नई दिल्ली । दीपक गर्ग की हरकतों ने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के उन सदस्यों - खासकर सत्ता गिरोह के उन सदस्यों को खासी मुसीबत में फँसा दिया है, जिन्हें अगला चुनाव भी लड़ना है । दरअसल
चेयरमैन के पद से इस्तीफ़ा देने के बाद भी दीपक गर्ग जिस बेशर्मी और
निर्लज्जता के साथ चेयरमैन पद के फायदे उठा रहे हैं - और बाकी सदस्य या तो
गिरोहबंदी के कारण और या स्वार्थपूर्ण चुप्पी के कारण उन्हें फायदे उठाने
दे रहे हैं, उसके कारण उनकी तथा रीजनल काउंसिल के सदस्यों की लोगों के बीच
भारी फजीहत हो रही है । लोगों का कहना है कि दीपक गर्ग जब अपने पद से
इस्तीफ़ा दे चुके हैं, तब फिर वह चेयरमैन पद की भूमिका निभाते हुए उसके
फायदे क्यों ले रहे हैं - और काउंसिल के दूसरे सदस्य उन्हें फायदा क्यों
उठाने दे रहे हैं ? यह ठीक है कि दीपक गर्ग का इस्तीफ़ा अभी मंजूर नहीं
हुआ है, इसलिए तकनीकी रूप से वह अभी भी चेयरमैन 'हैं' - लेकिन 'इस्तीफित'
दीपक गर्ग से आधिकारिक रूप से यह भी तो नहीं कहा गया है कि उनके इस्तीफे पर
जब तक अंतिम रूप से फैसला न लिया जाए, तब तक वह चेयरमैन पद की
जिम्मेदारियाँ निभाते रहें और उसके फायदे उठाते रहें । नैतिकता के तकाजे
के तहत चलन यह है कि जब भी कोई पदाधिकारी अपने पद से इस्तीफ़ा देता है, तो
वह इस्तीफे के साथ-साथ मिलने वाली सुविधाओं और पद की जिम्मेदारियों को
निभाना भी छोड़ देता है । हाँ, यदि उससे कहा जाता है कि अगली व्यवस्था होने
तक वह पद की जिम्मेदारियाँ पहले की ही तरह निभाता रहे, तो फिर बात दूसरी हो जाती है ।
दीपक गर्ग के साथ लेकिन यह दूसरी वाली स्थिति तो आई ही नहीं । स्थिति यह है कि दीपक गर्ग ने इंस्टीट्यूट प्रशासन के असहयोगात्मक रवैए का हवाला देते हुए चेयरमैन के रूप में काम कर सकने में असमर्थता व्यक्त करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया - उनके इस्तीफे पर जिस भी अथॉरिटी को फैसला करना है, उसने अभी फैसला नहीं किया है । नैतिकता का तकाजा यह कहता है कि दीपक गर्ग को इस्तीफ़ा देते ही चेयरमैन पद की जिम्मेदारियों तथा फायदों को छोड़ देना चाहिए था - किंतु दीपक गर्ग से नैतिक व्यवहार की उम्मीद शायद वही कर सकता है, जो उन्हें जानता नहीं है । दिलचस्प नजारा है कि दीपक गर्ग इस्तीफ़ा देने के बाद भी पूरी बेशर्मी और निर्लज्जता के साथ चेयरमैन पद से चिपके हुए हैं । दीपक गर्ग ने अपने इस्तीफे में लिखा/कहा है कि उनके लिए चेयरमैन पद की जिम्मेदारियों को निभा पाना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव हो रहा है - और इसीलिए वह इस्तीफ़ा दे रहे हैं । सवाल यही है कि एक तरफ तो वह घोषणा कर रहे हैं कि चेयरमैन पद की जिम्मेदारियों को निभा पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा है, और दूसरी तरफ वह दीमक की तरह चेयरमैन पद से चिपके हुए भी हैं । दीपक गर्ग लेकिन खुशकिस्मत हैं कि उनकी इस बेशर्मी और निर्लज्जता के लिए लोगों के बीच उनकी चाहें जैसी जो थू थू हो रही हो, रीजनल काउंसिल में कोई भी उनकी इस बेशर्मी और निर्लज्जता पर सवाल नहीं उठा रहा है ।
दीपक गर्ग की इस खुशकिस्मती में लेकिन रीजनल काउंसिल के उन सदस्यों को - खासकर सत्ता गिरोह के उन सदस्यों को अपनी मुसीबत नज़र आ रही है, जिन्हें अगला चुनाव भी लड़ना है । दीपक गर्ग के इस्तीफे के जरिए हो रहे नाटक को लेकर लोगों के बीच जो नाराजगी है, जाहिर है कि वह चुनावों के समय सवालों के रूप में सामने आएगी और लोग उनसे पूछेंगे ही कि दीपक गर्ग की बेशर्मी और निर्लज्जता का समर्थन करने के पीछे आखिर उनका क्या स्वार्थ था ? मजे की बात यह है कि दीपक गर्ग इस सारे झमेले से मुक्त हैं : दरअसल उन्हें तो अगला चुनाव लड़ना नहीं है, इसलिए उनके लिए तो लोगों की नाराजगी और उनके सवालों का सामना करने की कोई भी स्थिति बनेगी नहीं । कुछेक लोग दीपक गर्ग को हालाँकि सेंट्रल काउंसिल के लिए तैयारी करने के लिए उकसा रहे हैं, लेकिन दीपक गर्ग के नजदीकियों का कहना है कि सेंट्रल काउंसिल के बारे में सोचना दीपक गर्ग की क्षमता में नहीं है । रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में उनके कामकाज और अभी के इस्तीफ़ा-नाटक को देखते हुए तो उनके नजदीकियों ने उनके राजनीतिक सफ़र के अंत की घोषणा भी कर दी है । वास्तव में इसीलिए दीपक गर्ग को अपनी हरकतों के चलते लोगों के बीच पैदा हुई नाराजगी की कोई फ़िक्र नहीं है ।
दीपक गर्ग को अपनी फ़िक्र भले ही न हो, किंतु रीजनल काउंसिल में उनके संगी-साथियों को अपनी अपनी फ़िक्र जरूर होने लगी है । दरअसल नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में जो नाटक चल रहा है, उसके मुख्य 'हीरो' भले ही दीपक गर्ग हों - लेकिन सत्ता गिरोह के दूसरे सदस्य भी साईड हीरो की भूमिका निभाते हुए दीपक गर्ग की भूमिका को सपोर्ट करते हुए नजर आ रहे हैं । जाहिर तौर पर लोगों की नाराजगी का ठीकरा उनके सिर पर भी फूटेगा । जो लोग चेयरमैन बन कर चुनावी चक्कर से बाहर निकल जायेंगे और या अन्य किसी कारण से चुनावी पचड़े में नहीं पड़ेंगे, उनके लिए तो समस्या नहीं है - किंतु जिन्हें अगले चुनाव में लोगों के बीच जाना होगा, उन्हें तो लोगों के सवालों का जबाव देना ही होगा न कि छह छह महीने की चेयरमैनी पाने के लिए रचे गए नाटक में उन्होंने इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट तक को क्यों घसीट लिया ? और इस तरह अपनी हरकत से न सिर्फ कामकाज पर प्रतिकूल असर डाला बल्कि इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन को भी बदनाम किया । रीजनल काउंसिल में सत्ता गिरोह के सदस्य सेंट्रल काउंसिल के सदस्य राजेश शर्मा के रवैए को लेकर भी निराश हैं, जिन्होंने पहले तो छह छह महीने की चेयरमैनी का लालच दिखा कर उनसे नाटक करवा लिया, लेकिन अब जब नाटक संकट में फँस गया तो उन्हें फजीहत और बदनामी के बीच मँझदार में छोड़ कर किनारे खड़े हो कर तमाशा देखने लगे हैं ।
दीपक गर्ग के साथ लेकिन यह दूसरी वाली स्थिति तो आई ही नहीं । स्थिति यह है कि दीपक गर्ग ने इंस्टीट्यूट प्रशासन के असहयोगात्मक रवैए का हवाला देते हुए चेयरमैन के रूप में काम कर सकने में असमर्थता व्यक्त करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया - उनके इस्तीफे पर जिस भी अथॉरिटी को फैसला करना है, उसने अभी फैसला नहीं किया है । नैतिकता का तकाजा यह कहता है कि दीपक गर्ग को इस्तीफ़ा देते ही चेयरमैन पद की जिम्मेदारियों तथा फायदों को छोड़ देना चाहिए था - किंतु दीपक गर्ग से नैतिक व्यवहार की उम्मीद शायद वही कर सकता है, जो उन्हें जानता नहीं है । दिलचस्प नजारा है कि दीपक गर्ग इस्तीफ़ा देने के बाद भी पूरी बेशर्मी और निर्लज्जता के साथ चेयरमैन पद से चिपके हुए हैं । दीपक गर्ग ने अपने इस्तीफे में लिखा/कहा है कि उनके लिए चेयरमैन पद की जिम्मेदारियों को निभा पाना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव हो रहा है - और इसीलिए वह इस्तीफ़ा दे रहे हैं । सवाल यही है कि एक तरफ तो वह घोषणा कर रहे हैं कि चेयरमैन पद की जिम्मेदारियों को निभा पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा है, और दूसरी तरफ वह दीमक की तरह चेयरमैन पद से चिपके हुए भी हैं । दीपक गर्ग लेकिन खुशकिस्मत हैं कि उनकी इस बेशर्मी और निर्लज्जता के लिए लोगों के बीच उनकी चाहें जैसी जो थू थू हो रही हो, रीजनल काउंसिल में कोई भी उनकी इस बेशर्मी और निर्लज्जता पर सवाल नहीं उठा रहा है ।
दीपक गर्ग की इस खुशकिस्मती में लेकिन रीजनल काउंसिल के उन सदस्यों को - खासकर सत्ता गिरोह के उन सदस्यों को अपनी मुसीबत नज़र आ रही है, जिन्हें अगला चुनाव भी लड़ना है । दीपक गर्ग के इस्तीफे के जरिए हो रहे नाटक को लेकर लोगों के बीच जो नाराजगी है, जाहिर है कि वह चुनावों के समय सवालों के रूप में सामने आएगी और लोग उनसे पूछेंगे ही कि दीपक गर्ग की बेशर्मी और निर्लज्जता का समर्थन करने के पीछे आखिर उनका क्या स्वार्थ था ? मजे की बात यह है कि दीपक गर्ग इस सारे झमेले से मुक्त हैं : दरअसल उन्हें तो अगला चुनाव लड़ना नहीं है, इसलिए उनके लिए तो लोगों की नाराजगी और उनके सवालों का सामना करने की कोई भी स्थिति बनेगी नहीं । कुछेक लोग दीपक गर्ग को हालाँकि सेंट्रल काउंसिल के लिए तैयारी करने के लिए उकसा रहे हैं, लेकिन दीपक गर्ग के नजदीकियों का कहना है कि सेंट्रल काउंसिल के बारे में सोचना दीपक गर्ग की क्षमता में नहीं है । रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के रूप में उनके कामकाज और अभी के इस्तीफ़ा-नाटक को देखते हुए तो उनके नजदीकियों ने उनके राजनीतिक सफ़र के अंत की घोषणा भी कर दी है । वास्तव में इसीलिए दीपक गर्ग को अपनी हरकतों के चलते लोगों के बीच पैदा हुई नाराजगी की कोई फ़िक्र नहीं है ।
दीपक गर्ग को अपनी फ़िक्र भले ही न हो, किंतु रीजनल काउंसिल में उनके संगी-साथियों को अपनी अपनी फ़िक्र जरूर होने लगी है । दरअसल नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में जो नाटक चल रहा है, उसके मुख्य 'हीरो' भले ही दीपक गर्ग हों - लेकिन सत्ता गिरोह के दूसरे सदस्य भी साईड हीरो की भूमिका निभाते हुए दीपक गर्ग की भूमिका को सपोर्ट करते हुए नजर आ रहे हैं । जाहिर तौर पर लोगों की नाराजगी का ठीकरा उनके सिर पर भी फूटेगा । जो लोग चेयरमैन बन कर चुनावी चक्कर से बाहर निकल जायेंगे और या अन्य किसी कारण से चुनावी पचड़े में नहीं पड़ेंगे, उनके लिए तो समस्या नहीं है - किंतु जिन्हें अगले चुनाव में लोगों के बीच जाना होगा, उन्हें तो लोगों के सवालों का जबाव देना ही होगा न कि छह छह महीने की चेयरमैनी पाने के लिए रचे गए नाटक में उन्होंने इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट तक को क्यों घसीट लिया ? और इस तरह अपनी हरकत से न सिर्फ कामकाज पर प्रतिकूल असर डाला बल्कि इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन को भी बदनाम किया । रीजनल काउंसिल में सत्ता गिरोह के सदस्य सेंट्रल काउंसिल के सदस्य राजेश शर्मा के रवैए को लेकर भी निराश हैं, जिन्होंने पहले तो छह छह महीने की चेयरमैनी का लालच दिखा कर उनसे नाटक करवा लिया, लेकिन अब जब नाटक संकट में फँस गया तो उन्हें फजीहत और बदनामी के बीच मँझदार में छोड़ कर किनारे खड़े हो कर तमाशा देखने लगे हैं ।