Monday, February 29, 2016

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की इंदौर ब्राँच के चेयरमैन के चुनाव में अभय शर्मा को विकास जैन के नजदीक तथा विष्णु झावर व मनोज फडनिस के 'आदमी' होने की सजा दे/दिलवा कर केमिशा सोनी ने चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में अपनी धाक को और मजबूत बनाया

इंदौर । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की इंदौर ब्राँच के चेयरमैन के चुनाव को लेकर घटनाओं का जो अप्रत्याशित और नाटकीय चक्र घूमा, उसने किसी भी थ्रिलर फिल्म को मात देने का काम किया है । इंदौर ब्राँच के चेयरमैन के चुनाव - नाम की जिस थ्रिलर ने इस समय इंदौर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को रोमांचक रूप में चौंकाया हुआ है, उसकी पटकथा लिखने से लेकर निर्देशन करने तक के काम के लिए केमिशा सोनी को जिम्मेदार माना/बताया जा रहा है । जैसे फिल्म को एक्टर की बजाए निर्देशक के उपक्रम के रूप में देखा/पहचाना जाता है - नाम/दाम भले ही एक्टर भी कमाता हो; लेकिन फिल्म निर्देशक के 'काम' के रूप में ही देखी/पहचानी जाती है : ठीक उसी तर्ज पर चेयरपरसन का पद जीता भले ही गर्जना राठौर ने हो, लेकिन उनकी इस जीत को उनकी नहीं बल्कि केमिशा सोनी की जीत के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । जैसे जीत गर्जना राठौर की नहीं है, वैसे ही हार अभय शर्मा की नहीं है - अभय शर्मा को हरवा कर केमिशा सोनी ने वास्तव में विष्णु झावर व मनोज फडनिस को 'हराया' है । पिछले तीन महीनों में जितने जो चुनाव हुए हैं, उनके नतीजे इंदौर की चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति की बदलती हवा की कहानी तो कहते ही हैं - लेकिन उसमें भी कुछ परस्पर-विरोधी बातें कहते हैं, जिन्हें सफलता की खुशी और असफलता की निराशा में दोनों ही पक्ष अनसुना किए हुए हैं ।
उल्लेखनीय है कि इंदौर में हर कोई मान रहा था और कह भी रहा था कि इंदौर ब्राँच के चेयरमैन पद पर अभय शर्मा ही बैठेंगे । इसका कारण भी था । इंदौर ब्राँच की मैनेजिंग कमेटी में अभय शर्मा अकेले सदस्य हैं, जिनकी मैनेजिंग कमेटी में दूसरी टर्म है और इस लिहाज से वह वरिष्ठ हैं और अनुभवी हैं । इसके आलावा, इंदौर ब्राँच के चुनाव में अभय शर्मा को सबसे ज्यादा वोट मिले थे - सिर्फ सबसे ज्यादा नहीं, दूसरे उम्मीदवारों से बहुत ज्यादा वोट मिले थे । चुनावी राजनीति के खिलाड़ी जानते हैं कि इस तरह के तथ्य किसी भी उम्मीदवार का हौंसला तो बढ़ाते हैं, उसकी उम्मीदवारी में 'वज़न' तो पैदा करते हैं - लेकिन उसकी जीत की संभावना में निर्णायक तत्व नहीं बनते हैं । अभय शर्मा के चेयरमैन पद की दावेदारी में इन तथ्यों का महत्व तो था, लेकिन उनकी दावेदारी को सफल बनाने में निर्णायक भूमिका निभाने का काम जो तथ्य कर रहा था, वह था इंदौर ब्राँच की मैनेजिंग कमेटी के नवनिर्वाचित आठ सदस्यों में उन्हें मिलते दिख रहे छह सदस्यों का समर्थन । अभय शर्मा को पंकज शाह, कीर्ति जोशी, गर्जना राठौर, विपुल पदलिया और आनंद जैन का समर्थन मिलता नजर आ रहा था । इसी बिना पर अभय शर्मा को चेयरमैन के रूप में देखा जाने लगा था । प्रत्येक तथ्य और प्रत्येक संकेत चेयरमैन पद पर अभय शर्मा की ताजपोशी करवा रहा था । लेकिन केमिशा सोनी ने सारा सीन पलट दिया और इंदौर की चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में वह कर दिखाया, जिसकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था ।
केमिशा सोनी ने इससे पहले, इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल का चुनाव जीत कर भी विष्णु झावर और मनोज फडनिस को खासा तगड़ा वाला झटका दिया था, और इंदौर की चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में सभी को चौंकाया था । सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में विष्णु झावर और मनोज फडनिस के खुले समर्थन के बावजूद विकास जैन के हार जाने की उम्मीद तो बहुतों को थी, किंतु केमिशा सोनी के जीतने की उम्मीद किसी को नहीं थी । ऐसे में, केमिशा सोनी की जीत - सिर्फ जीत नहीं, बड़ी जीत ने उनका कद तो बढ़ाया ही - वास्तव में विष्णु झावर व मनोज फडनिस का कद घटाने का काम ज्यादा किया । किंतु सेंट्रल काउंसिल के चुनाव से भी 'बड़ा' चुनाव इंदौर ब्राँच का चुनाव था । सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में तो मान लिया गया था कि विष्णु झावर व मनोज फडनिस ने विकास जैन जैसे बेकार-से उम्मीदवार पर दाँव लगाया, और उसकी सजा पाई; इंदौर ब्राँच का चुनाव छोटा होने के बावजूद 'बड़ा' इसलिए था, क्योंकि विष्णु झावर व मनोज फडनिस का असली असर तो यहीं है । अभय शर्मा की जोरदार जीत से यह असर दिखा भी । चेयरमैन का चुनाव और छोटा हो जाने के कारण और ज्यादा 'बड़ा' हो गया । इस चुनाव में मिली 'जीत' इसीलिए ही केमिशा सोनी के लिए सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में मिली जीत से भी बड़ी जीत है । दरअसल यही एक ऐसा पहला चुनाव था जिसमें केमिशा सोनी का विष्णु झावर व मनोज फडनिस से आमने-सामने का सीधा मुकाबला था ।
सारे तथ्य, सारे समीकरण, सारी परिस्थितियाँ हालाँकि चेयरमैन पद के चुनाव में अभय शर्मा की जीत की तरफ इशारा कर रही थीं - किंतु अभय शर्मा और उनके समर्थकों व शुभचिंतकों ने इंदौर में बदल रही हवा के रुख को पहचानने/समझने में चूक कर दी । इस बदल रही हवा का संकेत सेंट्रल काउंसिल व रीजनल काउंसिल के चुनाव में तो स्पष्ट रूप से मिला ही; इंदौर ब्राँच के चुनाव  में भी दिखा/मिला - जब अभय शर्मा की बड़ी जीत को बेईमानी व हेराफेरी से मिली जीत के रूप में प्रचारित किया गया । इस बात को जिस तरह से हवा मिली, उससे यह साबित हुआ कि इंदौर के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स 'नेताओं' के बीच विष्णु झावर व मनोज फडनिस खेमे के खिलाफ भारी नाराजगी है । इस तथ्य को केमिशा सोनी ने पहचाना और इसे अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने की उन्होंने तैयारी की । इंदौर ब्राँच में चुने गए नवनिर्वाचित सदस्य चूँकि अलग-अलग नेताओं के नजदीकी के रूप में या संपर्क में पहचाने गए, इसलिए उन्हें इकट्ठा करने में केमिशा सोनी को कोई बहुत मशक्कत नहीं करना पड़ी । इंदौर में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले नेताओं को केमिशा सोनी को सिर्फ यह समझाना पड़ा कि अभय शर्मा के चेयरमैन बनने से इंदौर ब्राँच पर विकास जैन का कब्जा हो जायेगा, और फिर विकास जैन मनमानी करेंगे । विकास जैन की मनमानी का डर दिखा कर और पदों का ऑफर देकर केमिशा सोनी ने गर्जना राठौर, विपुल पदलिया और आनंद जैन को अभय शर्मा के समर्थन से अलग कर दिया । चेयरमैन का पद अभय शर्मा से जिस तरह से 'छीन' लिया गया है, उसके जरिए दरअसल उन्हें विकास जैन के नजदीक होने तथा विष्णु झावर व मनोज फडनिस के 'आदमी' होने की सजा दी गई है - और इस कार्रवाई से केमिशा सोनी ने इंदौर में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में अपनी धाक को और मजबूत बनाया है ।

Sunday, February 28, 2016

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का चेयरमैन पद पाने वाले दीपक गर्ग को साथ में कई तरह की मुश्किलें भी मिली हैं

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के चुनाव में इस बार जो राजनीति हुई, उसने जीतने वाले लोगों को जीत का लडडू तो थमा दिया है - लेकिन इस लडडू को इच्छानुसार खा सकने का अधिकार उन्हें नहीं दिया है । ऐसे में जीतने वाले असमंजस में हैं कि वह जीत के लडडू को पाने की खुशी मनाएँ या उसे इच्छानुसार खा न सकने का दुःख झेले । दीपक गर्ग चेयरमैन बनने में तो कामयाब रहे, किंतु विरोधी खेमे के जिन लोगों को 'बाहर' रख कर उन्होंने चेयरमैन बनने की बिसात बिछाई थी - विरोधी खेमे के उन लोगों के एक्जीक्यूटिव कमेटी में शामिल हो जाने से मनमाने तरीके से चेयरमैनी कर सकने का उनका सपना ध्वस्त हो गया है । सिर्फ इतना ही नहीं, जिन राजेश अग्रवाल और राकेश मक्कड़ के साथ मिल कर उन्होंने चेयरमैन का पद पाने की तिकड़में की थीं - उन्हें चूँकि बाबा जी का ठुल्लू मिला है, इसलिए दीपक गर्ग को उन दोनों की तरफ से भी टाँग-खिंचाई का डर है । जाहिर है कि दीपक गर्ग के सामने डर डर कर ही चेयरमैनी करने का विकल्प बचा है । राजेश अग्रवाल और राकेश मक्कड़ के साथ वास्तव में बहुत ही बुरा हुआ है - इन दोनों ने ही साथ मिल कर चेयरमैन पद की तरफ दौड़ शुरू की थी, किंतु इन्हें चेयरमैन का पद तो छोड़िए - बाकी तीन प्रमुख पदों में से भी कोई पद नहीं मिल सका । रीजनल काउंसिल को अपनी मुट्ठी में करने के लिए सेंट्रल काउंसिल के विजय गुप्ता और राजेश शर्मा ने जो मेहनत की, उस पर सेंट्रल काउंसिल के संजय अग्रवाल ने जिस तरह से पानी फेर दिया - उससे विजय गुप्ता और राजेश शर्मा को जो झटका लगा, वह एक अलग दिलचस्प नजारा है ।
उल्लेखनीय है कि नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन पद की चुनावी लड़ाई को नियंत्रित करने के लिए राजेश अग्रवाल और राकेश मक्कड़ ने शुरुआती चाल चली थी । शुरुआती चाल के समय यह छह लोगों का ग्रुप था - राजेश अग्रवाल, सुमित गर्ग, राकेश मक्कड़, विवेक खुराना, नितिन कँवर और राजिंदर अरोड़ा । ग्रुप आगे बढ़ा, तो सातवें सदस्य के रूप में इन्होंने आलोक जैन को तथा आठवें सदस्य के रूप में पूजा अग्रवाल को जोड़ा । यहाँ तक आते आते लग रहा था कि इन आठ लोगों की एक्जीक्यूटिव कमेटी बन जाएगी और चेयरमैन राजेश अग्रवाल व राकेश मक्कड़ में से कोई एक हो जायेगा । लेकिन ऐसा हो पाता उससे पहले विजय गुप्ता और राजेश शर्मा इनके बीच कूद पड़े - जिन्होंने राजेश अग्रवाल को समझाया कि राकेश मक्कड़ पहले वर्ष में चेयरमैन बनने की जिद करेंगे, इसलिए उन्हें छोड़ो और दीपक गर्ग व पंकज पेरीवाल को लेकर ग्रुप बनाओ । चेयरमैन पद का चुनाव राजेश अग्रवाल और दीपक गर्ग के नाम की पर्ची डाल कर हो जायेगा । राजेश अग्रवाल को इस ऑफर में चेयरमैन बनने के चांस फिफ्टी फिफ्टी दिखे, तो उन्होंने राकेश मक्कड़ से किनारा करने में देर नहीं लगाई । किंतु यह फार्मूला अपनाया जाता, उससे पहले राजेश अग्रवाल को चेयरमैन बनने के अपने चांस को फिफ्टी से बढ़ा कर हंड्रेड करने का जुगाड़ समझ में आया, जिसके तहत उन्होंने बाकी बचे तीन सदस्यों - राजिंदर नारंग, योगिता आनंद व स्वदेश गुप्ता वाले ग्रुप से संपर्क साधा । राजेश अग्रवाल की इस सक्रियता की पोल लेकिन खुल गई, और तब विजय गुप्ता व राजेश शर्मा ने उनके साथ की जाने वाली डील राकेश मक्कड़ के साथ कर ली । राजेश अग्रवाल को इसकी भनक लगी, तो उन्होंने पलटी तो मारी - किंतु तब तक वह घर और घाट दोनों खो चुके थे ।
विजय गुप्ता और राजेश शर्मा को रीजनल काउंसिल की राजनीति में दिलचस्पी लेते देख सेंट्रल काउंसिल के संजय अग्रवाल भी सक्रिय हुए और उन्होंने सेंट्रल काउंसिल के बाकी सदस्यों को साथ लेकर रीजनल काउंसिल के सदस्यों के सामने एक ऐसा फार्मूला पेश किया - जिसे सुनकर रीजनल काउंसिल पर कब्जे को लेकर उछल-कूद मचा रहे लोगों को साँप सूँघ गया और उनकी सारी राजनीति हवा हो गयी । संजय अग्रवाल ने फार्मूला दिया कि एक्जीक्यूटिव कमेटी में सभी तेरह सदस्य होंगे तथा रीजनल काउंसिल की मीटिंग हर दो माह में होगी । सेंट्रल काउंसिल सदस्यों की तरफ से संजय अग्रवाल ने स्पष्ट कर दिया कि यदि यह फार्मूला नहीं माना गया तो फिर चुनाव में सेंट्रल काउंसिल सदस्य भी वोट डालेंगे । रीजनल काउंसिल पर कब्जा जमाने के लिए तिकड़म पर तिकड़म लगा रहे विजय गुप्ता और राजेश शर्मा ने यह समझने में गलती नहीं की कि उन्होंने यदि संजय अग्रवाल द्वारा प्रस्तुत किए गए सुझाव नहीं माने तो दीपक गर्ग को चेयरमैन बनवाने की उनकी कोशिशों पर पानी फिर जायेगा । वह भी यह तो समझ ही रहे हैं कि एक्जीक्यूटिव कमेटी में तेरह सदस्यों के रहते चेयरमैन का पद बस एक दिखावा भर है, लेकिन ठीक है - दिखावा तो है ! यह ऐसा ही हुआ है कि दीपक गर्ग को चेयरमैनरूपी बंदूक तो मिल गई है, लेकिन गोलियाँ नहीं मिली हैं ।
राजेश अग्रवाल और राकेश मक्कड़ के साथ लेकिन सबसे ज्यादा बुरा हुआ - कहाँ तो यह दोनों चेयरमैन बनने की दौड़ में थे, और कहाँ नौबत यह आई कि चेयरमैन तो दूर की बात - बाकी तीन महत्वपूर्ण पदों में भी इन्हें जगह नहीं मिली । जो हुआ, उसे हालाँकि इस तर्क के सहारे एक अच्छे उदाहरण के रूप में भी देखा/पहचाना जा रहा है कि रीजनल काउंसिल की फंक्शनिंग में सभी की भागीदारी रहेगी तो एक अच्छा माहौल बनेगा और वास्तव में उपयोगी काम हो सकेंगे । यह एक ऐसी उम्मीद है - जिसे हर कोई पूरी होते हुए तो देखना चाहेगा, किंतु कम लोग हैं जिन्हें यह उम्मीद पूरी हो सकने का भरोसा है । चेयरमैन के चुनाव को लेकर इस बार जो राजनीति हुई और हालात ने बार-बार पलटी खाई और कुछेक लोगों के सपने जिस तरह से चकनाचूर हुए - उससे हालात विस्फोटक बने हैं; जो अभी भले ही शांत दिख रहे हों, लेकिन जो धमाके करने के लिए जमीन तैयार किए हुए हैं । कुछेक लोगों को हालाँकि लगता है कि दीपक गर्ग ने यदि होशियारी से काम किया, तो उन्हें सबके साथ मिलकर काम करने का जो सुनहरा मौका मिला है उसका फायदा उठाते हुए वह नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में एक नया इतिहास भी बना सकते हैं । दीपक गर्ग को जो लोग जानते हैं, उनका कहना लेकिन यह है कि दीपक गर्ग से ऐसी होशियारी की उम्मीद करना उचित नहीं होगा - और रीजनल काउंसिल में पटाखेबाजी देखने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए ।

Wednesday, February 24, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार के रूप में चुने गए जितेंद्र ढींगरा के खिलाफ राजा साबू का नाम लेकर मधुकर मल्होत्रा और शाजु पीटर के आपस में भिड़ जाने से डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति का सीन दिलचस्प हुआ

चंडीगढ़ । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार के रूप में जितेंद्र ढींगरा के चुने जाने पर सत्ता खेमे में मची खलबली में राजेंद्र उर्फ राजा साबू की भूमिका को लेकर मधुकर मल्होत्रा और शाजु पीटर के बीच जो 'जंग' छिड़ी है, उसने एक दिलचस्प नजारा पेश किया हुआ है । उल्लेखनीय है कि नोमीनेटिंग कमेटी में जितेंद्र ढींगरा को अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने के दो दिन बाद ही पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर मधुकर मल्होत्रा ने जितेंद्र ढींगरा के नजदीकियों को संदेश दिया कि राजा साबू नोमीनेटिंग कमेटी के इस फैसले से खुश नहीं हैं, और उन्होंने कह दिया है कि जितेंद्र ढींगरा यदि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुने गए - तो वह रोटरी छोड़ देंगे । यह बताते हुए मधुकर मल्होत्रा ने सुझाव दिया कि अच्छा होगा कि जितेंद्र ढींगरा इस पचड़े से खुद को अलग कर लें और चैलेंजिंग उम्मीदवार को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बन जाने दें । मधुकर मल्होत्रा ने जितेंद्र ढींगरा के नजदीकियों को आश्वस्त किया कि दो-चार वर्ष में राजा साबू खुद आगे बढ़ कर जितेंद्र ढींगरा को भी और टीके रूबी को भी गवर्नर चुनवायेंगे/बनवायेंगे । यह बात एक दूसरे पूर्व गवर्नर शाजु पीटर तक पहुँची, तो उन्होंने इस मामले में मधुकर मल्होत्रा द्वारा राजा साबू को घसीटे जाने पर अपना ऐतराज जताया । शाजु पीटर का कहना रहा कि जितेंद्र ढींगरा के अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने से डिस्ट्रिक्ट में बहुत से लोग खुश नहीं हैं, और वह चाहते हैं कि नोमीनेटिंग कमेटी के इस फैसले को चैलेंज किया जाए - किंतु इस बात में राजा साबू का कोई रोल नहीं है । शाजु पीटर का साफ कहना रहा कि मधुकर मल्होत्रा को इस मामले में राजा साबू का नाम नहीं लेना चाहिए और राजा साबू के नाम पर इस तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए ।
यहाँ यह याद करना उचित होगा कि डिस्ट्रिक्ट में ही नहीं, डिस्ट्रिक्ट के बाहर/ऊपर की रोटरी में भी मधुकर मल्होत्रा व शाजु पीटर को रोटरी की 'राजनीति' में एक-दूसरे के प्रतिस्पर्द्धी के रूप में देखा/पहचाना जाता है । माना/समझा जाता है कि इन दोनों को रोटरी में 'आगे' जाना है और बड़े बड़े असाइनमेंट व पद लेने हैं - और इसके लिए दोनों के बीच राजा साबू के ज्यादा से ज्यादा नजदीक होने/रहने की होड़ लगी रहती है । रोटरी में 'आगे' रहने की, बड़े असाइनमेंट व पद लेने की ख्वाहिश तो और भी पूर्व गवर्नर्स में है - और इसके लिए राजा साबू की गुडबुक में आने के लिए वह अपने अपने तरीके से प्रयास भी खूब करते हैं; लेकिन मधुकर मल्होत्रा व शाजु पीटर के प्रयासों के सामने उनके प्रयास फीके पड़ जाते हैं और इस कारण से फ्रंट रनर्स के रूप में मधुकर मल्होत्रा व शाजु पीटर को ही पहचान मिली है । इन दोनों का भी तरीका अलग अलग है : मधुकर मल्होत्रा के तरीकों में एक आक्रामकता व 'गर्मी' देखी जाती है, जबकि शाजु पीटर के प्रयासों में शालीनता व ठंडापन महसूस किया जाता है । अधिकृत उम्मीदवार के रूप में चुने गए जितेंद्र ढींगरा के आगे बढ़ने को रोकने के मामले में भी दोनों के तरीकों के इस फर्क को देखा/पहचाना जा सकता है । मधुकर मल्होत्रा तुरंत धौंस-डपट पर उतर आए हैं, और अपनी धौंस को दमदार बनाने के लिए राजा साबू के नाम का इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं; जबकि शाजु पीटर मामले की नाजुकता को समझ कर होशियारी से 'काम' करने की तरकीब लड़ा रहे हैं । शाजु पीटर ने यह जरूर किया कि जैसे ही उन्होंने मौका देखा, राजा साबू का नाम इस्तेमाल न करने की नसीहत देकर मधुकर मल्होत्रा को लताड़ लगाने का मौका उन्होंने नहीं गँवाया ।
डिस्ट्रिक्ट में हर किसी के सामने यह अब जरूर साफ हो गया है कि अधिकृत उम्मीदवार के रूप में जितेंद्र ढींगरा को चुने जाने का नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला डिस्ट्रिक्ट में राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता गिरोह को पसंद नहीं आया है और वह इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं । नोमीनेटिंग कमेटी का फैसला डिस्ट्रिक्ट के सत्ता गिरोह के लिए वास्तव में किसी सदमे से कम नहीं है । दरअसल, जितेंद्र ढींगरा को सफल न होने देने के लिए सत्ता गिरोह के नेताओं ने पूरी तरह से कमर कस ली थी, और डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में नोमीनेटिंग कमेटी की मीटिंग होने से पहले ही चुनाव की बागडोर पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर यशपाल दास ने संभाल ली थी । नोमीनेटिंग कमेटी की मीटिंग होने से पहले सत्ता गिरोह के नेताओं ने अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर प्रवीन चंद्र गोयल के नाम पर एकजुटता बना ली थी । यही कारण रहा कि नोमीनेटिंग कमेटी के लिए चुने गए नौ नामों के सामने आते ही प्रवीन चंद्र गोयल ने पाँच-चार से अपने जीतने की घोषणा करना शुरू कर दिया था । प्रदीप जैन, बीएस सत्याल, नवनीत नागलिया, अरुण त्रेहन और ज्ञान प्रकाश शर्मा के वोट मिलने का प्रवीन चंद्र गोयल को पक्का भरोसा था । उन्हें ही नहीं, सत्ता गिरोह के नेताओं को भी पूरा पूरा भरोसा था - और इसीलिए वह भी प्रवीन चंद्र गोयल के अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने को लेकर आश्वस्त थे । लेकिन जब नतीजा आया, तो उनके होश फाख्ता हो गए । प्रवीन चंद्र गोयल तथा सत्ता गिरोह के नेताओं को नवनीत नागलिया पर धोखा देने का शक है । नवनीत नागलिया को डिस्ट्रिक्ट में पानीपत ग्रुप के एक नेता प्रमोद विज के 'आदमी' के रूप में देखा/पहचाना जाता है, और इस नाते प्रवीन चंद्र गोयल व सत्ता गिरोह के नेताओं को उनका वोट मिलने का पक्का भरोसा था । प्रवीन चंद्र गोयल को उनका वोट मिलने का इसलिए भी भरोसा था, क्योंकि प्रवीन चंद्र गोयल खुद पानीपत ग्रुप के 'आदमी' रहे हैं । प्रवीन चंद्र गोयल तथा सत्ता गिरोह के नेता हालाँकि अभी भी यही समझने का प्रयास कर रहे हैं कि गड़बड़ी नवनीत नागलिया की तरफ से हुई है, या प्रमोद विज से उन्हें गच्चा मिला है । अब सच चाहें जो हो, चुनावी सच यह है कि अधिकृत उम्मीदवार जितेंद्र ढींगरा चुने गए हैं ।
डिस्ट्रिक्ट में राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता गिरोह को लेकिन नोमीनेटिंग कमेटी का यह फैसला स्वीकार नहीं है और इस फैसले को पलटवाने के लिए सत्ता गिरोह के नेता सक्रिय हो गए हैं । मधुकर मल्होत्रा की तरफ से जितेंद्र ढींगरा के नजदीकियों को जो धौंस मिली है, वह इसी सक्रियता का एक उदाहरण भर है । जितेंद्र ढींगरा को 'आगे बढ़ने' से रोकने के तरीकों को लेकर सत्ता गिरोह के नेताओं के बीच मतभेद की खबरें भी हालाँकि सुनने को मिल रही हैं । पिछले रोटरी वर्ष में नोमीनेटिंग कमेटी के फैसले को पलटने के लिए सत्ता खेमे के नेताओं ने जो जो कारस्तानियाँ कीं और उनके नतीजे में डिस्ट्रिक्ट में और रोटरी भर में उनकी जो थुक्का-फजीहत हुई, उससे सबक लेकर सत्ता गिरोह के कुछेक नेता इस बार मामले को थोड़ा होशियारी से हैंडल करने की वकालत कर रहे हैं । उनका कहना है कि पिछली बार जैसे हथकंडे जब पिछली बार के मामले में मददगार साबित नहीं हुए, तो अबकी बार फिर से उन्हें इस्तेमाल करने में कौन सी अक्लमंदी होगी ? इसी बिना पर कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना और कहना है कि सीधे-सच्चे तरीके से कुछ हो सकता हो, तो करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए - अन्यथा मामले को अपनी इज्जत का सवाल नहीं बना लेना चाहिए । सत्ता गिरोह के कुछेक नेता लेकिन इस बात पर आमादा हैं कि जितेंद्र ढींगरा को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुने जाने से रोकने के लिए हर संभव हथकंडा अपनाना चाहिए, क्योंकि जितेंद्र ढींगरा के सफल हो जाने से राजा साबू सहित दूसरे कई पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स की बड़ी किरकिरी होगी । सत्ता गिरोह के नेताओं को अलग अलग तेवरों के साथ जितेंद्र ढींगरा के खिलाफ देख कर मधुकर मल्होत्रा को अपनी नेतागिरी दिखाने का जो मौका दिखा, उसे तुरंत से लपक कर वह मैदान में कूद पड़े हैं, और राजा साबू का नाम लेकर उन्होंने यह दिखाने/जताने का प्रयास भी किया है कि राजा साबू जैसे उन्हीं पर सबसे ज्यादा विश्वास करते हैं और इसीलिए जितेंद्र ढींगरा को आगे बढ़ने से रोकने की जिम्मेदारी राजा साबू ने उन्हें ही सौंपी है । मधुकर मल्होत्रा को सक्रिय होता देख शाजु पीटर भी चुप नहीं बैठे रह सके और मधुकर मल्होत्रा की लगाम कसते हुए उन्होंने स्पिन बॉल की कि मामले में राजा साबू का नाम नहीं लेना चाहिए । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अधिकृत उम्मीदवार के रूप में चुने गए जितेंद्र ढींगरा को आगे बढ़ने से रोकने के नाम पर मधुकर मल्होत्रा और शाजु पीटर जिस तरह से राजा साबू का नाम लेकर आपस में भिड़ गए हैं, उससे डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति का सीन खासा दिलचस्प हो गया है ।

Tuesday, February 23, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में सत्ता खेमे के नेताओं की प्रेरणा से सामने आई ललित खन्ना की उम्मीदवारी की सक्रियता ने डिस्ट्रिक्ट के चुनावी समीकरणों में उलटफेर की भूमिका बनाई

गाजियाबाद । सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में ललित खन्ना, रवींद्र सिंह, मनोज लाम्बा व अजय गुप्ता की तरफ से अपनी अपनी संभावित उम्मीदवारी को लेकर जो सक्रियता देखने को मिली - उसने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए खतरे की घंटी बजाने का काम किया है । लोगों के बीच रवींद्र सिंह की उम्मीदवारी को लेकर जो चर्चा छिड़ी और ललित खन्ना ने अपनी उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच फैले असमंजस को दूर करने के जो प्रयास शुरू किए - उससे डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में गर्मी पैदा होने के संकेत मिले हैं । ललित खन्ना की सक्रियता में अचानक से पैदा हुई तेजी ने डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों के कान खड़े किए । उल्लेखनीय है कि अभी तक ललित खन्ना की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने की चर्चा तो सुनी जा रही थी, किंतु ललित खन्ना की तरफ से कोई सक्रियता नहीं देखी जा रही थी । ललित खन्ना के क्लब में पिछले दिनों कुछेक महत्वपूर्ण आयोजन हुए जिनमें ललित खन्ना और उनकी पत्नी की विशेष संलग्नता भी रही और उन्हें खास तवज्जो भी मिली - लेकिन ऐसे मौकों का चूँकि वह कोई राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए नहीं दिखे, इसलिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर लोगों के बीच संशय पैदा हुआ । ऐसे में उनके नजदीकियों व शुभचिंतकों की तरफ से उन पर लगातार अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ में स्पष्ट फैसला करने के लिए दबाव पड़ रहा था । सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में इकट्ठा हुए लोगों व नेताओं की तरफ से ललित खन्ना को जो समर्थन मिलता नजर आया, तो उससे उत्साहित होकर उन्होंने वहीं अपनी उम्मीदवारी को लेकर फैले संशय को दूर करते हुए अपनी उम्मीदवारी की जोर-शोर से घोषणा कर दी ।
मजे की बात यह है कि मुकेश अरनेजा के जिस विरोध को ललित खन्ना की उम्मीदवारी के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखा/पहचाना जा रहा था, मुकेश अरनेजा का वही विरोध ललित खन्ना की उम्मीदवारी के पक्ष में सबसे बड़ा 'सहायक' बनता हुआ दिख रहा है । सत्ता पक्ष के नेताओं को लगता है कि मुकेश अरनेजा को सत्ता से दूर रखने के अपने उद्देश्य को वह ललित खन्ना के जरिए ही प्राप्त कर सकते हैं । उल्लेखनीय है कि सत्ता पक्ष के नेताओं के सामने एक बड़ा लक्ष्य व उद्देश्य मुकेश अरनेजा को सत्ता से दूर कर देने का है । इसमें ललित खन्ना की उम्मीदवारी उन्हें दोहरी मदद करती दिख रही है : एक तो, ललित खन्ना की उम्मीदवारी के रहते मुकेश अरनेजा किसी और उम्मीदवार के साथ खुल कर सक्रिय नहीं हो पायेंगे - क्योंकि तब वह क्लब विरोधी मामले में फँसेंगे; और दूसरे, डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में ललित खन्ना किसी भी हालत में मुकेश अरनेजा को सत्ता में हिस्सेदार नहीं बनायेंगे । इस आधार पर ललित खन्ना की उम्मीदवारी को सत्ता खेमे के नेताओं का समर्थन मिलने का अच्छा चांस है । इसके बावजूद, यह 'चांस' अभी तक हकीकत नहीं बन पाया है - तो कई लोगों की निगाह में इसके लिए ललित खन्ना ही जिम्मेदार रहे हैं । ललित खन्ना अपनी उम्मीदवारी को उत्साहित तरीके से लोगों के बीच प्रस्तुत नहीं कर सके, और इस कारण सत्ता खेमे के लोगों के बीच उनकी उम्मीदवारी को लेकर संशय बना । ललित खन्ना के कुछेक नजदीकियों का कहना रहा कि ललित खन्ना अपनी उम्मीदवारी को लेकर उत्साहित तो थे, पर वह यह सोचते/चाहते थे कि नेता लोग एक मत व एक स्वर से उनकी उम्मीदवारी का समर्थन घोषित करें । दोनों के बीच पहले आप पहले आप वाली लखनवी अदा का सीन बना - नेता सोचते/चाहते कि ललित खन्ना पहले अपनी सक्रियता दिखाएँ, तब फिर वह अपना समर्थन घोषित करें; ललित खन्ना सोचते/चाहते कि नेता लोग समर्थन घोषित करें, तब वह अपनी सक्रियता बनाएँ/दिखाएँ । इस चक्कर में अनुकूल स्थितियों के बावजूद ललित खन्ना की उम्मीदवारी की संभावना में फच्चर फँसा रहा ।
सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में लेकिन यह फच्चर जिस तरह से निकला है, और ललित खन्ना की उम्मीदवारी जिस तरह से सत्ता खेमे के नेताओं के बीच स्वीकार्य होती हुई दिखी है - उससे डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति एक आकार लेती नजर आने लगी है । कुछेक लोगों को हालाँकि अभी भी ललित खन्ना की सक्रियता पर संदेह है - इस संदेह को हवा देने का काम मुकेश अरनेजा भी खूब कर रहे हैं; मुकेश अरनेजा जहाँ मौका मिलता है वहाँ लोगों को यह बताने से नहीं चूकते हैं कि ललित खन्ना के लिए उम्मीदवार 'बन पाना' बहुत ही मुश्किल है, और एक उम्मीदवार की जरूरतों को निभा सकना उनके बस की बात नहीं है । इसके अलावा, ललित खन्ना के सामने सत्ता खेमे के दूसरे संभावित उम्मीदवारों के मुकाबले आगे रहने व 'दिखने' की गंभीर चुनौती है । सत्ता खेमे में लोगों के बीच रवींद्र सिंह की उम्मीदवारी की जो चर्चा है, और जिसे सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में मुखर होते हुए देखा/सुना गया - वह सत्ता खेमे के चुनावी परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण तथ्य है । रवींद्र सिंह को सत्ता खेमे के दूसरी-तीसरी पंक्ति के कुछेक नेताओं का समर्थन तो देखा/बताया जाता ही है, साथ ही चुनावी राजनीति की 'तंग-गलियों' की पहचान के साथ-साथ उनसे गुजरने का अनुभव भी रवींद्र सिंह के पास/साथ है । सत्ता खेमे के ही कई नेताओं का मानना/कहना है कि रवींद्र सिंह ने अपनी राजनीतिक चाल यदि होशियारी से चली, तो अपनी उम्मीदवारी के लिए अभी बिखरे बिखरे से दिख रहे समर्थन-आधार को एकजुट करना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा । सत्ता खेमे के लोगों का समर्थन जुटाने के लिए मनोज लाम्बा और अजय गुप्ता भी अपनी अपनी तरह से सक्रिय देखे गए हैं । इनकी सक्रियता हालाँकि अभी तक लोगों के बीच कोई विशेष प्रभाव तो नहीं बना पाई है, लेकिन लोगों को यह जरूर लगता है कि यह यदि ठीक से सक्रिय हो गए - तो डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति का समीकरण खासा पेचीदा और दिलचस्प हो जायेगा ।
डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के इस बनते हुए सीन में दीपक गुप्ता की अनुपस्थिति लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य है । अवधारणा (परसेप्शन) के स्तर पर दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी को अभी भी सबसे ज्यादा मजबूत देखा/पहचाना जा रहा है - लेकिन बनते चुनावी समीकरण में वह जिस तरह से बाहर होते या 'किए जाते' नजर आ रहे हैं, वह अपने आप में बड़ी बात है । दीपक गुप्ता के कुछेक शुभचिंतकों ने इस स्थिति के लिए सत्ता खेमे के नेताओं को जिम्मेदार ठहराया है । उनका कहना रहा कि सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में दीपक गुप्ता को सोची-समझी योजना के तहत इसीलिए आमंत्रित नहीं किया गया, ताकि उनकी उम्मीदवारी की मजबूती की अवधारणा को कमजोर किया जा सके । दीपक गुप्ता के शुभचिंतकों का यह आरोप हो सकता है कि सच हो - पर सवाल यह महत्वपूर्ण नहीं है कि दीपक गुप्ता के विरोधी क्या कर रहे हैं; सवाल यह महत्वपूर्ण है कि दीपक गुप्ता खुद क्या कर रहे हैं ? दीपक गुप्ता यह उम्मीद भला कैसे कर सकते हैं कि उनके विरोधी अपना जो मंच सजाएँ, उसे वह उन्हें सौंप दें - यह रणनीति तो दीपक गुप्ता को बनानी है कि जहाँ उन्हें बाहर रखने/करने की कोशिश हो रही हो, वहाँ वह अपनी 'मौजूदगी' कैसे 'बनाएँ' और 'दिखाएँ' ? यह रणनीति बनाने तथा एक प्रतिकूल स्थिति में अपना हुनर दिखाने में दीपक गुप्ता बुरी तरह फेल नजर आए हैं । उनके शुभचिंतकों का ही कहना है कि दीपक गुप्ता के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि कभी तो वह बहुत तेज रफ़्तार में दिखते हैं, और फिर अचानक से वह सीन से गायब हो जाते हैं । अभी जिस तरह से यह सीन बना/दिखा, उसमें उनकी उम्मीदवारी पर ही सवाल उठने लगे और लोगों के बीच की चर्चाओं में उनकी उम्मीदवारी पर संदेह व्यक्त होते सुने गए । दीपक गुप्ता के विरोधी लोगों में ही कइयों का मानना और कहना है कि दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच अभी जो हमदर्दी व समर्थन का भाव है, और इस भाव के चलते उनकी उम्मीदवारी की जो मजबूती है - उसी के कारण दूसरे उम्मीदवार अभी ज्यादा सक्रिय होने का साहस नहीं कर पा रहे हैं; और उसी के कारण सत्ता खेमे के नेताओं को कोई भरोसे का उम्मीदवार नहीं मिल पा रहा है । अपनी उम्मीदवारी के प्रति लेकिन दीपक गुप्ता की अपनी खुद की लापरवाही उनकी स्थिति को कमजोर करने का काम रही है ।
दीपक गुप्ता को अपनी उम्मीदवारी के प्रति लापरवाह देख कर ही ललित खन्ना ने अपनी उम्मीदवारी के लिए मौका पहचाना और अपनी उम्मीदवारी के प्रति वह उत्साहपूर्ण तरीके से सक्रिय हो गए हैं । ललित खन्ना की इस सक्रियता ने डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के समीकरणों में भारी उलटफेर होने की जमीन तैयार करने का काम तो कर ही दिया है ।

Friday, February 19, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में सुभाष जैन को चुनाव हरवाने के लिए खुल्लम-खुल्ला हर तरह की तिकड़म करने वाले सतीश सिंघल, सुभाष जैन की जीत के जश्न-समारोह में जाने को लेकर असमंजस में

नोएडा । सतीश सिंघल रोटरी क्लब गाजियाबाद सेंट्रल के निमंत्रण को लेकर भारी असमंजस में हैं, और उनके लिए यह फैसला कर पाना मुश्किल हो रहा है कि वह सुभाष जैन के स्वागत समारोह में जाएँ या न जाएँ ? रोटरी क्लब गाजियाबाद सेंट्रल सुभाष जैन का ही क्लब है, और उनका क्लब उनकी जीत को सेलिब्रेट करने का आयोजन कर रहा है । इस आयोजन में डिस्ट्रिक्ट के तमाम लोगों के साथ साथ सतीश सिंघल को भी आमंत्रित किया गया है । सतीश सिंघल के लिए राहत की और उपलब्धि की बात यह है कि खुद सुभाष जैन ने भी उन्हें फोन करके उक्त आयोजन के लिए आमंत्रित किया है । अपने नजदीकियों से यह बताते हुए सतीश सिंघल ने सलाह माँगी है कि सुभाष जैन का फोन आने से निमंत्रण उनके लिए खास तो हो गया है - किंतु फिर भी आयोजन में जाने या न जाने को लेकर उनका असमंजस बना हुआ है । दरअसल उन्हें याद है कि सुभाष जैन के नोमीनेटिंग कमेटी द्धारा अधिकृत उम्मीदवार चुने जाने के बाद हुई पार्टी में उनके जाने को लेकर खासा बाबेला मचा था, और कहा गया था कि सतीश सिंघल उक्त पार्टी में वास्तव में सुभाष जैन के समर्थन-आधार की जासूसी करने के उद्देश्य से गए थे । सतीश सिंघल ने लोगों को बताने/दिखाने का भरसक प्रयास किया था कि उक्त पार्टी में शामिल होने के लिए खुद सुभाष जैन ने उन्हें आमंत्रित किया था और उनके आमंत्रण के चलते ही वह उक्त पार्टी में गए थे - किंतु उक्त पार्टी में उनके जाने को लेकर विवाद थमा नहीं था और उनकी भारी किरकिरी हुई थी । सतीश सिंघल के सामने फिर से लगभग वैसे ही हालात हैं - सुभाष जैन की चुनावी जीत का जश्न मनना है, और उसमें शामिल होने के लिए उन्हें एक बार फिर सुभाष जैन का निमंत्रण भी है । सुभाष जैन से व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण मिलने के बावजूद सतीश सिंघल जश्न समारोह में जाने को लेकर असमंजस में इसलिए हैं कि कहीं इस बार भी तो उनके जाने को लेकर उनकी किरकिरी नहीं होगी ?
यह डर दरअसल इसलिए है क्योंकि सतीश सिंघल ने सुभाष जैन को चुनाव हरवाने की हर संभव कोशिश की थी; सतीश सिंघल ने वह हर काम किया जिससे सुभाष जैन की उम्मीदवारी को नुकसान हो सकता था । इस तथ्य को देखते हुए सुभाष जैन के समर्थकों के बीच सतीश सिंघल के प्रति गहरे विरोध का भाव है, और सुभाष जैन की पार्टी में सतीश सिंघल को देख कर उनकी तरफ से ही मजे लेने की संभावना है । उल्लेखनीय है कि यूँ तो किसी भी चुनाव में पक्ष-विपक्ष बनते ही हैं, और चुनावी नतीजा आने के बाद उनके बीच का फर्क मिट भी जाता है - और इस बात को अच्छी भावना के साथ लिया/देखा भी जाता है । सुभाष जैन की उम्मीदवारी के खिलाफ रहे कई लोगों को अब सुभाष जैन के साथ नजदीकी बनाते हुए देखा/सुना जा सकता है - यह अच्छा ही है कि 'उम्मीदवार सुभाष जैन' से उनका जो विरोध था, उसे उन्होंने 'डिस्ट्रिक्ट पदाधिकारी सुभाष जैन' के सामने तिलांजलि दे दी है । किंतु सतीश सिंघल का मामला बिलकुल अलग है । सतीश सिंघल जिस समय सुभाष जैन की उम्मीदवारी की खिलाफत करते हुए अपनी सारी ताकत झोंके हुए थे, उस समय वह डिस्ट्रिक्ट पदाधिकारी थे - और डिस्ट्रिक्ट पदाधिकारी होने के नाते उनसे उम्मीद की गई थी कि वह अपने पद की गरिमा बनाए रखते हुए चुनावी राजनीति में खुल कर एक पक्ष नहीं बनेंगे । रोटरी की चुनावी राजनीति में हालाँकि देखा जाता है कि डिस्ट्रिक्ट पदाधिकारी भी पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाते ही हैं; सुभाष जैन और दीपक गुप्ता के बीच हुए चुनाव में भी सभी डिस्ट्रिक्ट पदाधिकारियों की अपनी अपनी भूमिका थी ही - लेकिन सतीश सिंघल ने अपनी भूमिका जिस खुल्लम-खुल्ला तरीके से चलाई, वह न रोटरी की प्रतिष्ठा के अनुरूप थी और न उनके पद की गरिमा के अनुकूल थी ।
शिकायत की बात यह नहीं रही कि सतीश सिंघल ने सुभाष जैन की उम्मीदवारी का विरोध किया । दूसरे लोगों व पदाधिकारियों की तरह सतीश सिंघल को भी हक है कि चुनावी मुकाबले में वह किसी एक उम्मीदवार का समर्थन करें, और इस नाते वह दूसरे उम्मीदवार के खिलाफ नजर आएँ । यहाँ तक कोई समस्या नहीं है, कोई शिकायत नहीं है; समस्या और शिकायत इसके आगे की कार्रवाई पर होती है - जहाँ वह चुनावी मुकाबले में अपनी तमाम तिकड़में एक तरफ झोंके होते हैं । सतीश सिंघल अक्सर बड़े गर्व से बताते हैं कि रोटरी में उन्हें 35 वर्ष हो गए हैं । इस बार के चुनाव में लेकिन उनका जो रवैया रहा, उसे देखते/समझते हुए लोगों को यही लगा जैसे कि उन्होंने इन 35 वर्षों में रोटरी को समझा/पहचाना नहीं है - रोटरी का सम्मान करना/रखना तो उन्होंने जैसे बिलकुल ही नहीं सीखा । चुनाव में सतीश सिंघल ने जो भूमिका निभाई - उसमें उन्होंने रोटरी की प्रतिष्ठा व पद की गरिमा के तो चीथड़े उड़ाए ही; व्यावहारिकता के प्रति भी अपनी नासमझी का परिचय दिया । उनके कुछेक नजदीकियों ने उन्हें समझाया भी था कि चुनाव में सुभाष जैन के जीतने के चांस हैं, इसलिए सुभाष जैन की उम्मीदवारी के विरोध में इस हद तक मत जाओ कि फिर मुँह छिपाने की नौबत आए । सतीश सिंघल ने लेकिन अपने नजदीकियों की भी नहीं सुनी । इसीलिए - दरअसल इसीलिए सतीश सिंघल को लोग जब सुभाष जैन को जीत की बधाई देते देखते/सुनते हैं, तो वह सतीश सिंघल का मजाक बनाते हैं । इस बात को जानने/समझने के कारण ही सतीश सिंघल के लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि सुभाष जैन की चुनावी जीत का जश्न मनाने वाले आयोजन में वह जाएँ या न जाएँ ?
सतीश सिंघल के साथ एक और समस्या है : सतीश सिंघल उन रोटेरियंस के प्रति अभी भी बैर का भाव बनाए रखे हुए हैं, जिन्होंने उनके चुनाव में उनका साथ नहीं दिया था । पिछले दिनों ही एक मौके पर रोटरी क्लब गाजियाबाद हैरिटेज के वरिष्ठ सदस्य रवींद्र सिंह को उनका कोप भाजन बनना पड़ा । रवींद्र सिंह का 'कसूर' यह है कि उन्होंने सतीश सिंघल की बजाए प्रसून चौधरी की उम्मीदवारी का समर्थन किया था । इस बात से सतीश सिंघल अभी तक इतने कुपित हैं कि जैसे ही उन्हें मौका मिला, रवींद्र सिंह के खिलाफ उन्होंने जमकर भड़ास निकाली । यानि सतीश सिंघल अपनी उम्मीदवारी के खिलाफ रहने वालों को तो अपमानित करते रहना चाहते हैं, लेकिन अपने मामले में चाहते हैं कि सुभाष जैन और उनके साथी इस बात को भूल जाएँ कि उनकी उम्मीदवारी के प्रति उनका क्या रवैया था ?
मजे की बात यह भी है कि सुभाष जैन के प्रति सतीश सिंघल का विरोध का भाव अभी भी खत्म नहीं हुआ है । अभी हाल ही में इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन तथा इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई के संयुक्त रूप से डिस्ट्रिक्ट 3012 के दौरे के दौरान सुभाष जैन को मनोज देसाई का ऐड बनने का जो अवसर मिला, उसके प्रति भी सतीश सिंघल नाराजगी दिखाते सुने गए । दरअसल सतीश सिंघल को डिस्ट्रिक्ट पदाधिकारी बने एक वर्ष हो जाने के बाद भी इस तरह का सुनहरा मौका नहीं मिला, जो सुभाष जैन को एक महीने के अंदर अंदर ही मिल गया । इसी कारण से सतीश सिंघल बुरी तरह बिफरे हुए नजर आए । सुभाष जैन को जिस तरह से कम समय में ही रोटरी के बड़े नेताओं के बीच पहचान और प्रतिष्ठा मिल रही है, वह रोटरी में कम ही लोगों/पदाधिकारियों को मिल पाती है । यह बात सतीश सिंघल को हजम नहीं हो पा रही है, और मौका मिलने पर वह अपनी भड़ास निकालने लगते हैं । इस तरह की बातें लोगों के बीच चर्चा का विषय बनती ही हैं - और इसीलिए सतीश सिंघल के लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि सुभाष जैन के व्यक्तिगत निमंत्रण के बावजूद वह उनकी चुनावी जीत के जश्न-समारोह में शामिल हों या नहीं ?

Thursday, February 18, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 की देहरादून में होने वाली डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में प्रेसीडेंट नॉमिनी ईआन रिसले को अपने ही डिस्ट्रिक्ट के लोगों से दूर रखने की राजा साबू और उनके संगी-साथी गवर्नर्स की कोशिश सफल होगी क्या ?

चंडीगढ़/देहरादून । राजेंद्र उर्फ राजा साबू तथा उनके साथी गवर्नर्स के लिए रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट नॉमिनी ईआन रिसले को डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में अपने डिस्ट्रिक्ट के उन वरिष्ठ सदस्यों से 'बचा' कर रखना बड़ी चुनौती होगी, जो उनसे मिल कर डिस्ट्रिक्ट में होने वाली फंड की गड़बड़ियों पर बात करना चाहेंगे । ईआन रिसले देहरादून में होने वाली डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट के आधिकारिक प्रवक्ता के रूप में शामिल होने पहुँच रहे हैं । राजा साबू तथा डिस्ट्रिक्ट के पदाधिकारियों को खबर मिली है कि डिस्ट्रिक्ट के कुछेक वरिष्ठ सदस्य ईआन रिसले के संज्ञान में डिस्ट्रिक्ट में फंड को लेकर होने वाली अनियमितताओं तथा गड़बड़ियों की बात लाने की तैयारी कर रहे हैं, और वह इस संदर्भ में ईआन रिसले को ज्ञापन आदि सौपेंगे । उल्लेखनीय है कि रोटरी क्लब चंडीगढ़ सिटी ब्यूटीफुल के वरिष्ठ सदस्य व पूर्व प्रेसीडेंट एमपी गुप्ता इस तरह की कार्रवाई मौजूदा इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के साथ कर चुके हैं, जिसके चलते पूर्व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट राजा साबू तथा डिस्ट्रिक्ट के दूसरे प्रमुख गवर्नर्स को रोटरी समाज में भारी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है । उनकी मुसीबत को केआर रवींद्रन की तरफ से एमपी गुप्ता को मिली तवज्जो ने और बढ़ाया । इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन ने लोगों के सामने एमपी गुप्ता को जिस तरह की इम्पोर्टेंस दी, उससे डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच एमपी गुप्ता का कद खासा बढ़ा नजर आया । इसमें राजा साबू और उनके संगी-साथी गवर्नर्स के लिए बुरी बात यह हुई कि इससे प्रेरित होकर डिस्ट्रिक्ट के कुछेक और लोग भी एमपी गुप्ता के नक्शेकदम पर चलने को तैयार होने लगे हैं ।
हैरत की बात यह है कि डिस्ट्रिक्ट से जुड़े कई मामलों के फंड के हिसाब-किताब को लेकर सवाल उठने के बावजूद डिस्ट्रिक्ट गवर्नर डेविड हिल्टन और दूसरे प्रोजेक्ट्स से जुड़े पूर्व गवर्नर्स हिसाब-किताब देने/बताने को तैयार नहीं दिख रहे हैं; और तरह तरह की बहानेबाजियों से हिसाब-किताब देने को टालने की कोशिश करते हुए ही देखे जा रहे हैं । इस कोशिश को राजा साबू का पूरा समर्थन बताया और देखा जा रहा है । राजा साबू के समर्थन के भरोसे ही पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर यशपाल दास ने तो 18 अक्टूबर को अंबाला में हुई इंटरसिटी में यह कहते हुए लोगों को सीधी चुनौती ही दे डाली थी कि हम कोई हिसाब-किताब नहीं देंगे, बताओ क्या कर लोगे ? हिसाब-किताब को लेकर सबसे ज्यादा छीछालेदर पिछले रोटरी वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर दिलीप पटनायक की हुई है - और उनके चक्कर में पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर हेमंत अरोड़ा भी फजीहत का शिकार हुए । दरअसल डिस्ट्रिक्ट में हिसाब-किताब देने की माँग के बढ़ने से जो दबाव बना, उससे दिलीप पटनायक के गवर्नर-काल की दो बैलेंस-शीट सामने आने का अद्भुत नजारा पेश हुआ । चूँकि पिछले वर्षों में होता यह रहा है कि गवर्नर अपने कार्यकाल की काली-पीली जैसी जो बैलेंस-शीट बनाता है, वह चुपचाप पास करा लेता रहा है - तो उसी तर्ज पर दिलीप पटनायक के कार्यकाल की भी बैलेंस-शीट बन गई । इस बीच लेकिन डिस्ट्रिक्ट में लोगों के बीच हिसाब-किताब को लेकर जागरूकता बढ़ी देखी गई, तो दिलीप पटनायक व उनके सलाहकारों को बैलेंस-शीट 'ठीक' से बनाने की जरूरत महसूस हुई । हेमंत अरोड़ा 'सेवा' करने के लिए तैयार बैठे ही थे । हेमंत अरोड़ा को लोग पढ़े-लिखे चार्टर्ड एकाउंटेंट के रूप में समझते/पहचानते रहे हैं - किंतु लोगों को अब पता चला कि चार्टर्ड एकाउंटेंट के रूप में हेमंत अरोड़ा तो बस आँख बंद करके 'ठप्पे' लगाने का काम करते हैं - उनकी फीस उन्हें दे दो, और जहाँ चाहो वहाँ ठप्पा लगवा लो । चार्टर्ड एकाउंटेंट के रूप में हेमंत अरोड़ा ने दिलीप पटनायक के गवर्नर-काल की पहली बैलेंस-शीट में जिस श्रद्धा-भाव से ठप्पा लगाया था, उसी श्रद्धा-भाव से उन्होंने दूसरी बैलेंस-शीट में भी ठप्पा लगा दिया । पहली बैलेंस-शीट में दिखाया गया फायदा दूसरी बैलेंस-शीट में भारी घाटे में बदल गया । फायदे को भारी घाटे में बदलने के लिए की गई हेराफेरी के लिए हेमंत अरोड़ा को फीस कितनी मिली, यह तो हेमंत अरोड़ा और दिलीप पटनायक ही जानते होंगे - लेकिन फायदे के भारी घाटे में बदलने का जादू लोगों ने मुफ्त में देखा ।
यशपाल दास की 'हिसाब नहीं देंगे, बताओ क्या कर लोगे' जैसी धमकीभरी चुनौती और दिलीप पटनायक के गवर्नर-काल की दो बैलेंस-शीट आने से साफ हो गया कि मामला 'दाल में कुछ काला' भर होने का नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी दाल के काला होने का है । राजा साबू और उनके संगी-साथी गवर्नर्स को हालाँकि इस बात की ज्यादा परवाह नहीं है कि डिस्ट्रिक्ट में और या रोटरी में लोग उनके बारे में कैसी कैसी बातें कर रहे हैं, और कैसे कैसे सवाल उठा रहे हैं; लोगों  के सवालों पर वह चुप्पी मार कर बैठे हैं - क्योंकि वह जानते हैं कि लोग सवाल करने के अलावा कुछ और कर भी नहीं पायेंगे । दरअसल इसी विश्वास के चलते यशपाल दास यह कहने का साहस कर सके कि 'हम हिसाब नहीं देंगे, बताओ क्या कर लोगे ।' किंतु उनकी समस्या और चिंता यह है कि ईआन रिसले के मन में यदि यह बात बैठ गई कि राजा साबू और उनके संगी-साथी हिसाब-किताब में गड़बड़ी करते हैं, तो क्या होगा । ईआन रिसले अभी रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट नॉमिनी हैं - उनके प्रेसीडेंट बनने में अभी समय है; पर अभी से उनके मन में यदि यह बात बैठा दी गई कि राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट में हिसाब-किताब में भारी हेराफेरी होती है, और इसके चलते प्रेसीडेंट पद तक पहुँचने पर उन्होंने राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट के हिसाब-किताब को सख्ती से देखना/दिखवाना शुरू कर दिया - तो फिर क्या होगा ? राजा साबू और उनके संगी-साथी गवर्नर्स को एमपी गुप्ता तथा दूसरे लोगों के सवालों से ज्यादा परेशानी नहीं है; वह जानते/समझते हैं कि एमपी गुप्ता तथा दूसरे लोगों के सवाल उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे; लेकिन यह बात वह जरूर समझ रहे हैं कि एमपी गुप्ता तथा दूसरे लोगों द्धारा लगातार उठाए जा रहे सवालों से रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय में उनके खिलाफ सुबूत इकट्ठे हो रहे हैं, जो उनके लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं । उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले तक कौन इस बात पर विश्वास कर सकता था कि राजा साबू का डिस्ट्रिक्ट पायलट प्रोजेक्ट के घेरे में आ जायेगा, और डिस्ट्रिक्ट में राजा साबू कोई मनमानी करें - और रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय उनकी मनमानी को पूरा नहीं होने देगा । इसी तरह के झटकों से सबक लेते हुए राजा साबू तथा उनके संगी-साथी गवर्नर्स कोशिश करना चाहते हैं कि हिसाब-किताब पर सवाल उठा रहे लोगों की डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में ईआन रिसले से ज्यादा देर की मुलाकात और बातचीत न हो सके । देहरादून में होने वाली डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस में प्रेसीडेंट नॉमिनी ईआन रिसले को अपने ही डिस्ट्रिक्ट के लोगों से दूर रखने की राजा साबू और उनके संगी-साथी गवर्नर्स की यह कोशिश क्या गुल खिलायेगी, यह देखना दिलचस्प होगा ।

Tuesday, February 16, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 में टीके रूबी को गवर्नर पद से दूर रखने के उद्देश्य से जितेंद्र ढींगरा के साथ सौदा करने का राजा साबू के नेतृत्व वाले खेमे का प्रयास सफल हो पायेगा क्या ?

चंडीगढ़ । जितेंद्र ढींगरा की उम्मीदवारी को समर्थन देने के बदले में टीके रूबी की उम्मीदवारी की बलि का फार्मूला लेकर राजेंद्र उर्फ राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी शतरंज में जो चाल चली है, उसने डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में तो गर्मी पैदा की ही है - साथ ही राजा साबू के डिस्ट्रिक्ट की गतिविधियों में दिलचस्पी रखने वाले रोटेरियंस को भी उत्सुक और सतर्क कर दिया है । उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018-19 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के लिए होने वाले इस वर्ष के चुनाव में जो भी उम्मीदवार हैं, उनमें एक जितेंद्र ढींगरा को छोड़ कर बाकी सभी राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे के समर्थन के भरोसे अपनी अपनी नैय्या पार लगाने का जुगाड़ बैठा रहे हैं; नवजीत औलख को मधुकर मल्होत्रा का तथा प्रवीन चंद्र गोयल को शाजु पीटर का खुला समर्थन तक देखा जा रहा था - किंतु सत्ता खेमे की तरफ से जितेंद्र ढींगरा को समर्थन के संकेत भेजे/दिए जा रहे हैं । इन संकेतों में हालाँकि यह भी स्पष्ट कर दिया जा रहा है कि जितेंद्र ढींगरा को यह समर्थन मुफ्त में नहीं दिया जायेगा, उन्हें इसकी 'कीमत' चुकानी होगी । कीमत के रूप में वर्ष 2017-18 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के चुनाव से टीके रूबी के दूर रहने/हटने की बात भी स्पष्ट कर दी गई है । यहाँ मजेदार तथ्य यह है कि जितेंद्र ढींगरा भी अभी पिछले वर्ष तक राजा साबू के नेतृत्व वाले खेमे के ही सदस्य हुआ करते थे; पिछले वर्ष हुए चुनाव के फजीहत भरे किस्से के लिए लेकिन चूँकि जितेंद्र ढींगरा को ही जिम्मेदार माना जा रहा है, इसलिए जितेंद्र ढींगरा को विरोधी के रूप में देखा जाने लगा है । सत्ता खेमे के कुछेक लोग जितेंद्र ढींगरा को वापस सत्ता खेमे में लाने के इच्छुक रहे हैं, और इस वर्ष के चुनाव में प्रस्तुत हुई जितेंद्र ढींगरा की उम्मीदवारी में उन्हें अपनी इच्छा को पूरा करने का मौका भी दे दिया है । उनकी इच्छा और मौके में सत्ता खेमे के दूसरे लोगों को चूँकि अपनी फजीहत से पिंड छुड़ाने का अवसर नजर आ रहा है, इसलिए उन्हें भी जितेंद्र ढींगरा की उम्मीदवारी का समर्थन करने से परहेज नहीं है - लेकिन 'कीमत' के साथ ।
राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे के लिए दरअसल वर्ष 2017-18 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के चुनाव का ज्यादा महत्व है, जो रोटरी इंटरनेशनल के फैसले के चलते दोबारा होना है । वर्ष 2017-18 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के लिए पिछले रोटरी वर्ष में हुए चुनाव को मनमाने व षड्यंत्रपूर्ण तरीके से मैनेज करने की राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे की तमाम तमाम कोशिशों को जो पलीता लगा है, और उसके चलते रोटरी में उनकी जो भारी फजीहत हुई है - उसके बाद उनके लिए वर्ष 2017-18 के गवर्नर का चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है । राजा साबू के नेतृत्व वाले खेमे के अधिकतर नेता वर्ष 2017-18 में टीके रूबी को गवर्नर बनते हुए नहीं देखना चाहते हैं । इसके लिए वह जितेंद्र ढींगरा से सौदा करना चाहते हैं - जिसके अनुसार वर्ष 2018-19 के लिए वह जितेंद्र ढींगरा को चुनवाएँ/जितवाएँ, और इसके बदले में जितेंद्र ढींगरा उन्हें आश्वस्त करें कि 2017-18 के लिए होने वाले चुनाव में टीके रूबी की उम्मीदवारी प्रस्तुत नहीं होगी । राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे को लगता है कि इस सौदेबाजी के जरिए ही वह वर्ष 2018-19 में टीके रूबी को गवर्नर बनने से रोक सकते हैं; और उन्हें गवर्नर बनने से रोकने के लिए अभी तक की गईं अपनी कारस्तानियों पर और ज्यादा शर्मसार होने से बच सकते हैं । राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे के लिए मुसीबत तथा चुनौती की बात यह है कि टीके रूबी को गवर्नर न बनने देने के लिए उनके द्वारा चली गई हर चाल पिटती ही गई है, और उनके हिस्से में बदनामी व फजीहत ही जोड़ती गई है । यह ठीक है कि उनकी कोशिशों के चलते टीके रूबी गवर्नर नहीं बन सके हैं, लेकिन उनके लिए रास्ते पूरी तरह अभी भी बंद नहीं हुए हैं - और इस सारे तमाशे में राजा साबू तथा डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर्स की भारी थुक्का-फजीहत हुई है । 
राजा साबू तथा उनके संगी-साथी गवर्नर्स को डर यह है कि इस बार के चुनाव में यदि जितेंद्र ढींगरा जीत गए, तो फिर वर्ष 2017-18 के लिए दोबारा होने वाले चुनाव में टीके रूबी को जीतने से रोक पाना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव ही होगा । उनके लिए समस्या की बात यह है कि इस बार के चुनाव में जो भी उम्मीदवार हैं, उनमें जितेंद्र ढींगरा का ही पलड़ा भारी नजर आ रहा है । पहले तो कोशिश की गई कि किसी और उम्मीदवार के नाम पर सहमति बनाई जाए और उसे जितवाने का प्रयास किया जाए - लेकिन कोई उम्मीदवार इस लायक नहीं लगा कि उसके नाम पर सहमति बन पाए । दरअसल कोई भी उम्मीदवार इस तरह से सक्रिय ही नहीं हो सका कि वह लोगों के बीच अपनी पैठ बना पाता । मजे की बात यह है कि सत्ता खेमे के सबसे ज्यादा नजदीक समझे जाने वाले उम्मीदवार नवजीत औलख तथा प्रवीन चंद्र गोयल खेमे के नेताओं की यह कहते हुए शिकायत कर रहे हैं कि नेताओं ने इन्हें अकेला छोड़ दिया है, और वह इनकी कोई मदद नहीं कर रहे हैं । प्रवीन चंद्र गोयल का रोना तो और ज्यादा है - पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर मधुकर मल्होत्रा उनके अपने क्लब के हैं, लेकिन मधुकर मल्होत्रा उनकी मदद करने की बजाए उनका काम बिगाड़ने में ज्यादा रुचि ले रहे हैं । प्रवीन चंद्र गोयल का काम बिगाड़ने के लिए ही मधुकर मल्होत्रा ने नवजीत औलख को उम्मीदवार बनवा दिया है । नवजीत औलख की शिकायत किंतु यह है कि मधुकर मल्होत्रा ने उन्हें उम्मीदवार तो बनवा दिया है, लेकिन उनकी मदद नहीं कर रहे हैं । नवजीत औलख के एक नजदीकी ने मधुकर मल्होत्रा से यह शिकायत दोहराई, तो मधुकर मल्होत्रा ने यह कहकर उन्हें चुप कर दिया कि नवजीत औलख अपनी उम्मीदवारी के लिए खुद तो कुछ नहीं करेंगे - तो मैं ही क्या करूँगा ?
राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे के नेताओं को लगता है कि जब चुनावी दौड़ में जितेंद्र ढींगरा आगे दिख रहे हैं, तो क्यों न उन्हीं के साथ हो लिया जाए ? वह अभी पिछले वर्ष तक साथ ही तो थे । जितेंद्र ढींगरा का समर्थन करके सत्ता खेमे के नेता एक तीर से दो शिकार कर लेना चाहते हैं : एक तो वह यह दिखाना चाहते हैं कि जीतता वही है, जिसका वह समर्थन करते हैं; और दूसरे जितेंद्र ढींगरा के साथ समर्थन की सौदेबाजी करके वह टीके रूबी के कारण हो सकने वाली फजीहत से भी छुटकारा पा लेंगे । समस्या, बड़ी समस्या उनके सामने लेकिन यह है कि जितेंद्र ढींगरा इस सौदेबाजी के लिए तैयार होंगे क्या ? अधिकतर लोगों का मत है कि वह तैयार नहीं होंगे । इसी संभावना को ध्यान में रखते हुए राजा साबू के नेतृत्व वाले खेमे के नेताओं की तरफ से जितेंद्र ढींगरा को साथ साथ यह संदेश भी दिया गया है कि वह यदि सौदे के लिए तैयार नहीं होते हैं, तो फिर टीके रूबी की तरह उन्हें भी गवर्नर बनने नहीं दिया जायेगा - इसके लिए फिर चाहे जो करना पड़े । सत्ता खेमे के नेताओं की तरफ से कहा/बताया जा रहा है कि भले ही चुनाव में अब ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं, और भले ही अभी वह किसी उम्मीदवार के साथ नहीं दिख रहे हैं; लेकिन यदि जितेंद्र ढींगरा की राह में रोड़े डालने की जरूरत पड़ी - तो फिर कुछ भी किया जायेगा । सत्ता खेमे के नेताओं का कहना है कि वर्ष 2017-18 के गवर्नर का फैसला यदि हो गया होता, तो वर्ष 2018-19 के गवर्नर के चुनाव के पचड़े में वह पड़ते ही नहीं; किंतु चूँकि वर्ष 2017-18 के गवर्नर का मामला अभी फँसा हुआ है, और वह टीके रूबी को रोकने का अपना प्रयास जारी रखेंगे - इसलिए वर्ष 2018-19 के चुनाव में उन्हें दिलचस्पी लेना पड़ रहा है । राजा साबू के नेतृत्व वाले सत्ता खेमे के नेताओं की इस 'दिलचस्पी' के चलते वर्ष 2018-19 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के लिए सत्ता खेमे के नेताओं के भरोसे उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले उम्मीदवारों को तो अपने अपने लिए उम्मीद दिख रही है; और साथ साथ डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति का परिदृश्य भी खासा रोचक हो गया है । 

Monday, February 15, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3100 में पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर गजेंद्र सिंह धामा की राजनीति दीपक बाबु के लिए सचमुच मुसीबत बनेगी क्या ?

मुरादाबाद । दीपक बाबु को इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन से जो हिदायतें मिली हैं, उनका पालन करने में गजेंद्र सिंह धामा जिस तरह रोड़ा बनते दिख रहे हैं - उससे दीपक बाबु के सामने खासी दुविधा पैदा हो गई है । उल्लेखनीय है कि केआर रवींद्रन अभी पिछले दिनों डिस्ट्रिक्ट 3012 के आयोजनों के सिलसिले में दो दिन दिल्ली में थे, जहाँ उन्होंने दीपक बाबु को बुलाया । दीपक बाबु उनसे मिलने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर वाली 'अदा' के साथ गए - केआर रवींद्रन ने लेकिन उनकी अदा की सारी हवा निकाल दी । दीपक बाबु भारी तैयारी के साथ गए थे, कि वह कई विषयों पर उनसे बात करेंगे; केआर रवींद्रन ने लेकिन उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी और न किसी विषय पर बात करने में उन्होंने कोई दिलचस्पी ही दिखाई - उन्होंने दीपक बाबु को कुछेक हिदायतें दीं और आठवाँ मिनट पूरा होते होते उन्हें चलता कर दिया । केआर रवींद्रन ने दीपक बाबु से जो कहा, उनमें प्रमुख बातें रहीं : दीपक बाबु इस रोटरी वर्ष के बाकी बचे महीनों के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नहीं हैं, वह सिर्फ केयरटेकर हैं; वह क्लब्स की ऑफिसियल विजिट नहीं करेंगे और डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस नहीं करेंगे; डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव रोटरी इंटरनेशनल कार्यालय करवायेगा । केआर रवींद्रन ने दीपक बाबु को एक बड़ा काम यह सौंपा कि जो पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर ज्यादा राजनीति करते दिखें, उनके नाम मुझे भेजो । दीपक बाबु को केआर रवींद्रन से जो हिदायतें मिलीं, और जो 'व्यवहार' मिला - उसने उनके कान गर्म कर दिए हैं और मौजूदा रोटरी वर्ष के बाकी बचे महीनों में गवर्नरी करने के उनके जोश और उनकी तैयारी पर पानी बिखेर दिया है । दिल्ली में केआर रवींद्रन के सामने बिताए गए करीब आठ मिनट के समय ने दीपक बाबु को यह बात अच्छे से समझा दी है कि इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन ने डिस्ट्रिक्ट 3100 को अपनी कड़ी निगरानी में रखा हुआ है, और जिस कारण उनकी जरा सी चूक उन्हें सुनील गुप्ता वाली दशा में पहुँचा सकती है । 
दीपक बाबु के लिए मुसीबत की बात यह है कि जिन गजेंद्र सिंह धामा को उन्होंने अपने अधिकृत गवर्नर-काल के लिए डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर बनाया है, वही गजेंद्र सिंह धामा डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी लेते देखे जा रहे हैं - और इस तरह उन्हें सुनील गुप्ता की राह पर धकेलते दिख रहे हैं । दरअसल दीपक बाबु जिस दिन केआर रवींद्रन के कठोर व्यवहार का सामना करके लौटे, उसके बाद डिस्ट्रिक्ट में तेजी से घटनाचक्र चला । पहले गजेंद्र सिंह धामा ने मेरठ के पूर्व गवर्नर्स की मीटिंग बुलाई, जिसमें उन्होंने राजीव सिंघल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाने की जरूरत बताते हुए रणनीति बनाने की बात की । उनकी बात पर मीटिंग में मौजूद लोगों ने कोई उत्साह तो नहीं दिखाया, लेकिन चूँकि किसी ने कोई विरोध भी नहीं किया - तो गजेंद्र सिंह धामा ने इसे अपनी बात के चल निकलने के रूप में देखा/पहचाना । इसके बाद नीरज अग्रवाल ने मुरादाबाद के पूर्व गवर्नर्स की मीटिंग बुलाई, जिसमें उन्होंने बड़ी सोच व बड़ी चिंता को प्रदर्शित किया - और डिस्ट्रिक्ट की मौजूदा स्थिति पर विचार-विमर्श को आमंत्रित किया । विचार-विमर्श में आमराय यह बनी कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के कारण डिस्ट्रिक्ट में झगड़े होते हैं और डिस्ट्रिक्ट की बदनामी होती है । नीरज अग्रवाल ने कुछेक डिस्ट्रिक्ट में बनी व्यवस्था का हवाला देते हुए सुझाव रखा कि डिस्ट्रिक्ट को यदि तीन जोन में बाँट दिया जाए और वहाँ बारी बारी से गवर्नर चुने जाएँ, तो चुनावी झगड़ों पर काफी हद तक लगाम लगाई जा सकती है । नीरज अग्रवाल का यह सुझाव मीटिंग में उपस्थित सभी को पसंद आया और सभी ने इसे अपनाने की वकालत की । 
इसके बाद कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग हुई - और उस मीटिंग में नीरज अग्रवाल ने मुरादाबाद के पूर्व गवर्नर्स की तरफ से तीन जोन वाले फार्मूले को रखा; उन्होंने दीपक बाबु को संबोधित करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि चुनाव न होने के बावजूद डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस को अच्छे से किया जा सकता है । इस संदर्भ में उन्होंने अपने और संजीव रस्तोगी के गवर्नर-काल की कॉन्फ्रेंस का उदाहरण दिया । ऐसा लगा कि दीपक बाबु भी बात समझ रहे हैं । नीरज अग्रवाल की बातों पर सभी को सहमत होता देख गजेंद्र सिंह धामा को अपना खेल बिगड़ता हुआ दिखा, तो उन्होंने तीन जोन वाले फार्मूले को पटरी से उतारने की कोशिश तो बहुत की - लेकिन उनकी चली नहीं । कॉलिज ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग में अभी कोई अंतिम फैसला तो नहीं हुआ है, लेकिन एक मोटा-मोटी सहमति यह बनी है कि तीन जोन वाले फार्मूले को अमल में लाने की तैयारी की जाए - और इसके तहत दोनों उम्मीदवारों, राजीव सिंघल व दिवाकर अग्रवाल को राजी किया जाए तथा उम्मीदवारी से उनके इस्तीफे लिए जाएँ । दिवाकर अग्रवाल की तरफ से कॉलिज ऑफ गवर्नर्स को संदेश दे दिया गया है कि रोटरी व डिस्ट्रिक्ट के भले के लिए उनसे जो भी कुछ करने के लिए कहा जायेगा, वह करेंगे । राजीव सिंघल की तरफ से संदेश दिया गया है कि इस बारे में वह अपने समर्थकों/शुभचिंतकों से सलाह करके फैसला करेंगे । राजीव सिंघल के नजदीकियों का ही कहना है कि गजेंद्र सिंह धामा ने राजीव सिंघल को समझाया है कि उन्हें किसी फार्मूले के तहत इस्तीफा देने की जरूरत नहीं है । 
गजेंद्र सिंह धामा की तरफ से सुनने को मिला है कि रोटरी इंटरनेशनल के दिल्ली स्थित साऊथ एशिया ऑफिस द्वारा चुनाव कराने की स्थिति में तो राजीव सिंघल की जीत और भी पक्की है । गजेंद्र सिंह धामा के अनुसार, रोटरी इंटरनेशनल के दिल्ली स्थित साऊथ एशिया के पदाधिकारी भी जानते हैं कि राजीव सिंघल की उम्मीदवारी को इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई का समर्थन है, इसलिए वह राजीव सिंघल को ही चुनाव जितवायेंगे । गजेंद्र सिंह धामा की इस तरह की बातें दीपक बाबु के लिए मुसीबत का सबब बनी हैं । केआर रवींद्रन ने दीपक बाबु को राजनीति करने वाले पूर्व गवर्नर का नाम भेजने का जो काम सौंपा है, उसे करने के तहत उन्हें गजेंद्र सिंह धामा का नाम भेजना चाहिए; पर कैसे भेजें - गजेंद्र सिंह धामा उनके बड़े खास हैं, उनके डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर हैं । नहीं भेजते हैं, तो डर यह है कि केआर रवींद्रन तक जानकारी पहुँच तो जाएगी ही - और तब केआर रवींद्रन के गुस्से का शिकार उन्हें होना पड़ेगा । राजीव सिंघल व गजेंद्र सिंह धामा की तरफ से दीपक बाबु को आश्वस्त किया जा रहा है कि उनके इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई से बड़े अच्छे संबंध हैं, इसलिए उन्हें फिक्र करने की जरा भी जरूरत नहीं है । इनकी तरफ से यही आश्वासन सुनील गुप्ता को भी था । इनके चक्कर में बेचारे सुनील गुप्ता की जो फजीहत हुई, उसे देखते हुए दीपक बाबु के लिए इनके आश्वासन पर भरोसा करना मुश्किल हो रहा है । दीपक बाबु के कुछेक शुभचिंतक उन्हें समझा भी रहे हैं कि राजीव सिंघल और गजेंद्र सिंह धामा जैसे उनके समर्थकों के चक्कर में पड़ोगे, तो सुनील गुप्ता की दशा को प्राप्त होगे । राजीव सिंघल के नजदीकियों का हालाँकि कहना है कि राजीव सिंघल और गजेंद्र सिंह धामा को पूरा पूरा भरोसा है कि दीपक बाबु पूरी तरह से उनकी 'पकड़' में हैं, और वही करेंगे - जो करने के लिए उनसे कहा  जायेगा । 
इस तरह के भरोसों व दावों के बीच दीपक बाबु के लिए सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह डिस्ट्रिक्ट को झगड़ों से मुक्ति दिलाने के लिए सुझाए गए डिस्ट्रिक्ट को तीन जोन में बाँटने के सुझाव पर आगे बढ़ें या गजेंद्र सिंह धामा का कहना मानें और चुनाव की तरफ बढ़ें ? 

Thursday, February 11, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 में सुब्रमनियन के सुझाव तथा समर्थन देने/दिलवाने के बावजूद हरिहरन डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अपनी उम्मीदवारी को लेकर असमंजस में

नई दिल्ली । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की उम्मीदवारी के बाबत हरिहरन के असमंजस भरे रवैये ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर इलेक्ट सुब्रमनियन के लिए खासी समस्या खड़ी कर दी है । डिस्ट्रिक्ट के गवर्नर्स अगले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए उम्मीदवार पर एक राय बनाने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इस प्रयास में हरिहरन के कारण सुब्रमनियन अपनी कोई राय ही नहीं दे पा रहे हैं । सुब्रमनियन ने दरअसल हरिहरन को उम्मीदवारी प्रस्तुत करने का सुझाव दिया था, हरिहरन ने जिसे बहुत उत्साह से लिया । सुब्रमनियन ने अपने नजदीकियों को कहा/बताया है कि हरिहरन ने उनके सुझाव को जिस उत्साह से लिया है - उससे उन्होंने अंदाज लगाया है कि हरिहरन के मन में गवर्नर बनने की इच्छा जोर मारने लगी है । हरिहरन के नजदीकियों का भी कहना है कि जब से सुब्रमनियन गवर्नर 'बने' हैं, तब से हरिहरन की बातों में गवर्नर पद के लिए लालसा झलकने/दिखने लगी है । रवि चौधरी और विनय भाटिया को देख कर तो हरिहरन की यह लालसा इसलिए और बढ़ी है, क्योंकि उन्हें लगने लगा है और कुछेक मौकों पर उन्होंने कहा भी है कि जब इनके जैसे लोग डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बन सकते हैं, तो भला वह क्यों नहीं बन सकते ? सुब्रमनियन के अनुसार, गवर्नर पद के प्रति हरिहरन की बढ़ती दिलचस्पी को भाँप कर ही उन्होंने हरिहरन को उम्मीदवारी प्रस्तुत करने का सुझाव दिया । सुब्रमनियन के लिए यह समझना हालाँकि मुश्किल हो रहा है कि उनके सुझाव पर उत्साह दिखाने के बावजूद हरिहरन आखिर फैसला कर क्यों नहीं रहे हैं ?
सुब्रमनियन को यह भी पता है कि अपनी उम्मीदवारी को लेकर हरिहरन ने अपने क्लब के प्रमुख सदस्यों से बात भी की है और उनके क्लब के सभी प्रमुख सदस्यों ने उन्हें उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित भी किया है । हरिहरन को अनूप मित्तल की तरफ से फच्चर फँसने का डर था । दरअसल अनूप मित्तल को संभावनाशील उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाता है; सुधीर मंगला के गवर्नर-काल में उनकी जिस तरह की सक्रियता रही और तमाम आयोजनों में उन्होंने जिस तरह से बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया - उसे देख/जान कर कई लोगों को लगा कि अनूप मित्तल कहीं अपनी उम्मीदवारी की तैयारी तो नहीं कर रहे हैं ? इसी बिना पर हरिहरन ने अनूप मित्तल को लेकर आशंका व्यक्त की थी, जिस पर सुब्रमनियन ने उन्हें अनूप मित्तल से बात करने की सलाह दी थी । हरिहरन ने सुब्रमनियन को बता भी दिया कि उनकी अनूप मित्तल से बात हो गई है और अनूप मित्तल ने उन्हें साफ कर दिया है कि वह अभी उम्मीदवार नहीं हो रहे हैं । सभी तरफ से अनुकूल रिपोर्ट मिलने के बाद भी हरिहरन अपनी उम्मीदवारी के मामले में आगे बढ़ते नहीं दिख रहे हैं । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर इलेक्ट सुब्रमनियन के लिए समस्या की बात यह है कि हरिहरन अपनी उम्मीदवारी की बात से इंकार भी नहीं कर रहे हैं । 
सुब्रमनियन को इसीलिए गवर्नर्स की मीटिंग में चुप रह जाना पड़ा । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए एक राय पर पहुँचने के लिए हुई मीटिंग में अशोक घोष और विनोद बंसल ने संजीव राय मेहरा का नाम लिया; आशीष घोष और संजय खन्ना ने रवि दयाल की वकालत की; और दमनजीत सिंह ने अशोक कंतूर की बात की । सुशील खुराना और रवि चौधरी ने सुब्रमनियन पर मामला छोड़ दिया - सुब्रमनियन ने कोई साफ बात नहीं की । उन्होंने साफ बात इसलिए ही नहीं की कि हरिहरन की तरफ से उन्हें स्पष्ट रूप से हाँ या ना नहीं की है । हरिहरन की उम्मीदवारी को लेकर परेशान नजर आ रहे सुब्रमनियन को उनके नजदीकियों ने हालाँकि हरिहरन के चक्कर में न पड़ने की सलाह दी है । उनका कहना है कि हरिहरन के बस की उम्मीदवार बनना नहीं है, और इसलिए ही वह तरह-तरह की बहानेबाजियाँ करके अपनी उम्मीदवारी की बात से पीछे हटते रहे हैं । अब की बार हरिहरन अपनी उम्मीदवारी को लेकर हालाँकि ज्यादा उत्साहित लग रहे हैं, किंतु उनका यह उत्साह भी उनमें उम्मीदवार बनने की हिम्मत नहीं पैदा कर पा रहा है । सुब्रमनियन ने उन्हें उम्मीदवार बनने का सुझाव दिया है, और उनकी उम्मीदवारी को दूसरे नेताओं का भी समर्थन दिलवाने का उन्हें भरोसा दिया है - इससे हरिहरन को अपनी उम्मीदवारी के लिए मौका तो अनुकूल लग रहा है, किंतु फिर भी वह अपनी उम्मीदवारी को लेकर सकारात्मक फैसला नहीं कर पा रहे हैं । हालाँकि वह इंकार भी नहीं कर रहे हैं । अपनी उम्मीदवारी को लेकर हरिहरन की इस असमंजसता ने सुब्रमनियन के लिए खासी दुविधा की स्थिति बना दी है ।

Wednesday, February 10, 2016

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वाइस प्रेसीडेंट पद के चुनाव को एनडी गुप्ता तथा कमलेश विकमसे और बिग फोर की सक्रियता ने दिलचस्प बनाया

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स जैसी प्रोफेशनल संस्था के वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए नवीन गुप्ता और नीलेश विकमसे को जितवाने के लिए क्रमशः पिता एनडी गुप्ता तथा भाई कमलेश विकमसे ने जिस तरह से कमर कसी हुई है, उसे देख कर दुनिया की प्रमुख एकाउंटिंग संस्था बनने का विज़न रखने वाली इस प्रोफेशनल संस्था की स्थिति पर सिर्फ अफसोस ही प्रकट किया जा सकता है । इंस्टीट्यूट एक तरफ विज़न 2030 के लिए डॉक्यूमेंट जारी कर रहा है, और दूसरी तरफ इस विज़न को संभव बनाने की नेतृत्वकारी जिम्मेदारी निभाने वाले लोगों को 'जिम्मेदारी पाने के लिए' अपने पिता और अपने भाई की मदद लेनी पड़ रही है । स्वाभाविक सा सवाल है कि जो व्यक्ति इंस्टीट्यूट का मुखिया बनने के लिए अपनी खुद की क्षमताओं पर भरोसा नहीं कर सकता है - और उसे अपने पिता व भाई की मदद लेना पड़ रही है, वह प्रोफेशन को भला क्या दशा/दिशा और विज़न देगा ? इंस्टीट्यूट की इससे भी बुरी स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कुछेक दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट भी अपने अपने उम्मीदवारों को वाइस प्रेसीडेंट बनवाने की तीन-तिकड़मों में लगे हुए हैं । इन दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट्स के साथ मजाक की स्थिति यह है कि यह एक से अधिक उम्मीदवारों के समर्थक बने हुए हैं - ताकि जीतने वाले को जितवाने का श्रेय यह खुद ले सकें । यही कारण है कि यह दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट्स किस या किन किन उम्मीदवारों के साथ हैं - इसका अभी तक खुद इन्हें तथा इनके समर्थन की उम्मीद रखने वाले उम्मीदवारों को भी कोई अतापता नहीं है । 
वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव के तमाशे को जानने वाले लोगों का कहना है कि इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले पूर्व प्रेसीडेंट्स पहले से किसी उम्मीदवार के समर्थक नहीं बनते हैं - पहले से तो वह सिर्फ हालात पर नजर रखते हैं और जिसका जिसका पलड़ा भारी सा देखते हैं, चुनाव से ऐन पहले वह उनके समर्थक हो जाते हैं । उनके - मतलब एक से अधिक उम्मीदवारों के ! नतीजा आने के बाद फिर उनकी सारी कोशिश साबित करने की होती है कि जो जीता है - वह मेरे ही कारण से जीता है । ऐसा साबित करके वह दरअसल अपनी 'दुकान' को प्रभावी बनाने तथा अगले वर्ष में और ज्यादा 'ग्राहक' पाने का जुगाड़ लगाते हैं । मजेदार बात यह है कि प्रायः हर उम्मीदवार जानता और मानता है कि वाइस प्रेसीडेंट चुनवाने की 'दुकान' खोले बैठे पूर्व प्रेसीडेंट्स किसी को चुनाव नहीं जितवा सकते, लेकिन फिर भी हर उम्मीदवार इन 'दुकानों' का चक्कर जरूर काटता है और कोशिश करता है कि इनका समर्थन उसे मिल जाए । यह मजेदार स्थिति एनडी गुप्ता और कमलेश विकमसे के मामले में भी देखी जा सकती है । एनडी गुप्ता अपने बेटे नवीन गुप्ता को वाइस प्रेसीडेंट चुनवाने की पहले भी कई कोशिशें कर चुके हैं, लेकिन हर बार बुरी तरह से फेल रहे हैं । यही कमलेश विकमसे के साथ हुआ है । किंतु कई कई बार की विफलताओं के बावजूद इन दोनों को पक्का विश्वास है कि इस बार के चुनाव में यह जरूर कामयाब होंगे - इनका विश्वास यदि सचमुच फलीभूत हुआ भी तो भी तो इनमें से कोई एक ही तो कामयाब होगा ।
पिता, भाई और पूर्व प्रेसीडेंट्स पर निर्भर उम्मीदवारों के अलावा एक उम्मीदवार दीनल शाह भी हैं, जो बिग फोर के उम्मीदवार के रूप में देखे/पहचाने जा रहे हैं । लेकिन उनकी यही पहचान उनकी मुसीबत भी बनी हुई है । आँकड़ों व तथ्यों का हिसाब/किताब रखने वाले लोगों का कहना है कि पिछले बीस वर्षों में तो बिग फोर का उम्मीदवार (वाइस) प्रेसीडेंट बना नहीं है । दीनल शाह को मौजूदा वाइस प्रेसीडेंट देवराजा रेड्डी का भी समर्थन बताया जा रहा है, और उनके समर्थन के कारण ही दीनल शाह को मजबूत दावेदारों में गिना/पहचाना जा रहा है । दीनल शाह को वेस्टर्न रीजन के ऐसे सदस्यों के समर्थन की बात भी सुनी/कही जा रही है, जो नीलेश विकमसे के घनघोर विरोधी हैं । वाइस प्रेसीडेंट पद की उम्मीदवारी के सिलसिले में दीनल शाह ने अपना जो भी कैम्पेन चलाया है, उसमें उन्होंने तो बिग फोर के टैग को छिपाने की कोशिश बहुत की है, लेकिन उनके विरोधी लोगों ने इस टैग को उनपर चिपकाए रखने की हरसंभव कोशिश की है ।
इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वाइस प्रेसीडेंट पद का चुनाव यूँ तो बहुत छोटा सा चुनाव है, किंतु 32 वोटरों के बीच 14 उम्मीदवारों के होने से तथा भाई-भतीजावाद, बेटावाद, जातिवाद, अच्छी कमेटियों तथा विदेश यात्राओं के ऑफर के बीच दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट्स के सक्रिय रहने से यह चुनाव खासा गहमागहमी भरा होता है । विभिन्न प्रकार की गहमागहमियों के कारण ही यह चुनाव अनिश्चितताओं से भरा हुआ भी होता है - और इसीलिए इसका नतीजा अक्सर ही चुनावी खिलाड़ियों तक को चौंकाता है । तैयारियों के लिहाज से नवीन गुप्ता, नीलेश विकमसे और दीनल शाह का नाम भले ही चर्चा में है, लेकिन वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव के 'चरित्र' को जानने वाले लोगों का यही कहना है कि चुनावी नतीजे को लेकर कोई भी अनुमान लगाना भूसे के ढेर में से सुईं ढूँढने जैसा मामला है । 

Tuesday, February 9, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में रोटरी वरदान ब्लड बैंक के कर्ता-धर्ता जो मशीनें पहले एक करोड़ रुपए से भी अधिक कीमत की बता रहे थे, सतीश सिंघल के डबल-क्रॉस के बाद उन्हें अब वह पचास-साठ लाख रुपए में खरीद लेने की बातें करने लगे हैं

गाजियाबाद । रोटरी वरदान ब्लड बैंक पर आए/छाए खतरे के लिए जेके गौड़, रमेश अग्रवाल व शरत जैन की तिकड़ी ने सतीश सिंघल को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया है । इनकी तरफ से कहा/बताया जा रहा है कि सतीश सिंघल ने अजय सिन्हा को बातों में फँसा कर पहले तो हेराफेरी करने का तरीका बताया और हेराफेरी होने के बाद फिर 'पकड़वा' दिया । अजय सिन्हा रोटरी क्लब साहिबाबाद के वरिष्ठ सदस्य हैं, और रोटरी वरदान ब्लड बैंक से जुड़े कामकाज की जिम्मेदारी उन्हीं ने निभाई है । जिम्मेदारी निभाते हुए ही अजय सिन्हा ने सतीश सिंघल से शुरुआती जरूरी बातें कीं और सुझाव लिए । सतीश सिंघल ने चूँकि नोएडा में रोटरी ब्लड बैंक बनाया है और उसे 'चला' रहे हैं, इसलिए उनके अनुभव का फायदा उठाने के उद्देश्य से उनसे सुझाव लिए । कहा/बताया जा रहा है कि सतीश सिंघल ने ही अजय सिन्हा को 'बताया' था कि सप्लायर से कैसे कम कीमत की मशीनों के बढ़ा-चढ़ा कर बिल बनवाए जा सकते हैं; और कैसे प्रोजेक्ट की कीमत को 'बढ़ाया' जा सकता है ? कहा/बताया जा रहा है कि रोटरी वरदान ब्लड बैंक की सारी कार्रवाई ठीक वैसे ही हुई, जैसे कि सतीश सिंघल ने बताया था । जेके गौड़, रमेश अग्रवाल व शरत जैन की तिकड़ी का कहना है कि लेकिन जैसे ही रोटरी फाउंडेशन से पैसा रिलीज कराने के लिए रोटरी वरदान ब्लड बैंक के संबंधित कागजात डीआरएफसी मुकेश अरनेजा के पास पहुँचे, वैसे ही सतीश सिंघल ने मुकेश अरनेजा के सामने सारी पोलपट्टी खोल दी - नतीजा यह रहा है कि डीआरएफसी के रूप में मुकेश अरनेजा ने जो सवाल उठाए, उनके जबाव देने की बजाए रोटरी वरदान ब्लड बैंक के कर्ता-धर्ताओं को मुँह छिपाने पड़ रहे हैं । 
रोटरी वरदान ब्लड बैंक के कर्ता-धर्ताओं को सतीश सिंघल के डबल-क्रॉस करने पर नाराजगी तो है ही, साथ ही हैरानी भी है; उनके लिए यह समझना मुश्किल हो रहा है कि सतीश सिंघल ने उनके साथ यह डबल-गेम क्यों खेला ? उन्हें इसके दो कारण समझ में आ रहे हैं : एक कारण तो यह कि सतीश सिंघल नहीं चाहते हैं कि डिस्ट्रिक्ट में कोई दूसरा ब्लड बैंक बने और इसलिए ही उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से रोटरी वरदान ब्लड बैंक का मामला फँसा दिया है; दूसरा कारण उन्हें यह समझ में आ रहा है कि सतीश सिंघल को लगा होगा कि प्रोजेक्ट का खर्चा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने का फार्मूला उन्होंने बताया, फार्मूले को इम्प्लीमेंट उन्होंने करवाया और 'मलाई' अकेले यह खा रहे हैं, उन्हें उनका हिस्सा भी नहीं दे रहे हैं - सो उन्होंने 'मलाई' बिखेरने का इंतजाम कर दिया । रोटरी वरदान ब्लड बैंक के कर्ता-धर्ताओं को हैरानी इस बात की भी हुई है कि सतीश सिंघल ने जो तरकीब उन्हें बताई, उसे अपना कर वह तो फँस गए - लेकिन सतीश सिंघल नहीं 'पकड़े' गए । इसकी बजह सतीश सिंघल ने ही उन्हें बताई और वह यह कि उन्होंने जो ब्लड बैंक बनाया, वह क्लब प्रोजेक्ट के तहत बनाया, जिसका किसी को हिसाब नहीं देना - इसलिए मजे से कुछ भी काला-पीला करते रहो; रोटरी वरदान ब्लड बैंक डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट के रूप में बनाया जा रहा है - जिसका हिसाब देना पड़ेगा, और इसलिए 'पकड़े' जाने का डर बना रहेगा । रोटरी वरदान ब्लड बैंक के कर्ता-धर्ताओं को सतीश सिंघल से जब यह 'ज्ञान' मिला तो उन्होंने रोटरी वरदान ब्लड बैंक को डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट से क्लब प्रोजेक्ट में बदलने की कोशिश की । 
जेके गौड़ ने रोटरी फाउंडेशन कार्यालय को पत्र लिख कर बताया कि ग्लोबल ग्रांट नंबर 1527923 के तहत रोटरी वरदान ब्लड बैंक का जो प्रोजेक्ट है, उसे 'गलती से' डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट कह दिया गया है, वास्तव में वह क्लब प्रोजेक्ट है । रोटरी फाउंडेशन कार्यालय के लोगों को भी लगा होगा कि कैसे कैसे लोग गवर्नर बन जाते हैं, जिन्हें इतना भी नहीं पता कि डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट के फॉर्मेट में जब आवेदन दे रहे हो, तो वह डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट ही है - उसमें गलती क्या हो गई, और उसे क्लब प्रोजेक्ट कैसे कहा जा सकता है ? रोटरी फाउंडेशन कार्यालय के लोगों को क्या पता कि जेके गौड़ यह 'नाटक' पकड़े जाने से बचने के लिए कर रहे हैं । जेके गौड़ ने तो यह समझा कि जिस तरह की मनमानियों व बेवकूफियों से वह डिस्ट्रिक्ट चला रहे हैं, वैसे ही रोटरी फाउंडेशन कार्यालय भी चल रहा होगा - और वह कहेंगे कि हमारे प्रोजेक्ट को डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट की जगह क्लब प्रोजेक्ट बना दो, ताकि हमें किसी को कोई हिसाब न देना पड़े, और रोटरी फाउंडेशन कार्यालय तुरंत उनकी बात मान लेगा । रोटरी फाउंडेशन कार्यालय ने लेकिन उनकी माँग को दो-टूक तरीके से खारिज कर दिया और ग्लोबल ग्रांट नंबर 1527923 के प्रोजेक्ट को डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट के रूप में ही रेखांकित किया । जेके गौड़ और रोटरी वरदान ब्लड बैंक की हेराफेरी में शामिल दूसरे लोगों को इसके कारण भारी झटका लगा । 
उनके लिए झटके की लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि रोटरी वरदान ब्लड बैंक के लिए रोटरी क्लब साहिबाबाद, रोटरी क्लब ग्रेटर व रोटरी क्लब इंडस्ट्रियल टाउन के जिन सदस्यों ने पैसे दिए हैं - उनके बीच इस बात को लेकर खलबली है कि एक नेक काम के नाम पर उनसे लिए गए पैसों में हेराफेरी की जा रही है । उनके बीच इस तरह की आवाजें सुनी जा रही हैं कि यदि यह प्रोजेक्ट समय से पूरा नहीं हो रहा है तो उनके पैसे वापस किए जाएँ । प्रोजेक्ट-कॉस्ट कम करने की खबरों को लेकर भी हलचल है । सुना जा रहा है कि रोटरी वरदान ब्लड बैंक के कर्ता-धर्ता अब इस बात के लिए राजी हो रहे हैं, कि जो मशीनें पहले वह एक करोड़ रुपए से भी अधिक कीमत की बता रहे थे, उन्हें अब वह पचास-साठ लाख रुपए में खरीद लेंगे । यह फैसला करने से पहले हालाँकि वह यह समझने की भी कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा कुछ करने पर उनकी तारीफ होगी, या और ज्यादा लानत-मलानत होगी ? जेके गौड़, रमेश अग्रवाल और शरत जैन की तिकड़ी सतीश सिंघल के खिलाफ पहले से ही थी, रोटरी वरदान ब्लड बैंक को लेकर फजीहत में फँसने के बाद तो यह तिकड़ी सतीश सिंघल के और भी ज्यादा खिलाफ हो गई है । इससे डिस्ट्रिक्ट में आगे और क्या क्या नज़ारे देखने को मिलेंगे, यह आगे पता चलेगा ।

Monday, February 8, 2016

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की चुनावी राजनीति में चंद्रशेखर चितले के लिए 'जमीन' तैयार करने की एसबी जाबरे की कोशिशों को पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के चुनाव में अरुण गिरी से तगड़ा झटका लगा

पुणे । पुणे ब्रांच की आठ सदस्यीय मैनेजमेंट कमेटी का चुनाव जोरदार तरीके से जीतने के बावजूद अरुण गिरी के लिए पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति को साधने की योजना चुनौतियों से आजाद नहीं हुई है । यह ठीक है कि पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के चुनाव में एसबी जाबरे को खासा तगड़ा झटका लगा है, और उनके बड़े खास उम्मीदवारों को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है; लेकिन इस झटके के बावजूद एसबी जाबरे ने जोड़-तोड़ करके पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी पर अपना कब्जा ज़माने के लिए जो प्रयास शुरू किए हैं - उससे दिख रहा है कि पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति खासी दिलचस्प होने जा रही है । उल्लेखनीय है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के इस बार के चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं थे; अरुण गिरी की अप्रत्याशित उम्मीदवारी तथा एसबी जाबरे की अति अति सक्रियता ने इस बार के चुनाव को बहुत बहुत खास बना दिया था । पुणे ब्रांच के इस बार के चुनाव को वर्ष 2018 में होने वाले सेंट्रल काउंसिल के चुनाव की 'तैयारी' के रूप में इस्तेमाल किया गया । उल्लेखनीय है कि एसबी जाबरे पहले ही चंद्रशेखर चितले को वर्ष 2018 में सेंट्रल काउंसिल के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में घोषित कर चुके हैं, और चंद्रशेखर चितले की प्रस्तावित उम्मीदवारी को मजबूती दिलाने के लिए वह पुणे ब्रांच पर अपना 'कब्जा' चाहते हैं । इस 'कब्जे' के लिए ही उन्होंने पुणे ब्रांच के चुनाव में अपनी सारी ताकत झोंकी और अपने उम्मीदवारों को समर्थन दिलवाने के लिए दिन-रात एक किया । 
पुणे ब्रांच के इस बार के चुनाव की खासियत को पहचानने व रेखांकित करने के लिए यही एक तथ्य काफी है कि एसबी जाबरे को अपना जो समय और अपनी जो एनर्जी इंस्टीट्यूट के वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए खर्च करना चाहिए थी, उसे उन्होंने पुणे ब्रांच के चुनाव में खर्च किया । उनके नजदीकियों व उनके समर्थकों को भी हैरानी हुई कि एसबी जाबरे वाइस प्रेसीडेंट पद की अपनी उम्मीदवारी के लिए काम करने की बजाए पुणे ब्रांच के चुनाव के उम्मीदवारों के लिए काम करने में दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं ? यह बात शायद अकेले एसबी जाबरे ही जानते थे कि उनका 'राजनीतिक जीना-मरना' वाइस प्रेसीडेंट पद के चुनाव से नहीं, बल्कि पुणे ब्रांच के चुनाव से तय होगा । पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के लिए प्रस्तुत हुई अरुण गिरी की अप्रत्याशित उम्मीदवारी ने एसबी जाबरे के लिए पुणे ब्रांच के चुनाव में सारा दम लगाना और जरूरी बना दिया । अरुण गिरी ने वर्ष 2009 में सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ा था - चुनाव जीतने में तो वह असफल रहे थे, किंतु उनकी कुल परफॉर्मेंस ने चुनावी राजनीति के जानकारों को चकित जरूर किया था । इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के परिदृश्य में अरुण गिरी के नाम कोई बड़ी उपलब्धियाँ तो नहीं हैं, लेकिन फिर भी चुनावी राजनीति में उनकी खासी धाक है । इस धाक के कारण ही पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के लिए प्रस्तुत हुई उनकी उम्मीदवारी ने लोगों को चौंकाया । हर किसी को इस सवाल ने परेशान किया कि अरुण गिरी को पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के चुनाव में कूदने की आखिर क्या जरूरत पड़ी ?
अरुण गिरी की तरफ से तो उनकी 'भविष्य की राजनीति' की कोई बात सुनने को नहीं मिली है, किंतु लोगों को लग रहा है कि अरुण गिरी पुणे ब्रांच के 'रास्ते' से वर्ष 2018 में सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी के लिए मौका बना रहे हैं । लोगों को लग रहा है कि पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी में अपनी उपस्थिति के जरिए अरुण गिरी को लोगों के बीच अपनी पहचान बनाने तथा पहचान को और गाढ़ा करने का अवसर मिलेगा, और इस तरह उनके लिए सेंट्रल काउंसिल की अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में समर्थन जुटाने में मदद मिलेगी । अरुण गिरी की इस 'योजना' ने एसबी जाबरे को वाइस प्रेसीडेंट पद की अपनी उम्मीदवारी के लिए काम करने की बजाए पुणे ब्रांच के चुनाव में 'उतरने' के लिए मजबूर किया । वर्ष 2018 के चुनाव में 'अपने उम्मीदवार' चंद्रशेखर चितले के लिए स्थिति को सुरक्षित करने/बनाने के लिए उन्हें अरुण गिरी की योजना में पंक्चर करना जरूरी लगा - और इसी जरूरत के चलते एसबी जाबरे ने पुणे ब्रांच के चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया । चुनावी नतीजों से लेकिन एसबी जाबरे को तगड़ा वाला झटका लगा । उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद उनके दो-तीन बड़े खास उम्मीदवार चुनाव हार गए । जीतने वाले आठ सदस्यों में दो - सचिन परकाले व अभिषेक धामने को एसबी जाबरे के उम्मीदवारों के रूप में देखा/पहचाना गया है । इनमें भी सचिन परकाले ब्रांच में दोबारा चुने गए हैं - जाहिर है कि उनकी जीत का श्रेय एसबी जाबरे को नहीं दिया जा सकता है । इस तरह एसबी जाबरे की कामयाबी अपने सिर्फ एक उम्मीदवार को जितवाने के रूप में देखी जा रही है । उनके विरोधी खेमे के चार उम्मीदवार जीते हैं - जिनमें एक, रेखा धमनकर का ब्रांच में तीसरा टर्म होगा । उनकी जीत को यदि खेमे की जीत के रूप में यदि न भी देखें, तो भी विरोधी खेमे के तीन लोगों की जीत से एसबी जाबरे को झटका तो लगा ही है । विरोधी खेमे में अरुण गिरी की रिकॉर्ड जीत तो एसबी जाबरे के लिए भारी मुसीबत की बात है । 
पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी के चुनाव को वर्ष 2018 के सेंट्रल काउंसिल के चुनाव के सेमीफाइनल के रूप में देखें, तो इस चुनाव के नतीजे ने एसबी जाबरे तथा उनके होने/रहने वाले उम्मीदवार चंद्रशेखर चितले के लिए गंभीर समस्या खड़ी कर दी है । इस समस्या को हल्का व हल करने के लिए एसबी जाबरे ने पुणे ब्रांच के चेयरमैन पद पर अपने किसी 'आदमी' को बिठाने की तैयारी शुरू कर दी है । एसबी जाबरे को उम्मीद है कि उन्हें चारुहास उपासनी तथा आनंद जखोटिया का समर्थन तो आसानी से मिल जायेगा, और उसके बाद उन्हें अरुण गिरी खेमे से एक सदस्य को तोड़ने की जरूरत रह जाएगी । उनके सामने समस्या लेकिन यह है कि उनके दोनों समर्थक सदस्य सचिन परकाले तथा अभिषेक धामने चेयरमैन बनने की दौड़ में हैं । राजनीतिक तिकड़म करके पाँच सदस्यों को जोड़ने की कोशिश लेकिन इन दोनों की चेयरमैनी को बलि चढ़ा कर ही प्राप्त हो सकेगी । एसबी जाबरे को डर है कि इससे कहीं मामला और न बिगड़ जाए । उनके सामने एक विकल्प यह भी है कि एक्स-ऑफिसो सदस्य के रूप में चेयरमैन के चुनाव में वह अपने वोट का भी इस्तेमाल करें और अपने किसी 'आदमी' को चेयरमैन चुनवा लें । उन्हें उम्मीद है कि एक्स-ऑफिसो सदस्य के रूप में उन्हें सत्यनारायण मूंदड़ा का समर्थन भी मिल जायेगा । इस विकल्प का इस्तेमाल करने को लेकर उनका डर यह है कि इससे बदनामी बहुत होगी । उनके पास एक और विकल्प यह है कि वह विरोधी खेमे की रेखा धमनकर को चेयरमैन बन जाने दें, और इसका श्रेय खुद लेने की कोशिश करें । एसबी जाबरे के लिए राहत की बात सिर्फ यह है कि चुनावी मुकाबले में उनके उम्मीदवारों को धूल चटा देने के बावजूद अरुण गिरी खुद भी चेयरमैन चुनने/चुनवाने को लेकर बहुत कंफर्टेबल नहीं हैं । अरुण गिरी की इस लाचारी में एसबी जाबरे को अपने लिए पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी में वापसी करने का मौका नजर आ रहा है । उनका यही मौका अरुण गिरी के लिए चुनौती बना है । अरुण गिरी और चंद्रशेखर चितले के लिए 'जमीन' तैयार करने में लगे एसबी जाबरे के बीच की इस होड़ ने पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के परिदृश्य को खासा दिलचस्प बना दिया है ।

Saturday, February 6, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में बनने वाला रोटरी वरदान ब्लड बैंक जेके गौड़ की निगरानी में होने वाली पैसों की हेराफेरी के आरोपों के चलते खतरे में फँसा

गाजियाबाद । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जेके गौड़ की देखरेख में होने वाली पैसों की हेराफेरी के चलते गाजियाबाद में बनने वाला रोटरी वरदान ब्लड बैंक खतरे में पड़ता नजर आ रहा है । योजनानुसार 10 फरवरी को रोटरी इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के हाथों इसका उद्घाटन होना था, किंतु पैसों की हेराफेरी के आरोपों के कारण रोटरी इंटरनेशनल फाउंडेशन से पैसा रिलीज न होने के कारण मशीनों की खरीद लटक गई है - और अब यह पूरी तरह तय हो गया है कि केआर रवींद्रन को इसका उद्घाटन किए बिना बैरंग ही वापस लौटना पड़ेगा । उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के लिए करीब एक-सवा करोड़ रुपए की आवश्यक रकम महीनों पहले ही जुटा ली गई है, और यह रोटरी इंटरनेशनल फाउंडेशन में जमा है; इस प्रोजेक्ट के लिए जो मशीनें खरीदी जानी हैं, वह भी देखभाल कर तय कर ली गई हैं - और उनके सप्लायर से सौदा तय हो गया है । रोटरी इंटरनेशनल फाउंडेशन को इसकी जानकारी देते हुए सप्लायर के लिए रकम का आवेदन किए हुए कुछेक महीने बीत गए हैं । इसके बाद का जो काम कुछ घंटों में हो जाना चाहिए था, उसके कुछेक महीने बीत जाने के बाद भी न हो पाने के कारण मशीनों का आना/पहुँचना टल गया है - और इसके चलते 10 फरवरी को इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन द्वारा उद्घाटित होने का प्रोग्राम खटाई में पड़ गया है ।
जेके गौड़, उनके 'पथ-प्रदर्शक' और डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर रमेश अग्रवाल तथा ब्लड बैंक को स्थापित करने में भूमिका निभा रहे कुछेक दूसरे लोग इसका ठीकरा मुकेश अरनेजा के सिर फोड़ रहे हैं । इनका कहना है कि डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में अपनी हार की खीज मिटाने/निकालने के लिए मुकेश अरनेजा इसमें रोड़ा अटका रहे हैं; और डीआरएफसी के रूप में अपने पद का दुरूपयोग करते हुए रोटरी फाउंडेशन से पैसा रिलीज नहीं होने दे रहे हैं - जिसके चलते प्रोजेक्ट अधर में लटक गया है । मुकेश अरनेजा का कहना है कि डीआरएफसी के रूप में उनका काम यह देखना है कि आम रोटेरियंस द्वारा इकट्ठा किए गए तथा रोटरी फाउंडेशन द्वारा खर्च किए जाने वाले पैसे का सही सही उपयोग हो रहा है या नहीं - और वह अपनी यही जिम्मेदारी निभा रहे हैं । मुकेश अरनेजा का कहना है कि मशीनों की खरीद से संबंधित जो विवरण दिए गए हैं, वह आधे-अधूरे हैं और पूरे विवरण देने की उनकी माँग को तरह तरह की बहानेबाजी करके लगातार टाला जा रहा है । मुकेश अरनेजा का कहना है कि मशीनों की खरीद से संबंधित सामान्य सी जानकारियों को पाने के लिए उन्होंने बार बार जो भी ईमेल-पत्र लिखे, उसके उन्हें उचित जबाव नहीं मिले । मुकेश अरनेजा का कहना है कि मशीनों के लिए जिस सप्लायर को करीब एक करोड़ रुपए की रकम देनी है - उसके पते व फोन नंबर तथा उसके पदाधिकारियों के नाम व उनके पते छिपाने की जो कोशिश की जा रही है, उससे मशीनों की खरीद का सारा मामला संदेहास्पद हो गया है । मुकेश अरनेजा के अनुसार, हद तो यह है कि खरीदी जा रही मशीनों की निर्माता कंपनी का नाम तक छिपाया जा रहा है - जिससे कि बाजार से उनकी असली कीमत न पता की जा सके । मुकेश अरनेजा का कहना है कि इस प्रोजेक्ट से जुड़े लोगों ने ही उन्हें इशारों इशारों में 'बताया' है कि मशीनों की कीमतें खूब बढ़ा-चढ़ा कर - किन्हीं मामलों में तो दुगनी तक 'दिखाई' गई हैं । मुकेश अरनेजा ने स्पष्ट कर दिया है कि घपलेबाजी की इस तरह की बातों/चर्चाओं के बीच, मशीनों की खरीद से संबंधित पूरे डिटेल्स मिले बिना उनके लिए रकम रिलीज करने का ऑर्डर पास करना संभव नहीं होगा ।
जेके गौड़ ने रमेश अग्रवाल के साथ मिलकर इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई तथा पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता से भी मदद की गुहार लगाई और उम्मीद की कि यह लोग मुकेश अरनेजा को प्रोजेक्ट के लिए पैसा रिलीज करने/कराने के लिए राजी करें । इन्होंने लेकिन मुकेश अरनेजा का पक्ष सुन/जान कर मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया है । मनोज देसाई व सुशील गुप्ता के इस इंकार से मुकेश अरनेजा को और बल मिला है; इस इंकार में उन्हें दरअसल अपना पक्ष मजबूत होता हुआ दिखा है । मामले को गंभीर होता देख जेके गौड़ व रमेश अग्रवाल को अपना रुख लचीला करने के लिए मजबूर होना पड़ा । उनकी तरफ से मुकेश अरनेजा को समझाने की कोशिश की गई कि कुछ ऊपर के और कुछ दो नंबर के काम के खर्चे जुटाने के लिए मशीनों की कीमतें थोड़ी ज्यादा 'दिखाई' गई हैं, और इस मामले को उन्हें ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए । मुकेश अरनेजा का कहना है कि इस बात को वह भी जानते/समझते हैं, लेकिन यह खर्च कुल खर्च का मुश्किल से पाँच-सात प्रतिशत ही होता है - इसके लिए मशीनों की खरीद से जुड़े सामान्य से विवरणों को देने/बताने में आनाकानी क्यों की जा रही है ? जेके गौड़ और रमेश अग्रवाल द्वारा मशीनों की खरीद से जुड़े विवरणों को देने/बताने की बजाए ब्लड बैंक प्रोजेक्ट को लेट करना मंजूर करने से मशीनों की खरीद में बड़े घोटाले का शक और बढ़ा है ।
इस शक ने मुकेश अरनेजा को और उत्साहित किया है; इस उत्साह में उन्होंने जेके गौड़ व रमेश अग्रवाल को चुनौती दी है कि डीआरएफसी की उनकी भूमिका व उनके काम से यदि वह संतुष्ट नहीं हैं तो उन्हें उनकी शिकायत रोटरी फाउंडेशन तथा रोटरी इंटरनेशनल में कर देनी चाहिए - वहीं तय हो जायेगा कि कौन सही है और कौन गलत । जेके गौड़ और रमेश अग्रवाल इस मामले में मुकेश अरनेजा को कोस तो रहे हैं, किंतु मुकेश अरनेजा की चुनौती को स्वीकार करने से हिचक रहे हैं । दरअसल अभी पिछले दिनों ही पड़ोसी डिस्ट्रिक्ट - डिस्ट्रिक्ट 3100 के गवर्नर सुनील गुप्ता को पैसों की हेराफेरी के आरोपों के चलते इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन की पहल पर जिस तरह से गवर्नर पद से हटाया गया है, उसे देख/जान कर जेके गौड़ को डर हुआ है कि कहीं उनका हाल भी सुनील गुप्ता जैसा न हो । सुनील गुप्ता का जो हाल हुआ है, उससे संकेत गया/मिला है कि रोटरी में पैसों की घपलेबाजी पर केआर रवींद्रन का रवैया बड़ा सख़्त है । केआर रवींद्रन की सख़्ती को देखते/भाँपते हुए ही जेके गौड़ रोटरी वरदान ब्लड बैंक के मामले में मुकेश अरनेजा की भूमिका को कोसने के बावजूद उनकी शिकायत रोटरी इंटरनेशनल में नहीं कर रहे हैं । जेके गौड़ को डर है कि ऐसा करने पर कहीं वह खुद ही न फँस जाएँ । इसीलिए जेके गौड़ इस मामले को जैसेतैसे करके डिस्ट्रिक्ट में ही निपटा लेना चाहते हैं; इसके लिए भी लेकिन वह मशीनों की खरीद से संबंधित जानकारियाँ देने को तैयार नहीं हो रहे हैं । जेके गौड़ के इस रवैये ने रोटरी वरदान ब्लड बैंक को खतरे में डाल दिया है ।

Thursday, February 4, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3100 में सुनील गुप्ता के गवर्नर-काल के आखिरी कुछ महीने पाने वाले दीपक बाबु, सुनील गुप्ता के साथ जो हुआ उससे सबक भी लेंगे क्या ?

मेरठ । जाते जाते बचते दिख रहे सुनील गुप्ता को आखिरकार जाना ही पड़ा । उनके लिए फजीहत की बात सिर्फ यही नहीं रही कि अपना गवर्नर-काल पूरा किए बिना, अपने गवर्नर-काल की डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस किए बिना ही उन्हें अपनी गवर्नरी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा - इससे भी ज्यादा बुरी बात उनके लिए यह रही कि इस बिदाई-बेला में वह पूरी तरह अकेले ही नजर आ रहे हैं, और इतने बड़े डिस्ट्रिक्ट में कोई भी उनके साथ हमदर्दी दिखाता नहीं नजर आ रहा है । अपनी कारस्तानियों से सुनील गुप्ता ने रोटरी इंटरनेशनल के पदाधिकारियों को ही अपने खिलाफ नहीं कर लिया था, बल्कि अपने संगी-साथियों को भी अपने से दूर कर लिया था - जिसका नतीजा यह है कि आज वह डिस्ट्रिक्ट में इतने अकेले पड़ गए कि उन्हें सच्चे हमदर्द का भी टोटा पड़ गया है । सबसे हैरान कर देने वाला रवैया राजीव सिंघल और उनके संगी-साथियों का देखने/सुनने को मिला है । राजीव सिंघल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवार हैं, और सुनील गुप्ता के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रहने के क्षण तक उनके परम भक्त थे । राजीव सिंघल दरअसल सुनील गुप्ता की 'मदद' से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद पाने की जुगाड़ में थे और इसलिए वह सुनील गुप्ता को 'राम' मानकर उनके सुग्रीव बने हुए थे । लेकिन सुनील गुप्ता के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर न रहने के बाद वह सबसे ज्यादा प्रसन्न दिख और सुने जा रहे हैं । उनकी प्रसन्नता का कारण हालाँकि यह है कि सुनील गुप्ता से छिनी गवर्नरी दीपक बाबु को मिल गई है । दीपक बाबु की गवर्नरी में राजीव सिंघल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी का पद अपने और पास आता दिख रहा है । उन्हें विश्वास है कि दिवाकर अग्रवाल के प्रति दीपक बाबु के मन में जो खुन्नस है, उसके चलते दीपक बाबु उन्हें ही डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाने/बनवाने का हर संभव प्रयास करेंगे - और इसी उम्मीद में राजीव सिंघल अब सुनील गुप्ता को भूल/छोड़ कर दीपक बाबु के सुग्रीव 'बनने' की तैयारी में जुट गए हैं । 
सुनील गुप्ता के गवर्नर-काल के बाकी बचे जो महीने दीपक बाबु को मिले हैं, उससे दीपक बाबु और उनके समर्थक तो बल्ले-बल्ले वाले मूड में हैं - लेकिन डिस्ट्रिक्ट के कई लोगों को रोटरी इंटरनेशनल का यह फैसला 'आसमान से गिरे और खजूर में अटके' वाली फीलिंग दे रहा है । ऐसे लोगों का मानना और कहना है कि डिस्ट्रिक्ट में इस समय जो संकट है और लोगों के बीच परस्पर विश्वास का जो अभाव है - उसे देखते हुए सुनील गुप्ता के गवर्नर-काल के बचे महीनों का चार्ज किसी अनुभवी व सुलझे व्यवहार व विवादों से दूर रहे पूर्व गवर्नर को देना चाहिए था । ऐसे लोगों का मानना और कहना है कि समझ, व्यवहार, नीयत व तौर-तरीकों के मामले में दीपक बाबु चूँकि सुनील गुप्ता के 'मौसेरे' भाई जैसे ही हैं - इसलिए मौजूदा संकटपूर्ण स्थिति को संभाल पाने की उनसे उम्मीद करना उनके साथ 'अन्याय' करने जैसा मामला भी हो जायेगा । सुनील गुप्ता की बरबादी का एक बड़ा कारण राजीव सिंघल भी रहे हैं; जिन राजीव सिंघल के जाल में फँसने से सुनील गुप्ता खुद को रोक नहीं पाए - और गवर्नरी से हाथ धो बैठे हैं; उन्हीं राजीव सिंघल ने दीपक बाबु के लिए भी जाल बिछाने की तैयारी कर ली है - और राजीव सिंघल के समर्थकों को पूरा पूरा विश्वास है कि दीपक बाबु भी उनके जाल में फँसने से बच नहीं पायेंगे । प्रतीकों का यदि कोई महत्व होता है तो यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि मात्र ढाई-तीन वर्ष पहले ही डिस्ट्रिक्ट ने दीपक बाबु की बजाए सुनील गुप्ता को तवज्जो दी थी, जिसके चलते सुनील गुप्ता के सामने दीपक बाबु को पीछे हटना पड़ा था । जो डिस्ट्रिक्ट ढाई-तीन वर्ष पहले दीपक बाबु की बजाए सुनील गुप्ता को तवज्जो दे रहा था, वही डिस्ट्रिक्ट आज सुनील गुप्ता के खिलाफ खड़ा दिख रहा है - तो इसमें दीपक बाबु के लिए यही संदेश है कि स्थितियाँ किसी समय यदि आपको तवज्जो देती हैं, तो स्थितियाँ आपको जमीन पर पटकने में भी जरा सी भी देर नहीं लगाती हैं । 
दीपक बाबु को जानने वाले कुछेक लोगों का हालाँकि यह भी कहना है कि बहुत सी नकारात्मक बातों के मामले में दीपक बाबु भले ही सुनील गुप्ता जैसे ही हों, किंतु सुनील गुप्ता के मुकाबले व्यावहारिकता उनमें ज्यादा है - जिसका उपयोग करेंगे 'तो' वह सुनील गुप्ता जैसी दशा को प्राप्त होने से बच सकेंगे । यहाँ 'तो' बहुत महत्वपूर्ण है । लोगों को यह भी लगता है कि सुनील गुप्ता की हुई दशा को देख कर भी दीपक बाबु सबक लेंगे और ऐसे कोई काम करने से बचेंगे, जो उन्हें सुनील गुप्ता के रास्ते पर ले जाएँ । दीपक बाबु का रास्ता इसलिए और भी ज्यादा काँटों भरा हो गया है, क्योंकि सुनील गुप्ता के हुए हाल से डिस्ट्रिक्ट के लोगों में खासा जोश भर गया है - उन्हें विश्वास हो चला है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की मनमानियों का विरोध करके डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को जमीन सुँघाई जा सकती है । डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच पैदा हुए इस विश्वास ने दीपक बाबु के काम को खासा चुनौतीपूर्ण बना दिया है । दीपक बाबु अपने से पहले के दोनों गवर्नर्स - संजीव रस्तोगी तथा सुनील गुप्ता के अनुभव से सीख ले सकते हैं : संजीव रस्तोगी के सामने भी मुश्किलें कम नहीं थीं; किंतु अपने विवेकपूर्ण व्यवहार से अपने कामकाज में संतुलन बना कर उन्होंने डिस्ट्रिक्ट में सौहार्द बनाने का जो लक्ष्य पूरा किया - उसके लिए संपूर्ण रोटरी समाज से उन्हें प्रशंसा मिली; जबकि दूसरी तरफ सुनील गुप्ता के लिए अपने गवर्नर-काल को पूरा कर पाना ही संभव नहीं हो सका । यह देखना दिलचस्प होगा कि दीपक बाबु, संजीव रस्तोगी की राह पर चलते हैं और या अपने आप को सुनील गुप्ता का 'मौसेरा' भाई ही साबित करते हैं ? 

Tuesday, February 2, 2016

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3100 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता की बचती दिख रही कुर्सी ने इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई की 'सक्रियता' पर सवाल खड़े किए; उनके अधिकार क्षेत्र व उनकी 'हैसियत' को चुनौती तो सुनील गुप्ता से ही मिल रही है

मेरठ । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता ने इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई को रोटरी इंटरनेशनल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की धमकी देकर अपनी कुर्सी क्या सचमुच बचा ली है ? सुनील गुप्ता तो अपने नजदीकियों के बीच यही दावा कर रहे हैं । डिस्ट्रिक्ट में तमाम लोग जहाँ इस बात को लेकर प्रश्नाकुल व परेशान हैं कि सुनील गुप्ता के खिलाफ शिकायत पर रोटरी इंटरनेशनल बोर्ड ने आखिर फैसला क्या किया है; वहाँ सुनील गुप्ता अपने नजदीकियों को बता रहे हैं कि रोटरी के बड़े नेताओं ने उनके खिलाफ कार्रवाई करने तथा उन्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद से हटाने की तैयारी तो पूरी कर ली थी, लेकिन मैंने जब रोटरी के बड़े नेताओं को दो-टूक शब्दों में बता दिया कि मेरे खिलाफ कोई कार्रवाई हुई और मुझे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद से हटाया तो मैं रोटरी इंटरनेशनल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करूँगा - तब रोटरी के बड़े नेताओं ने मेरे मामले को ठंडे बस्ते में डाल देने में ही अपनी भलाई समझी । सुनील गुप्ता अपने मामले में मौजूदा इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई तथा पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता के रवैये से खासे नाराज हैं; और आरोप लगा रहे हैं कि इन दोनों ने अपनी अपनी राजनीति चमकाने के लिए उन्हें बलि का बकरा बनाने का षड्यंत्र किया - और धोखे से उनका 'शिकार' करने की कोशिश की । सुनील गुप्ता का अपने नजदीकियों के बीच कहना है कि ईश्वर की कृपा से वह मनोज देसाई तथा सुशील गुप्ता की बातों में नहीं आए - और इसलिए अभी भी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर न सिर्फ बने हुए हैं, बल्कि उनके विरोधियों को भी विश्वास हो चला है कि रोटरी इंटरनेशनल उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने नहीं जा रहा है । 
उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट 3100 में पिछले करीब दस दिन से चर्चा गर्म है कि सुनील गुप्ता डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद से अब गए कि तब गए; लोगों के बीच बहस इस बात पर रही कि सुनील गुप्ता डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद से सस्पेंड होंगे या टर्मिनेट होंगे । सुनील गुप्ता के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद से सस्पेंड/टर्मिनेट होने की संभावना इतनी प्रबल रही कि कुछेक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स ने तो उनकी जगह 'लेने' के लिए लॉबीइंग भी शुरू कर दी । सुनील गुप्ता के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद से सस्पेंड/टर्मिनेट होने की संभावना के प्रबल होने का कारण मनोज देसाई ने उपलब्ध कराया । उल्लेखनीय है कि कुछेक लोगों को रोटरी इंटरनेशनल के दिल्ली स्थित साऊथ एशिया ऑफिस से पता चला तो कुछेक लोगों को खुद सुनील गुप्ता ने बताया कि रोटरी इंटरनेशनल की बोर्ड मीटिंग शुरू होने से ठीक पहले मनोज देसाई ने सुनील गुप्ता को फोन करके डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद से इस्तीफा देने का सुझाव दिया है । मनोज देसाई ने उन्हें स्पष्ट शब्दों में बताया कि उनके खिलाफ जो शिकायतें हैं, उन्हें इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन ने बहुत गंभीरता से लिया है और वह सख्त कार्रवाई करने के पक्ष में हैं; केआर रवींद्रन की बातों से लगता है कि वह तुम्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद से तो टर्मिनेट कर ही देंगे, संभव है कि तुम्हारे डिस्ट्रिक्ट को भी खत्म कर दें । यह बताते हुए मनोज देसाई ने सुनील गुप्ता को सुझाव दिया कि टर्मिनेट होने की बदनामी से बचने के लिए तथा अपने डिस्ट्रिक्ट को खत्म होने से बचाने के लिए अच्छा होगा कि तुम पहले ही डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद से इस्तीफा दे दो । मनोज देसाई की तरफ से यह प्रयास भी होता हुआ सुना गया कि डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर्स सुनील गुप्ता को इस्तीफे के लिए राजी करें ।  
मनोज देसाई से अपने खिलाफ कार्रवाई होने की बात सुनकर सुनील गुप्ता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ । दरअसल अपनी कारस्तानियों से सुनील गुप्ता ने रोटरी में इतनी बदनामी कमा ली है कि उनके खिलाफ कार्रवाई की जमीन तैयार होने लगी थी । इस तैयारी को भाँप कर सुनील गुप्ता ने पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर सुशील गुप्ता से मदद की गुहार भी लगाई थी, और सुशील गुप्ता ने उन्हें मदद का भरोसा भी दिया था । किंतु कुछ ही दिन पहले सुशील गुप्ता ने सुनील गुप्ता को बता दिया था कि तुम्हारा मामला इतना खराब है कि मेरे लिए कुछ कर पाना संभव नहीं होगा । सुशील गुप्ता के मदद करने के आश्वासन से पलटने के बाद सुनील गुप्ता ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद पर अपने दिन गिनना शुरू कर दिया था । इसीलिए इंटरनेशनल बोर्ड की मीटिंग से पहले जब मनोज देसाई ने उन्हें हालात का हवाला देते हुए इस्तीफा देने का सुझाव दिया, तो सुनील गुप्ता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ । वह बल्कि इस स्थिति का सामना करने की तैयारी कर चुके थे । उन्होंने खुद ही लोगों को बताया कि मनोज देसाई ने जब उन्हें इस्तीफ़ा देने का सुझाव दिया, तो उन्होंने उनसे पूछा कि इस्तीफा देने के बाद उन्हें पीडीजी (पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर) की पहचान और उसके अधिकार मिलेंगे क्या ? मनोज देसाई ने इससे इंकार किया, जिसे सुनकर - सुनील गुप्ता ने खुद लोगों को बताया कि उन्हें पता नहीं कहाँ से और कैसे हिम्मत मिली कि उन्होंने मनोज देसाई से साफ कह दिया कि रोटरी इंटरनेशनल को जो करना हो करे, वह इस्तीफा नहीं देंगे । सुनील गुप्ता ने साथ ही साथ मनोज देसाई को स्पष्ट शब्दों में यह बता भी बता दिया कि उन्हें यदि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद से हटाया गया, तो वह रोटरी इंटरनेशनल के पदाधिकारियों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई करेंगे । 
सुनील गुप्ता के जरिए लोगों को जब मनोज देसाई के साथ उनकी हुई इस बातचीत के बारे में पता चला - तो हर किसी ने मान लिया कि इंटरनेशनल बोर्ड मीटिंग खत्म होते होते सुनील गुप्ता की गवर्नरी गई । हर किसी को अब सिर्फ आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार था । लोगों के बीच सवाल सिर्फ यह था कि सुनील गुप्ता अकेले जायेंगे, या अपने साथ डिस्ट्रिक्ट को भी ले जायेंगे । यहाँ तक कि खुद सुनील गुप्ता ने भी अपनी 'जाने की' तैयारी कर ली थी - उस समय जिस किसी से भी उनकी बात हो रही थी, उनसे वह यही कह रहे थे : गवर्नरी ही तो ले रहे हैं, जान थोड़े ही ले रहे हैं । जाहिर है कि सब तैयार थे : सुनील गुप्ता जाने के लिए तैयार थे, दूसरे लोग उन्हें जाता हुआ देखने के लिए तैयार थे; सभी को रोटरी इंटरनेशनल की तरफ से आधिकारिक सूचना मिलने का इंतजार था । लेकिन इंतज़ार है कि ख़त्म होने में ही नहीं आ रहा है । इंटरनेशनल बोर्ड मीटिंग को संपन्न हुए छह-सात दिन हो चुके हैं; दूसरे डिस्ट्रिक्ट के मामलों में उक्त मीटिंग में जो फैसले हुए हैं, वह सार्वजनिक हो चुके हैं - लेकिन डिस्ट्रिक्ट 3100 और उसके डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील गुप्ता के मामले में जो फैसला होने की बात की जा रही थी, उस पर पूरी तरह से चुप्पीभरा सन्नाटा है । डिस्ट्रिक्ट में हर कोई अपने अपने सोर्सेज से - कोई रोटरी इंटरनेशनल के दिल्ली स्थित साऊथ एशिया ऑफिस से तो कोई इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई से तो कोई किसी और अथॉरिटी से पता करने का प्रयास कर रहा है कि आखिर फैसला हुआ क्या है - लेकिन किसी को कहीं से भी कोई जबाव नहीं मिल रहा है । मजे की बात यह है कि रोटरी इंटरनेशनल के किसी जिम्मेदार अधिकारी की तरफ से यह भी नहीं कहा/बताया जा रहा है कि डिस्ट्रिक्ट 3100 और उसके गवर्नर सुनील गुप्ता के खिलाफ कोई मामला था ही नहीं, तो आप किस फैसले की बात कर रहे हो ?
रोटरी इंटरनेशनल की तरफ से बरती जा रही इस चुप्पी ने सुनील गुप्ता में विश्वास भरने का काम किया है, और उन्हें अपनी हिलती/गिरती नजर आ रही कुर्सी अब मजबूती से जमी रहती दिखने लगी है - और इसी विश्वास के चलते उन्होंने सुशील गुप्ता व मनोज देसाई तथा रोटरी इंटरनेशनल के खिलाफ अपनी नाराजगी जताना/दिखाना शुरू कर दिया है । सुनील गुप्ता को लग रहा है कि इन दोनों ने इंटरनेशनल प्रेसीडेंट केआर रवींद्रन के नाम पर उन्हें डरा कर अपना कोई छिपा मकसद पूरा करने की चाल चली थी; किंतु अपनी होशियारी व अपनी हिम्मत से वह उनकी चाल में नहीं फँसे । मनोज देसाई के रवैये को लेकर तो सुनील गुप्ता बहुत ही खफा हैं । उनका आरोप है कि मनोज देसाई ने उन्हें जिस तरह डरा कर उनका इस्तीफा कराने का प्रयास किया, उससे उनका मानसिक उत्पीड़न हुआ है । जो हुआ, उससे सुनील गुप्ता ने एक निष्कर्ष यह और निकाला है कि मनोज देसाई आदि के बस की कुछ है नहीं - और यह झूठ बोल कर तथा डरा-धमका कर रोटेरियंस के बीच अपनी चौधराहट ज़माने की कोशिश करते हैं तथा अपने स्वार्थ पूरा करते हैं । सुनील गुप्ता का कहना है कि मनोज देसाई खुद फोन करके उनका इस्तीफा माँग रहे थे तथा डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर्स को उनके खिलाफ इकट्ठा कर रहे थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने कानूनी कार्रवाई की बात कही - उसके बाद से मनोज देसाई की उनके खिलाफ या उनके डिस्ट्रिक्ट के खिलाफ कोई बात कहने की हिम्मत नहीं हुई है । 
सुनील गुप्ता की धमकी से डर कर ही मनोज देसाई उनके खिलाफ कार्रवाई करने से पीछे हटे हैं, या सुनील गुप्ता को 'माफ़ करने' के पीछे कोई और बजह है - यह तो मनोज देसाई ही बता सकते हैं; लेकिन मनोज देसाई की सक्रियता के बावजूद सुनील गुप्ता की कुर्सी जिस तरह बचती हुई नजर आ रही है - उससे कुल मिलाकर फजीहत मनोज देसाई की ही हो रही है । मनोज देसाई के लिए मुसीबत की बात यह हुई है कि खुद सुनील गुप्ता उनके अधिकार क्षेत्र व उनकी हैसियत को चुनौती दे रहे हैं ।