नई दिल्ली । नेशनल फाइनेंशियल रिपोर्टिंग अथॉरिटी (एनएफआरए - नफरा) में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने पर दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा आज रोक लगाए जाने के फैसले को चार्टेर्ड एकाउंटेंट्स की एक बड़ी जीत के रूप में देखा/पहचाना गया है । दिल्ली हाईकोर्ट से मिले इस फैसले के लिए सेंट्रल काउंसिल सदस्य विजय कुमार गुप्ता की सूझ-बूझ भरी योजना को श्रेय दिया जा रहा है । नफरा के रूप में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स पर गिरी गाज और उसके चलते मुसीबत में फँसी इंस्टीट्यूट की भूमिका को नजदीक व गहराई से देखने/समझने की कोशिश करने वाले वरिष्ठ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कहना है कि कुल मिलाकर यह मामला बड़ा पेचीदा था - और इंस्टीट्यूट के पदाधिकारियों के पास इससे निपटने के लिए बहुत ही कम विकल्प थे । ऐसे में, इंस्टीट्यूट के लीगल डिपार्टमेंट के मुखिया के रूप में विजय कुमार गुप्ता ने जिस सावधानी और 'लोहा जब गर्म हो, तब चोट करने' वाली रणनीति अपनाते हुए जिस होशियारी से मामले में हस्तक्षेप किया, उसके लिए उनकी प्रशंसा की ही जानी चाहिए । मामले में सुनवाई के दौरान विजय कुमार गुप्ता स्वयं तो कोर्ट में मौजूद रहे ही, इंस्टीट्यूट के वकीलों को मौके पर तुरंत मामले से जुड़े प्रशासनिक व कानूनी पहलुओं के फीडबैक उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से उन्होंने इंस्टीट्यूट के सचिव और लीगल डिपार्टमेंट के सचिव की उपस्थिति को भी कोर्ट में संभव व सुनिश्चित किया । जानकारों का मानना और कहना है कि विजय कुमार गुप्ता यदि कोर्ट में स्वयं की और इंस्टीट्यूट के अन्य प्रमुख पदाधिकारियों की उपस्थिति को लेकर दिलचस्पी न लेते और सारा मामला वकीलों पर ही छोड़ देते, तो हो सकता था कि कोर्ट से ऐसा सकारात्मक फैसला न मिल पाता । इस फैसले के रूप में चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को आज यह अहसास भी हुआ है कि इंस्टीट्यूट के पदाधिकारी और सेंट्रल काउंसिल सदस्य यदि मामलों में गंभीरता के साथ दिलचस्पी लें, तो चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के हितों को सुरक्षित करने/रखने में महत्त्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं ।
विजय कुमार गुप्ता के लिए दिलचस्पी और सक्रियता के साथ यह भूमिका निभाना इसलिए और भी मुश्किल था, क्योंकि इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट नवीन गुप्ता देश से बाहर हैं । मामले की गंभीरता और नाजुकता को भाँप कर नवीन गुप्ता ने विजय कुमार गुप्ता को आवश्यक कार्रवाई करने की पूरी स्वतंत्रता दी, तो विजय कुमार गुप्ता के लिए काम करना आसान तो हो गया - लेकिन उनके लिए चुनौती भी बढ़ गई । चुनौती यह कि जब इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट ने उनकी काबिलियत और उनकी क्षमताओं पर भरोसा करते हुए उन्हें काम करने और फैसला लेने की पूरी स्वतंत्रता दे दी, तो उन पर भी 'रिजल्ट' देने का दबाव बढ़ गया । विजय कुमार गुप्ता ने प्रेसीडेंट के भरोसे को बनाए रखते हुए, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को राहत दिलवाने का जो काम किया है - उसने इंस्टीट्यूट प्रशासन की साख और विश्वसनीयता को बचाने/बनाये रखने का भी एक उपाय प्रस्तुत किया है । उल्लेखनीय है कि नफरा को लेकर चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच भारी बेचैनी थी, और इंस्टीट्यूट प्रशासन इस मामले को लेकर खुद को असहाय पा रहा था । एक संवैधानिक संस्था होने के नाते वह सरकार के साथ सीधे टकराव पर नहीं उतर सकता था । सरकार और संबंधित मंत्रालयों में संवैधानिक मर्यादायों में रहते हुए इंस्टीट्यूट के पदाधिकारियों द्वारा कई बार इस मामले को लेकर अपने ऐतराज तो दर्ज करवाए गए, लेकिन इससे कुछ होता हुआ दिखा नहीं । पिछले दिनों कुछेक मंत्रियों के साथ अपनी नजदीकी का दिखावा करते रहने वाले सेंट्रल काउंसिल सदस्य ने जुमलेबाजी करते हुए यह दावा तो किया कि उन्होंने मंत्रियों से बात करके इस मामले को खत्म करने/करवाने का काम कर दिया है, लेकिन लोगों ने उनके दावे को 'शेखचिल्लीपूर्ण दावों' से ज्यादा अहमियत नहीं दी । सेंट्रल काउंसिल सदस्य की इस तरह की जुमलेबाजीपूर्ण बातों से चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के बीच इंस्टीट्यूट प्रशासन तथा सेंट्रल काउंसिल सदस्यों की भारी फजीहत हो रही थी ।
ऐसे माहौल में संयोगवश इंस्टीट्यूट प्रशासन के हाथ ऐसा मौका लगा कि उसे कुछ कर दिखाने का अवसर मिल गया । दरअसल नफरा मामले को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में एक पिटीशन दायर हुई, जिसमें इंस्टीट्यूट को भी पार्टी बनाया गया । अदालती मामलों में पार्टी बनाई गईं पार्टियाँ अमूमन ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेती हैं - वह यह मान कर चलती हैं कि मामला पिटीशन दायर करने वाले तथा जिसके खिलाफ पिटीशन है उसके बीच का है; और पार्टी बनाई गईं पार्टियों को बस अपना स्टैंड दर्ज करवाना भर होता है । नफरा मामले में दर्ज पिटीशन में पार्टी बनाए जाने पर इंस्टीट्यूट प्रशासन भी औपचारिक रूप से अपना पक्ष रख कर अपनी जिम्मेदारी निभा सकता था, लेकिन इंस्टीट्यूट के लीगल डिपार्टमेंट के मुखिया के रूप में विजय कुमार गुप्ता ने इस मौके को एक बड़े अवसर के रूप में पहचाना । उन्हें तीन दिन पहले ही इंस्टीट्यूट को पार्टी बनाये जाने का नोटिस मिला था, जाहिर है कि उन्हें मामले को कानूनी रूप से देखने/समझने के लिए बहुत ही कम समय मिला था - विजय कुमार गुप्ता के लिए समय की कमी की बात इसलिए भी थी कि उन्हें सेंट्रल काउंसिल में पुनर्निर्वाचन के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन जुटाने के अभियान में अपने कुछेक अपॉइंटमेंट भी पूरे करने थे । इससे भी बड़ी समस्या इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट नवीन गुप्ता के देश से बाहर होने की थी । विजय कुमार गुप्ता ने लेकिन अपनी उम्मीदवारी के प्रचार अभियान के अपॉइंटमेंट पूरे करने की बजाये नफरा के मामले में अदालत में पैरवी करने के काम को प्राथमिकता दी और अपनी उम्मीदवारी के प्रचार अभियान से छुट्टी ली; प्रेसीडेंट नवीन गुप्ता से संपर्क कर उनसे हरी झंडी ली और लीगल डिपार्टमेंट के पदाधिकारियों के साथ माथापच्ची शुरू की । नफरा मामले में शुरू हुई अदालती कार्रवाई में इंस्टीट्यूट के पार्टी बनने से मिले मौके को व्यर्थ न जाने देने के लिए विजय कुमार गुप्ता ने ऐसी चाक-चौबंद घेराबंदी की कि कहीं कोई चूक न रह जाए । मामले में विजय कुमार गुप्ता की गंभीर संलग्नता को इस तथ्य से भी जाना/पहचाना जा सकता है कि मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट में इंस्टीट्यूट के वकीलों और वरिष्ठ अधिकारियों के उपस्थित होने के बावजूद, अपनी चुनावी व्यस्तता के बीच भी उन्होंने स्वयं कोर्ट में उपस्थित रहना जरूरी समझा । विजय कुमार गुप्ता के गंभीर रूप से दिलचस्पी लेने के चलते इंस्टीट्यूट की तरफ से मामले में जो पैरवी की गई, उसके कारण चार्टर्ड एकाउंटेंट्स को एक बड़ी राहत तो मिली ही है - इंस्टीट्यूट प्रशासन और सेंट्रल काउंसिल सदस्यों की लगातार घटती/बिगड़ती जा रही साख और विश्वसनीयता में भी कुछ सुधार हुआ है ।