मुंबई । दुर्गेश काबरा को इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में पहुँचाने के लिए आनंद राठी, कमलेश विकमसे व नीलेश विकमसे द्वारा कमर कस लिए जाने से वेस्टर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल की चुनावी राजनीति के समीकरणों में बदलाव का जो अनुमान लगाया जा रहा है, उसमें अनिल भंडारी के लिए सेंट्रल काउंसिल की अपनी सीट बचाना तो चुनौतीपूर्ण हो ही गया है, साथ ही राजकुमार अदुकिया के लिए सेंट्रल काउंसिल में पुनर्वापसी और पुरुषोत्तम खंडेलवाल की राह भी मुश्किल हुई है । मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के पूर्व प्रेसीडेंट आनंद राठी की इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में भी खासी धाक है । 1985 से 1992 तक के दो टर्म में सेंट्रल काउंसिल में रहे आनंद राठी ने अपना चुनाव खूब धूम-धड़ाके से लड़ा था; उसके बाद फिर उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत विकमसे परिवार को सौंप दी थी, जहाँ से एसके विकमसे, कमलेश विकमसे व नीलेश विकमसे बारी बारी से सेंट्रल काउंसिल में गए; कमलेश विकमसे और नीलेश विकमसे तो इंस्टीट्यूट के प्रेसीडेंट भी बने । एक समय आनंद राठी को मुंबई में 'जोधपुर क्लब' के नाम से भी पहचाना जाता था; (कुमारमंगलम) बिड़ला ग्रुप से नजदीकियों के चलते आनंद राठी का एक अन्य रुतबा भी रहा है । माहेश्वरी समाज में आनंद राठी का विशेष प्रभाव बना, और माहेश्वरी समाज में उन्हें एक 'संस्थान' के रूप में पहचान व मान्यता मिली । विकमसे परिवार के जुड़ने से उनका प्रभाव क्षेत्र और बड़ा हुआ, तथा वेस्टर्न रीजन में 'राठी विकमसे ग्रुप' की एक अनोखी ताकत बनी । यही ताकत अचानक से दुर्गेश काबरा का संबल बन गई दिख रही है । दरअसल राठी विकमसे ग्रुप के तीनों बड़े नेताओं ने जिस अप्रत्याशित तरीके से दुर्गेश काबरा की उम्मीदवारी के लिए समर्थन दिखाया है, उसने वेस्टर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल के चुनावी गणित में खासी उथल-पुथल मचा दी है - और दुर्गेश काबरा की उम्मीदवारी दूसरे कुछेक उम्मीदवारों के लिए खतरे की घंटी बजाने लगी है ।
मजे की बात है कि अभी दो महीने पहले तक दुर्गेश काबरा की उम्मीदवारी को कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा था । दुर्गेश काबरा पिछले दो बार से लगातार चुनाव हार रहे हैं । पिछली बार उनका प्रदर्शन हालाँकि अच्छा रहा था, लेकिन दूसरी वरीयता के वोटों का सहयोग/समर्थन न मिल पाने के कारण वह नाकामयाबी का शिकार हो गए थे । उनकी नाकामयाबी जिस तरह से अनिल भंडारी और धीरज खंडेलवाल की किस्मत का ताला खोलने वाली चाभी बनी थी, उसे देखते/समझते हुए चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने तथा उसे समझने वाले लोगों ने दुर्गेश काबरा के राजनीतिक जीवन को समाप्त हुआ मान लिया था । इसी कारण से, इस बार जब दुर्गेश काबरा को तीसरी बार अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करने के लिए सक्रिय देखा गया, तो किसी ने भी उनकी उम्मीदवारी को गंभीरता से नहीं लिया । लोगों का मानना/कहना रहा कि दुर्गेश काबरा जितने जो प्रयास कर सकते थे, वह सब उन्होंने कर लिए हैं - और उन सब प्रयासों के बावजूद चूँकि वह कामयाब नहीं हुए हैं, इसलिए अब उनके लिए कहीं कोई उम्मीद नहीं बची है । लेकिन चुनावी राजनीति में कई बार चमत्कार घटते - और उन चमत्कारों के चलते बड़े उलट-फेर होते हुए देखे गए हैं, इसलिए दुर्गेश काबरा को राठी विकमसे ग्रुप से मिले समर्थन ने वेस्टर्न रीजन में सेंट्रल काउंसिल की चुनावी राजनीति के समीकरणों में भी एकदम से उलट-फेर कर दिया है - और कहीं मुकाबले में न देखे/पहचाने जा रहे दुर्गेश काबरा अचानक से बड़े महत्त्वपूर्ण उम्मीदवार बन गए हैं । उनकी उम्मीदवारी के महत्त्वपूर्ण होने से अनिल भंडारी की सदस्यता पर खतरा मंडराता देखा जा रहा है । पिछली बार अनिल भंडारी और दुर्गेश काबरा को मिले वोटों में ज्यादा अंतर नहीं था, और दोनों ही माहेश्वरी वोटों पर निर्भर रहे थे और इस बार भी हैं; इसी बिना पर माना/समझा जा रहा है कि राठी विकमसे ग्रुप के समर्थन के चलते दुर्गेश काबरा के वोटों में यदि ठीक-ठाक इजाफा हो गया, तो अनिल भंडारी के लिए इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल में अपनी मौजूदा सीट को बचाना मुश्किल हो जायेगा ।
दुर्गेश काबरा की उम्मीदवारी के महत्त्वपूर्ण हो उठने से राजकुमार अदुकिया और पुरुषोत्तम खंडेलवाल के लिए भी अलग अलग कारणों से मुसीबत पैदा हो गई है । राजकुमार अदुकिया एक दशक से अधिक समय तक सेंट्रल काउंसिल में रहने के कारण नियमों के चलते पिछले टर्म में बाहर रहने के लिए 'मजबूर' किए जाने के बाद इस बार फिर से उम्मीदवार हो गए हैं, जिस कारण लोग उनके खिलाफ हैं । लोगों का कहना/पूछना है कि सेंट्रल काउंसिल में आखिर ऐसे कौन से लड्डू मिलते हैं, जिनके लालच में राजकुमार अदुकिया से सेंट्रल काउंसिल से मोह ही नहीं छूट रहा है । राजकुमार अदुकिया को यह आभास था कि उनके ऊपर सत्ता-लोलुपता का आरोप लगेगा और उनके समर्थक रहे लोग उनके विरोध में हो जायेंगे; लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि नीलेश विकमसे द्वारा खाली की गई सीट उनके लिए फायदे का सबब बन जाएगी । किंतु राठी विकमसे ग्रुप द्वारा दुर्गेश काबरा को समर्थन देने के कारण उनकी उम्मीद को झटका लग सकता है । अहमदाबाद के पुरुषोत्तम खंडेलवाल को मुंबई के उन चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से समर्थन मिलने की उम्मीद है, जो राजस्थान के हैं - क्योंकि वह खुद राजस्थान के हैं; लेकिन आनंद राठी के कारण राजस्थान से मुंबई आए चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के वोट यदि सचमुच दुर्गेश काबरा को पड़ गए, तो पुरुषोत्तम खंडेलवाल का राजस्थान-समीकरण गड़बड़ा सकता है ।
राठी विकमसे ग्रुप का समर्थन मिलने से दुर्गेश काबरा और उनके नजदीकियों में हवा तो भरी है, लेकिन दुर्गेश काबरा के ही कुछेक समर्थकों का मानना/कहना यह भी है कि सिर्फ समर्थन मिलने से दुर्गेश काबरा की जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है । जीत इस बात पर निर्भर करेगी कि राठी विकमसे ग्रुप से मिले समर्थन को वोट में बदलने के लिए दुर्गेश काबरा जरूरी मैकेनिज्म को बना पाते हैं या नहीं । दुर्गेश काबरा के ही समर्थकों का कहना/बताना है कि राठी विकमसे ग्रुप ने फैमिली से बाहर के उम्मीदवार के रूप में आरएल काबरा को दो बार समर्थन दिया था, लेकिन आरएल काबरा को दोनों ही बार हार का सामना करना पड़ा था । इसके अलावा एक मजेदार संयोग यह है कि लगातार दो बार हार का सामना करने के बाद तरुण घिया को छोड़ कर और किसी उम्मीदवार के सफल होने का उदाहरण नहीं है । इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि राठी विकमसे ग्रुप का समर्थन मिलने के बाद भी दुर्गेश काबरा सेंट्रल काउंसिल की सदस्यता पाने की अपनी हसरत को पूरा कर पाते हैं, या एक बार फिर बदकिस्मती का शिकार बनते हैं ?