नई दिल्ली । रीजनल काउंसिल सदस्य और पदाधिकारी के रूप में की गईं नितिन कँवर, राजिंदर अरोड़ा और सुमित गर्ग की कार्रवाईयों ने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में अपनी अपनी सीट बचाने की खुद उनके सामने कड़ी चुनौती प्रस्तुत की हुई है । रीजनल काउंसिल के चुनावी परिदृश्य पर नजर रखने वाले कई लोगों का तो मानना और कहना है ही, साथ ही इनके नजदीकियों व समर्थकों तक को भी आशंका है कि कहीं इनका हाल वैसा ही न हो, जैसा पिछली बार के चुनाव में हरित अग्रवाल का हुआ था । उल्लेखनीय है कि हरित अग्रवाल रीजनल काउंसिल में होने के बावजूद पिछली बार चुनाव हार गए थे । पिछली बार हरित अग्रवाल के साथ जो हुआ, वह इस बात का सुबूत है कि रीजनल काउंसिल का सदस्य होना चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है । काउंसिल सदस्य के सामने बड़ी समस्या यह होती है कि काउंसिल सदस्य के रूप में लोग उसके कार्य/व्यवहार को भी देखते/परखते हैं । कार्य/व्यवहार के मामले में नितिन कँवर और राजिंदर अरोड़ा का काउंसिल में रिकॉर्ड बहुत ही खराब रहा है । नितिन कँवर के बदतमीजीपूर्ण व्यवहार ने काउंसिल की कई मीटिंग्स में बहुत ही शर्मशार करने वाली स्थितियाँ पैदा कीं । उनके गालीगलौच भरे उपद्रवी व्यवहार को लेकर काउंसिल के ही दूसरे सदस्यों ने कई बार इंस्टीट्यूट प्रशासन तक से शिकायत की और कुछेक बार तो पुलिस तक बुलाने के हालात बने । नितिन कँवर के बदतमीजीपूर्ण व्यवहार की कुख्याति आम चार्टर्ड एकाउंटेंट्स तक है, और अधिकतर लोग काउंसिल में उनकी उपस्थिति को एक कलंक की तरह देखते/समझते हैं । इस देखने/समझने के कारण नितिन कँवर को अपने चुनाव अभियान में कई मौकों पर अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है और अपमानित होना पड़ रहा है । उनके नजदीकियों के बीच ही चर्चा है कि ऐसा कई जगह हुआ कि नितिन कँवर जिनसे मिलने गए, उन्होंने व्यस्तता का बहाना बना कर उनसे मिलने से इंकार कर दिया । नितिन कँवर ने जिन लोगों से सिफारिशें करवाईं, उनमें से कुछेक ने बताया कि उन्हें सुनने को मिला कि किस बदतमीज व्यक्ति की सिफारिश कर रहे हो । ऐसे चुनावी माहौल में नितिन कँवर के लिए नॉर्दन इंडिया रीजनल काउंसिल की अपनी सीट बचाना एक बड़ी चुनौती बन गया है ।
राजिंदर अरोड़ा का बदतमीजी के मामले में ग्राफ नितिन कँवर जितना ऊँचा तो नहीं है, लेकिन कई मौकों पर उन्हें नितिन कँवर के सहयोगी के रूप में जिस तरह से देखा गया है - उसके चलते कई लोगों का मानना/कहना है कि नितिन कँवर के साथ-साथ राजिंदर अरोड़ा ने भी काउंसिल, इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन की पहचान व प्रतिष्ठा पर कालिख पोतने का काम किया है, और इनका काउंसिल में होना काउंसिल, इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है । राजिंदर अरोड़ा के लिए इसके अलावा मुसीबत की बात जगजीत सिंह की उम्मीदवारी को मिलते दिख रहे गुरद्वारा प्रबंधक कमेटियों से जुड़े लोगों के समर्थन की भी है । पिछली बार राजिंदर अरोड़ा की जीत में उक्त लोगों के समर्थन की बड़ी भूमिका थी । राजिंदर अरोड़ा के नजदीकियों का ही बताना/कहना है कि दिल्ली के साथ-साथ पंजाब तक के शहरों में जिस तरह से गुरद्वारा प्रबंधक कमेटियों से जुड़े लोग जगजीत सिंह की उम्मीदवारी का समर्थन कर रहे हैं, उसके कारण राजिंदर अरोड़ा की सीट खतरे में नजर आ रही है । सुमित गर्ग तीनों वर्ष नितिन कँवर व राजिंदर अरोड़ा के 'सहयोगी' बन कर तो रहे, लेकिन खुद उन पर बदतमीजी करने के आरोप नहीं लगे । उनकी सीट एक दूसरे कारण से मुश्किल में दिख रही है । पिछली बार सुमित गर्ग की उम्मीदवारी के एक बड़े समर्थक रीजनल काउंसिल के एक पूर्व चेयरमैन दुर्गादास अग्रवाल थे, किंतु जिन्होंने इस बार अपने बेटे शशांक अग्रवाल को उम्मीदवार बना दिया है । सुमित गर्ग के लिए समस्या की बात यह है कि काउंसिल में करीब ढाई वर्ष की अभी तक की अवधि में वह अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं बना सके हैं, और उन्हें राकेश मक्कड़-नितिन कँवर-राजिंदर अरोड़ा की बदनाम तिकड़ी के 'पिट्ठू' के रूप में ही देखा/पहचाना जाता है । इस कारण से वह अपने समर्थकों व शुभचिंतकों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं कर सके हैं; और ऐसे में दुर्गादास अग्रवाल की तरफ से मिलने वाला झटका उनके लिए कुछ ज्यादा जोर का झटका ही है । यदि बात सिर्फ इतनी ही होती कि पिछली बार की तरह दुर्गादास अग्रवाल का समर्थन उन्हें इस बार न मिल रहा होता, तो बात ज्यादा गंभीर नहीं होती - लेकिन पिछली बार उनके पक्के वाले समर्थक रहे दुर्गादास अग्रवाल इस बार अपने बेटे को उम्मीदवार के रूप में ले आये हैं - यह सुमित गर्ग के लिए खतरे की ऊँची आवाज वाली घंटी बजने जैसी बात है ।
मौजूदा काउंसिल के सदस्य दीपक गर्ग की बदनामी उनके प्रोफेशनल पार्टनर प्रदीप कौशिक की उम्मीदवारी के लिए संकट बनी हुई है । दीपक गर्ग मौजूदा काउंसिल में पहले वर्ष चेयरमैन बने थे, और छह महीने में इस्तीफा दे चुके थे ।दीपक गर्ग इस मायने में खुशकिस्मत रहे कि जब तक राकेश मक्कड़-नितिन कँवर-राजिंदर अरोड़ा की तिकड़ी की कारस्तानियाँ जगजाहिर होतीं और लोगों के बीच बदनामी कमातीं, तब तक दीपक गर्ग चेयरमैनी करके और इस्तीफा देकर सत्ता की सीधी राजनीति से अलग हो चुके थे, जिस कारण सत्ता खेमे पर लगी बदनामी की कालिख से काफी हद तक वह बचे रह सके । लेकिन चेयरमैनी से छह महीने में इस्तीफा देने की उनकी कार्रवाई ने फरीदाबाद के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को बुरी तरह निराश व नाराज किया - और उन्हें 'भगौड़े' की संज्ञा दी । फरीदाबाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की निराशा व नाराजगी का कारण यह रहा कि रीजनल काउंसिल के अभी तक के इतिहास में फरीदाबाद को पहली बार चेयरमैन का पद मिला, लेकिन दीपक गर्ग ने पता नहीं किसकी और किस राजनीति की 'गुलामी' करते हुए छह महीने में उसे छोड़ दिया - और इस तरह फरीदाबाद की इच्छाओं व उम्मीदों के साथ-साथ उसकी पहचान के साथ भी विश्वासघात किया । अपने विश्वासघात की सजा पाने से दीपक गर्ग तो बच गए हैं, लेकिन उनके प्रोफेशनल पार्टनर प्रदीप कौशिक उनके किए-धरे की सजा भुगतने के लिए शिकार बन रहे हैं । फरीदाबाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच यह चर्चा आम है कि जिस तरह से दीपक गर्ग ने फरीदाबाद की इच्छाओं व उम्मीदों के साथ-साथ उसकी पहचान के विश्वासघात किया है, वैसा ही विश्वासघात प्रदीप कौशिक नहीं करेंगे - और इसलिए उन्हें वोट क्यों दें ? काउंसिल सदस्यों की कारस्तानियाँ और उनके छूटते समर्थन ने जिस तरह उनकी (या उनके पार्टनर की) काउंसिल में पुनर्वापसी की राह को मुश्किल बना दिया है, उसके चलते नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प हो गया है ।