Sunday, July 1, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करने वाले संजीव सिंघल के 'चीयर लीडर' के रूप में दिख कर गिरीश आहुजा ने अपने प्रशंसकों को परेशान, निराश और नाराज किया हुआ है

नई दिल्ली । संजीव सिंघल के चक्कर में गिरीश आहुजा को हाल-फिलहाल के दिनों में नॉर्दर्न रीजन की कुछेक ब्रांचेज में जिस तरह से फजीहत का शिकार होना पड़ा है, उसके चलते उन्हें चाहने वालों को डर हो गया है कि अपनी चुनावी राजनीति के लिए संजीव सिंघल जिस तरह से गिरीश आहुजा को इस्तेमाल कर रहे हैं - उसके नतीजे के रूप में गिरीश आहुजा कहीं लोगों के बीच बने अपने मान-सम्मान से हाथ न धो बैठें । उल्लेखनीय है कि प्रोफेशन के लोगों के बीच गिरीश आहुजा का अच्छा प्रभाव है और लोग उन्हें बहुत आदर के साथ देखते/सुनते हैं । किसी सेमीनार में स्पीकर के रूप में उनकी उपस्थिति को सेमीनार की सफलता की गारंटी के रूप में देखा जाता है । किसी का सेमीनार कराने को 'धंधा' पिट रहा होता है या नहीं चल रहा होता है तो वह गिरीश आहुजा को स्पीकर के रूप में आमंत्रित कर लेता है और उसका धंधा चमक उठता है । गिरीश आहुजा की इस 'पहचान' का फायदा इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के खिलाड़ी समय समय पर उठाते रहते हैं; जिसके तहत वह प्रयास करते हैं कि सेमीनार की आड़ में होने वाली अपनी चुनावी सभा में वह गिरीश आहुजा को भी आमंत्रित कर लेते हैं । गिरीश आहुजा के नाम पर भीड़ जुट जाती है, और उनकी राजनीति हो जाती है । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए उम्मीदवारी प्रस्तुत करते हुए संजीव सिंघल ने गिरीश आहुजा के 'महत्त्व' को समझा और पहले से ही उन्हें सेमीनार की आड़ में होने वाली अपनी चुनावी सभाओं के लिए 'बुक' कर लिया । इंस्टीट्यूट के चुनावी मौसम में प्रोफेशन के लोग गिरीश आहुजा को सक्रिय देखने के आदी भी हैं, इसलिए संजीव सिंघल के साथ उन्हें देख कर किसी को आश्चर्य भी नहीं हुआ । लेकिन संजीव सिंघल के मामले में गिरीश आहुजा के बदले बदले से रवैये ने लोगों को जरूर परेशान, निराश और नाराज किया है ।
गिरीश आहुजा दरअसल अभी तक सेमिनार के रूप में होने वाली चुनावी सभाओं में अपनी तरफ से यह गरिमा बना कर रखते थे कि वह किसी उम्मीदवार के लिए समर्थन नहीं माँगते थे । सेमीनार के नाम पर होने वाली चुनावी सभा में वह अप्रत्यक्ष रूप से 'भीड़ खेचूँ' का काम तो कर देते थे, लेकिन उन्होंने कभी किसी उम्मीदवार को वोट देने की या उम्मीदवार का ध्यान रखने की अपील लोगों से नहीं की । इस तरह गिरीश आहुजा ने हमेशा ही अपनी गरिमा बना कर रखी और लोगों से मिलने वाले सम्मान के प्रति सम्मान प्रकट किया । गिरीश आहुजा ने हमेशा ही इस बात को समझा और उसका सम्मान किया कि लोग उन्हें अपने विषय के एक एक्सपर्ट के रूप में सुनने के लिए आते हैं, किसी उम्मीदवार के 'चीयर लीडर' के रूप में उन्हें सुनने नहीं आते हैं । गिरीश आहुजा लेकिन संजीव सिंघल के मामले में अपनी गरिमा को छोड़ते हुए नजर आए हैं, और कुछेक जगह उन्होंने संजीव सिंघल के 'चीयर लीडर' की भूमिका निभाने का काम भी किया । गिरीश आहुजा के लिए बदकिस्मती की बात रही कि ऐसा करते हुए उन्हें प्रायः हर जगह विरोध और फजीहत का सामना करना पड़ा । एक ब्रांच के कार्यक्रम में गिरीश आहुजा ने जब संजीव सिंघल को वोट देने की अपील की, तो लोग भड़क उठे और उन्होंने यह कहते हुए गिरीश आहुजा को लताड़ने की कोशिश की कि आपकी बगल में हमारा भी एक (रीजनल काउंसिल का) उम्मीदवार बैठा है, और आप उसकी कोई बात नहीं कर रहे हैं, सिर्फ संजीव सिंघल की बात कर रहे हैं । लोगों के तीखे विरोध को देखते हुए गिरीश आहुजा को यह कहते हुए लोगों से माफी माँगनी पड़ी कि चूँकि मैं इन्हें जानता नहीं हूँ, इसलिए इनके बारे में मैंने कुछ नहीं कहा ।
गिरीश आहुजा ने जहाँ कहीं भी संजीव सिंघल की उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने की कोशिशें कीं, प्रायः हर जगह कहीं गर्म रूप में तो कहीं नर्म रूप में उन्हें विरोध और फजीहत का ही सामना करना पड़ा है । प्रोफेशन के लोगों को दरअसल संजीव सिंघल के लिए गिरीश आहुजा का 'चीयर लीडर' बनना हजम नहीं हो रहा है । लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो रहा है कि संजीव सिंघल से गिरीश आहुजा को आखिर ऐसा कौन सा लाभ मिल रहा है या मिल सकेगा - जो उनके लिए वह 'चीयर लीडर' बनने को तैयार हो गए हैं, और प्रोफेशन के लोगों के बीच बने अपने सम्मान को भी दाँव पर लगाने के लिए तैयार हो गए हैं । मजे की बात है कि अभी तक इस बात को कोई ठोस आधार नहीं मिला है कि गिरीश आहुजा के साथ सेमीनार में हिस्सेदारी कर लेने से उम्मीदवार को वास्तव में कितना/क्या फायदा होता है; फायदे की बात अभी तक भी सिर्फ परसेप्शन पर ही आधारित है; क्योंकि इस बात के भी उदाहरण हैं कि गिरीश आहुजा के साथ सेमीनार में हिस्सेदारी करके गिरीश आहुजा को अपने समर्थन में 'दिखाने' वाले उम्मीदवार भी बस जैसे-तैसे करके ही चुनाव जीते हैं । लगता है कि संजीव सिंघल इसीलिए गिरीश आहुजा को सेमीनार में अपने साथ 'दिखाने' भर से ही संतुष्ट नहीं हैं और वह चाहते हैं तथा अपनी इसी चाहत में उन्होंने गिरीश आहुजा से 'चीयर लीडर' का काम भी करवा लिया है । संजीव सिंघल का 'स्वार्थ' तो हर किसी को समझ में आ रहा है, लेकिन हर किसी के लिए यह समझना मुश्किल हो रहा है कि गिरीश आहुजा के सामने आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ पड़ी है कि अपनी गरिमा और प्रोफेशन के लोगों के बीच अपने सम्मान की परवाह न करते हुए उन्होंने संजीव सिंघल के लिए 'चीयर लीडर' बनना स्वीकार कर लिया है ?