Saturday, February 1, 2014

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 ए थ्री में सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद का चुनाव विक्रम शर्मा तो नहीं जीते, लेकिन उन्हें जितवाने का झाँसा देने वाले नेता अपने अपने फर्जी किस्म के क्लब्स के ड्यूज जुटाने की तिकड़म जरूर जीत गए हैं

नई दिल्ली । आरके शाह पिछले कई वर्षों से हाँ-ना की उथल-पथल से गुजरते हुए अंततः डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की कुर्सी के समीप पहुँचने में सफल हो गए हैं तो इसका वास्तविक श्रेय राकेश त्रेहन और विक्रम शर्मा को है । डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस होने से करीब बीस दिन पहले जब सत्ता खेमा अपने उम्मीदवार के रूप में विक्रम शर्मा का नाम क्लियर करने ही जा रहा था, तब विक्रम शर्मा का राकेश त्रेहन के साथ डिनर करना आरके शाह के लिए 'विंडफॉल गेन' (windfall gain : an unexpected gain, piece of good fortune) साबित हुआ । बिल्ली के रास्ता काटने के कारण बनता काम बिगड़ जाने वाली मान्यता को याद करते हुए कहा जा सकता है कि सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की तरफ बढ़ते हुए विक्रम शर्मा का रास्ता राकेश त्रेहन काट गए !
इसे विक्रम शर्मा की बदकिस्मती ही कहा जायेगा कि सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का पद उनके हाथ में आते आते निकल गया । विक्रम शर्मा की बदकिस्मती आरके शाह की खुशकिस्मती साबित हुई ।
तो क्या आरके शाह को सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नरी सिर्फ किस्मत से मिली है ? ऊपर ऊपर से देखेंगे तो यही सच लगेगा, लेकिन तथ्यों को विस्तार और गहराई से देखेंगे तो पायेंगे कि आरके शाह ने अपने नेता और अपने खेमे के साथ लगातार बने रहने की जो प्रतिबद्धता दिखाई है उसके परिणाम के रूप में ही उन्होंने इस सफलता को प्राप्त किया है । मजे की बात यह रही है कि अपने नेता और अपने खेमे के साथ बने रहने के कारण लिए गए जिन 'फैसलों' के लिए आरके शाह को कई एक लोगों की मजाक उड़ाती आलोचना का शिकार होना पड़ा है, उन्हीं 'फैसलों' ने आरके शाह के नंबर बनाये और उन्हीं नंबरों ने उन्हें सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर तक पहुँचाया । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि आरके शाह ने पिछले वर्षों में कई बार अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने की तैयारी की, लेकिन हर बार अपने नेता और अपने खेमे के प्रति प्रतिबद्धता बनाये रखते हुए अपनी तैयारी को बीच में छोड़ते रहे हैं । अपनी तैयारी को छोड़ते रहने के कारण आरके शाह को लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता तक को दाँव पर लगाना पड़ा और लोगों की निर्मम आलोचना तक का शिकार तक होना पड़ा ।
इस बार भी सत्ता खेमे के 'स्वाभाविक' उम्मीदवार होने के दावे के बावजूद जब सत्ता खेमे से विक्रम शर्मा की उम्मीदवारी को हरी झंडी मिलने की संभावना जोड़ पकड़ रही थी, तब भी आरके शाह से अपनी उम्मीदवारी को त्यागने की उम्मीद की जा रही थी । आरके शाह के सामने उस समय संकट यह था कि यदि इस बार भी वह अपनी उम्मीदवारी को छोड़ते तो फिर भविष्य में वह कभी अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत न कर पाते ! इसके बाद भी, डिस्ट्रिक्ट में हर किसी को विश्वास यही था कि आरके शाह अपने नेता और अपने खेमे का साथ नहीं छोड़ेंगे । डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच अपने आप को 'बदनाम' करवा कर भी और अपने लिए संभावनाएँ ख़त्म करवा कर भी - आरके शाह ने अपने नेता और अपने खेमे के साथ बने रहने का जो हौंसला दिखाया, लगता है कि नियति ने उन्हें उसी का फल दिया है । जो हुआ, वह सचमुच जैसे नियति का ही चमत्कार है । 'स्टेज', विक्रम शर्मा की उम्मीदवारी की घोषणा के लिए पूरी तरह तैयार था - किन्तु एक शाम हालात ने लगभग चुपचाप ऐसा पलटा खाया कि जो 'फल' विक्रम शर्मा को मिलना था, वह आरके शाह को मिल गया ।
आरके शाह के विपरीत, विक्रम शर्मा ने अपनी प्रतिबद्धता को लगातार बदला - उन्होंने न दूसरों पर भरोसा किया और शायद इसी कारण वह न दूसरों का भरोसा पा सके । विक्रम शर्मा पहले विरोधी खेमे के नेताओं के साथ थे, फिर अचानक से वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर विजय शिरोहा के साथ दिखने लगे । पाला बदल की इस स्थिति में भी उनका कन्फ्यूजन दिखा - वह विजय शिरोहा के साथ तो दिखे, लेकिन सत्ता खेमे के दूसरे नेताओं को इग्नोर और अपमानित करने की हद तक गए । इसका नतीजा यह हुआ कि विजय शिरोहा के चाहने के बावजूद सत्ता खेमे में उनकी उम्मीदवारी पर सहमति बनने में देर हुई । इस दौरान भी वह इधर से उधर होने की अपनी आदत पर काबू नहीं रख सके । उन्हें पता था कि सत्ता खेमे में एक विजय शिरोहा ही उनके प्रबल समर्थक हो सकते हैं और उन विजय शिरोहा का राकेश त्रेहन के साथ छत्तीस का रिश्ता है - इसके बाद भी वह राकेश त्रेहन के साथ डिनर करने पहुँच गए । मजे की बात यह रही कि विक्रम शर्मा अंततः जिन नेताओं के भरोसे उम्मीदवार बने, उन नेताओं पर उन्हें कतई भरोसा नहीं था - अगर होता तो वह उन्हें छोड़ कर विजय शिरोहा के साथ भला क्यों जुड़ते ? जिन नेताओं ने उन्हें अंततः उम्मीदवार स्वीकार किया, उन्हें उन पर भरोसा नहीं था - अगर होता तो वह कभी ओंकार सिंह को, कभी पीएस राठी को और कभी योगेश भसीन को उम्मीदवार बनाने का प्रयास क्यों करते ? एक दूसरे पर परस्पर अविश्वास करते हुए भी विक्रम शर्मा और विरोधी खेमे के नेता अंततः एक साथ खड़े हुए नजर आये तो सिर्फ इसलिए कि विरोधी खेमे के नेता विक्रम शर्मा को जीत दिलवाने का झाँसा देने में कामयाब रहे । विरोधी खेमे के नेताओं के सामने अपने अपने फर्जी किस्म के क्लब्स के ड्यूज जुटाने की गंभीर चुनौती थी और इसके लिए उन्हें किसी को 'उल्लू' बनाना जरूरी था । विक्रम शर्मा बन गए, उन्हें अपने अपने क्लब्स के ड्यूज मिल गए ।
विक्रम शर्मा को जीतना तो नहीं ही था, और वह नहीं ही जीते !
विक्रम शर्मा की हार और आरके शाह की जीत के नतीजे का एक सबक यह भी है कि पाने के लालच में कन्फ्यूज रहने और कुछ इधर से तो कुछ उधर से पा लेने की तिकड़म लगाने वालों को कुछ नहीं मिलता; जबकि अपनों के प्रति ईमानदार बने रहने के लिए खोने को तैयार रहने वालों की नियति भी मदद करती है ।