गाजियाबाद । मुकेश अरनेजा
और सतीश सिंघल की बुरी दशा ने दीपक गुप्ता के चुनाव अभियान को जो चोट
पहुँचाई है, अशोक जैन उसका पूरा पूरा फायदा उठाने की कोशिश करते देखे जा
रहे हैं - और दीपक गुप्ता के ही समर्थकों व शुभचिंतकों को लगने लगा है
कि दीपक गुप्ता ने यदि स्थिति की गंभीरता को जल्दी से नहीं समझा - तो वह
अभी की अपनी बढ़त को खो देंगे । ललित खन्ना की उम्मीदवारी के अभियान के ढीले पड़ते
संकेतों ने भी अशोक जैन का पलड़ा भारी किया है, जिसके चलते दीपक गुप्ता के
लिए चुनौती और ज्यादा गंभीर हो गई है । सुभाष जैन की सक्रियता - प्रभाव
और असर बनाती/दिखाती सक्रियता दीपक गुप्ता के लिए एक अलग समस्या बनाए हुए
है, जिससे निपटने की दीपक गुप्ता की अभी तक की तमाम कोशिशें तो विफल ही रही
हैं । दीपक गुप्ता और अशोक जैन के अभियान की 'दशा/दिशा' का आकलन करने
वाले लोगों ने पाया है कि अशोक जैन ने अपने अभियान की कमजोरियों को
पहचाना/पकड़ा है और उन्हें काफी हद तक दूर करने का प्रयास शुरू किया है;
इसके ठीक विपरीत दीपक गुप्ता का अपने अभियान की कमजोरियों पर तथा पल पल
बदलती स्थितियों पर कोई ध्यान नहीं है और वह अपने पुराने ढर्रे पर ही
चले जा रहे हैं और इस बात की कोई परवाह करते हुए नहीं दिख रहे हैं कि धीरे
धीरे उनकी बढ़त का फासला कम होता जा रहा है ।
रोटरी क्लब
गाजियाबाद सफायर के अधिष्ठापन समारोह में जेके गौड़ की जैसी जो फजीहत हुई,
वह इस बात का जीता-जागता सुबूत है कि दीपक गुप्ता और उनके समर्थक उनकी
उम्मीदवारी के अभियान को लेकर कितने लापरवाह बने हुए हैं । उनकी इसी
लापरवाही का फायदा उठाने में अशोक जैन ने फुर्ती दिखाई है । अशोक जैन की
उम्मीदवारी के अभियान में पिछले दिनों एक बड़ा अंतर लोगों ने यह महसूस किया
है कि उन्होंने रमेश अग्रवाल की बदनामी की छाया और शरत जैन के संरक्षण से
'बाहर' निकल कर अपने अभियान की बागडोर को खुद सँभाला है । कई लोगों ने इस
बात को नोट किया है कि अशोक जैन एक उम्मीदवार के रूप में पहले के मुकाबले
ज्यादा कॉन्फीडेंट हुए हैं । पहले वह रमेश अग्रवाल और शरत जैन पर पूरी
तरह निर्भर नजर आ रहे थे : लोगों के बीच रमेश अग्रवाल की बदनामी लेकिन उनका
काम खराब कर रही थी; डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में शरत जैन उनकी
उम्मीदवारी को प्रमोट करने के नाम पर जो पक्षपात कर रहे थे, उससे फायदा
होने की बजाए नुकसान ज्यादा हो रहा था । अशोक जैन ने इस स्थिति को पहचानने
में देर नहीं की, और जल्दी से यह समझ लिया कि अपनी लड़ाई उन्हें खुद ही लड़नी
पड़ेगी । उन्हें जानने वाले लोगों का भी मानना और कहना रहा कि रोटरी में
उन्हें करीब करीब तीस वर्ष होने जा रहे हैं, और इन वर्षों में एक लीडर
नहीं तो एक कार्यकर्ता के रूप में लोगों के बीच उनकी अच्छी सक्रियता और
पहचान रही है; इसलिए अपनी उम्मीदवारी के अभियान की बागडोर यदि वह खुद
सँभालेंगे तो ज्यादा असर छोड़ेंगे । अशोक जैन ने यही किया । इसके दो
फायदे होते हुए दिख रहे हैं : एक तो यह कि रमेश अग्रवाल की बदनामी तथा
डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के रूप में शरत जैन के प्रति पैदा होने वाली नाराजगी से
होने वाले नुकसान की मात्रा घटी, और दूसरा यह कि लोगों ने 'असली' अशोक जैन
को जानना/पहचानना शुरू किया - जिससे उनके बारे में एक सकारात्मक परसेप्शन बनना शुरू हुआ
।
दीपक गुप्ता की समस्या यह है कि एक उम्मीदवार के रूप में
वह अभी भी पूरी तरह मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल के समर्थन के भरोसे बने हुए
हैं । एक कॉमन सेंस की बात है कि पिछली बार इन दोनों ने दीपक गुप्ता को
जितवाने के लिए अपने सारे घोड़े खोल लिए थे, लेकिन फिर भी बुरी पराजय को
प्राप्त हुए थे - सो अबकी बार यह दोनों क्या नया कर लेंगे ? इसके
अलावा, बुरी बात यह और हुई है कि पिछली बार की तुलना में इन दोनों की ही
स्थिति और ज्यादा खराब व कमजोर हुई है । मुकेश अरनेजा को जिन स्थितियों में
जिस तरह से अपना क्लब छोड़ कर 'भागना' पड़ा और एक फर्जी किस्म का क्लब बना
कर उसमें शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है, उससे लोगों के बीच उनका
बचा-खुचा असर और कम ही हुआ है । सतीश सिंघल नोएडा ब्लड बैंक में की
'बेईमानी' के आरोपों के कारण इतनी फजीहत में हैं कि उन्हें अपनी पेम फर्स्ट
को स्पोंसर करने के लिए पर्याप्त क्लब नहीं मिल रहे हैं, जिन्हें जुटाने
में उन्हें एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है । ऐसे में, दीपक गुप्ता को
इन दोनों से भला क्या सहयोग और फायदा मिलेगा ? दीपक गुप्ता लेकिन इन्हीं की
मदद के भरोसे अपनी उम्मीदवारी का अभियान चलाए हुए हैं । दीपक गुप्ता
की उम्मीदवारी को ललित खन्ना की उम्मीदवारी से फायदा मिल रहा था, क्योंकि
ललित खन्ना की उम्मीदवारी सीधे सीधे अशोक जैन की उम्मीदवारी को नुकसान
पहुँचा रही थी । ललित खन्ना की सक्रियता को देखते हुए उम्मीद की जा रही थी
कि लोगों के बीच अशोक जैन से बेहतर स्थिति बना लेंगे; किंतु पिछले कुछ
दिनों में उनकी सक्रियता ढीली पड़ती दिखी है, जिसका फायदा अशोक जैन को मिला
और यह बात दीपक गुप्ता के लिए मुसीबतभरी साबित हुई है ।
दीपक गुप्ता के लिए सबसे बड़ी चुनौती सुभाष जैन साबित हो रहे हैं । दरअसल सुभाष
जैन ने अपने व्यवहार, अपने आचरण और अपनी सक्रियता से लोगों के बीच अच्छी
और असरदार पैठ बनाई है । लोगों के बीच उनकी जिस तरह की संलग्नता है, और
लोगों की तरफ से भी उन्हें जिस तरह की लगावपूर्ण प्रतिक्रिया मिल रही है -
उसके कारण डिस्ट्रिक्ट में उनका कद और उनकी पहचान बड़ी हो गई है, जिसका
निश्चित रूप से एक राजनीतिक अर्थ और पक्ष भी होगा ही । लोगों को
यह आभास तो है कि सुभाष जैन का समर्थन अशोक जैन को मिलेगा, लेकिन सुभाष जैन
की तरफ से इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा/सुना गया है । वृंदावन स्थित
बाँके बिहारी मंदिर जाने के उनके आयोजन में डिस्ट्रिक्ट के तमाम लोगों के
बीच अशोक जैन की अनुपस्थिति का यही अर्थ निकाला/लगाया गया है कि सुभाष जैन
वैसी बेवकूफी करने से बच रहे हैं, जैसी बेवकूफी सतीश सिंघल ने पिछले रोटरी
वर्ष में की - और जिसके चलते अपनी फजीहत करवाई । इस तथ्य में दीपक
गुप्ता के लिए एक उम्मीद भी है, और एक चुनौती भी - लोगों के बीच आभास होने
के बावजूद सुभाष जैन यदि खुलकर अशोक जैन के साथ नहीं दिख रहे हैं, तो इससे
दीपक गुप्ता का काम आसान ही होता है; चुनौती की बात लेकिन यह है कि लोगों
के बीच आभास यह भी है कि दीपक गुप्ता को 'रोकने' के लिए सुभाष जैन जरूरत
पड़ने पर कुछ भी करेंगे । सुभाष जैन के नजदीकियों के अनुसार, पिछले
रोटरी वर्ष में कुछेक मौकों पर दीपक गुप्ता का जो व्यवहार रहा - उसने सुभाष
जैन को गहरे से आहत किया हुआ है, और उसे वह जल्दी से भूलने को तैयार नहीं
हैं । सुभाष जैन साधारण रूप से डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी होते तो उनकी
नाराजगी ज्यादा मायने नहीं रखती; लेकिन डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी होने
के बावजूद उन्होंने लोगों के बीच अपनी जो पैठ बनाई है, उसके चलते उनकी
भूमिका निर्णायक असर डालने वाली हो सकती है । इस तथ्य ने दीपक गुप्ता के
लिए चुनावी मुकाबले को और भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण बना दिया है ।
दीपक
गुप्ता के लिए मुसीबत की बात हालाँकि यह चुनौतियाँ उतनी नहीं हैं, जितनी
कि उनकी तैयारी की कमजोरियाँ हैं । उनकी उम्मीदवारी के समर्थकों का ही कहना
है कि दीपक गुप्ता इस गलतफहमी में हैं कि पिछली बार जिन क्लब्स के वोट
उन्हें मिले थे, उनके वोट तो उन्हें मिलेंगे ही और उन्हें तो बस जो कमी रह
गई थी, सिर्फ उसे ही पूरा करना है - इसलिए ज्यादा कुछ करने की उन्हें जरूरत
ही नहीं है । उनकी इसी सोच ने उनकी उम्मीदवारी के सामने पैदा होने वाली
चुनौतियों को और बड़ा बना दिया है । अशोक जैन ने इसका पूरा पूरा फायदा
उठाया है और अभी कुछ समय पहले तक वह दीपक गुप्ता के मुकाबले जहाँ कहीं
टिकते हुए नजर नहीं आ रहे थे, वहीं लेकिन अब वह उन्हें कड़ी टक्कर देते हुए
दिख रहे हैं ।