Sunday, April 2, 2017

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स प्रशासन फर्जीवाड़ा करने वाले राधेश्याम बंसल और एसके गुप्ता जैसे चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सामने असहाय और मजबूर क्यों पड़ जाता है ?

नई दिल्ली । चार्टर्ड एकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट के मुख्यालय के बराबर से निकलती बाराखम्बा रोड पर स्थित अरुणाचल बिल्डिंग में चार्टर्ड एकाउंटेंट एसके गुप्ता के ऑफिस पर पड़ा प्रवर्तन निदेशालय का छापा इंस्टीट्यूट प्रशासन पर भी कालिख पोतने/चिपकाने जैसा है । छापे के बाद प्रवर्तन निदेशालय के सूत्रों की तरफ से दावा किया गया है कि एसके गुप्ता ने दो सौ अधिक फर्जी कंपनियाँ बनाई हुई हैं, जिनके जरिए उसने काले धन को सफेद करने का धंधा जमाया हुआ था । उल्लेखनीय बात यह है कि एसके गुप्ता तीन-चार वर्ष पहले भी इसी तरह की हरकतों के चक्कर में आयकर विभाग की पकड़ में आया था, जब आयकर विभाग ने उसे 'एंट्री प्रोवाइडर' के रूप में चिन्हित किया था । यानि, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के रडार पर रहने वाला एसके गुप्ता लगातार प्रोफेशन और इंस्टीट्यूट का नाम बदनाम कर रहा था - लेकिन इंस्टीट्यूट प्रशासन ने कभी भी उसके खिलाफ कार्रवाई करने की जरूरत नहीं समझी । इससे पहले, राधेश्याम बंसल और अनिल अग्रवाल के मामले में इंस्टीट्यूट प्रशासन हालाँकि भारी फजीहत झेल चुका है । राधेश्याम बंसल का नाम वित्तीय फर्जीवाड़े में पहले भी आ चुका है, और वह इंस्टीट्यूट की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का सदस्य और चेयरमैन भी रह चुका है । यानि, इंस्टीट्यूट प्रशासन की नाक के ठीक नीचे रहते हुए चार्टर्ड एकाउंटेंट्स फर्जीवाड़ों में लिप्त हैं, और इंस्टीट्यूट प्रशासन इस सब से बेपरवाह बना हुआ है ।
इस तरह के मामलों में इंस्टीट्यूट प्रशासन पर ज्यादा जिम्मेदारी थोपना उसके साथ ज्यादती करना भी होता - यदि उसने खुद ही आगे बढ़ कर नैतिकता व ईमानदारी के ऊँचे आदर्शों को स्थापित करने के लिए कदम न उठाए होते । सरकार के नोटबंदी के फैसले को लेकर इंस्टीट्यूट प्रशासन इतने जोश में आ गया था कि उसने चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के लिए एडवाईजरी तक जारी कर दी थी कि कोई भी चार्टर्ड एकाउंटेंट किसी भी तरह से और किसी भी रूप में सरकार के इस फैसले की आलोचना नहीं करेगा । इंस्टीट्यूट प्रशासन का तर्क था कि काले धन को समाप्त करने की दिशा में नोटबंदी एक महत्त्वपूर्ण कदम है, और इसलिए सरकार के इस कदम में कोई बाधा नहीं पड़ना चाहिए और इसलिए किसी भी रूप में इसकी आलोचना नहीं होनी चाहिए । उल्लेखनीय है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सरकार के फैसलों पर क्या राय रखें और व्यक्त करें - यह तय करने का अधिकार इस्टीट्यूट प्रशासन को नहीं है । लेकिन अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर भी इंस्टीट्यूट प्रशासन ने काले धन के खिलाफ लड़ाई को समर्थन देने का काम किया, और इस तरह नैतिकता व ईमानदारी के ऊँचे आदर्श दिखाने और स्थापित करने के लिए कदम उठाए - लेकिन इस बात से उसने आँखें मूँदे रखीं कि उसकी नाक के ठीक नीचे बैठे चार्टर्ड एकाउंटेंट्स कैसे काले धन को सफेद करने का धंधा चलाए हुए हैं । इंस्टीट्यूट प्रशासन से जुड़े लोग हालाँकि नियमों और प्रक्रिया का हवाला देकर कुछ कर सकने को लेकर अपनी असमर्थता जताते हैं, लेकिन यह सिर्फ बहानेबाजी ही है - एक बार फिर दोहरायेंगे कि जो इंस्टीट्यूट प्रशासन अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पर नोटबंदी के खिलाफ कुछ न कहने के लिए दबाव बना सकता है, वह चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को गैरकानूनी काम करने से रोकने का अपने अधिकार क्षेत्र का काम क्यों नहीं कर सकता है ?
इस सवाल का जबाव भी चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से ही मिल जाता है । अधिकतर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कहना है कि फर्जीवाड़ा करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नकेल कसना इंस्टीट्यूट प्रशासन के लिए मुश्किल इसलिए है, क्योंकि उनकी पहुँच इंस्टीट्यूट प्रशासन तक है और इंस्टीट्यूट प्रशासन उनके सामने अपने आप को लाचार पाता है । क्या कोई विश्वास करेगा कि फर्जी काम करने के मामले में जिस राधेश्याम बंसल की कुख्याति मीडिया तक की जानकारी में थी और मीडिया ने उसे 'रंगे हाथ' पकड़ा, उस राधेश्याम बंसल के कारनामों के बारे में इंस्टीट्यूट प्रशासन के लोगों को नहीं पता होगा ? नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का चेयरमैन बनने के बाद राधेश्याम बंसल ने पिछले चुनाव में इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए चुनाव लड़ा था, जीत जाता तो वह इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल का सदस्य होता । उस जैसे लोगों की जिस इंस्टीट्यूट प्रशासन में पहुँच इतनी आसान हो, तो उस इंस्टीट्यूट प्रशासन से उसके और उसके जैसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की उम्मीद भी भला कैसे की जा सकती है ? इस बात का सुबूत इंस्टीट्यूट प्रशासन के लोगों के रवैये में देखा भी जा सकता है : इंस्टीट्यूट प्रशासन से जुड़े या जुड़ने की तैयारी करने वाले कई चार्टर्ड एकाउंटेंट्स नेता सोशल मीडिया में बहुत सक्रिय हैं और देश व समाज में गंदगी फैलाने वाले नेताओं को कोसने में लगे रहते हैं; लेकिन अपने प्रोफेशन तथा अपने इंस्टीट्यूट में गंदगी फैलाने वाले नेताओं के बारे में वह कभी कुछ नहीं कहते - यहाँ वह पूरा भाईचारा दिखाते हैं । राधेश्याम बंसल की कारस्तानी को मीडिया ने पकड़ा और दिखाया, जिसके चलते प्रोफेशन और इंस्टीट्यूट की देशभर में बदनामी हुई; इंस्टीट्यूट प्रशासन तब सफाई देते हुए प्रेस रिलीज जारी करने के लिए भले मजबूर हुआ; किंतु सोशल मीडिया में बड़ी बड़ी बातें करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स नेताओं ने इस मामले में चुप्पी साधने में ही अपनी भलाई देखी । एसके गुप्ता के मामले में भी सोशल मीडिया के वीर-बहादुरों का यही रवैया है ।
इस मामले में दिलचस्प व्यवहार राजेश शर्मा का है । इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के सदस्य राजेश शर्मा सरकार और सरकार चला रही पार्टी के प्रमुख पदाधिकारियों व सदस्यों के साथ अपनी तस्वीरें दिखा दिखा कर उनके साथ अपनी नजदीकी दिखाने और जताने का काम लगातार करते रहते हैं, और इस काम के जरिए इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट तथा दूसरे प्रमुख पदाधिकारियों के साथ नजदीकी बनाने और उनसे फायदा उठाने का प्रयास करते रहते हैं - लेकिन प्रोफेशन और इंस्टीट्यूट की साख व प्रतिष्ठा के साथ-साथ सरकार की नीतियों, उसके उद्देश्यों व लक्ष्यों में पलीता लगाने की कोशिश करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के खिलाफ कुछ कहते और करते हुए उन्हें कभी सुना या देखा नहीं गया है । राजेश शर्मा की सक्रियता का जो 'दृश्य' दिखता है, उसमें सबसे ज्यादा उन्हीं से उम्मीद की जा सकती है कि वह राधेश्याम बंसल, अनिल अग्रवाल, एसके गुप्ता जैसे चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की पहचान को सामने लाने का काम करेंगे और सोशल मीडिया में ऐसे लोगों को बेनकाब करेंगे - लेकिन उनकी सारी सक्रियता नेताओं के साथ अपनी तस्वीरें दिखाने में ही सिमटी रहती है । अपने प्रोफेशन, अपने इंस्टीट्यूट, अपनी पार्टी, अपनी सरकार के प्रति जिम्मेदारी निभाने के प्रति राजेश शर्मा की यह अरुचि यह शक पैदा करती है कि राधेश्याम बंसल और एसके गुप्ता जैसे लोगों के साथ कहीं उनकी भी तो मिलीभगत नहीं है ? आखिर उनके जैसे लोगों के होते हुए भी इंस्टीट्यूट प्रशासन राधेश्याम बंसल और एसके गुप्ता जैसे चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के सामने असहाय और कमजोर क्यों पड़ जाता है ?