Sunday, December 23, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में एक तरफ यदि हंसराज चुग, प्रमोद जैन, प्रमोद बूब, श्रीनिवास जोशी जैसे जेनुइन किस्म के लोगों को जीत प्राप्त हुई है; तो दूसरी तरफ राजेश शर्मा, चरनजोत सिंह नंदा, अनुज गोयल, धीरज खंडेलवाल जैसे प्रोफेशन के साथ खिलवाड़ करने वाले लोग भी जीत गए हैं - और यही बात प्रोफेशन की पहचान व प्रतिष्ठा के लिए खतरे की घंटी बजाती है

नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट ऑफ चॉर्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए हुए चुनाव में सबसे ज्यादा हैरान करने वाला फैसला संजय वासुदेवा की पराजय का रहा । हालाँकि सेंट्रल रीजन में मुकेश कुशवाह, वेस्टर्न रीजन में मंगेश किनरे, और नॉर्दर्न रीजन में संजय वासुदेवा के साथ-साथ विजय गुप्ता भी सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट बचा पाने में नाकाम रहे हैं - लेकिन संजय वासुदेवा की पराजय ने हर किसी को आश्चर्य में डाला है । दरअसल नॉर्दर्न रीजन में संजय वासुदेवा के पिता एससी वासुदेवा का खासा नाम है । उनके पिता द्वारा स्थापित फर्म एससी वासुदेवा एंड कंपनी को प्रोफेशन में बिग फोर फर्म्स जैसी 'हैसियत' प्राप्त है, और पूरे रीजन के हर प्रमुख शहर में उनके लाभार्थियों की अच्छी-खासी संख्या मौजूद है । एससी वासुदेवा चूँकि खुद भी इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में सक्रिय रहे हैं, और सेंट्रल काउंसिल में सदस्य भी रहे हैं - इसलिए उनकी प्रोफेशनल हैसियत का एक राजनीतिक आयाम भी रहा है; जिसका फायदा संजय वासुदेवा को पिछले चुनाव में मिला था । सेंट्रल काउंसिल सदस्य के रूप में संजय वासुदेवा का रिकॉर्ड कोई बहुत सक्रियता भरा तो नहीं रहा, लेकिन उनके खिलाफ कहीं कोई आवाज भी नहीं पैदा हुई - इसलिए माना/समझा जा रहा था कि वह अपनी सीट आसानी से बचा लेंगे । इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में खानदानी परंपरा का सम्मान करने का रिवाज चूँकि है, जिसके चलते नवीन गुप्ता और नीलेश विकमसे जैसे लोग भी चुनाव जीतते गए और प्रेसीडेंट तक बन गए; और जिस रिवाज के चलते अभी संपन्न हुए चुनाव में वेस्टर्न रीजन में अनिकेत तलति तक सेंट्रल काउंसिल का चुनाव जीत गए - उसी रिवाज के भरोसे संजय वासुदेवा के भी जीतने का विश्वास सभी को था । संजय वासुदेवा की चुनावी स्थिति को फायदा पहुँचाने वाली एक बड़ी बात इसी वर्ष अप्रैल में यह हुई थी कि उनकी फर्म एससी वासुदेवा एंड कंपनी तथा एक और बड़ी फर्म एसपी पुरी एंड कंपनी का विलय हुआ था, जिसके चलते माना/समझा जा रहा था कि संजय वासुदेवा की राजनीतिक ताकत और बढ़ी है । लेकिन फिर भी संजय वासुदेवा हार गए । वैसे संजय वासुदेवा यदि जीत जाते तो सेंट्रल काउंसिल में एक दिलचस्प नजारा यह बनता कि चरनजोत सिंह नंदा तथा अनुज गोयल को ऐसे सदस्यों के रूप में पहचान मिलती जिन्होंने पिता एससी वासुदेवा के साथ 19वीं काउंसिल में संगत की थी और अब 24वीं काउंसिल में पुत्र संजय वासुदेवा के साथ वह संगत करते ।
'जो जीता वह सिकंदर, बाकी सब बंदर' की तर्ज पर जीतने वालों को बड़ा जेनुइन व काबिल तथा हारने वालों को बेईमान व नाकारा मानने/बताने की सड़कछाप प्रवृत्ति की बजाये यदि गंभीरता के साथ चुनावी नतीजों का विश्लेषण करें, तो प्राप्त चुनावी नतीजे कोई 'पैटर्न' नहीं पेश करते हैं । चुनावी नतीजों में एक तरफ यदि हंसराज चुग, प्रमोद जैन, प्रमोद बूब, श्रीनिवास जोशी जैसे जेनुइन किस्म के लोगों को जीत प्राप्त हुई है; तो दूसरी तरफ राजेश शर्मा, चरनजोत सिंह नंदा, अनुज गोयल, धीरज खंडेलवाल जैसे प्रोफेशन के साथ खिलवाड़ करने वाले लोग भी जीत गए हैं । सेंट्रल काउंसिल का यह परिदृश्य संसद के उस परिदृश्य की याद दिलवाता है, जिसमें अटलबिहारी वाजपेयी के साथ फूलन देवी भी होती है । संसदीय चुनावों के मतदाताओं के बारे में कहा/माना जाता है कि उनमें बहुत से लोग अनपढ़ व भावुक व लालची होते हैं, जिसका फायदा फूलन देवी जैसे लोग उठा लेते हैं; लेकिन इंस्टीट्यूट के चुनावों के मतदाता तो पढ़े-लिखे जागरुक लोग होते हैं तथा प्रोफेशन में होने वाली ऊँच/नीच और काउंसिल सदस्यों की क्षमताओं व उनकी कारस्तानियों को नजदीक से देखते/पहचानते रहते हैं - फिर भी वह फूलन देवी किस्म के उम्मीदवारों को क्यों चुन लेते हैं ? इस 'क्यों' का जबाव मिलना आसान नहीं है, लेकिन फिर भी यह 'क्यों' इंस्टीट्यूट के सदस्य चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की समझ व जागरुकता तथा प्रोफेशन की पहचान व प्रतिष्ठा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करता है । यह ठीक है कि किसी भी चुनाव में मतदाताओं को प्रायः 'बुरे' और 'कम बुरे' में से ही चुनने का विकल्प मिलता है; और 'कम बुरे' की तुलना में 'बुरे' उम्मीदवार मतदाताओं की आँखों में धूल झोंकने में ज्यादा होशियार साबित होते हैं - लेकिन ऐसी ही होशयारियों के बीच मतदाताओं के विवेक और उनकी समझदारी की परीक्षा होती है । ऐसे में, माना/कहा जा सकता है कि प्रोफेशन के लोग यदि संजय वासुदेवा की बजाये राजेश शर्मा व चरनजोत सिंह नंदा जैसे लोगों को तरजीह देते हैं, तो प्रोफेशन की विश्वसनीयता व प्रतिष्ठा को बनाये/बचाये रखने का काम ईश्वर भी नहीं कर सकेगा - क्योंकि माना/कहा जाता है कि ईश्वर भी उन्हीं को बचाने में मदद करता है, जो खुद को बचाने का प्रयास करते हैं ।
सेंट्रल काउंसिल के चुनावी नतीजे कुछ महत्त्वपूर्ण सबक भी देते हैं । संजय वासुदेवा की पराजय में उनके अति-आत्मविश्वास का भी योगदान है । चुनावी राजनीति में मतदाता के पास जाने के काम को एक बहुत जरूरी काम के रूप में देखा/पहचाना जाता है, जिस पर संजय वासुदेवा ने ध्यान नहीं दिया । दूसरों की तरह वह भी इस भरोसे रहे कि उनके पिता और उनकी फर्म का जो आभामंडल है, वही उन्हें चुनाव जितवा देगा - और धोखा खा बैठे । चुनाव को चुनौती की तरह लेने का काम सिर्फ दो लोगों ने किया - संजीव सिंघल और हंसराज चुग ने; और दोनों को अच्छे/खासे वोट मिले । संजीव सिंघल और उनके समर्थकों को भी इतनी बड़ी सफलता मिलने की उम्मीद नहीं थी - यदि होती तो उनके एक बड़े समर्थक के रूप में गिरीश आहुजा जैसे बड़े व्यक्ति को छोटी छोटी जगहों पर भी अपनी फजीहत नहीं कराना पड़ती । संजीव सिंघल और उनके समर्थकों ने जिस तरह से हर हथकंडा अपनाया, उसका उन्हें अच्छा सुफल भी मिला । हंसराज चुग के साथ कोई बड़ा नाम तो नहीं था, लेकिन छोटे छोटे ग्रुपों और नेताओं के बीच प्रभावी तालमेल बना कर उन्होंने अपने चुनाव अभियान को जिस तरह से संयोजित किया, उससे लगा कि उन्होंने हर चुनावी जरूरत का ध्यान रखा और खतरे वाली हर जगह पर ध्यान दिया और वहाँ हालात को साधने की कोशिश की - और अच्छा नतीजा पाया । संजय वासुदेवा की तरह अतुल गुप्ता की सीट को भी कोई खतरा नहीं समझा/पहचाना जा रहा था, लेकिन संजय वासुदेवा की तरह अतुल गुप्ता अति-आत्मविश्वास का शिकार नहीं हुए । अतुल गुप्ता को जो झटके लग रहे थे, वह उन्हें कोई बड़ा नुकसान पहुँचाते हुए नहीं दिख रहे थे, लेकिन फिर भी उन्होंने झटकों से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के पुरजोर इंतजाम किए और जिनके चलते वह अपनी सीट बचा सकने में सफल रहे । विजय गुप्ता ने संजय वासुदेवा जैसी लापरवाही तो नहीं दिखाई, किंतु अतुल गुप्ता जैसी होशियारी भी वह नहीं दिखा सके; उन्होंने बँधे/बँधाये फार्मूले पर काम किया, जिसके तहत वह चुनाव से कुछ पहले सक्रिय हुए और उसमें भी उन्होंने खतरे वाली जगहों को पहचानने की जरूरत नहीं समझी - हंसराज चुग, प्रमोद जैन, सुधीर अग्रवाल की तरफ से मिलने वाली चुनौती को समझने/पहचानने में वह चूक कर बैठे और अपनी सीट गँवा बैठे । चुनावी नतीजों ने यह बात भी स्पष्ट कर दी है कि सिर्फ ज्ञान बाँट कर और या सिर्फ पार्टियाँ आयोजित करके ही चुनाव नहीं जीते जा सकते हैं, जो लोग इन दोनों चीजों में बेहतर तालमेल बनायेंगे - जीत उन्हीं को मिलेगी ।