नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स जैसी प्रोफेशनल संस्था के वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए नवीन गुप्ता और नीलेश विकमसे को जितवाने के लिए क्रमशः पिता एनडी गुप्ता तथा भाई कमलेश विकमसे ने जिस तरह से कमर कसी हुई है, उसे देख कर दुनिया की प्रमुख एकाउंटिंग संस्था बनने का विज़न रखने वाली इस प्रोफेशनल संस्था की स्थिति पर सिर्फ अफसोस ही प्रकट किया जा सकता है । इंस्टीट्यूट एक तरफ विज़न 2030 के लिए डॉक्यूमेंट जारी कर रहा है, और दूसरी तरफ इस विज़न को संभव बनाने की नेतृत्वकारी जिम्मेदारी निभाने वाले लोगों को 'जिम्मेदारी पाने के लिए' अपने पिता और अपने भाई की मदद लेनी पड़ रही है । स्वाभाविक सा सवाल है कि जो व्यक्ति इंस्टीट्यूट का मुखिया बनने के लिए अपनी खुद की क्षमताओं पर भरोसा नहीं कर सकता है - और उसे अपने पिता व भाई की मदद लेना पड़ रही है, वह प्रोफेशन को भला क्या दशा/दिशा और विज़न देगा ? इंस्टीट्यूट की इससे भी बुरी स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कुछेक दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट भी अपने अपने उम्मीदवारों को वाइस प्रेसीडेंट बनवाने की तीन-तिकड़मों में लगे हुए हैं । इन दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट्स के साथ मजाक की स्थिति यह है कि यह एक से अधिक उम्मीदवारों के समर्थक बने हुए हैं - ताकि जीतने वाले को जितवाने का श्रेय यह खुद ले सकें । यही कारण है कि यह दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट्स किस या किन किन उम्मीदवारों के साथ हैं - इसका अभी तक खुद इन्हें तथा इनके समर्थन की उम्मीद रखने वाले उम्मीदवारों को भी कोई अतापता नहीं है ।
वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव के तमाशे को जानने वाले लोगों का कहना है कि इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले पूर्व प्रेसीडेंट्स पहले से किसी उम्मीदवार के समर्थक नहीं बनते हैं - पहले से तो वह सिर्फ हालात पर नजर रखते हैं और जिसका जिसका पलड़ा भारी सा देखते हैं, चुनाव से ऐन पहले वह उनके समर्थक हो जाते हैं । उनके - मतलब एक से अधिक उम्मीदवारों के ! नतीजा आने के बाद फिर उनकी सारी कोशिश साबित करने की होती है कि जो जीता है - वह मेरे ही कारण से जीता है । ऐसा साबित करके वह दरअसल अपनी 'दुकान' को प्रभावी बनाने तथा अगले वर्ष में और ज्यादा 'ग्राहक' पाने का जुगाड़ लगाते हैं । मजेदार बात यह है कि प्रायः हर उम्मीदवार जानता और मानता है कि वाइस प्रेसीडेंट चुनवाने की 'दुकान' खोले बैठे पूर्व प्रेसीडेंट्स किसी को चुनाव नहीं जितवा सकते, लेकिन फिर भी हर उम्मीदवार इन 'दुकानों' का चक्कर जरूर काटता है और कोशिश करता है कि इनका समर्थन उसे मिल जाए । यह मजेदार स्थिति एनडी गुप्ता और कमलेश विकमसे के मामले में भी देखी जा सकती है । एनडी गुप्ता अपने बेटे नवीन गुप्ता को वाइस प्रेसीडेंट चुनवाने की पहले भी कई कोशिशें कर चुके हैं, लेकिन हर बार बुरी तरह से फेल रहे हैं । यही कमलेश विकमसे के साथ हुआ है । किंतु कई कई बार की विफलताओं के बावजूद इन दोनों को पक्का विश्वास है कि इस बार के चुनाव में यह जरूर कामयाब होंगे - इनका विश्वास यदि सचमुच फलीभूत हुआ भी तो भी तो इनमें से कोई एक ही तो कामयाब होगा ।
पिता, भाई और पूर्व प्रेसीडेंट्स पर निर्भर उम्मीदवारों के अलावा एक उम्मीदवार दीनल शाह भी हैं, जो बिग फोर के उम्मीदवार के रूप में देखे/पहचाने जा रहे हैं । लेकिन उनकी यही पहचान उनकी मुसीबत भी बनी हुई है । आँकड़ों व तथ्यों का हिसाब/किताब रखने वाले लोगों का कहना है कि पिछले बीस वर्षों में तो बिग फोर का उम्मीदवार (वाइस) प्रेसीडेंट बना नहीं है । दीनल शाह को मौजूदा वाइस प्रेसीडेंट देवराजा रेड्डी का भी समर्थन बताया जा रहा है, और उनके समर्थन के कारण ही दीनल शाह को मजबूत दावेदारों में गिना/पहचाना जा रहा है । दीनल शाह को वेस्टर्न रीजन के ऐसे सदस्यों के समर्थन की बात भी सुनी/कही जा रही है, जो नीलेश विकमसे के घनघोर विरोधी हैं । वाइस प्रेसीडेंट पद की उम्मीदवारी के सिलसिले में दीनल शाह ने अपना जो भी कैम्पेन चलाया है, उसमें उन्होंने तो बिग फोर के टैग को छिपाने की कोशिश बहुत की है, लेकिन उनके विरोधी लोगों ने इस टैग को उनपर चिपकाए रखने की हरसंभव कोशिश की है ।
इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वाइस प्रेसीडेंट पद का चुनाव यूँ तो बहुत छोटा सा चुनाव है, किंतु 32 वोटरों के बीच 14 उम्मीदवारों के होने से तथा भाई-भतीजावाद, बेटावाद, जातिवाद, अच्छी कमेटियों तथा विदेश यात्राओं के ऑफर के बीच दलाल किस्म के पूर्व प्रेसीडेंट्स के सक्रिय रहने से यह चुनाव खासा गहमागहमी भरा होता है । विभिन्न प्रकार की गहमागहमियों के कारण ही यह चुनाव अनिश्चितताओं से भरा हुआ भी होता है - और इसीलिए इसका नतीजा अक्सर ही चुनावी खिलाड़ियों तक को चौंकाता है । तैयारियों के लिहाज से नवीन गुप्ता, नीलेश विकमसे और दीनल शाह का नाम भले ही चर्चा में है, लेकिन वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव के 'चरित्र' को जानने वाले लोगों का यही कहना है कि चुनावी नतीजे को लेकर कोई भी अनुमान लगाना भूसे के ढेर में से सुईं ढूँढने जैसा मामला है ।