Monday, May 6, 2019

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 321 सी टू में सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के चुनाव में सुनीता बंसल के समर्थकों की हवाबाजी और उनके बड़बोलेपन ने माहौल में गर्मी तो पैदा कर दी थी, लेकिन जितेंद्र चौहान व पारस अग्रवाल की जोड़ी के सामने उन्हें भारी हार का सामना करना पड़ा है

आगरा । श्याम बिहारी अग्रवाल और सुनीता बंसल के बीच हुए सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के जिस चुनाव को सुनीता बंसल के समर्थक काँटे और टक्कर का चुनाव बता रहे थे, उस चुनाव को सुनीता बंसल लेकिन करीब 70 वोटों के भारी अंतर से हार गईं । सुनीता बंसल ने हालाँकि पूरी दमदारी से चुनाव लड़ा था, उन्हें डिस्ट्रिक्ट के अधिकतर पूर्व गवर्नर्स का खुला और सक्रिय समर्थन प्राप्त था, फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर मधु सिंह का समर्थन उनके साथ था, श्याम बिहारी अग्रवाल की तुलना में लायनिज्म व डिस्ट्रिक्ट में उनकी भूमिका व सक्रियता ज्यादा प्रभावी रही है, डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच श्याम बिहारी अग्रवाल की नकारात्मक छवि रहने से अवधारणा के स्तर पर सुनीता बंसल का पलड़ा भारी था - लेकिन इतनी तमाम सकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद सुनीता बंसल भारी अंतर से चुनाव हार गईं । बड़े अंतर से मिली हार के लिए जो एक प्रमुख कारण रहा, वह यह कि सुनीता बंसल और उनके समर्थक इस 'तथ्य' को भूले रहे कि चुनाव - कोई भी चुनाव वास्तव में एक 'मैनेजमेंट' भी होता है । सुनीता बंसल और उनके तीसमारखाँ किस्म के नेताओं ने हवाबाजी तो बहुत दिखाई और बड़बोले दावे किए, लेकिन मैनेजमेंट पर कोई ध्यान नहीं दिया - जिसका नतीजा रहा कि हर तरह से अनुकूल व आसान समझी जा रही चुनावी लड़ाई में वह 'खेत' रहे । फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर मधु सिंह के समर्थन का भी सुनीता बंसल और उनके समर्थक नेता वोट जुटाने के संदर्भ में फायदा नहीं उठा सके । 
श्याम बिहारी अग्रवाल को जिस तरह से आगरा के एक 'बंद हो चुके' क्लब का सदस्य बना कर, आगरा के लोगों के सिर पर थोपा गया - और जिसके चलते जितेंद्र चौहान व पारस अग्रवाल के नजदीकी पूर्व गवर्नर्स उनके खिलाफ हो गए; उससे बने माहौल ने सुनीता बंसल और उनके समर्थकों को सुनहरा मौका दिया था; लेकिन जिसका वह कोई फायदा नहीं उठा सके । पारस अग्रवाल की नजदीकी रिश्तेदार होने के कारण सुनीता बंसल की उम्मीदवारी ने पारस अग्रवाल के सामने सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, बल्कि पारिवारिक व नैतिक संकट भी खड़ा कर दिया था - किंतु सुनीता बंसल की उम्मीदवारी को उसका भी कोई फायदा नहीं मिला । दरअसल परिस्थितियों की अनुकूलता को देखते हुए सुनीता बंसल की उम्मीदवारी के समर्थक इतने जोश में आये हुए थे कि वह पूरी तरह से होश खो बैठे थे, जिसके चलते अनुकूलताओं का फायदा उठाने की कोशिशें करने की बजाये वह बड़बोलेपन के साथ हवाबाजी करने में ही व्यस्त रहे - और वोट जितेंद्र चौहान व पारस अग्रवाल की जोड़ी ले उड़ी । चुनावी नतीजा आने से पहले के चुनाव अभियान के माहौल पर यदि नजर डालें तो यहीं समझ में आता है कि जितेंद्र चौहान और पारस अग्रवाल की जोड़ी ने चुनाव लड़ने पर नहीं, बल्कि 'मैनेज' करने पर ध्यान दिया और खासी विपरीत व मुश्किल हालात वाले चुनाव को सिर्फ जीता ही नहीं - बल्कि भारी अंतर से जीता ।
असल में, श्याम बिहारी अग्रवाल को 'आगरा का' उम्मीदवार बनाये जाने के लिए अपनाये गए तौर-तरीके को लेकर डिस्ट्रिक्ट में, खासकर आगरा में जिस तरह की नाराजगी फूटी - उसे देख कर जितेंद्र चौहान व पारस अग्रवाल की जोड़ी ने समझ लिया था कि श्याम बिहारी अग्रवाल की उम्मीदवारी के पक्ष में 'अभियान' चला पाना मुश्किल ही होगा, और उससे नुकसान ही होगा - इसलिए उन्होंने दूसरी रणनीति अपनाई । उनकी रणनीति ने उन्हें दोहरा लाभ पहुँचाया - एक तरफ तो श्याम बिहारी अग्रवाल के अभियान को कमजोर देख कर सुनीता बंसल की उम्मीदवारी के समर्थक इतने जोश में आ गए कि उन्हें अपनी जीत आसान लगने लगी और जिसके चलते वह मौकों का फायदा उठाने के प्रयास करने से चूकते गए; दूसरी तरफ, जितेंद्र चौहान व पारस अग्रवाल की जोड़ी को वोट मैनेज करने का खेल खेलने के लिए खुला मैदान मिल गया, जिसका उन्होंने पूरा पूरा फायदा उठाया । सेकेंड वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद के चुनाव में फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के समर्थन को खासा महत्त्वपूर्ण माना/पहचाना जाता है, क्योंकि उसके पास पदों का लालच देकर वोट खींचने की क्षमता होती है । इस क्षमता के चलते फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर मधु सिंह के समर्थन की ताकत तो सुनीता बंसल की उम्मीदवारी के साथ थी ही, मधु सिंह के पति पूर्व गवर्नर विश्वदीप सिंह के कारण वह 'ताकत' और बढ़ गई थी । दरअसल विश्वदीप सिंह को जितेंद्र चौहान से कई मामलों में 'बदले' लेने हैं, इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि मधु सिंह की फर्स्ट वाइस डिस्ट्रिक्ट गवर्नरी के जरिये विश्वदीप सिंह कोई कसर छोड़ेंगे नहीं - लेकिन यह उम्मीद भी काम नहीं आई । असल में, गड़बड़ी यही हुई कि सुनीता बंसल की उम्मीदवारी के समर्थक नेता सिर्फ उम्मीद पर रहे, चुनावी लड़ाई का जो एक मैनेजमेंट होता है, उसपर उनका कोई ध्यान ही नहीं था - लिहाजा एक आसान दिख रही चुनावी लड़ाई में वह बुरी तरह से हार गए ।