नई
दिल्ली । समर्थक पूर्व गवर्नर नेताओं के पीछे हटने तथा ठंडे पड़ने से संजीव
राय मेहरा की डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद की उम्मीदवारी खतरे में पड़ गई
नजर आ रही है, जिसका फायदा उठाने के लिए सुरेश भसीन तथा रवि दयाल ने कमर तो
कस ली है - किंतु उसके फायदे को लेकर खुद उनके समर्थक भी आश्वस्त नहीं हैं । डिस्ट्रिक्ट
की चुनावी राजनीति के 'पंडितों' का मानना और कहना है कि इस बार का चुनाव
इन दोनों के लिए बहुत ही अनुकूल होने के साथ-साथ महत्वपूर्ण भी है;
महत्वपूर्ण इसलिए भी - कि इनमें से जो भी असफल रहा, उसके लिए गवर्नरी का
रास्ता आगे फिर बंद ही समझो । इस लिहाज से इन दोनों के लिए यह आख़िरी मौका
ही है । सुरेश भसीन और रवि दयाल ने इस बात को शायद खुद भी समझा हुआ है, और
इसलिए अपनी अपनी तरफ से उन्होंने अपना अपना पूरा जोर लगाया हुआ है । हालाँकि
दोनों के 'तौर-तरीकों' को देखते हुए राजनीतिक 'पंडितों' का कहना है कि
दोनों ने ही अपने पिछले अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है, और दोनों ही इस बार
भी वही गलतियाँ दोहरा/तिहरा रहे हैं - जिनके कारण वह अभी तक सफलता से दूर
बने हुए हैं । दोनों ने ही दरअसल इस सच्चाई को या तो समझा/पहचाना नहीं
है, और या समझते/पहचानते हुए भी उसे क्रियान्वित करने की जरूरत नहीं समझी
है - कि किसी भी चुनाव की तरह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में
एक राजनीतिक समीकरण बनता है, और वही उम्मीदवार सफल हो सकने की उम्मीद कर सकता है जो अपने आप को 'उस' राजनीतिक समीकरण का हिस्सा बना लेता है ।
रवि दयाल के साथ पिछले दिनों जो हुआ, उससे इस बात को समझा जा सकता है : रवि दयाल अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से पिछले दिनों फरीदाबाद के कुछेक प्रमुख लोगों से मिले, जिन्होंने एक पूर्व गवर्नर का नाम लेते हुए उनसे कहा कि हम तो 'उनके' कहे अनुसार फैसला करेंगे । यह सुनकर रवि दयाल पलटे और 'उन' पूर्व गवर्नर से मिलने के लिए जुगाड़ बैठाने में लग गए । रवि दयाल 'उन' पूर्व गवर्नर से मिल पाए या नहीं मिल पाए; और यदि मिल पाए तो फिर हुआ क्या - यह तो पता नहीं; किंतु जितना पता है, उससे ही साबित है कि रवि दयाल ने जिस क्रम में सक्रियता दिखाई - उसके कारण ही उन्हें खासी फजीहत का सामना करना पड़ा । रवि दयाल यदि लोगों के बीच बने/सधे राजनीतिक तारों को पहले से ही समझ/पहचान कर आगे बढ़ते तो और जो होता सो होता, उन्हें कम से कम राजनीतिक फजीहत का सामना तो नहीं ही करना पड़ता । यही कहानी सुरेश भसीन के साथ है । सुरेश भसीन एक उम्मीदवार के रूप में यूँ तो काफी सक्रिय हैं, लेकिन इस सक्रियता के बावजूद वह अपना विश्वसनीय समर्थन-आधार यदि नहीं बना पा रहे हैं, तो इसका सीधा सा कारण यही है कि उनकी सक्रियता राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रख कर संयोजित नहीं है ।
इन दोनों की इस दशा पर सटीक बैठती एक कहानी है : एक हष्ट-पुष्ट लकड़हारा लकड़ी के एक व्यापारी के पास काम माँगने गया । उसने व्यापारी को आश्वस्त किया कि वह मेहनत से काम करेगा । व्यापारी ने उसे एक नई कुल्हाड़ी दी और जंगल का पता बता दिया, जहाँ उसे पेड़ काटने थे । लकड़हारे ने बहुत मेहनत से काम किया और शाम तक उसने बीस पेड़ काट दिए । व्यापारी ने उसके काम से खुश होकर उसे मजदूरी के साथ-साथ ईनाम भी दिया । अगले दिन लेकिन वह अठारह पेड़ ही काट पाया । तीसरे दिन उसने और ज्यादा मेहनत से काम किया तथा जरा भी समय बर्बाद नहीं किया, किंतु कटे पेड़ों की संख्या सोलह ही रह गई । कटे पेड़ों की संख्या हर रोज कम होती जा रही थी, हालाँकि लकड़हारा पूरी मेहनत से काम कर रहा था । उसे यह बिलकुल भी समझ नहीं आ रहा था कि गड़बड़ क्या हो रही है ? कटे पेड़ों की संख्या जब छह/आठ रह गई, तब लकड़हारे ने व्यापारी के सामने अपनी व्यथा कही । व्यापारी ने उसकी पूरी बात सुनी और उससे पूछा कि उसने कुल्हाड़ी को धार कब दी थी ? इस कहानी का प्रतीकात्मक संदेश यही है कि सफलता सिर्फ मेहनत से नहीं मिलती है, मेहनत के औजारों की धार की भी सफलता में निर्णायक भूमिका होती है ।
सुरेश भसीन और रवि दयाल की स्थिति भी कहानी के लकड़हारे जैसी ही है : उम्मीदवार के रूप में इन दोनों के लिए स्थितियाँ खासी अनुकूल हैं, अपने चुनाव अभियान को लेकर यह मेहनत भी खूब कर रहे हैं - पर समस्या यह है कि अपनी उम्मीदवारी और अपने चुनाव अभियान में यह कोई 'धार' नहीं दिखा पा रहे हैं । रवि दयाल को फरीदाबाद के मामले में जो फजीहत झेलनी पड़ी, उसका कारण सिर्फ यही है । और इसी वजह से, तमाम मेहनत के बावजूद सुरेश भसीन उस अनुकूल स्थिति का फायदा नहीं उठा पा रहे हैं - जो उनके ठीक सामने है ।
संजीव राय मेहरा एक उम्मीदवार के रूप में लोगों के बीच अपनी स्वीकार्यता बना सकने में जिस तरह से असफल साबित हुए हैं, उससे उनके समर्थक गवर्नर्स को तगड़ा झटका लगा है तथा वह संजीव राय मेहरा की उम्मीदवारी के समर्थन से पीछे हटते नजर आ रहे हैं । उनके समर्थक पूर्व गवर्नर्स हालाँकि इस बात से भी परेशान हैं कि इस स्थिति का फायदा कहीं रवि दयाल को न मिल जाए; रवि दयाल को रोकने के लिए कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने सुरेश भसीन की तरफ 'देखना' शुरू किया है । सुरेश भसीन के लिए यह एक बहुत अनुकूल स्थिति है, लेकिन वह अभी तक यह कोशिश करते हुए नहीं दिखे हैं कि संजीव राय मेहरा से जो राजनीतिक समर्थन छूट रहा है, उसे वह अपनी तरफ कर लें । सुरेश भसीन के एक हमदर्द ने तो बड़ी पते की बात कही - कि सुरेश भसीन को इस बात का शायद अंदाजा भी नहीं है कि डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले लोगों के बीच उन्हें लेकर नकारात्मक भाव ही है । यानि सुरेश भसीन सिर्फ मेहनत पर भरोसा कर रहे हैं, और अपनी उम्मीदवारी तथा अपने अभियान को 'धार' देने की कोई जरूरत वह नहीं समझ रहे हैं ।
सुरेश भसीन की यह कमजोरी रवि दयाल की पूँजी बन सकती है, लेकिन चूँकि उनका भी तरीका सुरेश भसीन जैसा ही है - इसलिए उनकी स्थिति को लेकर खुद उनके हमदर्द ही आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं । रवि दयाल के सामने संकट अलग किस्म का है, और बड़ा है । पूर्व गवर्नर्स का एक बड़ा तबका उनके समर्थन में नहीं है, और कई तो उनके खिलाफ हैं; जो उनके समर्थन में हो सकते थे - उनमें से कई अमरजीत सिंह तथा अतुल गुप्ता की उम्मीदवारी के कारण उनकी उम्मीदवारी के साथ नहीं हैं । उनके कुछेक हमदर्दों का कहना है कि रवि दयाल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्होंने अपनी मेहनत के आधार पर अपने आप को जीता हुआ मान लिया है तथा चुनावी राजनीति के ताने बाने को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है । सुरेश भसीन की तरह रवि दयाल भी वोटर अध्यक्षों से मिली सकारात्मक प्रतिक्रिया से बाग-बाग हैं और अपनी सफलता के प्रति आश्वस्त हैं । कहानी के लकड़हारे की तरह वह आश्वस्त हैं कि उन्हें सहृदय 'मालिक' मिल गए हैं, पेड़ों से लदा-फदा जंगल उनके सामने है और कुल्हाड़ी उनके हाथ में है - लिहाजा सफलता निश्चित ही उनके कदमों में होगी । पर सफलता का रास्ता इतना सीधा होता नहीं है ।
सुरेश भसीन और रवि दयाल की इस स्थिति ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनावी परिदृश्य को खासा दिलचस्प बना दिया है । पूर्व गवर्नर्स चूँकि सीओएल तथा डायरेक्टर नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव का गणित बैठाने में व्यस्त हैं, इसलिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी के चुनाव पर उनका अभी ज्यादा ध्यान नहीं है । समझा जा रहा है कि उन दो चुनावों से पूर्व गवर्नर्स की जो पोजीशनिंग बनेगी, उसका भी असर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी के चुनाव पर पड़ेगा । इसीलिए माना/कहा जा रहा है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव अभी रंग बदलेगा - जो इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उम्मीदवार लोग डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के सत्ता-समीकरणों में अपने आप को कैसे फिट करते हैं ।
रवि दयाल के साथ पिछले दिनों जो हुआ, उससे इस बात को समझा जा सकता है : रवि दयाल अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से पिछले दिनों फरीदाबाद के कुछेक प्रमुख लोगों से मिले, जिन्होंने एक पूर्व गवर्नर का नाम लेते हुए उनसे कहा कि हम तो 'उनके' कहे अनुसार फैसला करेंगे । यह सुनकर रवि दयाल पलटे और 'उन' पूर्व गवर्नर से मिलने के लिए जुगाड़ बैठाने में लग गए । रवि दयाल 'उन' पूर्व गवर्नर से मिल पाए या नहीं मिल पाए; और यदि मिल पाए तो फिर हुआ क्या - यह तो पता नहीं; किंतु जितना पता है, उससे ही साबित है कि रवि दयाल ने जिस क्रम में सक्रियता दिखाई - उसके कारण ही उन्हें खासी फजीहत का सामना करना पड़ा । रवि दयाल यदि लोगों के बीच बने/सधे राजनीतिक तारों को पहले से ही समझ/पहचान कर आगे बढ़ते तो और जो होता सो होता, उन्हें कम से कम राजनीतिक फजीहत का सामना तो नहीं ही करना पड़ता । यही कहानी सुरेश भसीन के साथ है । सुरेश भसीन एक उम्मीदवार के रूप में यूँ तो काफी सक्रिय हैं, लेकिन इस सक्रियता के बावजूद वह अपना विश्वसनीय समर्थन-आधार यदि नहीं बना पा रहे हैं, तो इसका सीधा सा कारण यही है कि उनकी सक्रियता राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रख कर संयोजित नहीं है ।
इन दोनों की इस दशा पर सटीक बैठती एक कहानी है : एक हष्ट-पुष्ट लकड़हारा लकड़ी के एक व्यापारी के पास काम माँगने गया । उसने व्यापारी को आश्वस्त किया कि वह मेहनत से काम करेगा । व्यापारी ने उसे एक नई कुल्हाड़ी दी और जंगल का पता बता दिया, जहाँ उसे पेड़ काटने थे । लकड़हारे ने बहुत मेहनत से काम किया और शाम तक उसने बीस पेड़ काट दिए । व्यापारी ने उसके काम से खुश होकर उसे मजदूरी के साथ-साथ ईनाम भी दिया । अगले दिन लेकिन वह अठारह पेड़ ही काट पाया । तीसरे दिन उसने और ज्यादा मेहनत से काम किया तथा जरा भी समय बर्बाद नहीं किया, किंतु कटे पेड़ों की संख्या सोलह ही रह गई । कटे पेड़ों की संख्या हर रोज कम होती जा रही थी, हालाँकि लकड़हारा पूरी मेहनत से काम कर रहा था । उसे यह बिलकुल भी समझ नहीं आ रहा था कि गड़बड़ क्या हो रही है ? कटे पेड़ों की संख्या जब छह/आठ रह गई, तब लकड़हारे ने व्यापारी के सामने अपनी व्यथा कही । व्यापारी ने उसकी पूरी बात सुनी और उससे पूछा कि उसने कुल्हाड़ी को धार कब दी थी ? इस कहानी का प्रतीकात्मक संदेश यही है कि सफलता सिर्फ मेहनत से नहीं मिलती है, मेहनत के औजारों की धार की भी सफलता में निर्णायक भूमिका होती है ।
सुरेश भसीन और रवि दयाल की स्थिति भी कहानी के लकड़हारे जैसी ही है : उम्मीदवार के रूप में इन दोनों के लिए स्थितियाँ खासी अनुकूल हैं, अपने चुनाव अभियान को लेकर यह मेहनत भी खूब कर रहे हैं - पर समस्या यह है कि अपनी उम्मीदवारी और अपने चुनाव अभियान में यह कोई 'धार' नहीं दिखा पा रहे हैं । रवि दयाल को फरीदाबाद के मामले में जो फजीहत झेलनी पड़ी, उसका कारण सिर्फ यही है । और इसी वजह से, तमाम मेहनत के बावजूद सुरेश भसीन उस अनुकूल स्थिति का फायदा नहीं उठा पा रहे हैं - जो उनके ठीक सामने है ।
संजीव राय मेहरा एक उम्मीदवार के रूप में लोगों के बीच अपनी स्वीकार्यता बना सकने में जिस तरह से असफल साबित हुए हैं, उससे उनके समर्थक गवर्नर्स को तगड़ा झटका लगा है तथा वह संजीव राय मेहरा की उम्मीदवारी के समर्थन से पीछे हटते नजर आ रहे हैं । उनके समर्थक पूर्व गवर्नर्स हालाँकि इस बात से भी परेशान हैं कि इस स्थिति का फायदा कहीं रवि दयाल को न मिल जाए; रवि दयाल को रोकने के लिए कुछेक पूर्व गवर्नर्स ने सुरेश भसीन की तरफ 'देखना' शुरू किया है । सुरेश भसीन के लिए यह एक बहुत अनुकूल स्थिति है, लेकिन वह अभी तक यह कोशिश करते हुए नहीं दिखे हैं कि संजीव राय मेहरा से जो राजनीतिक समर्थन छूट रहा है, उसे वह अपनी तरफ कर लें । सुरेश भसीन के एक हमदर्द ने तो बड़ी पते की बात कही - कि सुरेश भसीन को इस बात का शायद अंदाजा भी नहीं है कि डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले लोगों के बीच उन्हें लेकर नकारात्मक भाव ही है । यानि सुरेश भसीन सिर्फ मेहनत पर भरोसा कर रहे हैं, और अपनी उम्मीदवारी तथा अपने अभियान को 'धार' देने की कोई जरूरत वह नहीं समझ रहे हैं ।
सुरेश भसीन की यह कमजोरी रवि दयाल की पूँजी बन सकती है, लेकिन चूँकि उनका भी तरीका सुरेश भसीन जैसा ही है - इसलिए उनकी स्थिति को लेकर खुद उनके हमदर्द ही आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं । रवि दयाल के सामने संकट अलग किस्म का है, और बड़ा है । पूर्व गवर्नर्स का एक बड़ा तबका उनके समर्थन में नहीं है, और कई तो उनके खिलाफ हैं; जो उनके समर्थन में हो सकते थे - उनमें से कई अमरजीत सिंह तथा अतुल गुप्ता की उम्मीदवारी के कारण उनकी उम्मीदवारी के साथ नहीं हैं । उनके कुछेक हमदर्दों का कहना है कि रवि दयाल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्होंने अपनी मेहनत के आधार पर अपने आप को जीता हुआ मान लिया है तथा चुनावी राजनीति के ताने बाने को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है । सुरेश भसीन की तरह रवि दयाल भी वोटर अध्यक्षों से मिली सकारात्मक प्रतिक्रिया से बाग-बाग हैं और अपनी सफलता के प्रति आश्वस्त हैं । कहानी के लकड़हारे की तरह वह आश्वस्त हैं कि उन्हें सहृदय 'मालिक' मिल गए हैं, पेड़ों से लदा-फदा जंगल उनके सामने है और कुल्हाड़ी उनके हाथ में है - लिहाजा सफलता निश्चित ही उनके कदमों में होगी । पर सफलता का रास्ता इतना सीधा होता नहीं है ।
सुरेश भसीन और रवि दयाल की इस स्थिति ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनावी परिदृश्य को खासा दिलचस्प बना दिया है । पूर्व गवर्नर्स चूँकि सीओएल तथा डायरेक्टर नोमीनेटिंग कमेटी के चुनाव का गणित बैठाने में व्यस्त हैं, इसलिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी के चुनाव पर उनका अभी ज्यादा ध्यान नहीं है । समझा जा रहा है कि उन दो चुनावों से पूर्व गवर्नर्स की जो पोजीशनिंग बनेगी, उसका भी असर डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी के चुनाव पर पड़ेगा । इसीलिए माना/कहा जा रहा है कि डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव अभी रंग बदलेगा - जो इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उम्मीदवार लोग डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के सत्ता-समीकरणों में अपने आप को कैसे फिट करते हैं ।