नई दिल्ली । एम के अग्रवाल और विजय कुमार गुप्ता की सक्रियता ने चार्टर्ड अकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की सेंट्रल
काउंसिल की चुनावी गहमागहमी में खासी गर्मी तो पैदा कर दी है, लेकिन यह
गर्मी कोई बड़ा उलट-फेर करती हुई नहीं दिख रही है । एम के अग्रवाल ने इस बार
अपने चुनाव अभियान को जिस आक्रामकता के साथ प्रस्तुत किया उसे देख कर कई लोगों को
हैरानी हुई; क्योंकि एम के अग्रवाल ने इससे पहले जब चुनाव लड़ा था तब बहुत
ही लो-प्रोफाइल उम्मीदवार के रूप में वह लोगों के बीच उपस्थित हुए थे । इस
बार लेकिन उन्होंने पहले से ही तैयारी की हुई है और लोगों तक पहुँच बनाने
के लिए अलग-अलग तरह के और हर तरह के संभव 'माध्यम' तैयार किये हुए हैं । प्रोफेशन
में मुश्किलों का सामना करने वाले या कर रहे युवा चार्टर्ड अकाउंटेंट्स के
बीच पैठ बनाने के लिए मुद्दे भी एम के अग्रवाल ने ऐसे तैयार किये जो हर
किसी को प्रभावित करें । हर तरह से चाक-चौबंद व्यवस्था के साथ एम के
अग्रवाल ने सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन
जुटाने के उद्देश्य से जब अभियान शुरू किया तो दूसरे उम्मीदवारों में
खलबली मच गई । इसका कारण यह था कि किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि एम के
अग्रवाल 'ऐसा' तंत्र खड़ा कर लेंगे और अपने चुनाव अभियान को प्रभावी रूप दे
लेंगे ।
विजय कुमार गुप्ता का चुनाव अभियान भी शुरू में सुस्ती दिखाने के बावजूद जब तेजी दिखाने लगा तो चुनावी माहौल में गर्मी पैदा हुई । विजय कुमार गुप्ता के चुनाव अभियान में हालाँकि वह तेजी अभी भी नहीं आ पाई है जिसके लिए विजय कुमार गुप्ता कुछेक लोगों की निगाह में प्रख्यात तो कुछेक लोगों की निगाह में कुख्यात रहे हैं - लेकिन जैसी जो तेजी उनके चुनाव अभियान में दिखी है, उसे प्रतिद्दन्द्दी उम्मीदवारों की नींद उड़ाने के लिये पर्याप्त माना/देखा गया । विजय कुमार गुप्ता ने अपनी आक्रामक प्रचार शैली के भरोसे ही इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अपनी जगह और अपना मुकाम बनाया/पाया है । सेंट्रल काउंसिल का अपना पहला चुनाव विजय कुमार गुप्ता ने अपनी इसी आक्रामक प्रचार शैली के भरोसे जीता था । इसी आक्रामक प्रचार शैली के बावजूद हालाँकि वह अपना दूसरा चुनाव हार गए थे - कुछेक लोगों की राय में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'आक्रामक प्रचार शैली' को उन्होंने 'काठ की हांडी' के रूप में देखा/पहचाना और याद किया कि काठ की हांडी तो एक ही बार चढ़ती है, बार-बार नहीँ; लेकिन अन्य कुछेक लोगों के अनुसार विजय कुमार गुप्ता अपना दूसरा चुनाव अपनी प्रचार शैली के कारण नहीं, बल्कि अति आत्मविश्वास के कारण हारे । विजय कुमार गुप्ता के लिए अपनी हार को पचा पाना बहुत ही मुश्किल हुआ और हार के कारण मिले सदमे से वह अभी तक ऊबर नहीं पाए हैं । इसी कारण, इस बार उनका अभियान असमंजस का शिकार रहा । असमंजस के कारण ही, अब जब उनके अभियान में तेजी आई है तो उसका वैसा प्रभाव नहीं दिख रहा है जैसा दिखना चाहिए था ।
एम के अग्रवाल और विजय कुमार गुप्ता की सक्रियता ने चुनाव में गर्मी तो पैदा की है - लेकिन इस गर्मी में यह दोनों एक-दूसरे को ही झुलसाते दिख रहे हैं । दरअसल, इन दोनों ने ही प्रोफेशन में की, प्रोफेशन से जुड़े लोगों की मुश्किलों को अपना चुनावी मुद्दा बनाया हुआ है । नए बने चार्टर्ड अकाउंटेंट्स को किन और किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और प्रोफेशन के सामने किस तरह की चुनौतियाँ हैं - इसे ही यह लोगों के सामने जोरशोर से रख रहे हैं और लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह यदि सेंट्रल काउंसिल में आये तो इन समस्याओं को हल करेंगे/करवाएंगे । लोगों को इस तरह की बातें पसंद तो आती हैं, लेकिन उनके लिए यह भरोसा करना मुश्किल होता है कि यह मौजूदा मुश्किलों को हल कर/करवा सकेंगे । विजय कुमार गुप्ता जब इस तरह की बातें करते हैं, तो लोग पूछने से नहीं चूकते कि जब आप काउंसिल में थे, तब आपने क्या किया था; और यदि सचमुच कुछ किया था तो फिर लोगों का पर्याप्त समर्थन क्यों नहीं मिला और पिछला चुनाव आप क्यों हार गए थे ? इसी कारण से विजय कुमार गुप्ता के लिए अभियान चलाना मुश्किल हो रहा है । उनकी कोई भी बात, उनका कोई भी तर्क लोगों के गले नहीं उतर रहा है ।
विजय कुमार गुप्ता की इस हालत ने एम के अग्रवाल के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी है । असल में विजय कुमार गुप्ता के मामले ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया है कि चुनाव से पहले उम्मीदवार लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और चुने जाने के बाद फिर उन सब बातों को भूल जाते हैं । इसीलिये इनकी बातें महत्वपूर्ण होते हुए भी लोगों के बीच इनकी उम्मीदवारी के प्रति विश्वास नहीं बना पा रही हैं । यह विजय कुमार गुप्ता के साथ तो हो ही रहा है, साथ ही एम के अग्रवाल के साथ भी हो रहा है । एम के अग्रवाल के समर्थकों को भी लगता है और वह कहते भी हैं कि एम के अग्रवाल की बातें लोगों को अपील तो कर रही हैं लेकिन इसके बावजूद वह लोगों के बीच अपनी उम्मीदवारी के प्रति विश्वास और स्वीकार्यता का भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं । लोगों को लगता है कि एम के अग्रवाल भी वैसे ही हैं जैसे विजय कुमार गुप्ता जो जब काउंसिल में होते हैं तब तो लोगों को यह बताते हैं कि काउंसिल कितना कितना काम करती है, और जब काउंसिल में नहीं होते हैं तब लोगों को बताते हैं कि काउंसिल तो कुछ करती ही नहीं । इसी तरह के दोहरे रवैये के कारण विजय कुमार गुप्ता और एम के अग्रवाल द्धारा की जा रही अच्छी अच्छी बातें लोगों को विश्वास नहीं दिला पा रही हैं कि काउंसिल में जा कर यह प्रोफेशन के लिए और प्रोफेशन से जुड़े लोगों के लिए सचमुच कुछ करेंगे भी । यही कारण है कि अपनी बातों से आकर्षित करने के बावजूद लोगों को प्रभावित कर पाना इनके लिए मुश्किल बना हुआ है । एम के अग्रवाल के समर्थकों को लगता है कि विजय कुमार गुप्ता के कारण उनका मामला ख़राब हुआ है; विजय कुमार गुप्ता यदि चुनाव में नहीं होते तो लोगों को कथनी और करनी में भेद करने का आसान अवसर नहीं मिलता । एम के अग्रवाल के समर्थकों का कहना है कि विजय कुमार गुप्ता के खिलाफ लोगों के बीच जो नाराजगी है, उसका निशाना एम के अग्रवाल को भी बनना पड़ रहा है । एम के अग्रवाल के लिए यह दिखाना/जताना मुश्किल बना हुआ है कि वह विजय कुमार गुप्ता की तरह का रवैया नहीं अपनाएंगे ।
विजय कुमार गुप्ता का चुनाव अभियान भी शुरू में सुस्ती दिखाने के बावजूद जब तेजी दिखाने लगा तो चुनावी माहौल में गर्मी पैदा हुई । विजय कुमार गुप्ता के चुनाव अभियान में हालाँकि वह तेजी अभी भी नहीं आ पाई है जिसके लिए विजय कुमार गुप्ता कुछेक लोगों की निगाह में प्रख्यात तो कुछेक लोगों की निगाह में कुख्यात रहे हैं - लेकिन जैसी जो तेजी उनके चुनाव अभियान में दिखी है, उसे प्रतिद्दन्द्दी उम्मीदवारों की नींद उड़ाने के लिये पर्याप्त माना/देखा गया । विजय कुमार गुप्ता ने अपनी आक्रामक प्रचार शैली के भरोसे ही इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अपनी जगह और अपना मुकाम बनाया/पाया है । सेंट्रल काउंसिल का अपना पहला चुनाव विजय कुमार गुप्ता ने अपनी इसी आक्रामक प्रचार शैली के भरोसे जीता था । इसी आक्रामक प्रचार शैली के बावजूद हालाँकि वह अपना दूसरा चुनाव हार गए थे - कुछेक लोगों की राय में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'आक्रामक प्रचार शैली' को उन्होंने 'काठ की हांडी' के रूप में देखा/पहचाना और याद किया कि काठ की हांडी तो एक ही बार चढ़ती है, बार-बार नहीँ; लेकिन अन्य कुछेक लोगों के अनुसार विजय कुमार गुप्ता अपना दूसरा चुनाव अपनी प्रचार शैली के कारण नहीं, बल्कि अति आत्मविश्वास के कारण हारे । विजय कुमार गुप्ता के लिए अपनी हार को पचा पाना बहुत ही मुश्किल हुआ और हार के कारण मिले सदमे से वह अभी तक ऊबर नहीं पाए हैं । इसी कारण, इस बार उनका अभियान असमंजस का शिकार रहा । असमंजस के कारण ही, अब जब उनके अभियान में तेजी आई है तो उसका वैसा प्रभाव नहीं दिख रहा है जैसा दिखना चाहिए था ।
एम के अग्रवाल और विजय कुमार गुप्ता की सक्रियता ने चुनाव में गर्मी तो पैदा की है - लेकिन इस गर्मी में यह दोनों एक-दूसरे को ही झुलसाते दिख रहे हैं । दरअसल, इन दोनों ने ही प्रोफेशन में की, प्रोफेशन से जुड़े लोगों की मुश्किलों को अपना चुनावी मुद्दा बनाया हुआ है । नए बने चार्टर्ड अकाउंटेंट्स को किन और किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और प्रोफेशन के सामने किस तरह की चुनौतियाँ हैं - इसे ही यह लोगों के सामने जोरशोर से रख रहे हैं और लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह यदि सेंट्रल काउंसिल में आये तो इन समस्याओं को हल करेंगे/करवाएंगे । लोगों को इस तरह की बातें पसंद तो आती हैं, लेकिन उनके लिए यह भरोसा करना मुश्किल होता है कि यह मौजूदा मुश्किलों को हल कर/करवा सकेंगे । विजय कुमार गुप्ता जब इस तरह की बातें करते हैं, तो लोग पूछने से नहीं चूकते कि जब आप काउंसिल में थे, तब आपने क्या किया था; और यदि सचमुच कुछ किया था तो फिर लोगों का पर्याप्त समर्थन क्यों नहीं मिला और पिछला चुनाव आप क्यों हार गए थे ? इसी कारण से विजय कुमार गुप्ता के लिए अभियान चलाना मुश्किल हो रहा है । उनकी कोई भी बात, उनका कोई भी तर्क लोगों के गले नहीं उतर रहा है ।
विजय कुमार गुप्ता की इस हालत ने एम के अग्रवाल के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी है । असल में विजय कुमार गुप्ता के मामले ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया है कि चुनाव से पहले उम्मीदवार लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और चुने जाने के बाद फिर उन सब बातों को भूल जाते हैं । इसीलिये इनकी बातें महत्वपूर्ण होते हुए भी लोगों के बीच इनकी उम्मीदवारी के प्रति विश्वास नहीं बना पा रही हैं । यह विजय कुमार गुप्ता के साथ तो हो ही रहा है, साथ ही एम के अग्रवाल के साथ भी हो रहा है । एम के अग्रवाल के समर्थकों को भी लगता है और वह कहते भी हैं कि एम के अग्रवाल की बातें लोगों को अपील तो कर रही हैं लेकिन इसके बावजूद वह लोगों के बीच अपनी उम्मीदवारी के प्रति विश्वास और स्वीकार्यता का भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं । लोगों को लगता है कि एम के अग्रवाल भी वैसे ही हैं जैसे विजय कुमार गुप्ता जो जब काउंसिल में होते हैं तब तो लोगों को यह बताते हैं कि काउंसिल कितना कितना काम करती है, और जब काउंसिल में नहीं होते हैं तब लोगों को बताते हैं कि काउंसिल तो कुछ करती ही नहीं । इसी तरह के दोहरे रवैये के कारण विजय कुमार गुप्ता और एम के अग्रवाल द्धारा की जा रही अच्छी अच्छी बातें लोगों को विश्वास नहीं दिला पा रही हैं कि काउंसिल में जा कर यह प्रोफेशन के लिए और प्रोफेशन से जुड़े लोगों के लिए सचमुच कुछ करेंगे भी । यही कारण है कि अपनी बातों से आकर्षित करने के बावजूद लोगों को प्रभावित कर पाना इनके लिए मुश्किल बना हुआ है । एम के अग्रवाल के समर्थकों को लगता है कि विजय कुमार गुप्ता के कारण उनका मामला ख़राब हुआ है; विजय कुमार गुप्ता यदि चुनाव में नहीं होते तो लोगों को कथनी और करनी में भेद करने का आसान अवसर नहीं मिलता । एम के अग्रवाल के समर्थकों का कहना है कि विजय कुमार गुप्ता के खिलाफ लोगों के बीच जो नाराजगी है, उसका निशाना एम के अग्रवाल को भी बनना पड़ रहा है । एम के अग्रवाल के लिए यह दिखाना/जताना मुश्किल बना हुआ है कि वह विजय कुमार गुप्ता की तरह का रवैया नहीं अपनाएंगे ।