अग्रवाल की उम्मीदवारी को वापस कराने के लिए युद्ध-स्तर पर प्रयास शुरू कर दिए हैं । इन प्रयासों में सुनील गुप्ता का घृणित रूप यह और सामने आया है कि इस काम के लिए वह अपने बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं । दिवाकर अग्रवाल व मंजु गुप्ता की उम्मीदवारी को वापस कराने के लिए सुनील गुप्ता रोते-धोते हुए अपने बच्चों की कसमें दे कर भावनात्मक दबाव बनाने का काम कर रहे हैं । मंजु गुप्ता शुरू में तो उनके इस नाटक पर पसीजती हुईं सुनी गईं, लेकिन फिर उन्होंने भी सुनील गुप्ता की चाल को समझ/पहचान लिया । 
सुनील गुप्ता ने एक तर्क यह भी दिया कि पिछले रोटरी वर्ष में तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट गवर्नर संजीव रस्तोगी के कहने पर यदि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव की संभावना समाप्त हो सकती है, तो उनके प्रयासों को समर्थन क्यों नहीं मिल सकता है । उनका यह तर्क वाजिब होते हुए भी इसलिए नहीं चला, क्योंकि उनके प्रयासों में शुरू से ही बेईमानी के तत्व देखे/पहचाने जा रहे हैं ।पिछले रोटरी वर्ष में संजीव रस्तोगी ने जब ऐसा ही प्रयास किया था, तो उनके फार्मूले पर किसी को भी ऊँगली उठाने का मौका नहीं मिला था; वह किसी उम्मीदवार के साथ पक्षपात करते हुए नहीं दिखे थे - और इसीलिए सभी उम्मीदवारों व उनके समर्थक नेताओं ने संजीव रस्तोगी के प्रयासों को सहयोग व समर्थन दिया था । सुनील गुप्ता चाहते तो यह हैं कि उन्हें भी वैसा ही सहयोग व समर्थन मिले, जैसा पिछले रोटरी वर्ष में संजीव रस्तोगी को मिला था; लेकिन संजीव रस्तोगी ने जिस ईमानदारी के साथ प्रयास किया था, वैसी ही ईमानदारी अपनाने को वह तैयार नहीं हैं । इस वर्ष डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए जो तीन उम्मीदवार हैं, सुनील गुप्ता उनमें से दो पर ही यह दबाव बना रहे हैं कि वह अपनी अपनी उम्मीदवारी को वापस ले लें तथा राजीव सिंघल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बन जाने दें । उनका यह प्रयास साबित कर रहा है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव को टलवाने के पीछे उनका उद्देश्य डिस्ट्रिक्ट में सद्भाव बनाना नहीं, बल्कि राजीव सिंघल के लिए रास्ता साफ करवाना है । राजीव सिंघल के लिए रास्ता साफ करवाने के लिए सुनील गुप्ता अपने बच्चों को आगे करके उनकी कसमें देने तक के रास्ते पर क्यों बढ़ गए हैं - इसका जबाव भी उनकी ही बातों में मिल जा रहा है । दिवाकर अग्रवाल व मंजु गुप्ता के समर्थकों से सुनील गुप्ता बता रहे हैं कि राजीव सिंघल तो चुनाव में एक करोड़ रुपये खर्च करेंगे, दिवाकर अग्रवाल व मंजू गुप्ता कैसे उनका मुकाबला करेंगे ? जाहिर है कि सुनील गुप्ता की निगाह इस बात पर है कि वह यदि राजीव सिंघल के लिए रास्ता साफ करवा देते हैं, तो चुनाव के नाम पर राजीव सिंघल द्वारा खर्च होने वाले एक करोड़ रुपयों में से मोटा हिस्सा वह भी ऐंठ सकेंगे । 
मजे की बात यह है कि सुनील गुप्ता के ऊपर इंटरनेशनल प्रेसीडेंट की तरफ से कार्रवाई की यह जो तलवार लटकी है, वह राजीव सिंघल के समर्थक नेताओं के किए-धरे का नतीजा है - लेकिन फिर भी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता उन्हीं राजीव सिंघल का काम बनाने के प्रयासों में लगे हुए हैं । इसका कारण सिर्फ यही है कि उन्हें राजीव सिंघल से ही पैसा ऐंठ पाने की उम्मीद है । सुनील गुप्ता को उनके लिए रास्ता साफ करने में लगा देख कर राजीव सिंघल व उनके समर्थक खुश तो बहुत हैं, लेकिन इस सवाल ने उन्हें बहुत डराया हुआ भी है कि सुनील गुप्ता से गवर्नरी छिनने की नौबत यदि आई, तो फिर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का काम करने की जिम्मेदारी किसे मिलेगी ? अपनी तरफ से उन्होंने जहाँ जहाँ भी इस सवाल का जबाव तलाशने की कोशिश की, वहाँ वहाँ से उन्हें यही सुनने को मिला है कि तब फिर उक्त जिम्मेदारी निवर्तमान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर संजीव रस्तोगी को ही मिलेगी । उनके लिए चिंता की बात यह है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के अनुसार, सुनील गुप्ता के भविष्य का फैसला यदि सचमुच जनवरी में होने वाली इंटरनेशनल बोर्ड मीटिंग में हुआ और उसी मीटिंग में डिस्ट्रिक्ट का कामकाज चलाने का जिम्मा निवर्तमान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर संजीव रस्तोगी को सौंप दिया गया, तो डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस तो फिर संजीव रस्तोगी की देखरेख में होगी - और तब राजीव सिंघल व उनके समर्थक नेताओं को मनमानी करने की छूट नहीं मिल सकेगी । इस तरह, सुनील गुप्ता को लिखे/भेजे केआर रवींद्रन के पत्र ने सुनील गुप्ता के लिए ही नहीं, उनके साथ-साथ राजीव सिंघल व उनके समर्थक नेताओं के सामने भी भारी मुश्किल खड़ी कर दी है ।

Friday, October 16, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में आलोक गुप्ता को इग्नोर करते हुए मुकेश अरनेजा ने अमित अग्रवाल की उम्मीदवारी की घोषणा करके दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के अभियान को भटकाने तथा उसे और पीछे धकेलने का काम किया है

गाजियाबाद । मुकेश अरनेजा ने दीपक गुप्ता के गवर्नर-काल में अमित अग्रवाल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बनवाने/चुनवाने की घोषणा करके मौजूदा चुनावी माहौल को मनोरंजक बनाने का काम किया है । उल्लेखनीय है कि किसी भी चुनाव में कई रंग देखने को मिलते हैं - उनमें एक रंग मनोरंजन का भी होता है । नेताओं के बहुत से बयान, उनकी बहुत सी बातें, उनकी बहुत सी हरकतें - जो कही/होती तो बड़ी गंभीरता से हैं, लेकिन काम वह चुटकुले का करती हैं । जैसे मुकेश अरनेजा ने अमित अग्रवाल को लेकर जो कहा है, वह उन्होंने कोई मजाक में थोड़े ही कहा है; उन्होंने तो बड़ी गंभीरता से उक्त घोषणा की है - डिस्ट्रिक्ट में लोग लेकिन उसे चुटकुला समझ कर मजा ले रहे हैं । मजा इसलिए ले रहे हैं क्योंकि सभी लोग समझ रहे हैं कि अभी दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी तो खतरे में पड़ी है और उनका जीत पाना ही मुश्किल दिख रहा है; मुकेश अरनेजा ने लेकिन उनके गवर्नर-काल की राजनीति के सपने देखने शुरू कर दिए हैं । दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के प्रति जिन लोगों की हमदर्दी है, उनमें से ही कुछेक का कहना है कि मुकेश अरनेजा को इस तरह की जुमलेबाजी छोड़ कर इस समय दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी की फिक्र करना चाहिए - और इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि दीपक गुप्ता की तमाम भागदौड़ तथा मेहनत के बावजूद उनकी उम्मीदवारी को समर्थन मिलता आखिर 'दिख' क्यों नहीं रहा है ? ऐसा क्यों है कि सुभाष जैन की उम्मीदवारी के जो समर्थक हैं, वह तो खुल कर सुभाष जैन की उम्मीदवारी की वकालत करते हुए नजर आ रहे हैं; जबकि दीपक गुप्ता के समर्थन में जो लोग बताए जा रहे हैं, वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी की वकालत खुल कर करने से बचते हुए दिख रहे हैं ? दीपक गुप्ता ने कई लोगों को अपने साथ 'चलने' के लिए प्रेरित करने का प्रयास भी खूब किया, किंतु उनकी चुनावी संभावना में कहीं कोई उम्मीद न देखने के कारण कोई उनकी बातों में आता हुआ दिखा नहीं है । 
दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को खुले तरफदारों/समर्थकों का जो टोटा पड़ा है, उसे दूर करने में उन्हें मुकेश अरनेजा से भी कोई मदद नहीं मिली है । लोगों का कहना हालाँकि यह भी है कि इस मामले में मुकेश अरनेजा ने उनकी मदद करने की कोशिश तो बहुत की, किंतु वह मदद दिलवा नहीं सके । डिस्ट्रिक्ट में जिन लोगों को मुकेश अरनेजा के 'आदमी' के रूप में जाना/पहचाना जाता है, उन्होंने भी जिस तरह से दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में सार्वजनिक रूप से सक्रिय होने से परहेज किया है - उससे लोगों के बीच यही संदेश जा रहा है कि उन्हें भी दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी में कोई दम नजर नहीं आ रहा है, और इसीलिए वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में 'दिखने' से बच रहे हैं । ऐसी स्थिति में, मुकेश अरनेजा यदि दीपक गुप्ता के तथाकथित गवर्नर-काल की चुनावी राजनीति का एजेंडा तय करने वाली बातें कर रहे हैं - तो लोग उसे 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' की तरह सुनते/देखते हुए मजा ही तो लेंगे न ! लोग यही कर रहे हैं । मजे की बात यह है कि मुकेश अरनेजा की इस जुमलेबाजी को खुद अमित अग्रवाल ने कोई बहुत उत्साह से नहीं लिया है । अपनी उम्मीदवारी की बातों में उन्हें बहुत संकोच के साथ प्रतिक्रिया देते हुए देखा/पाया गया है । कुछेक लोगों ने उन्हें मुकेश अरनेजा की बातों में आकर 'उड़ना' शुरू न कर देने की जो नसीहत दी, उस पर भी वह सकारात्मक प्रतिक्रिया ही देते सुने/पाए गए हैं । 
अमित अग्रवाल के लिए कई लोगों का सुझाव है कि जब भी उम्मीदवार बनो, स्थिति का खुद से आकलन करके बनना; मुकेश अरनेजा की बातों में आकर उम्मीदवार बने तो अशोक गर्ग व दीपक गुप्ता की दशा को प्राप्त होगे ! अशोक गर्ग को तो अभी समझ में आ गया है कि मुकेश अरनेजा की बातों में आकर उन्होंने कितनी बड़ी बेवकूफी की; दीपक गुप्ता को भी जल्दी ही समझ में आ जायेगा कि वह नाहक ही मुकेश अरनेजा के जाल में फँसे और उनके उकसाने में आ गए । मुकेश अरनेजा के भरोसे उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले दीपक गुप्ता को मुकेश अरनेजा से मदद कम मिल रही है, नुकसान ज्यादा हो रहा है । नुकसान भी दोतरफा हो रहा है : एक तरफ तो मुकेश अरनेजा की जो नकारात्मक छवि है, उसका नुकसान; और दूसरी तरफ उनकी बातों व हरकतों से होने वाला नुकसान । जैसे यह, अमित अग्रवाल की उम्मीदवारी को लेकर मुकेश अरनेजा ने जो घोषणा की है - वह एक तरफ तो मजाक का विषय बनी है, और दूसरी तरफ दीपक गुप्ता के जो थोड़े से समर्थक हैं भी उनमें भी खटराग पैदा करने का कारण बनी है । मुकेश अरनेजा की यह घोषणा दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के एक दूसरे समर्थक आलोक गुप्ता को झटका देने वाली घोषणा के रूप में भी देखी/पहचानी जा रही है । मजे की बात यह है कि आलोक गुप्ता को अमित अग्रवाल के मुकाबले मुकेश अरनेजा के ज्यादा नजदीक माना/पहचाना जाता है; और आलोक गुप्ता भी अगले वर्षों में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने को लेकर उत्सुक सुने जाते हैं । ऐसे में, हर किसी को हैरानी है कि मुकेश अरनेजा ने आलोक गुप्ता की बजाए अमित अग्रवाल की उम्मीदवारी की बात क्यों की ?
इस सवाल का जबाव खोजने में दो तथ्यों का ध्यान करना/रखना बहुत जरूरी है : एक यह कि अपनी उम्मीदवारी के चक्कर में आलोक गुप्ता एक बार मुकेश अरनेजा से धोखा खा चुके हैं; तथा दूसरा यह कि अमित अग्रवाल और आलोक गुप्ता के बीच परस्पर विरोध का - तगड़े वाले विरोध का संबंध है । उल्लेखनीय है कि तीन वर्ष पहले आलोक गुप्ता ने मुकेश अरनेजा के भरोसे ही अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की थी, किंतु मुकेश अरनेजा से उन्हें धोखा ही मिला था - जिसके चलते उनके बीच एक बड़ी दूरी बन गईं थी । अपनी अपनी मजबूरियों के चलते पिछले कुछेक महीनों में दोनों ने अपने बीच की दूरी को पाटने के संकेत तो दिए हैं; किंतु अमित अग्रवाल की उम्मीदवारी को लेकर की गई मुकेश अरनेजा की घोषणा ने उन संकेतों को संदेहास्पद बना दिया है । आलोक गुप्ता की एक समय अमित अग्रवाल से भी अच्छी पटती थी । अमित अग्रवाल पहले उन्हीं के क्लब में थे । खटपट होने पर बाद में अमित अग्रवाल ने अपना क्लब बना लिया था । उनके बीच की खटपट कितनी तल्ख थी, इसका पता तब चला जब तीन वर्ष पहले उम्मीदवार के रूप में आलोक गुप्ता को नोमीनेटिंग कमेटी के सदस्य के रूप में अमित अग्रवाल ने जीरो नंबर दिए । यानि उम्मीदवार के रूप में आलोक गुप्ता को मुकेश अरनेजा से तो धोखा मिला ही था, साथ ही अमित अग्रवाल से भी विरोध का बहुत तगड़ा वाला डोज मिला था । पिछले तीन वर्षों में उक्त तल्खी हालाँकि काफी घटी है - मुकेश अरनेजा के साथ तो आलोक गुप्ता के संबंध पहले जैसे होते 'दिखे' ही हैं और अमित अग्रवाल के दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के सेनापति होने के बावजूद आलोक गुप्ता भी दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थक बने हैं, तो माना जा रहा था कि पुरानी दुश्मनियों को छोड़ कर दोस्ती की नई इबारत लिखने का प्रयास हो रहा है । 
किंतु मुकेश अरनेजा द्वारा अमित अग्रवाल की उम्मीदवारी की घोषणा ने आलोक गुप्ता के पुराने जख्मों को कुरेदने का काम किया है । करीब तीन वर्ष बाद, अब जब मुकेश अरनेजा ने आलोक गुप्ता को इग्नोर करते हुए अमित अग्रवाल की उम्मीदवारी की घोषणा की है - तो लोगों के बीच सहसा सवाल भी पैदा हुआ है कि तीन वर्ष पहले अमित अग्रवाल ने आलोक गुप्ता की उम्मीदवारी के प्रति जिस तरह का घोर नकारात्मक रवैया दिखाया था, उसके प्रेरणा स्रोत कहीं मुकेश अरनेजा ही तो नहीं थे ? आलोक गुप्ता से अमित अग्रवाल की खटपट का फायदा उठाते हुए कहीं मुकेश अरनेजा ने ही तो अमित अग्रवाल के जरिए आलोक गुप्ता को निपटाने की भूमिका नहीं बनाई थी ? एक सवाल का जबाव मिलता नहीं है कि दूसरा सवाल खड़ा हो जाता है - मुकेश अरनेजा, अमित अग्रवाल व आलोक गुप्ता के संबंधों की पहेली को हल करने के लिए उठते सवालों के इस शोर में दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी की बात और पीछे चली गई है । दीपक गुप्ता को समर्थकों का वैसे ही टोटा है, उनके जो गिने-चुने समर्थक हैं भी उन्हें मुकेश अरनेजा ने अपनी फालतू की बयानबाजी से आपस में ऐसा उलझा दिया है कि वह दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को भूल कर अपनी अपनी उम्मीदवारी के बारे में हाँ/ना करने में उलझ गए हैं । इसी सब को देख कर लोगों का कहना है कि मुकेश अरनेजा की बातें और हरकतें दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को नुकसान पहुँचाने का काम ज्यादा कर रही हैं । 

Thursday, October 15, 2015

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 में राजा साबू गिरोह की शह पर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन द्वारा बेइज्जत कर डिस्ट्रिक्ट टीम से निकाले गए वरिष्ठ रोटेरियंस को पटाने/फुसलाने की कोशिशें सफल होंगी क्या ?

देहरादून । राजेंद्र उर्फ राजा साबू तथा उनके गिरोह के पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स के चक्कर में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन की हालत उस बेचारे जैसी हो गई है, जिसे 'प्याज भी खाने और जूते भी खाने' के लिए मजबूर होना पड़ा था । पिछले महीने रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसा देवी द्वारा 'स्वच्छ RID 3080' विषय पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल होने के 'अपराध' में डेविड हिल्टन ने जिन 12 वरिष्ठ रोटेरियंस को अपनी टीम से निकाल दिया था, उन्हें फिर से अपनी टीम का हिस्सा बनाने के लिए उन्हें उनकी खुशामद में जुटना पड़ रहा है । 'थूक के चाटने' की यह कोशिश उल्लेखनीय इसलिए है क्योंकि उक्त 12 में से अधिकतर लोगों ने डेविड हिल्टन को जो लताड़ लगाई है - वह किसी भी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के लिए बहुत ही शर्म की बात होनी चाहिए । रोटरी के 110 वर्षों के गौरवशाली इतिहास में किसी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को अपनी गवर्नरी के चौथे ही महीने में अपनी ही टीम के वरिष्ठ सहयोगियों से ऐसी लताड़ सुनने को नहीं मिली होगी, जैसी डिस्ट्रिक्ट 3080 के गवर्नर डेविड हिल्टन को सुननी पड़ी है । 
कुछेक लोगों के लिए चस्के की तथा कुछेक के लिए दुर्भाग्य की बात यह है कि डेविड हिल्टन को यह सब जो भुगतना पड़ रहा है, उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं हैं । उनके नजदीकियों का ही कहना है कि वह तो सिर्फ इस्तेमाल हो रहे हैं - जो हो रहा है, वह उनसे करवाया जा रहा है । डेविड हिल्टन को जो लोग जानते हैं, वह भी; और जो उन्हें नहीं जानते हैं, वह भी हैरान इस बात पर हैं कि डेविड हिल्टन आखिर किस मजबूरी में कठपुतली बने हुए हैं ? उनके जैसा व्यक्ति क्या इसलिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बना था कि डिस्ट्रिक्ट के 'कर्णधार' के इशारों पर बेवकूफी भरे फैसले ले, उन फैसलों के लिए लोगों से फटकार सुने, और फिर फटकारने वाले लोगों की खुशामद में जुटे । डेविड हिल्टन की इस दशा पर कुछेक लोगों को उनसे हमदर्दी भी है; लेकिन अन्य कई लोगों का कहना है कि डेविड हिल्टन की जो दशा है, उसे उन्होंने खुद चुना है - और तमाम जलालत भुगतने के बावजूद वह कठपुतली ही बने रहना चाहते हैं, तो फिर उनसे हमदर्दी क्या दिखानी ?
डेविड हिल्टन की बेचारगी का आलम यह है कि 18 अक्टूबर को 'अवेयरनेस एंड रिलेशनशिप इंटर क्लब फोरम' शीर्षक से अंबाला में जो कार्यक्रम हो रहा है, डिस्ट्रिक्ट गवर्नर होने के बावजूद उसका पूरा विवरण तक उन्हें नहीं पता है । कार्यक्रम को होस्ट कर रहे क्लब - रोटरी क्लब अंबाला के प्रेसीडेंट नैन कंवर की तरफ से उक्त कार्यक्रम का जो निमंत्रण लोगों को भेजा गया है, उसमें की-नोट स्पीकर के रूप में डिस्ट्रिक्ट के 'कर्णधार' राजेंद्र उर्फ राजा साबू के उपस्थित होने की सूचना है । इस सूचना को कुछेक लोगों ने जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कार्यालय से कंफर्म करने का प्रयास किया, तो उन्हें यही सुनने को मिला कि उक्त कार्यक्रम में राजा साबू के उपस्थित होने की कोई जानकारी उन्हें नहीं है । डेविड हिल्टन की तरफ से उक्त कार्यक्रम का जो निमंत्रण लोगों को मिला है, उसमें राजा साबू का कोई जिक्र नहीं है । डेविड हिल्टन के निमंत्रण में नवरात्र फूड के साथ 'एक्सीलेंट फूड अरेंजमेंट' को कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह इस बात का एक ताजा उदाहरण है कि राजा साबू तथा उनके गिरोह के पूर्व गवर्नर्स ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन की औकात यह बना कर रख दी है कि डिस्ट्रिक्ट के एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में की-नोट स्पीकर कौन होगा - इसकी जानकारी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को नहीं है ।
डेविड हिल्टन इस समय लेकिन इस बात से ज्यादा परेशान नहीं हैं; वह टीम से निकाले गए वरिष्ठ रोटेरियंस को फिर से मनाने का काम सौंपे जाने से ज्यादा परेशान हैं । इस काम में उन्हें हालाँकि राजा साबू गिरोह के कुछेक पूर्व गवर्नर्स का सहयोग मिल रहा है, किंतु इस काम के सफल होने का सारा दारोमदार उन्हीं के कंधों पर है; और उनके लिए लोगों को यह समझाना मुश्किल हो रहा है कि उन्हें टीम से निकालने का फैसला उन्होंने लिया क्यों था ? उल्लेखनीय है कि डेविड हिल्टन ने अपनी टीम से निकालने की जो चिट्ठी लोगों को भेजी थी, उसमें मुख्यतः दो आरोप थे : एक यह कि वह रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसा देवी के अनधिकृत कार्यक्रम में क्यों गए; और दूसरा यह की उक्त कार्यक्रम में उन्होंने डिस्ट्रिक्ट मैटर पर बात क्यों की ? यह दोनों आरोप अपने आप में बड़े फनी किस्म के आरोप हैं ! सवाल यह है कि रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसा देवी को यदि रोटरी इंटरनेशनल से मान्यता प्राप्त है, तथा डिस्ट्रिक्ट में भी वह मान्यता रखता है और डिस्ट्रिक्ट गवर्नर उसके सदस्यों से डिस्ट्रिक्ट ड्यूज लेता है, तब फिर उसका कार्यक्रम अनधिकृत कैसे हो गया ? रोटरी में और या डिस्ट्रिक्ट में ऐसा कोई नियम या ऐसी कोई परंपरा व व्यवस्था भी नहीं है कि किसी क्लब से उसके किसी कार्यक्रम का निमंत्रण मिलने पर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर से उसके अधिकृत/अनधिकृत होने की पुष्टि की जाये और उसमें जाने की अनुमति माँगी जाए । किसी क्लब के कार्यक्रम का निमंत्रण मिलने पर लोग उसमें जाते ही हैं, उन्हें जाना भी चाहिए - इसमें आरोप वाली क्या बात है ? डिस्ट्रिक्ट मैटर पर बात करने वाला आरोप तो और भी मजेदार है ! अब रोटरी के किसी कार्यक्रम में रोटेरियंस यदि इकट्ठा हुए हैं, तो वह यह बात तो नहीं ही करेंगे कि कौन से खान की कौन सी फिल्म कैसी चल रही है, या मोबाइल फोन के नए मॉडल्स में क्या क्या फीचर्स हैं; - वह रोटरी की और डिस्ट्रिक्ट की ही बात करेंगे, और उस समय के मौजूँ विषय पर ही बात करेंगे । इसके लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर उन्हें अपनी टीम से निकाल दे, यह कैसा तो न्याय है और कैसी रोटरी है ?
उल्लेखनीय है कि डेविड हिल्टन ने जिन 12 वरिष्ठ रोटेरियंस को अपनी टीम से बाहर किया - वह सभी असिस्टेंट गवर्नर रह चुके हैं तथा पॉल हैरिस फेलो हैं; उनमें दो मेजर डोनर हैं तथा दो रोटरी के सबसे बड़े अवार्ड 'सर्विस अबव सेल्फ' के प्राप्तकर्ता हैं; उनमें चार लोग डिस्ट्रिक्ट सेक्रेटरीज रह चुके हैं तथा एक डिस्ट्रिक्ट ट्रेजरर रह चुके हैं; उनमें चार लोग सार्जेंट आर्म रहे हैं तथा दो लोग जीएसटी टीम लीडर रहे हैं; उनमें दो रोटरी मेडीकल मिशन के वालिंटियर रहे हैं । इनमें कुछेक तो ऐसे हैं जिनसे डेविड हिल्टन को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में काम करने में खासा महत्वपूर्ण सहयोग मिला है । इस पहचान के वरिष्ठ रोटेरियंस को डेविड हिल्टन ने जिस तरह से अपनी टीम से निकाल दिया, उसने उल्टा ही असर किया और डेविड हिल्टन की भारी फजीहत हुई । टीम से निकाले गए कुछेक सदस्यों ने डेविड हिल्टन को लताड़ते हुए कर्री कर्री चिट्ठी तो लिखी हीं, और उन चिट्ठियों को सार्वजनिक भी किया; रोटरी क्लब देहरादून सेंट्रल के दो सदस्यों को टीम से निकाले जाने पर नाराजगी भरी प्रतिक्रिया देते हुए क्लब के अध्यक्ष राजेश गोयल ने डेविड हिल्टन को पत्र लिख कर यह भी बता दिया कि उनके क्लब के जो और सदस्य टीम में हैं, वह भी टीम छोड़ेंगे तथा क्लब रायला (RYLA) को होस्ट करने की जिम्मेदारी भी छोड़ेगा ।  
गौरतलब बात यह है कि रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसा देवी ने पिछले महीने 'स्वच्छ RID 3080' शीर्षक से कार्यक्रम किया तो एनवायरनमेंट प्रोजेक्ट के रूप में था, जिसमें नष्ट होते पर्यावरण को बचाने के उपायों पर विचार-विमर्श होना था और मंच से इसी संदर्भ में बातें भी हुईं; किंतु इसके साथ-साथ डिस्ट्रिक्ट के 'बिगड़ते वातावरण' पर भी खुल कर चर्चा हुई । यह क्लब चूँकि टीके रूबी का क्लब है, इसलिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में उनके साथ हुई बेईमानी को लेकर भी चर्चा हुई और अधिकतर लोगों ने टीके रूबी की लड़ाई में अपना अपना सहयोग व समर्थन घोषित किया । इस संबंध में जो बातें हुईं उनसे साबित हुआ कि डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच राजा साबू गिरोह की हरकतों के खिलाफ बेहद नाराजगी और विरोध है । राजा साबू गिरोह के लोगों के लिए झटके की बात यह रही कि उन्होंने इस कार्यक्रम के खिलाफ डिस्ट्रिक्ट में खूब कुप्रचार किया और डिस्ट्रिक्ट में यह संदेश भी दिया कि जो कोई भी इस कार्यक्रम में जायेगा, राजा साबू उससे नाराज हो जायेंगे - लेकिन फिर भी अच्छी खासी संख्या में लोग इस आयोजन में जुटे । राजा साबू गिरोह के नेताओं ने तब इस कार्यक्रम में शामिल हुए प्रमुख लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की तैयारी दिखाई, जिसके तहत उन्हें डिस्ट्रिक्ट टीम से निकाले जाने की चिट्ठियाँ भेज दी गईं । इसका लेकिन उल्टा ही असर हुआ । राजा साबू गिरोह के नेताओं को उम्मीद थी कि डिस्ट्रिक्ट टीम से निकाले जाने की चिट्ठियाँ मिलते ही लोग माफी माँगते हुए उनके पास दौड़े चले आयेंगे; और उनसे वायदा करेंगे कि वह कभी टीके रूबी और उनके क्लब की तरफ कभी देखेंगे भी नहीं । लोगों ने लेकिन डेविड हिल्टन को जमकर खरीखोटी सुनाते हुए चिट्ठियाँ लिखीं । 
राजा साबू गिरोह के कहने में आकर डेविड हिल्टन ने वरिष्ठ रोटेरियंस को अपनी टीम से निकालने का जो काम किया, उससे पहले से चला आ रहा बबाल कम होने की बजाए बढ़ और गया है । लोगों ने पूछना शुरू किया है कि टीके रूबी की बातों/शिकायतों का संज्ञान रोटरी इंटरनेशनल ने भी लिया है, और पहले एक मामले में तो उनके पक्ष में फैसला भी सुनाया है - तो क्या राजा साबू गिरोह के नेता 'रोटरी इंटरनेशनल' को भी रोटरी से निकाल देंगे ? बबाल बढ़ता देख राजा साबू गिरोह के नेताओं ने सुलह-सफाई का रास्ता पकड़ा है, और जिन लोगों को टीम से निकाला गया उनके जख्मों पर मरहम लगाने की कार्रवाईयाँ शुरू की गईं हैं । उनकी इन कार्रवाईयों का अभी तक तो कोई सुफल मिलता हुआ नहीं दिखा है, किंतु राजा साबू गिरोह के नेताओं को उम्मीद है कि 12 में से कुछेक लोगों को तो वह जल्दी ही 'अपने साथ' ले आयेंगे । दरअसल 18 अक्टूबर को अंबाला में हो रहा कार्यक्रम राजा साबू गिरोह द्वारा इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों का एक संगठित व सार्वजनिक रूप है, जिसमें रोटरी क्लब हिमालयन रेंजेस मनसा देवी द्वारा किए गए 'स्वच्छ RID 3080' कार्यक्रम के बाद डिस्ट्रिक्ट में बने माहौल से निपटने की तरकीब लड़ाई जाएगी । इसीलिए इस कार्यक्रम से जुड़ी बातों को - खासतौर से राजा साबू की उपस्थिति जैसी महत्वपूर्ण बात को भी या तो गोपनीय बना कर रखा जा रहा है, और या संशयपूर्ण बनाया जा रहा है । 'एक्सीलेंट फूड अरेंजमेंट' का लालच देते हुए आयोजित हो रहे इस कार्यक्रम पर कई लोगों की निगाहें हैं, क्योंकि हो सकता है कि यहाँ होने वाली बातें डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति की शायद कोई नई दिशा-दशा तय करें ?  

Wednesday, October 14, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के चुनाव में पक्षपातपूर्ण भूमिका के चलते प्रेसीडेंट मनोज फडनिस को पूर्व प्रेसीडेंट अमरजीत चोपड़ा से फटकार सुननी पड़ी

इंदौर । मनोज फडनिस ने विकास जैन के चुनाव कार्यालय जाकर उनकी चुनावी तैयारी का जायेजा लेने का काम करके एक बार फिर साबित किया कि जब एक छोटी सोच, टुच्ची मानसिकता और पक्षपातपूर्ण व्यवहार का आदी व्यक्ति किसी संस्था का मुखिया बन जाता है, तो वह कैसे 'द इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया' जैसी प्रतिष्ठित संस्था को भी मटियामेट कर दे सकता है । इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट के रूप में मनोज फडनिस ने अपनी मौन स्वीकृतियों, अपनी धृतराष्ट्रीय कार्रवाइयों और अपनी हरकतों से इंस्टीट्यूट की छवि को खासा नुकसान पहुँचाया है । ताजा हरकत के लिए तो उन्हें इंस्टीट्यूट के एक पूर्व प्रेसीडेंट अमरजीत चोपड़ा तक से सार्वजनिक रूप से फटकार सुनने को मिली है । प्रेसीडेंट के रूप में मनोज फडनिस के पक्षपातपूर्ण फैसलों व कार्रवाईयों को लेकर जो शिकायत व आलोचना होती रही है, उसे एक बार को यदि भूल भी जाएँ - तो क्या इस तथ्य को भूल पाना किसी के लिए भी संभव होगा कि इंस्टीट्यूट के 66 वर्षीय इतिहास में मनोज फडनिस ऐसे पहले प्रेसीडेंट हुए, जिनकी कारस्तानी पर इंस्टीट्यूट के एक पूर्व प्रेसीडेंट को सार्वजनिक रूप से उनके कान उमेठने के लिए मजबूर होना पड़ा । 'रंगे हाथ' पकड़े जाने के बाद मनोज फडनिस की तरफ से सुबूत मिटाने के प्रयास तो खूब हुए, लेकिन उनकी हरकतों से परिचित लोग उनसे ज्यादा होशियार साबित हुए ।  
मनोज फडनिस की ताजा हरकत उनका सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ रहे विकास जैन के चुनाव-कार्यालय जाना रहा । यूँ तो विकास जैन की उम्मीदवारी को मनोज फडनिस के समर्थन की चर्चा आम है । मनोज फडनिस की तरफ से इस आम चर्चा को झुठलाने की कोशिश चूँकि कभी नहीं हुई, इसलिए माना गया कि इस आम चर्चा से लोगों के बीच उनकी जो पक्षपातपूर्ण छवि बन रही है - उससे उन्हें कोई परेशानी नहीं है । अपनी छवि, अपनी गरिमा और अपनी प्रतिष्ठा को धूल में मिलता देख चुप रहने वाले मनोज फडनिस के इस रवैये ने उन लोगों को हैरान जरूर किया - जो उन्हें नहीं जानते हैं । जो उन्हें जानते हैं, उन्हें तो पता है कि मनोज फडनिस ऐसे ही हैं । जो उन्हें जानते हैं, उनमें कईयों को लेकिन यह नहीं पता कि मनोज फडनिस इससे भी ज्यादा घटियापन कर सकते हैं । कई लोगों को इस बात पर आश्चर्य है कि विकास जैन के चुनाव कार्यालय जाते समय मनोज फडनिस को क्या यह ख्याल बिलकुल भी नहीं
आया होगा कि वह इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट जैसे जिम्मेदार व प्रतिष्ठित पद पर हैं, और इस पद की गरिमा को बनाए रखने की जिम्मेदारी उनकी ही है; और इस जिम्मेदारी को निभाने के तहत उन्हें एक उम्मीदवार के चुनाव कार्यालय तो नहीं जाना चाहिए । मनोज फडनिस अपने पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को ताक पर रख कर जिस तरह एक उम्मीदवार के चुनाव कार्यालय गए और वहाँ उन्होंने चुनावी तैयारियों पर खासी दिलचस्पी के साथ चर्चा की, उससे यही पता चलता है कि उन्हें या तो अपने पद की गरिमा व प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं रहा; और या उन्हें ख्याल तो आया होगा, किंतु उन्होंने उसकी परवाह नहीं की । 
इस मामले में मूर्खता की पराकाष्ठा यह रही कि एक उम्मीदवार के चुनाव-कार्यालय में मनोज फडनिस ने अपनी उपस्थिति व अपनी संलग्नता की तस्वीरें भी खिंचवाईं । तस्वीरें न खिंची होतीं, तो मनोज फडनिस रंगे हाथ पकड़े नहीं गए होते और न उन्हें पूर्व प्रेसीडेंट अमरजीत चोपड़ा से फटकार सुननी पड़ती । कुछेक लोगों को लगता है कि यह मूर्खता नहीं, मनोज फडनिस का आत्मविश्वास था । उन्होंने सोचा होगा कि तस्वीरें उनका क्या बिगाड़ लेंगी ? लेकिन तस्वीरों के कारण पोल खुलने और बबाल मचना शुरू होते ही मनोज फडनिस की तरफ से जिस तरह से छिपना/भागना शुरू हुआ, उससे साबित होता है कि तस्वीरें खिंचवाने का फैसला मूर्खता के चलते ही हुआ । उन्हें पता होता कि तस्वीरों के कारण वह रंगे हाथ पकड़े जायेंगे, तो शायद तस्वीरें न खिंचवाते । विकास जैन के चुनाव कार्यालय में चुनावी चर्चा करते हुए मनोज फडनिस की तस्वीरें सोशल मीडिया में आईं, तो बबाल मच गया । इस बबाल को शुरू करने/करवाने तथा भड़काने में अमरजीत चोपड़ा के एक कॉमेंट ने उत्प्रेरक का काम किया । बबाल भड़कने की खबर मनोज फडनिस को मिली तो वह तुरंत हरकत में आए तथा सुबूत मिटाने की तत्परता दिखाते हुए आनन-फानन में उन्होंने सोशल मीडिया से उक्त सारी तस्वीरें हटवाईं । मनोज फडनिस एंड कंपनी की हरकतों से परिचित होने के कारण कुछेक लोगों को पता था कि यह लोग पकड़े जाने पर सुबूत मिटाने की कोशिश करेंगे - इसलिए उन्होंने सुबूतों को मिटाये जाने से पहले ही सहेज लिया और सुरक्षित कर लिया । 
मनोज फडनिस का यह कारनामा इंस्टीट्यूट के लिए, प्रोफेशन के लिए और खुद उनके लिए (वह यदि समझें तो) शर्मनाक तो है ही - साथ ही उम्मीदवार के रूप में विकास जैन के लिए भी मुसीबत बढ़ाने वाला है । रीजन में चर्चा है कि इस मामले को चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन के मामले के रूप में लाकर विकास जैन की उम्मीदवारी को निरस्त कराने का प्रयास किया जा सकता है । गाजियाबाद व जयपुर के कुछेक उम्मीदवार इस मामले में दिलचस्पी लेते सुने गए हैं । विकास जैन के नजदीकियों को हालाँकि भरोसा है कि मनोज फडनिस के होते हुए विकास जैन की उम्मीदवारी निरस्त तो नहीं करवाई जा सकेगी; लेकिन उनकी चिंता/समस्या यह है कि इस प्रकरण से विकास जैन के चुनाव अभियान पर पड़े नकारात्मक असर से कैसे निपटा जायेगा ? इस प्रकरण से विकास जैन के चुनाव अभियान पर दरअसल दोहरी मार पड़ी है । इस प्रकरण से एक तरफ तो यह साबित हुआ कि उनकी टीम में कोई समन्वय नहीं है, और उनकी अपनी हरकतें ही उनकी पोल खोल रही हैं तथा उन्हें मुसीबत में डाल रही हैं; दूसरी तरफ यह बात सामने आई कि अपने चुनाव अभियान व अपनी जीत को लेकर वह खुद आश्वस्त नहीं हैं, जिसके चलते उनके पक्ष के बड़े नेताओं को विचार-विमर्श करने के लिए चुनाव-कार्यालय में इकट्ठा होना पड़ा । विकास जैन के नजदीकियों का ही कहना है कि अब उन्हें समझ में आ रहा है कि विकास जैन के लिए लिए चुनाव उतना आसान नहीं है, जितना पहले समझा जा रहा था । इंदौर में उनकी उम्मीदवारी को लेकर कई कारणों से विरोध के स्वर मुखर हुए हैं - जिसके चलते इंदौर में सेंट्रल काउंसिल के दूसरे उम्मीदवार के रूप में केमिषा सोनी को अच्छा समर्थन मिलता नजर आ रहा है । मजे की बात यह है कि कुछ समय पहले तक केमिषा सोनी की उम्मीदवारी को कोई भी गंभीरता से लेता हुआ नहीं दिख रहा था । इंदौर में जो लोग विकास जैन की उम्मीदवारी के साथ नहीं हैं और किसी वैकल्पिक उम्मीदवार की तलाश में थे, उन्हें भी यह संशय था कि केमिषा सोनी अपनी उम्मीदवारी को बनाये/टिकाये रख भी पायेंगी या नहीं ? विकास जैन के नजदीकी भी मानते और कहते हैं कि उन्होंने केमिषा सोनी की उम्मीदवारी की ताकत को कम आँकने की चूक की । हालाँकि कई लोग यह भी मानते/कहते हैं कि केमिषा सोनी की उम्मीदवारी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि विकास जैन अपनी उम्मीदवारी के अभियान को ठीक तरीके से सँभाल नहीं पा रहे हैं, तथा अपनी उम्मीदवारी के विरोधियों को मैनेज करने में विफल साबित हो रहे हैं । दरअसल इसी समस्या पर विचार के लिए उनके कार्यालय में हाई लेबल मीटिंग रखी गई थी, जिसमें मनोज फडनिस की उपस्थिति ने किंतु विकास जैन के लिए हालात और बिगाड़ दिए हैं ।

Tuesday, October 13, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी के गंभीर रूप लेते ही इंदौर में विकास जैन खेमा विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी के झंडे को छोड़ने के लिए मजबूर हुआ

इंदौर । नीलेश गुप्ता को रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी को गंभीरता से लेते देख इंदौर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों को अपने अपने समीकरण फिर से बैठाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है । इसका कारण यह है कि नीलेश गुप्ता पिछले दिनों जब अपनी उम्मीदवारी से पीछे हटते दिख रहे थे, तब इंदौर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति का समीकरण बिलकुल अलग था; किंतु अब जब नीलेश गुप्ता अपनी उम्मीदवारी के साथ न सिर्फ वापस लौट आए हैं, बल्कि उन्होंने अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने का काम भी जोरशोर से शुरू कर दिया है - तो इंदौर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के समीकरण पूरी तरह उलट पलट गए हैं । मजे की बात यह हुई है कि रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी के गंभीर रूप लेते ही सबसे ज्यादा असर सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार विकास जैन के खेमे पर पड़ा है । विकास जैन खेमे के लोगों ने पहले इंदौर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति पर अपना कब्जा जमाने के उद्देश्य से रीजनल काउंसिल के लिए विजेश जैन की उम्मीदवारी का झंडा भी उठा लिया था; किंतु नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी के गंभीर रूप लेते ही वह विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी का झंडा छोड़ देने के लिए मजबूर हुए हैं । बदले हालात में विकास जैन खेमे के लोगों ने रीजनल काउंसिल की राजनीति में पड़ने की बजाए सेंट्रल काउंसिल के लिए विकास जैन की उम्मीदवारी की फिक्र करने की जरूरत ज्यादा समझी है । 
विकास जैन खेमे के लोगों ने दरअसल चर्चिल जैन की उम्मीदवारी को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया था; जिसके चलते उन्होंने सेंट्रल काउंसिल के साथ साथ रीजनल काउंसिल की राजनीति पर भी कब्जा करने की नीयत से विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी का जिम्मा भी अपने हाथों में ले लिया था । इंदौर ब्रांच की पिछले टर्म की तीन वर्षीय कमेटी में विकास जैन और विजेश खंडेलवाल साथ साथ थे, तथा कई एक कामों में दोनों की मिलीभगत भी थी - इस नाते दोनों के बीच एक तार जुड़ा हुआ था ही । विजेश जैन इंदौर ब्रांच के चुनाव ही मुश्किल से जीतते थे और वहाँ चेयरमैन भी वह तीसरे टर्म में बन सके थे; इस बात को ध्यान में रखते हुए रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उनकी उम्मीदवारी को कोई भी गंभीरता से लेता हुआ नहीं दिख रहा था । इंदौर में रीजनल काउंसिल के दोनों उम्मीदवारों - चर्चिल जैन और विजेश खंडेलवाल की खस्ता हालत की चर्चा बाहर तक थी; जिसका नतीजा था कि यहाँ वोट जुटाने के लिए जयपुर के सचिन जैन, रतलाम के प्रमोद नाहर तथा उज्जैन के शरद जैन तक ने घात लगाना शुरू कर दिया था । ऐसे में विकास जैन और उनके संगी-साथियों ने सोचा कि वह यदि प्रयास करेंगे तो संभव है कि वह विजेश खंडेलवाल को जितवा देंगे । यही सोच कर उन्होंने विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी का जिम्मा ले लिया । यह जिम्मा लेने के पीछे उनका एक उद्देश्य यह भी बना कि इसके जरिए उन्हें इंदौर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति की चाबी पूरी तरह अपने हाथ में आती हुई दिखाई दी । 
नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी में लेकिन दोबारा से पैदा हुई गर्मी ने विकास जैन और उनके संगी-साथियों की इस योजना पर पानी फेर दिया है । इंदौर ब्रांच की मैनेजिंग कमेटी में सदस्य के रूप में तथा चेयरमैन के रूप में नीलेश गुप्ता की जैसी सक्रियता रही, और विभिन्न उपलब्धियों के साथ उनकी जैसी पहचान व प्रतिष्ठा बनी - उसे देखते/समझते हुए उन्हें एक मजबूत उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । अपने स्वभाव और अपनी सक्रियता से नीलेश गुप्ता ने सिर्फ इंदौर में ही पहचान व प्रतिष्ठा अर्जित नहीं की है, बल्कि अन्य कुछेक ब्रांचेज में भी अपनी जगह बनाई है । कोटा से चार्टर्ड एकाउंटेंसी की पढ़ाई करने तथा अपने प्रोफेशनल जीवन के शुरू के कुछेक वर्ष वहाँ व्यतीत करने के कारण उनका कोटा व राजस्थान के लोगों के साथ भी भावनात्मक रिश्ता है । इस सब के संदर्भ में नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी का वजन काफी बढ़ा दिख रहा है । दरअसल इसीलिए नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी के गंभीर रूप लेते ही इंदौर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के समीकरण पूरी तरह बदल गए । ऐसे में, विकास जैन तथा उनके संगी-साथियों को विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी के झंडे को पकड़े रहने में खतरा दिखा । खतरा यह कि तब नीलेश गुप्ता को समर्थन देने वाले लोग सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में विकास जैन का विरोध करेंगे । नीलेश गुप्ता का समर्थन आधार चूँकि खासा बड़ा है, इसलिए विकास जैन व उनके संगी-साथियों को लगा कि विजेश खंडेलवाल के चक्कर में वह अपनी उम्मीदवारी को खतरे में क्यों डालें ? लिहाजा उन्होंने विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी का खुला समर्थन करने से हाथ खींच लिया । 
विकास जैन व उनके संगी-साथियों से झटका मिलने के कारण विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी के सामने गंभीर संकट तो पैदा हो गया है, जिसे उनके समर्थक अभी इस तर्क के जरिए झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं कि नीलेश गुप्ता और चर्चिल जैन एक ही खेमे के उम्मीदवार होने के कारण एक-दूसरे के वोटों को ही काटेंगे - और इस तरह नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी के पुनः सक्रिय होने से विजेश खंडेलवाल के लिए चुनाव और आसान हो गया है, जिसके कारण उन्हें विकास जैन व उनके संगी-साथियों के समर्थन की ज्यादा जरूरत रह भी नहीं गई है । दूसरे लोगों का कहना किंतु यह है कि किताबी रूप में तो यह तर्क अच्छा दिखता है, लेकिन व्यावहारिक रूप में इस तर्क का कोई मतलब नहीं है । यह सच है कि ब्रांच के पिछले चुनाव में चर्चिल जैन ने दोस्त होने के नाते नीलेश गुप्ता का साथ दिया था; लेकिन उनकी दोस्ती चुनावी संदर्भ में समर्थक और उम्मीदवार के रूप में विभक्त हुई थी । उम्मीदवार के रूप में नीलेश गुप्ता का साथ तो बहुत से लोगों ने दिया था - जिनमें चर्चिल जैन भी एक थे । ऐसे में चर्चिल जैन अब उनकी बराबरी पर कैसे आ सकते हैं ? जाहिर है कि चर्चिल जैन की उम्मीदवारी नीलेश गुप्ता के लिए कोई समस्या नहीं बनेगी; वह यदि समस्या बनेगी भी तो विजेश खंडेलवाल के लिए - विकास जैन के मार्फत जो जैन वोट विजेश खंडेलवाल को मिल सकते होंगे, चर्चिल जैन उन्हें अपनी तरफ खींच सकते हैं । मजे की बात यह है कि चर्चिल जैन की उम्मीदवारी को कोई भी पक्ष गंभीरता से नहीं ले रहा है, और दोनों पक्षों को ही लग रहा है कि इंदौर में वास्तव में दो ही उम्मीदवार हैं । नीलेश गुप्ता की उम्मीदवारी का पलड़ा वैसे भी भारी दिख रहा था, जिसके 'बोझ' को महसूस करते हुए विकास जैन व उनके संगी-साथियों ने विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी के समर्थन से हाथ खींच कर और भारी बना दिया है । विकास जैन व उनके संगी-साथियों ने अपनी उम्मीदवारी को बचाने के लिए विजेश खंडेलवाल की उम्मीदवारी को जिस तरह से बीच रास्ते पर छोड़ दिया है, उससे विजेश खंडेलवाल के लिए मुसीबत तो पैदा हुई ही है - लेकिन इंदौर का चुनावी परिदृश्य भी खासा दिलचस्प हो गया है ।