पुणे । वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए
प्रस्तुत यशवंत कसार की उम्मीदवारी को कामयाब बनाने/बनवाने के लिए
इंस्टीट्यूट की सेंट्रल काउंसिल के सदस्य एसबी जावरे ने जिस तरह से कमर कस
ली है, उसने पुणे में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में खासी गर्मी पैदा
कर दी है । उल्लेखनीय है कि यशवंत कसार के अलावा वेस्टर्न इंडिया रीजनल
काउंसिल के लिए सत्यनारायण मूंदड़ा, रेखा धमनकर व अरुण गिरी के नाम चर्चा
में हैं । सत्यनारायण मूंदड़ा रीजनल काउंसिल में अपना छटवाँ वर्ष, यानि
दूसरा टर्म पूरा कर रहे हैं, और तीसरे टर्म के लिए चुनावी मैदान में होंगे -
इसलिए उनकी जीत तो पक्की ही मानी जा रही है । यशवंत कसार, रेखा धमनकर व
अरुण गिरी पिछले तीन वर्षों में क्रमशः पुणे ब्रांच के चेयरमैन रहे हैं -
यशवंत कसार पिछले टर्म के आखिरी वर्ष में, तथा रेखा धमनकर व अरुण गिरी
मौजूदा टर्म के पहले दो वर्षों में । अरुण गिरी वर्ष 2009 में सेंट्रल
काउंसिल का चुनाव लड़ चुके हैं, जिसमें उन्हें सफलता तो नहीं मिली थी -
लेकिन उनका चुनावी प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा था । पुणे से रीजनल काउंसिल के
लिए दो सीट निकलना आसान होता रहा है; पिछली बार तीन सीट निकालने के लिए
कोशिशें तो खूब हुईं थीं - लेकिन उसमें कामयाबी नहीं मिल सकी थी । वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए पुणे से निकलने
वाली दो सीटों पर सत्यनारायण मूंदड़ा के साथ अरुण गिरी का दावा माना/पहचाना
जा रहा है, इसलिए यशवंत कसार की उम्मीदवारी की नाव को पार लगाने के लिए एसबी जावरे को उनकी उम्मीदवारी की बागडोर अपने हाथ में लेना पड़ी है ।
यशवंत
कसार को पुणे में एसबी जावरे के 'आदमी' के रूप में देखा/पहचाना जाता है ।
पिछली बार, पुणे ब्रांच का चेयरमैन रहते हुए यशवंत कसार ने एसबी जावरे का
आशीर्वाद लेते हुए वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के लिए पहले तो अपनी
उम्मीदवारी प्रस्तुत की थी, लेकिन कुछ ही दिनों में एसबी जावरे ने सेंट्रल
काउंसिल के लिए प्रस्तुत अपनी उम्मीदवारी की सफलता को सुरक्षित बनाने के
लिए यशवंत कसार की उम्मीदवारी की बलि ले ली थी । इसलिए यशवंत कसार की
उम्मीदवारी को इस बार सफल बनाना एसबी जावरे अपनी नैतिक जिम्मेदारी मान रहे
हैं । पुणे में एसबी जावरे की जो स्थिति है, उसमें उनका आशीर्वाद और उनका
'आदमी' होने की पहचान ही यशवंत कसार की जीत की गारंटी हो सकता था - लेकिन
सत्यनारायण मूंदड़ा के चुनावी मैदान में डटे रहने और अरुण गिरी की उम्मीदवारी के प्रस्तुत होने से यशवंत कसार के लिए मुश्किलें खड़ी हो गई हैं ।
पिछली बार चुनावी वर्ष में यशवंत कसार पुणे ब्रांच के चेयरमैन थे, इसलिए
लोगों के बीच उनकी पहचान और पैठ थी; लेकिन पिछले करीब दो वर्षों से वह
चूँकि सीन से गायब हैं, और चुनावी राजनीति में चूँकि 'दिखने' वाले को ही
लोग पहचानते हैं इसलिए यशवंत कसार के लिए इस बार का चुनावी मुकाबला खासा
मुश्किल है । एसबी जावरे ने उन्हें हालाँकि इंस्टीट्यूट की 'कैपेसिटी
बिल्डिंग ऑफ मेंबर्स इन प्रैक्टिस' कमेटी में को-ऑप्ट तो करवा दिया है, लेकिन
उक्त कमेटी में को-ऑप्ट सदस्य रहते हुए यशवंत कसार के लिए वास्तव में ऐसा कुछ कर पाने की कोई संभावना होगी - जिसका वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल के चुनाव में वह कोई फायदा उठा सकें, इसमें उनके नजदीकियों
और समर्थकों को ही संदेह है ।
अरुण गिरी
के आक्रामक चुनावी रवैये ने पुणे में चुनावी समीकरणों को जिस तरह से
प्रभावित किया है, उसने पुणे के चुनावी परिदृश्य को रोचक बना दिया है । अरुण
गिरी ने वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में सबसे ज्यादा वोट प्राप्त करने
का अपने लिए जो लक्ष्य निर्धारित और घोषित किया है, उसने दूसरे उम्मीदवारों
के बीच और खलबली मचाई है । दरअसल अरुण गिरी के इस लक्ष्य निर्धारण को
पुणे में चुनावी राजनीति में दिलचस्पी लेने वाले लोगों ने काफी गंभीरता से
लिया है । इसका कारण है कि अरुण गिरी अभी भले ही ब्रांच की मैनेजिंग टीम
में हों, लेकिन चुनावी राजनीति के संदर्भ में उनकी पहचान काफी बड़ी और
व्यापक है । करीब दो वर्ष पहले हुए ब्रांच के चुनाव में उन्हें चुनाव में
कुल वोटों का एक-चौथाई हिस्सा मिला था । इस तथ्य का विशेष अर्थ और महत्त्व
है । यह कोई छोटी बात नहीं है । ब्रांच के चुनाव में 14 उम्मीदवार थे;
जिनमें 13 उम्मीदवारों के बीच करीब 75 प्रतिशत वोट बँटे थे, और करीब 25
प्रतिशत वोट अकेले अरुण गिरी को मिले थे । ऐसा नतीजा तभी पाया जा सकता
है, जब हर जातीय समूह और वर्ग के वोटों तक पहुँच व स्वीकार्यता हो । पुणे
में इंस्टीट्यूट की चुनावी राजनीति में कोई मराठा, तो कोई मारवाड़ी, कोई
गुजराती, कोई महिला, कोई नए व युवा वोटों पर निर्भर करता है - तब एक अकेले
अरुण गिरी ऐसे उम्मीदवार रहे जिन्हें हर समूह और हर वर्ग से समर्थन मिला ।
एक बार सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ लेने के कारण अरुण गिरी की पुणे से
बाहर के लोगों के बीच भी अच्छी पहचान और पैठ है । वर्ष 2009 में अरुण गिरी
ने जब सेंट्रल काउंसिल का चुनाव लड़ा था, तब वह पहली बार लोगो के सामने आए थे - हालाँकि तब भी पहली वरीयता में ही उन्हें करीब 850 वोट मिले थे, और एलिमिनेट होने के समय उन्हें मिलने वाले वोटों की गिनती एक हजार के पार हो गई थी । उनकी इसी बैक-ग्राउंड
को देखते हुए वेस्टर्न इंडिया रीजनल काउंसिल में सबसे ज्यादा वोट पाने के
उनके लक्ष्य-निर्धारण को गंभीरता से लिया/देखा जा रहा है । इस स्थिति ने लेकिन यशवंत कसार के लिए - और यशवंत कसार के जरिये वास्तव में
एसबी जावरे के लिए भारी मुसीबत खड़ी कर दी है । देखना दिलचस्प होगा कि यशवंत
कसार को कामयाबी दिलवाने के लिए एसबी जावरे क्या क्या तरकीबें लगाते हैं ?