Thursday, April 26, 2018

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में पिछली बार अच्छे-खासे वोट पा कर भी असफल रहे हरीश चौधरी, अनिल अग्रवाल, रतन सिंह यादव, अजय सिंघल, अविनाश गुप्ता, मुकुल अग्रवाल आदि को इस बार भी बेवकूफियाँ करते देखते नए उम्मीदवारों को उत्साह मिला है

नई दिल्ली । नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में अब की बार अपनी जीत को पक्की करने के लिए हरीश कुमार चौधरी ने एक बड़ा काम यह किया है कि अपने नाम में उन्होंने 'जैन' शब्द और जोड़ लिया है । पिछले चुनाव में वह हरीश कुमार चौधरी के नाम से उम्मीदवार थे, और पहली वरीयता में 596 वोट पाकर वह 16वें नंबर पर थे, लेकिन फिर भी वह 'विजेता 13' की सूची में नहीं आ सके थे । अब की बार वह हरीश कुमार चौधरी जैन के नाम से उम्मीदवार होंगे, और उन्हें विश्वास है कि नाम में जैन शब्द जोड़ लेने से जैन चार्टर्ड एकाउंटेंट्स उन पर वोटों की ऐसी बारिश करेंगे कि चुनावी जीत उनसे बच कर निकल ही नहीं पाएगी । उनका विश्वास पूरा होगा या नहीं, यह तो बाद में पता चलेगा; अभी लेकिन यह जरूर पता चल रहा है कि नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल को अगले टर्म में कैसे कैसे पदाधिकारी मिल सकते हैं ? इससे भी मजेदार किस्सा अनिल अग्रवाल का है । पिछली बार 451 वोट पाकर अनिल अग्रवाल 23वें नंबर पर थे; और अगली बार के लिए अच्छी तैयारी कर रहे थे । पिछले वर्ष लेकिन एक टीवी चैनल के स्टिंग में काले धन को सफेद करने के चक्कर में पकड़े जाने के बाद उनकी उम्मीदवारी की संभावना पर ग्रहण लगता दिखा । काफी समय तक तो उन्होंने हालाँकि 'बहादुरी' वाले तेवर दिखाए, जिसका संदेश था कि बेईमान और अपराधी किस्म के लोग क्या चुनाव नहीं जीतते हैं; लेकिन धीरे-धीरे उनके तेवर ढीले पड़ते गए और उन्होंने लालू यादव से प्रेरणा लेकर उनके 'रास्ते' को अपनाया । जिस प्रकार लालू यादव ने बेईमानी व लूट-खसोट में पकड़े जाने के बाद अपनी पत्नी राबड़ी देवी को आगे कर दिया था, उसी तर्ज पर अनिल अग्रवाल ने अपनी पत्नी रोबिना अग्रवाल को आगे करने की तैयारी दिखाई है । उनके नजदीकियों का ही कहना/बताना है कि अगले चुनाव में अनिल अग्रवाल अपनी जगह अपनी पत्नी रोबिना अग्रवाल को चुनाव लड़वायेंगे - और इस तरह इंस्टीट्यूट को रोबिना अग्रवाल के रूप में एक राबड़ी देवी मिलेंगी ।
नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल का अगला चुनाव उन उम्मीदवारों के लिए बहुत खास है, जो पिछली बार जोरदार सक्रियता तथा अच्छे-खासे वोट पाकर भी सफल नहीं हो पाए थे । हरीश कुमार चौधरी और अनिल अग्रवाल के अलावा ऐसे लोगों में रतन सिंह यादव, अजय सिंघल, अविनाश गुप्ता, मुकुल अग्रवाल आदि का नाम लिया/सुना जा रहा है । पिछली बार भी इन्हें 'जीतने वाले' उम्मीदवारों के रूप में देखा/पहचाना जा रहा था और इनका प्रदर्शन अच्छा भी रहा था । इसी बिना पर इन्हें इस बार मजबूत उम्मीदवारों के रूप में देखा/पहचाना जा रहा है । किंतु मजे की बात यह है कि इनमें से कोई भी पिछली बार की अपनी जीत को हार में बदलने वाले कारणों की पहचान/पड़ताल करता और उन्हें दूर करने की कोशिश करता हुआ नजर नहीं आ रहा है । नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल की चुनावी राजनीति पर निगाह रखने वाले दिल्ली के अनुभवी नेताओं का मानना/कहना है कि यह लोग दरअसल यह समझते हैं कि इनके लिए अगला चुनाव वहाँ से शुरू होगा, जहाँ पिछला चुनाव खत्म हुआ था; जबकि सच यह है कि हर चुनाव में एक अलग केमिस्ट्री होती है । इस बात को हरित अग्रवाल के उदाहरण से समझा जा सकता है । वर्ष 2012 के चुनाव में हरित अग्रवाल पहली वरीयता में 605 वोट पाकर नौवें नंबर पर थे, और काउंसिल के सदस्य बने थे; लेकिन वर्ष 2015 के चुनाव में पहली वरीयता में कुल 422 वोट के साथ 24वें नंबर पर जा लुढ़के थे - और काउंसिल सदस्य होने के बावजूद चुनाव हार गए थे । इस तरह के कई लोगों के और उदाहरण मिल जायेंगे, जिन्हें पिछली बार की तुलना में कम वोट मिले होते हैं । ऐसे उदाहरण भी हैं, जबकि पिछली बार की तुलना में ज्यादा वोट तो मिले - लेकिन सफलता नहीं मिली । आलोक कृष्ण इसके सबसे बदकिस्मत उदाहरण हैं । वर्ष 2012 में पहली वरीयता में 625 वोट के साथ दसवें नंबर पर रहने वाले आलोक कृष्ण वर्ष 2015 में पहली वरीयता में 877 वोट के साथ पाँचवें नंबर पर तो पहुँच गए, लेकिन काउंसिल में नहीं पहुँच सके ।
इन उदाहरणों के बावजूद रतन सिंह यादव अब की बार तो अपनी जीत पक्की ही मान कर चल रहे हैं । अपनी जीत को पक्का तो वह पिछली बार भी मान रहे थे; जिसके चलते उन्होंने नतीजा आने से पूर्व ही पहले वर्ष में ही चेयरमैन बनने के लिए जुगाड़ बैठाना भी शुरू कर दिया था । इस अति-आत्मविश्वास के चलते वह दरअसल यह देख/समझ ही नहीं पाए कि उनके चुनाव अभियान में कैसी क्या बेवकूफियाँ हो रही हैं । उनका पूरा चुनाव अभियान झूठ और बड़बोले दावों पर टिका था । उनके एक घनघोर समर्थक जयदीप सिंह गुसाईं ने सोशल मीडिया में उनकी बढ़ाई करते हुए पेल दिया कि वह इंस्टीट्यूट की कई कमेटियों में रह चुके हैं । इस पर लोगों ने पूछ लिया कि कौन कौन सी कमेटियों में ? इसका जबाव देने में उक्त समर्थक के तो पसीने छूट गए । उसके बचाव में उतरते हुए रतन सिंह यादव ने तो लेकिन बेवकूफी की पराकाष्ठा को छू लिया । उन्होंने जबाव दिया कि अभी मैं चुनाव में व्यस्त हूँ; चुनाव पूरा हो जाने पर मैं बताऊँगा कि मैं इंस्टीट्यूट की कौन कौन सी कमेटियों में रहा हूँ । रतन सिंह यादव के इस जबाव के चलते लोगों के बीच उनकी खासी फजीहत हुई । अच्छे-खासे वोट पाने के बाद भी रतन सिंह यादव के असफल रहने में उक्त प्रसंग का कितना क्या रोल था, यह तो नहीं पता; लेकिन उक्त प्रसंग से यह जरूर पता चला कि उनका चुनाव-अभियान किस तरह के झूठों व बड़बोले दावों पर निर्भर था और अपने झूठ व बड़बोले दावों को 'मैनेज' करने की उनकी तैयारी भी बेवकूफीपूर्ण थी । यही नजारा अब की बार भी देखने को मिल रहा है । उनके नजदीकियों का ही कहना है कि वह या तो ज्ञान बाँटने का अहँकार दिखाते हैं (मानो दूसरे सभी अज्ञानी हैं) और या बेसिरपैर की बातों में लगे रहते हैं । कोढ़ में खाज वाली बात यह हुई कि उन्हें अजय सिंघल का संग-साथ और मिल गया है । यह दोनों दुनिया जहान की खराब बातों पर कमेंट करेंगे, लेकिन प्रोफेशन और इंस्टीट्यूट की गड़बड़ियों पर चुप्पी साधे रहेंगे और बेईमानों के साथ खड़े दिखेंगे । अजय सिंघल को भी पिछली बार अच्छे वोट मिले थे । इस बार भी वह जीतने की उम्मीद कर रहे हैं; लेकिन अपना चुनाव अभियान वह ऐसे उपदेशात्मक तरीके से चला रहे हैं कि उनके ही एक शुभचिंतक को उन्हें सलाह देनी पड़ी कि चुनाव दिसंबर में ही हैं । यह बताने/कहने के पीछे उक्त शुभचिंतक का इशारा शायद यही रहा है कि बेसिर पैर की बातें छोड़ों और अपने चुनाव को लेकर गंभीर हो जाओ ।
अविनाश गुप्ता थोड़े जहीन और महीन किस्म के व्यक्ति हैं और अपनी बातों व अपने व्यवहार से पढ़े-लिखे 'लगते' भी हैं । पिछली बार भी उन्हें जीतने वाले उम्मीदवार के रूप में देखा जा रहा था, और इस बार भी जीतने वाले संभावितों की लिस्ट में उनका नाम है । कई लोग यह कहते हुए भी सुने जाते हैं कि उनके जैसे लोगों को काउंसिल में होना ही चाहिए । लेकिन चुनाव लड़ने के नाम पर अविनाश गुप्ता की तरफ से जिस तरह की हरकतें होती देखी/सुनी जा रही हैं, उससे उनके शुभचिंतकों के बीच भी निराशा है । कुछेक को तो कहते हुए भी सुना गया है कि चुनाव अभियान में अच्छे-भले लोगों की भी अक्ल पता नहीं कहाँ घास चरने चली जाती है । पिछली बार जीतते जीतते रह गए मुकुल अग्रवाल को भी इस बार जीतने की संभावना वाले उम्मीदवारों में देखा/गिना जा रहा है, लेकिन उनके नजदीकियों का भी रोना है कि इस बार की चुनौतियों पर मुकुल अग्रवाल का ध्यान ही नहीं है । मुकुल अग्रवाल के सामने सबसे बड़ी चुनौती गौरव गर्ग ही हैं, जो पिछली बार उनकी उम्मीदवारी के बड़े समर्थक थे - लेकिन इस बार खुद उम्मीदवार हो गए हैं । ऐसे में, पिछली बार पहली वरीयता के 610 वोट पाकर पंद्रहवें नंबर की उन्हें जो जगह मिली थी, उस जगह को ही बचा कर रख पाना उनके लिए बड़ी मुसीबत और चुनौती की बात है । इससे निपटने के लिए लेकिन वह कुछ खास प्रयास करते हुए नजर नहीं आ रहे हैं । पिछली बार के चुनाव में अच्छी स्थितियों में रहने वाले उम्मीदवारों को इस बार अभी तक ढीले-ढाले रवैये में देखते और पिछली बार जैसी ही बेवकूफियाँ करते देखते पिछली बार ज्यादा पीछे रहे तथा नए उम्मीदवारों के बीच जिस तरह का उत्साह देखने को मिल रहा है, उसने नॉर्दर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनावी परिदृश्य को अभी से रोमांचक बना दिया है ।