नई
दिल्ली । सरकार के नोटबंदी के फैसले का बेशर्मी भरा समर्थन करके चार्टर्ड
एकाउंटेंट इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट देवराज रेड्डी ने चार्टर्ड
एकाउंटेंट्स के बीच ही अपनी जैसी जो फजीहत कराई है, वह इंस्टीट्यूट के
इतिहास की अनोखी घटना बन गई है । उनसे पहले, प्रेसीडेंट पद पर रहते हुए
शायद ही किसी प्रेसीडेंट को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा होगा, जिसमें
चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने पत्र/ईमेल लिख कर प्रेसीडेंट को लताड़ा हो । कई
चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने बाकायदा पत्र लिख कर देवराज रेड्डी के रवैये की न
सिर्फ सख्त आलोचना की है बल्कि इस बात के लिए उनकी भर्त्सना तक की है कि
अपने निजी स्वार्थ में उन्होंने इंस्टीट्यूट की स्वायत्तता को दाँव पर
लगाने के साथ-साथ इसकी विश्वसनीयता व प्रतिष्ठा को भी चोट पहुँचाई है । इंस्टीट्यूट
की तरफ से चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के लिए जारी उस एडवाईजरी ने चार्टर्ड
एकाउंटेंट्स का गुस्सा खासा भड़काया हुआ है, जिसमें नोटबंदी के फैसले की
किसी भी रूप में आलोचना और या खिलाफत वाली बात न कहने की 'सख्त सलाह' दी गई
है । कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने देवराज रेड्डी से पूछा है कि 'उन्हें
या इंस्टीट्यूट प्रशासन को यह अधिकार किसने दिया है कि आप हमें किसी
मुद्दे पर वह कहने से रोकें, जिसे कहना हम उचित समझते हैं ।' चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की तरफ से ही आरोप लगाया
गया है कि देवराज रेड्डी ने राज्य सभा की सीट का जुगाड़ बैठाने की अपनी तिकड़म
में इंस्टीट्यूट की स्वायत्तता व प्रतिष्ठा की बलि चढ़ा दी है ।
देवराज
रेड्डी की हरकत ने वास्तव में एक बड़े अर्थशास्त्री द्धारा कही गयी बात को
ही सही साबित किया है, जिसके अनुसार नोटबंदी का समर्थन सिर्फ दो तरह के लोग
कर रहे हैं : एक वह जो अर्थव्यवस्था के आंतरिक समीकरणों को नहीं
जानते/समझते हैं और भावनात्मक आधार पर अपनी राय बनाते हैं; दूसरे वह जो
अपने निजी स्वार्थ व लालच को प्राथमिकता देते हैं । नोटबंदी के मामले
में एक दिलचस्प नजारा यह देखने को मिल रहा है कि देश-विदेश के नामी और
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री तो इसकी आलोचना कर रहे हैं, किंतु व्यापारी-बाबाओं
और फिल्म अभिनेताओं जैसों की तरफ से इसे मुखर समर्थन मिला है । उद्यमियों
और उनके संगठनों ने आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधी हुई है । देखा जाता
रहा है कि जब कभी भी एक दिन की देशव्यापी हड़ताल हुई है, तो फिक्की और
एसोचैम की तरफ से प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बताया जाता रहा है कि एक दिन
कारोबार ठप्प होने से देश की अर्थव्यवस्था को कितने हजार या लाख करोड़ का
नुकसान हुआ है । लेकिन नोटबंदी के कारण महीने भर से ज्यादा समय से कारोबार
ठप्प रहने से देश की अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान हुआ है - इसका ब्यौरा
देने की फिक्की या एसोचैम ने अभी तक कोई जरूरत नहीं समझी है । यह
स्वार्थ-भरी चुप्पी का एक नायाब उदाहरण है । लेकिन गौर करने वाली बात यह है
कि फिक्की या एसोचैम ने नोटबंदी का बेशर्मी भरा समर्थन भी नहीं किया है -
जैसा कि चार्टर्ड एकाउंटेंट इंस्टीट्यूट ने किया है ।
चार्टर्ड एकाउंटेंट इंस्टीट्यूट ने अपनी एडवाईजरी में तथा एक बड़े अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित करवाए विज्ञापन में सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए दावा किया है कि नोटबंदी से काले धन पर रोक लगेगी । इस दावे को लेकर कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने इंस्टीट्यूट प्रशासन व देवराज रेड्डी की खासी खिंचाई की है । उनसे पूछा गया है कि उन्हें यदि सचमुच भरोसा है कि नोटबंदी से कालेधन पर अंकुश लग सकता है, तो प्रत्येक वर्ष आम बजट से पहले इंस्टीट्यूट की तरफ से सरकार और/या वित्त मंत्रालय को जो सुझाव दिए जाते हैं, उनमें कभी नोटबंदी का सुझाव क्यों नहीं दिया गया । देवराज रेड्डी और इंस्टीट्यूट प्रशासन की अक्ल का बल्ब अभी ही क्यों जला है ? जाहिर है कि यह अक्ल की बात नहीं है, यह सिर्फ सरकार की हाँ में हाँ मिलाने का 'ठुमका' है । यह 'ठुमका' लगा कर इंस्टीट्यूट प्रशासन और प्रेसीडेंट देवराज रेड्डी ने वास्तव में प्रोफेशन और इंस्टीट्यूट की स्वतंत्र पहचान तथा स्थिति को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की उसकी क्षमता व खूबी को दाँव पर लगा दिया है । कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कहना कि यह ठीक है कि इंस्टीट्यूट 'पार्टनर्स इन नेशनल बिल्डिंग' है, लेकिन सच यह भी है कि वह सरकार का ही अंग नहीं है - उसकी अपनी एक स्वतंत्र हैसियत और पहचान है । कई मामलों में तो वह सरकार के कामकाज की पड़ताल करने तथा उसके कामकाज में होने वाली गड़बड़ियों और बेईमानियों को पकड़ने का भी अधिकार रखता है । लेकिन इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट के रूप में देवराज रेड्डी के रवैये ने इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन की पहचान और प्रतिष्ठा को जैसे 'बेच' देने वाला रवैया दिखाया है ।
चार्टर्ड एकाउंटेंट इंस्टीट्यूट ने अपनी एडवाईजरी में तथा एक बड़े अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित करवाए विज्ञापन में सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए दावा किया है कि नोटबंदी से काले धन पर रोक लगेगी । इस दावे को लेकर कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने इंस्टीट्यूट प्रशासन व देवराज रेड्डी की खासी खिंचाई की है । उनसे पूछा गया है कि उन्हें यदि सचमुच भरोसा है कि नोटबंदी से कालेधन पर अंकुश लग सकता है, तो प्रत्येक वर्ष आम बजट से पहले इंस्टीट्यूट की तरफ से सरकार और/या वित्त मंत्रालय को जो सुझाव दिए जाते हैं, उनमें कभी नोटबंदी का सुझाव क्यों नहीं दिया गया । देवराज रेड्डी और इंस्टीट्यूट प्रशासन की अक्ल का बल्ब अभी ही क्यों जला है ? जाहिर है कि यह अक्ल की बात नहीं है, यह सिर्फ सरकार की हाँ में हाँ मिलाने का 'ठुमका' है । यह 'ठुमका' लगा कर इंस्टीट्यूट प्रशासन और प्रेसीडेंट देवराज रेड्डी ने वास्तव में प्रोफेशन और इंस्टीट्यूट की स्वतंत्र पहचान तथा स्थिति को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की उसकी क्षमता व खूबी को दाँव पर लगा दिया है । कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कहना कि यह ठीक है कि इंस्टीट्यूट 'पार्टनर्स इन नेशनल बिल्डिंग' है, लेकिन सच यह भी है कि वह सरकार का ही अंग नहीं है - उसकी अपनी एक स्वतंत्र हैसियत और पहचान है । कई मामलों में तो वह सरकार के कामकाज की पड़ताल करने तथा उसके कामकाज में होने वाली गड़बड़ियों और बेईमानियों को पकड़ने का भी अधिकार रखता है । लेकिन इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट के रूप में देवराज रेड्डी के रवैये ने इंस्टीट्यूट और प्रोफेशन की पहचान और प्रतिष्ठा को जैसे 'बेच' देने वाला रवैया दिखाया है ।
देवराज रेड्डी के रवैये की आलोचना करने
वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कहना है कि नोटबंदी सरकार का एक बड़ा फैसला
है, जिसका देश की अर्थव्यवस्था पर और देश के लोगों के आर्थिक-सामाजिक जीवन
पर व्यापक असर पड़ना है; इसलिए होना यह चाहिए था कि इस मुद्दे पर
इंस्टीट्यूट प्रशासन को और या सेंट्रल काउंसिल को व्यापक विचार विमर्श करना
चाहिए था और उस विचार विमर्श में सामने आने वाली बातों के आधार पर अपनी
राय और अपना निष्कर्ष निकालना/तय करना चाहिए था । उल्लेखनीय है कि
सरकार प्रत्येक वर्ष बजट प्रस्तुत करती है और इंस्टीट्यूट की विभिन्न
इकाईयाँ विचार-विमर्श के जरिए उसके अच्छे व खराब पक्षों की पड़ताल करती हैं
। इस कार्रवाई को प्रोफेशन तथा अन्य संबद्ध पक्षों के लोगों के बीच
सम्मानजनक ढंग से लिया/पहचाना जाता है - कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कहना
है कि नोटबंदी के मामले में भी ऐसा ही रवैया अपनाया जाना चाहिए था । पर
इस मामले में तो उल्टा ही काम हुआ; न सेंट्रल काउंसिल के सदस्यों के बीच इस
विषय पर चर्चा की/करवाई गई, और न अन्य किसी स्तर पर इस मामले में
विचार-विमर्श की जरूरत समझी गई - उलटे, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के लिए
एडवाईजरी जारी की गई कि कोई भी चार्टर्ड एकाउंटेंट नोटबंदी को लेकर कहीं भी
किसी भी तरह की प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करेगा । इसे लेकर इंस्टीट्यूट
के प्रेसीडेंट देवराज रेड्डी की दोतरफा फजीहत हुई है : एक तरफ तो तमाम
चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने इंस्टीट्यूट की एडवाईजरी को ठेंगा दिखाते हुए अपने
अपने तरीके से नोटबंदी के फैसले की खामियों और उससे होने वाले नुकसान की
व्यापक चर्चा की है; दूसरी तरफ कई एक चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ने सीधे पत्र
और ईमेल लिख कर उनके तथा इंस्टीट्यूट प्रशासन के रवैये की तीखी आलोचना भी
है । देवराज रेड्डी को चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच इस आरोपपूर्ण चर्चा
को और सुनना/झेलना पड़ रहा है कि सरकारी पार्टी से राज्यसभा सीट जुगाड़ने की
तिकड़म में उन्होंने इंस्टीट्यूट की स्वतंत्र पहचान व प्रतिष्ठा का सौदा कर
लिया है ।
देवराज रेड्डी और उनके नेतृत्व में
इंस्टीट्यूट प्रशासन के इस प्रोफेशन विरोधी, जन विरोधी - और कई लोगों ने तो
इसे मूर्खतापूर्ण भी कहा है - रवैये ने इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के
सदस्यों के सामने लेकिन विकट स्थिति पैदा कर दी है । इंस्टीट्यूट की
सेंट्रल काउंसिल के कुछेक सदस्य नोटबंदी के फैसले को लेकर प्रतिकूल सोच
रखते हैं, और नोटबंदी को लेकर इंस्टीट्यूट प्रशासन के रवैये से तो बुरी तरह
खफा ही हैं - लेकिन बेचारे कुछ कहने का साहस इसलिए नहीं कर पा रहे हैं,
क्योंकि उन्हें इंस्टीट्यूट के वाइस प्रेसीडेंट का चुनाव लड़ना/जीतना है ।
उन्हें डर है कि उक्त मामले में उनके मुँह खोलने और अपने मन की बात कहने से
वाइस प्रेसिडेंट पद की उनकी उम्मीदवारी मुश्किल में पड़ सकती है -
इसलिए उन्होंने चुप रहने में ही अपनी भलाई देखी/पहचानी है । कुछेक चार्टर्ड
एकाउंटेंट्स का ही कहना है कि इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट को राज्यसभा में
जाना है, और सेंट्रल काउंसिल के सदस्यों को (वाइस) प्रेसीडेंट बनना है - इस
चक्कर में इन्होंने चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट जैसी प्रतिष्ठित
संस्था को चंडूखाना बना दिया है ।