Thursday, May 15, 2014

रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 3100 में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की अपनी लड़ाई को जारी रखने की दीपक बाबू की 'जिद' के बीच वोटों की ख़रीद-फ़रोख्त के उनके फार्मूले ने दिवाकर अग्रवाल के मुकाबले हारी दिख रही बाजी को दीपक बाबू की झोली में ला दिया

मुरादाबाद । दीपक बाबू ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव जीतने के लिए जो फार्मूला बाकायदा घोषित किया था, वह अंततः कामयाब साबित हुआ । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवार के रूप में दीपक बाबू ने कोई संपर्क अभियान नहीं चलाया; अपनी तरफ से लोगों से संपर्क करना तो दूर की बात थी, लोगों ने उनसे संपर्क करने की कोशिश की तो लोगों की कोशिश तक को भी उन्होंने कोई तवज्जो नहीं दी । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवार हमेशा इस ताक में रहते हैं कि डिस्ट्रिक्ट का कोई आयोजन हो तो वह उसमें सबसे पहले पहुँचे और सबसे अंत तक उस आयोजन में उपस्थित दिखें ताकि वहाँ उन्हें डिस्ट्रिक्ट के लोगों से मिलने का मौका तो मिले ही, साथ ही लोगों को यह 'दिखाने' का अवसर भी मिले कि एक उम्मीदवार के रूप में वह कितने कंसर्न हैं और कितने सक्रिय हैं - लेकिन दीपक बाबू ने ऐसा कोई भी काम नहीं किया । डिस्ट्रिक्ट के कई आयोजनों में तो उन्होंने उपस्थित रहने तक की जरूरत नहीं समझी - डिस्ट्रिक्ट के आयोजनों में दर्ज होने वाली उनकी लंबी अनुपस्थिति के कारण कई बार तो लोगों ने उनकी उम्मीदवारी को लेकर भी संदेह करना शुरू कर दिया था । डिस्ट्रिक्ट के जिन कुछेक आयोजनों में दीपक बाबू उपस्थित भी हुए, वहाँ भी उन्होंने लोगों से मिलने-जुलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । उनके व्यवहार को देख कर लोगों ने - यहाँ तक कि कई पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स तक ने मजाक में कहना शुरू कर दिया था कि दीपक बाबू ने तो अपने आप को गवर्नर मान लिया है और इसीलिए उम्मीदवार होने के बावजूद वह एक उम्मीदवार के रूप में नहीं, बल्कि चुने हुए गवर्नर की तरह व्यवहार कर रहे हैं ।
दीपक बाबू का 'कॉन्फिडेंस लेबल' देख कर उनके समर्थक और उनके नजदीकी तक हैरान थे और फुसफुसाहटों में एक-दूसरे से पूछते थे कि दीपक बाबू आखिर हैं किसके भरोसे ? डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश सिंघल ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के दूसरे उम्मीदवार दिवाकर अग्रवाल के प्रति जिस तरह के विरोध का रवैया अपनाया हुआ था, उससे हर किसी को यह तो महसूस हो रहा था कि दीपक बाबू को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश सिंघल का भरोसा है और राकेश सिंघल ने दाँव भी चला था जिससे दीपक बाबू को बिना चुनाव लड़े ही डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बन जाना था । लेकिन राकेश सिंघल के हथकंडे भी फेल हो रहे थे । राकेश सिंघल के हथकंडे को सफल बनाने के लिए दीपक बाबू की तरफ से रोटरी इंटरनेशनल में आधिकारिक रूप से शिकायत भी दर्ज करवाई गई, किंतु वहाँ से भी दीपक बाबू को कोई मदद नहीं मिली । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के दूसरे उम्मीदवार दिवाकर अग्रवाल को रास्ते से हटाने के लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर राकेश सिंघल द्धारा अपनाये गए हथकंडे फेल हो रहे थे, और रोटरी इंटरनेशनल से मदद पाने की उम्मीदें भी ध्वस्त हो रही थीं - लेकिन फिर भी दीपक बाबू का कॉन्फिडेंस लेबल खासा हाई दिख रहा था । उस सवाल का जबाव लेकिन किसी को नहीं मिल रहा था कि दीपक बाबू आखिर हैं किसके भरोसे ?
मजे की बात यह रही कि दीपक बाबू लोगों को बता रहे थे कि वह किसके भरोसे हैं । किंतु कोई भी उनके भरोसे पर भरोसा ही नहीं कर रहा था ।
दीपक बाबू लोगों को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव जीतने का फार्मूला बता रहे थे । उनका फार्मूला बड़ा सीधा था - वह लोगों को बता रहे थे कि जब चुनाव का समय आयेगा तब क्लब-अध्यक्षों को वह मोटी मोटी रकम ऑफर करेंगे और बदले में उनसे वोट पा लेंगे और इस तरह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी बन जायेंगे । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में वोटों की ख़रीद-फ़रोख्त का यूँ तो पुराना इतिहास है, और कई जीतों में ख़रीद-फ़रोख्त की निर्णायक भूमिका देखी गई है; लेकिन सिर्फ - सिर्फ ख़रीद-फ़रोख्त के भरोसे चुनाव जीतने का भरोसा दीपक बाबू ही दिखा रहे थे । यही कारण था कि किसी को भी उनके इस फार्मूले के सफल होने का विश्वास नहीं था । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में वोटों की ख़रीद-फ़रोख्त की महत्ता से परिचित लोगों का भी मानना और कहना था कि सिर्फ ख़रीद-फ़रोख्त के भरोसे चुनाव जीतने की उम्मीद करना गले नहीं उतर रहा है ।
दीपक बाबू की चुनावी जीत ने लेकिन साबित कर दिया है कि उनका फार्मूला अचूक था और डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति का उनका 'अनुभव' आखिरकार उनके काम आया । दीपक बाबू की चुनावी जीत ने साबित कर दिया है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद पाने के लिए डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच काम करने की, लोगों से संपर्क बनाने/रखने की, लोगों को तवज्जो देने की, विभिन्न मौकों पर उनके लिए सुविधाएँ जुटाने की कोई जरूरत नहीं है - चुनाव का जब समय आये तो वोट खरीदने निकल पड़ो : जीत तुम्हारी झोली में खुद-ब-खुद आ गिरेगी ।
बात लेकिन इतनी सीधी-सरल भी नहीं है । दीपक बाबू की जीत को सिर्फ ख़रीद-फ़रोख्त से मिली जीत मानना दीपक बाबू के साथ अन्याय करना भी होगा । दीपक बाबू की एक बात के लिए तो तारीफ की ही जानी चाहिए कि तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद वह मैदान में लगातार डटे रहे । चुनाव उन्होंने अपने 'तरीके' से लड़ा; उनकी तरकीबें लगातार फेल होती जा रही थीं और उनके समर्थकों के बीच ही सवाल उठ रहे थे कि दीपक बाबू आखिर क्यों अपनी फजीहत कराने पर तुले हुए हैं - लेकिन दीपक बाबू कभी भी मैदान छोड़ते हुए नहीं 'दिखे' । दीपक बाबू अपने जिस फार्मूले के भरोसे जीतने का दावा कर रहे थे, उनके उस दावे पर दूसरों को तो छोड़िये - खुद दीपक बाबू को भरोसा नहीं हो पा रहा था । अपने फार्मूले पर दीपक बाबू को यदि सचमुच पूरा भरोसा होता तो ठीक चुनावी प्रक्रिया के बीच में वह प्रतिद्धंद्धी उम्मीदवार दिवाकर अग्रवाल की उम्मीदवारी को निरस्त करवाने के लिए रोटरी इंटरनेशनल की और ऊँची 'अदालत' में तीन हजार डॉलर की मोटी फीस देकर शिकायत दर्ज नहीं करवाते । ठीक चुनावी प्रक्रिया के बीच में उन्होंने शिकायत दर्ज करवाई, इससे जाहिर है कि उन्हें भी अपने 'फार्मूले' के सफल होने को लेकर संदेह था । शिकायत दर्ज करवाने की उनकी कार्रवाई से केवल एक बात साबित होती है और वह यह कि चुनावी नतीजा प्रतिकूल आने के बाद भी वह लड़ाई को जारी रखने की तैयारी कर रहे थे । तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपनी लड़ाई को जारी रखने की दीपक बाबू की इस 'जिद' को नोट किया जाना चाहिए और उन्हें मिली चुनावी जीत में उनकी इस 'जिद' की भूमिका को समझना/पहचानना चाहिए ।
दीपक बाबू की इस जिद ने दरअसल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की चुनावी प्रक्रिया को खासा लंबा करने का काम किया, जिसने लगता है कि दिवाकर अग्रवाल और उनकी टीम के सदस्यों को थका दिया और जिसके चलते चुनाव के आख़िरी दिनों में होने वाले उलट-फेर को काबू में करने के लिए जरूरी तैयारी करने में वह चूक गए और जिसके नतीजे के रूप में जीती-जिताई समझी जा रही बाजी दिवाकर अग्रवाल अंततः दीपक बाबू से हार गए ।