Wednesday, June 27, 2018

लायंस क्लब्स इंटरनेशनल में मल्टीपल डिस्ट्रिक्ट 321 की तरफ से डायरेक्टर बनने की जेपी सिंह की तैयारी को रोकने की अरविंद संगल की कोशिश फेल तो हुई ही, अदालत से अरविंद संगल को कड़ी फटकार और खानी पड़ी

नई दिल्ली । जेपी सिंह को इंटरनेशनल डायरेक्टर बनने से रोकने की कोशिश में अरविंद संगल को अदालत से जो फटकार पड़ी है, उससे एक बार फिर साबित हो गया है कि झूठ और 'ठगी' के सहारे ज्यादा दिनों तक राजनीति नहीं की जा सकती है । लायंस इंटरनेशनल की कन्वेंशन में इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए जेपी सिंह की उम्मीदवारी प्रस्तुत होने के खिलाफ बीती 31 मई को अदालत से स्टे ले कर अरविंद संगल ने जो बड़ा 'धमाका' करने का भ्रम फैलाया था, उसका नकली धुँआ 25 जून को आए एक अन्य अदालती फैसले से हवा हो गया है । इस मामले में गंभीर पहलू यह सामने आया है कि मामला सिर्फ कानूनी हार-जीत का ही नहीं है, कानूनी मामले में 'ठगी' करने का भी है । अरविंद संगल यदि सिर्फ कानूनी लड़ाई हारे होते, तो बात ज्यादा गंभीर नहीं बनती; अरविंद संगल के लिए फजीहत की बात यह हुई कि कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए उन्होंने जिस तरह के दाँव-पेंच इस्तेमाल किए, उसके चलते उन्हें अदालत की फटकार भी खानी पड़ी । अदालती फैसले में अरविंद संगल पर अदालत को गुमराह करने तथा अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग करने का गंभीर आरोप लगाया गया है । स्वयं अदालत के इस आरोप से साबित होता है कि अरविंद संगल एक पहले से ही हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे, जिसमें कुछ देर के लिए उन्होंने भले ही सनसनी पैदा कर दी थी - लेकिन जिसमें अंततः उन्हें कुछ मिलना नहीं था । लगता है कि जेपी सिंह और उनके पीछे खड़ी लीडरशिप का विरोध कर रहे तेजपाल खिल्लन और सुशील अग्रवाल को भी इस बात का आभास था, और इसीलिए वह अरविंद संगल से दूरी न सिर्फ बना चुके थे, बल्कि 'दिखा' भी रहे थे । जेपी सिंह को इंटरनेशनल डायरेक्टर बनने से रोकने की लड़ाई में अरविंद संगल को लायंस लोगों के बीच 'चोट्टे' के रूप में कुख्यात एक पूर्व डिस्ट्रिक्ट गवर्नर का ही सहयोग मिल पाया ।
25 जून के अदालती फैसले में अरविंद संगल को इस बात के लिए फटकार लगाई गई कि जिन तथ्यों और तर्कों के आधार पर जेपी सिंह को मिले मल्टीपल एंडोर्समेंट को रद्द करवाने की कार्रवाई करीब एक वर्ष पहले अदालती फैसले में असफल हो गई थी, उन्हीं तथ्यों और तर्कों के साथ करीब एक वर्ष बाद फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया गया और पिछली अदालती कार्रवाई को छिपाया गया । उल्लेखनीय है कि पिछले लायन वर्ष में मल्टीपल डिस्ट्रिक्ट 321 में इंटरनेशनल डायरेक्टर पद के लिए हुए एंडोर्समेंट को लेकर खासे आरोप और हंगामे रहे थे; और इस हंगामे का कभी पर्दे के पीछे से तो कभी सामने आकर नेतृत्व करते हुए तेजपाल खिल्लन मामले को अदालत भी ले गए थे, लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि जेपी सिंह को मिले एंडोर्समेंट को अदालती कार्रवाई के जरिए रोका नहीं जा सकेगा - इसलिए जेपी सिंह के मामले को छोड़ दिया गया और मान लिया गया कि जेपी सिंह इंटरनेशनल डायरेक्टर बन ही जायेंगे । इस बीच लीडरशिप के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे पूर्व इंटरनेशनल प्रेसीडेंट अशोक मेहता तथा पूर्व इंटरनेशनल डायरेक्टर राजू मनवानी के साथ विभिन्न कारणों से तेजपाल खिल्लन और सुशील अग्रवाल की नजदीकी बनी; अशोक मेहता और राजू मनवानी ने संतोष शेट्टी को इंटरनेशनल डायरेक्टर चुनवाने की लड़ाई के जरिये लीडरशिप को टक्कर देने की तैयारी की हुई थी । समझा जाता है कि उन्हें लगा कि जेपी सिंह को अदालती मामले में फँसा कर वह संतोष शेट्टी को कामयाबी दिलवा देंगे, और इसीलिए मल्टीपल डिस्ट्रिक्ट 321 में जेपी सिंह के एंडोर्समेंट के मामले को फिर से 'जिंदा' कर दिया गया । यह काम अरविंद संगल को मोहरा बना कर किया गया । पिछले करीब एक महीने में पड़ी अदालती तारीखों में कई मौकों पर अरविंद संगल जिस तरह अनुपस्थित दिखे, उससे लोगों को आभास मिला कि यह मुकदमा अरविंद संगल को मोहरा बना कर वास्तव में 'कोई और' लड़ रहा है । यह 'कोई और' इतना होशियार भी था कि उसे पता था कि मामले में कुछ होना नहीं है और इसीलिए वह सामने भी नहीं आया ।
अरविंद संगल को मोहरा बना कर लड़ी गई इस लड़ाई में कोशिश सिर्फ यह 'दिख' रही थी कि अदालत को गुमराह करके तथा अदालती प्रक्रिया का दुरूपयोग करके जेपी सिंह का रास्ता यदि रोक लिया जाये, तो हो सकता है कि संतोष शेट्टी का 'काम' बन जाए । 25 जून के फैसले से साबित हुआ कि अदालत ने इस चालबाजी को पकड़ लिया । अदालती फैसले में अरविंद संगल को इस बात के लिए फटकार लगाई गई कि मामले से जुड़े सारे तथ्य पिछले करीब एक वर्ष से सभी की जानकारी में थे, और यदि अरविंद संगल को सचमुच न्याय चाहिए था तो वह पिछले एक वर्ष से क्या कर रहे थे; और वह 31 मई को ही अदालत क्यों आए, जो कि छुट्टियाँ शुरू होने से पहले का अंतिम कार्यदिवस था । इसमें भी, मामले से जुड़ी पिछली अदालती कार्रवाई और उसमें हुए फैसले को छिपाया गया । 25 जून के अदालती फैसले ने इस बात की पोल भी खोली है कि लीडरशिप से लड़ने की कोशिश करने वाले नेताओं के पास न तो पर्याप्त तथ्य हैं, और न उन तथ्यों को इस्तेमाल करने की समझ है और न लड़ाई में निरंतरता बनाए रखने का हौंसला है । इसके चलते वह अपनी कोई मजबूत टीम भी नहीं बना पाते हैं, और इस कारण जरूरत पड़ने पर मौकापरस्त व चोट्टे किस्म के लोगों पर उन्हें निर्भर होना पड़ता है । ऐसे में, लीडरशिप से बार बार उन्हें 'पिटना' पड़ता है, और लीडरशिप की मनमानियों तथा बेईमानियों के खिलाफ होने या हो सकने वाली लड़ाई कमजोर पड़ती है । 25 जून के अदालती फैसले में अरविंद संगल के लिए तो 'प्याज भी खाने और जूते भी खाने' वाला किस्सा ही चरितार्थ हुआ है ।