नई दिल्ली । सुधीर अग्रवाल अपने अलग अलग
कार्यक्रमों में इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रेसीडेंट्स एनडी गुप्ता और वेद जैन
को शामिल कर लेने में जिस तरह लगातार कामयाब हो रहे हैं, उसके चलते
इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के लिए उनकी उम्मीदवारी को लोगों के बीच न सिर्फ खासी गंभीरता से लिया जाने लगा है, बल्कि उनकी उम्मीदवारी अन्य कई उम्मीदवारों के चुनावी समीकरण गड़बड़ाती हुई भी लगने/दिखने लगी है । पिछले
कुछ दिनों में ही एनडी गुप्ता और वेद जैन जिस तरह जल्दी जल्दी आयोजित हुए
सुधीर अग्रवाल के विभिन्न कार्यक्रमों में लगातार शामिल हुए हैं, उसके कारण
बदलते नजर आ रहे चुनावी समीकरणों में चरनजोत सिंह नंदा, राजेश शर्मा,
हंसराज चुग, प्रमोद जैन जैसे गंभीरता से लिए जा रहे उम्मीदवारों के सामने
संकट खड़ा हो गया है । पिछले चुनाव में पहली वरीयता के वोटों की गिनती में
सुधीर अग्रवाल हालाँकि राजेश शर्मा और हंसराज चुग से मामूली अंतर से पीछे
थे, और फाइनल गिनती में भी सुधीर अग्रवाल इनसे पीछे ही रहे थे - लेकिन
अगला चुनाव आते आते राजेश शर्मा और हंसराज चुग जिस तरह की मुश्किलों में
घिरे हैं, और सुधीर अग्रवाल के लिए हालात अनुकूल बने हैं; उसके कारण अब की
बार स्थिति पूरी तरह पलटती हुई दिख रही है । दरअसल चरनजोत सिंह नंदा की
उम्मीदवारी के आने का सीधा असर राजेश शर्मा और हंसराज चुग पर पड़ता नजर आ
रहा है; इस असर को और असरदार बनाने का काम सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी को
इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रेसीडेंट्स एनडी गुप्ता व वेद जैन के मिलते लग/दिख रहे समर्थन ने किया है ।
उल्लेखनीय है कि पिछले चुनाव में हंसराज चुग पहली वरीयता के वोटों की गिनती में 1072 वोटों के साथ दसवें नंबर पर थे, जबकि सुधीर अग्रवाल 1019 वोटों के साथ बारहवें नंबर पर थे । फाइनल गिनती में यह क्रमशः आठवें और ग्यारहवें नंबर पर थे । चरनजोत सिंह नंदा के उम्मीदवार हो जाने से हंसराज चुग को वोटों का भारी नुकसान होने का अंदाजा लगाया जा रहा है; और इस आधार पर माना/समझा जा रहा है कि पहली वरीयता के वोटों की गिनती में हंसराज चुग यदि पिछड़ गए, तब फिर उनके लिए मुकाबले में बने/टिके रह पाना मुश्किल ही होगा । समस्या की बात यह भी है कि हंसराज चुग पिछली बार की अपनी मामूली अंतर से हुई हार के कारणों की पड़ताल करने में भी कोई दिलचस्पी लेते हुए नहीं दिख रहे हैं, जिस कारण इस बार के उनके प्रचार-अभियान के तौर-तरीके पिछली बार जैसे ही हैं । इस कारण से ऐसा नहीं लग रहा है कि चरनजोत सिंह नंदा की उम्मीदवारी के चलते पैदा हुए संकट से निपटने के लिए वह कोई नई रणनीति सोच या अपना पा रहे हैं । ऐसा ही - बल्कि इससे भी बड़ा संकट राजेश शर्मा के सामने आ खड़ा हुआ है । पिछली बार जैसे-तैसे करके विजेता बने राजेश शर्मा को दो मुसीबतों ने एक साथ घेरा है - एक तो चरनजोत सिंह नंदा की उम्मीदवारी के चलते पिछली बार वाले समर्थन-आधार को बचाए रखना उनके लिए मुश्किल हुआ है, और दूसरा पिछले वर्ष 'सीए डे' पर हुए कार्यक्रम की बदइंतजामी की बदनामी का कीचड़ उनके सिर पर है । हंसराज चुग और राजेश शर्मा को पिछली बार दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों का कोई खास सहारा/सहयोग नहीं मिला था; उनकी उम्मीदवारी का वैसा ही हाल यदि इस बार के चुनाव में भी हुआ - तो पहली वरीयता के वोटों की गिनती में पिछड़ना उन्हें और भारी पड़ेगा ।
दरअसल इसी आकलन के आधार पर, सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी को इस बार मिलते दिख रहे समर्थन में राजेश शर्मा और हंसराज चुग के लिए खतरा और बढ़ता हुआ देखा/पहचाना जा रहा है । मजे की बात यह है कि नवीन गुप्ता और संजय अग्रवाल की जो दो सीटें इस बार खाली हो रही हैं, उन दोनों का फायदा सुधीर अग्रवाल के पक्ष में जाता माना जा रहा है । नवीन गुप्ता के समर्थक खेमे के दो बड़े नेता - एनडी गुप्ता और वेद जैन जिस तरह सुधीर अग्रवाल के 'नजदीक' नजर आ रहे हैं, उससे उनका समर्थन तो सुधीर अग्रवाल के पक्ष में जाता नजर आ ही रहा है; साथ ही संजय अग्रवाल के समर्थकों/सहयोगियों का एक बड़ा खेमा भी सुधीर अग्रवाल के साथ आता दिख रहा है । इसमें 'अग्रवाल' शब्द के कॉमन होने की भूमिका तो है ही, इसके अलावा एक अन्य कारण यह भी है कि रीजनल काउंसिल में संजय अग्रवाल और सुधीर अग्रवाल ने साथ-साथ जो काम किया था, उसके चलते काफी लोग दोनों के नजदीक हैं - जिनमें से जो लोग पिछली बार संजय अग्रवाल के साथ थे, उनके लिए इस बार सुधीर अग्रवाल के साथ होना स्वाभाविक फैसला ही होगा । दोहरे लाभ की बदौलत इस बार होने वाले सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में सुधीर अग्रवाल को मिलने वाले वोटों में एक बड़ी वृद्धि को देखा/पहचाना जा रहा है, और इसीलिए उनकी उम्मीदवारी को लोगों के बीच गंभीरता से लिया जाने लगा है ।
दिलचस्प बात यह भी है कि जिन उम्मीदवारों को चुनाव से अभी करीब सात महीने पहले संभावित विजेताओं के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है, उनमें एक अकेले सुधीर अग्रवाल को छोड़कर किसी की भी चुनावी रणनीति और या चुनावी स्थिति में कोई फर्क या सुधार नजर नहीं आ रहा है; अधिकतर उम्मीदवार पुराने ढर्रे पर ही अपना अभियान चला रहे हैं, इसलिए पिछली बार की तुलना में उनकी स्थिति में सुधार की कोई बड़ी संभावना नजर नहीं आ रही है । प्रमोद जैन ने जरूर अपनी पब्लिक इमेज में प्रभावी सुधार किया है, लेकिन इस सुधार को वोटों में बदलने का मैकेनिज्म उनके यहाँ जुड़ता/बनता नहीं दिख रहा है । पिछली बार पहली वरीयता में 878 वोट पाकर 13वें स्थान पर रहते हुए सातवें नंबर पर इलिमिनेट होने वाले प्रमोद जैन के लिए मुकाबला जितना मुश्किल है, उनकी तैयारी उस मुश्किल से निपटने में पूरी पड़ती नहीं दिख रही है । चरनजोत सिंह नंदा ने जिस तरह से इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में वापसी की है, उसे लेकर लोगों के बीच कोई अच्छी प्रतिक्रिया नहीं है और लोगों के बीच उनकी एक नेगेटिव पहचान ही बनी है । चरनजोत सिंह नंदा का युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ परिचय भी कमजोर है, और उनके बीच परिचय बनाने का उन्होंने जो प्रयास किया भी है, उसका भी विपरीत असर ही देखा/पहचाना जा रहा है । इसी कारण से माना जा रहा है कि चरनजोत सिंह नंदा ने चुनावी राजनीति में तो वापसी कर ली है, लेकिन सेंट्रल काउंसिल में वापसी करना उनके लिए आसान नहीं होगा । जब सभी उम्मीदवार अलग अलग तरह की मुसीबतों में घिरे/फँसे हों, तब किसी को भी चिंता करने की जरूरत नहीं होना चाहिए । लेकिन मुसीबत में फँसे उम्मीदवारों की मुसीबत को और ज्यादा बढ़ाने का काम सुधीर अग्रवाल की तरफ से होता नजर आ रहा है, जो अकेले ऐसे उम्मीदवार हैं जिनकी स्थिति में गुणात्मक तरक्की होती नजर आ रही है । उम्मीदवार के रूप में सुधीर अग्रवाल की गुणात्मक तरक्की ने नॉर्दर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल उम्मीदवारों के चुनावी समीकरणों को जिस तरह से उलट-पलट दिया है, उससे चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प भी हो गया है ।
उल्लेखनीय है कि पिछले चुनाव में हंसराज चुग पहली वरीयता के वोटों की गिनती में 1072 वोटों के साथ दसवें नंबर पर थे, जबकि सुधीर अग्रवाल 1019 वोटों के साथ बारहवें नंबर पर थे । फाइनल गिनती में यह क्रमशः आठवें और ग्यारहवें नंबर पर थे । चरनजोत सिंह नंदा के उम्मीदवार हो जाने से हंसराज चुग को वोटों का भारी नुकसान होने का अंदाजा लगाया जा रहा है; और इस आधार पर माना/समझा जा रहा है कि पहली वरीयता के वोटों की गिनती में हंसराज चुग यदि पिछड़ गए, तब फिर उनके लिए मुकाबले में बने/टिके रह पाना मुश्किल ही होगा । समस्या की बात यह भी है कि हंसराज चुग पिछली बार की अपनी मामूली अंतर से हुई हार के कारणों की पड़ताल करने में भी कोई दिलचस्पी लेते हुए नहीं दिख रहे हैं, जिस कारण इस बार के उनके प्रचार-अभियान के तौर-तरीके पिछली बार जैसे ही हैं । इस कारण से ऐसा नहीं लग रहा है कि चरनजोत सिंह नंदा की उम्मीदवारी के चलते पैदा हुए संकट से निपटने के लिए वह कोई नई रणनीति सोच या अपना पा रहे हैं । ऐसा ही - बल्कि इससे भी बड़ा संकट राजेश शर्मा के सामने आ खड़ा हुआ है । पिछली बार जैसे-तैसे करके विजेता बने राजेश शर्मा को दो मुसीबतों ने एक साथ घेरा है - एक तो चरनजोत सिंह नंदा की उम्मीदवारी के चलते पिछली बार वाले समर्थन-आधार को बचाए रखना उनके लिए मुश्किल हुआ है, और दूसरा पिछले वर्ष 'सीए डे' पर हुए कार्यक्रम की बदइंतजामी की बदनामी का कीचड़ उनके सिर पर है । हंसराज चुग और राजेश शर्मा को पिछली बार दूसरी/तीसरी वरीयता के वोटों का कोई खास सहारा/सहयोग नहीं मिला था; उनकी उम्मीदवारी का वैसा ही हाल यदि इस बार के चुनाव में भी हुआ - तो पहली वरीयता के वोटों की गिनती में पिछड़ना उन्हें और भारी पड़ेगा ।
दरअसल इसी आकलन के आधार पर, सुधीर अग्रवाल की उम्मीदवारी को इस बार मिलते दिख रहे समर्थन में राजेश शर्मा और हंसराज चुग के लिए खतरा और बढ़ता हुआ देखा/पहचाना जा रहा है । मजे की बात यह है कि नवीन गुप्ता और संजय अग्रवाल की जो दो सीटें इस बार खाली हो रही हैं, उन दोनों का फायदा सुधीर अग्रवाल के पक्ष में जाता माना जा रहा है । नवीन गुप्ता के समर्थक खेमे के दो बड़े नेता - एनडी गुप्ता और वेद जैन जिस तरह सुधीर अग्रवाल के 'नजदीक' नजर आ रहे हैं, उससे उनका समर्थन तो सुधीर अग्रवाल के पक्ष में जाता नजर आ ही रहा है; साथ ही संजय अग्रवाल के समर्थकों/सहयोगियों का एक बड़ा खेमा भी सुधीर अग्रवाल के साथ आता दिख रहा है । इसमें 'अग्रवाल' शब्द के कॉमन होने की भूमिका तो है ही, इसके अलावा एक अन्य कारण यह भी है कि रीजनल काउंसिल में संजय अग्रवाल और सुधीर अग्रवाल ने साथ-साथ जो काम किया था, उसके चलते काफी लोग दोनों के नजदीक हैं - जिनमें से जो लोग पिछली बार संजय अग्रवाल के साथ थे, उनके लिए इस बार सुधीर अग्रवाल के साथ होना स्वाभाविक फैसला ही होगा । दोहरे लाभ की बदौलत इस बार होने वाले सेंट्रल काउंसिल के चुनाव में सुधीर अग्रवाल को मिलने वाले वोटों में एक बड़ी वृद्धि को देखा/पहचाना जा रहा है, और इसीलिए उनकी उम्मीदवारी को लोगों के बीच गंभीरता से लिया जाने लगा है ।
दिलचस्प बात यह भी है कि जिन उम्मीदवारों को चुनाव से अभी करीब सात महीने पहले संभावित विजेताओं के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है, उनमें एक अकेले सुधीर अग्रवाल को छोड़कर किसी की भी चुनावी रणनीति और या चुनावी स्थिति में कोई फर्क या सुधार नजर नहीं आ रहा है; अधिकतर उम्मीदवार पुराने ढर्रे पर ही अपना अभियान चला रहे हैं, इसलिए पिछली बार की तुलना में उनकी स्थिति में सुधार की कोई बड़ी संभावना नजर नहीं आ रही है । प्रमोद जैन ने जरूर अपनी पब्लिक इमेज में प्रभावी सुधार किया है, लेकिन इस सुधार को वोटों में बदलने का मैकेनिज्म उनके यहाँ जुड़ता/बनता नहीं दिख रहा है । पिछली बार पहली वरीयता में 878 वोट पाकर 13वें स्थान पर रहते हुए सातवें नंबर पर इलिमिनेट होने वाले प्रमोद जैन के लिए मुकाबला जितना मुश्किल है, उनकी तैयारी उस मुश्किल से निपटने में पूरी पड़ती नहीं दिख रही है । चरनजोत सिंह नंदा ने जिस तरह से इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में वापसी की है, उसे लेकर लोगों के बीच कोई अच्छी प्रतिक्रिया नहीं है और लोगों के बीच उनकी एक नेगेटिव पहचान ही बनी है । चरनजोत सिंह नंदा का युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के साथ परिचय भी कमजोर है, और उनके बीच परिचय बनाने का उन्होंने जो प्रयास किया भी है, उसका भी विपरीत असर ही देखा/पहचाना जा रहा है । इसी कारण से माना जा रहा है कि चरनजोत सिंह नंदा ने चुनावी राजनीति में तो वापसी कर ली है, लेकिन सेंट्रल काउंसिल में वापसी करना उनके लिए आसान नहीं होगा । जब सभी उम्मीदवार अलग अलग तरह की मुसीबतों में घिरे/फँसे हों, तब किसी को भी चिंता करने की जरूरत नहीं होना चाहिए । लेकिन मुसीबत में फँसे उम्मीदवारों की मुसीबत को और ज्यादा बढ़ाने का काम सुधीर अग्रवाल की तरफ से होता नजर आ रहा है, जो अकेले ऐसे उम्मीदवार हैं जिनकी स्थिति में गुणात्मक तरक्की होती नजर आ रही है । उम्मीदवार के रूप में सुधीर अग्रवाल की गुणात्मक तरक्की ने नॉर्दर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल उम्मीदवारों के चुनावी समीकरणों को जिस तरह से उलट-पलट दिया है, उससे चुनावी परिदृश्य खासा दिलचस्प भी हो गया है ।