नई दिल्ली । इंस्टीट्यूट के वाइस प्रेसीडेंट पद पर हुई निहार जंबुसारिया की चुनावी जीत इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों को हैरान करने वाली तो है ही, इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के तुर्रमखांओं को झटका देने वाली भी है । हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी पूर्व प्रेसीडेंट्स अमरजीत चोपड़ा, उत्तम अग्रवाल और सुबोध अग्रवाल अपने अपने उम्मीदवारों को जितवाने के लिए चालें चल रहे थे, लेकिन इस वर्ष इन्हें बुरी तरह मुहँकी खानी पड़ी । बुरी तरह इसलिए, क्योंकि वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए इनके सारे प्लान - प्लान ए, प्लान बी, प्लान सी ..... आदि-इत्यादि सब फेल हो गए । दरअसल इन नेताओं का खेल हर वर्ष होता/रहता यह है कि अपने प्रमुख उम्मीदवारों के साथ-साथ यह दो-तीन और उम्मीदवारों को भी 'गोली' दिए रहते हैं, और वोटों का आदान-प्रदान करवा कर अपने पहले नहीं, तो दूसरे; दूसरे नहीं, तो तीसरे; और तीसरे नहीं, तो चौथे उम्मीदवार के जीतने की स्थिति बना लेते थे - और फिर श्रेय 'लूटते' थे । इसी 'परंपरा' के तहत इस वर्ष अनिल भंडारी, सुशील गोयल, मनु अग्रवाल, धीरज खंडेलवाल इन नेताओं के पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे नंबर के उम्मीदवार थे ।
अमरजीत चोपड़ा ने अनिल भंडारी और मनु अग्रवाल को 'गोली' दी हुई थी; सुबोध अग्रवाल ने सुशील गोयल की उम्मीदवारी का झंडा उठाया हुआ था; और उत्तम अग्रवाल ने धीरज खंडेलवाल के लिए दाँव लगाया हुआ था । तत्कालीन प्रेसीडेंट प्रफुल्ल छाजेड़ के अनिल भंडारी के तथा तत्कालीन वाइस प्रेसीडेंट अतुल गुप्ता के सुशील गोयल के समर्थन में होने के कारण इनका पलड़ा भारी दिख रहा था । उत्तम अग्रवाल के उम्मीदवार की पहचान रखने के कारण धीरज खंडेलवाल को समर्थन का टोटा पड़ता दिखा, तो उत्तम अग्रवाल ने मनु अग्रवाल की उम्मीदवारी का झंडा इस उम्मीद से उठा लिया कि अमरजीत चोपड़ा का समर्थन मनु अग्रवाल को मिलेगा ही, तो धीरज खंडेलवाल न सही मनु अग्रवाल को ही वह वाइस प्रेसीडेंट चुनवा लेते हैं । वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में दिलचस्पी लेते रहे पूर्व प्रेसीडेंट एनडी गुप्ता दिल्ली विधानसभा की राजनीति में व्यस्त रहने के कारण इस वर्ष वाइस प्रेसीडेंट की राजनीति से दूर रहे, जिस कारण उम्मीद रही कि अमरजीत चोपड़ा, सुबोध अग्रवाल और उत्तम अग्रवाल के उम्मीदवारों में से ही कोई उम्मीदवार कामयाब हो जायेगा । लेकिन नतीजा आया, तो उक्त उम्मीदों को धराशाही पाया । समझा जाता है कि काउंसिल सदस्य, खासकर नए सदस्य पूर्व प्रेसीडेंट्स के खेल को समझ गए हैं, और इस बार वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में उनके हाथ की कठपुतली नहीं बने और उन्होंने अपने विवेक से फैसला किया ।
वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव के चक्कर में काउंसिल सदस्य दरअसल इन पूर्व प्रेसीडेंट्स के द्वारा कई बार इस्तेमाल हो चुके हैं; काउंसिल सदस्यों को वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए वोट दिलवाने का वास्ता देकर नेता लोग अपने समर्थक बनाते हैं, और फिर अपनी राजनीति के लिए उन्हें इस्तेमाल करते हैं । वाइस प्रेसीडेंट बनने की दौड़ में शामिल होने वाले काउंसिल सदस्यों का तो बहुत ही बुरा अनुभव रहा है; और अधिकतर ने अपने आप को 'ठगा' हुआ ही पाया है । वाइस प्रेसीडेंट पद के चुनाव में उत्तम अग्रवाल तथा अमरजीत चोपड़ा से वादानुरूप अपेक्षित समर्थन न मिलने से पूर्व काउंसिल सदस्य विजय गुप्ता ने तो अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से व्यक्त की थी । पूर्व प्रेसीडेंट्स की राजनीति में इस्तेमाल होने और या इस्तेमाल होने के किस्से सुन कर ही काउंसिल सदस्यों ने इस बार लगता है कि उनके झाँसे में आने से अपने आप को बचा लिया और इस कारण से इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अपनी चौधराहट बनाने/जमाने के चक्कर में लगे रहने वाले नेताओं को मात खाना पड़ी । समझा जाता है कि वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में नेताओं की वादाखिलाफी के शिकार हो चुके पूर्व व मौजूदा काउंसिल सदस्यों ने भी सक्रिय भूमिका निभा कर नेताओं की राजनीति को फेल करने का काम किया और निहार जंबुसारिया की उम्मीदवारी को सफल बनाया/बनवाया । इस तरह निहार जंबुसारिया का अप्रत्याशित तरीके से वाइस प्रेसीडेंट बनना इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के बड़े नेताओं के लिए खासे झटके वाली बात रही है ।
अमरजीत चोपड़ा ने अनिल भंडारी और मनु अग्रवाल को 'गोली' दी हुई थी; सुबोध अग्रवाल ने सुशील गोयल की उम्मीदवारी का झंडा उठाया हुआ था; और उत्तम अग्रवाल ने धीरज खंडेलवाल के लिए दाँव लगाया हुआ था । तत्कालीन प्रेसीडेंट प्रफुल्ल छाजेड़ के अनिल भंडारी के तथा तत्कालीन वाइस प्रेसीडेंट अतुल गुप्ता के सुशील गोयल के समर्थन में होने के कारण इनका पलड़ा भारी दिख रहा था । उत्तम अग्रवाल के उम्मीदवार की पहचान रखने के कारण धीरज खंडेलवाल को समर्थन का टोटा पड़ता दिखा, तो उत्तम अग्रवाल ने मनु अग्रवाल की उम्मीदवारी का झंडा इस उम्मीद से उठा लिया कि अमरजीत चोपड़ा का समर्थन मनु अग्रवाल को मिलेगा ही, तो धीरज खंडेलवाल न सही मनु अग्रवाल को ही वह वाइस प्रेसीडेंट चुनवा लेते हैं । वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में दिलचस्पी लेते रहे पूर्व प्रेसीडेंट एनडी गुप्ता दिल्ली विधानसभा की राजनीति में व्यस्त रहने के कारण इस वर्ष वाइस प्रेसीडेंट की राजनीति से दूर रहे, जिस कारण उम्मीद रही कि अमरजीत चोपड़ा, सुबोध अग्रवाल और उत्तम अग्रवाल के उम्मीदवारों में से ही कोई उम्मीदवार कामयाब हो जायेगा । लेकिन नतीजा आया, तो उक्त उम्मीदों को धराशाही पाया । समझा जाता है कि काउंसिल सदस्य, खासकर नए सदस्य पूर्व प्रेसीडेंट्स के खेल को समझ गए हैं, और इस बार वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में उनके हाथ की कठपुतली नहीं बने और उन्होंने अपने विवेक से फैसला किया ।
वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव के चक्कर में काउंसिल सदस्य दरअसल इन पूर्व प्रेसीडेंट्स के द्वारा कई बार इस्तेमाल हो चुके हैं; काउंसिल सदस्यों को वाइस प्रेसीडेंट पद के लिए वोट दिलवाने का वास्ता देकर नेता लोग अपने समर्थक बनाते हैं, और फिर अपनी राजनीति के लिए उन्हें इस्तेमाल करते हैं । वाइस प्रेसीडेंट बनने की दौड़ में शामिल होने वाले काउंसिल सदस्यों का तो बहुत ही बुरा अनुभव रहा है; और अधिकतर ने अपने आप को 'ठगा' हुआ ही पाया है । वाइस प्रेसीडेंट पद के चुनाव में उत्तम अग्रवाल तथा अमरजीत चोपड़ा से वादानुरूप अपेक्षित समर्थन न मिलने से पूर्व काउंसिल सदस्य विजय गुप्ता ने तो अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से व्यक्त की थी । पूर्व प्रेसीडेंट्स की राजनीति में इस्तेमाल होने और या इस्तेमाल होने के किस्से सुन कर ही काउंसिल सदस्यों ने इस बार लगता है कि उनके झाँसे में आने से अपने आप को बचा लिया और इस कारण से इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में अपनी चौधराहट बनाने/जमाने के चक्कर में लगे रहने वाले नेताओं को मात खाना पड़ी । समझा जाता है कि वाइस प्रेसीडेंट के चुनाव में नेताओं की वादाखिलाफी के शिकार हो चुके पूर्व व मौजूदा काउंसिल सदस्यों ने भी सक्रिय भूमिका निभा कर नेताओं की राजनीति को फेल करने का काम किया और निहार जंबुसारिया की उम्मीदवारी को सफल बनाया/बनवाया । इस तरह निहार जंबुसारिया का अप्रत्याशित तरीके से वाइस प्रेसीडेंट बनना इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति के बड़े नेताओं के लिए खासे झटके वाली बात रही है ।