गाजियाबाद
। सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में ललित खन्ना, रवींद्र सिंह,
मनोज लाम्बा व अजय गुप्ता की तरफ से अपनी अपनी संभावित उम्मीदवारी को लेकर
जो सक्रियता देखने को मिली - उसने दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए खतरे
की घंटी बजाने का काम किया है । लोगों के बीच रवींद्र सिंह की
उम्मीदवारी को लेकर जो चर्चा छिड़ी और ललित खन्ना ने अपनी उम्मीदवारी के
प्रति लोगों के बीच फैले असमंजस को दूर करने के जो प्रयास शुरू किए - उससे
डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में गर्मी पैदा होने के संकेत मिले हैं ।
ललित खन्ना की सक्रियता में अचानक से पैदा हुई तेजी ने डिस्ट्रिक्ट की
चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों के कान खड़े किए । उल्लेखनीय है कि अभी तक
ललित खन्ना की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने की चर्चा तो सुनी जा रही थी, किंतु
ललित खन्ना की तरफ से कोई सक्रियता नहीं देखी जा रही थी । ललित खन्ना के
क्लब में पिछले दिनों कुछेक महत्वपूर्ण आयोजन हुए जिनमें ललित खन्ना और
उनकी पत्नी की विशेष संलग्नता भी रही और उन्हें खास तवज्जो भी मिली - लेकिन
ऐसे मौकों का चूँकि वह कोई राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए नहीं दिखे, इसलिए
उनकी उम्मीदवारी को लेकर लोगों के बीच संशय पैदा हुआ । ऐसे में उनके
नजदीकियों व शुभचिंतकों की तरफ से उन पर लगातार अपनी उम्मीदवारी के संदर्भ
में स्पष्ट फैसला करने के लिए दबाव पड़ रहा था । सुभाष जैन की चुनावी जीत के
जश्न-समारोह में इकट्ठा हुए लोगों व नेताओं की तरफ से ललित खन्ना को जो
समर्थन मिलता नजर आया, तो उससे उत्साहित होकर उन्होंने वहीं अपनी
उम्मीदवारी को लेकर फैले संशय को दूर करते हुए अपनी उम्मीदवारी की जोर-शोर
से घोषणा कर दी ।
दीपक गुप्ता को अपनी उम्मीदवारी के प्रति लापरवाह देख कर ही ललित खन्ना ने अपनी उम्मीदवारी के लिए मौका पहचाना और अपनी उम्मीदवारी के प्रति वह उत्साहपूर्ण तरीके से सक्रिय हो गए हैं । ललित खन्ना की इस सक्रियता ने डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के समीकरणों में भारी उलटफेर होने की जमीन तैयार करने का काम तो कर ही दिया है ।
मजे की बात यह है कि मुकेश अरनेजा के जिस विरोध को
ललित खन्ना की उम्मीदवारी के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा के रूप में
देखा/पहचाना जा रहा था, मुकेश अरनेजा का वही विरोध ललित खन्ना की
उम्मीदवारी के पक्ष में सबसे बड़ा 'सहायक' बनता हुआ दिख रहा है । सत्ता पक्ष
के नेताओं को लगता है कि मुकेश अरनेजा को सत्ता से दूर रखने के अपने
उद्देश्य को वह ललित खन्ना के जरिए ही प्राप्त कर सकते हैं । उल्लेखनीय
है कि सत्ता पक्ष के नेताओं के सामने एक बड़ा लक्ष्य व उद्देश्य मुकेश
अरनेजा को सत्ता से दूर कर देने का है । इसमें ललित खन्ना की उम्मीदवारी
उन्हें दोहरी मदद करती दिख रही है : एक तो, ललित खन्ना की उम्मीदवारी के
रहते मुकेश अरनेजा किसी और उम्मीदवार के साथ खुल कर सक्रिय नहीं हो पायेंगे
- क्योंकि तब वह क्लब विरोधी मामले में फँसेंगे; और दूसरे, डिस्ट्रिक्ट
गवर्नर के रूप में ललित खन्ना किसी भी हालत में मुकेश अरनेजा को सत्ता में
हिस्सेदार नहीं बनायेंगे । इस आधार पर ललित खन्ना की उम्मीदवारी को
सत्ता खेमे के नेताओं का समर्थन मिलने का अच्छा चांस है । इसके बावजूद, यह
'चांस' अभी तक हकीकत नहीं बन पाया है - तो कई लोगों की निगाह में इसके लिए
ललित खन्ना ही जिम्मेदार रहे हैं । ललित खन्ना अपनी उम्मीदवारी को उत्साहित
तरीके से लोगों के बीच प्रस्तुत नहीं कर सके, और इस कारण सत्ता खेमे के
लोगों के बीच उनकी उम्मीदवारी को लेकर संशय बना । ललित खन्ना के कुछेक
नजदीकियों का कहना रहा कि ललित खन्ना अपनी उम्मीदवारी को लेकर उत्साहित तो
थे, पर वह यह सोचते/चाहते थे कि नेता लोग एक मत व एक स्वर से उनकी
उम्मीदवारी का समर्थन घोषित करें । दोनों के बीच पहले आप पहले आप वाली
लखनवी अदा का सीन बना - नेता सोचते/चाहते कि ललित खन्ना पहले अपनी सक्रियता
दिखाएँ, तब फिर वह अपना समर्थन घोषित करें; ललित खन्ना सोचते/चाहते कि
नेता लोग समर्थन घोषित करें, तब वह अपनी सक्रियता बनाएँ/दिखाएँ । इस चक्कर
में अनुकूल स्थितियों के बावजूद ललित खन्ना की उम्मीदवारी की संभावना में
फच्चर फँसा रहा ।
सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में लेकिन यह फच्चर जिस तरह से निकला है, और ललित खन्ना की उम्मीदवारी जिस तरह से सत्ता खेमे के नेताओं के बीच स्वीकार्य होती हुई दिखी है - उससे डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति एक आकार लेती नजर आने लगी है । कुछेक लोगों को हालाँकि अभी भी ललित खन्ना की सक्रियता पर संदेह है - इस संदेह को हवा देने का काम मुकेश अरनेजा भी खूब कर रहे हैं; मुकेश अरनेजा जहाँ मौका मिलता है वहाँ लोगों को यह बताने से नहीं चूकते हैं कि ललित खन्ना के लिए उम्मीदवार 'बन पाना' बहुत ही मुश्किल है, और एक उम्मीदवार की जरूरतों को निभा सकना उनके बस की बात नहीं है । इसके अलावा, ललित खन्ना के सामने सत्ता खेमे के दूसरे संभावित उम्मीदवारों के मुकाबले आगे रहने व 'दिखने' की गंभीर चुनौती है । सत्ता खेमे में लोगों के बीच रवींद्र सिंह की उम्मीदवारी की जो चर्चा है, और जिसे सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में मुखर होते हुए देखा/सुना गया - वह सत्ता खेमे के चुनावी परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण तथ्य है । रवींद्र सिंह को सत्ता खेमे के दूसरी-तीसरी पंक्ति के कुछेक नेताओं का समर्थन तो देखा/बताया जाता ही है, साथ ही चुनावी राजनीति की 'तंग-गलियों' की पहचान के साथ-साथ उनसे गुजरने का अनुभव भी रवींद्र सिंह के पास/साथ है । सत्ता खेमे के ही कई नेताओं का मानना/कहना है कि रवींद्र सिंह ने अपनी राजनीतिक चाल यदि होशियारी से चली, तो अपनी उम्मीदवारी के लिए अभी बिखरे बिखरे से दिख रहे समर्थन-आधार को एकजुट करना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा । सत्ता खेमे के लोगों का समर्थन जुटाने के लिए मनोज लाम्बा और अजय गुप्ता भी अपनी अपनी तरह से सक्रिय देखे गए हैं । इनकी सक्रियता हालाँकि अभी तक लोगों के बीच कोई विशेष प्रभाव तो नहीं बना पाई है, लेकिन लोगों को यह जरूर लगता है कि यह यदि ठीक से सक्रिय हो गए - तो डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति का समीकरण खासा पेचीदा और दिलचस्प हो जायेगा ।
डिस्ट्रिक्ट की चुनावी
राजनीति के इस बनते हुए सीन में दीपक गुप्ता की अनुपस्थिति लेकिन सबसे
ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य है । अवधारणा (परसेप्शन) के स्तर पर दीपक गुप्ता
की उम्मीदवारी को अभी भी सबसे ज्यादा मजबूत देखा/पहचाना जा रहा है - लेकिन
बनते चुनावी समीकरण में वह जिस तरह से बाहर होते या 'किए जाते' नजर आ रहे
हैं, वह अपने आप में बड़ी बात है । दीपक गुप्ता के कुछेक शुभचिंतकों ने इस
स्थिति के लिए सत्ता खेमे के नेताओं को जिम्मेदार ठहराया है । उनका
कहना रहा कि सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में दीपक गुप्ता को
सोची-समझी योजना के तहत इसीलिए आमंत्रित नहीं किया गया, ताकि उनकी
उम्मीदवारी की मजबूती की अवधारणा को कमजोर किया जा सके । दीपक गुप्ता के
शुभचिंतकों का यह आरोप हो सकता है कि सच हो - पर सवाल यह महत्वपूर्ण नहीं
है कि दीपक गुप्ता के विरोधी क्या कर रहे हैं; सवाल यह महत्वपूर्ण है कि
दीपक गुप्ता खुद क्या कर रहे हैं ? दीपक गुप्ता यह उम्मीद भला कैसे कर
सकते हैं कि उनके विरोधी अपना जो मंच सजाएँ, उसे वह उन्हें सौंप दें - यह
रणनीति तो दीपक गुप्ता को बनानी है कि जहाँ उन्हें बाहर रखने/करने की कोशिश
हो रही हो, वहाँ वह अपनी 'मौजूदगी' कैसे 'बनाएँ' और 'दिखाएँ' ? यह
रणनीति बनाने तथा एक प्रतिकूल स्थिति में अपना हुनर दिखाने में दीपक गुप्ता
बुरी तरह फेल नजर आए हैं । उनके शुभचिंतकों का ही कहना है कि दीपक गुप्ता
के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि कभी तो वह बहुत तेज रफ़्तार में दिखते
हैं, और फिर अचानक से वह सीन से गायब हो जाते हैं । अभी जिस तरह से यह सीन
बना/दिखा, उसमें उनकी उम्मीदवारी पर ही सवाल उठने लगे और लोगों के बीच की
चर्चाओं में उनकी उम्मीदवारी पर संदेह व्यक्त होते सुने गए । दीपक
गुप्ता के विरोधी लोगों में ही कइयों का मानना और कहना है कि दीपक गुप्ता
की उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच अभी जो हमदर्दी व समर्थन का भाव है,
और इस भाव के चलते उनकी उम्मीदवारी की जो मजबूती है - उसी के कारण दूसरे
उम्मीदवार अभी ज्यादा सक्रिय होने का साहस नहीं कर पा रहे हैं; और उसी के
कारण सत्ता खेमे के नेताओं को कोई भरोसे का उम्मीदवार नहीं मिल पा रहा है । अपनी उम्मीदवारी के प्रति लेकिन दीपक गुप्ता की अपनी खुद की लापरवाही उनकी स्थिति को कमजोर करने का काम रही है । सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में लेकिन यह फच्चर जिस तरह से निकला है, और ललित खन्ना की उम्मीदवारी जिस तरह से सत्ता खेमे के नेताओं के बीच स्वीकार्य होती हुई दिखी है - उससे डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति एक आकार लेती नजर आने लगी है । कुछेक लोगों को हालाँकि अभी भी ललित खन्ना की सक्रियता पर संदेह है - इस संदेह को हवा देने का काम मुकेश अरनेजा भी खूब कर रहे हैं; मुकेश अरनेजा जहाँ मौका मिलता है वहाँ लोगों को यह बताने से नहीं चूकते हैं कि ललित खन्ना के लिए उम्मीदवार 'बन पाना' बहुत ही मुश्किल है, और एक उम्मीदवार की जरूरतों को निभा सकना उनके बस की बात नहीं है । इसके अलावा, ललित खन्ना के सामने सत्ता खेमे के दूसरे संभावित उम्मीदवारों के मुकाबले आगे रहने व 'दिखने' की गंभीर चुनौती है । सत्ता खेमे में लोगों के बीच रवींद्र सिंह की उम्मीदवारी की जो चर्चा है, और जिसे सुभाष जैन की चुनावी जीत के जश्न-समारोह में मुखर होते हुए देखा/सुना गया - वह सत्ता खेमे के चुनावी परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण तथ्य है । रवींद्र सिंह को सत्ता खेमे के दूसरी-तीसरी पंक्ति के कुछेक नेताओं का समर्थन तो देखा/बताया जाता ही है, साथ ही चुनावी राजनीति की 'तंग-गलियों' की पहचान के साथ-साथ उनसे गुजरने का अनुभव भी रवींद्र सिंह के पास/साथ है । सत्ता खेमे के ही कई नेताओं का मानना/कहना है कि रवींद्र सिंह ने अपनी राजनीतिक चाल यदि होशियारी से चली, तो अपनी उम्मीदवारी के लिए अभी बिखरे बिखरे से दिख रहे समर्थन-आधार को एकजुट करना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा । सत्ता खेमे के लोगों का समर्थन जुटाने के लिए मनोज लाम्बा और अजय गुप्ता भी अपनी अपनी तरह से सक्रिय देखे गए हैं । इनकी सक्रियता हालाँकि अभी तक लोगों के बीच कोई विशेष प्रभाव तो नहीं बना पाई है, लेकिन लोगों को यह जरूर लगता है कि यह यदि ठीक से सक्रिय हो गए - तो डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति का समीकरण खासा पेचीदा और दिलचस्प हो जायेगा ।
दीपक गुप्ता को अपनी उम्मीदवारी के प्रति लापरवाह देख कर ही ललित खन्ना ने अपनी उम्मीदवारी के लिए मौका पहचाना और अपनी उम्मीदवारी के प्रति वह उत्साहपूर्ण तरीके से सक्रिय हो गए हैं । ललित खन्ना की इस सक्रियता ने डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के समीकरणों में भारी उलटफेर होने की जमीन तैयार करने का काम तो कर ही दिया है ।