नई
दिल्ली । डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद पर दीपक गुप्ता की जोरदार जीत
पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रमेश अग्रवाल के लिए भारी मुसीबत बन गई है । हर कोई दीपक गुप्ता के सामने हुई
अशोक जैन की करारी हार के लिए रमेश अग्रवाल को ही जिम्मेदार ठहरा रहा है ।
मजे की बात यह है कि जीतने वाले पक्ष के साथ-साथ हारने वाले पक्ष के लोगों
का भी एक स्वर से कहना है कि अशोक जैन को रमेश अग्रवाल की कारगुजारियों की
सजा मिली है । दीपक गुप्ता लगातार दो बार हारने के बाद तीसरी बार उम्मीदवार
बने थे, और इस नाते से लोगों के बीच उनके प्रति सहानुभूति थी - इस
सहानुभूति को रमेश अग्रवाल के प्रति लोगों की नाराजगी ने और पुख्ता किया । अशोक जैन ने अपनी सक्रियता से लोगों के बीच पैठ तो अच्छी बनाई और दीपक गुप्ता तथा उनके समर्थकों की तरफ से बेवकूफियाँ भी खूब हुईं, लेकिन रमेश अग्रवाल के प्रति लोगों की नाराजगी का पलड़ा सब पर भारी रहा - और अंततः यही नाराजगी अशोक जैन पर भारी पड़ी । अशोक जैन की खासी बुरी पराजय के लिए जिस तरह से हर कोई रमेश अग्रवाल को जिम्मेदार ठहरा रहा है, उससे संकेत मिल रहा है कि इस वर्ष के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर नॉमिनी पद के चुनाव ने रमेश अग्रवाल पर खासी भारी चोट की है तथा उनके लिए आने वाला समय बहुत मुश्किल साबित होने जा रहा है ।
उल्लेखनीय
है कि रमेश अग्रवाल के प्रति लोगों की नाराजगी तभी फूट पड़ी थी, जब दिल्ली
का उम्मीदवार लाने का तर्क देकर उन्होंने अपने ही क्लब के अशोक जैन की
उम्मीदवारी प्रस्तुत कर दी थी । रमेश अग्रवाल के क्लब के ही शरत जैन ने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर पद का कार्यभार सँभाला और रमेश अग्रवाल के ही क्लब के अशोक जैन की उम्मीदवारी प्रस्तुत हो गई - इसकी लोगों के बीच काफी प्रतिकूल प्रतिक्रिया पैदा हुई । हालात बिगड़ते देख रमेश अग्रवाल ने अपने आप को पीछे तो कर लिया था; और उम्मीद की थी कि इससे लोगों की नाराजगी दूर करने में
मदद मिलेगी । अशोक जैन और उनकी उम्मीदवारी के दूसरे समर्थकों ने तरकीब
लगाई कि अशोक जैन की उम्मीदवारी के अभियान से रमेश अग्रवाल को दूर रखा
जायेगा, तो रमेश अग्रवाल के प्रति लोगों की नाराजगी से होने वाले नुकसान से
बचा जा सकेगा - किंतु अब जब नतीजा आया तो पता चला कि उक्त तरकीब काम नहीं
आई है । दरअसल तरकीब को फेल करने का काम भी रमेश अग्रवाल ने ही किया -
अशोक जैन की उम्मीदवारी के अभियान से दूर रह कर रमेश अग्रवाल ने लोगों के
घाव भरने का काम तो किया; लेकिन इंटरनेशनल डायरेक्टर पद का चुनाव करने वाली
नोमीनेटिंग कमेटी के लिए अपनी उम्मीदवारी की बात चला कर उन घावों को फिर से हरा कर दिया । इससे डिस्ट्रिक्ट के लोगों के बीच यही संदेश गया कि रमेश अग्रवाल को यदि सबक नहीं सिखाया गया, तो यह तो डिस्ट्रिक्ट को अपनी जेब में ही रख लेगा । रमेश अग्रवाल को सबक सिखाने की लोगों की कोशिश ही अशोक जैन को ले बैठी ।
अशोक
जैन के तरफदारों ने दरअसल रमेश अग्रवाल के प्रति लोगों की नाराजगी के
'तापमान' को पहचानने/समझने में चूक कर दी । वह दीपक गुप्ता और उनकी
उम्मीदवारी के समर्थक नेताओं द्धारा की जाने वाली गलतियों और बेवकूफियों पर
ही निर्भर रहे; इसके अलावा, उन्हें यह भी उम्मीद रही कि पिछले रोटरी वर्ष
में दीपक गुप्ता और उनकी उम्मीदवारी के समर्थक नेताओं का विरोध करने वाले
लोग इस वर्ष भी उनके विरोध में रहेंगे; और इस तरह रमेश अग्रवाल के प्रति
लोगों की नाराजगी कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकेगी । लेकिन उनकी यह उम्मीद
पूरी नहीं हो सकी । दरअसल अशोक जैन की उम्मीदवारी रमेश अग्रवाल की चौधराहट का प्रतीक बन गई थी । पिछले रोटरी वर्ष में मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल की हरकतों के चलते
दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी का विरोध करने वाले कई लोग इस वर्ष शुरू से ही
कह/बता रहे थे कि वह दीपक गुप्ता को पसंद तो नहीं करते हैं, लेकिन इस वर्ष
उन्हें मजबूरी में उनका समर्थन करना पड़ेगा - अन्यथा रमेश अग्रवाल की
मनमानियाँ व बदतमीजियाँ और बढ़ जायेंगी । जेके गौड़ ने जिस तरह से रमेश
अग्रवाल के व्यवहार की शिकायतें करते हुए अपनी नाराजगी व्यक्त की, उसके
कारण भी रमेश अग्रवाल के प्रति लोगों का रोष संगठित और निर्णायक बन गया ।
कई लोगों का कहना रहा कि डिस्ट्रिक्ट के लोगों ने पिछले वर्ष मुकेश अरनेजा
और सतीश सिंघल की नेतागिरी को धूल चटाई थी, रमेश अग्रवाल उसे अपनी जीत के
रूप में देखने लगे थे और अपने आप को डिस्ट्रिक्ट का चौधरी समझने लगे थे - इसलिए इस बार रमेश अग्रवाल को उनकी राजनीतिक 'औकात' दिखाना जरूरी था ।
दीपक गुप्ता ने इस बार एक होशियारी यह की कि अपने चुनाव अभियान से मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल को दूर रखने का भरसक प्रयास किया । जिन मौकों पर यह दोनों सक्रिय हुए/दिखे, दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए मुसीबत बनते और नुकसान पहुँचाते हुए ही नजर आए; इस कारण से दीपक गुप्ता इनके भरोसे रहने की बजाए अकेले ही जुटे । कई बार लोगों को लगा भी कि मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल ने जैसे दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी का साथ छोड़ दिया है; और इस 'लगने' ने दीपक गुप्ता की मदद ही की । पिछले वर्ष के और इस वर्ष के चुनावी नतीजे ने एक बात साफ कर दी है कि उम्मीदवार जिन नेताओं के भरोसे रहते हैं, उन नेताओं से उन्हें फायदा कुछ नहीं मिलता है - उलटे नुकसान ही उठाना पड़ता है : पिछले वर्ष दीपक गुप्ता को मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल की करतूतों का खामियाजा भुगतना पड़ा था और सुभाष जैन की जीत किसी नेता की नहीं बल्कि सिर्फ उनकी अपनी जीत थी; इस बार अशोक जैन को रमेश अग्रवाल की हरकतों का शिकार होना पड़ा है और दीपक गुप्ता की जीत किसी नेता-फेता की नहीं बल्कि उनकी अपनी जीत है । चुनावी लड़ाई में नेताओं की भूमिका के अप्रासांगिक होने का यह संकेत डिस्ट्रिक्ट में नया माहौल बनाने में सहायक हो - शायद !
दीपक गुप्ता ने इस बार एक होशियारी यह की कि अपने चुनाव अभियान से मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल को दूर रखने का भरसक प्रयास किया । जिन मौकों पर यह दोनों सक्रिय हुए/दिखे, दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी के लिए मुसीबत बनते और नुकसान पहुँचाते हुए ही नजर आए; इस कारण से दीपक गुप्ता इनके भरोसे रहने की बजाए अकेले ही जुटे । कई बार लोगों को लगा भी कि मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल ने जैसे दीपक गुप्ता की उम्मीदवारी का साथ छोड़ दिया है; और इस 'लगने' ने दीपक गुप्ता की मदद ही की । पिछले वर्ष के और इस वर्ष के चुनावी नतीजे ने एक बात साफ कर दी है कि उम्मीदवार जिन नेताओं के भरोसे रहते हैं, उन नेताओं से उन्हें फायदा कुछ नहीं मिलता है - उलटे नुकसान ही उठाना पड़ता है : पिछले वर्ष दीपक गुप्ता को मुकेश अरनेजा और सतीश सिंघल की करतूतों का खामियाजा भुगतना पड़ा था और सुभाष जैन की जीत किसी नेता की नहीं बल्कि सिर्फ उनकी अपनी जीत थी; इस बार अशोक जैन को रमेश अग्रवाल की हरकतों का शिकार होना पड़ा है और दीपक गुप्ता की जीत किसी नेता-फेता की नहीं बल्कि उनकी अपनी जीत है । चुनावी लड़ाई में नेताओं की भूमिका के अप्रासांगिक होने का यह संकेत डिस्ट्रिक्ट में नया माहौल बनाने में सहायक हो - शायद !