Thursday, November 29, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के हो रहे चुनाव अभियान में आचारसंहिता के उल्लंघन की शिकायतों की सुनवाई के लिए सरकारी प्रतिनिधियों की सदस्यता वाले पैनल के गठन में अतुल गुप्ता के खिलाफ हुई शिकायत की भूमिका की चर्चा ने चुनावी माहौल में गर्मी पैदा की

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट की काउंसिल्स के लिए होने वाले चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा चुनावी आचारसंहिता के उल्लंघन की बढ़ती घटनाओं और शिकायतों की गूँज लगता है कि मिनिस्ट्री ऑफ कॉर्पोरेट अफेयर्स के पदाधिकारियों के कानों तक जा पहुँची है, और उनके दबाव में चुनाव के अंतिम दौर में इंस्टीट्यूट के पदाधिकारियों को शिकायतों की सुनवाई के लिए दो सरकारी प्रतिनिधियों वाले एक तीन सदस्यीय पैनल का गठन करने के लिए मजबूर होना पड़ा है । इंस्टीट्यूट के इतिहास में इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ । कई लोगों का कहना है कि इंस्टीट्यूट के इतिहास में इससे पहले कभी वी सागर जैसा सेक्रेटरी भी नहीं रहा है, जो तमाम शिकायतों को लगातार अनसुना करता रहे और कानों में तेल डाल कर बैठा रहे । कुछेक लोगों ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया है कि इंस्टीट्यूट के चुनावी इतिहास में अब से पहले यह नजारा भी कभी देखने को नहीं मिला कि इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट के पिताजी ही चुनावी आचारसंहिता के उल्लंघन की कोशिशों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हों और उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हों । यह भी पहली बार देखने में आ रहा है कि इंस्टीट्यूट के कुछेक पूर्व प्रेसीडेंट पूरी निर्लज्जता के साथ 'इस' या 'उस' उम्मीदवार के समर्थन में वोट जुटाने के अभियान में खुल्लमखुल्ला लगे हुए हैं । इस लिहाज से इंस्टीट्यूट की काउंसिल्स के लिए हो रहा इस बार का चुनाव कई मायनों में अनोखा है और 'अंधेर नगरी व चौपट राजा' का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है । 
उल्लेखनीय है कि यूँ तो इंस्टीट्यूट की काउंसिल्स के प्रत्येक चुनाव में चुनावी आचारसंहिता का उल्लंघन होता रहा है और आरोप लगते रहे हैं; लेकिन हर बार देखने में आया है कि आचारसंहिता का उल्लंघन करने के आरोपी बनने वाले उम्मीदवार शर्म और लिहाज का झीना सा ही सही एक पर्दा रखते रहे हैं, और छापामार कार्रवाई की तरह हरकत करके बच निकलते रहे हैं, लेकिन इस बार तो खुल्लाखेल फरुख्खावादी जैसा मामला हो गया है । आचारसंहिता की ऐसीतैसी करने वाले उम्मीदवारों को जैसे किसी की परवाह ही नहीं है । प्रेसीडेंट नवीन गुप्ता और सेक्रेटरी वी सागर के नाकारापन की हद का आलम यह है कि काउंसिल के मौजूदा सदस्य तक नियमों/कानूनों का मजाक बना दे रहे हैं । मुंबई में काउंसिल के ही एक सदस्य धीरज खंडेलवाल द्वारा किए गए आयोजनों पर काउंसिल के ही सदस्यों ने सवाल उठाये, लेकिन नवीन गुप्ता और वी सागर ने उनके ही सवालों का जबाव देना तक जरूरी नहीं समझा । चुनावी आचारसंहिता के उल्लंघन की अधिकतर शिकायतों को इलेक्शन ऑफिसर की भूमिका निभा रहे सेक्रेटरी वी सागर ने यह तर्क देते हुए खारिज कर दिया कि उनके साथ पर्याप्त सुबूत नहीं दिए गए । धीरज खंडेलवाल के मामले में सेंट्रल काउंसिल सदस्यों द्वारा पूछे गए सामान्य से सवाल पर उन्होंने चुप्पी साध ली । इससे ही जाहिर है कि चुनावी आचारसंहिता के आरोपों को उन्होंने पूरी तरह अनदेखा/अनसुना करने का मन बना लिया है । समझा जाता है कि इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट व सेक्रेटरी के नाकारापन की शिकायतें मिलने के बाद ही मिनिस्ट्री ऑफ कॉर्पोरेट अफेयर्स के पदाधिकारियों ने मामले में हस्तक्षेप करने का फैसला लिया होगा और उसी के फलस्वरूप आचारसंहिता के आरोपों की सुनवाई के लिए दो सरकारी प्रतिनिधियों वाले तीन सदस्यीय पैनल का गठन करने की घोषणा की गई है ।
मजे की बात यह है कि इस पैनल के गठन के लिए नॉर्दर्न रीजन के सेंट्रल काउंसिल सदस्य अतुल गुप्ता को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है । दरअसल दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में 24 नवंबर को 'प्रोफेशनल मीट' के नाम पर आयोजित हुई अतुल गुप्ता की चुनावी सभा की शिकायत 26 नवंबर को हुई, जिसकी एक प्रति मिनिस्ट्री ऑफ कॉर्पोरेट अफेयर्स को भी भेजी गई । उक्त शिकायत में ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग के साथ खासे पर्याप्त सुबूत भी दिए गए हैं । 26 नवंबर को हुई इस शिकायत के अगले ही दिन, 27 नवंबर को सरकारी प्रतिनिधियों की सदस्यता के साथ पैनल के गठन की सूचना जारी हो गई । इससे लोगों को लगा है कि अतुल गुप्ता के खिलाफ हुई शिकायत तथा उसमें दिए गए तथ्यों व सुबूतों को मिनिस्ट्री के पदाधिकारियों ने गंभीर माना/पाया है, और तुरंत ही यह फैसला कर लिया कि चुनावी आचारसंहिता के आरोपों की सुनवाई इंस्टीट्यूट के पदाधिकरियों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती । उल्लेखनीय है कि अतुल गुप्ता के प्रचार अभियान का माध्यम बनने के चक्कर में नॉर्थ-एक्स सीपीई स्टडी सर्किल पीछे कई दिनों तक सस्पेंड रह चुका है; इसके बावजूद अतुल गुप्ता अपनी हरकतों से बाज नहीं आए हैं । सरकारी प्रतिनिधियों की सदस्यता के साथ पैनल के गठन की सूचना में अतुल गुप्ता की 'जिम्मेदारी' की चर्चाओं ने अतुल गुप्ता की मुसीबतों को और बढ़ा दिया है । यह देखना दिलचस्प होगा कि इस पैनल के गठन के बाद उम्मीदवारों द्वारा चुनावी आचारसंहिता के उल्लंघन की घटनाओं और शिकायतों में सचमुच कोई कमी आती है या मामला पहले जैसा ही बना रहता है ।

Wednesday, November 28, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में विजय गुप्ता से आगे रहने की अतुल गुप्ता की अभी से की जा रही कोशिशों ने हंसराज चुग के लिए चुनावी हालात को खासा दिलचस्प व अनुकूल बनाया

नई दिल्ली । अतुल गुप्ता की इंस्टीट्यूट का वाइस प्रेसीडेंट बनने के लिए वोट माँगने की कार्रवाई का लोग भले ही मजाक बना रहे हों, लेकिन अपनी इस कोशिश में वह खुद बहुत गंभीर नजर आ रहे हैं । हर किसी को हैरानी है कि सेंट्रल काउंसिल के सदस्य चुने जाने के प्रचार अभियान में अतुल गुप्ता वाइस प्रेसीडेंट के नाम पर वोट क्यों माँग रहे हैं, और ऐसा करके वह वोटरों को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं, या खुद अपने आप को धोखा दे रहे हैं ? उनके शुभचिंतकों को भी डर हो चुका है कि कहीं अतुल गुप्ता सचमुच में तो यह नहीं मान बैठे हैं कि रीजन में यदि उन्हें सबसे ज्यादा वोट मिले तो वह वाइस प्रेसीडेंट बन जायेंगे ? उल्लेखनीय है कि अतुल गुप्ता को उनके समर्थक ही नहीं, उनके विरोधी भी एक होशियार व्यक्ति के रूप में देखते/पहचानते हैं; दरअसल इसीलिए हर कोई हैरान है कि होशियार होने के बावजूद अतुल गुप्ता बेबकूफी की बात कैसे और क्यों कर रहे हैं ? हालाँकि यह सच है कि पिछले चुनाव में नॉर्दर्न रीजन में नवीन गुप्ता को सबसे ज्यादा वोट मिले थे, और वह (वाइस) प्रेसीडेंट बने; लेकिन इसके साथ यह भी ध्यान रखने की बात है कि वेस्टर्न रीजन में एसबी जावरे को सबसे ज्यादा वोट मिले थे, लेकिन (वाइस) प्रेसीडेंट बने नीलेश विकमसे; और मौजूदा वाइस प्रेसीडेंट प्रफुल्ल छाजेड़ तो पहली प्राथमिकता के वोटों की गिनती में 12हवें नंबर पर रहे थे । जाहिर है कि वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में एक अलग केमिस्ट्री काम करती है और उसका अपना एक अलग गणित होता है, जिसमें काउंसिल सदस्य बनने के लिए मिले वोटों की कोई भूमिका नहीं होती है । अतुल गुप्ता इतनी सामान्य सी बात तो समझते ही होंगे, लेकिन फिर भी वह सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में वाइस प्रेसीडेंट बनने के नाम पर वोट माँग रहे हैं ।
समझा जाता है कि वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए अतुल गुप्ता का मुकाबला विजय गुप्ता से होगा, जिन्हें वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव की केमिस्ट्री जोड़ने में अतुल गुप्ता के मुकाबले ज्यादा होशियार माना/समझा जाता रहा है । अतुल गुप्ता और विजय गुप्ता हालाँकि वाइस प्रेसीडेंट के चुनावों में अभी तक सफलता से तो दूर ही रहे हैं, लेकिन सफल होने वाले 'गणित' में अतुल गुप्ता के मुकाबले विजय गुप्ता ज्यादा नजदीक रहे हैं, इसलिए अतुल गुप्ता को डर है कि वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में विजय गुप्ता कहीं बाजी न मार ले जाएँ । काउंसिल सदस्य के रूप में ज्यादा वोट जुटाने के उनके प्रयास में काउंसिल में आने वाले नए सदस्यों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने की उनकी योजना को देखा/पहचाना जा रहा है । लोगों को लगता है कि हो सकता है कि अतुल गुप्ता सोच रहे हों कि वह सबसे ज्यादा वोट पायेंगे तो काउंसिल के कुछेक सदस्य तो अवश्य ही उनसे प्रभावित हो जायेंगे और वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में उनका समर्थन कर देंगे । वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में लेकिन एसबी जावरे की असफलता और प्रफुल्ल छाजेड़ की सफलता का उदाहरण लेकिन बताता है कि अतुल गुप्ता का सोचना सिर्फ उनकी खामख्याली ही है । सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में चुनाव लड़ते हुए अतुल गुप्ता ने जिस तरह से वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव को अपने फोकस में रखा हुआ है, उसने हंसराज चुग के लिए चुनावी हालात को खासा दिलचस्प तथा अनुकूल बना है ।        
अतुल गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार, अतुल गुप्ता को सेंट्रल काउंसिल में नॉर्दर्न रीजन से जो नए लोग प्रवेश करते हुए लग रहे हैं, उनमें वह हंसराज चुग को 'देख' रहे हैं, और इसलिए हंसराज चुग का वोट पक्का करने के लिए वह 'माहौल' बना रहे हैं । अतुल गुप्ता के नजदीकियों ने ही कहा/बताया है कि अतुल गुप्ता ने कई एक मौकों पर हंसराज चुग के कुछेक नजदीकियों/समर्थकों के सामने जानबूझ कर बोला/कहा है कि उन्होंने अपने पक्के वोटरों को दूसरी वरीयता का वोट देने के लिए कहा है । कुछेक मौकों पर अतुल गुप्ता ने यह भी कहा/बोला है कि वह जानते हैं कि दिल्ली के त्रिनगर क्षेत्र में हंसराज चुग की उम्मीदवारी के लिए अच्छा समर्थन है, और इसीलिए वह वहाँ दूसरी वरीयता के वोटों के लिए भी नहीं गए हैं ताकि कहीं कोई गलतफहमी न पैदा हो और हंसराज चुग का समर्थन-आधार डिस्टर्ब न हो । इस तरह की बातों से अतुल गुप्ता को उम्मीद है कि चुनावी नतीजा घोषित होने पर हंसराज चुग जब अधिकृत रूप से विजेता घोषित होंगे, तो उनकी जीत में वह अपने सहयोग का वास्ता देकर वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में हंसराज चुग के समर्थन के लिए प्रयास कर सकेंगे । अतुल गुप्ता ने वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए इससे पहले जब भी चुनाव लड़े हैं, चुनाव को लेकर उन्होंने इतनी गंभीरता कभी नहीं दिखाई है - जितनी कि वह इस बार दिखा रहे हैं । इससे लग रहा है कि आठ दिसंबर को काउंसिल्स के लिए चुनाव हो जाने के बाद भी अतुल गुप्ता चुनावी-मूड से बाहर नहीं निकल पायेंगे और अब की बार का वाइस प्रेसीडेंट का चुनाव नॉर्दर्न रीजन में ही घमासान मचायेगा ।

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3012 में अशोक अग्रवाल के खिलाफ आचारसंहिता के उल्लंघन का आरोप लगाने में जल्दबाजी करके अमित गुप्ता के क्लब के पदाधिकारियों ने अशोक अग्रवाल के समर्थकों को हमलावर होने तथा चुनावी दौड़ में अपनी बढ़त जताने/बताने का मौका दे दिया है क्या ?

गाजियाबाद । अमित गुप्ता की तरफ से अशोक अग्रवाल की उम्मीदवारी को बाँधने तथा दौड़ से बाहर करने की तैयारी तो पक्की की गई थी, लेकिन अशोक अग्रवाल की तरफ से बचाव में की गई घेराबंदी ने उनकी तैयारी को उलझा दिया है । अशोक अग्रवाल की तरफ से दिखाए गए तेवर ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुभाष जैन को भी असमंजस में फँसा दिया है, जिस कारण उन्होंने मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया है । उल्लेखनीय है कि 4 नवंबर को रोटरी क्लब शिप्रा सनसिटी के एक आयोजन में अशोक अग्रवाल के शामिल होने और मंच पर बैठने को चुनावी आचारसंहिता का उल्लंघन करना मानते हुए अमित गुप्ता के क्लब - रोटरी क्लब गाजियाबाद सेंट्रल ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को शिकायत की और जरूरी कार्रवाई करने की माँग की । शिकायत की बात सार्वजनिक होते ही अशोक अग्रवाल और उनके समर्थक सक्रिय हुए, जिनका कहना रहा कि 4 नवंबर को न तो अशोक अग्रवाल की उम्मीदवारी आधिकारिक रूप से प्रस्तुत हुई थी, और न ही उनके क्लब ने उनकी उम्मीदवारी को अधिकृत रूप से मंजूरी ही दी थी - इसलिए अशोक अग्रवाल उस समय चुनावी आचारसंहिता के घेरे में थे नहीं; दूसरी बात यह कि रोटरी क्लब शिप्रा सनसिटी के उस आयोजन में अशोक अग्रवाल को किसी भी रूप में प्रमोट नहीं किया गया था; मंच पर उन्हें यदि बैठाया गया था तो सिर्फ इसलिए क्योंकि यह एक नया क्लब है, जो अपने आयोजन में उपस्थित डिस्ट्रिक्ट के वरिष्ठ रोटेरियंस को सम्मानित करना चाहता था । मंच से न तो खुद अशोक अग्रवाल ने और न अन्य किसी ने अशोक अग्रवाल की उम्मीदवारी को प्रमोट करने का काम किया । इन तर्कों के साथ, अशोक अग्रवाल के समर्थकों ने दावा किया कि अशोक अग्रवाल की तरफ से चुनावी आचारसंहिता का उल्लंघन करने का कोई मामला नहीं बनता है; और यदि जबर्दस्ती मामला बनाने का प्रयास किया गया तो आधिकारिक रूप से उसका जबाव दिया जायेगा और मुकाबला किया जायेगा । अशोक अग्रवाल के समर्थकों ने यह दावा करके अमित गुप्ता और उनके समर्थकों को दबाव में और ला दिया है कि वह जब अपने आपको अशोक अग्रवाल के साथ चुनावी मुकाबले में पिछड़ता हुआ पा रहे हैं, तो झूठे मुद्दे उठा कर अशोक अग्रवाल को चुनावी दौड़ से बाहर करने की योजना बनाने लगे हैं ।  
मजे की बात यह रही कि जिस आयोजन में अशोक अग्रवाल द्वारा चुनावी आचारसंहिता का उल्लंघन करने की शिकायत की गई है, उसमें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुभाष जैन खुद मौजूद थे । इस तथ्य को इस्तेमाल करते हुए अशोक अग्रवाल के समर्थक दावा कर रहे हैं कि उक्त आयोजन में चुनावी आचारसंहिता का उल्लंघन यदि हो रहा होता, तो सुभाष जैन खुद उसका संज्ञान लेते और आवश्यक कार्रवाई करते; लेकिन सुभाष जैन का कोई कार्रवाई न करना साबित करता है कि उक्त आयोजन में कुछ भी गलत नहीं हो रहा था । अमित गुप्ता की तरफ से हुई शिकायत में बताया गया है कि 31 अक्टूबर को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कार्यालय से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए नामांकन माँगे जाने की ईमेल आने के बाद अशोक अग्रवाल ने 2 नवंबर को सभी प्रेसीडेंट्स को ईमेल लिख कर सूचित किया कि चूँकि उनका क्लब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित करना चाहता है, इसलिए वह डिस्ट्रिक्ट के सभी पदों से इस्तीफा दे रहे हैं । इसके बाद भी, वह 4 नवंबर को एक क्लब के अधिकृत आयोजन में शामिल हुए और इसतरह उन्होंने चुनावी आचारसंहिता का उल्लंघन किया । अशोक अग्रवाल के समर्थकों का कहना है कि अमित गुप्ता के क्लब के पदाधिकारियों ने उतावलेपन के जोश में जल्दबाजी दिखाई और तथ्यों को जाँचे बिना शिकायत ठोक दी । 2 नवंबर को ईमेल के जरिये अशोक अग्रवाल ने सभी प्रेसीडेंट्स को डिस्ट्रिक्ट के सभी पदों से इस्तीफा देने की बात इसलिए बताई थी, ताकि कोई प्रेसीडेंट अपने क्लब के किसी आयोजन में उन्हें पदाधिकारी के रूप में आमंत्रित न करे । शिकायत करने वाले पदाधिकारी यह तो पता कर लेते कि 4 नवंबर को अशोक अग्रवाल क्या सचमुच अपने पदों से इस्तीफा दे चुके थे और डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुभाष जैन उनका इस्तीफा कर चुके थे क्या ? अशोक अग्रवाल के समर्थकों का कहना है कि इसके अलावा सौ बात की एक बात, शिकायत करने वालों ने डिस्ट्रिक्ट इलेक्शन गाइडलाइंस का जो हवाला दिया है, वह सभी गाइडलाइंस 'उम्मीदवार' पर लागू होती हैं - और 4 नवंबर को अशोक अग्रवाल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए आधिकारिक रूप से 'उम्मीदवार' नहीं थे ।
अमित गुप्ता की उम्मीदवारी के समर्थक भी समझ/मान रहे हैं कि अमित गुप्ता के क्लब के पदाधिकारियों ने शिकायत करने में जल्दबाजी करके अशोक अग्रवाल और उनके समर्थकों को एक तरफ तो सावधान कर दिया, और दूसरी तरफ अशोक अग्रवाल के समर्थकों को हमलावर होने का मौका दे दिया । अशोक अग्रवाल के समर्थक जोर-शोर से इस बात को प्रचारित करने में लगे हैं कि अमित गुप्ता के समर्थकों ने लगता है कि अशोक अग्रवाल की जीत को भाँप लिया है, और इसलिए ही वह अशोक अग्रवाल से चुनावी मुकाबले में भिड़ने की बजाए झूठे आरोप लगा कर अशोक अग्रवाल को चुनावी दौड़ से बाहर करने की कोशिशों में जुट गए हैं । इस मामले में दिलचस्प नजारा यह रहा कि अशोक अग्रवाल के खिलाफ हुई शिकायत को शुरु में पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमेश अग्रवाल का समर्थन मिलता दिखा था, लेकिन जैसे जैसे यह स्पष्ट होता गया कि उक्त शिकायत में दम नहीं है - रमेश अग्रवाल ने भी अपने पैर पीछे लौटा लिए हैं । दरअसल, अशोक अग्रवाल के खिलाफ 18 नवंबर को शिकायत दर्ज होते ही जिस तरह से रमेश अग्रवाल सक्रिय हुए, उससे डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच यह संदेश गया कि इस शिकायत के पीछे रमेश अग्रवाल हैं । इससे मामला अमित गुप्ता के पक्ष में बनने की बजाये बिगड़ और गया । दरअसल रमेश अग्रवाल अपनी हरकतों के चलते इस समय पूरी तरह अलग-थलग बने/पड़े हुए हैं । रमेश अग्रवाल की न मौजूदा डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुभाष जैन से बन रही हैं, और न आने वाले वर्षों में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का पदभार संभालने वाले दीपक गुप्ता व आलोक गुप्ता से बन रही है । पिछले दिनों हालाँकि रमेश अग्रवाल ने दीपक गुप्ता व आलोक गुप्ता के साथ अपने संबंध सुधारने की कोशिश तो की, लेकिन वह चूँकि इन दोनों के बारे में इतनी बकवासबाजी कर चुके हैं कि यह दोनों अभी तो रमेश अग्रवाल को माफ करने के मूड में नहीं दिखते हैं । वास्तव में इसीलिए जैसे ही डिस्ट्रिक्ट में लोगों का आभास हुआ कि अशोक अग्रवाल के खिलाफ शिकायत करवा कर रमेश अग्रवाल डिस्ट्रिक्ट में अपनी वापसी की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही लोग रमेश अग्रवाल की कोशिश के खिलाफ सक्रिय हो गए । इस चक्कर में अशोक अग्रवाल को उन लोगों का भी समर्थन मिल गया है, जिन्हें उनके खिलाफ देखा/पहचाना जा रहा था । अशोक अग्रवाल के समर्थकों की सक्रियता के चलते अशोक अग्रवाल के खिलाफ हुई शिकायत का मामला अभी तो दबता हुआ दिख रहा है, लेकिन देखने की बात यह होगी कि उनके खिलाफ शिकायत करने वाले मामले को यहीं छोड़ देते हैं या आगे बढ़ाते हैं ।

Monday, November 26, 2018

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 सी वन में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनय मित्तल और पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील जैन ने जिस तरह से विनय मित्तल को फँसाने की मुकेश गोयल की चाल को फेल किया है, उसमें डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति को एक बड़ी करवट लेते देखा/पहचाना जा रहा है

गाजियाबाद । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनय मित्तल को 'काबू' में करने के लिए मुकेश गोयल ने उन्हें पंकज बिजल्वान के जरिये पुलिस में फँसाने की जो कोशिश की है, उसने हर किसी को हैरान किया है । हर किसी का यही मानना/कहना है कि मुकेश गोयल से उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि डिस्ट्रिक्ट की व्यवस्था व राजनीति में अपनी प्रमुखता बनाए रखने के लिए वह इस हद तक जायेंगे । डिस्ट्रिक्ट की व्यवस्था व राजनीति तथा उसमें मुकेश गोयल की ऊपर/नीचे होती रही स्थिति से परिचित रहे लोगों का कहना/बताना है कि एक लायन नेता के रूप में मुकेश गोयल के सामने बहुत बड़ी बड़ी चुनौतियाँ आईं हैं, लेकिन मुकेश गोयल ने अपने राजनीतिक कौशल से ही उन चुनौतियों का सामना किया है । यह पहली बार देखने में आया है कि विनय मित्तल से मिल रही चुनौती से निपटने में उन्हें जैसे अपने राजनीतिक कौशल पर भरोसा नहीं रह गया है, और उन्हें विनय मित्तल को पुलिस केस में फँसा/फँसवा कर विनय मित्तल को 'काबू' में करने का हथकंडा अपनाना पड़ा । मजे की बात यह रही कि मुकेश गोयल ने विनय मित्तल को फँसवाने के लिए जिन पंकज बिजल्वान का इस्तेमाल किया, विनय मित्तल की प्रतिउत्तर में की जाने वाली पुलिस कार्रवाई की धमकी में वह पंकज बिजल्वान भी फँसते हुए नजर आए; और तब पंकज बिजल्वान ने हापुड़ की बजाये देहरादून में ही समझौता कर लेने में अपनी खैर समझी और मुकेश गोयल की योजना फेल हो गई । मुकेश गोयल के लिए झटके की बात यह भी रही कि मामले को ज्यादा बिगड़ने से बचाने तथा मुकेश गोयल की योजना को फेल करने का श्रेय पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर सुनील जैन को मिल गया - जिन्होंने अपनी सूझबूझ व अपने प्रभाव से दोनों पक्षों को सम्मानजनक समझौते के लिए राजी कर लिया ।
मामला पंकज बिजल्वान का हस्तारक्षित एक कोरा कागज विनय मित्तल के पास होने से जुड़ा था । दरअसल डिस्ट्रिक्ट में बहुत दिनों से लोगों के बीच यह चर्चा चल ही रही थी कि विनय मित्तल, पंकज बिजल्वान को जोन चेयरमैन के पद से हटायेंगे । लोगों के बीच जारी चर्चा में कुछेक लोग पंकज बिजल्वान को जोन चेयरमैन पद से हटाने के कारण के रूप में पंकज बिजल्वान को सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की उम्मीदवारी से रोकने की रणनीति के रूप में देख रहे थे; तो कुछेक लोग पंकज बिजल्वान की लोगों के साथ फोन पर होने वाली बातचीत को टेप करने तथा फिर उस रिकॉर्डेड बातचीत के आधार पर लोगों को बदनाम करने तथा उनसे राजनीतिक सौदेबाजी करने की शिकायतों पर की जाने वाली कार्रवाई के रूप में देख रहे थे । कई लोगों ने विनय मित्तल से शिकायत की हुई थी कि पंकज बिजल्वान उनसे डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति पर तथा डिस्ट्रिक्ट के प्रमुख लोगों के बारे में बातेँ करते हैं, और उस बातचीत को उनकी जानकारी के बिना रिकॉर्ड कर लेते हैं - और फिर वह बातचीत मुकेश गोयल तथा शिव कुमार चौधरी को सुनाते/सुनवाते हैं । यह शिकायत करने वाले लोग विनय मित्तल से माँग कर रहे थे कि इस तरह की हरकतें करने तथा डिस्ट्रिक्ट में लोगों के बीच वैमनस्य व झगड़ा पैदा करने वाले पंकज बिजल्वान को वह जोन चेयरमैन के पद से हटाएँ । इस तरह की चर्चाओं के बीच पंकज बिजल्वान दीवाली मिलने के बहाने गाजियाबाद में विनय मित्तल से उनके ऑफिस में मिले, जहाँ फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर संजीवा अग्रवाल संयोगवश पहले से मौजूद थे । विनय मित्तल ने उन्हें स्पष्ट कर दिया कि फोन पर बातचीत को रिकॉर्ड करने तथा फिर उसका दुरुपयोग करने को लेकर उन पर जो आरोप हैं, उनके कारण वह अपनी टीम में उन्हें बनाए नहीं रख पायेंगे । तब पंकज बिजल्वान ने उनसे अनुरोध किया कि वह उन्हें जोन चेयरमैन पद से हटाएँ न, क्योंकि तब लोगों के बीच उनकी फजीहत होगी और वह खुद ही अपने पद से इस्तीफा दे देंगे । विनय मित्तल से एक कोरा कागज लेकर और उस पर अपने हस्ताक्षर करके पंकज बिजल्वान ने वह कागज विनय मित्तल को यह कहते हुए दे दिया कि कोई सम्मानपूर्ण सा तर्क देकर वह इस्तीफे की इबारत इस पर लिख लें । कुछ अपनी प्रोफेशनल व्यस्तता और कुछ अपने सीधे स्वभाव के कारण विनय मित्तल ने इस्तीफे की इबारत लिखने पर उस समय जोर नहीं दिया और सीधे/सरल स्वभाव में पंकज बिजल्वान द्वारा हस्ताक्षरित कागज अपने पास रख लिया ।
पंकज बिजल्वान ने लेकिन दो-तीन दिन बाद ही रंग बदल लिया । उन्होंने विनय मित्तल पर आरोप लगाया कि विनय मित्तल ने उन्हें दबाव में लेकर एक कोरे कागज पर उनसे हस्ताक्षर करवा लिए हैं और उस कागज का पता नहीं वह क्या दुरुपयोग करेंगे । समझा जाता है और लोगों के बीच चर्चा है कि पंकज बिजल्वान के इस रंग बदलने में मुकेश गोयल का हाथ है । लोगों को लगता है कि पंकज बिजल्वान ने कोरे कागज पर हस्ताक्षर करके देने की बात मुकेश गोयल को बताई होगी, और उस बात में मुकेश गोयल को विनय मित्तल को दबोच लेने का मौका नजर आया । लोगों के बीच चर्चा है कि मुकेश गोयल की सलाहानुसार ही पंकज बिजल्वान पुलिस में गए । मुकेश गोयल को लगता था कि मामला पुलिस में जायेगा, तो विनय मित्तल दौड़े हुए उनकी शरण में आ जायेंगे । पुलिस ने मामले को सुना/जाना तो यह समझ लिया कि मामला किसी आपराधिक श्रेणी में नहीं आता है, इसलिए रिपोर्ट दर्ज किए बिना उसने दोनों पक्षों को सलाह दी कि आप लोग आपस में बातचीत करके मामले को हल कर लो । पुलिस भी जानती/समझती है कि सामाजिक/राजनीतिक संस्थाओं में होने वाली उठापटक में इस्तीफे लेने/देने और फिर उन्हें वापस लेने के 'नाटक' होते रहते हैं और यह किसी आपराधिक श्रेणी में नहीं आते हैं । आपस में बातचीत करके मामले को हल करने की बात आई, तो विनय मित्तल ने साफ कहा कि पंकज बिजल्वान जो कागज उन्हें दे गए थे, वह वैसा का वैसा ही उनके पास रखा है लेकिन उक्त कागज वापस मिलने की पावती पंकज बिजल्वान को लिख कर उन्हें देनी होगी । कागज वापस करने की प्रक्रिया को लेकर काफी नाटकबाजी तो हुई, लेकिन अंततः देहरादून के कुछेक प्रमुख लायन लीडर्स के बीच कागज वापस करने की प्रक्रिया को अंजाम देना तय हुआ । देहरादून के कुछेक प्रमुख लायन लीडर्स के बीच हो रही बातचीत के दौरान मामले में मुकेश गोयल की संलग्नता खुलकर सामने आई, क्योंकि मुकेश गोयल बार बार फोन करके पंकज बिजल्वान को निर्देश दे रहे थे, जिस कारण पंकज बिजल्वान बार बार अपनी ही बात से पलट रहे थे । एक मौके पर पंकज बिजल्वान ने यह कहते हुए उस मीटिंग को निरर्थक करने का प्रयास किया कि उक्त कागज वापस करने/लेने की प्रक्रिया हापुड़ में मुकेश गोयल के घर पर होगी । इस पर विनय मित्तल उखड़ गए और उन्होंने साफ कह दिया कि उक्त कागज वापस होने की प्रक्रिया यहीं होगी और अभी होगी, अभी यह यदि नहीं हुई तो वह गाजियाबाद लौट रहे हैं और वह वहाँ एफआईआर दर्ज करवायेंगे और फिर मामला पुलिस और अदालत में ही तय होगा । विनय मित्तल के यह तेवर देख कर पंकज बिजल्वान सकपका गए और फिर बड़े आराम से वहीं उक्त कागज के वापस होने की प्रक्रिया पूरी हुई और एक नाटकीय घटनाचक्र का पटापेक्ष हुआ ।
पंकज बिजल्वान को जोन चेयरमैन के पद से हटाने की तैयारी विनय मित्तल की थी, और विनय मित्तल ने उन्हें उक्त पद से हटा ही दिया है । इस्तीफा देकर पद छोड़ने की पेशकश पंकज बिजल्वान ने ही की थी, और अपनी ही पेशकश की उन्होंने भ्रूण हत्या कर दी । मुकेश गोयल ने पंकज बिजल्वान का इस्तेमाल करके विनय मित्तल को काबू करने की कोशिश की थी, लेकिन विनय मित्तल और सुनील जैन ने उनकी कोशिश को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया । इस किस्से के सामने आने के बाद डिस्ट्रिक्ट में हर कोई पंकज बिजल्वान और मुकेश गोयल को कोस रहा है कि पुलिस में झूठी शिकायत का भय दिखा कर यह लोग अब अपनी अपनी राजनीति के स्वार्थ पूरे करेंगे क्या ? इस किस्से से कुछेक लोगों की विनय मित्तल को वह अभिमन्यु बताने की बात भी सच साबित हो गई है जिसे चक्रव्यूह में घुसना भी आता है, और उससे निकलना भी । इस मामले में विनय मित्तल ने जिस तरह से मुकेश गोयल की रणनीति को फेल किया है, सुनील जैन को विनय मित्तल का संकट मोचक बनकर हीरो बनने का मौका मिला है, और मुकेश गोयल को इस मामले में जिस तरह से हर किसी की आलोचना सुनने को मिल रही है - उसमें डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति को बड़ी करवट लेते देखा/पहचाना जा रहा है ।

Sunday, November 25, 2018

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 में डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर पद के मामले में रवि चौधरी से पीछा छुड़ाने की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी संजीव राय मेहरा की कोशिशों से बिगड़ी स्थिति को सँभालने के लिए राजेश बत्रा के प्रयास सचमुच सफल हो सकेंगे क्या ?

नई दिल्ली । निवर्त्तमान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रवि चौधरी ने वर्ष 2020-21 में डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर बनने के लिए उस वर्ष डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का पदभार संभालने वाले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी संजीव राय मेहरा को घेरना और उन पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है । उल्लेखनीय है कि संजीव राय मेहरा के गवर्नर-वर्ष के डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर पद को लेकर रवि चौधरी पहले तो आश्वस्त थे, लेकिन इस वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनाव में अशोक कंतूर की हुई हार के चलते बदले हालात में रवि चौधरी को संजीव राय मेहरा के तेवर बदले बदले से नजर आ रहे हैं । दरअसल अशोक कंतूर की हार के लिए, खुद अशोक कंतूर के नजदीकी व समर्थक ही रवि चौधरी की हरकतों तथा उन हरकतों के चलते डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच घर कर बैठी उनकी बदनामी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं । पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनय अग्रवाल का दावा था कि अशोक कंतूर को अस्सी प्रतिशत वोट मिलेंगे; पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनोद बंसल बताते थे कि उम्मीदवार के रूप में अशोक कंतूर जिस ऊँचाई पर हैं, वहाँ अनूप मित्तल उन्हें छू भी नहीं सकते हैं; रवि चौधरी ही नहीं, मौजूदा डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनय भाटिया और उनकी कैबिनेट के पप्पूजीत सिंह सरना व अजीत जालान जैसे प्रमुख लोग भी अशोक कंतूर को वोट दिलवाने के लिए प्रेसीडेंट्स को फुसलाने, पटाने, डराने, धमकाने के काम में लगे थे, एक क्लब के प्रेसीडेंट का तो 'अपहरण' करके उसका वोट डलवाने का प्रयास किया गया । बड़े लोगों के खुले समर्थन और बड़ी घेराबंदी के बावजूद आशोक कंतूर के खाते में लेकिन जब पराजय दर्ज हुई, तब हर किसी ने रवि चौधरी को कोसा । अशोक कंतूर ने कई लोगों के सामने रोना रोया कि उन्होंने तो रवि चौधरी की 'छाया' से बचते हुए 'दिखने' की खूब कोशिश की, लेकिन पता नहीं कैसे वह उस छाया के प्रकोप से बच नहीं सके । इस तरह की बातों से संजीव राय मेहरा ने समझ लिया कि उन्होंने यदि रवि चौधरी को डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर बनाया, तो रवि चौधरी की हरकतें व बदनामी उनका गवर्नर-वर्ष खराब कर देंगी और गवर्नर के रूप में उनका नाम खराब करेंगी ।
रवि चौधरी ने भी महसूस किया कि अशोक कंतूर की चुनावी हार के बाद बदले माहौल में संजीव राय मेहरा का उनके प्रति रवैया बदला बदला सा है । रवि चौधरी के नजदीकियों का ही बताना/कहना है कि संजीव राय मेहरा के बदले बदले से रवैये में रवि चौधरी को डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर का पद 'छिनता' हुआ दिख रहा है । डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर का पद 'बचाने' के लिए रवि चौधरी ने संजीव राय मेहरा की घेराबंदी शुरू कर दी है; तथा कुछेक लोगों से संजीव राय मेहरा पर दबाव बनवाना शुरू किया है कि उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि रवि चौधरी ने उन्हें गवर्नर नॉमिनी चुनवाने के लिए किस किस तरह की हरकतें व बेईमानियाँ कीं है, और इसलिए उन्हें रवि चौधरी को ही डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर बनाना चाहिए । इस मामले में, रवि चौधरी के क्लब में चल रहे एक 'खेल' से भी थोड़ा ट्विस्ट आया है - रवि चौधरी जिसके सहारे डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर पद कब्जाने की तथा संजीव राय मेहरा जिसके पीछे 'छिपने' की कोशिश करते बताए/सुने जा रहे हैं । असल में, अशोक कंतूर के संगी/साथियों ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है कि अशोक कंतूर की उम्मीदवारी को यदि रवि चौधरी की 'छाया' से 'सचमुच में' दूर नहीं किया गया, तो अगले रोटरी वर्ष में भी उनका चुनाव जीतना मुश्किल ही होगा । रवि चौधरी और अशोक कंतूर चूँकि एक ही क्लब के सदस्य हैं, इसलिए रवि चौधरी की छाया से अशोक कंतूर की अगले रोटरी वर्ष में प्रस्तुत होने वाली उम्मीदवारी को बचाने के लिए एक बड़ा फार्मूला सोचा गया है । क्लब के सदस्यों के अनुसार, अशोक कंतूर के रास्ते का काँटा दूर करने के लिए फार्मूला तैयार किया गया है कि रवि चौधरी मौजूदा क्लब की सदस्यता से इस्तीफा दे कर कोई दूसरा क्लब ज्वाइन करेंगे - और इस तरह से लोगों को 'दिखाया' जायेगा कि अशोक कंतूर, रवि चौधरी के 'आदमी' नहीं हैं और उनकी उम्मीदवारी से रवि चौधरी का कोई वास्ता नहीं है । क्लब के सदस्यों का कहना है कि रवि चौधरी इस फार्मूले पर अमल करने के लिए तैयार तो हो गए हैं, लेकिन इसके लिए उन्होंने शर्त रख दी है कि संजीव राय मेहरा से उन्हें डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर घोषित करवाया जाए । संजीव राय मेहरा का मानना और कहना है कि अपने क्लब से इस्तीफा देने की स्थिति में डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच रवि चौधरी की बदनामी का दाग और गहरा होगा - और तब रवि चौधरी को डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर बनाना उनके लिए तथा उनके गवर्नर-वर्ष के लिए और भी फजीहत करवाने वाला फैसला होगा । 
अशोक कंतूर की उम्मीदवारी को फायदा पहुँचाने के उद्देश्य से तैयार किए गए फार्मूले ने जिस तरह से रवि चौधरी को डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर के पद से और दूर करने के हालात बनाए हैं, उससे रवि चौधरी और भड़क गए हैं । रवि चौधरी की भड़भड़ाहट को नियंत्रित करने के लिए वरिष्ठ पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राजेश बत्रा को सामने आना पड़ा है । उल्लेखनीय है कि रवि चौधरी, संजीव राय मेहरा व अशोक कंतूर का कनेक्ट राजेश बत्रा से है और समझा जाता है कि राजेश बत्रा पर्दे के पीछे रहते हुए इनके हितों को बनाए रखने का प्रयास करते रहे हैं । तीनों के बीच लेकिन अब मामला जिस तरह से उलझ गया है, उसे सुलझाने के लिए राजेश बत्रा को अब पर्दे के पीछे से पर्दे के सामने आने के लिए मजबूर होना पड़ा है । संजीव राय मेहरा के नजदीकियों का कहना/बताना है कि राजेश बत्रा ने संजीव राय मेहरा को समझाने का प्रयास किया है कि अशोक कंतूर के फायदे के लिए उन्हें रवि चौधरी को डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर बना लेना चाहिए । संजीव राय मेहरा का कहना लेकिन यह है कि रवि चौधरी अपनी हरकतें तो छोड़ेंगे नहीं; अगले वर्ष, आने वाले वर्ष के डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर के रूप में उन्हें चुनावी सक्रियता दिखाने का और मौका मिल जायेगा और तब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर इलेक्ट के रूप में उनके लिए फजीहत की स्थिति बनेगी और अशोक कंतूर को भी कोई फायदा नहीं होगा । राजेश बत्रा को और भी कई लोगों ने सुझाव दिया है कि यदि संजीव राय मेहरा के गवर्नर-वर्ष को बदनामी व फजीहत से बचाना है तथा अशोक कंतूर को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाना है - तो रवि चौधरी को इनसे दूर रखना होगा । हालाँकि यह सुझाव देने वाले भी जानते हैं, और राजेश बत्रा भी समझते हैं कि रवि चौधरी को संजीव राय मेहरा व अशोक कंतूर से दूर रखना मुश्किल काम है । मजे की बात यह है कि रवि चौधरी के साथ के लोग ही कह रहे हैं कि रवि चौधरी को समझना चाहिए कि लोगों के बीच उनकी हरकतों को लेकर बेहद नाराजगी और बदनामी है, इसलिए उनकी भलाई इसमें हैं कि वह अपने व्यवहार को सुधारें और कुछ समय सीन से दूर रहे; लेकिन किसी को भी नहीं लगता है कि रवि चौधरी इस सच्चाई को स्वीकार करेंगे - फिलहाल तो वह किसी भी तरह से संजीव राय मेहरा के गवर्नर-वर्ष में डिस्ट्रिक्ट ट्रेनर बनने के जुगाड़ में लगे हैं । संजीव राय मेहरा भी लेकिन जिस तरह से उनसे बचने की कोशिश कर रहे हैं, उससे मामला खासा गंभीर और दिलचस्प हो गया है । 

Friday, November 23, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में वापसी की कोशिश कर रहे नितिन कँवर, राजिंदर अरोड़ा, सुमित गर्ग काउंसिल सदस्य के रूप में किए गए अपने ही कार्य/व्यवहार के कारण लोगों की नाराजगी का शिकार बन रहे हैं, और फरीदाबाद में प्रदीप कौशिक मुसीबत में फँसे हैं

नई दिल्ली । रीजनल काउंसिल सदस्य और पदाधिकारी के रूप में की गईं नितिन कँवर, राजिंदर अरोड़ा और सुमित गर्ग की कार्रवाईयों ने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में अपनी अपनी सीट बचाने की खुद उनके सामने कड़ी चुनौती प्रस्तुत की हुई है । रीजनल काउंसिल के चुनावी परिदृश्य पर नजर रखने वाले कई लोगों का तो मानना और कहना है ही, साथ ही इनके नजदीकियों व समर्थकों तक को भी आशंका है कि कहीं इनका हाल वैसा ही न हो, जैसा पिछली बार के चुनाव में हरित अग्रवाल का हुआ था । उल्लेखनीय है कि हरित अग्रवाल रीजनल काउंसिल में होने के बावजूद पिछली बार चुनाव हार गए थे । पिछली बार हरित अग्रवाल के साथ जो हुआ, वह इस बात का सुबूत है कि रीजनल काउंसिल का सदस्य होना चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है । काउंसिल सदस्य के सामने बड़ी समस्या यह होती है कि काउंसिल सदस्य के रूप में लोग उसके कार्य/व्यवहार को भी देखते/परखते हैं । कार्य/व्यवहार के मामले में नितिन कँवर और राजिंदर अरोड़ा का काउंसिल में रिकॉर्ड बहुत ही खराब रहा है । नितिन कँवर के बदतमीजीपूर्ण व्यवहार ने काउंसिल की कई मीटिंग्स में बहुत ही शर्मशार करने वाली स्थितियाँ पैदा कीं । उनके गालीगलौच भरे उपद्रवी व्यवहार को लेकर काउंसिल के ही दूसरे सदस्यों ने कई बार इंस्टीट्यूट प्रशासन तक से शिकायत की और कुछेक बार तो पुलिस तक बुलाने के हालात बने । नितिन कँवर के बदतमीजीपूर्ण व्यवहार की कुख्याति आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स तक है, और अधिकतर लोग काउंसिल में उनकी उपस्थिति को एक कलंक की तरह देखते/समझते हैं । इस देखने/समझने के कारण नितिन कँवर को अपने चुनाव अभियान में कई मौकों पर अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है और अपमानित होना पड़ रहा है । उनके नजदीकियों के बीच ही चर्चा है कि ऐसा कई जगह हुआ कि नितिन कँवर जिनसे मिलने गए, उन्होंने व्यस्तता का बहाना बना कर उनसे मिलने से इंकार कर दिया । नितिन कँवर ने जिन लोगों से सिफारिशें करवाईं, उनमें से कुछेक ने बताया कि उन्हें सुनने को मिला कि किस बदतमीज व्यक्ति की सिफारिश कर रहे हो । ऐसे चुनावी माहौल में नितिन कँवर के लिए नॉर्दन इंडिया रीजनल काउंसिल की अपनी सीट बचाना एक बड़ी चुनौती बन गया है ।
राजिंदर अरोड़ा का बदतमीजी के मामले में ग्राफ नितिन कँवर जितना ऊँचा तो नहीं है, लेकिन कई मौकों पर उन्हें नितिन कँवर के सहयोगी के रूप में जिस तरह से देखा गया है - उसके चलते कई लोगों का मानना/कहना है कि नितिन कँवर के साथ-साथ राजिंदर अरोड़ा ने भी काउंसिल, इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन की पहचान व प्रतिष्ठा पर कालिख पोतने का काम किया है, और इनका काउंसिल में होना काउंसिल, इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है । राजिंदर अरोड़ा के लिए इसके अलावा मुसीबत की बात जगजीत सिंह की उम्मीदवारी को मिलते दिख रहे गुरद्वारा प्रबंधक कमेटियों से जुड़े लोगों के समर्थन की भी है । पिछली बार राजिंदर अरोड़ा की जीत में उक्त लोगों के समर्थन की बड़ी भूमिका थी । राजिंदर अरोड़ा के नजदीकियों का ही बताना/कहना है कि दिल्ली के साथ-साथ पंजाब तक के शहरों में जिस तरह से गुरद्वारा प्रबंधक कमेटियों से जुड़े लोग जगजीत सिंह की उम्मीदवारी का समर्थन कर रहे हैं, उसके कारण राजिंदर अरोड़ा की सीट खतरे में नजर आ रही है । सुमित गर्ग तीनों वर्ष नितिन कँवर व राजिंदर अरोड़ा के 'सहयोगी' बन कर तो रहे, लेकिन खुद उन पर बदतमीजी करने के आरोप नहीं लगे । उनकी सीट एक दूसरे कारण से मुश्किल में दिख रही है । पिछली बार सुमित गर्ग की उम्मीदवारी के एक बड़े समर्थक रीजनल काउंसिल के एक पूर्व चेयरमैन दुर्गादास अग्रवाल थे, किंतु जिन्होंने इस बार अपने बेटे शशांक अग्रवाल को उम्मीदवार बना दिया है । सुमित गर्ग के लिए समस्या की बात यह है कि काउंसिल में करीब ढाई वर्ष की अभी तक की अवधि में वह अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं बना सके हैं, और उन्हें राकेश मक्कड़-नितिन कँवर-राजिंदर अरोड़ा की बदनाम तिकड़ी के 'पिट्ठू' के रूप में ही देखा/पहचाना जाता है । इस कारण से वह अपने समर्थकों व शुभचिंतकों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं कर सके हैं; और ऐसे में दुर्गादास अग्रवाल की तरफ से मिलने वाला झटका उनके लिए कुछ ज्यादा जोर का झटका ही है । यदि बात सिर्फ इतनी ही होती कि पिछली बार की तरह दुर्गादास अग्रवाल का समर्थन उन्हें इस बार न मिल रहा होता, तो बात ज्यादा गंभीर नहीं होती - लेकिन पिछली बार उनके पक्के वाले समर्थक रहे दुर्गादास अग्रवाल इस बार अपने बेटे को उम्मीदवार के रूप में ले आये हैं - यह सुमित गर्ग के लिए खतरे की ऊँची आवाज वाली घंटी बजने जैसी बात है ।
मौजूदा काउंसिल के सदस्य दीपक गर्ग की बदनामी उनके प्रोफेशनल पार्टनर प्रदीप कौशिक की उम्मीदवारी के लिए संकट बनी हुई है । दीपक गर्ग मौजूदा काउंसिल में पहले वर्ष चेयरमैन बने थे, और छह महीने में इस्तीफा दे चुके थे ।दीपक गर्ग इस मायने में खुशकिस्मत रहे कि जब तक राकेश मक्कड़-नितिन कँवर-राजिंदर अरोड़ा की तिकड़ी की कारस्तानियाँ जगजाहिर होतीं और लोगों के बीच बदनामी कमातीं, तब तक दीपक गर्ग चेयरमैनी करके और इस्तीफा देकर सत्ता की सीधी राजनीति से अलग हो चुके थे, जिस कारण सत्ता खेमे पर लगी बदनामी की कालिख से काफी हद तक वह बचे रह सके । लेकिन चेयरमैनी से छह महीने में इस्तीफा देने की उनकी कार्रवाई ने फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को बुरी तरह निराश व नाराज किया - और उन्हें 'भगौड़े' की संज्ञा दी । फरीदाबाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की निराशा व नाराजगी का कारण यह रहा कि रीजनल काउंसिल के अभी तक के इतिहास में फरीदाबाद को पहली बार चेयरमैन का पद मिला, लेकिन दीपक गर्ग ने पता नहीं किसकी और किस राजनीति की 'गुलामी' करते हुए छह महीने में उसे छोड़ दिया - और इस तरह फरीदाबाद की इच्छाओं व उम्मीदों के साथ-साथ उसकी पहचान के साथ भी विश्वासघात किया । अपने विश्वासघात की सजा पाने से दीपक गर्ग तो बच गए हैं, लेकिन उनके प्रोफेशनल पार्टनर प्रदीप कौशिक उनके किए-धरे की सजा भुगतने के लिए शिकार बन रहे हैं । फरीदाबाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच यह चर्चा आम है कि जिस तरह से दीपक गर्ग ने फरीदाबाद की इच्छाओं व उम्मीदों के साथ-साथ उसकी पहचान के विश्वासघात किया है, वैसा ही विश्वासघात प्रदीप कौशिक नहीं करेंगे  - और इसलिए उन्हें वोट क्यों दें ? काउंसिल सदस्यों की कारस्तानियाँ और उनके छूटते समर्थन ने जिस तरह उनकी (या उनके पार्टनर की) काउंसिल में पुनर्वापसी की राह को मुश्किल बना दिया है, उसके चलते नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प हो गया है ।

Thursday, November 22, 2018

चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट के सेंट्रल काउंसिल चुनाव में गाजियाबाद के एक बैंक लोन डिफॉल्टर चार्टर्ड एकाउंटेंट संजय गुप्ता को राहत दिलवाने का भरोसा देकर अनुज गोयल ने अपना समर्थक बनाया, और मुकेश कुशवाह के लिए मुसीबत खड़ी की

गाजियाबाद । एक बैंक लोन डिफॉल्टर चार्टर्ड एकाउंटेंट संजय गुप्ता की चुनावी सक्रियता ने इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी अपनी उम्मीदवारी के लिए वोट जुटाने की मुकेश कुशवाह व अनुज गोयल की कोशिशों ने चुनावी परिदृश्य को एक मजेदार रंग दे दिया है । संजय गुप्ता पहले मुकेश कुशवाह के समर्थक के रूप में देखे/पहचाने जाते थे; लेकिन स्टेट बैंक से लिए गए लोन्स को न चुकाने के मामले में वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट व स्टेट बैंक के डायरेक्टर गिरीश आहुजा की मदद दिलवा पाने में असफल रहने के कारण वह मुकेश कुशवाह के खिलाफ हो गए हैं, और उन्होंने अनुज गोयल की उम्मीदवारी का झंडा उठा लिया है । संजय गुप्ता इससे पहले इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में किसी न किसी के समर्थक तो रहे हैं, लेकिन ज्यादा सक्रिय नहीं रहे; किंतु इस बार वह अनुज गोयल की उम्मीदवारी के पक्ष में घर घर जा कर जमकर प्रचार कर रहे हैं । उनके प्रचार में ज्यादातर मुकेश कुशवाह के प्रति जहरभरी बातें उगलना होता है, इसलिए उनकी सक्रियता ने गाजियाबाद में जोरों की तथा सेंट्रल रीजन के दूसरे हिस्सों में फुसफुसाहटभरी गर्मी पैदा की हुई है । इस मामले में गिरीश आहुजा जैसी बड़ी शख्सियत का नाम शामिल होने से बात और गंभीर भी हो गई है । संजय गुप्ता का मुकेश कुशवाह पर तो सीधा सीधा आरोप है ही कि उनके मामले में मुकेश कुशवाह को चूँकि पैसे मिलने की उम्मीद नहीं थी, इसलिए उन्होंने उनके मामले में दिलचस्पी नहीं ली; कहीं कहीं संजय गुप्ता ने इस आरोप के लपेटे में गिरीश आहुजा को भी ले लिया है । 
उल्लेखनीय है कि संजय गुप्ता ने कई वर्ष पहले ज्वैलरी का बिजनेस किया था, जिसके लिए उन्होंने स्टेट बैंक से भारी लोन लिया था । स्टेट बैंक से ही उनके नाम एक हाऊसिंग लोन भी रहा । बिजनेस उनका चला नहीं, फलस्वरूप लोन वह चुका नहीं सके । समय से लोन चुकाने की कोशिश करने की बजाये संजय गुप्ता तरह तरह के आरोप लगाते हुए बैंक पदाधिकारियों से उलझते और रहे, जिसके कारण उनका मामला गंभीर होता गया । संजय गुप्ता ने बैंक पदाधिकारियों पर जो जो आरोप लगाये, उनमें झूठ/सच चाहें जो हो; मामले में बुनियादी बात लोन चुकाने की जो थी - उसे पूरा करने में संजय गुप्ता असफल ही रहे, जिस कारण उनकी गर्दन फँसती गई । पिछले दिनों बैंक की तरफ से संजय गुप्ता को ओटीएस (वन टाइम सेटलमेंट) का ऑफर मिला । इस ऑफर को निपटाने के बावजूद संजय गुप्ता को मुसीबत से छुटकारा लेकिन नहीं मिला । बैंक ने लोन बसूलने के लिए सख्ती दिखाई और उनकी संपत्ति को 'कब्जे' में ले लिया । इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने एक बड़ी सिफारिश खोजी, जो उन्हें स्टेट बैंक में डायरेक्टर गिरीश आहुजा के रूप में नजर आई । गिरीश आहुजा तक पहुँच बनाने में संजय गुप्ता ने मुकेश कुशवाह की मदद ली । गिरीश आहुजा ने लेकिन जब संजय गुप्ता के मामले को देखा/जाना और उसे बुरी तरह उलझा हुआ पाया तो उन्होंने कुछ करने से साफ इंकार कर दिया । चर्चा है कि गिरीश आहुजा ने संजय गुप्ता को इस बात के लिए लताड़ भी लगाई कि बैंक के वरिष्ठ अधिकारियों से उलझने की बजाये उन्होंने यदि लोन चुकाने में दिलचस्पी ली होती, तो नौबत यहाँ तक न आती । गिरीश आहुजा की इस लताड़ को सुन तथा उनके रवैये को देख कर मुकेश कुशवाह ने संजय गुप्ता की मदद करने के मामले से हाथ खींच लिया । इससे संजय गुप्ता बुरी तरह भड़क गए ।
मुकेश कुशवाह के लिए कोढ़ में खाज वाली बात यह हुई कि चुनावी राजनीति के नाजुक मौके पर अनुज गोयल ने संजय गुप्ता को 'पकड़' लिया और उन्हें आश्वस्त किया कि उनके झंझट से वह उन्हें राहत दिलवायेंगे । संजय गुप्ता को अभी तक कोई राहत नहीं मिली है - और जो लोग उनके मामले से परिचित हैं, उनका कहना है कि संजय गुप्ता को वैसी कोई राहत मिल भी नहीं पायेगी जैसी राहत वह चाहते हैं - लेकिन अनुज गोयल ने कुछेक प्रभावी लोगों से उनकी बात चूँकि करवा दी है या करवा देने का भरोसा दिया है, इसलिए संजय गुप्ता फिलहाल अनुज गोयल के बड़े समर्थक बन गए हैं । वर्षों अनुज गोयल के घोर विरोधी रहे संजय गुप्ता फिलहाल अनुज गोयल के चुनाव प्रचार में जोरशोर से लगे हैं, और अपने लोन को चुकाने की चिंता करने की बजाये अनुज गोयल को वोट दिलवाने के अभियान में सक्रिय दिलचस्पी ले रहे हैं - जिसके तहत वह अनुज गोयल के साथ जा जा कर न सिर्फ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से मिल रहे हैं, बल्कि फोन से तथा वाट्स-ऐप में मुकेश कुशवाह के खिलाफ तरह तरह के आरोप लगाते हुए बातें बताने व पोस्ट्स लिखने का काम कर रहे हैं । संजय गुप्ता की तरफ से गंभीर आरोप यह सुना गया है कि मुकेश कुशवाह उनका काम करवाने के बदले में पैसे चाहते थे, और जब मुकेश कुशवाह को लगा कि उनसे उन्हें पैसे नहीं मिल पायेंगे, तो वह उनकी मदद करने से पीछे हट गए । इस तरह के आरोप के लपेटे में कहीं कहीं संजय गुप्ता ने गिरीश आहुजा को भी ले लिया है । संजय गुप्ता की इस तरह की बातें मुकेश कुशवाह की उम्मीदवारी को कितना नुकसान और अनुज गोयल की उम्मीदवारी को कितना फायदा पहुँचायेंगी, यह तो बाद में पता चलेगा - अभी लेकिन उनकी बातों ने खास तौर से गाजियाबाद में तथा आम तौर से सेंट्रल रीजन में चुनावी माहौल में गर्मी जरूर पैदा कर दी है । 

Wednesday, November 21, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत हंसराज चुग की उम्मीदवारी के समर्थन के लिए आज दोपहर करनाल में हुई मीटिंग में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के उत्साह की खबर से लग रहा है कि इंस्टीट्यूट के चुनाव में इस बार हरियाणा के छोटे शहर भी खास भूमिका निभाने जा रहे हैं

सिरसा । इंस्टीट्यूट के सेंट्रल काउंसिल चुनाव में सिरसा को - और सिरसा के बहाने हरियाणा के छोटे छोटे शहरों तक को इस बार जो राजनीतिक महत्ता मिल रही है, वह इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य के संगीन हो उठने के तथ्य का नजारा प्रस्तुत करता है, जिसमें एक एक वोट और दूसरी/तीसरी वरीयता के वोट भी 'कीमती' हो गए हैं । इंस्टीट्यूट के चुनाव में नॉर्दर्न रीजन में शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि कई उम्मीदवारों को 'क्लोज-फाइट' में देखा/पहचाना जा रहा है । नॉर्दर्न रीजन में छह लोगों को सेंट्रल काउंसिल के लिए चुना जाना है, जिनमें संजय वासुदेवा, अतुल गुप्ता व विजय गुप्ता के चुने जाने को लेकर तो सभी आश्वस्त हैं; लेकिन बाकी तीन सीटों के लिए सात/आठ उम्मीदवारों का बड़ा समूह और चार/पाँच उम्मीदवारों का छोटा समूह मुकाबले में नजर आ रहा है । इनके बीच जो आपसी होड़ है, वह तो है ही - इनकी मुश्किलें बढ़ाने का काम लेकिन तीन/चार ऐसे उम्मीदवार भी कर रहे हैं, जिनकी सफलता को लेकर तो शक है लेकिन जिन्होंने वोट जुटाने के लिए जी-जान लगा रखा है । इस कारण से जो उम्मीदवार अपने आप को क्लोज-फाइट में पा रहे हैं, उन्होंने अपने अपने तरीके से एक एक वोट के लिए तथा दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों के लिए भी अपने आप को झोंका हुआ है । यही कारण है कि इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अभी तक उपेक्षित रहे शहर भी इस बार महत्त्वपूर्ण हो उठे हैं, जिसके चलते हरियाणा के हिसार और पानीपत व सोनीपत व करनाल जैसे शहर भी उम्मीदवारों की भागदौड़ में शामिल हो गए हैं । आज दोपहर करनाल में हंसराज चुग की उम्मीदवारी के समर्थन के लिए हुई मीटिंग में स्थानीय चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का जो उत्साह सुनने को मिला, उससे लग रहा है कि इंस्टीट्यूट के चुनाव में  इस बार हरियाणा के छोटे छोटे शहर भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं ।  
सिरसा की दूरी दिल्ली से करीब तीन सौ किलोमीटर पड़ती है, और यहाँ कुल सौ वोट पड़ने की संभावना है । यानि मेहनत/खर्चा ज्यादा, और प्राप्ति कम । इस कारण सिरसा उम्मीदवारों को कभी आकर्षित नहीं कर पाया । इस बार लेकिन नजारा बदला हुआ है । नजारे को बदलने की शुरुआत चरनजोत सिंह नंदा की तरफ से हुई । सेंट्रल काउंसिल में वापसी करने की मुश्किल चुनावी लड़ाई में एक एक वोट जुटाने की कोशिशों में फँसे चरनजोत सिंह नंदा ने सिरसा में इस उम्मीद में दस्तक दी, कि यहाँ से उन्हें जो थोड़े बहुत वोट मिल जायेंगे शायद वही उनके लिए लाभदायक साबित हों । चरनजोत सिंह नंदा की बदकिस्मती लेकिन यह रही कि उनके द्वारा सिरसा में हुई मीटिंग के बाद तो सिरसा में जैसे उम्मीदवारों की दौड़ शुरू हो गई, और खुद को सेंट्रल काउंसिल में जाने योग्य समझने वाला शायद ही कोई उम्मीदवार होगा जिसने सिरसा में अपने कदम न डाले हों । राजेश शर्मा को मीटिंग करवाने के लिए यहाँ सहयोगी नहीं मिले, तो उन्होंने एक चार्टर्ड एकाउंटेंट के ऑफिस में ही कुछेक लोगों को जुटा कर उनकी पार्टी कर दी । सिरसा में उम्मीदवारों की भागदौड़ का शोर मचा तो अतुल गुप्ता व विजय गुप्ता ने भी सिरसा को अपने अपने तरीके से खटखटाया । हंसराज चुग को सिरसा में अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन दिखाने/जुटाने के अभियान में जो कामयाबी मिली, उससे उत्साहित होकर उन्होंने हरियाणा के दूसरे शहरों से अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के लिए नए सिरे से रणनीति बनाई और उस पर अमल किया ।
सिरसा में कई उम्मीदवारों ने अपने अपने तरीकों से सक्रियता तो दिखाई, लेकिन अधिकतर उम्मीदवारों की सक्रियता रस्मअदायगी की तरह ही नजर आई ।  इसका नतीजा यह रहा कि किसी भी उम्मीदवार को अपनी उम्मीदवारी के लिए सिरसा में कोई फायदा होता हुआ नजर नहीं आया, और फिर उन्हें सिरसा व हरियाणा में समय लगाना समय बर्बाद करने जैसा लगा । फरीदाबाद व गुड़गाँव को छोड़ कर दिल्ली व पंजाब के बीच पड़ने वाले हरियाणा के शहर भौगोलिक कारणों से बिखरे हुए से हैं, और यहाँ कोई ज्यादा वोट भी नहीं हैं - इस क्षेत्र में कुल करीब पाँच हजार वोट हैं, जिनमें से करीब तीन हजार के पड़ने की उम्मीद की जा रही है । इसलिए अधिकतर उम्मीदवारों की हरियाणा के शहरों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं बनी । संजीव सिंघल ने दो एक शहरों में पार्टी की भी, लेकिन उनके यहाँ लोगों की उपस्थिति इतनी कम रही कि फिर उनका - और उनका हश्र देख कर दूसरों का हरियाणा में कुछ करने के लिए हौंसला ही नहीं बचा । हरियाणा में अधिकतर उम्मीदवारों की 'आए, और चले गए' जैसी सक्रियता रहने के कारण राजनीतिक शून्य जैसी स्थिति बनी, जिसमें हंसराज चुग ने अपने लिए मौका देखा/पाया । यह बात तो हंसराज चुग और उनके साथी/समर्थक जानते होंगे कि 'टाइमिंग' के लिहाज से हरियाणा में उनकी सक्रियता उचित समय पर संयोगवश हुई दिखी है या उनकी सोची/विचारी योजना के अनुरूप हुई है; दरअसल संजीव सिंघल व दूसरे उम्मीदवारों ने हरियाणा में जब अपनी सक्रियता दिखाई और मीटिंग्स कीं, तब चुनावी माहौल में गर्मी नहीं आई थी और चार्टर्ड एकाउंटेंट्स कामकाज में व्यस्त थे, जिसके चलते उन्हें अच्छे से रिस्पॉन्स नहीं मिला - जबकि हंसराज चुग ने अभी हाल ही के दिनों में सिरसा, सोनीपत, पानीपत व करनाल में जब अपने आयोजन किए हैं, तब तक माहौल में चुनावी गर्मी भी आ चुकी है और आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स भी चुनावी रंग में रंगना शुरू हो गए हैं । इस कारण उनके आयोजनों को यहाँ अच्छा रिस्पॉन्स मिला है । हंसराज चुग के लिए होने वाले आयोजनों को मिले अच्छे रिस्पॉन्स ने दूसरे उम्मीदवारों के बीच हलचल तो पैदा की है, लेकिन वह अभी असमंजस में हैं कि हरियाणा के शहरों में एक बार अपना समय बर्बाद कर चुकने के बाद दोबारा यहाँ समय लगाएँ - या छोड़ें ?

Tuesday, November 20, 2018

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3080 में टीके रूबी के अगले तीन वर्षों के लिए डीआरएफसी बनने के डर में फँसे राजा साबू खेमे के नेताओं को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अजय मदान की चुनावी तैयारियों का भी कोई विकल्प लेकिन नहीं मिल पा रहा है

कुरुक्षेत्र । अजय मदान ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से अपनी सक्रियता बढ़ा कर डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के परिदृश्य में हलचल मचाने के साथ-साथ राजा साबू खेमे के नेताओं की बेचैनी भी बढ़ा दी है । राजा साबू और उनके खेमे के नेताओं को दरअसल यह डर सता रहा है कि इस वर्ष भी यदि उनका 'आदमी' गवर्नर नॉमिनी नहीं चुना गया, तो निवर्त्तमान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर टीके रूबी डीआरएफसी (डिस्ट्रिक्ट रोटरी फाउंडेशन चेयरमैन) बन जायेंगे । टीके रूबी को डीआरएफसी बनने से रोकने के लिए राजा साबू और उनके खेमे के नेताओं को इस वर्ष 'अपना' डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाना जरूरी लग रहा है; लेकिन उनके बीच अभी तक इस वर्ष के अपने उम्मीदवार को लेकर भारी असमंजस बना हुआ है । डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच हालाँकि कपिल गुप्ता को उनके उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाता है; लेकिन राजा साबू खेमे के नेता कपिल गुप्ता की उम्मीदवारी को लेकर आश्वस्त नहीं हैं । इसके लिए खुद कपिल गुप्ता ही जिम्मेदार हैं । दरअसल कपिल गुप्ता अपनी उम्मीदवारी को लेकर कभी एक कदम आगे बढ़ते हुए दिखते हैं, तो उसके तुरंत बाद ही वह दो कदम पीछे हटते नजर आते हैं । उनके क्लब के लोगों तथा उनके नजदीकियों का कहना/बताना है कि कपिल गुप्ता अपनी उम्मीदवारी को लेकर काफी कन्फ्यूज लगते हैं; कभी उन्हें लगता है कि यह वर्ष उनकी उम्मीदवारी के लिए बहुत ही अनुकूल है, तो कभी उन्हें महसूस होता है कि इस वर्ष उनकी उम्मीदवारी की दाल गलना मुश्किल ही है । कपिल गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार, कपिल गुप्ता हारने के लिए उम्मीदवार नहीं बनना चाहते हैं । हालाँकि हारने के लिए तो कोई भी उम्मीदवार नहीं बनता है; जो भी उम्मीदवार बनता है - 'कुछ' उसके पास होता है, और बाकी 'कुछ' के लिए उसे विश्वास होता है कि अपनी मेहनत से वह उसे पा लेगा । कपिल गुप्ता के नजदीकियों के अनुसार, उम्मीदवार बनने के लिए कपिल गुप्ता के पास कुछ तो है, और वह 'कुछ' अच्छा खासा है - लेकिन बाकी 'कुछ' पाने के लिए जो विश्वास चाहिए होता है, वह उनके पास नहीं है; इसीलिए वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अपनी उम्मीदवारी को लेकर जितना दूर आगे बढ़ते हैं, उससे दुगना दूर पीछे हट जाते हैं ।
मजे की बात यह है कि यही समस्या बहुत हद तक अजय मदान के साथ भी थी । शुरू में अपनी उम्मीदवारी को लेकर उन्होंने भी बहुत नाटक किए थे । कभी बच्चों/परिवार की जिम्मेदारी, तो कभी कामकाज की व्यस्तता का वास्ता देकर वह उम्मीदवार बनने से बचने की कोशिश करते सुने/देखे जा रहे थे । कपिल गुप्ता की तुलना में अजय मदान लेकिन भाग्यशाली इसलिए रहे, क्योंकि उन्हें अपने नजदीकियों व समर्थकों से सकारात्मक प्रेरणा व सहयोग/समर्थन का आश्वासन मिलता रहा - इसके कारण अजय मदान इंकार करते करते अंततः उम्मीदवार बनने के लिए राजी हो गए । कपिल गुप्ता के साथ बदकिस्मती की बात यह रही कि नजदीकियों व समर्थकों के नाम पर उन्हें जो लोग मिले, वह उनकी मदद करने की बजाये उनसे फायदा उठाने की कोशिश करने की तिकड़म में ज्यादा दिखे । इस वजह से कपिल गुप्ता अपनी उम्मीदवारी को लेकर अपना मन ही स्थिर और निश्चित नहीं कर सके हैं, जिसका नतीजा यह देखने में आ रहा है कि अपनी उम्मीदवारी को लेकर कभी तो वह बहुत उत्साहित नजर आते हैं, तो कभी ऐसा लगता है कि जैसे उन्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की उम्मीदवारी में कोई दिलचस्पी ही नहीं है । उल्लेखनीय है कि राजा साबू खेमे की तरफ से सुरेश सबलोक और पूनम सिंह की भी उम्मीदवारी की चर्चा जब तब सुनाई दे जाती है; लेकिन लगता है कि राजा साबू खेमे के नेताओं को इन दोनों पर भरोसा नहीं है - उन्हें लगता है कि अजय मदान की उम्मीदवारी को टक्कर देने की सामर्थ्य कपिल गुप्ता में ही है । विडंबना की बात यही है कि कपिल गुप्ता उम्मीदवार बनने को तैयार हैं, और राजा साबू खेमे के नेता उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करने के लिए राजी हैं -  लेकिन समन्वय तथा आपसी विश्वास की कमी के चलते बात आगे नहीं बढ़ पा रही है । 
अजय मदान ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए अपनी उम्मीदवारी को और मजबूती देने के लिए तैयारी की है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर प्रवीन गोयल ने हालाँकि अभी तक चुनावी प्रक्रिया शुरू नहीं की है, और अभी तक डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए नामांकन भी नहीं माँगे हैं - इसके बावजूद अजय मदान अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से एक बार डिस्ट्रिक्ट के सभी क्लब्स का चक्कर काट चुके हैं, और अभी हाल ही में वह दूसरी बार लोगों से मिलने-जुलने के अभियान पर निकले हैं । अपने इस अभियान में पिछले वर्ष डिस्ट्रिक्ट कैबिनेट सेक्रेटरी होना अजय मदान के खूब काम आ रहा है, और उनके अभियान को आसान बना रहा है । पिछले रोटरी वर्ष में डिस्ट्रिक्ट में अच्छी-खासी सक्रियता रही थी, जिस कारण डिस्ट्रिक्ट कैबिनेट सेक्रेटरी होने के नाते अजय मदान को भी लोगों के बीच खूब आना/जाना पड़ा था और डिस्ट्रिक्ट के आम व खास लोगों के साथ उनके नजदीकी संबंध बने थे । पिछले रोटरी वर्ष में डिस्ट्रिक्ट के आम व खास लोगों के साथ बने नजदीकी संबंध इस वर्ष डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की उम्मीदवारी के उनके अभियान को आसान तथा प्रभावी बनाने में काम आ रहे हैं । सबसे बड़ी बात यह देखने में आ रही है कि अजय मदान उम्मीदवार के रूप में मिल सकने वाली चुनौतियों को खासी गंभीरता से ले रहे हैं, और अपनी तरफ से कहीं कोई कमी नहीं रहने दे रहे हैं । अजय मदान और उनके नजदीकी व समर्थक समझ रहे हैं कि राजा साबू खेमे के नेता इस वर्ष होने वाले डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव की महत्ता को ध्यान में रखते हुए अपने उम्मीदवार को चुनाव जितवाने के लिए कुछ भी करेंगे, इसलिए उनकी तरफ से होने वाली छोटी सी चूक और/या लापरवाही का राजा साबू खेमे के नेता फायदा उठाने का प्रयास करेंगे । टीके रूबी के अगले तीन वर्षों के लिए डीआरएफसी बनने का डर राजा साबू खेमे के नेताओं के बीच इस कदर बैठा हुआ है, कि इस वर्ष अपने 'आदमी' को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाने के लिए वह किसी भी हद तक चले जाने को तैयार हो जायेंगे । हालाँकि उनके बीच फैले/पसरे असमंजस को देखते हुए लग यही रहा है कि अजय मदान को 'रोकने' के लिए राजा साबू खेमे के नेताओं के पास ज्यादा अवसर या विकल्प हैं नहीं । उम्मीदवार के रूप में अजय मदान की सक्रियता चुनावी परिदृश्य को एकतरफा बनाये दे रही है । 

Monday, November 19, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करते समय जयपुर के चारों उम्मीदवारों में सबसे पीछे देखी जा रही रोहित अग्रवाल की उम्मीदवारी में आई ऊँची उछाल ने चुनावी मुकाबले को टक्कर का बनाया

जयपुर । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत रोहित अग्रवाल की उम्मीदवारी ने जिस तेजी और अप्रत्याशित तरीके से चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच अपनी पैठ बनाई है, उसके कारण जयपुर/राजस्थान में सेंट्रल काउंसिल चुनाव का पूरा नजारा बदलता हुआ नजर आ रहा है और चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प हो उठा है । इस बदलते नजारे का ही परिणाम है कि सेंट्रल काउंसिल के लिए रोहित अग्रवाल की उम्मीदवारी के सामने आने पर जो लोग उनकी उम्मीदवारी को जरा भी गंभीरता से नहीं ले रहे थे, वही लोग अब रोहित अग्रवाल को न सिर्फ मुकाबले में देख रहे हैं - बल्कि कई कई मामलों में वह उन्हें जयपुर के बाकी तीनों उम्मीदवारों से बेहतर स्थिति में भी पा रहे हैं । मजे की बात यह देखने में आ रही है कि रोहित अग्रवाल को युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच तो अच्छा समर्थन मिल ही रहा है, वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स भी उनकी उम्मीदवारी के प्रति दिलचस्पी दिखा रहे हैं और उनमें संभावनाएँ देख रहे हैं । सक्रियता के लिहाज से जयपुर/राजस्थान के चारों उम्मीदवारों में चूँकि रोहित अग्रवाल का ही पलड़ा भारी देखा/पहचाना जा रहा है, इसलिए भी उनकी उम्मीदवारी लोगों के बीच महत्त्वपूर्ण हो उठी है । जयपुर ही नहीं, राजस्थान के दूसरे शहरों के लोगों का भी मानना और कहना है कि जयपुर/राजस्थान के चारों उम्मीदवारों में एक अकेले रोहित अग्रवाल ही चुनाव को चुनाव की तरह गंभीरता से 'लड़ते' दिख रहे हैं; एक अकेले वही हैं जिनके पास ऐसे समर्थकों/शुभचिंतकों की टीम है जो वास्तव में चुनावी मैदान में सक्रिय है - और इसी का उन्हें फायदा मिलता दिख रहा है । चुनावी राजनीति की बारीकियों को समझने वाले लोगों का कहना हालाँकि यह भी है कि अपनी उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच बढ़ते दिख रहे उत्साह को वोट में बदलने की चुनौती रोहित अग्रवाल के सामने अभी बाकी है ।
जयपुर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में शामिल और सक्रिय रहे अनुभवी लोगों का मानना और बताना है कि ऑरा (आभामंडल) के लिहाज से रोहित अग्रवाल बाकी तीनों उम्मीदवारों से कमजोर पड़ते हैं; उनकी सबसे बड़ी समस्या उनका युवा होना है । युवा होने के कारण उनकी उम्मीदवारी को लोग आसानी से तवज्जो देते हुए नहीं दिखते हैं । रोहित अग्रवाल की यही कमजोरी लेकिन उनके लिए वरदान बनती नजर आ रही है । इसमें काफी योगदान हालाँकि परिस्थितियों का भी है । परिस्थितियों ने दो तरह से रोहित अग्रवाल की 'मदद' की है । राजस्थान विधानसभा चुनाव में तमाम वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी के बावजूद जिस तरह सचिन पायलट का पलड़ा भारी नजर आ रहा है, उसके चलते चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच भी यह भावना जोर मार रही है कि एक युवा नेता को यदि प्रदेश की बागडोर सौंपी जा सकती है, तो इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल की एक सीट क्यों नहीं दी जा सकती है ? इसके अलावा, सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले बाकी तीन उम्मीदवार 'बड़े' तो हैं, लेकिन वह उस कहावत को चरितार्थ करते हैं जिसमें कहा गया है - 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खुजूर ...।इसका फायदा रोहित अग्रवाल को मिलता बताया जा रहा है । उल्लेखनीय है कि बाकी तीन उम्मीदवारों में सतीश गुप्ता दो बार पहले सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ चुके हैं, और पिछली व तीसरी बार पीछे हट चुके हैं । उनके बड़े होने पर उनका यह 'रिकॉर्ड' भारी है और इस बार भी वह कोई चमत्कार करते हुए नहीं दिख रहे हैं । प्रमोद बूब पिछली बार उम्मीदवार के रूप में कोई सक्रियता दिखाये बिना सबसे ज्यादा वोटों से रीजनल काउंसिल का चुनाव जीते थे; इस बार सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में भी वह उसी ढर्रे पर हैं - इस बीच लेकिन लोगों के बीच यह स्पष्ट हो गया है कि वह बड़े तो हैं, लेकिन हैं 'पेड़ खुजूर' । रीजनल काउंसिल में उनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं दिखी; कुछेक मुद्दों पर सेंट्रल काउंसिल सदस्य प्रकाश शर्मा के साथ उनकी जो 'मुठभेड़े' हुईं भी, वह निजी लड़ाई/खुन्नस के रूप में ज्यादा नजर आईं - और व्यापक सरोकार से जुड़ती हुई नहीं दिखीं । उम्मीदवार के रूप में वह लोगों से जुड़ते हुए और अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने हेतु लोगों तक अपनी पहुँच बनाते हुए नहीं दिख रहे हैं, इसलिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर जयपुर में ही कोई खास उत्साह नहीं देखा/पहचाना जा रहा है ।  
प्रकाश शर्मा तक के लिए सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट को बचाना मुश्किल हो रहा है । आमतौर पर माना/समझा जाता है कि काउंसिल सदस्य तो अपनी सीट आसानी से निकाल ही लेता है; लेकिन पिछली बार वेस्टर्न और ईस्टर्न रीजन में एक एक सेंट्रल काउंसिल सदस्य को अपनी अपनी सीट गँवानी पड़ी थी, और सेंट्रल रीजन में भी 'स्टार' उम्मीदवार समझे जाने वाले अनुज गोयल अपने भाई जितेंद्र गोयल को चुनाव जितवाने में असफल रहे थे । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि काउंसिल सदस्य होना चुनावी जीत की कोई गारंटी नहीं है । प्रकाश शर्मा तो पिछला चुनाव ही जैसे-तैसे मुश्किल से जीते थे । सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में उन्होंने दिखाया/जताया है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट वह भले ही 'बड़े' हैं, लेकिन सोच व व्यवहार के मामले में वह बहुत 'छोटे' हैं । अपने व्यवहार और रवैये से प्रकाश शर्मा ने जो नकारात्मक पहचान बनाई है, उसके कारण उनके नजदीकियों व समर्थकों को ही उनकी जीत को लेकर आशंका है । मजे की बात है कि जयपुर और राजस्थान में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के अच्छे अच्छे जानकर भी विजेता हो सकने वाले उम्मीदवारों के बारे में अनुमान लगा पाने में गच्चा खा रहे हैं । वह यह तो मान रहे हैं कि जयपुर/राजस्थान की जो वोटिंग 'ताकत' है, उसके चलते जयपुर के दो उम्मीदवार तो सेंट्रल काउंसिल में पहुँच ही जायेंगे - लेकिन वह दो उम्मीदवार कौन से होंगे, इस सवाल पर उनकी बोलती बंद हो जाती है । विजेता हो सकने वाले उम्मीदवारों को लेकर बनी इस असमंजसता के चलते भी रोहित अग्रवाल के लिए तेजी से मुकाबले में आना आसान हुआ है । नामांकन होने के समय उन्हें चारों उम्मीदवारों में सबसे पीछे देखा/पहचाना जा रहा था, लेकिन परिस्थितिवश मिले अवसर को अपनी सक्रियता से इस्तेमाल करके रोहित अग्रवाल ने अपनी उम्मीदवारी को जो ऊँची उछाल दी है, उससे उनकी उम्मीदवारी टक्कर में आ गई है - और इस तथ्य ने बाकी तीनों उम्मीदवारों तथा उनके समर्थकों को मुसीबत में डाल दिया है ।

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सेंट्रल काउंसिल चुनाव अभियान में फरीदाबाद में आयोजित हुए सुधीर अग्रवाल के आयोजन को फेल करने की कोशिश में राजेश शर्मा खुद ही फजीहत का शिकार हो गए

फरीदाबाद । सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी के लिए समर्थन दिखाने/जुटाने के उद्देश्य से फरीदाबाद में आयोजित होने वाले आयोजन में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को जाने से रोकने के इरादे से राजेश शर्मा ने चाल तो अच्छी चली थी, लेकिन उनकी चाल उन्हें ही उल्टी पड़ गई और उनकी ही फजीहत करा बैठी । उल्लेखनीय है कि सुधीर अग्रवाल की अध्यक्षता वाली नॉर्दर्न इंडिया सीए फेडरेशन ने अभी हाल ही में फरीदाबाद के जिमखाना क्लब में एक प्रोफेशनल मीटिंग का आयोजन किया, जिसमें इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रेसीडेंट वेद जैन तथा फरीदाबाद के वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट केके गुप्ता को चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ बातचीत की । कहने के लिए तो बातचीत इनकम टैक्स नियमों में हुए संशोधनों पर हुई, लेकिन लोगों के बीच यह कोई दबी/छिपी बात नहीं थी कि इस मीटिंग का वास्तविक उद्देश्य सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी को फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच समर्थन जुटाने के लिए प्रमोट करना था । मीटिंग के बाद डिनर के आयोजन की बात तो निमंत्रण पत्र में दर्ज थी ही, निमंत्रण पाने वाले लोगों का कहना था कि 'ड्रिंक' की बात मुँहजबानी बताई गई थी । सुधीर अग्रवाल और उनके समर्थकों ने इस मीटिंग में फरीदाबाद के ज्यादा से ज्यादा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को इकट्ठा करने की तैयारी की थी । उनकी तैयारी को देख कर सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट बचाने के लिए प्रयास कर रहे राजेश शर्मा को फरीदाबाद में अपना समर्थन-आधार खिसकता और घटता हुआ नजर आया, जिसे बचाने के लिए उन्होंने सुधीर अग्रवाल के इस आयोजन को फेल करने की योजना बनाई ।
राजेश शर्मा को अपनी योजना को सफल बनाने में फरीदाबाद ब्रांच के पदाधिकारी अमित पुनिआनी व जितेंद्र चावला का समर्थन भी मिल गया । सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी को प्रमोट करने के उद्देश्य से होने वाली मीटिंग को फेल करने के लिए इन्होंने आनन-फानन में उसी दिन और उसी समय ब्रांच में एक सेमीनार के आयोजन की तैयारी कर ली । राजेश शर्मा, अमित पुनिआनी, जितेंद्र चावला की तिकड़ी ने सोचा था कि सुधीर अग्रवाल की मीटिंग के समय पर ब्रांच में सेमीनार होगा, तो चार्टर्ड एकाउंटेंट्स उसमें शामिल होंगे और सुधीर अग्रवाल की मीटिंग कम उपस्थिति का शिकार होकर फेल हो जायेगी । राजेश शर्मा, अमित पुनिआनी, जितेंद्र चावला की तिकड़ी अपनी उक्त सोच को सफल बनाने में तो कामयाब हो गई - और सुधीर अग्रवाल की मीटिंग में उतने लोग नहीं जुट सके, जितने लोगों को उनकी तरफ से जुटाने की तैयारी की गई थी । लेकिन तिकड़ी की हरकत की हुई आलोचना ने उनके किए-धरे पर पानी फेर दिया । फरीदाबाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच राजेश शर्मा की इस बात के लिए जोरदार आलोचना हो रही है कि चुनावी मुकाबले में वह इतना नीचे गिर कर व्यवहार कर रहे हैं, और इंस्टीट्यूट के चुनाव को वह अपनी ओछी हरकतों से सड़कछाप स्तर का बना दे रहे हैं । पिछले वर्ष सीए डे पर दिल्ली में हुए आयोजन में राजेश शर्मा द्वारा की गईं हरकतों को याद करते हुए कई लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि उन हरकतों के कारण हुई बदनामी व फजीहत से राजेश शर्मा ने कोई सबक आखिर क्यों नहीं लिया ? कुछेक लोगों ने तो कहा भी कि जैसे कुत्ते की पूँछ लाख कोशिशों के बाद भी सीधी नहीं की जा सकती है, वैसे ही लाख लानत-मलानत के बाद भी राजेश शर्मा अपनी हरकतों से बाज नहीं आ सकते हैं । 
फरीदाबाद के कुछेक वरिष्ठ लोगों ने राजेश शर्मा की हरकत को फरीदाबाद के वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स केके गुप्ता के अपमान से जोड़ कर भी देखने/दिखाने की कोशिश की है । केके गुप्ता चुनावी राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते हैं, इसलिए फरीदाबाद में अपनी वरिष्ठता के चलते वह हर किसी के लिए सम्मान के पात्र हैं । उनकी वरिष्ठता के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए फरीदाबाद के कुछेक चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कहना है कि राजेश शर्मा ने अपनी ओछी राजनीति के चक्कर में फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को केके गुप्ता से मिलने और बात करने के अवसर से वंचित कर दिया - और इस तरह फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ तो नाइंसाफी की ही, साथ ही केके गुप्ता को भी अपमानित करने का प्रयास किया है । राजेश शर्मा के प्रति नाराजगी दिखाते हुए लोगों का कहना है कि राजेश शर्मा यदि यह समझते हैं कि दूसरे उम्मीदवारों के आयोजनों को फेल करने के षड्यंत्रों के जरिये वह सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट बचा लेंगे, तो वह बड़े भ्रम में हैं और इसका खामियाजा उन्हें चुनाव में भुगतना पड़ेगा । इस किस्से में मजे की बात यह सुनी जा रही है कि सुधीर अग्रवाल की मीटिंग में लोगों को जाने से रोकने के लिए राजेश शर्मा की योजनानुसार सेमीनार आयोजित करने वाले अमित पुनिआनी व जितेंद्र चावला खुद सुधीर अग्रवाल की मीटिंग के अंत में होने वाले ड्रिंक व डिनर कार्यक्रम में जा पहुँचे थे, और इसके लिए उन्होंने ब्रांच में हो रहे सेमीनार के खत्म होने का भी इंतजार नहीं किया । कुछेक लोगों का अनुमान है कि वह वहाँ यह देखने पहुँचे थे कि लोगों को जाने से रोकने की उनकी तैयारी के बावजूद कौन और कितने लोग सुधीर अग्रवाल के आयोजन में पहुँचे हैं, तो कईयों का कहना रहा कि और लोगों को तो सुधीर अग्रवाल के आयोजन में जाने से रोकने के लिए उन्होंने सेमीनार का आयोजन कर दिया, लेकिन ड्रिंक व डिनर के लालच में वह खुद को वहाँ पहुँचने से नहीं रोक सके । लोगों का कहना है कि ऐसे लोगों के भरोसे/सहारे राजेश शर्मा सिर्फ इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन को गंदा कर सकते हैं, लोगों का समर्थन व वोट नहीं पा सकेंगे - और इस तरह सुधीर अग्रवाल के आयोजन में अड़ंगा डाल कर राजेश शर्मा ने अपनी स्वयं की फजीहत करवा ली है ।

Sunday, November 18, 2018

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3011 में अजीत जालान को विश्वास है कि अगले वर्ष उन्हें डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाने के वायदे को पूरा करने के लिए विनोद बंसल कुछ भी तिकड़म लगा कर रवि गुगनानी की उम्मीदवारी को वापस करवा ही देंगे

नई दिल्ली । रवि गुगनानी की अगले रोटरी वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए प्रस्तुत उम्मीदवारी ने डिस्ट्रिक्ट के चुनावी परिदृश्य में तो हलचल मचा ही दी है, साथ ही साथ पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विनोद बंसल के लिए भी भारी संकट पैदा कर दिया है । विनोद बंसल ने अगले रोटरी वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए अजीत जालान की उम्मीदवारी को प्रस्तुत करवाने की तैयारी की हुई है । अजीत जालान को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (नॉमिनी) बनवाने का विनोद बंसल का पुराना वायदा है, जिसे अगले वर्ष निभाने की उनकी तैयारी है । विनोद बंसल के लिए लेकिन समस्या की बात यह हुई है कि रवि गुगनानी के उम्मीदवार होने की स्थिति में उनके लिए अजीत जालान की उम्मीदवारी का झंडा उठाये रख पाना मुश्किल होगा, क्योंकि रवि गुगनानी के साथ भी उनके बहुत विश्वास और सहयोग के संबंध हैं । रोटरी में सक्रियता और कामकाज को लेकर अजीत जालान और रवि गुगनानी में जो बड़ा अंतर है, उसे देखते हुए विनोद बंसल के लिए अजीत जालान की खातिर रवि गुगनानी के साथ अपने संबंधों को दाँव पर लगाना घाटे का सौदा भी साबित हो सकता है । रवि गुगनानी के लिए अजीत जालान को 'छोड़' देने में तो उन्हें ज्यादा नुकसान नहीं होगा, लेकिन अजीत जालान के लिए रवि गुगनानी को छोड़ना उन्हें भारी पड़ सकता है । इस वर्ष हुए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में तो विनोद बंसल को तगड़ा झटका लगा ही है, लगातार दूसरे वर्ष डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में झटका खाने पर इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए की जा रही उनकी तैयारी पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है, इसलिए अगले वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए बिछाई जा रही राजनीतिक बिसात में उनके सामने अपनी भूमिका गंभीरता से चुनने और तय करने की चुनौती आ खड़ी हुई है ।
उल्लेखनीय है कि इस वर्ष हुए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में विनोद बंसल ने शुरू में तो खुलकर अशोक कंतूर की उम्मीदवारी का झंडा उठाया हुआ था, और वह अनूप मित्तल को दो-तीन वर्ष डिस्ट्रिक्ट में और काम करने की सलाह देते हुए चुनावी दौड़ से बाहर होने/रहने के लिए प्रेरित कर रहे थे; लेकिन बाद में अपने नजदीकियों को अशोक कंतूर के लिए काम करने में लगाकर खुद पर्दे के पीछे चले गए थे और अपने आप को चुनाव से दूर 'दिखाने' लगे थे । विनोद बंसल ने 'व्यवस्था' तो अच्छी की थी, लेकिन अनूप मित्तल की चुनावी जीत ने उनकी व्यवस्था पर पानी फेर दिया और उनके लिए मुश्किलें बढ़ाने वाला काम किया है । विनोद बंसल ने सोचा तो यह था कि इस वर्ष वह अशोक कंतूर को चुनाव जितवा देंगे, और अगले वर्ष अजीत जालान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बन जायेंगे । अनूप मित्तल की जीत से लेकिन विनोद बंसल की सारी योजना गड़बड़ा गई है । चुनाव में हार का सामना करने के बाद अशोक कंतूर ने जिस तरह से अगले वर्ष के लिए फिर से अपनी उम्मीदवारी की ताल ठोकना शुरू कर दिया है, उसके कारण अजीत जालान की उम्मीदवारी को लेकर विनोद बंसल मुसीबत में तो पड़े - लेकिन वह मुसीबत इतनी बड़ी नहीं थी, जितनी बड़ी मुसीबत रवि गुगनानी की उम्मीदवारी के आने से उनके सामने आ खड़ी हुई है । रवि गुगनानी के राजनीतिक तार चूँकि अनूप मित्तल की उम्मीदवारी का समर्थन करने वाले लोगों के साथ भी जुड़े हुए हैं, इसलिए रवि गुगनानी की विनोद बंसल पर वैसी निर्भरता नहीं है, जैसी कि अजीत जालान की है । इस कारण से भी विनोद बंसल पर रवि गुगनानी का समर्थन करने के लिए भारी दबाव है ।
विडंबना की बात यह है कि ऐसे नाजुक समय में भी अजीत जालान को 'मजाक' सूझ रहा है । उनकी तरफ से कहा/सुना जा रहा है कि विनोद बंसल किसी भी तरह से रवि गुगनानी को उम्मीदवारी वापस लेने के लिए राजी कर लेंगे । उनका तर्क है कि विनोद बंसल ने रवि गुगनानी को डिस्ट्रिक्ट में आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है, और इस बात का ख्याल रखते हुए रवि गुगनानी उम्मीदवारी से पीछे हटने की उनकी सलाह को टाल नहीं पायेंगे । अजीत जालान का यह भी कहना/बताना है कि विनोद बंसल ने ही इस वर्ष रवि गुगनानी की भाभी प्रीति गुगनानी को इनरव्हील का डिस्ट्रिक्ट चेयरपरसन बनवाया है; ऐसे में हर वर्ष महत्त्वपूर्ण पद गुगनानी परिवार के लिए रिजर्व थोड़े ही रहेंगे । इस तरह की बातों के जरिये अजीत जालान आश्वस्त हैं कि रवि गुगनानी के चक्कर में विनोद बंसल उनकी उम्मीदवारी की बलि नहीं चढ़ायेंगे, और इस वर्ष उन्हें जो झटका लगा है - उससे सबक लेते हुए विनोद बंसल उनकी उम्मीदवारी के साथ वैसा 'प्रयोग' नहीं करेंगे, जैसा उन्होंने अशोक कंतूर की उम्मीदवारी के साथ किया है । अजीत जालान की तरफ से एक बड़े पते की बात भी कही/सुनी जा रही है, जिसमें बताया जा रहा है कि विनोद बंसल को इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की अपनी उम्मीदवारी को सचमुच में आगे बढ़ाने के लिए डिस्ट्रिक्ट में अपने 'आदमी' को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवा का दिखाना होगा - इस वर्ष तो वह यह 'दिखाने' में चूक गए हैं; अगले वर्ष वह यह काम अजीत जालान को जितवा कर ही कर सकते हैं; इसलिए कुछ भी तिकड़म लगा कर विनोद बंसल को रवि गुगनानी की उम्मीदवारी वापस करवाना ही होगी । अजीत जालान को विश्वास है कि विनोद बंसल किसी भी तरह से रवि गुगनानी की उम्मीदवारी वापस करवा कर उनकी जीत के लिए रास्ता साफ कर/करवा ही देंगे । 

Saturday, November 17, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सेंट्रल काउंसिल चुनाव में पंजाब के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच राजेश शर्मा और चरनजोत सिंह नंदा को मिलती दिख रही दुत्कार संजय वासुदेवा, विजय गुप्ता, अतुल गुप्ता और हंसराज चुग के लिए वरदान साबित होती नजर आ रही है

चंडीगढ़ । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों ने इस बार पंजाब के छोटे/बड़े शहरों को चुनावी युद्ध का मैदान बना दिया है - जिसका फायदा संजय वासुदेवा, विजय गुप्ता, अतुल गुप्ता और हंसराज चुग को होता हुआ दिख रहा है । यूँ तो इंस्टीट्यूट के चुनावों में हर बार ही पंजाब के शहरों में गहमागहमी रहती रही है, लेकिन  इस बार एक एक वोट पाने/छीनने के प्रयासों का जो नजारा देखा/सुना जा रहा है, वैसा इससे पहले कभी देखा/सुना नहीं गया है । इस नजारे का श्रेय चरनजोत सिंह नंदा और राजेश शर्मा के बीच एक दूसरे को मात देने के लिए छिड़ी लड़ाई को दिया जा रहा है । चरनजोत सिंह नंदा का प्रयास है कि सेंट्रल काउंसिल की जो सीट पिछली बार उन्होंने राजेश शर्मा को 'गिफ्ट' की थी, वह उन्हें वापस मिल जाये; लेकिन राजेश शर्मा का जताना है कि गिफ्ट भी कोई वापस करता है क्या ? मजे की बात यह नजर आ रही है कि दोनों के बीच छिड़ी इस लड़ाई ने अधिकतर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स - खासकर युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को बुरी तरह से निराश किया है और वह इन दोनों को ही सबक सिखाना चाहते हैं । युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के इस मूड को भाँप कर उन्हें लुभाने के उद्देश्य से बाकी उम्मीदवारों ने पंजाब के शहरों पर जैसे धावा सा बोल दिया है । सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले उम्मीदवारों में शायद ही कोई होगा, जिसने पंजाब से वोट जुटाने के लिए आक्रामक रवैया न दिखाया हो । अधिकतर उम्मीदवारों ने अपनी अपनी पसंद और/या प्रभाव वाले कुछेक शहरों पर ही ध्यान केंद्रित किया है - लेकिन संजय वासुदेवा, विजय गुप्ता, अतुल गुप्ता और हंसराज चुग ने चूँकि पंजाब के कोने कोने तक दस्तक दी है, इसलिए पंजाब के अलग अलग शहरों में वोटों के लिए छिड़ी लड़ाई में इन्हीं चारों को सबसे ज्यादा फायदा होते हुए देखा/सुना जा रहा है ।
पंजाब के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वोट इस बार के चुनाव में कितने महत्त्वपूर्ण बन गए हैं, इसका सुबूत इस एक तथ्य में देखा/पहचाना जा सकता है कि बठिंडा जैसी छोटी ब्रांच तक में न सिर्फ नई बनी अधूरी बिल्डिंग के उद्घाटन को लेकर भारी खींचातानी हुई, बल्कि गिरीश आहुजा जैसे वरिष्ठ व सम्मानित व्यक्ति तक वहाँ चुनावी चक्कर में धक्के खाते देखे गए हैं । दरअसल चरनजोत सिंह नंदा और राजेश शर्मा को पंजाब के शहरों में जो झटके लगते देखे/सुने गए, उसने दूसरे उम्मीदवारों को उम्मीद से भर दिया है । उल्लेखनीय है कि पिछले कई चुनावों से पंजाब चरनजोत सिंह नंदा के लिए वोटों की दुधारू गाय बना रहा है, पिछली बार चरनजोत सिंह नंदा ने यह 'गाय' राजेश शर्मा को सौंप दी थी - इसके चलते दूसरे उम्मीदवारों ने अभी तक यहाँ ज्यादा प्रयास नहीं किए थे । राजेश शर्मा लेकिन अपनी हरकतों के चलते, खासकर पिछले वर्ष चार्टर्ड एकाउंटेंट्स डे के फंक्शन में की गई अपनी हरकत के कारण चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच बुरी तरह बदनाम हो गए हैं । राजेश शर्मा हालाँकि सोच रहे थे कि उनके उस कांड को लोग भूल चुके होंगे, लेकिन कई मौकों पर देखने को मिला कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स राजेश शर्मा के उस कांड को तो नहीं ही भूले हैं, साथ ही उनकी कई और कारस्तानियों को भी याद किए हुए हैं और बता/जता चुके हैं कि 7 और 8 दिसंबर को वह राजेश शर्मा को सबक सिखायेंगे । राजेश शर्मा की बदनामी का फायदा उठाने के लिए चरनजोत सिंह नंदा ने कमर कसी, लेकिन लोगों ने उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी । वास्तव में किसी को यह बात हजम नहीं हो पा रही है कि तमाम तमाम वर्ष सेंट्रल काउंसिल में रह चुके चरनजोत सिंह नंदा ने प्रोफेशन के लिए आखिर किया क्या है, जिसके कारण उन्हें फिर से सेंट्रल काउंसिल में लाया जाना चाहिए ? 
राजेश शर्मा और चरनजोत सिंह नंदा को पंजाब के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच दुत्कार मिलती दिखी, तो दूसरे उम्मीदवारों को पंजाब में वोटों का भंडार नजर आया और वह पंजाब की तरफ दौड़ पड़े । उन्हें इस बात से भी उम्मीद बंधी कि विशाल गर्ग लुधियाना के होने के बावजूद पंजाब के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच कोई पैठ नहीं बना सके हैं । असल में, विशाल गर्ग उम्मीदवार तो बन गए हैं, लेकिन चूँकि वह चुनावी दौड़ में बहुत पीछे 'दिख' रहे हैं, इसलिए पंजाब के दूसरे शहरों के साथ-साथ लुधियाना तक के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को लग रहा है कि विशाल गर्ग को वोट देने का मतलब अपने वोट को व्यर्थ में नष्ट कर देने जैसा है । इस सोच व समझ के चलते वह ऐसे उम्मीदवारों के साथ जुड़ने की जरूरत महसूस कर रहे हैं, जो जीतते हुए नजर आ रहे हैं । पंजाब के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की इस सोच व समझ का फायदा संजय वासुदेवा, विजय गुप्ता, अतुल गुप्ता और हंसराज चुग को होता हुआ दिख रहा है । इनमें पहले तीन को सेंट्रल काउंसिल सदस्य होने का फायदा मिल रहा है । सेंट्रल काउंसिल में होने के कारण इनकी प्रत्येक ब्रांच तक प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष पहुँच है; और अलग अलग कारणों से किसी को कहीं तो किसी को कहीं अच्छा समर्थन मिल रहा है । इनके अलावा हंसराज चुग ही हैं, जिन्होंने पंजाब के शहरों में अपने समर्थकों व शुभचिंतकों की अच्छी व प्रभावी टीम खड़ी की है और जिसके सहारे/भरोसे पंजाब के कोने कोने तक अपनी पहुँच बनाई है । पंजाब के शहरों में दूसरे उम्मीदवारों ने भी अपने अपने तरीकों से 'धावा' बोला है और बहुत बहुत समय लगाया है, लेकिन चूँकि एक तो वह कुछ ही शहरों तक अपनी सक्रियता रख पाए हैं और अपनी पहुँच को व्यापक नहीं बना सके हैं, और दूसरे वह यहाँ अपनी कोई टीम नहीं बना सके हैं, इसलिए वह यहाँ अपने अपने लिए वैसा समर्थन बनाते हुए नहीं दिख रहे हैं, जैसा समर्थन संजय वासुदेवा, विजय गुप्ता, अतुल गुप्ता और हंसराज चुग बना सके हैं ।

Friday, November 16, 2018

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3054 में बीना देसाई की गवर्नरी से मिली ताकत के भरोसे आशीष देसाई ने अशोक मंगल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाने का बीड़ा उठाया

अहमदाबाद । पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर आशीष देसाई के अशोक मंगल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाने के लिए प्रयासरत रहने के चलते 18 नवंबर को जयपुर में होने वाली नोमीनेटिंग कमेटी की मीटिंग को महज खानापूर्ति के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है - क्योंकि सभी ने मान लिया हुआ है कि उक्त मीटिंग में अशोक मंगल को ही डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुना जाना है । उल्लेखनीय है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के लिए यूँ तो कई उम्मीदवार हैं, लेकिन मुख्य मुकाबला रोटरी क्लब पालनपुर के अशोक मंगल और रोटरी क्लब अहमदाबाद वेस्ट के पवन चपलोत के बीच ही देखा/पहचाना जा रहा है । अशोक मंगल ने दूसरी बार और पवन चपलोत ने तीसरी बार अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की है । सक्रियता के लिहाज से यूँ तो दोनों ही उम्मीदवारों का अच्छा रोटरी-रिकॉर्ड है, लेकिन अहमदाबाद में होने के कारण पवन चपलोत 'दिखाई' ज्यादा देते रहे हैं - जिस कारण से लोगों के बीच अशोक मंगल के मुकाबले उनकी ज्यादा पहचान है । पालनपुर में होने के कारण अशोक मंगल के लिए क्लब्स व डिस्ट्रिक्ट के आयोजनों में ज्यादा आना-जाना संभव नहीं हो पाता है, और इसलिए डिस्ट्रिक्ट में काफी लोग उन्हें नहीं पहचानते हैं - तथा वह भी कई लोगों को सिर्फ नाम से पहचानते हैं । इस कारण अधिकतर लोगों का मानना/कहना है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की जिम्मेदारी सँभालना पवन चपलोत के लिए ज्यादा आसान होगा, और वह प्रभावी तरीके से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के कर्तव्यों का निर्वाह कर सकेंगे । लेकिन जैसा कि एक पुरानी मशहूर फिल्म में दो भाईयों के बीच होने वाली बहस में एक भाई कहता है कि उसके पास यह है, यह है, यह है; तुम्हारे पास क्या है - तो दूसरा भाई कहता है कि मेरे पास माँ है, और पलड़ा उसकी तरफ झुक जाता है; ठीक उसी तर्ज पर अशोक मंगल के पास चूँकि आशीष देसाई हैं - इसलिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की इस वर्ष की चुनावी होड़ में पलड़ा उनकी तरफ झुक जाता है ।
आशीष देसाई की तरफ से अशोक मंगल की तरफदारी करने के लिए तर्क दिया गया है कि छोटे शहरों के लोगों को भी गवर्नर बनने का मौका मिलना चाहिए, जिससे कि छोटे शहरों के लोगों के बीच भी रोटरी के लिए उत्साह पैदा हो और सभी को डिस्ट्रिक्ट का नेतृत्व करने का मौका मिले । आशीष देसाई का यह तर्क सचमुच में एक वाजिब तर्क है, और इसलिए ही उनके तर्क को डिस्ट्रिक्ट की लीडरशिप में व्यापक समर्थन मिला है । हालाँकि कुछेक लोगों का कहना है कि आशीष देसाई को यह समर्थन उनके तर्क के कारण नहीं, बल्कि उनकी पत्नी बीना देसाई के अगले रोटरी वर्ष में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर होने के कारण मिला है । डिस्ट्रिक्ट में गुजरात के लोगों के बीच आशीष देसाई का यद्यपि विरोध रहा है, लेकिन अधिकतर लोग चूँकि सत्ता के नजदीक रहना चाहते हैं - इसलिए बीना देसाई की डिस्ट्रिक्ट गवर्नरी को देखते हुए आशीष देसाई के विरोधी रहे लोग अभी उनके समर्थक बन गए हैं । आशीष देसाई के लिए खुशकिस्मती की बात यह भी रही कि राजस्थान के नेताओं ने इस वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनावी पचड़े से अपने आपको दूर कर लिया हुआ है । उनका कहना है कि इस वर्ष डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद पर चूँकि गुजरात का नंबर है, इसलिए गुजरात के लोग ही फैसला करें । राजस्थान के नेताओं के इस रवैये से आशीष देसाई को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी का चुनाव करने के लिए और बल मिला - तथा इससे अशोक मंगल के लिए रास्ता और आसान हुआ ।
अशोक मंगल के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुने जाने पर लोगों के ऐतराज का कोई बड़ा कारण वैसे है भी नहीं ।लोगों का ऐतराज सिर्फ इसलिए है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के चुनाव में क्षेत्रीय आधार पर 'आरक्षण व्यवस्था' बना देने से कई बार ऐसे लोग गवर्नर बन जाते हैं, जो गवर्नर पद केसाथ न्याय नहीं कर पाते हैं - और इस कारण से रोटरी व डिस्ट्रिक्ट को पिछड़ जाना पड़ता है । इसी वर्ष का उदाहरण देते हुए कहा जा रहा है कि आरक्षण व्यवस्था के चलते नीरज सोगानी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर तो बन गए, लेकिन कुछ उनकी बीमारी और कुछ उनके ढीलेढाले रवैये के चलते उनके लिए गवर्नर पद की जिम्मेदारियों का निर्वाह कर पाना मुश्किल बना हुआ है, और बहुत से काम समय से नहीं हो पा रहे हैं । लोगों का कहना है कि इस तरह के अनुभवों से सबक लिया जाना चाहिए और कम से कम इतना तो किया ही जाना चाहिए कि क्षेत्रीय आरक्षण के चलते जिन लोगों को गवर्नर बनना/बनाना है, उन्हें नेतृत्व के लिए तैयार करने के वास्ते उचित ट्रेनिंग भी दी जाए । लोगों का कहना है कि आशीष देसाई जिस भावना के साथ अशोक मंगल को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनवाना/बनवाना चाहते हैं, वह अपने आप में बहुत ही अच्छी बात है - लेकिन आशीष देसाई को साथ ही साथ अशोक मंगल को नेतृत्व के लिए तैयार व प्रेरित करने का काम भी करना चाहिए । कुछेक लोगों का यह भी कहना है कि आशीष देसाई ने जब यह तय कर दिया है कि 18 नवंबर की मीटिंग में नोमीनेटिंग कमेटी को अशोक मंगल को ही डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी चुनना है, तो फिर मीटिंग करने की जरूरत ही क्या है ? किंतु जो भी हो, डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव भले ही नाटक लग रहा हो - नाटक में दिलचस्पी सभी की बनी हुई है, और सभी को 18 नवंबर की नोमीनेटिंग कमेटी की मीटिंग और उसके फैसले का इंतजार है ।

Thursday, November 15, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सेंट्रल काउंसिल चुनाव में बिग फोर फर्म्स का समर्थन प्राप्त करने के लिए संजीव सिंघल ने पैंतरा बदल कर संजीव चौधरी से सीधे भिड़ने की तैयारी की

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में संजीव चौधरी की जगह लेने के प्रयास में जुटे संजीव सिंघल ने अपनी चुनावी मुश्किलों के लिए संजीव चौधरी को जिम्मेदार ठहराने/बताने की बातें शुरू करके उन चर्चाओं को सार्वजनिक कर दिया है, जो अभी तक पर्दे के पीछे फुसफुसाहटों के रूप में चल रही थीं । संजीव सिंघल इस बात से काफी निराश रहे हैं कि बिग फोर की तरफ से उन्हें वैसा एकजुट समर्थन नहीं मिल पा रहा है, जैसा कि बिग फोर के उम्मीदवार के रूप में उन्हें मिलना ही चाहिए । बिग फोर की तरफ से मिले झटके से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए उन्हें आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच स्टडी सर्किल्स तथा ब्रांचेज में भटकना पड़ा । संजीव सिंघल के लिए खुशकिस्मती की बात यह रही कि उनकी उम्मीदवारी को गिरीश आहुजा तथा अमरजीत चोपड़ा जैसे प्रोफेशन के बड़े लोगों का खुल्ला समर्थन मिला । इनके समर्थन के बावजूद हालाँकि संजीव सिंघल को अपनी उम्मीदवारी की नाव किनारे पहुँचती नहीं दिखी, तो उन्हें बिग फोर के समर्थन की तरफ लौटने की जरूरत महसूस हुई । दरअसल गिरीश आहुजा और अमरजीत चोपड़ा के सक्रिय समर्थन के बावजूद, माथे पर लगी बिग फोर के उम्मीदवार की पट्टी के कारण संजीव सिंघल आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच अपने लिए स्वीकार्यता नहीं बना सके हैं । इसलिए उन्हें लगा कि उन्हें वापस अपने 'घर/परिवार' में ही लौट चलना चाहिए और घर/परिवार के सदस्यों के बीच ही अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाना चाहिए । संजीव सिंघल ने अपने घर/परिवार में समर्थन जुटाने के लिए की गई इस नई और दूसरी कोशिश में संजीव चौधरी को निशाने पर लेने की रणनीति अपनाई ।
संजीव सिंघल के नजदीकियों के अनुसार, बिग फोर में संजीव सिंघल की उम्मीदवारी के खिलाफ माहौल बनाने का काम वास्तव में संजीव चौधरी ने ही किया हुआ था । संजीव चौधरी ने अपनी उम्मीदवारी का भ्रम बनाए रखते हुए पहले तो संजीव सिंघल की उम्मीदवारी के पक्ष में बिग फोर फर्म्स को एकजुट नहीं होने दिया, और फिर तरह तरह से यह दिखाने/जताने का प्रयास किया कि संजीव सिंघल को गंभीर उम्मीदवार के रूप में नहीं देखा/पहचाना जा रहा है, इसलिए उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करके बिग फोर अपने लिए ही फजीहत व मुसीबत पैदा करेंगे । संजीव सिंघल के रवैये ने संजीव चौधरी के 'अभियान' को और आसान कर दिया । दरअसल संजीव सिंघल यह समझने में असफल रहे कि संजीव चौधरी के अभियान से वह कैसे निपटें ? संजीव चौधरी के अभियान से निपटने में समय/समझ/एनर्जी लगाने की बजाये संजीव सिंघल ने सेंट्रल काउंसिल में पहुँचने के लिए दूसरे वैकल्पिक रास्तों की तलाश की । दरअसल संजीव चौधरी से सीधे भिड़ने से बचने के लिए संजीव सिंघल ने यह उपाय सोचा और अपनाया । उन्हें लगा कि स्टडी सर्किल्स व ब्रांचेज के पदाधिकारियों को 'पटा' कर उनके सेमिनार्स में वक्ता बन कर वह आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स तक सीधी पहुँच बना लेंगे - और संजीव चौधरी के 'अभियान' को फेल कर देंगे । लेकिन कई सेमिनार्स में वक्ता बनने के बावजूद, आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटा पाने में उन्हें सफलता मिलती नहीं दिखी । संजीव सिंघल की उम्मीदवारी का समर्थन करने के चक्कर में गिरीश आहुजा और अमरजीत चोपड़ा को आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच जिस तरह से फजीहत झेलना पड़ी, उसे देख कर संजीव सिंघल तथा उनके समर्थकों को समझ में आ गया कि आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच समर्थन प्राप्त कर पाना उनके लिए मुश्किल ही नहीं - बल्कि असंभव ही होगा । 
इस नजारे को देख कर संजीव सिंघल को समझ में आ गया कि उन्हें आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की बजाये बिग फोर के लोगों पर ही भरोसा करना होगा, और उनके बीच ही अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन तलाश करना व बनाना होगा । संजीव सिंघल के नजदीकियों के अनुसार, इसके साथ ही संजीव सिंघल को यह भी समझ में आ गया कि इसके लिए उन्हें संजीव चौधरी से सीधे सीधे भिड़ना ही पड़ेगा - जिससे कि वह अभी तक बचने की कोशिश कर रहे थे । संजीव सिंघल के नजदीकियों से बातचीत में इन पँक्तियों के लेखक को पता चला है कि पिछले एक सप्ताह में संजीव सिंघल ने बिग फोर की अलग अलग फर्म्स के लोगों से अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन को लेकर बात की है, और संजीव चौधरी के रवैये की शिकायत करते हुए उनके व्यवहार का रोना रोया है । नजदीकियों के अनुसार, संजीव सिंघल ने पूछने वाले अंदाज में कहा/बताया है कि संजीव चौधरी पता नहीं क्यों उनके साथ निजी खुन्नस रखते हैं व दिखा रहे हैं; और आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच उनकी नकारात्मक छवि/पहचान बनाते रहे हैं । संजीव सिंघल लोगों को बता रहे हैं कि संजीव चौधरी अभी तक भी लोगों के बीच यह प्रचार कर रहे हैं कि बिग फोर ने उम्मीदवार चुनने में गलती कर दी है, और एक कमजोर व्यक्तित्व को उम्मीदवार बना दिया है । संजीव सिंघल यह तर्क देते हुए बिग फोर फर्म्स के लोगों को अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में सक्रिय करने का प्रयास कर रहे हैं कि उनकी उम्मीदवारी बिग फोर फर्म्स का प्रतिनिधित्व कर रही है, और उनकी हार सिर्फ उनकी हार नहीं होगी - बल्कि बिग फोर फर्म्स की हार होगी; इसलिए बिग फोर के लोगों को उनकी उम्मीदवारी को गंभीरता से लेना चाहिए तथा संजीव चौधरी के दुष्प्रचार में नहीं फँसना चाहिए । अभी तक संजीव चौधरी से सीधे भिड़ने से बचने की कोशिश करते रहे संजीव सिंघल के इस पैंतरे ने बिग फोर के लोगों के बीच कुछ हलचल तो मचाई है, लेकिन यह अभी देखने/समझने की बात होगी कि इस पैंतरे से संजीव सिंघल को वास्तव में कोई फायदा होगा या नहीं ?

Wednesday, November 14, 2018

चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट की डिसिप्लिनरी कमेटी में दर्ज शिकायत से जुड़ी बातों पर चर्चाओं के चलते सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत श्रुति शाह की उम्मीदवारी को लेकर नकारात्मक माहौल बनता दिख रहा है, और उनकी उम्मीदवारी मुसीबत में फँसी दिखने लगी है

मुंबई/दिल्ली । डिसिप्लिनरी कमेटी में शिकायत के कारण सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत श्रुति शाह की उम्मीदवारी विवाद में घिर गई है, और इसके चलते अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने का उनका प्रचार अभियान भी मुसीबत में घिर गया है । कई लोगों का मानना/कहना है कि नैतिकता के उच्च आदर्शों का पालन करते हुए डिसिप्लिनरी कमेटी में दर्ज शिकायत को मद्देनजर रखते हुए श्रुति शाह को खुद ही सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए था; किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया है - और इस तरह अपने रवैये से उन्होंने अपने आप को इंस्टीट्यूट की पूरी व्यवस्था को मजाक बना देने वाले लोगों में शामिल कर लिया है । श्रुति शाह यदि सेंट्रल काउंसिल में चुन ली जाती हैं, तो उनके खिलाफ दर्ज शिकायत की जाँच का क्या हश्र होगा, इसे सहज ही समझा जा सकता है । श्रुति शाह लेकिन अपनी उम्मीदवारी को उचित ठहराती हैं । इन पंक्तियों के लेखक से बात करते हुए उन्होंने तर्क दिया कि डिसिप्लिनरी कमेटी में शिकायत के कारण यदि उम्मीदवार अयोग्य माने जाने लगे, तब तो फिर कोई भी उम्मीदवार नहीं हो पायेगा - क्योंकि जो भी उम्मीदवार बनने की तैयारी करता नजर आयेगा, उसके विरोधी उसके खिलाफ शिकायत कर देंगे । उन्होंने दावा किया कि उनकी उम्मीदवारी पूरी तरह से न्यायोचित है, और उम्मीदवारी प्रस्तुत करके उन्होंने इंस्टीट्यूट के किसी भी नियम और या कानून का उल्लंघन नहीं किया है । श्रुति शाह का कहना रहा कि डिसिप्लिनरी कमेटी में दर्ज शिकायत में उनके खिलाफ फैसला अभी नहीं हुआ है, और इसलिए इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए उनका उम्मीदवारी प्रस्तुत करना पूरी तरह जायज है । 
श्रुति शाह का यह कहना वास्तव में उचित ही है कि नियम-कानून के अनुसार, उनकी उम्मीदवारी पूरी तरह जायज ही है; किंतु लोगों का कहना है कि सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहने वाले लोगों से उच्च नैतिक आदर्शों के पालन की उम्मीद की जाती है - जिसमें श्रुति शाह फेल होती हुई नजर आ रही हैं । अपने बचाव में श्रुति शाह जो तर्क दे रही हैं, उसे बहुत ही बचकाना और राजनीतिक तिकड़म से भरपूर रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । गौर करने वाली बात यह है कि पाँचों रीजंस में सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले 83 उम्मीदवारों में एक अकेली श्रुति शाह हैं, जिनके खिलाफ डिसिप्लिनरी कमेटी में शिकायत दर्ज है । इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि उनके खिलाफ दर्ज शिकायत को प्राथमिक जाँच पड़ताल में गंभीर माना/पाया गया है । डिसिप्लिनरी कमेटी के कामकाज से परिचित लोगों का कहना है कि कमेटी में प्राथमिक जाँच पड़ताल में शिकायत की गंभीरता को जाँचा/परखा जाता है, और जिन शिकायतों को गंभीर नहीं माना/पाया जाता उन्हें प्राथमिक जाँच पड़ताल में ही निरस्त कर दिया जाता है । श्रुति शाह के मामले में शिकायत को चूँकि प्राथमिक जाँच पड़ताल में गंभीर माना/पाया गया है, इसलिए माना/समझा जा सकता है कि उनके खिलाफ शिकायत उतनी हल्की नहीं है - जितना कि वह दिखाने/जताने का प्रयास कर रही हैं । इंस्टीट्यूट में डिसिप्लिनरी कमेटी में प्रभावी लोगों के खिलाफ दर्ज शिकायतों को किस तरह लटकाये रखा जाता है, और किस तरह उन्हें 'अपने आप मरने' दिया जाता है - यह कोई दबी/छिपी बात नहीं है । दरअसल इसी तरह के गड़बड़झालों के आरोपों के चलते नफरा (एनएफआरए - नेशनल फाइनेंशियल रिपोर्टिंग अथॉरिटी) के लिए रास्ता बना है ।
इंस्टीट्यूट के दिल्ली स्थित मुख्यालय में कुछेक लोगों का आरोप है कि श्रुति शाह के मामले में भी जाँच-पड़ताल के काम को लेटलतीफी का शिकार बनाया गया है, जिसके चलते फैसला होने में देर हुई है । श्रुति शाह वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में नौ वर्षों से हैं, और पिछले से पिछले वर्ष वह वहाँ चेयरपरसन के पद पर थीं; इसके अलावा वह सेंट्रल काउंसिल में नौ वर्षों से लगातार सदस्य बने हुए दीनल शाह की नजदीकी रिश्तेदार हैं - ऐसे में डिसिप्लिनरी कमेटी में जाँच को लटकवाना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं माना जा सकता है । दरअसल इसी तरह की बातों/चर्चाओं के चलते सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत श्रुति शाह की उम्मीदवारी को लेकर नकारात्मक माहौल बनता दिख रहा है, और उनकी उम्मीदवारी मुसीबत में फँसी दिखने लगी है । डिसिप्लिनरी कमेटी में दर्ज शिकायत को अपने राजनीतिक विरोधियों का कारनामा बताते हुए श्रुति शाह अपनी उम्मीदवारी के प्रति लोगों की सहानुभूति जुटाने का प्रयास भी हालाँकि कर रही हैं, पर उनका प्रयास ज्यादा सफल होता हुआ दिख नहीं रहा है । सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उनकी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के लिए दीनल शाह भी प्रयास करते सुने गए हैं, लेकिन डिसिप्लिनरी कमेटी में दर्ज शिकायत के उजागर होने से दीनल शाह के सामने भी नैतिक संकट खड़ा हो गया है । दीनल शाह की प्रोफेशन के लोगों के बीच अच्छी साख है, और उन्हें जानने वाले लोगों को लगता है कि डिसिप्लिनरी कमेटी में दर्ज शिकायत के 'स्टेटस' के सामने आने के बाद श्रुति शाह की उम्मीदवारी को लेकर जिस तरह की नकारात्मक चर्चा चल रही है, उसके कारण दीनल शाह के लिए श्रुति शाह की उम्मीदवारी की वकालत और सक्रिय समर्थन कर पाना मुश्किल ही होगा । इस तरह से देखने में आ रहा है कि डिसिप्लिनरी कमेटी में दर्ज शिकायत श्रुति शाह की उम्मीदवारी के लिए बहुआयामी मुसीबत बन गई है ।