गाजियाबाद । अनुज गोयल की पतली हालत की खबरें सुनकर विनय मित्तल में अचानक से जोश भरा है, और वह सेंट्रल काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी को लेकर तेजी से गंभीर और सक्रिय हो गए हैं । उनके नजदीकियों का हालाँकि कहना यह भी है कि लखनऊ में जब से अविचल कपूर ने एक उम्मीदवार के रूप में उनकी तारीफ की है, तब से विनय मित्तल में ज्यादा जोश भरा है और उन्हें लगता है कि चुनाव में उनका कुछ हो सकता है । जोश के बावजूद विनय मित्तल की सक्रियता का आलम यह है कि अभी जब चुनाव में मुश्किल से चार दिन बचे हैं, तब वह सोशल मीडिया में विभिन्न शहरों/राज्यों के अपने दोस्तों से अनुरोध कर रहे हैं कि वह उन्हें अपने परिचित व नजदीकी चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के नाम/नंबर दें, ताकि वह उनसे अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन माँग सकें । उनकी इस 'सक्रियता' पर लोग हँस रहे हैं और कह रहे हैं कि जो काम उन्हें कम से कम चार महीने पहले तो कर ही लेना चाहिए था, उसे अब चुनाव से चार दिन पहले करके वह क्या हासिल कर लेंगे ? उनके नजदीकियों का ही मानना/कहना है कि विनय मित्तल ने अपनी उम्मीदवारी को दरअसल गंभीरता से कभी लिया ही नहीं; वह असल में इस बात से बेफिक्र से थे कि अनुज गोयल और उनके भाई को तो चुनाव में आना नहीं है, इसलिए इस बार का चुनाव आसान होगा । ज्ञान चंद्र मिसरा को वह गंभीरता से ले नहीं रहे थे, और उन्हें विश्वास था कि सेंट्रल रीजन में जो एक सीट बढ़ रही है, वह उन्हें आराम से मिल जाएगी । लेकिन अचानक से जब अनुज गोयल ने सेंट्रल काउंसिल के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत कर दी, तो विनय मित्तल को अपनी उम्मीद खत्म होती हुई नजर आई और वह अपनी उम्मीदवारी को लेकर ढीले पड़ गए ।
लेकिन विनय मित्तल को अब जब सुनने को मिला है कि अनुज गोयल की उम्मीदवारी को लोगों के बीच अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पा रहा है, तो विनय मित्तल को फिर से अपनी उम्मीदवारी के लिए उम्मीद बंधी है और वह पुनः सक्रिय हुए हैं । अनुज गोयल को रीजन में यूँ तो करिश्माई नेता के रूप में देखा/पहचाना जाता है, लेकिन इस बार के चुनाव में उनका करिश्मा फीका पड़ता नजर आ रहा है । उनके करिश्मे के फीके पड़ने के संकेत हालाँकि पिछली बार के चुनाव में ही मिल गया था, जब उनके भाई जितेंद्र गोयल पहली वरीयता के वोटों की गिनती में नौवें नंबर पर जा पहुँचे थे । इसे जितेंद्र गोयल की नहीं, बल्कि अनुज गोयल की हार के रूप में देखा/पहचाना गया था । दरअसल लोगों को यह अच्छा नहीं लगा था कि नियमानुसार जब अनुज गोयल को उम्मीदवार बनने का अधिकार नहीं मिला, तो उन्होंने अपने भाई को उम्मीदवार बना/बनवा दिया है और इस तरह इंस्टीट्यूट को उन्होंने जैसे अपनी बपौती समझ लिया । अनुज गोयल की इस समझ का बदला पिछली बार लोगों ने जितेंद्र गोयल से लिया, तो इस बार लोग अनुज गोयल को सबक सिखाना चाहते हैं । अनुज गोयल ने सोचा तो यह था कि रीजन में एक सीट जो बढ़ी है, उसका फायदा उन्हें मिल जायेगा और वह आसानी से विजयी हो जायेंगे । किंतु अनुज गोयल जब अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने निकले तो अधिकतर जगहों पर उन्हें लोगों से लताड़ ही सुनने को मिली कि 12 वर्ष सेंट्रल काउंसिल में रहते हुए उनके लिए और क्या करना बाकी रह गया है, जो अब वह फिर सेंट्रल काउंसिल में जाना चाहते हैं और या उन्होंने इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल को अपनी पारिवारिक संपत्ति समझ लिया है, जहाँ कि उनकी कुर्सी हमेशा रहनी ही चाहिए । लोगों का कहना है कि पिछली बार अपने भाई की और इस बार अपनी उम्मीदवारी के जरिये अनुज गोयल ने सत्ता से चिपके रहने की अपनी हवस दिखा कर वास्तव में इंस्टीट्यूट व प्रोफेशन की पहचान व साख को कलंकित ही किया है ।
अनुज गोयल को इस बार लोगों के बीच जिस विरोध और तीखी बातों को झेलना/सुनना पड़ रहा है, उसके चलते उनकी उम्मीदवारी मुसीबत में फँसी नजर आ रही है । समस्या की बात यह भी है कि गाजियाबाद और उत्तर प्रदेश में उम्मीदवारों की संख्या काफी है, जो आपस में एक दूसरे को ही नुकसान पहुँचायेंगे; इसके अलावा इस बार के चुनाव में राजस्थान के मुकाबले उत्तर प्रदेश के वोटों की संख्या काफी घटी है - इस कारण से एक अनुमान यह लगाया जा रहा है कि रीजन में बढ़ी हुई सीट उत्तर प्रदेश की बजाये राजस्थान में भी जा सकती है । उत्तर प्रदेश में मनु अग्रवाल की सीट तो सुरक्षित ही समझी/देखी जा रही है; मुकेश कुशवाह की उम्मीदवारी को हालाँकि कई झटके लगे हैं - सबसे बड़ा झटका तो यही कि पिछली बार के उनके एक बड़े समर्थक रहे ज्ञान चंद्र मिसरा इस बार खुद उम्मीदवार बन गए हैं, जिन्होंने मुकेश कुशवाह के कुछेक और समर्थकों को भी अपने साथ कर लिया है - लेकिन फिर भी लोगों को लग रहा है कि मुकेश कुशवाह अपनी सीट बचा लेंगे । रीजन में जो एक सीट बढ़ी है, उसे पाने के लिए ज्ञान चंद्र मिसरा ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ है । मजेदार संयोग यह है कि गाजियाबाद से सेंट्रल काउंसिल सदस्य होने वाले अनुज गोयल और मुकेश कुशवाह ने सेंट्रल काउंसिल का पहला चुनाव उस वर्ष लड़ा था, जिस वर्ष वह सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन थे - यह तीसरा उदाहरण होगा कि ज्ञान चंद्र मिसरा सेंट्रल इंडिया रीजनल काउंसिल के चेयरमैन के पद पर रहते हुए पहली बार सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ रहे हैं । इनके अलावा गाजियाबाद से वेद गोयल, सुनील गुप्ता, जितेंद्र गोयल और विनय मित्तल ने रीजनल काउंसिल में चेयरमैन हुए बिना सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ा, लेकिन कामयाब नहीं हो सके । यह अनोखा संयोगभरा तथ्य ज्ञान चंद्र मिसरा की उम्मीदवारी की सफलता की संभावना को बढ़ा देता है । ज्ञान चंद्र मिसरा की उम्मीदवारी हालाँकि सिर्फ संयोग के भरोसे नहीं है, और रीजनल काउंसिल का चेयरमैन होने के नाते उन्होंने प्रत्येक ब्रांच में अपनी पैठ बनाने और अपने लिए समर्थन जुटाने का प्रयास किया है । ज्ञान चंद्र मिसरा ने उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड तथा बिहार व झारखंड में समर्थन जुटाने के लिए सघन प्रयास किए हैं । इन क्षेत्रों में प्रयास हालाँकि दूसरे उम्मीदवारों ने भी किए हैं, लेकिन पूर्व के होने के नाते ज्ञान चंद्र मिसरा के प्रयासों को पूर्वीय क्षेत्र में अच्छा समर्थन मिलने की उम्मीद है । अनुज गोयल की हो रही फजीहत ने इस उम्मीद को और बढ़ा दिया है । अनुज गोयल की हो रही फजीहत को देख कर विनय मित्तल में भी उम्मीद तो जगी है और उनमें जोश भी पैदा हुआ है, लेकिन लोगों को लग रहा है कि उनमें जोश देर से पैदा हुआ है, इसलिए उनका जोश उनके काम आ सकेगा, इसमें संदेह है ।