Thursday, September 15, 2016

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल पस्त है, उसके पदाधिकारी लेकिन मस्त हैं

नई दिल्ली । किसी के घर में आग लगी हुई हो और या घर पर कब्ज़ा करने के लिए दूसरे लोग जबर्दस्ती आ पहुँचे हुए हों - और घर के सदस्य सेल्फी लेने में व्यस्त हों, तो उन्हें आप क्या कहेंगे ? नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में आजकल ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है । 44 हजार से अधिक चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सदस्यों वाली 66 वर्षीय नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल इस समय अभूतपूर्व संकट में है, लेकिन काउंसिल के पदाधिकारियों और सदस्यों के बीच इस संकट को लेकर न तो चिंता/परेशानी है और न ही संकट को लेकर किसी भी तरह का कोई विचार-विमर्श है । पदाधिकारियों और सदस्यों का व्यवहार देख कर ऐसा लग रहा है, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं है । वह सेल्फियाँ खींचने में मस्त और व्यस्त हैं - जैसे कि इन्हें इसी काम के लिए चुना गया है । पदाधिकारियों व सदस्यों को तो छोड़िए, जो लोग नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में पदाधिकारी व सदस्य होने की हसरत रखते हैं, वह भी गर्दन जमीन में घुसा कर बगुला बने हुए हैं । उल्लेखनीय है कि पिछले दिसंबर में हुए चुनाव में नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए 58 उम्मीदवार थे; उनमें से जो कामयाब नहीं हुए - उनमें से कुछेक अगले चुनाव में उम्मीदवार बनने की तैयारी में लगे हुए हैं; लेकिन रीजनल काउंसिल को जिस संकट ने घेरा हुआ है, उसे लेकर सभी के मुँह पर जैसे ताले लगे हुए हैं । यह बात इसलिए गंभीर है - क्योंकि मौजूदा संकट ने वास्तव में नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के अधिकारों और उसकी स्वायत्तता व उसकी पहचान पर सवाल खड़े कर दिए हैं ।
नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के मौजूदा संकट को पहचानने/समझने के लिए जो तथ्य रिकॉर्ड पर हैं, सिर्फ उन्हें देखना ही काफी होगा : रीजनल काउंसिल के चेयरमैन दीपक गर्ग ने इंस्टीट्यूट प्रशासन पर सहयोग न करने के आरोप लगाते हुए चेयरमैन पद से इस्तीफ़ा दे दिया । उनका तर्क रहा कि इंस्टीट्यूट प्रशासन के सहयोग न करने के कारण चेयरमैन पद की जिम्मेदारियों का निर्वाह कर पाना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव है । होना यह चाहिए था कि रीजनल काउंसिल के बाकी पदाधिकारियों व सदस्यों को तथा आगे आने वाले चुनाव में उम्मीदवार होने की इच्छा रखने व तैयारी करने वाले लोगों को - और उनके गॉडफादर की भूमिका निभाने वाले लोगों को दीपक गर्ग के आरोपों को आधार बना कर इंस्टीट्यूट प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाना चाहिए था । इंस्टीट्यूट प्रशासन नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के साथ कोई नाइंसाफी न करे, इसे लेकर सार्वजनिक रूप से चर्चा करना चाहिए थी । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । इसके बाद, इंस्टीट्यूट प्रशासन ने रीजनल काउंसिल के पदाधिकारियों को निर्देश दिया कि वह अपनी मीटिंग में चेयरमैन के इस्तीफे को लेकर कोई बात नहीं करेंगे; और चेयरमैन के इस्तीफे के बाद रीजनल काउंसिल में क्या होगा, इसे 'हम' तय करेंगे - रीजनल काउंसिल के पदाधिकारियों तथा पक्ष-विपक्ष के सदस्यों ने इस मामले में भी समर्पण कर दिया । रीजनल काउंसिल के पदाधिकारियों तथा सदस्यों ने तो समर्पण किया ही; रीजनल काउंसिल में आने की इच्छा रखने तथा तैयारी करने वाले लोगों ने भी मुँह पर ताले लगा लिए हैं ।
मजेदार सीन यह है कि सोशल मीडिया में बड़ी बड़ी बातें करने/हाँकने - तथा अपनी जागरूकता, अपनी बहादुरी, अपनी नेतागिरी जताने/दिखाने वाले लोगों ने भी इस मामले में चुप्पी साधी हुई है । सबसे ज्यादा नाटकीय और बेचारी हालत सेंट्रल काउंसिल सदस्य राजेश शर्मा की हुई । दीपक गर्ग के इस्तीफे के साथ जो नाटक शुरू हुआ, उसके स्क्रिप्ट राईटर और निर्देशक के रूप में राजेश शर्मा को ही पहचाना गया है; वह रीजनल काउंसिल की स्वायत्तता को लेकर लोगों के बीच बहुत बढ़-चढ़ कर बातें भी कर रहे थे; लेकिन इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट देवराज रेड्डी ने जैसे ही कोड़ा फटकारा - वह भी मुँह बंद करके बैठ गए । दिल्ली के इन नेताओं से ज्यादा 'बहादुर' तो चंडीगढ़ ब्रांच के पदाधिकारी साबित हुए - जिन्होंने ब्रांच की स्वायत्तता को बचाए रखने के लिए एक स्टैंड लेते हुए इंस्टीट्यूट प्रशासन से टकराने का फैसला तो लिया । आगे जो होगा, सो होगा; अभी तो उन्होंने यह 'दिखाया' है कि उन्होंने जो फैसला किया, उस पर उन्होंने अमल भी किया है । दिल्ली में जो सर्कस हुआ, वह तो अपने आप में अनोखा है - दीपक गर्ग इस्तीफ़ा दे चुके हैं, लेकिन फिर भी इस जुगाड़ में हैं कि किसी भी तरह उनकी चेयरमैनी बच जाए । इस्तीफे से पैदा हुई स्थिति पर विचार के लिए जो मीटिंग बुलाई गई, इंस्टीट्यूट प्रशासन की चेतावनी के बाद उस मीटिंग में इस्तीफे की कोई बात ही नहीं हुई ।
नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के इतिहास में इस तथ्य को कॉमेडी और ट्रेजडी - दोनों रूपों में याद रखा जायेगा कि चेयरमैन के इस्तीफे के बाद हुई काउंसिल की मीटिंग में इस्तीफे पर कोई बात ही नहीं हुई ।
कई लोगों का मानना और कहना है कि इंस्टीट्यूट प्रशासन ने जो किया, वह बिलकुल ठीक किया - अन्यथा दीपक गर्ग के इस्तीफे के जरिए शुरू हुए नाटक के कर्ता-धर्ता रीजनल काउंसिल को अपनी मनमानियाँ करने/थोपने का अड्डा बना लेते । मजे की बात यह है कि ऐसा मानने/कहने वाले लोगों ने भी इशारों और फुसफुसाहटों के रूप में ही अपना मत व्यक्त किया है, और उनकी भी बातें कहीं रिकॉर्ड पर नहीं आईं हैं । किसने सही किया, और किसने गलत किया - यह बातें यदि रिकॉर्ड पर नहीं आतीं हैं, तो क्या यह समझा जाए कि नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के पदाधिकारी तथा पक्ष-विपक्ष के सदस्य और अगली बार 'यहाँ' आने की तैयारी करने वाले लोग सिर्फ कठपुतलियाँ हैं; जो मुसीबत के समय भी मस्त रहेंगे और सिर्फ सेल्फियाँ खींचने का काम करेंगे ।