नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट की विभिन्न काउंसिल्स के लिए होने वाले चुनावों में नामांकन की समयसीमा पूरी हो जाने के बाद चुनावी परिदृश्य साफ हो जाने के साथ-साथ, उम्मीदवारों की तैयारी में गर्मी आ गई दिख रही है - जिसके तहत उम्मीदवारों और उनके समर्थकों/शुभचिंतकों को अपनी अपनी पोजीशंस लेते हुए देखा जा रहा है । नॉर्दर्न रीजन की चुनावी चर्चाओं में हालाँकि हंसराज चुग और सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी की स्थिति को लेकर होने वाले आकलन का जोर है । पिछले चुनाव में हंसराज चुग चूँकि मामूली अंतर से पिछड़ गए थे, इसलिए कुछेक लोगों को लगता है कि पिछली बार रह गई कमी को पूरा करके हंसराज चुग इस बार कामयाबी को अवश्य ही अपनी जेब में कर सकेंगे । अन्य कई लोगों को लेकिन लगता है कि यही 'गलतफहमी' हंसराज चुग को इस बार ले डूबेगी । उनका तर्क है कि हर उम्मीदवार के लिए हर चुनाव एक अलग चैप्टर की तरह होता है, जिसकी केमिस्ट्री और गणित पिछले चुनाव से पूरी तरह अलग होता है । किसी भी उम्मीदवार के लिए अगला चुनाव वहाँ से शुरू नहीं होता है, जहाँ पिछ्ला चुनाव खत्म हुआ होता है - यदि ऐसा होता तो काउंसिल के सदस्य तो चुनाव हारते ही नहीं; जबकि पिछले चुनाव में वेस्टर्न तथा ईस्टर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल सदस्य चुनाव हारे थे; नॉर्दर्न रीजन में भी पीछे एक बार विजय गुप्ता सेंट्रल काउंसिल सदस्य होते हुए दोबारा नहीं चुने जा सके थे, और इस बार हर किसी को राजेश शर्मा का चुना जाना मुश्किल लग रहा है । इसलिए यह मानना/समझना कि पिछली बार की रह गई कमी को पूरा करके हंसराज चुग इस बार मैदान मार लेंगे, एक खामख्याली ही है । हंसराज चुग और उनके समर्थक चाहें तो एसएस शर्मा के अनुभव से सबक सीख सकते हैं । उल्लेखनीय है कि एसएस शर्मा को 2012 के चुनाव में अच्छा समर्थन मिला था, लेकिन वह सफल नहीं हो सके थे; उन्होंने सोचा कि वह अगली बार और मेहनत करेंगे और जीत को हासिल कर लेंगे - वर्ष 2015 के चुनाव के लिए उन्होंने मेहनत जमकर की भी, लेकिन जीत उन्हें फिर भी नहीं मिली ।
चुनावी राजनीति के घुमावदार समीकरणों को जानने/समझने वाले लोगों का मानना/कहना है कि चुनावी राजनीति सिर्फ मेहनत से नहीं जीती जा सकती; उसके लिये माहौल में एक 'शोर' - एक सकारात्मक किस्म का 'शोर' भी चाहिए होता है; यह शोर कभी उम्मीदवार के बैकग्राउंड से और या उसकी सक्रियता से स्वयं पैदा हो जाता है या उसे कृत्रिम तरीके से पैदा करना होता है । एसएस शर्मा यह नहीं कर पाए और सिर्फ मेहनत के भरोसे रहे - जिसका नतीजा रहा कि वह कामयाब नहीं हो सके । हंसराज चुग भी उन्हीं की कहानी को दोहराते नजर आ रहे हैं । असल में, पिछली बार किसी को उम्मीद नहीं थी कि हंसराज चुग चुनावी जीत के आसपास आ सकते हैं; दरअसल 'शोर' की कमी के चलते किसी ने भी उनकी उम्मीदवारी को गंभीरता से लिया ही नहीं था । उनकी स्थिति का गहराई से तुलनात्मक अध्ययन करें तो देखते हैं कि पहली वरीयता के वोटों की गिनती में 1072 वोटों के साथ दसवें नंबर पर रहते हुए वह 1361 वोटों के साथ आठवें नंबर पर रहे राजेश शर्मा से काफी पीछे थे; लेकिन फाइनल गिनती तक आते आते वह राजेश शर्मा से मामूली अंतर से पीछे रह गये थे । कई लोगों को लगता है कि हंसराज चुग अपनी उम्मीदवारी का यदि थोड़ा सा भी 'शोर' पैदा कर पाते, और चुनावी माहौल में अपनी उम्मीदवारी को लेकर थोड़ी सी भी गर्मी पैदा कर पाते - तो राजेश शर्मा की जगह काउंसिल में वह होते । हंसराज चुग के लिए इस बार भी पिछली बार जैसी ही स्थिति नजर आ रही है - वह और उनके समर्थक दो तथ्यों की सीधे सीधे अनदेखी करते लग रहे हैं, जिसके कारण इस बार उनके लिए हालात और भी चुनौतीपूर्ण बने नजर आ रहे हैं । पिछली बार वह रीजनल काउंसिल के सदस्य थे, जिस कारण वह लोगों के निरंतर संपर्क में थे और जिसका उन्हें फायदा मिला; दूसरी बात यह थी कि चरनजोत सिंह नंदा के उम्मीदवार न होने से उन्हें काफी पंजाबी वोट मिल गए थे - इस बार यह दोनों फायदे उन्हें आसानी से नहीं मिल सकेंगे । वोटों के किसी और 'ब्लॉक' पर उनका ध्यान है, ऐसा दिख नहीं रहा है । कुल मिलाकर उनका रवैया एसएस शर्मा जैसा ही है - और एसएस शर्मा की तरह हंसराज चुग ने भी मान लिया है कि इस बार थोड़ी और मेहनत करके वह पिछली बार रह गई कमी को पूरा कर लेंगे और सेंट्रल काउंसिल में जा बैठेंगे । लोगों को लगता है कि एसएस शर्मा जैसा रवैया अपना लेने के कारण इस बार के सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में हंसराज चुग का हाल भी कहीं एसएस शर्मा जैसा ही न हो जाए ?
चुनावी राजनीति की तरकीब को समझने और उसे अपनाने के मामले में पिछली बार की तुलना में इस बार सुधीर अग्रवाल ने लेकिन ऊँची छलाँग लगाई है । पिछला चुनाव उन्होंने 'लो-पिच' पर लड़ा था, लेकिन इस बार वह 'हाई-पिच' पर हैं । उनके मामले में हालात भी इस बार स्वाभाविक रूप से उनके अनुकूल दिख रहे हैं । सुधीर अग्रवाल के लिए खासी अनुकूल और दिलचस्प स्थिति यह बनी है कि नवीन गुप्ता और संजय अग्रवाल के रूप में जो सीटें खाली हो रही हैं, उन्हें 'बनिया सीटों' के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है; इन दोनों के समर्थकों के बीच अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से सुधीर अग्रवाल ने इनके नजदीकियों और खास लोगों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास किया है । नवीन गुप्ता के पिता और इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रेसीडेंट एनडी गुप्ता तथा संजय अग्रवाल के राजनीतिक पार्टनर और रीजनल काउंसिल के पूर्व चेयरमैन हरीश अग्रवाल से अपनी उम्मीदवारी के नामांकन पत्रों को प्रस्तावित करवा कर सुधीर अग्रवाल ने बड़ा राजनीतिक दाँव चला है, जिसका तोड़ खोजना बाकी उम्मीदवारों के लिए मुश्किल हो रहा है । इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रेसीडेंट वेद जैन तथा रीजनल काउंसिल के पूर्व चेयरमैन अनिल जिंदल, अनिल अग्रवाल, बीडी गुप्ता आदि भी सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी के प्रस्तावकों में हैं । लुधियाना के वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट और एनडी गुप्ता खेमे के सदस्य के रूप में देखे जाने वाले सेंट्रल काउंसिल के पूर्व सदस्य दीपक गुप्ता को अपनी उम्मीदवारी के प्रस्तावकों में शामिल करके सुधीर अग्रवाल ने अपनी उम्मीदवारी की अपील को व्यापक बनाने का जो प्रयास किया है, वह चुनावी परिदृश्य में उनकी उम्मीदवारी का 'शोर' और ऊँचा करता है । एक उम्मीदवार की सक्रियता का जो 'रुटीन' होता है, उसे अपनाने/निभाने के साथ-साथ सुधीर अग्रवाल ने अपनी उम्मीदवारी को लेकर चुनावी परिदृश्य में जो 'शोर' स्थापित किया है, उसके चलते वरिष्ठ और युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच उनकी उम्मीदवारी को खासी गंभीरता से लिया जा रहा है । हंसराज चुग द्वारा अपनी रणनीति को पुराने ढर्रे पर ही चलाने तथा सुधीर अग्रवाल द्वारा अपनी रणनीति में व्यापक सुधार कर लेने के चलते नॉर्दर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल के चुनावी समीकरणों में बड़ा उलटफेर होता दिख रहा है और जिस कारण यहाँ का चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प हो उठा है ।