जयपुर । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत रोहित अग्रवाल की उम्मीदवारी ने जिस तेजी और अप्रत्याशित तरीके से चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच अपनी पैठ बनाई है, उसके कारण जयपुर/राजस्थान में सेंट्रल काउंसिल चुनाव का पूरा नजारा बदलता हुआ नजर आ रहा है और चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प हो उठा है । इस बदलते नजारे का ही परिणाम है कि सेंट्रल काउंसिल के लिए रोहित अग्रवाल की उम्मीदवारी के सामने आने पर जो लोग उनकी उम्मीदवारी को जरा भी गंभीरता से नहीं ले रहे थे, वही लोग अब रोहित अग्रवाल को न सिर्फ मुकाबले में देख रहे हैं - बल्कि कई कई मामलों में वह उन्हें जयपुर के बाकी तीनों उम्मीदवारों से बेहतर स्थिति में भी पा रहे हैं । मजे की बात यह देखने में आ रही है कि रोहित अग्रवाल को युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच तो अच्छा समर्थन मिल ही रहा है, वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स भी उनकी उम्मीदवारी के प्रति दिलचस्पी दिखा रहे हैं और उनमें संभावनाएँ देख रहे हैं । सक्रियता के लिहाज से जयपुर/राजस्थान के चारों उम्मीदवारों में चूँकि रोहित अग्रवाल का ही पलड़ा भारी देखा/पहचाना जा रहा है, इसलिए भी उनकी उम्मीदवारी लोगों के बीच महत्त्वपूर्ण हो उठी है । जयपुर ही नहीं, राजस्थान के दूसरे शहरों के लोगों का भी मानना और कहना है कि जयपुर/राजस्थान के चारों उम्मीदवारों में एक अकेले रोहित अग्रवाल ही चुनाव को चुनाव की तरह गंभीरता से 'लड़ते' दिख रहे हैं; एक अकेले वही हैं जिनके पास ऐसे समर्थकों/शुभचिंतकों की टीम है जो वास्तव में चुनावी मैदान में सक्रिय है - और इसी का उन्हें फायदा मिलता दिख रहा है । चुनावी राजनीति की बारीकियों को समझने वाले लोगों का कहना हालाँकि यह भी है कि अपनी उम्मीदवारी के प्रति लोगों के बीच बढ़ते दिख रहे उत्साह को वोट में बदलने की चुनौती रोहित अग्रवाल के सामने अभी बाकी है ।
जयपुर में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में शामिल और सक्रिय रहे अनुभवी लोगों का मानना और बताना है कि ऑरा (आभामंडल) के लिहाज से रोहित अग्रवाल बाकी तीनों उम्मीदवारों से कमजोर पड़ते हैं; उनकी सबसे बड़ी समस्या उनका युवा होना है । युवा होने के कारण उनकी उम्मीदवारी को लोग आसानी से तवज्जो देते हुए नहीं दिखते हैं । रोहित अग्रवाल की यही कमजोरी लेकिन उनके लिए वरदान बनती नजर आ रही है । इसमें काफी योगदान हालाँकि परिस्थितियों का भी है । परिस्थितियों ने दो तरह से रोहित अग्रवाल की 'मदद' की है । राजस्थान विधानसभा चुनाव में तमाम वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी के बावजूद जिस तरह सचिन पायलट का पलड़ा भारी नजर आ रहा है, उसके चलते चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच भी यह भावना जोर मार रही है कि एक युवा नेता को यदि प्रदेश की बागडोर सौंपी जा सकती है, तो इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल की एक सीट क्यों नहीं दी जा सकती है ? इसके अलावा, सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले बाकी तीन उम्मीदवार 'बड़े' तो हैं, लेकिन वह उस कहावत को चरितार्थ करते हैं जिसमें कहा गया है - 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खुजूर ...।' इसका फायदा रोहित अग्रवाल को मिलता बताया जा रहा है । उल्लेखनीय है कि बाकी तीन उम्मीदवारों में सतीश गुप्ता दो बार पहले सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ चुके हैं, और पिछली व तीसरी बार पीछे हट चुके हैं । उनके बड़े होने पर उनका यह 'रिकॉर्ड' भारी है और इस बार भी वह कोई चमत्कार करते हुए नहीं दिख रहे हैं । प्रमोद बूब पिछली बार उम्मीदवार के रूप में कोई सक्रियता दिखाये बिना सबसे ज्यादा वोटों से रीजनल काउंसिल का चुनाव जीते थे; इस बार सेंट्रल काउंसिल के उम्मीदवार के रूप में भी वह उसी ढर्रे पर हैं - इस बीच लेकिन लोगों के बीच यह स्पष्ट हो गया है कि वह बड़े तो हैं, लेकिन हैं 'पेड़ खुजूर' । रीजनल काउंसिल में उनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं दिखी; कुछेक मुद्दों पर सेंट्रल काउंसिल सदस्य प्रकाश शर्मा के साथ उनकी जो 'मुठभेड़े' हुईं भी, वह निजी लड़ाई/खुन्नस के रूप में ज्यादा नजर आईं - और व्यापक सरोकार से जुड़ती हुई नहीं दिखीं । उम्मीदवार के रूप में वह लोगों से जुड़ते हुए और अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने हेतु लोगों तक अपनी पहुँच बनाते हुए नहीं दिख रहे हैं, इसलिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर जयपुर में ही कोई खास उत्साह नहीं देखा/पहचाना जा रहा है ।
प्रकाश शर्मा तक के लिए सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट को बचाना मुश्किल हो रहा है । आमतौर पर माना/समझा जाता है कि काउंसिल सदस्य तो अपनी सीट आसानी से निकाल ही लेता है; लेकिन पिछली बार वेस्टर्न और ईस्टर्न रीजन में एक एक सेंट्रल काउंसिल सदस्य को अपनी अपनी सीट गँवानी पड़ी थी, और सेंट्रल रीजन में भी 'स्टार' उम्मीदवार समझे जाने वाले अनुज गोयल अपने भाई जितेंद्र गोयल को चुनाव जितवाने में असफल रहे थे । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि काउंसिल सदस्य होना चुनावी जीत की कोई गारंटी नहीं है । प्रकाश शर्मा तो पिछला चुनाव ही जैसे-तैसे मुश्किल से जीते थे । सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में उन्होंने दिखाया/जताया है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट वह भले ही 'बड़े' हैं, लेकिन सोच व व्यवहार के मामले में वह बहुत 'छोटे' हैं । अपने व्यवहार और रवैये से प्रकाश शर्मा ने जो नकारात्मक पहचान बनाई है, उसके कारण उनके नजदीकियों व समर्थकों को ही उनकी जीत को लेकर आशंका है । मजे की बात है कि जयपुर और राजस्थान में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के अच्छे अच्छे जानकर भी विजेता हो सकने वाले उम्मीदवारों के बारे में अनुमान लगा पाने में गच्चा खा रहे हैं । वह यह तो मान रहे हैं कि जयपुर/राजस्थान की जो वोटिंग 'ताकत' है, उसके चलते जयपुर के दो उम्मीदवार तो सेंट्रल काउंसिल में पहुँच ही जायेंगे - लेकिन वह दो उम्मीदवार कौन से होंगे, इस सवाल पर उनकी बोलती बंद हो जाती है । विजेता हो सकने वाले उम्मीदवारों को लेकर बनी इस असमंजसता के चलते भी रोहित अग्रवाल के लिए तेजी से मुकाबले में आना आसान हुआ है । नामांकन होने के समय उन्हें चारों उम्मीदवारों में सबसे पीछे देखा/पहचाना जा रहा था, लेकिन परिस्थितिवश मिले अवसर को अपनी सक्रियता से इस्तेमाल करके रोहित अग्रवाल ने अपनी उम्मीदवारी को जो ऊँची उछाल दी है, उससे उनकी उम्मीदवारी टक्कर में आ गई है - और इस तथ्य ने बाकी तीनों उम्मीदवारों तथा उनके समर्थकों को मुसीबत में डाल दिया है ।