पुणे । यशवंत कसार ने वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी को वापस लेकर लोगों को उससे ज्यादा चौंकाया है, जितना कि उन्होंने अपनी उम्मीदवारी को प्रस्तुत करके चौंकाया था । यशवंत कसार की उम्मीदवारी की प्रस्तुति और फिर अब अचानक तरीके से हुई उसकी वापसी ने पुणे में लोगों को चर्चा का मौका इसलिए दिया - क्योंकि दोनों ही 'फैसलों' के पीछे सेंट्रल काउंसिल के सदस्य एसबी जावरे को ही देखा/पहचाना जा रहा है । पुणे में लोगों ने इस बात पर भी बहुत माथापच्ची की कि एसबी जावरे ने आखिर क्या सोच कर यशवंत कसार को रीजनल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बनवाया, और अब लोगों के बीच यह सवाल चर्चा में है कि एसबी जावरे ने आखिर क्यों रीजनल काउंसिल के लिए प्रस्तुत यशवंत कसार की उम्मीदवारी को वापस करा दिया ? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं और चर्चा में हैं क्योंकि चुनावी संदर्भ में न तो एसबी जावरे के सामने जीतने की समस्या है, और न यशवंत कसार के लिए जीतना कोई बड़ी चुनौती थी । उनके विरोधी भी मानते और कहते हैं कि एसबी जावरे यदि घर भी बैठ जाएँ तो भी चुनाव जीत जायेंगे, और यशवंत कसार को भी वह आसानी से चुनाव जितवा लेंगे । तब फिर एसबी जावरे को इतनी नाटक-नौटंकी करने की जरूरत आखिर क्यों पड़ी ? इस 'क्यों' 'क्यों' 'क्यों' का कोई आधिकारिक जबाव लोगों को न तो मिला है, और न ही कभी मिलेगा; इसलिए सारा माजरा 'बिटविन द लाइंस' में ही समझना होगा और इसी कारण से पुणे में चर्चाओं का बाजार खासा गर्म है ।
पुणे में बहुत से लोगों का मानना और कहना है कि एसबी जावरे ने यशवंत कसार की उम्मीदवारी के जरिए दरअसल कई 'काम' करने चाहे थे - उन्होंने एक तरफ तो सर्वेश जोशी और अंबरीश वैद्य के पर कतरने की 'फील्डिंग' लगाई थी, और दूसरी तरफ रीजनल काउंसिल में अपना सीधा दखल रखने/बनाने का मौका देखा था । सर्वेश जोशी के पिछली बार के बहुत से समर्थक चूँकि साथ छोड़ गए हैं, इसलिए उनके सामने इस बार अपनी सीट बचाने की गंभीर चुनौती वैसे ही है; ऐसे में एसबी जावरे को लगा कि यशवंत कसार की उम्मीदवारी के जरिए वह सर्वेश जोशी की संभावनाओं को और धक्का देंगे, तथा सर्वेश जोशी को निपटाने का श्रेय ले लेंगे । इससे पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में उनकी 'चौधराहट' और बढ़ेगी । यशवंत कसार के जरिए लेकिन एसबी जावरे ने मुख्य रूप से अंबरीश वैद्य का शिकार करने की योजना बनाई थी । उल्लेखनीय है कि अंबरीश वैद्य को पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में एक बड़ी संभावना के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । माना जा रहा है कि रीजनल काउंसिल के चुनाव में उन्हें काफी वोट मिलेंगे, और पुणे ब्रांच के चुनाव के नतीजे को दोहराते हुए वह एक खासी बड़ी जीत प्राप्त करेंगे । एसबी जावरे को इससे तो कोई समस्या नहीं है; किंतु उनकी चिंता इस आशंका से है कि अगली बार यशवंत वैद्य सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवार बनेंगे । एसबी जावरे की तरफ से सेंट्रल काउंसिल के लिए अगली बार शेखर चितले की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने की चर्चा है । अगली बार अंबरीश वैद्य कोई चुनौती खड़ी न कर सकें, इसके लिए एसबी जावरे को अंबरीश वैद्य के पर अभी से कतर देना जरूरी लगा ।
इसके लिए एसबी जावरे ने यशवंत कसार को मोहरा बनाया । उन्हें उम्मीद रही कि पुणे ब्रांच के चेयरमैन के रूप में यशवंत कसार युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वोट लेकर अंबरीश वैद्य को नुकसान पहुँचायेंगे । यशवंत कसार की उम्मीदवारी के चलते अंबरीश वैद्य चुनाव हार जायेंगे, यह उम्मीद तो एसबी जावरे को नहीं रही; लेकिन यह विश्वास उन्हें जरूर रहा कि यशवंत कसार की उम्मीदवारी के चलते अंबरीश वैद्य के वोट कम जरूर होंगे । एसबी जावरे का यही उद्देश्य भी था । उनका आकलन रहा कि रीजनल काउंसिल के चुनाव में अंबरीश वैद्य को यदि ज्यादा बड़ी जीत प्राप्त करने से रोका जा सका, तो पुणे की इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अंबरीश वैद्य का जो ऑरा बना हुआ है, उसे मिटाया जा सकेगा - और उससे पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति पर अपनी पकड़ को यथावत भी बनाया रखा जा सकेगा । एसबी जावरे को विश्वास रहा कि इस सबके चलते पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अंबरीश वैद्य उनके लिए आगे कभी बड़ी चुनौती भी नहीं बन पायेंगे । समझा जाता है कि पुणे में इंस्टीट्यूट की भविष्य की राजनीति की बागडोर को अपने हाथों में सुरक्षित करने के लिए ही एसबी जावरे को अंबरीश वैद्य को अभी से घेरना जरूरी लगा, और इसके लिए ही उन्होंने यशवंत कसार को मोहरा बनाया ।
संजय पवार की सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत उम्मीदवारी ने लेकिन एसबी जावरे की दूसरों की राजनीतिक घेराबंदी करने की 'तैयारी' की हवा निकाल दी । समझा जाता है कि संजय पवार की उम्मीदवारी के जरिए सर्वेश जोशी ने एसबी जावरे को उन्हीं की 'तरकीब' से जबाव देने का प्रयास किया । संजय पवार की उम्मीदवारी से एसबी जावरे की जीत पर तो कोई संकट आया नहीं दिखता है, लेकिन उनके वोटों की संख्या लोगों को अवश्य घटती हुई नजर आ रही है । संजय पवार की उम्मीदवारी से एसबी जावरे को बड़ी चुनौती मिलती भले ही न दिख रही हो - लेकिन संजय पवार की उम्मीदवारी से एसबी जावरे को एक दूसरा बड़ा संकट सामने खड़ा जरूर दिखाई दिया । यह संकट जातीय ध्रुवीकरण से पैदा हो सकने वाली स्थिति का है । चार्टर्ड एकाउंटेंट जैसे प्रोफेशन में जातीय गोलबंदी की कोई भूमिका होनी तो नहीं चाहिए, लेकिन चुनावी खिलाड़ियों द्वारा सफलता के फार्मूले बनाने में जिस तरह जाति का सहारा लिया जाता है, उससे इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में जातीय गोलबंदी की महत्वपूर्ण भूमिका बन गई है । एसबी जावरे ने जिस तरह यशवंत कसार को आगे किया, और उनसे 'निपटने' के लिए जिस तरह संजय पवार आगे आए या किए गए - उससे पुणे के गैर मराठा लोगों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई । इन तीनों के मराठा होने के कारण गैर मराठा लोगों को लगा कि पुणे में इंस्टीट्यूट की राजनीति क्या सिर्फ मराठा ही करेंगे ? गैर मराठा लोगों के बीच उठे इस सवाल से पैदा हो सकने वाले खतरे को एसबी जावरे ने समय रहते भाँप लिया और तुरंत कार्रवाई करते हुए यशवंत कसार की उम्मीदवारी को वापस करवा दिया । पुणे में सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में एसबी जावरे पर एक बड़ा गंभीर आरोप मराठावाद फैलाने का है ।
इसे पुणे ब्रांच में एसबी जावरे द्वारा की गई राजनीति से समझा जा सकता है । पुणे में मराठा वोट मुश्किल से आठ/दस प्रतिशत होंगे, किंतु एसबी जावरे की दिलचस्पीपूर्ण सक्रियता से पुणे ब्रांच की मैनेजमेंट कमेटी में इस बार आठ में से तीन मराठा सदस्य चुन कर आए । इन तीनों को वोट हालाँकि कम मिले - इन तीनों को मिले वोटों का कुल जोड़ अकेले अंबरीश वैद्य को मिले वोटों से कम रहा । इसके बावजूद एसबी जावरे की राजनीति के चलते इनमें से दो ब्रांच के चेयरमैन बने, और इस वर्ष तो पक्षपात इस हद तक हुआ है कि चेयरमैन और वाइस चेयरमैन के पद मराठा सदस्यों के पास हैं । ब्रांच के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वाले तीन गैर मराठा सदस्यों में से दो को ब्रांच की गतिविधियों में बिलकुल अलग-थलग रखा गया । ब्रांच के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वालों में तीसरे नंबर पर रहीं रेखा धमनकर को पिछली बार चेयरपरसन बनाने के लिए तर्क दिए गए कि उनका ब्रांच में यह दूसरा टर्म है, और उन्हें चेयरपरसन बना कर पुणे में महिला चेयरपरसन बनने/बनाने का इतिहास बनाया जा सकता है - लेकिन एसबी जावरे ने इन तर्कों को यह कह कर खारिज कर दिया कि 'उनकी राजनीति' में रेखा धमनकर के लिए कोई जगह है नहीं । एसबी जावरे की मराठा राजनीति के तहत ही ब्रांच के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वाले अंबरीश वैद्य को तीनों वर्ष पूरी तरह किनारे बैठाए रखा गया ।
पुणे ब्रांच में एसबी जावरे द्वारा की गई इस राजनीति के प्रति गैर मराठा लोगों के बीच नाराजगी के स्वर तो हैं, किंतु वह न तो संगठित हैं और न बहुत मुखर हैं । यशवंत कसार और संजय पवार की अचानक प्रस्तुत हुई उम्मीदवारियों से लेकिन उस नाराजगी के भड़कने का मौका बनता दिखा । संजय पवार की उम्मीदवारी में हालाँकि एसबी जावरे का कोई हाथ नहीं है, किंतु संजय पवार की उम्मीदवारी को चूँकि एसबी जावरे की 'राजनीति' के प्रतिफल के रूप में ही देखा/पहचाना गया है - इसलिए उस नाराजगी का ठीकरा एसबी जावरे के सिर पर फूटने का खतरा नजर आया । एसबी जावरे ने इस खतरे को तुरंत से पहचान लिया, और खतरे को टालने के लिए तुरंत से यशवंत कसार की उम्मीदवारी को वापस कर/करा दिया । एसबी जावरे ने अपनी जान बचाने के लिए यशवंत कसार की उम्मीदवारी की जो बलि ली है, उसने फिलहाल सर्वेश जोशी और अंबरीश वैद्य को बड़ी राहत दी है ।