नई दिल्ली । 'रचनात्मक संकल्प' ने पाँच अक्टूबर की अपनी रिपोर्ट में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनावी नतीजे के ललित खन्ना के पक्ष में रहने की जो संभावना व्यक्त की थी, वह अंततः सच साबित हुई और ललित खन्ना की जीत के साथ रोटरी क्लब दिल्ली नॉर्थ ने डिस्ट्रिक्ट को तीसरा गवर्नर दिया । उल्लेखनीय है कि वरिष्ठ पूर्व गवर्नर एमएल अग्रवाल तथा केके गुप्ता इसी क्लब के सदस्य हैं । पूर्व गवर्नर मुकेश अरनेजा भी हालाँकि इसी क्लब के सदस्य रहते हुए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर बने थे, लेकिन अपनी हरकतों के चलते उनके लिए क्लब में बने रहना असंभव हो गया था और उन्हें क्लब से निकाला जाता, उससे पहले उन्होंने खुद ही क्लब से निकल कर दूसरा क्लब बना लिया । इसी खुन्नस में मुकेश अरनेजा ने हमेशा ही ललित खन्ना की उम्मीदवारी का विरोध किया; मुकेश अरनेजा हमेशा ही ऐसा आभास करवाते रहे हैं कि जैसे उन्होंने कसम खा ली है कि वह ललित खन्ना को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नहीं बनने देंगे । लेकिन तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (नॉमिनी) चुने जाने का ललित खन्ना का सपना आखिरकार साकार हुआ । ललित खन्ना और सुनील मल्होत्रा के बीच हुए चुनाव में खासे उतार-चढ़ाव रहे - शुरू में इस चुनाव को ललित खन्ना के पक्ष में एकतरफा माना/देखा जा रहा था, लेकिन चुनाव का दिन आते आते सुनील मल्होत्रा उन्हें तगड़ी टक्कर देते हुए नजर आने लगे; और ललित खन्ना के सामने गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई ।
ललित खन्ना के सामने यह चुनौती खड़ी करने के लिए निवर्त्तमान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (आईपीडीजी) सुभाष जैन को जिम्मेदार माना/ठहराया जा रहा है । दरअसल सुनील मल्होत्रा की उम्मीदवारी को सुभाष जैन का ही समर्थन था । मजे की बात यह रही कि अन्य कुछेक गवर्नर्स ललित खन्ना को पसंद तो नहीं करते थे, लेकिन चूँकि उन्हें सुनील मल्होत्रा के चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं लग रही थी - इसलिए वह सुनील मल्होत्रा की उम्मीदवारी के पक्ष में नहीं जुटे । एक अकेले सुभाष जैन ही सुनील मल्होत्रा के साथ रहे । सुभाष जैन के नजदीकियों व शुभचिंतकों ने उन्हें समझाने के खूब प्रयास किए कि एक हारते दिख/लग रहे उम्मीदवार के पक्ष में रहने से आखिर क्या हासिल होगा ? सुभाष जैन ने लेकिन किसी की नहीं सुनी । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों का आकलन था कि सुनील मल्होत्रा को 20/25 से ज्यादा वोट नहीं मिलेंगे । चुनावी नतीजे में उन्हें 75 वोट के रूप में जो करीब 43 प्रतिशत वोट मिले हैं - उन्हें सुभाष जैन के राजनीतिक प्रताप तथा उनकी चुनावी रणनीति के नतीजे के रूप में ही देखा/पहचाना जा रहा है । ललित खन्ना के सामने कहीं टिकते नहीं दिख रहे सुनील मल्होत्रा को सुभाष जैन की चुनावी रणनीति ने जिस तरह से मुकाबले पर ला दिया और ललित खन्ना के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी, उसे देखते/समझते हुए ही डिस्ट्रिक्ट के लोगों को सुनील मल्होत्रा की पराजय में भी सुभाष जैन की जीत 'दिखाई' दे रही है । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में इससे पहले किसी एक गवर्नर ने प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक माहौल में ऐसा समर्थन जुटाया हो, ऐसा याद नहीं पड़ता है ।
ललित खन्ना ने वोटिंग शुरू होने से पहले होशियारी न दिखाई होती और अपनी उम्मीदवारी को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर दीपक गुप्ता की 'छाया' से मुक्त न किया होता, तो बहुत संभव है कि वह चुनाव हार गए होते । दीपक गुप्ता ने यूँ तो ललित खन्ना को चुनाव जितवाने के लिए सारे हथकंडे अपना लिए थे, और इसके लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की गरिमा को भी छिन्न-भिन्न कर लिया/दिया था - लेकिन उनकी हरकतें ललित खन्ना की उम्मीदवारी को फायदा पहुँचाने की बजाये नुकसान पहुँचाती लग रही थीं । ललित खन्ना ने दीपक गुप्ता से जल्दी चुनाव करवाने का फायदा तो ले लिया, लेकिन उसके बाद उन्होंने दीपक गुप्ता से अपने आप को अलग कर लिया और इस तरह दीपक गुप्ता की हरकतों के कारण होने वाले नुकसान से अपने आप को बचा लिया । मजे की बात यह रही कि ललित खन्ना को हालाँकि दीपक गुप्ता के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाता रहा है, लेकिन ललित खन्ना की जीत का श्रेय ललित खन्ना को ही दिया जा रहा है । माना/समझा जा रहा है कि ललित खन्ना ने हर मौके का बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया; डिस्ट्रिक्ट गवर्नर दीपक गुप्ता से कब उन्हें जुड़ना है और कब उनसे पीछा छुड़ा लेना है - इसे समझ/बूझ कर तथा जरूरत के हिसाब से करते हुए ललित खन्ना ने अपनी जीत का रास्ता खुद ही बनाया है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव सिर्फ उम्मीदवारों के बीच ही नहीं होता है, वह उनके समर्थक नेताओं के बीच भी होता है - इसीलिए लोगों को लग रहा है कि इस वर्ष के चुनाव में दीपक गुप्ता जीत कर भी हार गए हैं, और सुभाष जैन हार कर भी जीत गए हैं । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि हिंदी कथा साहित्य की मशहूर कहानी 'हार की जीत' इसी से मिलती-जुलती परिस्थिति को लेकर लिखी गई थी ।
ललित खन्ना के सामने यह चुनौती खड़ी करने के लिए निवर्त्तमान डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (आईपीडीजी) सुभाष जैन को जिम्मेदार माना/ठहराया जा रहा है । दरअसल सुनील मल्होत्रा की उम्मीदवारी को सुभाष जैन का ही समर्थन था । मजे की बात यह रही कि अन्य कुछेक गवर्नर्स ललित खन्ना को पसंद तो नहीं करते थे, लेकिन चूँकि उन्हें सुनील मल्होत्रा के चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं लग रही थी - इसलिए वह सुनील मल्होत्रा की उम्मीदवारी के पक्ष में नहीं जुटे । एक अकेले सुभाष जैन ही सुनील मल्होत्रा के साथ रहे । सुभाष जैन के नजदीकियों व शुभचिंतकों ने उन्हें समझाने के खूब प्रयास किए कि एक हारते दिख/लग रहे उम्मीदवार के पक्ष में रहने से आखिर क्या हासिल होगा ? सुभाष जैन ने लेकिन किसी की नहीं सुनी । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों का आकलन था कि सुनील मल्होत्रा को 20/25 से ज्यादा वोट नहीं मिलेंगे । चुनावी नतीजे में उन्हें 75 वोट के रूप में जो करीब 43 प्रतिशत वोट मिले हैं - उन्हें सुभाष जैन के राजनीतिक प्रताप तथा उनकी चुनावी रणनीति के नतीजे के रूप में ही देखा/पहचाना जा रहा है । ललित खन्ना के सामने कहीं टिकते नहीं दिख रहे सुनील मल्होत्रा को सुभाष जैन की चुनावी रणनीति ने जिस तरह से मुकाबले पर ला दिया और ललित खन्ना के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी, उसे देखते/समझते हुए ही डिस्ट्रिक्ट के लोगों को सुनील मल्होत्रा की पराजय में भी सुभाष जैन की जीत 'दिखाई' दे रही है । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में इससे पहले किसी एक गवर्नर ने प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक माहौल में ऐसा समर्थन जुटाया हो, ऐसा याद नहीं पड़ता है ।
ललित खन्ना ने वोटिंग शुरू होने से पहले होशियारी न दिखाई होती और अपनी उम्मीदवारी को डिस्ट्रिक्ट गवर्नर दीपक गुप्ता की 'छाया' से मुक्त न किया होता, तो बहुत संभव है कि वह चुनाव हार गए होते । दीपक गुप्ता ने यूँ तो ललित खन्ना को चुनाव जितवाने के लिए सारे हथकंडे अपना लिए थे, और इसके लिए डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद की गरिमा को भी छिन्न-भिन्न कर लिया/दिया था - लेकिन उनकी हरकतें ललित खन्ना की उम्मीदवारी को फायदा पहुँचाने की बजाये नुकसान पहुँचाती लग रही थीं । ललित खन्ना ने दीपक गुप्ता से जल्दी चुनाव करवाने का फायदा तो ले लिया, लेकिन उसके बाद उन्होंने दीपक गुप्ता से अपने आप को अलग कर लिया और इस तरह दीपक गुप्ता की हरकतों के कारण होने वाले नुकसान से अपने आप को बचा लिया । मजे की बात यह रही कि ललित खन्ना को हालाँकि दीपक गुप्ता के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जाता रहा है, लेकिन ललित खन्ना की जीत का श्रेय ललित खन्ना को ही दिया जा रहा है । माना/समझा जा रहा है कि ललित खन्ना ने हर मौके का बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया; डिस्ट्रिक्ट गवर्नर दीपक गुप्ता से कब उन्हें जुड़ना है और कब उनसे पीछा छुड़ा लेना है - इसे समझ/बूझ कर तथा जरूरत के हिसाब से करते हुए ललित खन्ना ने अपनी जीत का रास्ता खुद ही बनाया है । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद का चुनाव सिर्फ उम्मीदवारों के बीच ही नहीं होता है, वह उनके समर्थक नेताओं के बीच भी होता है - इसीलिए लोगों को लग रहा है कि इस वर्ष के चुनाव में दीपक गुप्ता जीत कर भी हार गए हैं, और सुभाष जैन हार कर भी जीत गए हैं । यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि हिंदी कथा साहित्य की मशहूर कहानी 'हार की जीत' इसी से मिलती-जुलती परिस्थिति को लेकर लिखी गई थी ।