Friday, November 30, 2012

जीसी मिश्र के साथ की गई अनुज गोयल की चालबाजी ने रीजनल काउंसिल के लिए राघवेन्द्र की उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच स्वीकार्यता और समर्थन के भाव को और मजबूत बना दिया है

गाजियाबाद । अनुज गोयल ने फिसल कर गिरने से लगी चोट को 'दिखा' 'दिखा' कर सहानुभूति जुटाने में इंस्टीट्यूट की गाजियाबाद ब्राँच के प्रमुख पदाधिकारी जीसी मिश्र का जैसा जो इस्तेमाल करने की कोशिश की, उसके कारण सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए राघवेन्द्र की उम्मीदवारी को खासी धमक मिली है । उल्लेखनीय है कि जीसी मिश्र सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनाव में राघवेन्द्र की उम्मीदवारी के प्रमुख समर्थकों में हैं और चुनावी राजनीति की खेमेबाजी में अनुज गोयल के धुर विरोधी हैं । अभी पिछले दिनों ही गाजियाबाद ब्राँच में अनुज गोयल ने जब फर्जी तिकड़मों से अपने भाई जितेंद्र गोयल को को-ऑप्ट करवाया था तो ब्राँच में एक अकेले जीसी मिश्र ने ही उनकी इस भाई-भतीजा वाली कार्यवाई का विरोध किया था । रीजनल काउंसिल के चुनाव में अनुज गोयल ने मुकेश बंसल को उम्मीदवार बनाया है । लेकिन उम्मीदवार के रूप में मुकेश बंसल की पतली हालत को देखते हुए अनुज गोयल ने उनके समर्थन से हाथ खींच लिए हैं और जीसी मिश्र/राघवेन्द्र के नजदीक आने की कोशिश कर रहे हैं ।
अनुज गोयल ने फिसल कर गिरने से लगी सामान्य सी चोट पर खुद रो-रो कर और अपनी पत्नी को दूसरों के सामने रुला-रुला कर सहानुभूति जुटाने का जो ड्रामा रचा, उसमें जीसी मिश्र को शामिल करने के पीछे अनुज गोयल की यही समझ काम कर रही थी कि मुकेश बंसल उनके किसी काम नहीं आयेंगे, और उन्हें जीसी मिश्र/राघवेन्द्र की मदद ही लेनी पड़ेगी । अनुज गोयल को सिर्फ सहानुभूति ही जुटानी होती तो उन्हें जीसी मिश्र के नाम का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती । अनुज गोयल किंतु अपनी चोट का दो तरह से फायदा उठाना चाहते थे । एक तरफ तो उन्होंने लोगों के बीच सहानुभूति जुटाने की कोशिश की; और दूसरी तरफ उन्होंने जीसी मिश्र/राघवेन्द्र को अपने साथ दिखाने की चाल चली । अपनी इस चाल के लिए अनुज गोयल ने अपनी पत्नी का इस्तेमाल किया । अनुज गोयल ने फिसल कर गिरने से लगी चोट का उपचार हो जाने के कई घंटे बाद अपनी पत्नी से जीसी मिश्र को फोन करवाया । अनुज गोयल की पत्नी ने रोते-रोते जीसी मिश्र को अनुज गोयल के अस्पताल में होने की बात बताई । अनुज गोयल की पत्नी ने जैसा जो बताया उससे ऐसा लगा जैसे अनुज गोयल का कोई भारी एक्सीडेंट हुआ है और वह बड़ी क्रिटिकल स्थिति में हैं । अनुज गोयल की पत्नी का रोना-धोना सुन कर जीसी मिश्र ने राघवेन्द्र को खबर की और दोनों ने ही तय किया कि उनके अनुज गोयल के साथ राजनीतिक रिश्ते भले ही जो भी हों, किंतु इस मुश्किल घड़ी में उन्हें अनुज गोयल की मदद में खड़े होना चाहिए । जीसी मिश्र और राघवेन्द्र तुरंत अस्पताल दौड़े । जीसी मिश्र अपनी पत्नी को भी अपने साथ लाये ।
अस्पताल पहुँच कर जो नजारा इन्होंने वहाँ देखा, तो यह हक्के-बक्के रह गए । चोट का उपचार करा चुके अनुज गोयल फोन पर लोगों को अपने अस्पताल में होने की जानकारी दे रहे थे । कुछेक दूसरे लोग भी फोन पर यही सूचना लगातार प्रचारित करने में लगे हुए थे । वह बाकायदा एक दूसरे से टिप्स ले/दे रहे थे कि फलाँ को फोन हो गया या नहीं । यह नजारा देख कर जीसी मिश्र और राघवेन्द्र ने अपने आप को ठगा हुआ पाया । इन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि अनुज गोयल ने इन्हें इस्तेमाल किया है । इन्हें लेकिन अनुज गोयल की अगली चाल की भनक नहीं हो पाई । इन्हें यह तो पहले भी पता था, और यह साबित भी हो रहा था कि अनुज गोयल बहुत ही धूर्त किस्म का व्यक्ति है - लेकिन उसकी धूर्तता की हद क्या है, इसका अंदाजा नहीं था । इसका एक आभास तब हुआ जब जीसी मिश्र को पता चला कि उनके नाम से अनुज गोयल की सहानुभूति में एक एसएमएस रीजन के लोगों को भेजा गया है । अनुज गोयल को ऐसा फर्जीवाड़ा करने की जरूरत क्यों पड़ी ? सिर्फ इसलिए ताकि वह रीजन के लोगों को बता/दिखा सकें कि जीसी मिश्र और राघवेन्द्र उनके साथ हैं । अनुज गोयल की यह चालबाजी सामने आते ही जीसी मिश्र ने रीजन के लोगों को एसएमएस करके जानकारी दी कि अनुज गोयल के जो चोट लगी है, उसका उन्हें दुःख है और वह प्रार्थना करते हैं कि अनुज गोयल जल्दी स्वस्थ हों, लेकिन वह लोगों को बताना चाहते हैं कि पहले वाला एसएमएस उन्होंने नहीं किया था ।
जीसी मिश्र के इस एसएमएस से अनुज गोयल की किरकिरी तो खूब हुई - लेकिन उनकी किरकिरी ने राघवेन्द्र की उम्मीदवारी की धमक भी पैदा की । अनुज गोयल ने जो हरकत की, उससे साबित हुआ कि अनुज गोयल भी मान गए हैं कि राघवेन्द्र की उम्मीदवारी को लोगों के बीच अच्छा समर्थन मिल रहा है; लोगों के बीच राघवेन्द्र की उम्मीदवारी को मिल रहे समर्थन का फायदा उठाने के लिए ही उन्होंने जीसी मिश्र के नाम का धोखाधड़ी के साथ इस्तेमाल किया । अनुज गोयल की इस हरकत ने उनके समर्थन के भरोसे उम्मीदवार बने मुकेश बंसल की उम्मीदवारी के लिए अजीब समस्या पैदा कर दी है । रीजन में लोगों को लग रहा है कि मुकेश बंसल को उम्मीदवार बनाने वाले अनुज गोयल को ही जब उन पर भरोसा नहीं रह गया है और अनुज गोयल तीन-तिकड़म से राघवेन्द्र के नजदीकियों के साथ जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं - तो दूसरों को उनसे जुड़ने में फिर क्या दिलचस्पी होगी । अनुज गोयल की इस हरकत से मुकेश बंसल के समर्थकों को भी लग रहा है कि अनुज गोयल ने उनके साथ धोखा किया है । मुकेश बंसल की उम्मीदवारी को अपने खिलाफ अनुज गोयल का षड़यंत्र बताने वाले विनय मित्तल इस मामले में मजा ले रहे हैं । उन्हें लोगों को यह बताने का मौका मिला है कि अनुज गोयल ने पहले उनके साथ धोखा किया और अब अपने धोखे का शिकार उन्होंने मुकेश बंसल को बनाया है । अनुज गोयल के रवैये को लेकर अनुज गोयल के भूतपूर्व सहयोगी रहे विनय मित्तल के इस तरह के विचार और अनुज गोयल के भरोसे अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले मुकेश बंसल के समर्थकों की आशंका ने राघवेन्द्र की उम्मीदवारी को मिलने वाले समर्थन का स्पेस बढ़ाने का ही काम किया है । अनुज गोयल ने अपने स्वार्थ में जीसी मिश्र के साथ जो चालबाजी खेली, उसने राघवेन्द्र की उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच स्वीकार्यता और समर्थन के भाव को और मजबूत बनाने का ही काम किया है ।

मनु अग्रवाल ने सेंट्रल काउंसिल उम्मीदवार के रूप में कानपुर से बाहर के अपने समर्थन-आधार के भरोसे अभी तो बढ़त बनाई हुई है

कानपुर । मनु अग्रवाल और विवेक खन्ना की चुनावी सक्रियता को देख/पहचान कर कानपुर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को यह विश्वास तो हो चला है कि इस बार इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल में कानपुर को प्रतिनिधित्व तो अवश्य ही मिल जायेगा और पिछली बार की तरह निराश नहीं होना पड़ेगा । इस बात पर तो लोग एकमत हैं कि मनु अग्रवाल और विवेक खन्ना में से कोई एक अवश्य ही सेंट्रल काउंसिल के लिए चुन लिया जायेगा - लेकिन कौन चुना जायेगा, इसे लेकर मत बँटे हुए है । इन बँटे हुए मतों के पीछे हालाँकि जो गणित और तर्क हैं उनमें मनु अग्रवाल का पलड़ा अभी तो भारी दिख रहा है । 'अभी तो' शब्द यहाँ इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मनु अग्रवाल के खिलाफ नकारात्मक बातें भी यदा-कदा सुनाईं पड़ती हैं और लोगों को लगता है कि उन्होंने यदि सावधानी नहीं बरती तो उनका बना-बनाया काम बिगड़ भी सकता है । अनुज गोयल और रवि होलानी अपनी-अपनी सदस्यता बचाने के लिए और मुकेश कुशवाह जीतने के लिए कानपुर में समर्थन जुटाने का जो प्रयास कर रहे हैं, उसमें भी मनु अग्रवाल के लिए चुनौती के तत्व छिपे हैं । जाहिर तौर पर, आकलन के स्तर पर मनु अग्रवाल की जो बढ़त है, उसे बचाये/बनाये रखने के लिए उन्हें एक तरफ यदि 'घर' में मुकाबला करना है तो दूसरी तरफ बाहर के लोगों से भी जूझना है ।
मनु अग्रवाल को 'घर' में विवेक खन्ना से तगड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है । कानपुर में मनु अग्रवाल ने यूँ तो अच्छा समर्थन जुटाया है किन्तु नृपेंद्र गुप्ता और भार्गव परिवार का समर्थन विवेक खन्ना के साथ होने से अपने समर्थन को वोट में बदलने की चुनौती उनके लिए गंभीर हो गई है । कानपुर में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीती में नृपेंद्र गुप्ता और भार्गव परिवार एक साथ शायद पहली बार आये हैं - इससे विवेक खन्ना की उम्मीदवारी का कद बढ़ा है । विवेक खन्ना के साथ चाचा नृपेंद्र गुप्ता हैं, तो मनु अग्रवाल के साथ भतीजा अक्षय कुमार गुप्ता हैं । मनु अग्रवाल के समर्थक नृपेंद्र गुप्ता को यदि 'चल चुके कारतूस' के रूप में देखते हैं तो विवेक खन्ना के समर्थक तर्क देते हैं कि जो अक्षय कुमार गुप्ता अपने अनफ्रेंडली रवैये के कारण अपना चुनाव नहीं बचा सके, वह मनु अग्रवाल के किस काम आ सकेंगे ? विवेक खन्ना के समर्थकों को इस बात से भी राहत मिली है कि राजीव मेहरोत्रा चुनाव में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं । कानपुर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में राजीव मेहरोत्रा को यूँ तो विवेक खन्ना के राजनीतिक गुरू के रूप में देखा/पहचाना जाता है; लेकिन विवेक खन्ना के व्यवहार से आहत राजीव मेहरोत्रा अब मनु अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में हैं । राजीव मेहरोत्रा, मनु अग्रवाल की उम्मीदवारी के समर्थन में हैं तो, लेकिन ज्यादा कुछ करते हुए 'दिख' नहीं रहे हैं । मनु अग्रवाल के कुछेक नजदीकियों का हालाँकि कहना है कि मनु अग्रवाल के चुनाव अभियान की रणनीति तैयार करने में राजीव मेहरोत्रा का प्रमुख रोल है, लेकिन इन्हीं नजदीकियों का यह भी मानना और कहना है कि राजीव मेहरोत्रा से जितनी और जिस तरह की उम्मीद थी, उतनी मदद उनसे नहीं मिल पा रही है ।
विवेक खन्ना और मनु अग्रवाल के कानपुर के समर्थन-आधार की तुलना करने वाले मनु अग्रवाल को यदि आगे 'देखते' हैं तो उनके अनुसार इसका एक बड़ा कारण यह है कि विवेक खन्ना की तुलना में मनु अग्रवाल ने यहाँ के लोगों के बीच कानपुर से बाहर के अपने समर्थन-आधार को लेकर अच्छी हवा बनाई हुई है । कानपुर में लोगों को लगता है और वह अपने इस लगने पर काफी हद तक विश्वास भी करते हैं कि मनु अग्रवाल ने मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में अपने लिए अच्छा समर्थन जुटाया हुआ है । इस सन्दर्भ में, मनु अग्रवाल की तुलना में विवेक खन्ना को कम सक्रिय देखा/पाया गया है । विवेक खन्ना के नजदीकी भी मानते और कहते हैं कि सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में विवेक खन्ना ने विभिन्न ब्रांचेज में अपने संपर्क तो अच्छे बनाये थे, लेकिन वह उन्हें अपने संभावित राजनीतिक सहयोगियों के रूप में परिवर्तित नहीं कर पाए हैं । जबकि मनु अग्रवाल ने जो संबंध बनाये, उन संबधों के सहारे उन्होंने अपना समर्थन-आधार बनाने का काम किया । उनकी इसी कोशिश ने सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में उन्हें आगे किया हुआ है । चुनावी राजनीति के संदर्भ में एक सर्वमान्य धारणा यह है कि जीतता वह है जो 'लड़ता' हुआ 'दिखता' है । विवेक खन्ना की तुलना में लोगों को मनु अग्रवाल चूंकि 'लड़ते' हुए 'दिख' रहे हैं - इसलिए भी लोगों के बीच मनु अग्रवाल की उम्मीदवारी को लेकर स्वीकार्यता का भाव ज्यादा है । किंतु - जैसा कि मनु अग्रवाल के समर्थक और शुभचिंतक भी मानते और कहते हैं कि मनु अग्रवाल अभी भले ही आगे दिख रहे हों, लेकिन अपनी बढ़त को लेकर वह आश्वस्त और निश्चिंत नहीं हो सकते हैं ।

Thursday, November 29, 2012

योगिता आनंद की रीजनल काउंसिल की उम्मीदवारी को वापस कराने की हरकत से राजेश शर्मा ने हरित अग्रवाल को मुश्किल में डाला

नई दिल्ली । हरित अग्रवाल की नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए जीत पक्की करने के लिए उनके सबसे बड़े समर्थक राजेश शर्मा ने योगिता आनंद पर अपनी उम्मीदवारी को वापस लेने के लिए जिस तरह से दबाव बनाया, वह अब बड़े बबाल का रूप लेता जा रहा है । इस मामले में आरके गौड़ की एंट्री होने से मामले ने राजनीतिक रंग भी ले लिया है । मजे की बात है कि योगिता आनंद इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहती हैं, लेकिन उनके समर्थक और शुभचिंतक चुप बैठने को तैयार नहीं हैं; क्योंकि उन्हें डर है कि हरित अग्रवाल के समर्थक ऐन मौके पर उनकी उम्मीदवारी को लेकर कहीं कोई समस्या खड़ी न कर दें; इसलिए वह मामले को ऐसा बना देना चाहते हैं कि हरित अग्रवाल के समर्थकों के सामने योगिता आनंद की उम्मीदवारी के खिलाफ कुछ करने का कोई मौका ही न बचे । इस कोशिश में योगिता आनंद के कुछेक समर्थकों ने आरके गौड़ से संपर्क किया । उल्लेखनीय है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स - खास कर युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच आरके गौड़ की पहचान ऐसी है कि अन्याय और बेईमानी और मनमानीपूर्ण दादागिरी के खिलाफ लड़ाई में किसी को भी मदद की जरूरत होती है तो वह सबसे पहले आरके गौड़ का फोन लगाता है । आरके गौड़ भी मदद के लिए तुरंत हाज़िर हो जाते हैं । इस मामले में भी ऐसा ही हुआ ।
आरके गौड़ लेकिन, चूंकि सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार भी हैं, इसलिए मामले में उनके पड़ते ही मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया है । मामले ने राजनीतिक रंग इसलिए भी ले लिया, क्योंकि जिन राजेश शर्मा ने हरित अग्रवाल की मदद करने के लिए योगिता आनंद की उम्मीदवारी को वापस कराने का बीड़ा उठाया, वह राजेश शर्मा सेंट्रल काउंसिल के लिए चरनजोत सिंह नंदा की उम्मीदवारी का समर्थन करते हुए बताये जा रहे हैं । मजे की बात यह है कि आरके गौड़ को इस मामले में अभी तक कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी है - योगिता आनंद के समर्थकों को उन्होंने सिर्फ आश्वस्त भर किया है कि वह चिंता न करें और परेशान न हों - योगिता आनंद की उम्मीदवारी को नुकसान पहुँचाने वाला कोई काम नहीं हो सकेगा । यूँ तो यह बात हर कोई कहता जिससे भी योगिता आनंद के समर्थक गुहार लगाते । किंतु अभी यह बात चूँकि आरके गौड़ ने - सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार आरके गौड़ ने कही है - और सेंट्रल काउंसिल के एक दूसरे उम्मीदवार चरनजोत सिंह नंदा के समर्थक समझे जाने वाले लोगों के संदर्भ में कही है; इसलिए उक्त मामला बड़ा हो गया है ।
आरके गौड़ की एंट्री के बाद, योगिता आनंद की उम्मीदवारी को वापस कराने की मुहिम में जुटे राजेश शर्मा के लिए सचमुच मुसीबत हो गई है कि अब वह क्या करेंगे ? राजेश शर्मा ने जो किया, उसे लेकर हरित अग्रवाल के दूसरे समर्थकों के बीच हालाँकि नाराजगी है - उनका मानना और कहना है कि हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी को अच्छा समर्थन मिलता दिख रहा है, इसलिए राजेश शर्मा को ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए जिससे कि हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी विवाद में फँसे और कमजोर नज़र आये । राजेश शर्मा नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन रह चुके हैं - इसलिए इस तरह की हरकत की उनसे उम्मीद नहीं की जाती है । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के चुनाव घटिया हरकतों के कारण लगातार विवादस्पद होते जा रहे हैं - पिछली बार बूथ केप्चरिंग तक की हरकत हो गई थी और इस बार उम्मीदवार को डरा-धमका कर उम्मीदवारी वापस कराने का प्रयास करने का मामला सामने आया है । गंभीर बात यह है कि इस तरह के मामलों में बड़े पदों पर रहे लोगों के नाम आरोपियों के रूप में सामने आये हैं - बूथ केप्चरिंग में सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के पूर्व चेयरमैन अनुज गोयल का नाम है तो डरा-धमका कर उम्मीदवारी वापस कराने के मामले में नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के पूर्व चेयरमैन राजेश शर्मा का नाम है ।
राजेश शर्मा की इस हरकत ने हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी को सवालों के घेरे में ला दिया है । लोगों के बीच सवाल पैदा हो रहे हैं कि हरित अग्रवाल क्या इसी तरह की घटिया हरकतों के भरोसे चुनाव जीतने की तैयारी कर रहे हैं; और कि हरित अग्रवाल भी क्या इसी तरह की हरकतें करेंगे जैसी कि राजेश शर्मा कर रहे हैं ? हरित अग्रवाल के कुछेक समर्थकों का ही कहना है कि योगिता आनंद की उम्मीदवारी को वापस कराने के लिए राजेश शर्मा ने जो किया है, हरित अग्रवाल को उसके लिए सार्वजानिक रूप से माफी मांग लेनी चाहिए, ताकि इस कारण से होने वाली बदनामी उनका कोई नुकसान न करे । उल्लेखनीय है कि हरित अग्रवाल के समर्थकों के बीच राजेश शर्मा की भूमिका को लेकर पहले से ही संदेह रहा है और हरित अग्रवाल के ही समर्थक कहते रहे हैं कि राजेश शर्मा समर्थक के भेष में विरोधी की भूमिका निभा रहे हैं । अब फिर हरित अग्रवाल के कुछेक समर्थकों ने सुझाव दिया है कि हरित अग्रवाल को राजेश शर्मा से हाथ जोड़ कर एक यह अहसान करने के लिए कहना चाहिए कि अब वह उन पर कोई अहसान न करें ।  

Wednesday, November 28, 2012

अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ 'चुनावी' काम कर रहे और कुछ ही दिन बाद उनके यहाँ से निकाले जाने की आशंका से घिरे युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया की सेंट्रल काउंसिल की सदस्यता के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले अतुल कुमार गुप्ता को अपने ही लोगों से गंभीर चुनौती मिलने से एक अजीब तरह की समस्या का सामना करना पड़ रहा है । अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ अलग-अलग रूपों में नौकरी करने वाले युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स दूसरों के सामने अपना दुखड़ा रोते सुने गए हैं कि अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ उनकी नौकरी तो बस चुनाव तक ही है और चुनाव हो जाने के बाद उन्हें नौकरी से निकाल ही दिया जाना है । उल्लेखनीय है कि अतुल कुमार गुप्ता ने पिछले कुछेक महीनों में कई युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को अपने यहाँ नौकरी पर रखा है - ऐसा करते हुए उन्होंने दिखाने/जताने का प्रयास यह किया था कि उन्हें युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की कितनी फिक्र है; और कि उन्हें जैसे ही कुछ करने का मौका मिलेगा वह युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के लिए करेंगे । उन्होंने दिखाया/जताया कि उन्हें अपने काम - अपने प्रोफेशनल काम के लिए जैसे ही लोगों की जरूरत महसूस हुई, उन्होंने युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को चुना तथा उन्हें मौका दिया । लेकिन अब पोल खुल रही है कि उन्होंने अपने प्रोफेशनल काम के लिए नहीं, बल्कि अपने चुनावी काम के लिए युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को अपने यहाँ नौकरी दी हुई है ।
अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ काम करने वाले युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को अपने दोस्तों व नजदीकियों के बीच कहते/शिकायत करते हुए सुना गया है कि उनसे प्रोफेशनल काम तो कोई कराया ही नहीं जाता है, उनसे तो सिर्फ चुनावी काम ही कराया जाता है । उनके यहाँ काम करने वाले युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के ही अनुसार, प्रोफेशनल काम के लिए अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ पहले से ही पर्याप्त नेटवर्क था और उन्हें उतने लोगों की जरूरत थी ही नहीं, जितने कि उन्होंने रख लिए हैं । इस बीच उनके काम में इतना और ऐसा इजाफा भी नहीं हुआ है कि उन्हें कई लोगों की जरूरत पड़े; उनका काम सिर्फ इस रूप में ही बढ़ा है कि वह सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार हो गए हैं - जिस कारण उनकी व्यस्तता बढ़ गई और चुनावी काम के लिए उन्हें हेल्पिंग हेंड्स की जरूरत पड़ी । इसलिए पिछले दिनों एक साथ काम पर रखे गए युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स किन्हीं प्रोफेशनल कामों में नहीं, बल्कि चुनावी काम में लगाये गए हैं । चुनावी काम मुश्किल से दस दिन का और बचा है - इसलिए अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ काम कर रहे युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को चिंता होने लगी है और वह समझ रहे हैं कि अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ उनके दिन अब गिने-चुने ही बचे हैं । अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ काम कर रहे युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स चूंकि अपनी चिंता दूसरे लोगों के बीच व्यक्त कर रहे हैं इसलिए अतुल कुमार गुप्ता का खेल बिगड़ रहा है । अतुल कुमार गुप्ता ने यह जो खेल किया है, पिछले चुनाव में यही खेल सुधीर कुमार अग्रवाल ने भी किया था - लेकिन उम्मीदवार के रूप में उन्हें इसका कोई फायदा नहीं हुआ था । अतुल कुमार गुप्ता के लिए मुश्किल कुछ ज्यादा इसलिए है क्योंकि उन्होंने अपने आप को बहुत जेनुइन रूप में पेश किया और यह दिखाने/जताने का प्रयास किया कि उन्हें प्रोफेशन की और युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सचमुच बड़ी फ़िक्र है - लेकिन उनके यहाँ काम पर रखे गए युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के हवाले से जो बातें सामने आ रही हैं वह बता रही हैं कि अतुल कुमार गुप्ता युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ ही कर रहे हैं । अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ काम कर रहे और कुछ ही दिन बाद उनके यहाँ से निकाले जाने की आशंका से घिरे युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स कह भी रहे हैं कि अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ होने की बजाये वह यदि अन्य किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के यहाँ नौकरी करते तो इतने दिनों में प्रोफेशन से जुड़ी बारीकियों को समझते/पहचानते, अनुभव प्राप्त करते और अपने कैरियर में कुछ कदम आगे बढ़ चुके होते । अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ काम करते हुए, उनके चुनाव अभियान से जुड़े काम करते हुए युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को अपने ठगे जाने का अहसास हो रहा है, क्योंकि इतने दिन काम करने के बदले में उन्हें कुछ भी मिलने नहीं जा रहा है - उनके लिए अपनी नौकरी तक बचा पाना भी मुश्किल ही होगा ।
अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ काम करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का यह 'अहसास' और मुखर रूप में प्रकट की जा रही उनकी चिंता अतुल कुमार गुप्ता के लिए मुसीबत बन गई है । उन्हें और उनके समर्थकों व शुभचिंतकों को लग रहा है कि इस तरह की बातें युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच अतुल कुमार गुप्ता की स्थिति को कमजोर करेंगी । अतुल कुमार गुप्ता के यहाँ काम करने वाले युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स यदि अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं, और मान रहे हैं तथा दूसरे लोगों से बता भी रहे हैं कि अतुल कुमार गुप्ता ने अपने चुनावी लाभ के लिए उन्हें इस्तेमाल किया है और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है, तो चुनाव में वोट देने वाले युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पर कोई अच्छा असर तो नहीं ही पड़ेगा और अतुल कुमार गुप्ता को नुकसान ही पहुंचाएगा ।

Tuesday, November 27, 2012

नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनाव में राधेश्याम बंसल के 'काम' को ही, उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है

नई दिल्ली । राधेश्याम बंसल की अति-सक्रियता ही रीजनल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में उनकी जैसे दुश्मन बन गई लगती है । नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में उनकी जोरदार सक्रियता ने उन्हें जीत की तरफ तो बढ़ाया है, लेकिन उनके विरोधियों को भी आक्रामक होने के लिए उकसाया है । उन्हें सफलता की तरफ बढ़ता देख कर उनके कामकाज को लेकर उन्हें घेरने के प्रयास उनके विरोधियों ने तेज कर दिए हैं । राधे श्याम बंसल को एंट्री का काम करने वाला बताते हुए लोगों के बीच सवाल किया जा रहा है कि ऐसे लोग काउंसिल में आयेंगे तो इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन के लिए आखिर करेंगे क्या ?
राधेश्याम बंसल इस बार दूसरी बार चुनाव लड़ रहे हैं । पिछली बार भी उन्होंने रीजनल काउंसिल का चुनाव लड़ा था और एक बड़े स्टडी सर्किल का सदस्य होने के बावजूद वह चुनाव हार गए थे । पिछली बार की अपनी हार के लिए उन्होंने अपने ही स्टडी सर्किल के मुखिया सुधीर अग्रवाल को जिम्मेदार ठहराया था । नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन रह चुके सुधीर अग्रवाल पिछली बार सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार थे । राधेश्याम बंसल का आरोप रहा कि सुधीर अग्रवाल ने स्टडी सर्किल के जरिये होने वाली राजनीति का सारा और एकतरफा इस्तेमाल अपने लिए किया, और उन्हें उसका फायदा नहीं लेने दिया । सुधीर अग्रवाल अपना चुनाव भी नहीं जीत पाए और राधेश्याम बंसल को भी हार का सामना करना पड़ा । राधेश्याम बंसल भी मानते थे और दूसरे लोगों ने भी माना कि स्टडी सर्किल के जरिये होने वाली राजनीति का इस्तेमाल यदि राधेश्याम बंसल के लिए भी होता तो राधेश्याम बंसल तो अपनी सीट निकाल ही सकते थे ।
यह 'समझने' के बाद राधेश्याम बंसल ने पहला काम यह किया कि सुधीर अग्रवाल की मुखियागिरी में चलने वाले स्टडी सर्किल को छोड़ कर अपना अलग एक स्टडी सर्किल बनाया । इस बार का नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का चुनाव उन्होंने अपने भरोसे लड़ने की तैयारी की और धुआँधार अभियान संयोजित किया । रीजनल काउंसिल के उम्मीदवारों में राधेश्याम बंसल का चुनाव अभियान सबसे ज्यादा तड़क-भड़क वाला रहा है और उन्होंने शुरू से ही पार्टियों पर खासा जोर दिया । जाहिर है कि उन्होंने अपने चुनाव अभियान में काफी पैसा खर्च किया है । एक उम्मीदवार के रूप में उन्हें इससे लाभ भी हुआ है । उन्हें जीतते हुए उम्मीदवार के रूप में देखा जाने लगा है ।
राधेश्याम बंसल के इसी लाभ ने लेकिन उनके सामने मुश्किलें भी खड़ी कर दी हैं । दूसरे उम्मीदवारों ने लोगों के बीच कहना शुरू किया है कि राधेश्याम बंसल पैसे के बल पर चुनाव जीतने की कोशिश कर रहे हैं । उनके खिलाफ उनके काम को ही हथियार बनाया जा रहा है । कहा/बताया जा रहा है कि वह एंट्री का काम करते हैं और इस कारण उन्हें इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन के सामने की चुनौतियों के बारे में कुछ पता ही नहीं है और उनके लिए काउंसिल में कुछ कर पाना संभव ही नहीं होगा । नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की मौजूदा दशा और दिशा का हवाला देते हुए तर्क दिया जा रहा है कि प्रोफेशन की चुनौतियों से अनजान लोग यदि काउंसिल में जाते हैं तो फिर वह काउंसिल का कबाड़ा ही करते हैं । इस तरफ की बातों ने राधेश्याम बंसल के सामने आकस्मिक रूप से मुश्किल तो खड़ी कर ही दी है । 

Monday, November 26, 2012

नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए राजेंद्र नारंग ने न सिर्फ अपने समर्थन-आधार को बनाये रखने का प्रयास किया, बल्कि नए समर्थन-आधार भी खोजे और तैयार किये हैं

नई दिल्ली/हिसार । राजेंद्र नारंग की उम्मीदवारी के समर्थन में दिल्ली में जो आवाजें सुनी जा रही हैं, उन आवाजों के शोर में रीजनल काउंसिल के कुछेक उन उम्मीदवारों की उम्मीदवारी के नारे धीमे पड़ते देखे जा रहे हैं, जो हिसार-सिरसा-भिवानी-रोहतक क्षेत्र के वोटों पर निगाह लगाये हुए थे । उल्लेखनीय है कि रीजनल काउंसिल के लिए कुछेक उम्मीदवारों ने तो सिर्फ इसी क्षेत्र के वोटों के भरोसे अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की थी, तो जिन लोगों ने जीतने के लिए बड़ा दांव चला हुआ है उनकी नज़र भी इस क्षेत्र के वोटों पर रही है । लेकिन राजेंद्र नारंग की उम्मीदवारी को मिलते दिख रहे समर्थन ने सभी के गणित बिगाड़ दिए हैं । मजे की बात है कि शुरू में कोई भी राजेंद्र नारंग की उम्मीदवारी को गंभीरता से नहीं ले रहा था । राजेंद्र नारंग ने पिछले दो चुनावों में भी अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत किया था, किन्तु वह सफल नहीं हो पाए थे । पिछले चुनाव में हालाँकि वह बहुत ही मामूली अंतर से पिछड़ गए थे - लेकिन चूंकि वह लगातार दूसरी बार पिछड़े थे, इसलिए इस बार शुरू में उनकी उम्मीदवारी को कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा था । इसीलिये उनकी उम्मीदवारी के प्रस्तुत होने के बावजूद कई एक उम्मीदवारों को उनके समर्थन आधार वाले क्षेत्र से वोट मिलने का भरोसा था । ऐसा भरोसा रखने वाले लोगों का मानना और कहना था कि दो बार पिछड़ने के कारण राजेंद्र नारंग के प्रति समर्थन का भाव उनके अपने समर्थन-आधार क्षेत्र में बुरी तरह घट गया है - क्योंकि अब उनके अपने बहुत खास लोग भी यह विश्वास करने को तैयार नहीं हैं कि वह जीतने लायक समर्थन जुटा सकेंगे ।
राजेंद्र नारंग को कम आंकने वाले लोगों ने लेकिन इस बात की पूरी तरह अनदेखी की कि दो बार असफल रहने के बावजूद राजेंद्र नारंग ने हिम्मत नहीं हारी है और अपनी असफलताओं से सबक लेकर उन्होंने काफी पहले से ही तैयारी शुरू कर दी है । उन्होंने न सिर्फ अपने समर्थन-आधार को बनाये रखने का प्रयास किया, बल्कि नए समर्थन-आधार भी खोजे और तैयार किये । यही कारण रहा कि जब चुनावी भाग-दौड़ सचमुच शुरू हुई तो राजेंद्र नारंग को कमजोर आँक रहे लोगों को यह देख कर तगड़ा झटका लगा कि राजेंद्र नारंग को न सिर्फ अपने समर्थकों से और ज्यादा जोश के साथ समर्थन मिल रहा है, बल्कि उनके सक्रिय समर्थकों की संख्या भी बढ़ी है । राजेंद्र नारंग ने इस बार एक बड़ा काम यह किया कि उन्होंने रीजन के बड़े सेंटर्स में अपनी पहचान बनाने पर जोर दिया । पंजाब और हरियाणा में आने वाली प्रमुख ब्रांचेज में अपनी पैठ बनाने सा साथ-साथ राजेंद्र नारंग ने दिल्ली में भी अपने समर्थकों को सक्रिए होने ही नहीं, 'दिखने के लिए भी प्रेरित करने का काम किया । उनकी इस तैयारी ने असर दिखाया; जिसका नतीजा यह निकला कि उनकी उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच स्वीकार्यता और समर्थन का भाव तो पैदा हुआ ही, उनकी उम्मीदवारी का ऑरा (आभामंडल) भी बना । यही वजह है कि नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में जिन उम्मीदवारों की जीत को सुनिश्चित समझा जा रहा है उनमें राजेंद्र नारंग का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है ।

Sunday, November 25, 2012

आरके गौड़ को अपनी जुझारू पहचान के भरोसे, युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का समर्थन पाने की कोशिशों में लगे दूसरे उम्मीदवारों की तुलना में ज्यादा स्पेस मिलता दिख रहा है

नई दिल्ली । आरके गौड़ की चुनावी सक्रियता ने युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वोटों पर नजर लगाये उम्मीदवारों की उम्मीदों को तगड़ा झटका दिया है । उल्लेखनीय है कि युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स - यानि पिछले चुनाव के बाद प्रोफेशन से जुड़े लोगों पर इस बार कई उम्मीदवारों की निगाह रही है । इसके दो कारण बने : एक तो यह कि इनकी संख्या अच्छी.खासी है; और दूसरा यह कि कई कारणों से यह तबका अपनी स्थिति से नाखुश है । इसलिए कई एक लोगों को लगा कि इनकी नाखुशी को भड़का कर इन्हें अपना वोट बनाया जा सकता है; और इनके वोटों की सवारी करके इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में पहुंचा जा सकता है । रीजनल काउंसिल से सेंट्रल काउंसिल में छलांग लगाने की तैयारी करने वाले अतुल कुमार गुप्ता और संजय कुमार अग्रवाल, सेंट्रल काउंसिल में जाने के लिए एक बार फिर प्रयास करने वाले एमके अग्रवाल, पिछली बार की हार को जीत में बदलने की कोशिश करने वाले विजय कुमार गुप्ता ने युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पर खास ध्यान देना शुरू किया । प्रोफेशन में और प्रोफेशन में जुड़े लोगों के साथ जो कुछ भी बुरा हो रहा है, उसके लिए मौजूदा सेंट्रल काउंसिल सदस्यों को जिम्मेदार ठहराने पर इन्होंने ज्यादा जोर और ध्यान दिया । इन्होंने खासा सघन और आक्रामक चुनाव अभियान चलाया - लेकिन जैसे.जैसे चुनाव अभियान में तेजी आई वैसे.वैसे यह साफ होने लगा कि इनके चुनाव अभियान को लोगों के बीच विश्वसनीयता और स्वीकार्यता नहीं मिल पा रही है । इनके लिए इससे भी ज्यादा झटके की बात यह रही कि युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच इनके मुकाबले आरके गौड़ की विश्वसनीयता और स्वीकार्यता ज्यादा बनी । मजे की बात यह रही कि यह विश्वसनीयता और स्वीकार्यता तब बनी जबकि आरके गौड़ ने इसके लिए कोई ज्यादा योजनाबद्ध तरीके से प्रयत्न भी नहीं किया । ‘बिन मांगे मोती मिलें, और मांगे मिले न भीख’ वाला मुहावरा यहाँ चरितार्थ होता हुआ नजर आया । युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वोटों को जुटाने के लिए जिन उम्मीदवारों ने योजना बनाई और योजना के अनुसार काम किया, उन्हें तो कुछ मिलता हुआ नजर नहीं आया; लेकिन जिन आरके गौड़ ने योजना बनाये बिना अपनी उपस्थिति को प्रकट किया उनके प्रति युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच समर्थन का भाव दिखा । इसका कारण यह रहा कि युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने उम्मीदवारों की बातों पर ही विश्वास नहीं किया, बल्कि यह जानने/देखने का भी प्रयास किया कि उम्मीदवार जो कह रहे हैं उनमें सच्चाई कितनी है । ऐसा करते हुए उन्होंने पाया कि जो उम्मीदवार बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं वह सिर्फ चुनावी मौसम में उन्हें दिखाने/सुनाने के लिए कर रहे हैं; जबकि आरके गौड़ उस समय भी प्रोफेशन में की मुश्किलों तथा इंस्टीट्यूट चला रहे लोगों की मनमानियों के खिलाफ लड़ रहे थे जब चुनाव का मौसम नहीं था । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि पिछले चुनाव में जमकर धांधली हुई थी, और इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन को लज्जित करने वाला बूथ केप्चरिंग कांड हुआ था - लेकिन चुनाव के बाद, काउंसिल का गठन हो जाने के बाद विजय कुमार गुप्ता, एमके अग्रवाल, अतुल कुमार गुप्ता, संजय कुमार अग्रवाल कहाँ थे और क्या कर रहे थे ? विजय कुमार गुप्ता और एमके अग्रवाल तो घर जा कर बैठ गये थे; जबकि अतुल कुमार गुप्ता और संजय कुमार अग्रवाल रीजनल काउंसिल में सत्ता का सुख भोग रहे थे । इनमें से कोई भी इस बात की चिंता तक प्रकट नहीं कर रहा था कि इंस्टीट्यूट में और प्रोफेशन में कहाँ क्या गलत हो रहा है । उस समय लेकिन आरके गौड़ इंस्टीट्यूट में हो रही गड़बडि़यों को सामने लाने तथा उनके संदर्भ में कार्रवाई करने/करवाने के अभियान में लगे हुए थे । इसी कारण से, युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच आरके गौड़ की उम्मीदवारी के प्रति ज्यादा विश्वास और स्वीकार्य का भाव दिखा है ।
युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वोटों को कब्जाने की तिकड़म लगाने वाले उम्मीदवारों ने एक गलती और की और वह यह कि मौजूदा काउंसिल सदस्यों में उन्होंने कमजोर से ‘दिखने’ वाले सदस्यों के खिलाफ ज्यादा हल्ला मचाया हुआ है और चुनावी नजरिये से जो सदस्य मजबूत दिख रहे हैं, उनके खिलाफ कुछ भी कहने से परहेज किया हुआ है । सेंट्रल काउंसिल में ‘घुसने’ की तिकड़म में लगे उम्मीदवारों ने पंकज त्यागी और विनोद जैन को घेरने पर ज्यादा जोर दिया हुआ है; जबकि नवीन गुप्ता, संजय वायस ऑफ सीए अग्रवाल, चरनजोत सिंह नंदा को छोड़ा हुआ है । उन्हें लगता है कि नवीन गुप्ता, संजय वायस ऑफ सीए अग्रवाल, चरनजोत सिंह नंदा तो अपनी सीट बचा ही लेंगे; लेकिन यदि वह शोर मचायेंगे और युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को भड़कायेंगे तो पंकज त्यागी व विनोद जैन को लपेटे में ले लेंगे । युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने लेकिन इस ‘खेल’ को लगता है कि समझ लिया है; और वह सवाल उठाने लगे हैं कि इंस्टीट्यूट में यदि गड़बडि़याँ हो रही हैं, और सेंट्रल काउंसिल में बैठे लोग प्रोफेशन की तथा प्रोफेशन से जुड़े लोगों की कोई चिंता नहीं कर रहे हैं तो सेंट्रल काउंसिल के सभी सदस्य इसके लिए दोषी और जिम्मेदार क्यों नहीं हैं - केवल कुछ ही सदस्य जिम्मेदार क्यों बताये जा रहे हैं ? नवीन गुप्ता को, संजय वायस ऑफ सीए अग्रवाल को, चरनजोत सिंह नंदा को निशाने पर लेने से परहेज क्यों किया जा रहा है ? सिर्फ पंकज त्यागी और विनोद जैन को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है ? उल्लेखनीय है कि सेंट्रल काउंसिल के मौजूदा सदस्यों में तुलनात्मक रूप से सबसे खराब परफोरमेंस नवीन गुप्ता की मानी/समझी जाती है । लोग शिकायत करते हैं कि काउंसिल में प्रोफेशन से और प्रोफेशन से जुड़े लोगों के हित में मुद्दे उठाना तो दूर, वह उनके फोन तक नहीं उठाते हैं । इसके बावजूद, उन्हें निशाना नहीं बनाया गया है । नवीन गुप्ता के प्रति आम लोगों की नाराजगी तो खुल कर सुनी जा रही है, लेकिन इंस्टीट्यूट की गड़बडि़यों की जोरशोर से बातें करने वाले उम्मीदवारों के मुँह से उनके बारे में कभी एक शब्द नहीं सुना गया । इसका कारण यही है कि सभी यह मानते हैं कि नवीन गुप्ता भले ही किसी काम के न हों, लेकिन अपने पिता के संपर्कों की बदौलत चुनाव तो वह जीत ही जायेंगे । इसलिए उनके बारे में बात करके समय क्यों खराब किया जाये ? इसी तरह के रवैये से, युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को भड़का कर, उनके बीच अपने लिए समर्थन पैदा करने की कोशिशों में लगे उम्मीदवारों की पोल खुल रही है । इंस्टीट्यूट में हो रही गड़बडि़यों और उन गड़बडि़यों के लिए जिम्मेदार पदाधिकारियों का जिक्र सभी का ध्यान खींचता है । लिहाजा, विजय कुमार गुप्ता, एमके अग्रवाल, अतुल कुमार गुप्ता आदि जब इस तरह की बातें करते हैं, तो बातों को सुन कर लोग मजा तो खूब लेते हैं - लेकिन इनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते ।
ऐसा नहीं है कि युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स - या सीनियर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स भी - इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन की मौजूदा दशा से निराश और नाराज नहीं हैं; वह निराश और नाराज हैं और चाहते हैं कि उन्हें ऐसी लीडरशिप मिले जो इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन की दशा को बेहतर बनाने के लिए सिर्फ बातें न बनाये - बल्कि सचमुच में कुछ करे । कम से कम निरंतरता में कुछ करता हुआ ‘दिखे’ तो । युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की यही चाहत आरके गौड़ को, दूसरे अति सक्रिय दिखने वाले उम्मीदवारों की तुलना में ज्यादा और बड़ा स्पेस देती है । आरके गौड़ को यह ज्यादा और बड़ा स्पेस इसलिए भी मिला है, क्योंकि एक जुझारू पहचान के भरोसे उनकी पैठ सीनियर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच भी है । आरके गौड़ चूंकि पिछले कई वर्षों से इंस्टीट्यूट की गतिविधियों से लगातार संबद्ध रहे हैं, इसलिए वह तरह.तरह से कामकाजी चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ जुड़े रहे हैं और उनके काम आते रहे हैं । इस कारण से, सीनियर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच उनका न सिर्फ पहचान का बल्कि विश्वास का भी संबंध है । सीनियर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का एक बड़ा तबका मानता और चाहता है कि इंस्टीट्यूट में यदि गड़बडि़यों को रोकना है, इंस्टीट्यूट के पदाधिकारियों को यदि मनमानी करने से रोकना है तो आरके गौड़ को और उनके जैसे लोगों को सेंट्रल काउंसिल में भेजना चाहिए । सीनियर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से मिलने वाला यह फीडबैक युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच आरके गौड़ की पहचान को तथा उनकी स्वीकार्यता को और गहरा ही करता है ।

Saturday, November 24, 2012

जेके गौड़ को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद की जीत की तरफ बढ़ता देख कर मुकेश अरनेजा ने गिरगिट की तरह रंग बदल कर उनका समर्थन करना शुरु कर दिया है

नई दिल्ली । जेके गौड़ के अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने से खिसिआये और निराश हुए लोगों को यह देख कर 'उम्मीद' बनी है कि मुकेश अरनेजा अब जेके गौड़ के समर्थन में कूद पड़े हैं । यह अब जगजाहिर बात हो चुकी है कि मुकेश अरनेजा जिसके दोस्त हो जाते हैं, उस बिचारे को दुश्मनों की जरूरत नहीं रह जाती - मुकेश अरनेजा की दोस्ती ही उसका काम तमाम कर देती है । हाल के दिनों में रवि चौधरी के साथ जो हुआ, और फिर अभी आलोक गुप्ता के साथ जो हुआ - उसमें इसके संकेत और सुबूत देखे जा सकते हैं । पिछले रोटरी वर्ष में रवि चौधरी को कई लोगों ने समझाया था कि मुकेश अरनेजा के साथ रहोगे तो निश्चित ही डूबोगे । इस वर्ष आलोक गुप्ता को कई लोगों ने रवि चौधरी के अनुभव से सबक लेने की नसीहत दी थी - लेकिन इन दोनों ने किसी की नहीं सुनी और मुकेश अरनेजा के समर्थन की कीमत चुकाई । इसी आधार पर, मुकेश अरनेजा को जेके गौड़ के समर्थन में जाता देख कर उन लोगों की बाँछे खिल गई हैं जो जेके गौड़ को सफल होते हुए नहीं देखना चाहते हैं ।
मुकेश अरनेजा को जेके गौड़ के समर्थन में आया देख कर उनके समर्थकों और शुभचिंतकों को भी चिंता हुई है कि मुकेश अरनेजा के कारण जेके गौड़ का बना/बनाया काम कहीं बिगड़ न जाये । जेके गौड़ के समर्थकों व शुभचिंतकों के लिए हैरानी की बात यह भी है कि जेके गौड़ के नोमीनेट होने के पहले तक मुकेश अरनेजा से जब भी समर्थन की बात की जाती थी, तब तो वह टाल-मटोल करते थे, और कभी रवि चौधरी तो कभी आलोक गुप्ता का समर्थन करने की बात करते थे - लेकिन जेके गौड़ के नोमीनेट होते ही मुकेश अरनेजा ने गिरगिट को भी मात देने वाले अंदाज़ में रंग बदला और जेके गौड़ के सबसे बड़े समर्थक बन गए । मुकेश अरनेजा ने यह रंग क्यों बदला ? उन्हें जानने वालों का कहना है कि मुकेश अरनेजा ने चूंकि भांप लिया है कि इस वर्ष डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद का चुनाव जेके गौड़ ही जीतने जा रहे हैं, इसलिए उन्होंने बिना देर किये जेके गौड़ की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया है - ताकि उनकी जीत का श्रेय वह ले सकें और लोगों को बता सकें कि उन्होंने जेके गौड़ को जितवा दिया ।
एक सच्चे नेता में और एक टुच्चे नेता में यही प्रमुख अंतर बताया/पाया जाता है कि एक सच्चा नेता जिसके साथ होता है उसे जितवाने का प्रयास करता है और असफल होने पर अपनी कमजोरियों का मूल्यांकन करता है; जबकि टुच्चा नेता होता किसी और के साथ है लेकिन जब जीतता हुआ कोई और दिखता है तो झट से पाला बदल कर जीतते हुए के साथ हो जाता है ।
मुकेश अरनेजा के लिए लोगों का कहना है कि यदि वह सचमुच में इतने जिताऊ नेता हैं तो अपने क्लब के ललित खन्ना को जितवाने में क्यों नहीं जुटते ? ललित खन्ना न सिर्फ उनके क्लब के हैं, बल्कि उनके बड़े खास भी रहे हैं और उनके प्रेरित करने के चलते ही उम्मीदवार बने हैं । मुकेश अरनेजा लेकिन उनकी कोई बात ही नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि ललित खन्ना के जीतने के कोई चांस नहीं हैं ।
मुकेश अरनेजा अब कोई सच्चे नेता तो हैं नहीं, जो हारते नज़र आ रहे उम्मीदवार के साथ हों - भले ही वह उनके क्लब का हो, उनका बड़ा खास हो और उनके प्रेरित करने पर ही उम्मीदवार बना हो ! मुकेश अरनेजा को तो जीतने वाले उम्मीदवार के साथ दिखना है - ताकि वह लोगों को बता और जता सकें कि उसे उन्होंने जितवाया है ।
मुकेश अरनेजा ने अपनी नेतागिरी चलाने के लिए जेके गौड़ की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया है, इससे लेकिन जेके गौड़ की उम्मीदवारी के समर्थकों व शुभचिंतकों को चिंता हो गई है । उन्हें डर यह हुआ है कि मुकेश अरनेजा के आगे आने के कारण कई दूसरे प्रमुख नेता बिदक सकते हैं और जेके गौड़ की उम्मीदवारी से हाथ खींच सकते हैं - और तब कहीं जेके गौड़ का बना/बनाया काम ख़राब न हो जाये । जेके गौड़ के समर्थकों व शुभचिंतकों का मानना और कहना है कि जेके गौड़ ने बिना किसी नेता के समर्थन के - अपनी सक्रियता और अपने व्यवहार से लोगों के बीच अपनी पैठ बनाई है, तथा दूसरे उम्मीदवारों से आगे बढ़े हैं । उन्हें डर हुआ है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए जेके गौड़ का जो दावा मजबूत हुआ है, वह कहीं मुकेश अरनेजा की टुच्चाई के कारण कमजोर न पड़ जाये ।

अरूण आनंदगिरी के कारण शिवाजी जावरे को जो फजीहत झेलनी पड़ी है, उसका फायदा सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में सुधीर पंडित को मिलता नजर आ रहा है

पुणे। सुधीर पंडित की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उम्मीदवारी को पुणे की प्रमुख चार्टर्ड एकाउंटेंट फर्म्स का जिस तरह समर्थन मिलता दिख रहा है, उससे शिवाजी जावरे के लिए अपनी सीट बचाने का संकट पैदा हो गया नजर आ रहा है । शिवाजी जावरे के लिए संकट इसलिए और गंभीर है क्योंकि सुधीर पंडित को जिन फर्म्स का समर्थन मिल रहा है उन्होंने पिछली बार शिवाजी जावरे का समर्थन किया था । शिवाजी जावरे के ही समर्थकों व शुभचिंतकों का मानना और कहना है कि शिवाजी जावरे को अपनी सीट बचाने के लिए नये समर्थन आधार तलाशने होंगे तथा और ज्यादा मेहनत करना होगी । उल्लेखनीय है कि शिवाजी जावरे का सेंट्रल काउंसिल का कार्यकाल खासा विवादपूर्ण रहा है, जिस कारण लोगों के बीच उनकी साख काफी घटी है । शिवाजी जावरे के लिए मुसीबत की बात यह हुई है कि लोगों के बीच उनकी सिर्फ साख ही नहीं घटी है, बल्कि उनके कई समर्थक व शुभचिंतक तक उनके खिलाफ हो गये हैं । पिछली बार सेंट्रल काउंसिल उम्मीदवार के रूप में उन्हें वोट देते हुए चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को उम्मीद थी कि वह उनके लिए ऐसा कुछ करेंगे जिससे कि उनके लिए काम के और अवसर पैदा हों तथा प्रोफेशन में उन्हें भी आगे बढ़ने का मौका मिले । शिवाजी जावरे लेकिन ऐसा कुछ कर सकने में असफल रहे । उनकी इस असफलता ने उन युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को बहुत निराश किया, जो उनसे खास उम्मीद लगाये बैठे थे । शिवाजी जावरे के लिए मुसीबत की बात यह हुई है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को निराश करने के साथ साथ लोगों के साथ व्यावहारिक संबंध बनाये रखने तक में वह पिछड़ गये । हालत यह हुई कि लोगों के बीच, अपने प्रोफेशन के लोगों के बीच उनके संबंधों का मैनेजमेंट पूरी तरह बिगड़ गये ।
शिवाजी जावरे को इस बिगड़े मैनेजमेंट के कारण ही पुणे में आयोजित वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की डायमंड जुबली कांफ्रेंस में उस समय काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी जब कांफ्रेंस का उद्घाटन करते हुए रीजनल काउंसिल के चेयरपरसन ने उनकी तरफ इशारा करते हुए पुणे के अत्यंत सक्रिय चार्टर्ड एकाउंटेंट अरूण आनंदगिरी के साथ की गई बदतमीजी के लिए सार्वजनिक रूप से भर्त्सना की । शिवाजी जावरे पर आरोप रहा कि उन्होंने अरूण आनंदगिरी को शारीरिक चोट पहुंचवाने का प्रयास किया । अरूण आनंदगिरी ने इस आशय का एक शिकायत पत्र इंस्टीट्यूट को भेजा और शिवाजी जावरे के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की । शिवाजी जावरे की तरफ से अरूण आनंदगिरी पर उक्त शिकायत पत्र को वापस लेने के लिए तरह.तरह से दबाव डाला जा रहा था । शिवाजी जावरे की उपस्थिति में अरूण आनंदगिरी पर हुए हमले को इसी दबाव के तहत देखा/पहचाना जा रहा था । शिवाजी जावरे ने इस संबंध में पूछे जाने पर पत्रकारों के बीच यह तो स्वीकार किया कि उनके खिलाफ की गई शिकायत को लेकर उनके कुछेक समर्थकों ने नाराजगी व्यक्त की थी; लेकिन उन्होंने कहा कि उनकी नाराजगी का निशाना अरूण आनंदगिरी नहीं थे । रीजनल काउंसिल के चेयरपरसन ने अरूण आनंदगिरी पर हुए हमले की भर्त्सना करते हुए पत्रकारों को बताया था कि अरूण आनंदगिरी की शिकायत को लेकर उन्होंने इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष से बात की है और अध्यक्ष ने उन्हें आश्वस्त किया है कि वह तथ्यों को देखेंगे और जल्दी ही उचित कार्रवाई करेंगे । कार्रवाई क्या होनी थी - यह तो सभी को पता था । शिवाजी जावरे इस बात पर तो राहत महसूस कर सकते हैं कि अरूण आनंदगिरी की शिकायत पर इंस्टीट्यूट में उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन अरूण आनंदगिरी ने जो कुछ किया - उसके चलते शिवाजी जावरे की फजीहत बहुत हुई । फजीहत का कारण यह रहा कि तकनीकी आधार पर तो शिवाजी जावरे के खिलाफ मामला नहीं बना; लेकिन शिवाजी जावरे के खिलाफ जो आरोप रहा उसका एक नैतिक पक्ष है, जहां शिवाजी जावरे फँसे दिखते हैं ।
अरूण आनंदगिरी का आरोप था कि सेंट्रल काउंसिल सदस्य होने के कारण शिवाजी जावरे की कोचिंग संस्था जावरे’ज प्रोफेशनल एकेडमी प्राइवेट लिमिटेड को इंस्टीट्यूट की पुणे ब्रांच से ट्रेनिंग कांट्रेक्ट नहीं मिलना चाहिए था । यह नैतिक आदर्शों के खिलाफ था और यह दर्शाता है कि सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में शिवाजी जावरे अपने पद का दुरूपयोग कर रहे हैं । शिवाजी जावरे का लेकिन कहना रहा कि उक्त कांट्रेक्ट उन्हें जब मिला था, तब वह इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के सदस्य नहीं थे । शिवाजी जावरे का कहना बिल्कुल सही है - लेकिन पेंच यह है कि शिवाजी जावरे जब सेंट्रल काउंसिल के सदस्य बन गये, तब उन्होंने उक्त कांट्रेक्ट को छोड़ा क्यों नहीं या पुणे ब्रांच ने उनका कांट्रेक्ट रद्द क्यों नहीं किया ? वह रद्द तब हुआ, जब अरूण आनंदगिरी ने इंस्टीट्यूट में इसकी शिकायत की । इंस्टीट्यूट ने अरूण आनंदगिरी की शिकायत मिलने पर शिवाजी जावरे का कांट्रेक्ट तो रद्द कर दिया, लेकिन शिवाजी जावरे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की । इस संबंध में इंस्टीट्यूट ने बड़ा मजेदार जबाव दिया । इंस्टीट्यूट के सचिव ने बताया कि इस तरह के मामलों को लेकर चूंकि स्पष्ट नियम नहीं हैं, इसलिए इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है । मजे की बात यही है कि इंस्टीट्यूट जब यह मान रहा है कि कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है, तो फिर उसने उक्त कांट्रेक्ट रद्द क्यों कर दिया ? ‘कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती’ का तर्क देने वाले इंस्टीट्यूट ने लेकिन कार्रवाई तो की - आरोप यह है कि उसने अधूरी कार्रवाई की । जाहिर तौर पर इंस्टीट्यूट ने यह तो माना कि ‘अपराध’ हुआ है, लेकिन उसने इस सवाल पर धूल डाल दी कि अपराध किया किसने है ? इंस्टीट्यूट ने शिवाजी जावरे का कांट्रेक्ट रद्द करके यह तो मान ही लिया कि शिवाजी जावरे के पास उक्त कांट्रेक्ट का होना गलत था - लेकिन वह इस गलती के लिए जिम्मेदारी तय नहीं करना चाहता । अरूण आनंदगिरी का कहना यही था कि इंस्टीट्यूट को अधूरा फैसला नहीं करना चाहिए; उसने जब मान लिया है कि शिवाजी जावरे के पास जो कांट्रेक्ट था, वह नहीं होना चाहिए था - इसीलिए उसने शिवाजी जावरे को मिले कांट्रेक्ट को रद्द किया/करवाया; तो फिर इस गलती के लिए वह जिम्मेदारी तय करने से बचने की कोशिश क्यों कर रहा है ? अरूण आनंदगिरी के इस सवाल ने शिवाजी जावरे को इंस्टीट्यूट से क्लीन चिट मिलने के बावजूद आरोपों के घेरे में चूंकि फंसाये रखा, इसलिए शिवाजी जावरे का परेशान होना और भड़कना स्वाभाविक ही था ।
अरूण आनंदगिरी को चुप कराने के लिए शिवाजी जावरे को तब गुंडागर्दी का सहारा लेने का उपाये ही सूझा । उनकी मौजूदगी में कुछेक लोगों ने अरूण आनंदगिरी को धमकाने और शिवाजी जावरे के खिलाफ की गई शिकायत को वापस लेने के लिए दबाव बनाने का काम किया और अरूण आनंदगिरी को शारीरिक चोट पहुंचाने की कोशिश की । इस घटना से शिवाजी जावरे के लिए बात और बिगड़ गई । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के उनके जैसे सदस्य के लिए यह वास्तव में शर्मिंदगी की बात रही कि उनके अपने शहर पुणे में आयोजित हो रही वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की डायमंड जुबली कांफ्रेंस का उद्घाटन करते हुए रीजनल काउंसिल के चेयरपरसन ने उनकी तरफ इशारा करते हुए अरूण आनंदगिरी के साथ की गई बदतमीजी के लिए सार्वजनिक रूप से भर्त्सना की । इस प्रसंग से जो एक बात साबित हुई वह यह कि शिवाजी जावरे को प्रतिकूल स्थितियों से निपटना नहीं आता है, और प्रतिकूल स्थितियों से निपटने की कोशिश में वह अपनी फजीहत और करा लेते हैं । यहाँ यह रेखांकित करना प्रासंगिक होगा कि पिछले चुनाव में अरूण आनंदगिरी ने भी सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की थी, लेकिन चुनावी जीत उनके मुकाबले शिवाजी जावरे को मिली । शिवाजी जावरे लेकिन अपनी जीत का बड़प्पन नहीं बनाये रख सके । इसी का नतीजा यह हुआ है कि अरूण आनंदगिरी से चुनावी मुकाबला जीत जाने वाले शिवाजी जावरे उन्हीं अरूण आनंदगिरी से सामाजिक पहचान और छवि की लड़ाई में ‘पिट’ गये । अरूण आनंदगिरी ने उन्हें पुणे से लेकर दिल्ली तक ऐसा घेरा कि वह उस घेरे से निकलने की कोशिश में - अपने ऐटीट्यूड के चलते - बल्कि फँसते और चले गये । शिवाजी जावरे ने अपने इसी ऐटीट्यूट के कारण अपने कई साथियों को अपने खिलाफ कर लिया है ।
शिवाजी जावरे के लिए समस्या की बात यह हुई है कि उनके खिलाफ हुए उनके साथी सुधीर पंडित के साथ खड़े नजर आ रहे हैं । अरूण आनंदगिरी के कारण शिवाजी जावरे को जो फजीहत झेलनी पड़ी है, उसका फायदा तो सुधीर पंडित को मिलने की उम्मीद बनी ही है; शिवाजी जावरे ने अपने ऐटीट्यूड के कारण अपने जो नये दुश्मन बना लिए हैं उनके सुधीर पंडित के साथ जा खड़े होने के कारण शिवाजी जावरे की मुश्किलें और बढ़ गई हैं । को-ऑपरेटिव क्षेत्र में अपनी संलग्नता के चलते सुधीर पंडित की पुणे में और आसपास के शहरों में काफी सक्रियता रही है । इस क्षेत्र में अग्रणी जनता सहकारी बैंक के डायरेक्टर के रूप में सुधीर पंडित की भूमिका की इस नाते काफी प्रशंसा रही है कि कभी संकट से जूझ रहे इस बैंक को न सिर्फ संकट से उबारने में बल्कि उसे इस क्षेत्र के प्रमुख सहकारी बैंक के रूप में स्थापित करने में उन्होंने न सिर्फ महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक भूमिका निभाई है । जनता सहकारी बैंक के संदर्भ में इस भूमिका के कारण सुधीर पंडित की लोगों के बीच खासी साख है, जो अब इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में उनके काम आ रही है । सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में सुधीर पंडित को अपनी साख का फायदा तो मिलता दिख ही रहा है, साथ ही शिवाजी जावरे के प्रति लोगों के बीच बढ़ी नाराजगी व निराशा के कारण भी उन्हें लोगों के बीच समर्थन मिलता नजर आ रहा है । सुधीर पंडित के लिए चुनौती बस सिर्फ यही है कि वह इस समर्थन को वोट में कैसे बदलें ?

Thursday, November 22, 2012

निहार जम्बूसारिया को रिलायंस कनेक्शन के जाल में घेरने और फँसाने की तरूण घिया की रणनीति ने चुनाव को दिलचस्प बना दिया है

मुंबई। तरूण घिया ने चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी को जीत में बदलने के लिए कंपनी प्रतिनिधियों के खिलाफ जो अभियान छेड़ा/छिड़वाया हुआ है, उसने निहार जम्बुसारिया की उम्मीदवारी के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी है। उल्लेखनीय है कि तरूण घिया और उनके समर्थक अलग.अलग तरीकों से लोगों को आगाह कर रहे हैं कि सेंट्रल काउंसिल में उन्हें ऐसे उम्मीदवारों का समर्थन नहीं करना चाहिए जो किन्हीं कंपनियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका तर्क है कि कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले उम्मीदवार सेंट्रल काउंसिल में पहुंच जाते हैं तो वहाँ वह इंस्टीट्यूट के और या प्रोफेशन के हितों का ध्यान नहीं रखते हैं, बल्कि अपनी कंपनी के हितों के अनुसार काम करते हैं। तरूण घिया के इस अभियान के निशाने पर निहार जम्बुसारिया को देखा/पहचाना जा रहा है। तरूण घिया और निहार जम्बुसारिया के बीच कुछ पुरानी खुन्नस की लोगों के बीच पहले से भी चर्चा है। रीजनल काउंसिल में निहार जम्बुसारिया तो चेयरपरसन बनने में कामयाब हो गये थे, लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद तरूण घिया वहां चेयरपरसन नहीं बन सके - इस तथ्य ने इन दोनों के बीच की कड़बाहटभरी दूरी को और बढ़ाने का ही काम किया। यह तथ्य दोनों के बीच कड़बाहट का कारण इसलिए बना क्योंकि दोनों का समर्थन आधार एक ही है। सेंट्रल काउंसिल के पिछले चुनाव में बहुत ही मामूली अंतर से आगे पीछे रहते हुए दोनों ही चुने जाने से रह गये थे; और अपनी अपनी हार के लिए दोनों ने एक दूसरे को ही जिम्मेदार ठहराया था। इस बार भी, दोनों के ही सिर पर यह डर सवार है कि दूसरा उसके समर्थक तो नहीं तोड़ रहा है क्या ?
पिछले चुनाव के बाद, निहार जम्बुसारिया ने रिलायंस समूह ज्वाइन किया है - जिसके चलते इस बार उनकी उम्मीदवारी को पिछली बार की तुलना में ज्यादा मजबूत माना/समझा जा रहा है। ऐसे में, तरूण घिया के लिए डर यह पैदा हुआ है कि रिलायंस समूह के वोटों के कारण निहार जम्बुसारिया को जो फायदा होगा, उसके मनोवैज्ञानिक असर के चलते तरूण घिया के वोट भी निहार जम्बुसारिया की तरफ आकर्षित होंगे और तब तरूण घिया के सामने अपने वोटों को अपने साथ बनाये रखना भी मुश्किल होगा। समर्थन आधार एक होने के कारण तरूण घिया को यह डर सता रहा है कि रीजनल काउंसिल में उन्हें जिस तरह निहार जम्बुसारिया से पिछड़ना पड़ा - उसी तरह कहीं उन्हें सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में भी निहार जम्बुसारिया से मात न खानी पड़े। तरूण घिया पिछले चुनाव में जीत नहीं पाये थे, लेकिन उन्हें इस बात का  संतोष रहा कि उन्हें निहार जम्बुसारिया से ज्यादा वोट मिले - भले ही यह ज्यादा कोई ‘बहुत ज्यादा’ नहीं थे। पिछली बार का यह ‘संतोष’ कहीं इस बार उनसे न छिन जाये - इसलिए तरूण घिया ने कंपनी का प्रतिनिधित्व करने वाले उम्मीदवार की आड़ में निहार जम्बुसारिया के खिलाफ खुला अभियान छेड़ दिया है। निहार जम्बुसारिया इस अभियान के चलते भारी दबाव में हैं। रिलायंस कनेक्शन के भरोसे उन्हें अपनी जो लड़ाई आसान दिख रही थी, तरूण घिया के अभियान के चलते वह मुश्किल में फंस गई दिख रही है। रिलायंस कनेक्शन के कारण निहार जम्बुसारिया को फायदा होने के दावे को लेकर कई लोगों को हालांकि शक भी था। ऐसे लोगों का कहना रहा है कि जिस रिलायंस कनेक्शन के कारण भावना दोषी को इंस्टीट्यूट के चुनाव से बाहर बैठने के लिए मजबूर होना पड़ा है, वही रिलायंस कनेक्शन निहार जम्बुसारिया के लिए फायदेमंद कैसे हो सकता है ?
उल्लेखनीय है कि भावना दोषी को अपने पति गौतम दोषी के रिलायंस की ‘सेवा’ करने के चक्कर में जेल जाने के कारण मिली बदनामी के चलते ही सेंट्रल काउंसिल की चुनावी राजनीति से बाहर होने के लिए मजबूर होना पड़ा है। यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि गौतम दोषी खुद भी सेंट्रल काउंसिल में दो टर्म सदस्य रह चुके हैं। इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में भावना दोषी ने सफलता की जो सीढि़यां तेजी से चढ़ीं हैं, वह हालांकि उनके व्यक्तित्व की अपनी काबिलियत और उनकी अपनी क्षमताओं भरी सक्रियता का ही नतीजा है, लेकिन गौतम दोषी की पहले से ही बनी प्रतिष्ठापूर्ण पहचान तथा उनके ऑरा का भी फायदा भावना दोषी को मिला ही है। भावना दोषी को गौतम दोषी की प्रतिष्ठापूर्ण पहचान तथा उनके ऑरा का यदि फायदा मिला, तो गौतम दोषी के जेल जाने से मिली बदनामी का नुकसान भी उठाना पड़ा। भावना दोषी के साथ जो हुआ, वह तो गौतम दोषी की कारस्तानी के चलते हुआ; लेकिन गौतम दोषी के साथ जो हुआ, वह इस बात का सुबूत है कि ‘व्यवस्था’ कैसे किसी अच्छे भले व्यक्ति को इस्तेमाल करती है। गौतम दोषी एक निहायत भले और सरल व्यक्ति के रूप में लोगों के बीच पहचाने जाते थे। गौतम दोषी से एक बार मिल लेने वाला व्यक्ति भी उनकी सरलता और सज्जनता का कायल हो जाता था; उनकी विद्धता से तो वह लोग भी परिचित हैं जो उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते हैं। चार्टर्ड एकाउंटेंट प्रोफेशन से संबद्ध शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जिस पर गौतम दोषी की एक्सपर्टीज न हो। कंपनियों के विलय और अधिग्रहण जैसे मामलों में तो गौतम दोषी की जो एक्सपर्टीज रही है, उसके चलते वह देश के नामी चार्टर्ड एकाउंटेंट्स में गिने और पहचाने जाने लगे थे। गौतम दोषी को जानने वाले लोग जानते हैं कि गौतम दोषी ने अपनी काबिलियत से नाम और दाम दोनों कमाये हैं, और इतने कमाये हैं कि उसके बाद उनके मन में कोई लालच या कोई स्वार्थ बचा नहीं हो सकता। प्रोफेशन में गौतम दोषी की जो धाक और पहचान थी, उनकी जो संलग्नता थी, प्रोफेशन के प्रति उनका जो कमिटमेंट ‘दिखता’ था, उसे जानने/पहचानने वाले लोगों को हैरानी थी कि रिलायंस से उन्हें आखिर ऐसा क्या मिला कि वह प्रोफेशन से ही ‘किनारा’ कर बैठे।
उस समय तो किसी को भी यह पहेली समझ नहीं आई थी - जिन्होंने समझने का दावा भी किया था, उनका भी सिर्फ यही कहना था कि गौतम दोषी पैसा और पोजीशन के चक्कर में ही अनिल अंबानी ग्रुप में गये थे; लेकिन जो लोग उन्हें जानते थे, वह इस बात पर इसलिए विश्वास नहीं करते थे क्योंकि उन्हें पता था कि पैसा और पोजीशन का संकट तो गौतम दोषी के साथ था ही नहीं - संकट इसलिए भी नहीं था क्योंकि गौतम दोषी असंतोषी, लालची और स्वार्थी किस्म के व्यक्ति के रूप में ‘दिखते’ ही नहीं थे। जो व्यक्ति असंतोषी नहीं हैं, लालची नहीं है, स्वार्थी नहीं है, अपने प्रोफेशन के प्रति पूरी तरह समर्पित है, प्रोफेशन को दशा और दिशा देने वाली संस्था (इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स) और संस्था की कार्यप्रणाली को सुनिश्चित करने वाली टीम (सेंट्रल काउंसिल) के साथ गहरे से जुड़ा है - वह एक दिन अचानक प्रोफेशन को छोड़ कर एक ऐसे कार्पोरेट समूह का हिस्सा बन जाता है जिसकी छवि बहुत पाक.साफ नहीं है: अनिल अंबानी ग्रुप को ज्वाइन करने के गौतम दोषी के फैसले पर - उन्हें जानने वालों के लिए हैरान होने के पूरे कारण मौजूद थे। हैरान होने का कारण यह भी था कि अनिल अंबानी ग्रुप ने गौतम दोषी को आखिर क्या ‘देख’ कर अपने यहां एक बड़ा ओहदा दिया। गौतम दोषी को जानने वाले लोगों को यही लगता था कि अनिल अंबानी ग्रुप में ओहदे पर बैठे लोगों से जिस तरह की ‘सेवाओं’ की उम्मीद की जायेगी, उस तरह की ‘सेवा’ तो गौतम दोषी नहीं दे पायेंगे। उन्हीं जानने वाले लोगों में से बहुतों को अब यह लग रहा है कि वह गौतम दोषी को वास्तव में कितना कम जानते थे, और अनिल अंबानी ने गौतम दोषी को कितना सही पहचाना था।
अनिल अंबानी ग्रुप में गौतम दोषी ‘जो’ करने के लिए गए, ‘जो’ करने के लिए अनिल अंबानी ने उन्हें चुना - और ‘जिसे’ करने के चक्कर में वह जेल के सींखचों के पीछे जा पहुंचे - उसने उनकी साख व प्रतिष्ठा को तो धूल में मिला ही दिया; उनकी पत्नी भावना दोषी की सेंट्रल काउंसिल की राजनीति को भी ग्रहण लगा दिया। भावना दोषी इंस्टीट्यूट की अध्यक्ष पद की प्रबल दावेदार के रूप में देखी जाने लगीं थीं और अगले टर्म में उनके अध्यक्ष चुने जाने की उम्मीदें की जा रही थीं। रिलायंस कनेक्शन ने लेकिन सब चैपट कर दिया। इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति का यह एक ट्रेजिडीभरा पक्ष ही कहा जायेगा कि जिस रिलायंस कनेक्शन ने भावना दोषी की चुनावी राजनीति का बेड़ा गर्क किया, उसी रिलायंस कनेक्शन के भरोसे निहार जम्बुसारिया ने सेंट्रल काउंसिल में अपने प्रवेश करने की उम्मीद पैदा की। निहार जम्बुसारिया जिस रिलायंस कनेक्शन के भरोसे सेंट्रल काउंसिल में प्रवेश पा लेने की उम्मीद लगाये हुए हैं, उसी रिलायंस कनेक्शन को तरूण घिया ने निहार जम्बुसारिया के खिलाफ अपना हथियार बना लिया है। गौतम दोषी और भावना दोषी के साथ जो हुआ, उसने तरूण घिया के हथियार को धारदार बना दिया है। रिलायंस कनेक्शन के जाल में निहार जम्बूसारिया को घेरने और फँसाने की तरूण घिया ने जो रणनीति बनाई है, उसने वेस्टर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल की चुनावी लड़ाई को खासा दिलचस्प बना दिया है ।

भगवान लाल ने अपनी पहचान और साख के भरोसे सेंट्रल काउंसिल के दूसरे उम्मीदवारों के सामने संकट पैदा किया

नई दिल्ली । भगवान लाल ने सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के समर्थन में जो अभियान संयोजित किया उसके नतीजे ने उन उम्मीदवारों को चिंता में डाल दिया है, जो दिल्ली के लक्ष्मी नगर क्षेत्र के चार्टर्ड अकाउंटेंट्स के समर्थन पर खास तौर से निर्भर हैं । उल्लेखनीय है कि नवीन गुप्ता, दुर्गा दास अग्रवाल, अतुल कुमार गुप्ता, विजय कुमार गुप्ता और पंकज त्यागी आदि अपनी-अपनी उम्मीदवारी की सफलता के लिए लक्ष्मी नगर क्षेत्र के वोटों पर खास तौर पर निर्भर हैं । आरके गौड़ का भी इस क्षेत्र में समर्थन-आधार है, लेकिन उनका समर्थन-आधार ऐसा है जिसे डिस्टर्ब करना थोड़ा मुश्किल है । बाकी उम्मीदवारों को परसेप्शन - धारणा के आधार पर समर्थन मिलना है इसलिए उनका समर्थन-आधार इधर से उधर होता रहता है । नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के पूर्व चेयरमैन सुधीर अग्रवाल की तरफ से नवीन गुप्ता के समर्थन में होने वाली मीटिंग के निमंत्रण भले ही गए हों, लेकिन सुधीर अग्रवाल के लिए अपने समर्थकों के वोट नवीन गुप्ता को दिलवा पाना मुश्किल ही होगा । इसका कारण यही है कि सुधीर अग्रवाल के जो नजदीकी हैं, वह भगवान लाल के भी नजदीकी हैं; और वह नवीन गुप्ता की बजाये अपने आप को भगवान लाल के ज्यादा नजदीक पाते हैं । इसका सुबूत नवीन गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की खातिर उनके पापा द्धारा आयोजित की गई मीटिंग के फ्लॉप होने में देखा/पहचाना जा सकता है ।
उल्लेखनीय है कि नवीन गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए लक्ष्मी नगर क्षेत्र में समर्थन जुटाने के उद्देश्य से एनडी गुप्ता ने जो मीटिंग की, उसके सात हजार से अधिक निमंत्रण पत्र भेजे गए थे, लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मीटिंग में कुल करीब सौ-सवा सौ लोग ही पहुँचे - और इतनी संख्या भी तब जुटी जब कि निमंत्रण पत्र इसी क्षेत्र के अत्यंत सक्रिय चार्टर्ड अकाउंटेंट और नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के पूर्व चेयरमैन सुधीर अग्रवाल की तरफ से भेजे गए थे । इससे ज्यादा लोग तो सुधीर अग्रवाल के स्टडी ग्रुप की मीटिंग में आ जाते हैं । यह कहना तो सही नहीं होगा कि नवीन गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थन में होने वाली मीटिंग के फ्लॉप होने के पीछे कारण भगवान लाल हैं, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि भगवान लाल एक प्रमुख कारण जरूर हैं । भगवान लाल लक्ष्मी नगर क्षेत्र में पिछले कई वर्षों से चार्टर्ड अकाउंटेंट्स की कोचिंग चला रहे हैं और उनके यहाँ कोचिंग प्राप्त करीब दस हजार बच्चे चार्टर्ड अकाउंटेंट्स बन चुके हैं । इस सबके चलते भगवान लाल की इस क्षेत्र में न केवल अच्छी पहचान है, बल्कि साख भी है । इस क्षेत्र के वोटों पर निर्भर दूसरे उम्मीदवारों के लिए मुसीबत दरअसल इसी कारण से है; क्योंकि इस क्षेत्र में भगवान लाल की पहचान और साख के कारण उनके लिए अपने-अपने समर्थन आधार को बचाए/बनाए रखना मुश्किल हो रहा है ।
भगवान लाल की उम्मीदवारी के कारण दूसरे उम्मीदवारों के लिए अपने-अपने समर्थकों को सक्रिय कर पाना मुश्किल बना हुआ है । उल्लेखनीय है कि लक्ष्मी नगर क्षेत्र में कई कोचिंग संस्थान हैं और वह अलग-अलग उम्मीदवारों के लिए वोट जुटाने के अड्डे या जरिये भी हैं - लेकिन भगवान लाल के उम्मीदवार होने के कारण दूसरे कोचिंग संस्थानों के लिए अपने-अपने उम्मीदवारों के समर्थन में खुल कर कुछ कर पाना मुश्किल बना हुआ है । जो लोग भगवान लाल के समर्थन में नहीं भी हैं, और दूसरों उम्मीदवारों के साथ हैं - उनके लिए भी नैतिक लोक-लाज के कारण दूसरे उम्मीदवारों के साथ खड़े 'दिखने' में मुश्किल हो रही है । भगवान लाल की उम्मीदवारी के कारण दूसरे उम्मीदवारों के सामने पैदा हुआ संकट दरअसल यही है ।
भगवान लाल की उम्मीदवारी ने दूसरे उम्मीदवारों के सामने संकट भले ही पैदा कर दिया हो, लेकिन दूसरे उम्मीदवारों के इस संकट में अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन बनाने का काम करना भगवान लाल के लिए अभी बाकी है । भगवान लाल के नजदीकियों का ही मानना और कहना है कि भगवान लाल ने चुपचाप तरीके से काम करते हुए अपने लिए समर्थन-आधार तो तैयार कर लिया है, लेकिन अपने इस समर्थन-आधार को वोट में ट्रांसफर करने का काम उनके लिए अभी बाकी है । भगवान लाल ने अपनी पहचान और साख के भरोसे जिस तरह से दूसरे उम्मीदवारों के सामने संकट पैदा किया है, उससे लेकिन एक बात साफ हो गई है और वह यह कि उनकी उम्मीदवारी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है ।

Wednesday, November 21, 2012

संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की लगातार तारीफ करके अमरजीत चोपड़ा ने उनके समर्थन का दावा करने वाले दूसरे उम्मीदवारों का खेल बिगाड़ दिया है

नई दिल्ली । अमरजीत चोपड़ा के रवैये ने सेंट्रल काउंसिल की सदस्यता के लिए अपनी अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने का प्रयास करने में लगे एमके अग्रवाल, विजय कुमार गुप्ता और संजीव चौधरी को हैरान और परेशान किया हुआ है । इनकी हैरानी और परेशानी का कारण यह है कि अमरजीत चोपड़ा ने सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में समर्थन का 'दिखावा' तो इनसे कर रखा है; लेकिन लोगों के बीच अपने प्रेसीडेंट काल की उपलब्धियों की बात करते हैं तो तारीफ संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की करते हैं । सेंट्रल काउंसिल के मौजूदा सदस्य संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल चूंकि अगली सेंट्रल काउंसिल की सदस्यता के लिए भी उम्मीदवार हैं इसलिए अमरजीत चोपड़ा द्धारा की जाने वाली उनकी तारीफ उनकी उम्मीदवारी को फायदा पहुँचाती है और अमरजीत चोपड़ा के समर्थन का दावा करने वाले एमके अग्रवाल, विजय गुप्ता और संजीव चौधरी अपने आप को ठगा हुआ पाते हैं । उल्लेखनीय है कि अमरजीत चोपड़ा जब इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट थे तब संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल उनके बड़े नजदीकी सहयोगी थे और अमरजीत चोपड़ा की प्रायः प्रत्येक कार्रवाई में मुख्य भूमिका निभाया करते थे । कुछ लोग सहजता में तो कुछ खुन्नस में कहा भी करते थे कि संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की मदद के बिना तो अमरजीत चोपड़ा कुछ कर ही नहीं सकते हैं । कुछेक लोगों ने अमरजीत चोपड़ा को संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल से दूर करने की बहुत कोशिश भी की, लेकिन अमरजीत चोपड़ा ने किसी भी कोशिश को कामयाब नहीं होने दिया ।
अमरजीत चोपड़ा ने प्रेसीडेंट के पद पर रहते हुए भी और उसके बाद भी प्रेसीडेंट के रूप में प्राप्त की गईं अपनी उपलब्धियों की जब भी बात की, संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल से मिले सहयोग की, हर काम में दिलचस्पी लेने में उनकी तत्परता की और उनकी सक्रिय भूमिका की लगातार तारीफ की । अमरजीत चोपड़ा द्धारा संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की लगातार की जा रही इस तारीफ से लोगों के बीच अनुमान लगाया गया कि सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में अमरजीत चोपड़ा इस बार संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की उम्मीदवारी का समर्थन करेंगे । लेकिन जब चुनाव का समय आया तो अमरजीत चोपड़ा के समर्थन का दावा करते हुए एमके अग्रवाल को, विजय कुमार गुप्ता को और संजीव चौधरी को सुना गया । मजे की बात यह है कि खुद अमरजीत चोपड़ा ने किसी भी उम्मीदवार के समर्थन की बात नहीं कही है - लेकिन अलग-अलग तरह की परिस्थितियों का 'हवाला' देकर उनके समर्थन का दावा किया जा रहा है । जैसे अमरजीत चोपड़ा ने चूंकि एमके अग्रवाल के एक उपक्रम 'प्रोफेशनल टाइम्स' की टीम का चेयरमैन बनना स्वीकार किया - तो उसका हवाला देकर एमके अग्रवाल ने उनके समर्थन का दावा कर दिया; और विजय कुमार गुप्ता ने अमरजीत चोपड़ा के समर्थन का दावा इसलिए किया हुआ है क्योंकि अमरजीत चोपड़ा के नजदीक समझे जाने वाले मधुसुदन गोयल उनका समर्थन कर रहे हैं । अमरजीत चोपड़ा के कुछेक नजदीकी चूँकि संजीव चौधरी का समर्थन कर रहे हैं तो उसका हवाला देकर संजीव चौधरी उनके समर्थन का दावा करने लगे हैं । इन्हें लगा कि ऐसा करके यह लोगों के बीच गलतफहमी पैदा कर लेंगे और फायदा उठा लेंगे ।
इसका मौका इन्हें अमरजीत चोपड़ा ने ही दिया - क्योंकि उन्होंने यह कभी भी स्पष्ट नहीं किया कि उनका समर्थन किसके साथ है । दरअसल वह किसी को नाराज नहीं करना चाहते और हरेक से फायदा उठाना चाहते हैं । एमके अग्रवाल ने अपने उपक्रम 'प्रोफेशनल टाइम्स' का मुखिया बना कर उन्हें सार्वजानिक रूप से दिखने का मौका दिया है; संजीव चौधरी के जरिये अमरजीत चोपड़ा को बिग फोर में काम लेने का जुगाड़ बैठाना है । अमरजीत चोपड़ा को व्यक्तिगत रूप से जानने वाले कहते/बताते हैं कि अमरजीत चोपड़ा को इस बात का बड़ा मलाल है कि इंस्टीट्यूट का प्रेसीडेंट होने पर जितना पैसा एनडी गुप्ता ने और वेद जैन ने कमाया, उतना पैसा वह नहीं कमा पाए हैं । इसकी भरपाई अब वह बिग फोर की मदद से करना चाहते हैं । अमरजीत चोपड़ा के साथ मुश्किल यह रही कि इंस्टीट्यूट में प्रेसीडेंट के पद पर रहते हुए उन्होंने बातें और फैसले बिग फोर के खिलाफ किये, जिसके चलते बिग फोर ने उन्हें तवज्जो नहीं दी । अमरजीत चोपड़ा लेकिन अब बिग फोर से अपने संबंध सुधारना चाहते हैं और इसीलिये अपने कुछेक लोगों को उन्होंने संजीव चौधरी के साथ लगा दिया है । अमरजीत चोपड़ा ने खुद संजीव चौधरी के लिए कुछ नहीं किया या कहा है - क्योंकि उन्हें डर है कि संजीव चौधरी की जीत के बाद यदि बिग फोर ने उनका अहसान नहीं माना तो वह तो मुफ्त में ही बदनाम होंगे । इसलिए वह खुद कुछ नहीं कह रहे हैं और अपने लोगों के जरिये ही अपने मतलब साधने का जुगाड़ बैठा रहे हैं ।
विजय कुमार गुप्ता के साथ उनका मामला खासा दिलचस्प है । एक समय विजय कुमार गुप्ता उनके बड़े खास हुआ करते थे, लेकिन पिछले चुनाव में विजय कुमार गुप्ता की हार के बाद बात बिगड़ गई । विजय कुमार गुप्ता ने अपनी हार को लेकर कोर्ट-कचहरी करना चाही थी और उम्मीद की थी कि प्रेसीडेंट के रूप में अमरजीत चोपड़ा उनकी मदद करेंगे । हारे हुए विजय कुमार गुप्ता की मदद करने से अमरजीत चोपड़ा ने लेकिन साफ इंकार कर दिया । अमरजीत चोपड़ा के इस रवैये की विजय कुमार गुप्ता को जरा भी उम्मीद नहीं थी । उन्हें तगड़ा झटका लगा और फिर उन्होंने अमरजीत चोपड़ा के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया । विजय कुमार गुप्ता उन दिनों लोगों को अमरजीत चोपड़ा की धोखेबाजियों के किस्से सुनाया करते थे । दूसरे कई लोगों के साथ-साथ अमरजीत चोपड़ा ने पूर्व प्रेसीडेंट सुनील तलति के साथ किस तरह की धोखेबाजी की थी, इसे लोगों ने विजय कुमार गुप्ता के जरिये ही जाना था । अमरजीत चोपड़ा के नजदीकी कुछेक लोगों का तो यहाँ तक कहना था कि विजय कुमार गुप्ता को सबक सिखाने के लिए ही अमरजीत चोपड़ा ने संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल को अपने साथ जोड़ा और आगे बढ़ाया । लेकिन तब मधुसुदन गोयल इस चुनाव में विजय कुमार गुप्ता के साथ क्यों हैं ? मधुसुदन गोयल के नजदीकियों का कहना है कि मधुसुदन गोयल अपने कारण से विजय कुमार गुप्ता की उम्मीदवारी के साथ हैं - न कि अमरजीत चोपड़ा के नजदीकी होने के कारण; और वह लोगों से यह कह/बता भी रहे हैं । यही कारण है कि अमरजीत चोपड़ा के दूसरे नजदीकियों का समर्थन विजय कुमार गुप्ता को दिलवाने का वह कोई भी प्रयत्न नहीं कर रहे हैं । विजय कुमार गुप्ता के साथ होकर मधुसुदन गोयल दरअसल अगली बार सेंट्रल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने की 'तैयारी' कर रहे हैं । इस तैयारी में वह विजय कुमार गुप्ता के नजदीकियों के साथ अपनी नजदीकी बनाते हुए तो खूब नजर आ रहे हैं, लेकिन विजय कुमार गुप्ता के लिए कुछ खास करते हुए नहीं दिख रहे हैं । लोगों को यह सफाई देकर वह विजय कुमार गुप्ता का काम और बिगाड़ रहे हैं कि विजय कुमार गुप्ता को उनके समर्थन का मतलब यह नहीं है कि अमरजीत चोपड़ा का समर्थन विजय कुमार गुप्ता को है ।
अमरजीत चोपड़ा का समर्थन फिर किसको है ? यह बड़ा रहस्य है । क्योंकि अमरजीत चोपड़ा ने किसी भी उम्मीदवार का समर्थन करने की घोषणा नहीं की है । उनकी इस चुप्पी या तटस्थता का फायदा उठाने के उद्देश्य से एमके अग्रवाल ने, विजय कुमार गुप्ता ने और संजीव चौधरी ने कुछेक परिस्थितियों का इस्तेमाल करते हुए लोगों के बीच उनके समर्थन का दावा किया हुआ है । उनकी इस दावे को लेकिन अमरजीत चोपड़ा ने जगह-जगह संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की तारीफ कर कर के बेमानी बना दिया है । अमरजीत चोपड़ा के समर्थन का दावा करने वाले इन लोगों से पूछा भी जाता है कि अमरजीत चोपड़ा के समर्थन का दावा तो आप कर रहे हो, लेकिन अमरजीत चोपड़ा तो कभी भी आपका जिक्र नहीं करते - वह तो हमेशा ही संजय वॉयस ऑफ सीए अग्रवाल की तारीफ करते हैं; इसलिए क्या माना जाये कि वह किसका समर्थन करते हैं ?

Sunday, November 18, 2012

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में नवीन गुप्ता को बचाने के लिए उनके पापा ने एक फिर मोर्चा संभाल लिया है

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स के पूर्व प्रेसीडेंट एनडी गुप्ता को इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में एक बार फिर खुल कर मैदान में आने के लिए मजबूर होना ही पड़ा है । अपने बेटे नवीन गुप्ता को चुनावी हार की तरफ बढ़ता देख कर एनडी गुप्ता को अभी तक पर्दे के पीछे से किये जा रहे अपने प्रयत्न नाकाफी लग रहे थे और इसीलिये अपने नजदीकियों की सलाह को अनदेखा करके उन्हें खुल कर मैदान में आने का फैसला करना ही पड़ा । उल्लेखनीय है कि एनडी गुप्ता अभी तक पर्दे के पीछे से ही नवीन गुप्ता के चुनाव का संचालन कर रहे थे - क्योंकि उन्हें खुद भी लग रहा था और उनके नजदीकियों की भी सलाह थी कि चुनावी झमेले में उनकी खुली सक्रियता उनकी साख और प्रतिष्ठा को - उनके ऑरा (आभामंडल) को धूमिल ही करेगी । एनडी गुप्ता के नजदीकियों ने भी उन्हें कहा/बताया था और उन्हें खुद भी भरोसा था कि उनकी खुली सक्रियता न होने के बावजूद नवीन अपनी सीट बचा लेंगे और अच्छे खासे वोट जुटा ही लेंगे ।
एनडी गुप्ता को हालाँकि अपने लोगों से जो फीडबैक मिल रहा था, वह एक अलग ही कहानी कह रहा था । उन्हें बताया जा रहा था कि सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में नवीन गुप्ता का लोगों के साथ जिस तरह का अनफ्रेंडली संबंध रहा है, अपने व्यवहार और अपने रवैये से नवीन गुप्ता ने जिस तरह से लोगों को हर्ट और निराश किया हुआ है - उसके चलते इस बार नवीन गुप्ता का चुनाव जीतना मुश्किल ही होगा; लेकिन एनडी को अपने संबधों का, लोगों के साथ अपने रिश्तों का भरोसा था । उन्हें भरोसा था कि नवीन गुप्ता ने अपने रवैये से लोगों को चाहें जितना भी निराश किया हुआ हो, लेकिन उनका बेटा होने के कारण नवीन की हरकतों को लोग माफ़ कर देंगे ।
एनडी गुप्ता ने इस भरोसे के बावजूद हालाँकि पर्दे के पीछे से नवीन के चुनाव की कमान संभाली हुई थी । उन्होंने गणित यह बैठाया था कि वह पर्दे के पीछे से सक्रिय रहेंगे और टेलीफोन पर लोगों से बातचीत करते रहेंगे तो नवीन के प्रति लोगों की नाराजगी को कम और ख़त्म करने का काम कर लेंगे । शुरू में उन्हें यह लगा भी कि उनकी यह योजना सफल हो रही है । कोई उनसे नवीन के रवैये की शिकायत करता तो वह उसे अपनेपन का अहसास कराते हुए मीठा-सा उलाहना देते कि नवीन की शिकायत अब तुम मुझसे करोगे, तुम उसके बड़े भाई हो, वह तुम्हारी बात नहीं सुनता तो उसके कान उमेठों ! सुनने वाला यह सुन कर लाज़बाब हो जाता । एनडी गुप्ता को लगा कि उनका यह फार्मूला काम कर रहा है और लोग उनकी मीठी बातों में आकर मूर्ख बन रहे हैं । लेकिन जल्दी ही एनडी गुप्ता को सुनने को मिलने लगा कि कान किसके उमेंठे, नवीन तो मिलता ही नहीं है, वह तो फोन भी नहीं उठाता ।
इस तरह के जबावों से एनडी गुप्ता ने भांप लिया कि नवीन ने अपनी हरकतों से और अपने रवैये से लोगों को ज्यादा ही नाराज किया हुआ है; और मामला उतना आसान है नहीं, जितना कि वह समझ रहे हैं । ऐसे में उन्होंने नवीन की उम्मीदवारी के समर्थन में खुल कर आने की जरूरत को पहचाना । हालाँकि उनके नजदीकियों ने भी उन्हें समझाया और उन्होंने खुद भी समझा कि खुल कर चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बन कर वह हो सकता है कि नवीन के चुनाव को तो बचा लें, लेकिन अपनी साख और प्रतिष्ठा को वह गँवा देंगे । लोग क्या कहेंगे कि इंस्टीट्यूट का प्रेसीडेंट रह चुका व्यक्ति इंस्टीट्यूट की और प्रोफेशन की फिक्र नहीं कर रहा है, अपने बेटे की चुनावी जीत को सुनिश्चित करने की फिक्र में सड़कों पर उतरा हुआ है ।
एनडी गुप्ता को अपने बेटे को चुनावी हार से बचाने के लिए खुद मैदान में उतरने का फैसला करने में मुश्किल तो हुई - लेकिन उन्हें यह फैसला करना ही पड़ा; क्योंकि उन्होंने आकलन यह किया कि साख और प्रतिष्ठा बचाने के चक्कर में वह यदि नवीन की मदद के लिए आगे नहीं आये और नवीन चुनाव हार गया तो उनकी ज्यादा किरकिरी होगी । उनके लिए 'एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई' वाली स्थिति थी । एनडी गुप्ता ने 'सीए गेट टुगेदर' के नाम से जिस आयोजन का निमंत्रण लोगों को भेजा है उसके डिटेल्स बताते हैं कि नवीन गुप्ता को चुनावी हार से बचाने के लिए एनडी गुप्ता ने एक तरफ यदि इंस्टीट्यूट से जुड़े बड़े नामों को अपने साथ मिलाया है, तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों को भी अपने साथ खड़ा किया है जो कभी उनकी भ्रष्ट कारस्तानियीं का खुला विरोध किया करते थे । 'सीए गेट टुगेदर' का आयोजन दिखाता/बताता है कि अपने बेटे की चुनावी हार की आशंका से डरा हुआ एक बाप कैसे अपनी, अपने प्रोफेशन की और अपने इंस्टीट्यूट की साख व प्रतिष्ठा को खुले में चीथड़े - चीथड़े करने को मजबूर हो जाता है ।

Saturday, November 17, 2012

सरोज जोशी की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद की उम्मीदवारी के मुद्दे पर, सुशील गुप्ता के समर्थन के बावजूद रमेश अग्रवाल को यश पाल दास से लताड़ खानी पड़ी है

नई दिल्ली । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमेश अग्रवाल को अभी थोड़ी देर पहले ही इंटरनेशनल डायरेक्टर यश पाल दास का यहाँ नीचे प्रस्तुत ई मेल पत्र मिला है । डिस्ट्रिक्ट 3010 के रोटेरियंस अपने गवर्नर रमेश अग्रवाल को इंटरनेशनल डायरेक्टर यश पाल दास द्धारा लिखे गए इस पत्र को पढ़ कर पता नहीं कैसा महसूस करेंगे । क्योंकि यह कोई सामान्य पत्र नहीं है । मुहावरे की भाषा में बात करें तो यह यश पाल दास की तरफ से रमेश अग्रवाल को 'भिगो कर मारा गया जूता है' । पहले आप पत्र पढ़ लीजिये, बाकी बातें उसके बाद करते हैं ।

Dear DG Ramesh,
I am surprised to learn that you are not accepting
the Candidature of Rtn. Saroj Joshi on the pretext
that I gave an opinion that her candidature should
be accepted. Please note that it is my decision
that Rtn Saroj Joshi is eligible to file her name
for DGN Candidate.

Kind regards

Y. P. Das
RI Director

यश पाल दास को - इंटरनेशनल डायरेक्टर यश पाल दास को रमेश अग्रवाल को ऐसा पत्र इसलिए लिखना पड़ा, क्योंकि रमेश अग्रवाल ने बेहद धूर्तता और तिकड़म के साथ अपनी मनमानी व्याख्या करते हुए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए सरोज जोशी की उम्मीदवारी को लेकर यश पाल दास द्धारा दिए गए निर्देश को मानने से इंकार कर दिया था । उल्लेखनीय है कि सरोज जोशी की उम्मीदवारी को लेकर रमेश अग्रवाल ने जो बखेड़ा खड़ा किया था, उस पर इंटरनेशनल डायरेक्टर के रूप में यश पाल दास ने बहुत पहले ही अपना स्पष्ट फैसला बता दिया था । अपना फैसला बताने में यस पाल दास से बस एक गलती हो गई - उन्होंने गलती से यह मान/समझ लिया कि रमेश अग्रवाल एक पढ़े/लिखे व्यक्ति हैं और पढ़े/लिखे लोगों की संस्था में एक-दूसरे का सम्मान करते/रखते हुए उनके लिए तमीजपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल करना काफी होगा । अपनी इस समझ के चलते यश पाल दास ने रमेश अग्रवाल को जो निर्देश दिया, उसे उन्होंने 'ओपिनियन' के रूप में प्रस्तुत किया । यश पाल दास यह समझने में चूक गए कि रमेश अग्रवाल एक बहुत ही धूर्त और पाजी किस्म का व्यक्ति है और मुहावरे की भाषा में कहें तो सिर्फ 'जूते की भाषा' ही समझता है । रमेश अग्रवाल पहले और अकेले गवर्नर हैं जो अपने व्यवहार के कारण एक वरिष्ठ रोटेरियन राजेंद्र जैना से सार्वजानिक रूप से पिटे और एक अन्य वरिष्ठ रोटेरियन केके भटनागर से पिटते हुए बचाए गए । यश पाल दास को रमेश अग्रवाल की करतूतों के बारे में शायद पता न हो । लेकिन ललित खन्ना की उम्मीदवारी को रोकने के लिए रमेश अग्रवाल ने जो नौटंकी की थी, उसकी जानकारी तो यश पाल दास को थी ही । उल्लेखनीय है कि ललित खन्ना के मामले में भी यश पाल दास के हस्तक्षेप के बाद रमेश अग्रवाल को ललित खन्ना की उम्मीदवारी को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा था । हो सकता है कि यश पाल दास ने समझा हो कि उस अनुभव से सबक लेकर रमेश अग्रवाल सुधर गए हों और पढ़े-लिखे लोगों के 'व्यवहार' को समझने लगे हों । यश पाल दास से दरअसल यही गलती हो गई; वह यह समझने से चूक गए कि रमेश अग्रवाल सुधरने वाली चीज नहीं हैं ।
रमेश अग्रवाल खुशकिस्मत निकले कि सरोज जोशी की उम्मीदवारी को लेकर अपनी धूर्तता को अंजाम देने के लिए उन्हें पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता का साथ भी मिल गया । सुशील गुप्ता अपने आप को डिस्ट्रिक्ट का स्वयं-भू ठेकेदार समझते हैं और विश्वास करते हैं कि डिस्ट्रिक्ट में फैसले करने का अधिकार उन्हें मिला हुआ है । वह यह नहीं बताते कि फैसले करने का अधिकार उन्हें दिया किसने है ? सुशील गुप्ता इंटरनेशनल डायरेक्टर रहे हैं । इस नाते उनसे इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह यह बात अच्छी तरह जानते ही होंगे कि रोटरी इंटरनेशनल में फैसले करने की एक व्यवस्था है, और उसी व्यवस्था में हुए फैसले मान्य होते हैं । सुशील गुप्ता से इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि उनका चहेता डिस्ट्रिक्ट गवर्नर यदि मौजूदा इंटरनेशनल डायरेक्टर द्धारा लिए गए किसी फैसले से असंतुष्ट है तो वह उसे सलाह दें कि वह उस फैसले के खिलाफ और ऊपर की अथॉरिटी में शिकायत दर्ज करे । सुशील गुप्ता ने यह किस अधिकार से कर लिया कि मौजूदा इंटरनेशनल डायरेक्टर के फैसले को मनमाने तरीके से एक फर्जी कमेटी बना कर पलट दें । सुशील गुप्ता ने जिस तथाकथित ओवरसाईट कमेटी में सरोज जोशी की उम्मीदवारी के बारे में यश पाल दास द्धारा लिए गए फैसले को पलट देने का फैसला किया, उस ओवरसाईट कमेटी को न तो रोटरी इंटरनेशनल मान्यता देता है और न ही रमेश अग्रवाल के गवर्नर-काल की डिस्ट्रिक्ट डायरेक्टरी में उसका कोई जिक्र है । रोटरी के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात शायद नहीं हो सकती कि उसके यहाँ इंटरनेशनल डायरेक्टर पद पर रह चुका व्यक्ति अपनी चौधराहट दिखाने के चक्कर में इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की इस तरह से अवमानना करे । रमेश अग्रवाल की धूर्तता यह कि जिस तथाकथित कमेटी का उन्होंने अपनी डिस्ट्रिक्ट डायरेक्टरी में जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझा, उसके पास वह सरोज जोशी की उम्मीदवारी जैसे मामले को लेकर चले गए । वैसे देखा जाये तो इसमें रमेश अग्रवाल की भी क्या गलती है ? उन्हें जब पता है कि सुशील गुप्ता को 'अक्ल' नहीं है और वह खुशी-खुशी इस्तेमाल हो सकते हैं तो उन्होंने सुशील गुप्ता का इस्तेमाल कर लिया ।
यहाँ मजे की बात यह है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए सरोज जोशी की उम्मीदवारी के बारे में इंटरनेशनल डायरेक्टर यश पाल दास द्धारा लिए गए फैसले को मानने से इंकार करने की तथाकथित ओवरसाईट कमेटी की कार्रवाई की शिकायत जब रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय में की गई, तो वहाँ से डिप्टी जनरल कोंसेल एण्ड्रू मेक्डोनल्ड का रमेश अग्रवाल को पत्र आया कि सरोज जोशी की उम्मीदवारी के बारे में उन्हें अपने जोन के इंटरनेशनल डायरेक्टर यश पाल दास के निर्देश का पालन करना चाहिए तथा इस मामले में यदि उन्हें कोई और क्लेरिफिकेशन चाहिए तो उन्हें यश पाल दास से ही बात करना चाहिए । रमेश अग्रवाल ने लेकिन इस पत्र पर भी कोई ध्यान नहीं दिया और वह तरह-तरह से सरोज जोशी की उम्मीदवारी के पेपर्स को स्वीकार करने को लेकर टाल-मटोल करते रहे और उनके क्लब के पदाधिकारियों पर नोमीनेटिंग कमेटी के लिए नाम भेजने का दबाव बनाते रहे । रमेश अग्रवाल की चाल थी कि वह किसी तरह धोखे से सरोज जोशी के क्लब से नोमीनेटिंग कमेटी के लिए नाम ले लें तो फिर उनके लिए सरोज जोशी की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद की उम्मीदवारी के दावे को पचड़े में डालने में आसानी हो जायेगी । सरोज जोशी के क्लब के पदाधिकारी लेकिन उनके किसी झांसे में या धोखे में नहीं आये । इतने सब के बावजूद, डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए आवेदन करने के अंतिम दिन तक रमेश अग्रवाल ने जब सरोज जोशी की उम्मीदवारी को लेकर अपना टाल-मटोल बाला रवैया जारी रखा, तब यश पाल दास ने भी समझ लिया कि - मुहाबरे की भाषा में कहें तो - रमेश अग्रवाल को 'जूते की भाषा' ही समझ में आती है; और उन्होंने दो-टूक शब्दों में लिख दिया कि यह उनकी ओपिनियन नहीं है, बल्कि यह उनका फैसला है कि सरोज जोशी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के योग्य हैं ।
यश पाल दास द्धारा लिख कर बताये गये इस स्पष्ट फैसले के बाद उम्मीद तो की जाती है कि रमेश अग्रवाल के पास सरोज जोशी की उम्मीदवारी पर टाल-मटोल करने का अब कोई मौका नहीं बचा है; लेकिन जैसा कि बार-बार की घटनाओं से साबित होता रहा है कि रमेश अग्रवाल बहुत ही धूर्त किस्म की खूबियाँ रखते हैं - इसलिए हो सकता है कि वह और कोई तिकड़म भिड़ाने की कोशिश करें । यश पाल दास के रवैये से भी लेकिन एक बात साफ नज़र आ रही है कि सरोज जोशी की उम्मीदवारी के मुद्दे पर वह रमेश अग्रवाल को बख्शने के मूड में नहीं हैं । ललित खन्ना की उम्मीदवारी के मामले में यश पाल दास एक बार रमेश अग्रवाल के 'कान उमेठ कर उन्हें सीधा कर चुके हैं' । सरोज जोशी की उम्मीदवारी के मामले में भी लगता है कि उन्होंने वही कहानी दोहराने का मन बना लिया है और रमेश अग्रवाल को सबक सिखाने का फैसला कर लिया है । ऐसे में, तमाम धूर्त किस्म की खूबियाँ रखने के बावजूद रमेश अग्रवाल के लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए सरोज जोशी की उम्मीदवारी को लेकर टाल-मटोल कर पाना अब संभव नहीं होगा और उन्हें सरोज जोशी की उम्मीदवारी को स्वीकार करना ही पड़ेगा जैसे कि तमाम नौटंकी के बाद भी उन्हें ललित खन्ना की उम्मीदवारी को स्वीकार करना पड़ा था ।

मजे की बात है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी के चयन को लेकर नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले में किसी की भी ज्यादा दिलचस्पी नहीं है, और प्रायः सभी उम्मीदवार खुले चुनाव को अपने लिए अनुकूल पा/बता रहे हैं

गाजियाबाद/नई दिल्ली । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के लिए नामांकन प्रस्तुत होने के साथ डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद को लेकर होने वाली चुनावी लड़ाई अब निर्णायक मोड़ की तरफ बढ़ती हुई दिखने लगी है । इस वर्ष हो रही इस चुनावी लड़ाई का दिलचस्प पहलू यह है कि चुनावबाज नेता घर बैठने को मजबूर हुए हैं क्योंकि उन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा है कि वह करें तो क्या करें ? डिस्ट्रिक्ट के चुनावबाज नेता इतने असहाय शायद कभी नहीं हुए होंगे, जितने इस वर्ष वह हुए नज़र आ रहे हैं । इसीलिये सारा दारोमदार उम्मीदवारों के सिर ही आ पड़ा है । उम्मीदवारों ने भी लगता है कि इस बात को समझ लिया है कि इस बार उन्हें अपने आप ही चुनावी लड़ाई लड़नी पड़ेगी । इस बात को सबसे पहले चूंकि जेके गौड़ ने समझा इसलिए उन्होंने अपने ऊपर किसी नेता की छाप नहीं लगने देने का प्रयास किया और लोगों से सीधे संपर्क स्थापित किया । डॉक्टर सुब्रमणियन ने डॉक्टर सुशील खुराना पर और आलोक गुप्ता ने रमेश अग्रवाल तथा मुकेश अरनेजा पर भरोसा किया, लेकिन जब यह देखा/पाया कि यह नेता लोग तो कोई मदद नहीं कर रहे हैं, तब यह अपने-अपने तरीके से जुटे । सुधीर मंगला के साथ ज्यादा बुरा हुआ । उन्होंने लोगों के बीच दावा तो यह किया था कि उन्हें कई पूर्व गवर्नर्स का समर्थन मिलेगा भी और 'दिखेगा' भी । किन्तु जब दिखने/दिखाने का समय आया तो पता चला कि उनके समर्थन में तो कोई भी सक्रिय नहीं है, लेकिन विनोद बंसल उनकी खिलाफत करने में जरूर दिलचस्पी ले रहे हैं ।
चुनावी राजनीति तथ्यों से नहीं होती, वह परसेप्शन से - धारणा से होती है; धारणा के मामले में भी नकारात्मक धारणा का ज्यादा प्रभाव पड़ता है । इसीलिये विनोद बंसल ने जब अलग-अलग तरह के इशारों में सुधीर मंगला के प्रति अपनी नाराजगी और अपने विरोध का संकेत दिया तो सुधीर मंगला के लिए अपने समर्थन-आधार को बचाए रखना मुश्किल हो गया । आलोक गुप्ता उनके समर्थन-आधार में लगातार सेंध लगाते हुए उन्हें जो झटके पर झटके दे रहे थे, विनोद बंसल के संकेतों ने उन झटकों की रेंज को जैसे कई गुना बढ़ा दिया । रमेश अग्रवाल और मुकेश अरनेजा से आलोक गुप्ता को जो धोखा मिला, उसकी भरपाई आलोक गुप्ता ने सुधीर मंगला के समर्थन-आधार में सेंध लगा कर की । डॉक्टर सुब्रमणियन के लिए यह समझ पाना मुश्किल हुआ कि डॉक्टर सुशील खुराना से उन्हें जब पर्याप्त मदद नहीं मिली, तो वह क्या करें ? डॉक्टर सुब्रमणियन एक उम्मीदवार के रूप में संपर्क अभियान तो ज्यादा नहीं चला पाए हैं, लेकिन रोटरी को एक इलीट या क्लासी किस्म के संगठन के रूप में देखने वाले लोगों के बीच उनके लिए समर्थन को देखा/पहचाना जा सकता है । इसके बावजूद डॉक्टर सुब्रमणियन के समर्थक चाहते हैं कि नोमिनेटिंग कमेटी अधिकृत उम्मीदवार का चयन न करे - वह डॉक्टर सुब्रमणियन को भी अधिकृत उम्मीदवार के रूप में चुने जाते हुए नहीं देखना चाहते हैं । डॉक्टर सुब्रमणियन के समर्थक जान और मान रहे हैं कि वह यदि अधिकृत उम्मीदवार चुन लिए गए तो उन्हें एक प्रतिद्धन्द्धी उम्मीदवार से मुकाबला करना होगा, जो उनके लिए मुश्किल होगा । डॉक्टर सुब्रमणियन के लिए, उनके समर्थकों के अनुसार आसान स्थिति तभी होगी जब छह उम्मीदवार मैदान में होंगे - और यह तब होगा जब नोमीनेटिंग कमेटी कोई फैसला न करे ।
सुधीर मंगला के नजदीकी भी यही चाहते हैं कि नोमीनेटिंग कमेटी कोई फैसला न करे । किन्तु ऐसा चाहने का उनका कारण थोड़ा अलग है । वह जान/समझ रहे हैं कि उन्होंने लोगों के बीच काम चाहें कितना ही क्यों न किया हो, किन्तु विनोद बंसल के रवैये के कारण न तो उनका नोमीनेट होना संभव होगा और न ही उन्हें चेलेंजिंग उम्मीदवार के रूप में क्लब्स का समर्थन मिल पायेगा । किसी तीन-तिकड़म से वह यदि नोमीनेट हो भी गए तो - उनके समर्थकों को डर है कि विनोद बंसल के विरोध के कारण उनका विरोध ही ज्यादा होगा । इसलिए अच्छा है कि खुला चुनाव हो और मैदान में छह उम्मीदवार हों - तब विनोद बंसल भी कुछ नहीं कर पाएंगे । आलोक गुप्ता के समर्थकों की चाहत है कि या तो आलोक गुप्ता नोमीनेट हों, और या फिर कोई भी नोमीनेट न हो । आलोक गुप्ता के समर्थकों का मानना और समझना है कि आलोक गुप्ता यदि नोमीनेट होते हैं तो फिर चाहें कोई भी चेलैंज करें, वह फायदे में ही रहेंगे । खुला चुनाव हुआ तो भी आलोक गुप्ता को लाभ में रहने का भरोसा है । कोई और नोमीनेट होता है, तब लेकिन आलोक गुप्ता को एक मुश्किल लड़ाई लड़नी पड़ सकती है ।
जेके गौड़ के नजदीकी लेकिन हर स्थिति का सामना करने की तैयारी किये हुए हैं । जेके गौड़ के नजदीकियों का मानना और कहना है कि जेके गौड़ ने लोगों के बीच जो सघन और व्यापक अभियान चलाया है उसका प्रतिफल उन्हें नोमीनेट होकर मिलेगा ही; और यदि किसी कारण से कोई गड़बड़ हुई और वह नोमीनेट नहीं भी हुए तो वह चुनाव के लिए भी तैयार हैं । जेके गौड़ के नजदीकियों का मानना है कि उन्हें यह अच्छी तरह पता है कि यदि जेके गौड़ नोमीनेट भी होते हैं, तो भी उन्हें चेलैंज किया ही जायेगा और चुनाव का सामना उन्हें करना ही पड़ेगा । नजदीकियों के अनुसार जेके गौड़ चुनाव के लिए तैयार हैं और वह इस बात से जरा भी चिंतित नहीं हैं कि उनका चुनाव किसी एक से होता है या पाँच लोगों से । उम्मीदवारों की सूची में ललित खन्ना और सरोज जोशी का भी नाम है - लेकिन उम्मीदवार के रूप में इनके नाम की लोगों के बीच ज्यादा चर्चा है नहीं । इसके बावजूद, कुछेक लोगों को लगता है कि नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले में हो सकता है कि इन दोनों की उम्मीदवारी किसी का काम बनाने या बिगाड़ने का 'काम' करें ।

Friday, November 16, 2012

हरित अग्रवाल की जीत में राजेश शर्मा को अपनी 'तैयारी' के लिए खतरा दिखाई दे रहा है

नई दिल्ली । हरित अग्रवाल के समर्थकों के बीच राजेश शर्मा की भूमिका को लेकर संदेह लगातार गहराता जा रहा है । उल्लेखनीय है कि नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के पूर्व चेयरमैन राजेश शर्मा घोषित रूप से तो नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ रहे हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी का समर्थन कर रहे हैं; लेकिन हरित अग्रवाल के कुछेक समर्थकों को लग रहा है कि राजेश शर्मा उन्हें जितवाने के लिए नहीं, बल्कि हरवाने के लिए काम कर रहे हैं । हरित अग्रवाल के इन समर्थकों को राजेश शर्मा की हाल की कुछेक गतिविधियों से संदेह हुआ है कि राजेश शर्मा जैसे हरित अग्रवाल को नुकसान पहुँचाने वाले काम कर रहे हैं । अन्य कुछेक लोगों का कहना हालाँकि यह है कि राजेश शर्मा भले ही नार्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन बन और रह चुके हैं, लेकिन उनकी ऐसी फोलोइंग नहीं है कि वह किसी उम्मीदवार को फायदा या नुकसान पहुँचा सकें । इन लोगों का कहना है कि राजेश शर्मा जिस ग्रुप के सदस्य समझे जाते हैं, उस ग्रुप के कुछेक सदस्य हरित अग्रवाल की खिलाफत कर रहे हों और हो सकता है कि राजेश शर्मा उनकी हाँ में हाँ मिला रहे हों । इन लोगों के अनुसार राजेश शर्मा के इस रवैये को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है ।
लेकिन जो लोग राजेश शर्मा के इस रवैये को गंभीरता से ले रहे हैं उनका कहना है कि राजेश शर्मा चूंकि कुछेक जगह हरित अग्रवाल को अपनी 'राजनीति' के लिए खतरे के रूप में बता रहे हैं, इसलिए उनके रवैये की अनदेखी करना हरित अग्रवाल को मुश्किल में डाल सकता है । उल्लेखनीय है कि हरित अग्रवाल रीजनल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी को बहुत ही गंभीरता से ले रहे हैं और एक अकेले वही पूरी तैयारी से चुनाव लड़ते देखे जा रहे हैं । लेकिन उनकी इसी 'गंभीरता' और 'तैयारी' ने राजेश शर्मा को डरा दिया है । राजेश शर्मा इस बार के चुनाव में सेंट्रल काउंसिल के लिए चरनजोत सिंह नंदा का समर्थन इस उम्मीद में कर रहे हैं कि अगली बार चरनजोत सिंह नंदा सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत होने वाली उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करेंगे । राजेश शर्मा रीजनल काउंसिल में हरित अग्रवाल की उम्मीदवारी के साथ होने का दावा करते सुने गए हैं । लेकिन अब राजेश शर्मा को यह डर सताने लगा है कि हरित अग्रवाल रीजनल काउंसिल में जीत कर अपनी पहली ही टर्म में चेयरमैन बन गए तो फिर अगली बार वह सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करेंगे और अगली बार के लिए की जा रही उनकी तैयारी को नुकसान पहुँचायेंगे । इसी डर से राजेश शर्मा अब इस कोशिश में जुटे बताये जा रहे हैं कि हरित अग्रवाल को वह इस बार रीजनल काउंसिल में जीतने न दें ।
हरित अग्रवाल के समर्थकों को यह तो विश्वास है कि राजेश शर्मा चाहेंगे और कोशिश भी करेंगे तो भी हरित अग्रवाल को जीतने से नहीं रोक सकेंगे । लेकिन हरित अग्रवाल के कुछेक समर्थक राजेश शर्मा की गतिविधियों से सावधान रहने की जरूरत को जरूर पहचानने लगे हैं ।

Thursday, November 15, 2012

विजय कुमार गुप्ता को सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में अपने दोहरे रवैये के कारण जिस अविश्वास का सामना करना पड़ रहा है; उसका शिकार एम के अग्रवाल को भी होना पड़ रहा है

नई दिल्ली । एम के अग्रवाल और विजय कुमार गुप्ता की सक्रियता ने चार्टर्ड अकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल की चुनावी गहमागहमी में खासी गर्मी तो पैदा कर दी है, लेकिन यह गर्मी कोई बड़ा उलट-फेर करती हुई नहीं दिख रही है । एम के अग्रवाल ने इस बार अपने चुनाव अभियान को जिस आक्रामकता के साथ प्रस्तुत किया उसे देख कर कई लोगों को हैरानी हुई; क्योंकि एम के अग्रवाल ने इससे पहले जब चुनाव लड़ा था तब बहुत ही लो-प्रोफाइल उम्मीदवार के रूप में वह लोगों के बीच उपस्थित हुए थे । इस बार लेकिन उन्होंने पहले से ही तैयारी की हुई है और लोगों तक पहुँच बनाने के लिए अलग-अलग तरह के और हर तरह के संभव 'माध्यम' तैयार किये हुए हैं । प्रोफेशन में मुश्किलों का सामना करने वाले या कर रहे युवा चार्टर्ड अकाउंटेंट्स के बीच पैठ बनाने के लिए मुद्दे भी एम के अग्रवाल ने ऐसे तैयार किये जो हर किसी को प्रभावित करें । हर तरह से चाक-चौबंद व्यवस्था के साथ एम के अग्रवाल ने सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से जब अभियान शुरू किया तो दूसरे उम्मीदवारों में खलबली मच गई । इसका कारण यह था कि किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि एम के अग्रवाल 'ऐसा' तंत्र खड़ा कर लेंगे और अपने चुनाव अभियान को प्रभावी रूप दे लेंगे ।
विजय कुमार गुप्ता का चुनाव अभियान भी शुरू में सुस्ती दिखाने के बावजूद जब तेजी दिखाने लगा तो चुनावी माहौल में गर्मी पैदा हुई । विजय कुमार गुप्ता के चुनाव अभियान में हालाँकि वह तेजी अभी भी नहीं आ पाई है जिसके लिए विजय कुमार गुप्ता कुछेक लोगों की निगाह में प्रख्यात तो कुछेक लोगों की निगाह में कुख्यात रहे हैं - लेकिन जैसी जो तेजी उनके चुनाव अभियान में दिखी है, उसे प्रतिद्दन्द्दी उम्मीदवारों की नींद उड़ाने के लिये पर्याप्त माना/देखा गया । विजय कुमार गुप्ता ने अपनी आक्रामक प्रचार शैली के भरोसे ही इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अपनी जगह और अपना मुकाम बनाया/पाया है । सेंट्रल काउंसिल का अपना पहला चुनाव विजय कुमार गुप्ता ने अपनी इसी आक्रामक प्रचार शैली के भरोसे जीता था । इसी आक्रामक प्रचार शैली के बावजूद हालाँकि वह अपना दूसरा चुनाव हार गए थे - कुछेक लोगों की राय में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'आक्रामक प्रचार शैली' को उन्होंने 'काठ की हांडी' के रूप में देखा/पहचाना और याद किया कि काठ की हांडी तो एक ही बार चढ़ती है, बार-बार नहीँ; लेकिन अन्य कुछेक लोगों के अनुसार विजय कुमार गुप्ता अपना दूसरा चुनाव अपनी प्रचार शैली के कारण नहीं, बल्कि अति आत्मविश्वास के कारण हारे । विजय कुमार गुप्ता के लिए अपनी हार को पचा पाना बहुत ही मुश्किल हुआ और हार के कारण मिले सदमे से वह अभी तक ऊबर नहीं पाए हैं । इसी कारण, इस बार उनका अभियान असमंजस का शिकार रहा । असमंजस के कारण ही, अब जब उनके अभियान में तेजी आई है तो उसका वैसा प्रभाव नहीं दिख रहा है जैसा दिखना चाहिए था ।
एम के अग्रवाल और विजय कुमार गुप्ता की सक्रियता ने चुनाव में गर्मी तो पैदा की है - लेकिन इस गर्मी में यह दोनों एक-दूसरे को ही झुलसाते दिख रहे हैं । दरअसल, इन दोनों ने ही प्रोफेशन में की, प्रोफेशन से जुड़े लोगों की मुश्किलों को अपना चुनावी मुद्दा बनाया हुआ है । नए बने चार्टर्ड अकाउंटेंट्स को किन और किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और प्रोफेशन के सामने किस तरह की चुनौतियाँ हैं - इसे ही यह लोगों के सामने जोरशोर से रख रहे हैं और लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह यदि सेंट्रल काउंसिल में आये तो इन समस्याओं को हल करेंगे/करवाएंगे । लोगों को इस तरह की बातें पसंद तो आती हैं, लेकिन उनके लिए यह भरोसा करना मुश्किल होता है कि यह मौजूदा मुश्किलों को हल कर/करवा सकेंगे । विजय कुमार गुप्ता जब इस तरह की बातें करते हैं, तो लोग पूछने से नहीं चूकते कि जब आप काउंसिल में थे, तब आपने क्या किया था; और यदि सचमुच कुछ किया था तो फिर लोगों का पर्याप्त समर्थन क्यों नहीं मिला और पिछला चुनाव आप क्यों हार गए थे ? इसी कारण से विजय कुमार गुप्ता के लिए अभियान चलाना मुश्किल हो रहा है । उनकी कोई भी बात, उनका कोई भी तर्क लोगों के गले नहीं उतर रहा है ।
विजय कुमार गुप्ता की इस हालत ने एम के अग्रवाल के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी है । असल में विजय कुमार गुप्ता के मामले ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया है कि चुनाव से पहले उम्मीदवार लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और चुने जाने के बाद फिर उन सब बातों को भूल जाते हैं । इसीलिये इनकी बातें महत्वपूर्ण होते हुए भी लोगों के बीच इनकी उम्मीदवारी के प्रति विश्वास नहीं बना पा रही हैं । यह विजय कुमार गुप्ता के साथ तो हो ही रहा है, साथ ही एम के अग्रवाल के साथ भी हो रहा है । एम के अग्रवाल के समर्थकों को भी लगता है और वह कहते भी हैं कि एम के अग्रवाल की बातें लोगों को अपील तो कर रही हैं लेकिन इसके बावजूद वह लोगों के बीच अपनी उम्मीदवारी के प्रति विश्वास और स्वीकार्यता का भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं । लोगों को लगता है कि एम के अग्रवाल भी वैसे ही हैं जैसे विजय कुमार गुप्ता जो जब काउंसिल में होते हैं तब तो लोगों को यह बताते हैं कि काउंसिल कितना कितना काम करती है, और जब काउंसिल में नहीं होते हैं तब लोगों को बताते हैं कि काउंसिल तो कुछ करती ही नहीं । इसी तरह के दोहरे रवैये के कारण विजय कुमार गुप्ता और एम के अग्रवाल द्धारा की जा रही अच्छी अच्छी बातें लोगों को विश्वास नहीं दिला पा रही हैं कि काउंसिल में जा कर यह प्रोफेशन के लिए और प्रोफेशन से जुड़े लोगों के लिए सचमुच कुछ करेंगे भी । यही कारण है कि अपनी बातों से आकर्षित करने के बावजूद लोगों को प्रभावित कर पाना इनके लिए मुश्किल बना हुआ है । एम के अग्रवाल के समर्थकों को लगता है कि विजय कुमार गुप्ता के कारण उनका मामला ख़राब हुआ है; विजय कुमार गुप्ता यदि चुनाव में नहीं होते तो लोगों को कथनी और करनी में भेद करने का आसान अवसर नहीं मिलता । एम के अग्रवाल के समर्थकों का कहना है कि विजय कुमार गुप्ता के खिलाफ लोगों के बीच जो नाराजगी है, उसका निशाना एम के अग्रवाल को भी बनना पड़ रहा है । एम के अग्रवाल के लिए यह दिखाना/जताना मुश्किल बना हुआ है कि वह विजय कुमार गुप्ता की तरह का रवैया नहीं अपनाएंगे ।

Wednesday, November 7, 2012

अनूप मित्तल की चेयरमैनी में होने वाला डिस्ट्रिक्ट 3010 का दीवाली मेला झगड़ों और विवादों के कारण ज्यादा चर्चा में है

नई दिल्ली | रोटरी क्लब दिल्ली विकास के दीवाली मेले ने डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की तैयारी में जुटे लोगों की फूट को सामने ला दिया है | उल्लेखनीय है कि रोटरी क्लब दिल्ली विकास डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की आयोजन समिति का एक प्रमुख सदस्य है; और प्रमुख सदस्य होने के नाते इस क्लब के अध्यक्ष शिव शंकर अग्रवाल डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की आयोजन समिति में को-चेयरमैन के पद पर हैं | इस कारण से उम्मीद की जाती थी कि वह अपना समय, अपनी एनर्जी और अपने साधन डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले में लगायेंगे - लेकिन शिव शंकर अग्रवाल डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की तैयारी में जुटने की बजाये अपने क्लब के दीवाली मेले को आयोजित करने में जुटे नज़र आये | इस बाबत, उनकी तरफ से लोगों को सफाई सुनने को मिली कि उनका क्लब बड़ा क्लब है, उनके क्लब के सदस्य डिस्ट्रिक्ट के कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पाते हैं, उनके क्लब के लोग अपने ही कार्यक्रम करने पर जोर देते हैं, आदि-इत्यादि | लोगों को शिव शंकर अग्रवाल के यह तर्क हजम नहीं हुए हैं | हालाँकि एक तरह से देखें तो यह तर्क सही दीखते हैं; लेकिन लोगों का कहना है कि शिव शंकर अग्रवाल ने जब डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की आयोजन समिति का हिस्सा होना स्वीकार कर लिया था, तो उन्हें उसी की तैयारी में जुटना चाहिए था | अध्यक्ष होने के नाते वह क्लब के लीडर हुए और एक लीडर होने के नाते उन्हें अपने क्लब के लोगों को डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले में शामिल होने के लिए ही प्रेरित करना चाहिए था | लोगों का कहना है कि इसके आलावा, उन्हें यदि अपने क्लब में दीवाली के नाम पर कुछ करना ही था, तो ऐसा कुछ करते या ऐसे समय करते जिससे कि डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की तैयारी डिस्टर्ब न होती और उसकी तैयारी में उनकी पूरी सामर्थ्य लगती |
शिव शंकर अग्रवाल ने ऐसा कुछ नहीं किया, इससे लोगों को लगा कि बात दरअसल कुछ और है | डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की तैयारी में चूँकि शुरू से ही खटपट देखी/सुनी जा रही थीं - इसलिए लोगों को और भी विश्वास हुआ कि शिव शंकर अग्रवाल का अपने क्लब का अलग से दीवाली मेला आयोजित करने के फैसले का उसी खटपट से संबंध है | बात निकलना शुरू हुई तो फिर निकलती ही चली गई और पता चला कि डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले की तैयारी को लेकर शुरू से ही झगड़े थे | पहली बार यह झगड़ा तब सामने आया जब रोटरी क्लब दिल्ली मयूर विहार के अध्यक्ष अनूप मित्तल को चेयरमैन चुन लिया गया | कुछेक अध्यक्षों ने आरोप लगाया कि अनूप मित्तल ने उन्हें धोखे में रखकर षड़यंत्रपूर्वक अपने आप को चेयरमैन चुनवा लिया और इस तरह दीवाली मेले को हाईजैक कर लिया | जबावी कार्रवाई  में, इस आरोप के पीछे शिव शंकर अग्रवाल को बताया गया और कहा गया कि वह चूंकि खुद चेयरमैन नहीं बन सके इसलिए इस तरह की बातें फैला रहे हैं | शिव शंकर अग्रवाल ने इसका जबाव यह कर दिया कि अनूप मित्तल चेयरमैन बने हैं, इस पर उन्हें आपत्ति नहीं है; उनकी आपत्ति लेकिन चेयरमैन चुने जाने के तरीके को लेकर है | शिव शंकर अग्रवाल की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें को-चेयरमैन बना दिया गया | झगड़े लेकिन तब भी दूर नहीं हुए | एक बड़ा झगड़ा मेले के आयोजन स्थल को लेकर हुआ | शिव शंकर अग्रवाल और अन्य कुछेक लोगों की शिकायत रही कि मेला जहाँ हो रहा है, वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं होगा, इसलिए मेला किसी ऐसी जगह पर होना चाहिए जहाँ लोग आसानी से पहुँच सकें | अनूप मित्तल का आरोप रहा कि मेला स्थल का चयन जब सभी लोगों की रजामंदी लेकर ही किया गया था, तब फिर उसका विरोध करने की जरूरत क्यों आ पड़ी - इससे ही समझा जा सकता है कि कुछेक लोगों का काम सिर्फ विरोध करना ही है | अनूप मित्तल ने यह आरोप भी लगाया है कि उन्हें सिर्फ दो-चार अध्यक्षों से ही मदद मिल रही है और बाकी लोग झगड़े पैदा करने की ही कोशिशों में ही लगे हुए हैं |
अनूप मित्तल से नाराज लोगों का कहना लेकिन यह रहा है कि अनूप मित्तल की कार्यशैली ने ही झगड़े पैदा करने के मौके बनाये हैं | मेले के आयोजन की तैयारी के लिए जब कमेटी बनी हुई है तो उन्हें सभी फैसले कमेटी के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श करके ही करने चाहिए - लेकिन वह मनमाने तरीके से फैसले कर लेते हैं और अपने फैसलों से वह बस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमेश अग्रवाल को खुश करने का प्रयास करते हैं | एक सीधा आरोप यह लगा है कि अनूप मित्तल ने दीवाली मेले को अपने लिए 'बेस्ट प्रेसीडेंट' का अवार्ड लेने का जरिया मान/बना लिया है | इसी कारण से मेले की तैयारी में रमेश अग्रवाल का हस्तक्षेप बढ़ गया और झगड़े पैदा हुए | मेले की आयोजन समिति के लेटर पेड और मेले के निमंत्रण पत्र में किसके नाम छपेंगे या नहीं छपेंगे जैसी बातों पर झगड़ा रमेश अग्रवाल के हस्तक्षेप के कारण ही हुआ | समिति के सदस्यों का ही आरोप रहा कि चेयरमैन के रूप में अनूप मित्तल ने समिति के लोगों से बात न करके, रमेश अग्रवाल से बात की और रमेश अग्रवाल ने उन्हें लेटर पेड पर विनोद बंसल और संजय खन्ना के नाम न प्रकाशित करने की हिदायत दी | कुछेक अध्यक्षों ने इस पर बबाल मचा दिया | उनका कहना रहा कि पहली बात तो यह कि रमेश अग्रवाल होता कौन है यह तय करने वाला कि लेटर पेड पर किसका नाम छपेगा या नहीं छपेगा; और दूसरी बात यह कि अनूप मित्तल ने रमेश अग्रवाल से इस बारे में पूछा ही क्यों ? रमेश अग्रवाल और अनूप मित्तल ने पहले तो इस बबाल की अनदेखी करने और अपनी मनमानी करने की कोशिश की, लेकिन जब विरोध करने वाले अध्यक्षों ने खुली धमकी दी कि लेटर पेड पर विनोद बंसल और संजय खन्ना के नाम नहीं छपे तो वह दीवाली मेले के आयोजन से अलग हो जायेंगे, तब रमेश अग्रवाल का दिमाग ढीला हुआ और उन्होंने अनूप मित्तल को अनुमति दी कि वह वैसा कर लें जैसा दूसरे अध्यक्ष कह रहे हैं | इस झमेले में लेटर पेड छपने में काफी देर हो गई | मेले के निमंत्रण पत्र को लेकर तो रमेश अग्रवाल ने और तमाशा खड़ा कर दिया - मेले की तैयारी से जुड़े अध्यक्षों के यह देख/जान कर और बुरा लगा कि अनूप मित्तल भी उनकी हाँ में हाँ मिला रहे हैं | रमेश अग्रवाल ने फ़रमान जारी किया कि निमंत्रण पत्र पर सिर्फ उनका ही नाम होगा और आयोजन समिति के सदस्यों - यानि अध्यक्षों का नाम नहीं होगा | अध्यक्षों ने इस पर साफ कह दिया कि यदि ऐसा होगा तो फिर मेले का आयोजन रमेश अग्रवाल खुद ही कर लें | रमेश अग्रवाल को एक बार फिर वह करना पड़ा - मुहावरे की भाषा में जिसे 'थूक कर चाटना' कहते हैं |
इससे पहले रमेश अग्रवाल लेकिन दीवाली मेले की तैयारी में जुटे लोगों - यानि अध्यक्षों के बीच झगड़ा बढ़ा चुके थे | अधिकतर अध्यक्षों को विश्वास हो चला कि अनूप मित्तल दीवाली मेले को अपने प्रमोशन के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं; और इसी विश्वास के चलते वह मेले की तैयारी में दिलचस्पी लेने से बचने लगे | शिव शंकर अग्रवाल ने अपने क्लब का अलग से दीवाली मेला आयोजित करने का फैसला किया तो यह साफ हो गया कि डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले में अब उनकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं रह गई | ऐसे में डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले के आयोजन की जिम्मेदारी पूरी तरह अनूप मित्तल पर आ पड़ी | अनूप मित्तल ने मेले के आयोजन की जिम्मेदारी तो जैसी कि लोगों के बीच चर्चा है कि अच्छे से संभाली और निभाई है, लेकिन आयोजन समिति के लोगों को साथ रखने में वह जिस तरह से विफल रहे - उससे डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेले के आयोजन में 'रोटरी' वाला जो तत्व होता है, वह गायब हो गया है | कहा/माना जा रहा है कि वह इवेंट तो मैनेज कर सकते हैं, लेकिन साथियों को साथ बनाये रखने का हुनर उन्हें अभी सीखना है | इस हुनर के अभाव के चलते ही, अनूप मित्तल की चेयरमैनी में होने वाला डिस्ट्रिक्ट दीवाली मेला झगड़ों और विवादों के कारण ज्यादा चर्चा में है |

Tuesday, November 6, 2012

कल पता चलेगा कि ललित खन्ना के खिलाफ मुकेश अरनेजा के पास सचमुच कोई तिकड़म है या केके गुप्ता की रणनीति के सामने उनकी सारी तिकड़मबाजी हवा हो गई है

नई दिल्ली | ललित खन्ना क्या डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नोमिनी पद के वास्ते अपनी उम्मीदवारी के लिए अपने क्लब की हरी झंडी प्राप्त कर लेंगे ? इस बात में यूँ तो किसी को भी कोई शक नहीं होना चाहिए, क्योंकि क्लब में ललित खन्ना की उम्मीदवारी को लेकर पर्याप्त समर्थन है; लेकिन फिर भी यदि यह सवाल चर्चा में है तो इसका कारण मुकेश अरनेजा का रवैया है | यह सच है कि ललित खन्ना की उम्मीदवारी के खिलाफ मुकेश अरनेजा कुछ भी करते हुए नहीं दिखे हैं: लेकिन सच यह भी है कि ललित खन्ना की उम्मीदवारी के समर्थन में भी मुकेश अरनेजा कुछ करते हुए नहीं दिखे हैं | यह दूसरा सच इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मुकेश अरनेजा चुपचाप बैठ कर तमाशा देखने वाले लोगों में से नहीं हैं; और ललित खन्ना उनके थोड़े से खास लोगों में एक रहे हैं | दरअसल इसी नाते से लोगों को उम्मीद रही कि मुकेश अरनेजा हर तरह से ललित खन्ना की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के अभियान में जुटेंगे | पर जब मुकेश अरनेजा ऐसा करते हुए नहीं नज़र आये तो सभी का माथा ठनका और तब पता चला कि मुकेश अरनेजा तो ललित खन्ना की उम्मीदवारी के पूरी तरह खिलाफ हैं |
मुकेश अरनेजा के खिलाफ होने के बावजूद ललित खन्ना ने अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में अपने क्लब में हालाँकि समर्थन जुटा लिया है | क्लब के अध्यक्ष राकेश मल्होत्रा यूँ तो मुकेश अरनेजा के आदमी के रूप में जाने/पहचाने जाते हैं - लेकिन इस मामले में वह भी मुकेश अरनेजा के साथ नहीं, बल्कि ललित खन्ना के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं | देखा/पाया जा रहा है कि ललित खन्ना की उम्मीदवारी का विरोध करने के कारण मुकेश अरनेजा अपने ही क्लब में अलग-थलग हो गए हैं और अकेले पड़ गए हैं | इसके बावजूद, ललित खन्ना की उम्मीदवारी को लेकर संशय यदि बना हुआ है तो इसका कारण यही है कि मुकेश अरनेजा को आसानी से हार मानने वाला नहीं माना जाता है | लोगों को लगता है कि मुकेश अरनेजा क्लब की हरी झंडी ललित खन्ना को आसानी से नहीं मिलने देंगे और उन्होंने अवश्य ही कोई तिकड़म सोच रखी होगी, जिसके भरोसे वह ललित खन्ना का रास्ता रोक लेंगे | ललित खन्ना ने भी अपनी उम्मीदवारी को क्लब के समर्थन के बाबत हालाँकि चाक-चौबंद व्यवस्था की हुई है | मुकेश अरनेजा की तिकड़मों से निपटने के लिए ललित खन्ना ने केके गुप्ता से पहले ही तार जोड़ लिया हुआ है | केके गुप्ता ने ललित खन्ना की उम्मीदवारी के संदर्भ में मुकेश अरनेजा और रमेश अग्रवाल की चालबाजियों को जिस तरह से विफल किया और ललित खन्ना के समर्थन में विभिन्न खेमों में बँटे क्लब को एकजुट किया है, उसके कारण मुकेश अरनेजा को और झटका लगा है |
ललित खन्ना की उम्मीदवारी मुकेश अरनेजा के लिए दरअसल इसलिए भी गंभीर चुनौती बनी है, क्योंकि ललित खन्ना की उम्मीदवारी के नाम पर क्लब में जो राजनीति हुई है उसमें मुकेश अरनेजा यदि अलग-थलग और अकेले पड़े हैं तो केके गुप्ता की साख तो बनी ही है, साथ ही उनकी चौधराहट भी स्थापित हुई है | मुकेश अरनेजा जानते हैं कि उनके विरोध के बावजूद - उनकी और डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमेश अग्रवाल की तमाम चालबाजियों के बावजूद - केके गुप्ता ने जिस तरह ललित खन्ना की उम्मीदवारी को क्लब से लेकर इंटरनेशनल डायरेक्टर तक के यहाँ स्वीकार्य बनाया, उससे लोगों को केके गुप्ता के रणनीतिक कौशल का और उनकी पहुँच का सुबूत मिला है | ललित खन्ना की उम्मीदवारी के नाम पर जो राजनीति हुई, उसके कारण क्लब में केके गुप्ता की जो धाक बनी है उसे देख/जान कर मुकेश अरनेजा को डर यह पैदा हुआ है कि केके गुप्ता अब इंटरनेशनल डायरेक्टर पद का चयन करने के लिए बनने वाली नोमीनेटिंग कमेटी की उनकी उम्मीदवारी में रोड़ा डालेंगे |
केके गुप्ता ने इस मामले को उठाना शुरू भी कर दिया है | केके गुप्ता ने क्लब के सदस्यों के बीच उन चर्चाओं पर गौर करने की जरूरत पर बल दिया है जिनमें कहा/बताया गया है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर पद का चयन करने के लिए बनने वाली नोमीनेटिंग कमेटी की अपनी उम्मीदवारी का इस्तेमाल करके मुकेश अरनेजा सौदेबाजी करने की जुगाड़ में हैं | केके गुप्ता का कहना है कि इस तरह की बातों से क्लब का नाम बदनाम होता है और किसी मुकेश अरनेजा को यह हक़ नहीं दिया जाना चाहिए कि वह अपने निजी स्वार्थ में क्लब का नाम बदनाम करे | केके गुप्ता ने लोगों को याद दिलाया है कि इंटरनेशनल डायरेक्टर पद का चयन करने के लिए बनने वाली नोमीनेटिंग कमेटी की उम्मीदवारी के नाम पर मुकेश अरनेजा पहले भी सौदेबाजी कर चुके हैं |        
केके गुप्ता के इन तेवरों ने मुकेश अरनेजा को वास्तव में संकट में डाल दिया है | केके गुप्ता के इन तेवरों में मुकेश अरनेजा अपने लिए जिस संकट को देख/पहचान रहे हैं, उसकी जड़ में वह ललित खन्ना की उम्मीदवारी को ही पा रहे हैं | मुकेश अरनेजा के नजदीकियों की बातों पर विश्वास करें तो मुकेश अरनेजा मान रहे हैं कि वह यदि ललित खन्ना की उम्मीदवारी में किसी भी तरह फच्चर फँसा दें, तो उनके सारे संकट समाप्त हो जायेंगे | मुकेश अरनेजा के एक नजदीकी ने कुछ दिन पहले इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि क्लब में ललित खन्ना के आलावा एक और उम्मीदवार लाने की तैयारी की जा रही है, ताकि उम्मीदवारी के नाम पर झगड़ा दिखा कर ललित खन्ना की उम्मीदवारी को ख़त्म कर/करा दिया जा सके | अभी तक ऐसा नहीं हो सका है - इससे यह तो पता चल रहा है कि मुकेश अरनेजा की कोई तिकड़म काम नहीं कर रही है | लेकिन इससे यह भी पता चल रहा है कि मुकेश अरनेजा ने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है और ललित खन्ना की उम्मीदवारी में रोड़ा डालने की कोई न कोई तिकड़म लगा रहे होंगे | यह देखना दिलचस्प होगा कि तिकड़मबाज मुकेश अरनेजा के पास सचमुच कोई तिकड़म है या केके गुप्ता की रणनीति के सामने उनकी सारी तिकड़मबाजी हवा हो गई है |