गाजियाबाद
। पेट्स और सेट्स आयोजन में जुटे डिस्ट्रिक्ट के खास खास लोगों के बीच
अमित गुप्ता, मुकेश गुप्ता, रवि सचदेवा की तुलना में अशोक अग्रवाल का जैसा
जो प्रभाव दिखा, उसने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव के संदर्भ में
मामले को अशोक अग्रवाल के पक्ष में काफी हद तक झुका दिया है । रवि
सचदेवा और मुकेश गुप्ता की उम्मीदवारी को तो हालाँकि अभी कोई भी गंभीरता
से नहीं ले रहा है, लेकिन अमित गुप्ता अभी से सरेंडर करते नजर आयेंगे - यह
उम्मीद किसी को नहीं थी । पेट्स और सेट्स आयोजन में लोगों के बीच अमित
गुप्ता की उम्मीदवारी के अभियान की जो कमजोरी देखने को मिली, उसने उनकी
उम्मीदवारी के समर्थकों व शुभचिंतकों को बुरी तरह से निराश किया है । रोटरी
की चुनावी राजनीति में पेट्स के आयोजन का विशेष महत्त्व है । पेट्स को
डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के उम्मीदवारों के लॉन्चिंग पैड के रूप में
देखा/पहचाना जाता है । दरअसल पेट्स में डिस्ट्रिक्ट का अमूमन हर वह
व्यक्ति होता ही है, जिसकी डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में
महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । पेट्स डिस्ट्रिक्ट का पहला बड़ा कार्यक्रम
होता है; और चूँकि फर्स्ट इंप्रेशन को लास्ट इंप्रेशन भी माना जाता है -
इसलिए अपनी उम्मीदवारी को गंभीरता से लेने वाले उम्मीदवार पेट्स में अपनी
भूमिका को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं ।
सुभाष जैन के गवर्नर-काल के अभी हाल ही में संपन्न हुए पेट्स आयोजन में लेकिन अशोक अग्रवाल के अलावा अन्य किसी उम्मीदवार को पेट्स के आयोजन को अपनी उम्मीदवारी का लॉन्चिंग पैड बनाने की तैयारी के साथ नहीं देखा गया । रवि सचदेवा ने पेट्स से ठीक पहले अपने क्लब के एक कार्यक्रम के जरिये अपनी उम्मीदवारी को प्रमोट करने का उपक्रम किया था, जिससे उम्मीद बनी थी कि पेट्स में उनकी उम्मीदवारी के प्रमोशन का अच्छा सीन देखने को मिलेगा - लेकिन उनके नजदीकियों को यह देख/जान कर झटका लगा कि पेट्स से ठीक पहले हुए अपने क्लब के कार्यक्रम से बने प्रभाव का वह पेट्स में कोई फायदा नहीं उठा सके । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के अनुभवी खिलाड़ियों का मानना/कहना है कि एक उम्मीदवार के रूप में रवि सचदेवा की सक्रियता तुलनात्मक रूप से ठीक है, लेकिन उनकी सक्रियता में चूँकि कोई तारतम्य नहीं बन पा रहा है, इसलिए उनकी सक्रियता का कोई प्रभाव नहीं बन रहा है और इसीलिए चुनावी राजनीति से जुड़े लोग उनकी उम्मीदवारी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं । मुकेश गुप्ता लोगों के बीच ऐसे बेगानेपन से रहते हैं कि लोगों को हैरानी इस बात की है कि वह उम्मीदवार बने क्यों हुए हैं ? पेट्स में अमित गुप्ता की तरफ से अच्छा 'प्रदर्शन' होने की उम्मीद की जा रही थी; इसका कारण यह था कि पेट्स में सबसे ज्यादा उपस्थिति उनके क्लब के सदस्यों की होनी थी, जिसके चलते समझा जा रहा था कि उनके क्लब के सदस्य उनकी उम्मीदवारी के लिए करें भले ही कुछ न - उनके साथ दिखेंगे ही, तो भी एक उम्मीदवार के रूप में अमित गुप्ता को बल पहुँचायेंगे । अमित गुप्ता के लिए झटके वाली बात लेकिन यह रही कि उनके अपने क्लब के सदस्य उनसे ऐसे बच बच कर रहे कि लोगों को यह समझने/पहचानने में देर नहीं लगी कि अमित गुप्ता की उम्मीदवारी को तो अपने क्लब का समर्थन ही शायद ही मिले ।
इस माहौल का सीधा फायदा अशोक अग्रवाल को मिलता हुआ दिखा । दरअसल अशोक अग्रवाल को अपने अनुभव का फायदा मिला । अशोक अग्रवाल डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में चूँकि खासे सक्रिय रहे हैं, और जेके गौड़ की चुनावी सक्रियता के साथ तो उनका बहुत नजदीक का संबंध रहा है, इसलिए माना जाता है कि उन्हें चुनावी लटकों-झटकों का भी पता है और वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में पेट्स के मौके की महत्ता को भी जानते/समझते हैं । इसीलिए पेट्स में उनका रवैया लोगों को सुनियोजित और परफेक्ट लगा - एक चतुर खिलाड़ी की तरह उन्होंने पूरे आयोजन में बने विभिन्न मौकों का भरपूर फायदा उठाया । खास बात यह रही कि पेट्स की आयोजन-व्यवस्था की जो चौतरफा तारीफ हुई, उसका श्रेय सुभाष जैन के जिन जिन नजदीकियों को मिला - अशोक अग्रवाल उन लोगों में भी शामिल दिखे, और दूसरे नेताओं के साथ भी तालमेल बनाने तथा बनाए रखने का भी काम उन्होंने प्रमुखता से किया । अशोक अग्रवाल ने अपने आप को हर किसी के साथ जिस तरह से जोड़ा और 'दिखाया' - उससे एक उम्मीदवार के रूप में उन्हें लोगों के बीच प्रमुखता से पहचाना गया । रही सही कसर दूसरे उम्मीदवारों के कमजोर प्रदर्शन ने कर दी - उनके कमजोर प्रदर्शनों का सीधा फायदा अशोक अग्रवाल को मिला । फर्स्ट इंप्रेशन में अशोक अग्रवाल का पलड़ा भारी रहा है, लेकिन कहावत के अनुसार इसे लास्ट इंप्रेशन मानना जल्दबाजी करना होगा । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के घाघ नेता अभी अपने विकल्प खोले हुए हैं, जिस कारण चुनावी समीकरणों का खाका बनना अभी बाकी है । यूँ तो चुनावी समीकरणों का खाका बनने के बाद ही उम्मीदवारों की वास्तविक स्थिति स्पष्ट होगी; लेकिन अशोक अग्रवाल के मुकाबले दूसरे उम्मीदवार अभी से जिस तरह से कमजोर पड़ते दिख रहे हैं - उससे उम्मीद की जा रही है कि चुनावी समीकरणों का जो भी खाका बनेगा, वह अशोक अग्रवाल के लिए ज्यादा चुनौतीपूर्ण शायद नहीं होगा । फिर भी, पेट्स में बनाई गई अपनी बढ़त को आगे भी बनाये रखना अशोक अग्रवाल के लिए चुनौती तो है ही ।
सुभाष जैन के गवर्नर-काल के अभी हाल ही में संपन्न हुए पेट्स आयोजन में लेकिन अशोक अग्रवाल के अलावा अन्य किसी उम्मीदवार को पेट्स के आयोजन को अपनी उम्मीदवारी का लॉन्चिंग पैड बनाने की तैयारी के साथ नहीं देखा गया । रवि सचदेवा ने पेट्स से ठीक पहले अपने क्लब के एक कार्यक्रम के जरिये अपनी उम्मीदवारी को प्रमोट करने का उपक्रम किया था, जिससे उम्मीद बनी थी कि पेट्स में उनकी उम्मीदवारी के प्रमोशन का अच्छा सीन देखने को मिलेगा - लेकिन उनके नजदीकियों को यह देख/जान कर झटका लगा कि पेट्स से ठीक पहले हुए अपने क्लब के कार्यक्रम से बने प्रभाव का वह पेट्स में कोई फायदा नहीं उठा सके । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के अनुभवी खिलाड़ियों का मानना/कहना है कि एक उम्मीदवार के रूप में रवि सचदेवा की सक्रियता तुलनात्मक रूप से ठीक है, लेकिन उनकी सक्रियता में चूँकि कोई तारतम्य नहीं बन पा रहा है, इसलिए उनकी सक्रियता का कोई प्रभाव नहीं बन रहा है और इसीलिए चुनावी राजनीति से जुड़े लोग उनकी उम्मीदवारी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं । मुकेश गुप्ता लोगों के बीच ऐसे बेगानेपन से रहते हैं कि लोगों को हैरानी इस बात की है कि वह उम्मीदवार बने क्यों हुए हैं ? पेट्स में अमित गुप्ता की तरफ से अच्छा 'प्रदर्शन' होने की उम्मीद की जा रही थी; इसका कारण यह था कि पेट्स में सबसे ज्यादा उपस्थिति उनके क्लब के सदस्यों की होनी थी, जिसके चलते समझा जा रहा था कि उनके क्लब के सदस्य उनकी उम्मीदवारी के लिए करें भले ही कुछ न - उनके साथ दिखेंगे ही, तो भी एक उम्मीदवार के रूप में अमित गुप्ता को बल पहुँचायेंगे । अमित गुप्ता के लिए झटके वाली बात लेकिन यह रही कि उनके अपने क्लब के सदस्य उनसे ऐसे बच बच कर रहे कि लोगों को यह समझने/पहचानने में देर नहीं लगी कि अमित गुप्ता की उम्मीदवारी को तो अपने क्लब का समर्थन ही शायद ही मिले ।
इस माहौल का सीधा फायदा अशोक अग्रवाल को मिलता हुआ दिखा । दरअसल अशोक अग्रवाल को अपने अनुभव का फायदा मिला । अशोक अग्रवाल डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति में चूँकि खासे सक्रिय रहे हैं, और जेके गौड़ की चुनावी सक्रियता के साथ तो उनका बहुत नजदीक का संबंध रहा है, इसलिए माना जाता है कि उन्हें चुनावी लटकों-झटकों का भी पता है और वह डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव में पेट्स के मौके की महत्ता को भी जानते/समझते हैं । इसीलिए पेट्स में उनका रवैया लोगों को सुनियोजित और परफेक्ट लगा - एक चतुर खिलाड़ी की तरह उन्होंने पूरे आयोजन में बने विभिन्न मौकों का भरपूर फायदा उठाया । खास बात यह रही कि पेट्स की आयोजन-व्यवस्था की जो चौतरफा तारीफ हुई, उसका श्रेय सुभाष जैन के जिन जिन नजदीकियों को मिला - अशोक अग्रवाल उन लोगों में भी शामिल दिखे, और दूसरे नेताओं के साथ भी तालमेल बनाने तथा बनाए रखने का भी काम उन्होंने प्रमुखता से किया । अशोक अग्रवाल ने अपने आप को हर किसी के साथ जिस तरह से जोड़ा और 'दिखाया' - उससे एक उम्मीदवार के रूप में उन्हें लोगों के बीच प्रमुखता से पहचाना गया । रही सही कसर दूसरे उम्मीदवारों के कमजोर प्रदर्शन ने कर दी - उनके कमजोर प्रदर्शनों का सीधा फायदा अशोक अग्रवाल को मिला । फर्स्ट इंप्रेशन में अशोक अग्रवाल का पलड़ा भारी रहा है, लेकिन कहावत के अनुसार इसे लास्ट इंप्रेशन मानना जल्दबाजी करना होगा । डिस्ट्रिक्ट की चुनावी राजनीति के घाघ नेता अभी अपने विकल्प खोले हुए हैं, जिस कारण चुनावी समीकरणों का खाका बनना अभी बाकी है । यूँ तो चुनावी समीकरणों का खाका बनने के बाद ही उम्मीदवारों की वास्तविक स्थिति स्पष्ट होगी; लेकिन अशोक अग्रवाल के मुकाबले दूसरे उम्मीदवार अभी से जिस तरह से कमजोर पड़ते दिख रहे हैं - उससे उम्मीद की जा रही है कि चुनावी समीकरणों का जो भी खाका बनेगा, वह अशोक अग्रवाल के लिए ज्यादा चुनौतीपूर्ण शायद नहीं होगा । फिर भी, पेट्स में बनाई गई अपनी बढ़त को आगे भी बनाये रखना अशोक अग्रवाल के लिए चुनौती तो है ही ।