Sunday, September 17, 2017

रोटरी इंटरनेशनल डायरेक्टर पद पर कमल सांघवी की जीत तो निश्चित रूप से उनकी ही जीत है; लेकिन भरत पांड्या की जीत वास्तव में अशोक गुप्ता की हार है और अशोक गुप्ता को भरत पांड्या ने नहीं, बल्कि खुद अशोक गुप्ता ने ही हराया है

नई दिल्ली । रोटरी इंटरनेशनल के जोन 6 ए में कमल सांघवी तथा जोन 4 में भरत पांड्या को इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव में जो जीत मिली है, वह अप्रत्याशित तो नहीं है - लेकिन इन दोनों 'जीतों' की कहानी है बहुत दिलचस्प, जो इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के भावी उम्मीदवारों के लिए एक सबक भी है । कमल सांघवी के लिए सफलता सुनिश्चित थी, हालाँकि पिछले तीन-चार माह उम्मीदवार के रूप में उनके लिए काफी मुसीबत भरे थे; उधर भरत पांड्या के लिए जीत आसान तो नहीं थी, लेकिन उनके मुख्य प्रतिद्धंद्धी अशोक गुप्ता द्वारा की गई गलतियों पर गलतियों ने उनके लिए मुकाबले को आसान बना दिया था । कमल सांघवी के मामले में तो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उनकी जीत वास्तव में उनकी ही जीत है; लेकिन भरत पांड्या के मामले में सच यह है कि उनकी जीत वास्तव में अशोक गुप्ता की हार है और अशोक गुप्ता को भरत पांड्या ने नहीं, बल्कि खुद अशोक गुप्ता ने ही हराया है । इन दोनों चुनावों का एक बड़ा सबक यह है कि इन दोनों चुनावों में बड़े नेताओं की भूमिका नतीजों को प्रभावित करने में पूरी तरह फेल रही और यहाँ हुई हार/जीत उम्मीदवारों की अपनी अपनी 'कोशिशों' का ही नतीजा रही ।
कहने को तो कमल सांघवी को सुशील गुप्ता, शेखर मेहता और मनोज देसाई की तिकड़ी का समर्थन था; तथा भरत पांड्या को अशोक महाजन और राजेंद्र उर्फ़ राजा साबू के उम्मीदवार के रूप में देखा/पहचाना जा रहा था - लेकिन इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव की 'लड़ाई' जब निर्णायक दौर में पहुँच रही थी, तब इन नेताओं ने 'अपने' उम्मीदवारों का साथ छोड़ दिया था । राजा साबू ने तो चुनाव से 27 दिन पहले दिल्ली में पोलियो मीटिंग के आयोजन की आड़ में दीपक कपूर की उम्मीदवारी का झंडा उठा कर भरत पांड्या को बीच मँझदार में ही छोड़ दिया था । चुनाव की तारीख से ऐन पहले राजा साबू से मिले इस धोखे से भरत पांड्या की स्थिति काफी कमजोर हो गई थी, लेकिन उनकी खुशकिस्मती यह थी कि उनके मुकाबले पर अशोक गुप्ता थे - जो तमाम अनुकूलताओं में सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे थे और इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के चुनाव के संदर्भ में अपने खुद के दुश्मन साबित हो रहे थे ।
कमल सांघवी और भरत पांड्या की सफलता का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि इस सफलता को पाने के लिए उन्होंने बहुत पहले से तैयारी शुरू कर दी थी, और अपनी तैयारी में एक निरंतरता बनाए रखी थी - अन्य किसी उम्मीदवार की तरफ से लेकिन तैयारी की निरंतरता नहीं दिखाई पड़ी । वर्ष 2011 में कोलकाता में हुए जोन इंस्टीट्यूट के चेयरमैन के रूप में कमल सांघवी ने 'मछली की आँख' की तरह इंटरनेशनल पद पर निशाना लगाने की तैयारी की जो शुरुआत की, तो उसके बाद फिर कभी उन्हें चुप बैठे हुए नहीं देखा गया; भरत पांड्या सक्रियता और संलग्नता के मामले में कमल सांघवी के सामने तो नहीं टिकते हैं, लेकिन पिछले चुनाव में मनोज देसाई से पिछड़ जाने के बाद उन्होंने तुरंत से ही अगले चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी । भरत पांड्या की तैयारी की चाल हालाँकि कछुए की चाल की तरह थी, और उनके लिए चुनौती की बात यह थी कि उनके मुख्य प्रतिद्धंद्धी अशोक गुप्ता बीच बीच में खरगोश की तरह कुलाँचे भरते दिख रहे थे - भरत पांड्या के लिए लेकिन फायदे की बात यह रही कि अशोक गुप्ता 'कछुए और खरगोश की दौड़' की मशहूर कहानी वाले खरगोश का अनुसरण करते नजर आए । पिछले से पिछले वर्ष, जयपुर में हुए जोन इंस्टीट्यूट का चेयरमैन बना कर अशोक गुप्ता को तत्कालीन इंटरनेशनल डायरेक्टर मनोज देसाई ने एक बड़ा मौका दिया था - अशोक गुप्ता ने इंस्टीट्यूट का आयोजन किया भी बहुत शानदार तरीके से था और इसके लिए उन्होंने हर किसी से प्रशंसा भी बटोरी थी । इंटरनेशनल डायरेक्टर पद की चुनावी लड़ाई में इस प्रशंसा को लेकिन वह राजनीतिक समर्थन में नहीं बदल सके - बदल क्या नहीं सके; सच यह है कि उन्होंने इस संबंध में कोई प्रयास तक नहीं किया ।
अशोक गुप्ता को वास्तव में बहुत मौके मिले; इंटरनेशनल डायरेक्टर के रूप में मनोज देसाई की उन पर बहुत ही कृपा रही - इंटरनेशनल डायरेक्टर के अपने दो वर्षों के कार्यकाल के पहले वर्ष के जोन इंस्टीट्यूट का उन्होंने अशोक गुप्ता को चेयरमैन बनाया, और दूसरे वर्ष में दुबई में हुए जोन इंस्टीट्यूट का काउंसलर का पद तो उन्होंने अशोक गुप्ता को दिया ही, साथ ही और कई पद भी दिए । मनोज देसाई से मिलने वाली कृपा का इस्तेमाल करने में अशोक गुप्ता ने अपना जो रवैया दिखाया, उससे उन्होंने अपनी छोटी सोच का ही परिचय दिया । पिछली दिसंबर में दुबई में आयोजित हुए जोन इंस्टीट्यूट में अशोक गुप्ता ने अपने 'आदमियों' के रूप में पहचाने जाने वाले अजय काला, रत्नेश कश्यप, आशीष देसाई को तो विभिन्न कमेटियों में सटवाया - लेकिन अपनी खुन्नस के चलते अपने ही डिस्ट्रिक्ट के पूर्व गवर्नर अनिल अग्रवाल को किसी भी कमेटी में जगह नहीं लेने दी । रोटेरियंस के बीच अनिल अग्रवाल की पहचान अजय काला, रत्नेश कश्यप, आशीष देसाई से बहुत ज्यादा है - अशोक गुप्ता थोड़ा उदार रवैया अपनाते और बड़ी सोच का परिचय देते तो अनिल अग्रवाल की पहचान का फायदा उठा सकते थे; लेकिन वह अपनी छोटी सोच का शिकार होने से खुद को बचा नहीं सके । इस प्रसंग का यहाँ जिक्र करने का उद्देश्य यह बताना नहीं है कि अशोक गुप्ता, अनिल अग्रवाल की वजह से चुनाव हार गए; उद्देश्य सिर्फ यह बताना है कि एक बड़े चुनाव की तैयारी के दौरान अशोक गुप्ता कैसी कैसी बेवकूफियाँ कर रहे थे । अशोक गुप्ता की बदकिस्मती यह भी रही कि उन्हें नजदीकी और सलाहकार भी अपने जैसी छोटी सोच के लोग ही मिले - जो उन्हें बरगलाने और भड़काने में ही लगे रहे ।
रोटरी के बड़े नेताओं को डॉक्टरेट की टोपी 'पहनाने' के किस्से हों, या मनोज देसाई की कृपा पाने के उदाहरण हों - इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के उम्मीदवारों में अकेले अशोक गुप्ता ही 'बेहतर' स्थिति में थे; लेकिन इसके बावजूद वह नोमीनेटिंग कमेटी के सदस्यों का पर्याप्त समर्थन नहीं जुटा सके - तो इसकी वजहें उनके अपने व्यवहार और रवैये में ही हैं । उनके व्यवहार और रवैये का अध्ययन इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के आगामी उम्मीदवारों के लिए सबक का काम कर सकता है ।