Tuesday, August 18, 2015

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के चुनाव - यानि फुल ड्रामा; उर्फ़ अभी तो पार्टी शुरू हुई है

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के चुनाव के लिए उम्मीदवारों ने कमर पूरी तरह कस ली है, और उनमें कइयों तथा उनके समर्थकों व शुभचिंतकों की हरकतों ने सी ग्रेड हिंदी फिल्मों का सा नजारा पेश किया हुआ है । इस नजारे में गीत/संगीत की महफिलें हैं, देशभक्ति के नारे हैं, डबल मीनिंग डायलॉग हैं, हिंसा उकसाने वाली परिस्थितियाँ हैं, माँ-बहन की गालियाँ हैं, फैमिली शो है, मजबूरियाँ हैं, लाचारियाँ हैं - यानि कुल मिलाकर यहाँ हर वह मसाला मौजूद है, जिसे किसी सीग्रेड मुंबईया फिल्म को कामयाब बनाने के लिए जरूरी समझा जाता है ।  
डांस पार्टियों के जरिए युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को लुभाने वाले विजय गुप्ता एक बार फिर अपने इसी फार्मूले को आजमाने निकल पड़े हैं, और उन्होंने तरह-तरह के बहानों से गीत-संगीत की महफिलों को सजाना शुरू कर दिया है । राजीव सिंह ने वोट माँगते हुए 'गाँधी जी की जय', 'नेहरू जी की जय' का उद्घोष करके चुनावी ड्रामे में देशभक्ति का डोज डाल दिया है । योगिता आनंद ने डबल मीनिंग वाला डायलॉग - 'आप को दूसरे तरीके से समझाना पड़ेगा' बोल कर माहौल में खासी गर्मी पैदा कर दी है । डबल मीनिंग वाले डायलॉग का फायदा यही होता है कि दूसरे लोग अपने अपने नजरिए से उसका अर्थ लगाते हैं । योगिता आनंद ने यह डायलॉग जिन प्रदीप महापात्रा से बोला, वह प्रदीप महापात्रा तो इस बात को धमकी के रूप में ले रहे हैं; किंतु योगिता आनंद के शुभचिंतक लग रहे सुनील अरोड़ा उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि नहीं, यह धमकी नहीं है । सुनील अरोड़ा को लोग यूँ तो नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के सेक्रेटरी राजेश कुमार अग्रवाल के पार्टनर के रूप में जानते/पहचानते हैं, लेकिन उनका आग्रह यह रहता है कि उन्हें 'कपड़े फाड़ देने वाले' के रूप में जाना/पहचाना जाए । योगिता आनंद का पक्ष लेते हुए सुनील अरोड़ा ने प्रदीप महापात्रा को फोन करके जो धमकी दी, और जिसमें उन्होंने सुधीर कत्याल को भी शामिल कर लिया - वह पूरी बातचीत किसी सी ग्रेड फिल्म को सफल बनाने के लिए अपनाया जाने वाला पिता/पिटाया फार्मूला है । करीब साढ़े सोलह मिनट की इस टेलीफोनिक बातचीत में सुनील अरोड़ा बात तो मर्यादा की और महिलाओं की इज्जत की करते हैं -  लेकिन 'तुम मुझे जानते नहीं हो, मैं कपड़े फाड़ देता हूँ' जैसे संवाद बार बार बोलते हैं और माँ-बहन की ऐसी गालियाँ निकालते हैं, जिन्हें यहाँ लिखा जाना संभव नहीं है । माँ-बहन की गालियाँ निकालते हुए माँ-बहनों की इज्जत की और मर्यादा की फिक्र करने का वाकया चार्टर्ड एकाउंटेंट इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य को सचमुच रोमांचपूर्ण बना देता है । इसे अतिथि भूमिका में आए सुधीर कत्याल और तनावपूर्ण बना देते हैं, जब वह सुनील अरोड़ा को ही 'चोरों का साथ देने वाला' और 'लुच्चा' ठहरा देते हैं । 
ऐसा न समझा जाए कि इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य में सिर्फ गालियाँ व धमकियाँ ही हैं - यहाँ पारिवारिक मिलन के पवित्र भावनात्मक दृश्य भी है, जिन्हें प्रस्तुत करने का श्रेय अतुल गुप्ता को है । अतुल गुप्ता ने महीन किस्म की होशियारी दिखाते हुए अपनी वैवाहिक वर्षगाँठ के दिन अपनी कमेटी का एक आधिकारिक कार्यक्रम तय कर लिया, जिसे शाम/रात को अपनी पत्नी को शामिल करके अपनी वैवाहिक वर्षगाँठ की पार्टी के रूप में कन्वर्ट कर लिया और लोगों को एक सुखद पारिवारिक माहौल वाली फीलिंग दी । चर्चा रही कि पार्टी में मौजूद कुछेक लोगों ने आहें भी भरी कि काश वह भी इस्टीट्यूट की किसी कमेटी के चेयरमैन होते, तो वह भी इंस्टीट्यूट के पैसे पर अपनी वैवाहिक वर्षगाँठ की पार्टी दे पाते । पर सब की किस्मत अतुल गुप्ता जैसी थोड़े ही होती है ! ग्लैमर और रोमांच से भरपूर इन दृश्यों के बीच मजबूरियों वाले सीन भी हैं, जिनमें पैसों की कमी का वास्ता देकर बंद कर दी गई इंस्टीट्यूट की फरीदाबाद ब्रांच की लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर पढ़ने को मजबूर बच्चे दिखाई दे रहे हैं - जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है । जिस फरीदाबाद ब्रांच के एक्सऑफिसो सदस्य विजय गुप्ता सेमीनारों के नाम पर इंस्टीट्यूट का पैसा पानी की तरह बहा रहे हों और ब्रांच के चेयरमैन के चुनाव में अपने वोट का इस्तेमाल करते रहे हों, उस फरीदाबाद ब्रांच में पैसों की कमी के चलते लाइब्रेरी बंद हो जाती है और विजय गुप्ता के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती है, और बच्चे परेशानी उठाने के लिए मजबूर होते हैं ।
मुंबईया हिंदी फिल्म जिस तरह एक लाचार बूढ़ी माँ या लाचार बूढ़े बाप के बिना पूरी नहीं होती है, तो उसी तर्ज पर यहाँ - इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य में लाचारी वाला रोल निभाने के लिए इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष मनोज फडनिस हैं, जो एक कुशल अभिनेता की तरह अपनी 'लाचारी' वाली भूमिका को बड़ी खूबी से निभाते 'दिख' रहे हैं ।    
इंस्टीट्यूट के चुनावी परिदृश्य ने अभी जो सीन दिखाए हैं, उनसे आभास मिलता है कि जैसे जैसे चुनाव की गर्मी और बढ़ेगी, वैसे वैसे ड्रामा और ज्यादा दिलचस्प होता जायेगा - क्योंकि 'अभी तो पार्टी शुरू हुई है ।'